Hindi Essay Writing – जलवायु परिवर्तन (Climatic Changes)

जलवायु परिवर्तन पर निबंध
 
इस लेख में हम जलवायु परिवर्तन पर निबंध लिखेंगे | इस लेख हम जलवायु परिवर्तन का अर्थ, जलवायु परिवर्तन को प्रभावित करने वाले कारक, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और निपटने हेतु वैश्विक प्रयास के बारे में जानेगे |
 

 

 

 

जलवायु 

किसी स्थान पर अनेक वर्षो में मापी गई मौसम की औसत दशा को जलवायु कहते है | किसी स्थान की जलवायु उसकी स्थिति, ऊँचाई, समुद्र से दूरी तथा उच्चावच पर निर्भर करती है | इसलिए हमें भारत की जलवायु में क्षेत्रीय विभिन्नता का अनुभव होता हैं | 

भारत की जलवायु को मोटे तौर पर मानसूनी जलवायु कहा जाता है | जलवायु के अंतर्गत किसी भी स्थान के वायुमंडलीय दबाव, तापमान, नमी, हवा की गतिविधियों, बादलों आदि दीर्घकालीन मौसम संबंधी आंकड़े शामिल होते हैं, जिनका अध्ययन कर राष्ट्र विशेष के रहन-सहन, खान-पान, कृषि अर्थव्यवस्था आदि का निर्धारण किया जाता है |
 

 

 

जलवायु परिवर्तन 

जब किसी क्षेत्र के औसत मौसम में परिवर्तन आता है तो उसे जलवायु परिवर्तन कहते हैं। अर्थात दशकों, सदियों या उससे अधिक के समय अंतराल में जलवायु में होने वाले दीर्घकालीन परिवर्तन को जलवायु परिवर्तन कहते हैं | ग्लेशियरो का पिघलना, अतिवृष्टि, सूखा पड़ना, सुनामी आदि जलवायु परिवर्तन का ही परिणाम हैं | जलवायु परिवर्तन को किसी एक स्थान विशेष में भी महसूस किया जा सकता है एवं संपूर्ण विश्व में भी। यदि वर्तमान संदर्भ में बात करें तो इसका प्रभाव लगभग संपूर्ण विश्व में देखने को मिल रहा है।

पृथ्वी के समग्र इतिहास में यहाँ की जलवायु कई बार परिवर्तित हुई है एवं जलवायु परिवर्तन की अनेक घटनाएँ सामने आई हैं।

पृथ्वी का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक बताते हैं कि पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है। पृथ्वी का तापमान बीते 100 वर्षों में 1 डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ गया है। पृथ्वी के तापमान में यह परिवर्तन संख्या की दृष्टि से काफी कम हो सकता है, परंतु इस प्रकार के किसी भी परिवर्तन का मानव जाति पर बड़ा असर हो सकता है।
 

 

 

जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक

जलवायु में परिवर्तन का कोई निश्चित कारण नहीं हैं, कुछ प्राकतिक कारण जो प्रकृति निर्मित होते हैं, दूसरे मानवीय कारण | प्राकृतिक कारणों की अपेक्षा मानव जनित कारणों से जलवायु पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता हैं | 

ग्रीनहाउस गैसें

पृथ्वी के चारों ओर ग्रीनहाउस गैस की एक परत बनी हुई है, इस परत में मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसें शामिल हैं। ग्रीनहाउस गैसों की यह परत पृथ्वी की सतह पर तापमान संतुलन को बनाए रखने में आवश्यक है और विश्लेषकों के अनुसार, यदि यह परत नहीं होगी तो पृथ्वी का तापमान काफी कम हो जाएगा। आधुनिक युग में जैसे-जैसे मानवीय गतिविधियाँ बढ़ रही हैं, वैसे-वैसे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भी वृद्धि हो रही है और जिसके कारण वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है। मुख्य ग्रीनहाउस गैसें : – 

  • कार्बन डाइऑक्साइड – इसे सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रीनहाउस गैस माना जाता है और यह प्राकृतिक व मानवीय दोनों ही कारणों से उत्सर्जित होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार, कार्बन डाइऑक्साइड का सबसे अधिक उत्सर्जन ऊर्जा हेतु जीवाश्म ईंधन को जलाने से होता है। आँकड़े बताते हैं कि औद्योगिक क्रांति के पश्चात् वैश्विक स्तर पर कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखने को मिली है।
  • मीथेन – जैव पदार्थों का अपघटन मीथेन का एक बड़ा स्रोत है। उल्लेखनीय है कि मीथेन, कार्बन डाइऑक्साइड से अधिक प्रभावी ग्रीनहाउस गैस है, परंतु वातावरण में इसकी मात्रा कार्बन डाइऑक्साइड की अपेक्षा कम है।
  • क्लोरोफ्लोरोकार्बन – इसका प्रयोग मुख्यतः रेफ्रिजरेंट और एयर कंडीशनर आदि में किया जाता है एवं ओज़ोन परत पर इसका काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

 

भूमि के उपयोग में परिवर्तन 

वाणिज्यिक या निजी प्रयोग हेतु वनों की कटाई भी जलवायु परिवर्तन का बड़ा कारक है। पेड़ न सिर्फ हमें फल और छाया देते हैं, बल्कि ये वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड जैसी महत्त्वपूर्ण ग्रीनहाउस गैस को अवशोषित भी करते हैं। वर्तमान समय में जिस तरह से वृक्षों की कटाई की जा रही हैं वह काफी चिंतनीय है, क्योंकि पेड़ वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने वाले प्राकृतिक यंत्र के रूप में कार्य करते हैं और उनकी समाप्ति के साथ हम वह प्राकृतिक यंत्र भी खो देंगे।

शहरीकरण  

शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के कारण लोगों के जीवन जीने के तौर-तरीकों में काफी परिवर्तन आया है। विश्व भर की सड़कों पर वाहनों की संख्या काफी अधिक हो गई है। जीवन शैली में परिवर्तन ने खतरनाक गैसों के उत्सर्जन में काफी अधिक योगदान दिया है।
 

 

 

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव

जलवायु परिवर्तन का हमारे जीवन पर बहुत गहरा दुष्प्रभाव देखते को मिल रहा हैं | आँकड़े दर्शाते हैं कि 19वीं सदी के अंत से अब तक पृथ्वी की सतह का औसत तापमान लगभग 1.62 डिग्री फॉरनहाइट (अर्थात् लगभग 0.9 डिग्री सेल्सियस) बढ़ गया है। इसके अतिरिक्त पिछली सदी से अब तक समुद्र के जल स्तर में भी लगभग 8 इंच की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। आँकड़े स्पष्ट करते हैं कि यह समय जलवायु परिवर्तन की दिशा में गंभीरता से विचार करने का है।

जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव इस प्रकार हैं –

  • उच्च तापमान – पावर प्लांट, ऑटोमोबाइल, वनों की कटाई और अन्य स्रोतों से होने वाला ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन पृथ्वी को अपेक्षाकृत काफी तेज़ी से गर्म कर रहा है। पिछले 150 वर्षों में वैश्विक औसत तापमान लगातार बढ़ रहा है और वर्ष 2016 को सबसे गर्म वर्ष के रूप में रिकॉर्ड किया गया है। गर्मी से संबंधित मौतों और बीमारियों, बढ़ते समुद्र स्तर, तूफान की तीव्रता में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के कई अन्य खतरनाक परिणामों में वृद्धि के लिये बढ़े हुए तापमान को भी एक कारण माना जा सकता है। 

एक शोध में पाया गया है कि यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के विषय को गंभीरता से नहीं लिया गया और इसे कम करने के प्रयास नहीं किये गए तो सदी के अंत तक पृथ्वी की सतह का औसत तापमान 3 से 10 डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ सकता है।

  • वर्षा के पैटर्न में बदलाव – पिछले कुछ दशकों में बाढ़, सूखा और बारिश आदि की अनियमितता काफी बढ़ गई है। यह सभी जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप ही हो रहा है। कुछ स्थानों पर बहुत अधिक वर्षा हो रही है, जबकि कुछ स्थानों पर पानी की कमी से सूखे की संभावना बन गई है।
  • समुद्र जल के स्तर में वृद्धि – वैश्विक स्तर पर ग्लोबल वार्मिंग के दौरान ग्लेशियर पिघल जाते हैं और समुद्र का जल स्तर ऊपर उठता है जिसके प्रभाव से समुद्र के आस-पास के द्वीपों के डूबने का खतरा भी बढ़ जाता है। मालदीव जैसे छोटे द्वीपीय देशों में रहने वाले लोग पहले से ही वैकल्पिक स्थलों की तलाश में हैं।
  • वन्यजीव प्रजाति का नुकसान – तापमान में वृद्धि और वनस्पति पैटर्न में बदलाव ने कुछ पक्षी प्रजातियों को विलुप्त होने के लिये मजबूर कर दिया है। विशेषज्ञों के अनुसार, पृथ्वी की एक-चौथाई प्रजातियाँ वर्ष 2050 तक विलुप्त हो सकती हैं। वर्ष 2008 में ध्रुवीय भालू को उन जानवरों की सूची में जोड़ा गया था जो समुद्र के स्तर में वृद्धि के कारण विलुप्त हो सकते थे।
  • रोगों का प्रसार और आर्थिक नुकसान – जानकारों ने अनुमान लगाया है कि भविष्य में जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियाँ और अधिक बढ़ेंगी तथा इन्हें नियंत्रित करना मुश्किल होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के आँकड़ों के अनुसार, पिछले दशक से अब तक हीट वेव्स (Heat waves) के कारण लगभग 150,000 से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है।
  • जंगलों में आग – जलवायु परिवर्तन के कारण लंबे समय तक चलने वाली हीट वेव्स ने जंगलों में लगने वाली आग के लिये उपयुक्त गर्म और शुष्क परिस्थितियाँ उत्पन्न की हैं। जंगलों में आग लगने से वन्य प्राणियों के आवास नष्ट हुए हैं जिससे वे शहरो की ओर पलायन कर रहे हैं |  

ब्राज़ील स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस रिसर्च के आँकड़ों के मुताबिक, जनवरी 2019 से अब तक ब्राज़ील के अमेज़न वन, कुल 74,155 बार जंगलो में लगी आग का सामना कर चुके हैं। साथ ही यह भी सामने आया है कि अमेज़न वन में आग लगने की घटना बीते वर्ष (2018) से 85 प्रतिशत तक बढ़ गई हैं।

  • खाद्य सुरक्षा पर खतरा – जलवायु परिवर्तन के कारण फसल की पैदावार कम होने से खाद्यान्न समस्या उत्पन्न हो सकती है, साथ ही भूमि निम्नीकरण जैसी समस्याएँ भी सामने आ सकती हैं। एशिया और अफ्रीका पहले से ही आयातित खाद्य पदार्थों पर निर्भर हैं। ये क्षेत्र तेज़ी से बढ़ते तापमान के कारण सूखे की चपेट में आ सकते हैं। वातावरण में कार्बन की मात्रा बढ़ने से फसलों की पोषण गुणवत्ता में कमी आ रही है। 

उदाहरण के लिये उच्च कार्बन वातावरण के कारण गेहूँ की पौष्टिकता में प्रोटीन का 6% से 13%, जस्ते का 4% से 7% और लोहे का 5% से 8% तक की कमी आ रही है। यूरोप में गर्मी की लहर की वजह से फसल की पैदावार गिर रही है। ब्लूमबर्ग एग्रीकल्चर स्पॉट इंडेक्स (Bloomberg Agriculture Spot Index) 9 फसलों का एक मूल्य मापक है जो मई में एक दशक के सबसे निचले स्तर पर आ गया था। इस सूचकांक की अस्थिरता खाद्यान्न सुरक्षा की अस्थिरता को प्रदर्शित करती है।
 

 

 

जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु वैश्विक प्रयास

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) –  जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल जलवायु परिवर्तन से संबंधित वैज्ञानिक आकलन करने हेतु संयुक्त राष्ट्र का एक निकाय है। जिसमें 195 सदस्य देश हैं। 

  • इसे संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) और विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) द्वारा 1988 में स्थापित किया गया था।
  • इसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन, इसके प्रभाव और भविष्य के संभावित जोखिमों के साथ-साथ अनुकूलन तथा जलवायु परिवर्तन को कम करने हेतु नीति निर्माताओं को रणनीति बनाने के लिये नियमित वैज्ञानिक आकलन प्रदान करना है।
  • आई पी सी सी का आकलन सभी स्तरों पर सरकारों को वैज्ञानिक सूचनाएँ प्रदान करता है जिसका इस्तेमाल जलवायु के प्रति उदार नीति विकसित करने के लिये किया जा सकता है।
  • आई पी सी सी का आकलन जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये अंतर्राष्ट्रीय वार्ताओं में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (UNFCCC)  –  यह एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है जिसका उद्देश्य वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करना है। यह समझौता जून, 1992 के पृथ्वी सम्मेलन के दौरान किया गया था। विभिन्न देशों द्वारा इस समझौते पर हस्ताक्षर के बाद 21 मार्च, 1994 को इसे लागू किया गया।

  • वर्ष 1995 से लगातार UNFCCC की वार्षिक बैठकों का आयोजन किया जाता है। इसके तहत ही वर्ष 1997 में बहुचर्चित क्योटो समझौता (Kyoto Protocol) हुआ और विकसित देशों द्वारा ग्रीनहाउस गैसों को नियंत्रित करने के लिये लक्ष्य तय किया गया।
  •  क्योटो प्रोटोकॉल के तहत 40 औद्योगिक देशों को अलग सूची एनेक्स-1 में रखा गया है।
  • UNFCCC की वार्षिक बैठक को कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज़ (COP) के नाम से जाना जाता है।

पेरिस समझौता – यदि सरल शब्दों में कहा जाए तो पेरिस समझौता जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। वर्ष 2015 में 30 नवंबर से लेकर 11 दिसंबर तक 195 देशों की सरकारों के प्रतिनिधियों ने पेरिस में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये संभावित नए वैश्विक समझौते पर चर्चा की। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य के साथ संपन्न 32 पृष्ठों एवं 29 लेखों वाले पेरिस समझौते को ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिये एक ऐतिहासिक समझौते के रूप में मान्यता प्राप्त है।
 

 

 

जलवायु परिवर्तन और भारत के प्रयास

जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना, जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना का शुभारंभ वर्ष 2008 में किया गया था। इसका उद्देश्य जनता के प्रतिनिधियों, सरकार की विभिन्न एजेंसियों, वैज्ञानिकों, उद्योग और समुदायों को जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरे और इससे मुकाबला करने के उपायों के बारे में जागरूक करना है। इस कार्ययोजना में मुख्यतः 8 मिशन शामिल हैं:

  1. राष्ट्रीय सौर मिशन
  2. विकसित ऊर्जा दक्षता के लिये राष्ट्रीय मिशन
  3. सुस्थिर निवास पर राष्ट्रीय मिशन
  4. राष्ट्रीय जल मिशन
  5. सुस्थिर हिमालयी पारिस्थितिक तंत्र हेतु राष्ट्रीय मिशन
  6. हरित भारत हेतु राष्ट्रीय मिशन
  7. सुस्थिर कृषि हेतु राष्ट्रीय मिशन
  8. जलवायु परिवर्तन हेतु रणनीतिक ज्ञान पर राष्ट्रीय मिशन

इसके अलावा भारत के राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों द्वारा एसएपीसीसी (State Action Plans on Climate Change-SAPCC) पर राज्य कार्ययोजना तैयार की गई है जो जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना के उद्देश्यों के ही अनुरूप है।
 

 

 

उपसंहार 

विश्व भर में जलवायु परिवर्तन का विषय सर्वविदित है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान में जलवायु परिवर्तन वैश्विक समाज के समक्ष मौजूद सबसे बड़ी चुनौती है एवं इससे निपटना वर्तमान समय की बड़ी आवश्यकता बन गई है। किन्तु यदि शीध्र ही कुछ नही किया गया तो वो दिन दूर नहीं जब ये धरती आग का गोला बन जाएगी और इस पृथ्वी पर जीवन का नामो निशान नहीं बचेगा | हम धरती का सीना फाड़कर सोना, चाँदी, हीरे, खनिज निकालते हैं, खाने के लिए फल, अनाज, सब्जी, रहने के लिए जमीन, घर बनाने के लिए लकड़ी आदि | 

पर बदले में हम इसे क्या देते हैं ? कारखानों से निकला धुआं, हानिकारक गैसें, अपशिष्ट पदार्थ, प्लास्टिक, पर्यावरण प्रदूषण | और यही कारण हैं कि आज प्राकृतिक आपदाएं बढती जा रही हैं, जैसे ज्वालामुखी विस्फोट, बढ़ता तापमान, बाढ़, भूकंप, सुनामी आदि|  

इसलिए हमें सचेत हो जाना चाहिए, यदि अब भी नहीं संभले तो कही ऐसा ना हो कि बहुत देर हो जाए | अतः हमें मनुष्य होने के नाते अपने इस दायित्व को समझना चाहिए और जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए अपने स्तर पर प्रयास करना चाहिए,  इको फ्रेंडली बनना चाहिए | 
 

 

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