Tum Kab Jaoge Atithi Class 9 Summary Sparsh Chapter 3 Explanation, Question Answers

Tum Kab Jaoge Atithi Class 9

NCERT Class 9 Sparsh Hindi Chapter 3 Tum Kab Jaoge Atithi Summary, Explanation with Video and Question Answers

 

Tum Kab Jaoge Atithi Class 9 – तुम कब जाओगे अतिथि CBSE Class 9 Hindi Sparsh Lesson 3 summary with a detailed explanation of the lesson ‘Tum Kab Jaoge Atithi’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary and all the exercises, Question and Answers given at the back of the lesson यहाँ हम हिंदी कक्षा 9 ”स्पर्श – भाग 1” के पाठ 3 “तुम कब जाओगे, अतिथि” के पाठ प्रवेश, पाठ सार, पाठ व्याख्या, कठिन शब्दों के अर्थ और NCERT पुस्तक के अनुसार प्रश्नों के उत्तर इन सभी बारे में जानेंगे

 

कक्षा 9 स्पर्श भाग 1 पाठ 3 “तुम कब जाओगे, अतिथि”

तुम कब जाओगे अतिथि पाठ प्रवेश

इस पाठ में लेखक कहना चाहता है कि अतिथि हमेशा भगवान् नहीं होते क्योंकि लेखक के घर पर आया हुआ अतिथि चार दिन होने पर भी जाने का नाम नहीं ले रहा है। पाँचवे दिन लेखक अपने मन में अतिथि से कहता है कि यदि पाँचवे दिन भी अतिथि नहीं गया तो शायद लेखक अपनी मर्यादा भूल जाएगा। इस पाठ में लेखक ने अपनी परेशानी को पाठको से साँझा किया है –

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Tum Kab Jaoge Atithi Class 9 Video Explanation

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तुम कब जाओगे अतिथि पाठ सार (Summary)

लेखक अपने घर में आए अतिथि को अपने मन में संबोधित करते हुए कहता है कि आज अतिथि को लेखक के घर में आए हुए चार दिन हो गए हैं और लेखक के मन में यह प्रश्न बार-बार आ रहा है कि ‘तुम कब जाओगे, अतिथि? लेखक अपने मन में अतिथि को कहता है कि वह जहाँ बैठे बिना संकोच के सिगरेट का धुआँ उड़ा रहा है, उसके ठीक सामने एक कैलेंडर है।
लेखक कहता है कि पिछले दो दिनों से वह अतिथि को कलैंडर दिखाकर तारीखें बदल रहा है। ऐसा लेखक ने इसलिए कहा है क्योंकि लेखक अतिथि की सेवा करके थक गया है। पर चौथे दिन भी अतिथि के जाने की कोई संभावना नहीं लग रही थी। लेखक अपने मन में अतिथि को कहता है कि अब तुम लौट जाओ, अतिथि! तुम्हारे जाने के लिए यह उच्च समय अर्थात हाईटाइम बिल्कुल सही वक्त है। क्या उसे उसकी मातृभूमि नहीं पुकारती?
अर्थात क्या उसे उसके घर की याद नहीं आती। लेखक अपने मन में ही अतिथि से कहता है कि उस दिन जब वह आया था तो लेखक का हृदय ना जाने किसी अनजान डर के (किसी अन्जान डर से )धड़क उठा था। अंदर-ही-अंदर कहीं लेखक का बटुआ काँप गया।
उसके बावजूद एक प्यार से भीगी हुई मुस्कराहट के साथ लेखक ने अतिथि को गले लगाया था और मेरी लेखक की पत्नी ने अतिथि को सादर नमस्ते की थी।
अतिथि को याद होगा कि दो सब्ज़ियों और रायते के अलावा उन्होंने मीठा भी बनाया था। इस सारे उत्साह और लगन के मूल में लेखक को एक उम्मीद थी। यह उम्मीद थी कि दूसरे दिन किसी रेल से एक शानदार अतिथि सत्कार की छाप अपने हृदय में ले कर अतिथि चला जायेगा। पर ऐसा नहीं हुआ! दूसरे दिन भी अतिथि मुस्कान बनाए लेखक के घर में ही बने रहे।
लेखक अपने मन में ही अतिथि से कहता है कि उन्होंने अपने दुःख को पी लिया और प्रसन्न बने रहे। लेखक ने फिर दोपहर के भोजन को लंच की गरिमा प्रदान की और रात्रि को अतिथि को सिनेमा दिखाया।
लेखक के सत्कार का यह आखिरी छोर था, जिससे आगे लेखक कभी किसी के लिए नहीं बढे़। इसके तुरंत बाद लेखक को अनुमान था कि विदाई का वह प्रेम से ओत-प्रोत भीगा हुआ क्षण आ जाना चाहिए था, जब अतिथि विदा होता और लेखक उसे स्टेशन तक छोड़ने जाता।
पर अतिथि ने ऐसा नहीं किया। वह लेखक के घर पर ही रहा।लेखक अपने मन में ही अतिथि से कहता है कि तीसरे दिन की सुबह अतिथि ने लेखक से कहा कि वह धोबी को कपड़े देना चाहता है।
लेखक अतिथि से कहता है कि कपड़ों को किसी लॉण्ड्री में दे देते हैं इससे वे जल्दी धुल जाएंगे, लेखक के मन में एक विश्वास पल रहा था कि शायद अतिथि को अब जल्दी जाना है। लॉण्ड्री पर दिए कपडे़ धुलकर आ गए और अतिथि अब भी लेखक के घर पर ही था। लेखक अपने मन ही अतिथि से कहता है कि उसके भारी भरकम शरीर से सलवटें पड़ी हुई चादर बदली जा चुकी है परन्तु अभी भी अतिथि यहीं है।
अतिथि को देखकर फूट पड़नेवाली मुस्कराहट धीरे-धीरे फीकी पड़कर अब कही गायब हो गई है। ठहाकों के रंगीन गुब्बारे, जो कल तक इस कमरे के आकाश में उड़ते थे, अब दिखाई नहीं पड़ते।
परिवार, बच्चे, नौकरी, फिल्म, राजनीति, रिश्तेदारी, तबादले, पुराने दोस्त, परिवार-नियोजन, मँहगाई, साहित्य और यहाँ तक कि आँख मार-मारकर लेखक और अतिथि ने पुरानी प्रेमिकाओं का भी जिक्र कर लिया और अब एक चुप्पी है।
ह्रदय की सरलता अब धीरे-धीरे बोरियत में बदल गई है। पर अतिथि जा नहीं रहा। लेखक के मन में बार-बार यह प्रश्न उठ रहा है-तुम कब जाओगे, अतिथि? कल लेखक की पत्नी ने धीरे से लेखक से पूछा था,”कब तक टिकेंगे ये?” लेखक ने कंधे उचका कर कहा कि वह क्या कह सकता है? लेखक की पत्नी ने अब गुस्से से कहा कि वह अब खिंचड़ी बनाएगी क्योंकि वह खाने में हल्की रहेगी।
लेखक ने भी हाँ कह दिया।लेखक अपने मन ही कहता है कि अतिथि के सत्कार करने की उसकी क्षमता अब समाप्त हो रही थी। डिनर से चले थे, खिचड़ी पर आ गए थे। अब भी अगर अतिथि नहीं जाता तो हमें लेखक और उसकी पत्नी को उपवास तक जाना होगा। लेखक चाहता है कि अतिथि अब चला जाए।
लेखक अपने मन ही कहता है कि लेखक जानता है कि अतिथि को लेखक के घर में अच्छा लग रहा है। दूसरों के यहाँ अच्छा ही लगता है। अगर बस चलता तो सभी लोग दूसरों के यहाँ रहते, पर ऐसा नहीं हो सकता। लेखक अपने मन ही अतिथि से कहता है कि अपने खर्राटों से एक और रात गुँजित करने के बाद कल जो किरण अतिथि के बिस्तर पर आएगी वह अतिथि के लेखक के घर में आगमन के बाद पाँचवें सूर्य की परिचित किरण होगी।
लेखक अतिथि से उम्मीद करता है कि सूर्य की किरणें जब चूमेगी और अतिथि घर लौटने का सम्मानपूर्ण निर्णय ले लेगा । लेखक अपने मन ही अतिथि से कहता है कि लेखक जानता है कि अतिथि देवता होता है, पर आखिर लेखक भी मनुष्य ही है।
लेखक कोई अतिथि की तरह देवता नहीं है। लेखक कहता है कि एक देवता और एक मनुष्य अधिक देर साथ नहीं रहते। देवता दर्शन देकर लौट जाता है। लेखक अतिथि को लौट जाने के लिए कहता है और कहता है कि इसी में अतिथि का देवत्व सुरक्षित रहेगा। लेखक अंत में दुखी हो कर अतिथि से कहता है उफ, तुम कब जाओगे, अतिथि?

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तुम कब जाओगे अतिथि पाठ व्याख्या

पाठ – आज तुम्हारे आगमन के चतुर्थ दिवस पर यह प्रश्न बार-बार मन में घुमड़ रहा है-तुम कब जाओगे, अतिथि?
तुम जहाँ बैठे निस्संकोच सिगरेट का धुआँ फेंक रहे हो, उसके ठीक सामने एक कैलेंडर है। देख रहे हो ना! इसकी तारीखें अपनी सीमा में नम्रता से फड़फड़ाती रहती हैं। विगत दो दिनों से मैं तुम्हें दिखाकर तारीखें बदल रहा हूँ। तुम जानते हो, अगर तुम्हें हिसाब लगाना आता है कि यह चैथा दिन है, तुम्हारे सतत आतिथ्य का चैथा भारी दिन! पर तुम्हारे जाने की कोई संभावना प्रतीत नहीं होती।
लाखों मील लंबी यात्रा करने के बाद वे दोनों एस्ट्रॉनॉट्स भी इतने समय चाँद पर नहीं रुके थे, जितने समय तुम एक छोटी-सी यात्रा कर मेरे घर आए हो। तुम अपने भारी चरण-कमलों की छाप मेरी ज़मीन पर अंकित कर चुके, तुमने एक अंतरंग निजी संबंध मुझसे स्थापित कर लिया, तुमने मेरी आर्थिक सीमाओं की बैंजनी चट्टान देख ली; तुम मेरी काफ़ी मिट्टी खोद चुके।
अब तुम लौट जाओ, अतिथि! तुम्हारे जाने के लिए यह उच्च समय अर्थात हाईटाइम है। क्या तुम्हें तुम्हारी पृथ्वी नहीं पुकारती?

शब्दार्थ
चतुर्थ दिवस –
चार दिन
निस्संकोच –
बिना संकोच के
एस्ट्रॉनॉट्स –
अन्तरिक्ष यात्री
अंतरंग –
घनिष्ट

व्याख्या – लेखक अपने घर में आए अतिथि को अपने मन में संबोधित करते हुए कहता है कि आज अतिथि को लेखक के घर में आए हुए चार दिन हो गए हैं और लेखक के मन में यह प्रश्न बार-बार आ रहा है कि ‘तुम कब जाओगे, अतिथि? लेखक अपने मन में अतिथि को कहता है कि वह जहाँ बैठे बिना संकोच के सिगरेट का धुआँ उड़ा रहा है, उसके ठीक सामने एक कैलेंडर है। अतिथि को दिख रहा होगा कि उस कैलेंडर की तारीखें अपनी सीमा जानती हैं और अपना वक्त आते ही अपने नर्म स्वभाव के रहते बदलने के लिए आतुर रहती हैं। लेखक कहता है कि पिछले दो दिनों से वह अतिथि को कैलेंडर दिखाकर तारीखें बदल रहा है। लेखक अपने मन में अतिथि को कहता है कि अगर उसे हिसाब लगाना आता है कि यह चौथा दिन है। अतिथि की लगातार आवभगत का यह चौथा भारी दिन है। ऐसा लेखक ने इसलिए कहा है क्योंकि लेखक अतिथि की सेवा करके थक गया है। पर चौथे दिन भी अतिथि के जाने की कोई संभावना नहीं लग रही थी। लाखों मील लंबी यात्रा करने के बाद वे दोनों अन्तरिक्ष यात्री भी इतने समय चाँद पर नहीं रुके थे, जितने समय लेखक के अतिथि एक छोटी-सी यात्रा कर लेखक के घर आए थे। लेखक अपने मन में अतिथि को कहता है कि अतिथि ने अपने भारी चरण-कमलों की छाप लेखक की ज़मीन पर अंकित कर ली थी, उसने एक घनिष्ट निजी संबंध लेखक से स्थापित कर लिया, उसने लेखक की आर्थिक सीमाओं को देख लिया था। लेखक अपने मन में अतिथि को कहता है कि अब तुम लौट जाओ, अतिथि! तुम्हारे जाने के लिए यह उच्च समय अर्थात हाईटाइम बिल्कुल सही वक्त है। क्या उसे उसकी मातृभूमि नहीं पुकारती? अर्थात क्या उसे उसके घर की याद नहीं आती।

पाठ – उस दिन जब तुम आए थे, मेरा हृदय किसी अज्ञात आशंका से धड़क उठा था। अंदर-ही-अंदर कहीं मेरा बटुआ काँप गया। उसके बावजूद एक स्नेह-भीगी मुसकराहट के साथ मैं तुमसे गले मिला था और मेरी पत्नी ने तुम्हें सादर नमस्ते की थी। तुम्हारे सम्मान में ओ अतिथि, हमने रात के भोजन को एकाएक उच्च-मध्यम वर्ग के डिनर में बदल दिया था। तुम्हें स्मरण होगा कि दो सब्ज़ियों और रायते के अलावा हमने मीठा भी बनाया था। इस सारे उत्साह और लगन के मूल में एक आशा थी। आशा थी कि दूसरे दिन किसी रेल से एक शानदार मेहमाननवाज़ी की छाप अपने हृदय में ले तुम चले जाओगे। हम तुमसे रुकने के लिए आग्रह करेंगे, मगर तुम नहीं मानोगे और एक अच्छे अतिथि की तरह चले जाओगे। पर ऐसा नहीं हुआ! दूसरे दिन भी तुम अपनी अतिथि-सुलभ मुसकान लिए घर में ही बने रहे। हमने अपनी पीड़ा पी ली और प्रसन्न बने रहे। स्वागत-सत्कार के जिस उच्च बिंदु पर हम तुम्हें ले जा चुके थे, वहाँ से नीचे उतर हमने फिर दोपहर के भोजन को लंच की गरिमा प्रदान की और रात्रि को तुम्हें सिनेमा दिखाया। हमारे सत्कार का यह आखिरी छोर है, जिससे आगे हम किसी के लिए नहीं बढे़। इसके तुरंत बाद भावभीनी विदाई का वह भीगा हुआ क्षण आ जाना चाहिए था, जब तुम विदा होते और हम तुम्हें स्टेशन तक छोड़ने जाते। पर तुमने ऐसा नहीं किया।

शब्दार्थ
अज्ञात आशंका –
अन्जान डर
स्नेह-भीगी –
प्यार से भीगी
भावभीनी –
प्रेम से ओत-प्रोत

व्याख्या – लेखक अपने मन ही अतिथि से कहता है कि उस दिन जब वह आया था तो लेखक का हृदय ना जाने किसी अनजान डर से धड़क उठा था। अंदर-ही-अंदर कहीं लेखक का बटुआ काँप गया। उसके बावजूद एक प्यार से भीगी हुई मुस्कुराहट के साथ लेखक ने अतिथि को गले लगाया था और लेखक की पत्नी ने अतिथि को सादर नमस्ते की थी। लेखक अपने मन ही अतिथि से कहता है कि उसके सम्मान में हमने उन्हें रात के भोजन को एकाएक उच्च-मध्यम वर्ग के डिनर में बदल दिया था। अतिथि को स्मरण याद होगा कि दो सब्ज़ियों और रायते के अलावा उन्होंने मीठा भी बनाया था। इस सारे उत्साह और लगन के मूल में लेखक को एक उम्मीद थी। यह उम्मीद थी कि दूसरे दिन किसी रेल से एक शानदार अतिथि सत्कार की छाप अपने हृदय में ले कर अतिथि चला जायेगा। लेखक अपने मन ही अतिथि से कहता है कि वे अतिथि को रुकने के लिए आग्रह करेंगे, मगर अतिथि नहीं मानेगा और एक अच्छे अतिथि की तरह चले जाएगा। पर ऐसा नहीं हुआ! दूसरे दिन भी अतिथि मुस्कान बनाए लेखक के घर में ही बने रहे। लेखक अपने मन ही अतिथि से कहता है कि उन्होंने अपने दुःख को पी लिया और प्रसन्न बने रहे। स्वागत-सत्कार के जिस उच्च बिंदु पर लेखक अतिथि को ले जा चुके थे, वहाँ से नीचे उतर लेखक ने फिर दोपहर के भोजन को लंच की गरिमा प्रदान की और रात्रि को अतिथि को सिनेमा दिखाया। लेखक के सत्कार का यह आखिरी छोर था, जिससे आगे लेखक कभी किसी के लिए नहीं बढे़। इसके तुरंत बाद लेखक को अनुमान था कि विदाई का वह प्रेम से ओत-प्रोत भीगा हुआ क्षण आ जाना चाहिए था, जब अतिथि विदा होता और लेखक उसे स्टेशन तक छोड़ने जाता। पर अतिथि ने ऐसा नहीं किया। वह लेखक के घर पर ही रहा।

पाठ – तीसरे दिन की सुबह तुमने मुझसे कहा,”मैं धोबी को कपड़े देना चाहता हूँ।”
यह आघात अप्रत्याशित था और इसकी चोट मार्मिक थी। तुम्हारे सामीप्य की वेला एकाएक यों रबर की तरह खिंच जाएगी, इसका मुझे अनुमान न था। पहली बार मुझे लगा कि अतिथि सदैव देवता नहीं होता, वह मानव और थोडे़ अंशों में राक्षस भी हो सकता है।
“किसी लॉण्ड्री पर दे देते हैं, जल्दी धुल जाएँगे।” मैंने कहा। मन-ही-मन एक विश्वास पल रहा था कि तुम्हें जल्दी जाना है।
“कहाँ है लॉण्ड्री?”
“चलो चलते हैं।” मैंने कहा और अपनी सहज बनियान पर औपचारिक कुर्ता डालने लगा।
“कहाँ जा रहे हैं?” पत्नी ने पूछा।
‘इनके कपड़े लॉण्ड्री पर देने हैं।” मैंने कहा।
मेरी पत्नी की आँखें एकाएक बड़ी-बड़ी हो गईं। आज से कुछ बरस पूर्व उनकी ऐसी आँखें देख मैंने अपने अकेलेपन की यात्रा समाप्त कर बिस्तर खोल दिया था। पर अब जब वे ही आँखें बड़ी होती हैं तो मन छोटा होने लगता है। वे इस आशंका और भय से बड़ी हुई थीं कि अतिथि अधिक दिनों ठहरेगा।

शब्दार्थ
आघात अप्रत्याशित –
अनसोचे प्रहार
औपचारिक –
दिखावटी

व्याख्या – लेखक अपने मन ही अतिथि से कहता है कि तीसरे दिन की सुबह अतिथि ने लेखक से कहा कि वह धोबी को कपड़े देना चाहता है। लेखक के लिए यह सुनना अनसोचे प्रहार की तरह था और इसकी चोट बहुत मार्मिक थी।
अतिथि से निकटता का यह पल एकाएक यों रबर की तरह खिंच जाएगा, इसका लेखक को कोई अनुमान न था। पहली बार लेखक को लगा कि अतिथि हमेशा देवता नहीं होता, वह मानव और थोडे़ अंशों में राक्षस भी हो सकता है। लेखक अतिथि से कहता है कि कपड़ों को किसी लॉण्ड्री में दे देते हैं इससे वे जल्दी धुल जाएंगे, लेखक के मन में एक विश्वास पल रहा था कि शायद अतिथि को अब जल्दी जाना है। अतिथि ने लेखक से पूछा कि लॉण्ड्री कहाँ है? लेखक ने हमेशा की तरह अपनी बनियान और दिखावटी कुर्ता पहना और कहा कि चलो चलते हैं। इतने में लेखक की पत्नी ने पूछा कि वे लोग कहाँ जा रहे हैं? पत्नी के प्रश्न का उत्तर देते हुए लेखक कहता है कि अतिथि के कपडे लॉण्ड्री में देने हैं। लेखक के इतना कहते ही लेखक की पत्नी की आँखें एकाएक बड़ी-बड़ी हो गईं। लेखक कहता है कि आज से कुछ बरस पूर्व उसकी ऐसी आँखें देख लेखक ने उससे शादी की थी। पर अब जब वे ही आँखें बड़ी होती हैं तो लेखक का मन छोटा होने लगता है। लेखक कहता है कि आज वे इस आशंका और भय से बड़ी हुई थीं कि अतिथि शायद अधिक दिनों तक ठहरेगा।

पाठ – और आशंका निर्मूल नहीं थी, अतिथि! तुम जा नहीं रहे। लॉण्ड्री पर दिए कपडे़ धुलकर आ गए और तुम यहीं हो। तुम्हारे भरकम शरीर से सलवटें पड़ी चादर बदली जा चुकी और तुम यहीं हो। तुम्हें देखकर फूट पड़नेवाली मुसकराहट धीरे-धीरे फीकी पड़कर अब लुप्त हो गई है। ठहाकों के रंगीन गुब्बारे, जो कल तक इस कमरे के आकाश में उड़ते थे, अब दिखाई नहीं पड़ते। बातचीत की उछलती हुई गेंद चर्चा के क्षेत्रा के सभी कोनलों से टप्पे खाकर फिर सेंटर में आकर चुप पड़ी है। अब इसे न तुम हिला रहे हो, न मैं। कल से मैं उपन्यास पढ़ रहा हूँ और तुम फिल्मी पत्रिका के पन्ने पलट रहे हो। शब्दों का लेन-देन मिट गया और चर्चा के विषय चुक गए। परिवार, बच्चे, नौकरी, फिल्म, राजनीति, रिश्तेदारी, तबादले, पुराने दोस्त, परिवार-नियोजन, मँहगाई, साहित्य और यहाँ तक कि आँख मार-मारकर हमने पुरानी प्रेमिकाओं का भी शिक्र कर लिया और अब एक चुप्पी है। सौहार्द अब शनैः-शनैः बोरियत में रूपांतरित हो रहा है। भावनाएँ गालियों का स्वरूप ग्रहण कर रही हैं, पर तुम जा नहीं रहे। किस अदृश्य गोंद से तुम्हारा व्यक्तित्व यहाँ चिपक गया है, मैं इस भेद को सपरिवार नहीं समझ पा रहा हूँ। बार-बार यह प्रश्न उठ रहा है-तुम कब जाओगे, अतिथि? कल पत्नी ने धीरे से पूछा था,”कब तक टिकेंगे ये?”
मैंने कंधे उचका दिए,”क्या कह सकता हूँ!”
“मैं तो आज खिचड़ी बना रही हूँ। हलकी रहेगी।”
“बनाओ।”

शब्दार्थ
निर्मूल –
बिना जड़ की
कोनलों –
कोनो
सौहार्द –
ह्रदय की सरलता

व्याख्या – लेखक अपने मन ही कहता है कि उसकी पत्नी की आशंका बिना जड़ की नहीं थी, क्योंकि अतिथि जाने का नाम ही नहीं ले रहा था। लॉण्ड्री पर दिए कपडे़ धुलकर आ गए और अतिथि अब भी लेखक के घर पर ही था। लेखक अपने मन ही अतिथि से कहता है कि उसके भरी भरकम शरीर से सलवटें पड़ी हुई चादर बदली जा चुकी है परन्तु अभी भी अतिथि यहीं है। अतिथि को देखकर फूट पड़नेवाली मुस्कराहट धीरे-धीरे फीकी पड़कर अब कही गायब हो गई है। ठहाकों के रंगीन गुब्बारे, जो कल तक इस कमरे के आकाश में उड़ते थे, अब दिखाई नहीं पड़ते। बातचीत की उछलती हुई गेंद चर्चा के क्षेत्र के सभी कोनो से टप्पे खाकर फिर सेंटर में आकर चुप पड़ी है। अब इसे न अतिथि हिला रहा है, न ही लेखक। लेखक अपने मन ही अतिथि से कहता है कि कल से लेखक उपन्यास पढ़ रहा है और अतिथि फिल्मी पत्रिका के पन्ने पलट रहा है। शब्दों का लेन-देन मिट गया और चर्चा के विषय चुक गए। परिवार, बच्चे, नौकरी, फिल्म, राजनीति, रिश्तेदारी, तबादले, पुराने दोस्त, परिवार-नियोजन, मँहगाई, साहित्य और यहाँ तक कि आँख मार-मारकर लेखक और अतिथि ने पुरानी प्रेमिकाओं का भी शिक्र कर लिया और अब एक चुप्पी है। ह्रदय की सरलता अब धीरे-धीरे बोरियत में बदल गई है। भावनाएँ गालियों का स्वरूप ग्रहण कर रही हैं, पर अतिथि जा नहीं रहा। लेखक अपने मन ही अतिथि से कहता है कि ऐसा लगता है कि किसी न दिखाई देने वाले गोंद से अतिथि का व्यक्तित्व लेखक के घर में चिपक गया है, लेखक इस भेद को सपरिवार नहीं समझ पा रहा है। लेखक के मन में बार-बार यह प्रश्न उठ रहा है-तुम कब जाओगे, अतिथि? कल लेखक की पत्नी ने धीरे से लेखक से पूछा था,”कब तक टिकेंगे ये?” लेखक ने कंधे उचका कर कहा कि वह क्या कह सकता है? लेखक की पत्नी ने अब गुस्से से कहा कि वह अब खिंचड़ी बनाएगी क्योंकि वह खाने में हल्की रहेगी। लेखक ने भी हाँ कह दिया।

पाठ – सत्कार की उष्मा समाप्त हो रही थी। डिनर से चले थे, खिचड़ी पर आ गए। अब भी अगर तुम अपने बिस्तर को गोलाकार रूप नहीं प्रदान करते तो हमें उपवास तक जाना होगा। तुम्हारे-मेरे संबंध एक संक्रमण के दौर से गुज़र रहे हैं। तुम्हारे जाने का यह चरम क्षण है। तुम जाओ न अतिथि! तुम्हें यहाँ अच्छा लग रहा है न! मैं जानता हूँ। दूसरों के यहाँ अच्छा लगता है। अगर बस चलता तो सभी लोग दूसरों के यहाँ रहते, पर ऐसा नहीं हो सकता। अपने घर की महत्ता के गीत इसी कारण गाए गए हैं। होम को इसी कारण स्वीट-होम कहा गया है कि लोग दूसरे के होम की स्वीटनेस को काटने न दौडे़ं। तुम्हें यहाँ अच्छा लग रहा है, पर सोचो प्रिय, कि शराफ़त भी कोई चीज़ होती है और गेट आउट भी एक वाक्य है, जो बोला जा सकता है।
अपने खर्राटों से एक और रात गुंजायमान करने के बाद कल जो किरण तुम्हारे बिस्तर पर आएगी वह तुम्हारे यहाँ आगमन के बाद पाँचवें सूर्य की परिचित किरण होगी। आशा है, वह तुम्हें चूमेगी और तुम घर लौटने का सम्मानपूर्ण निर्णय ले लोगे। मेरी सहनशीलता की वह अंतिम सुबह होगी। उसके बाद मैं स्टैंड नहीं कर सकूँगा और लड़खड़ा जाऊँगा। मेरे अतिथि, मैं जानता हूँ कि अतिथि देवता होता है, पर आखिर मैं भी मनुष्य हूँ। मैं कोई तुम्हारी तरह देवता नहीं। एक देवता और एक मनुष्य अधिक देर साथ नहीं रहते। देवता दर्शन देकर लौट जाता है। तुम लौट जाओ अतिथि! इसी में तुम्हारा देवत्व सुरक्षित रहेगा। यह मनुष्य अपनी वाली पर उतरे, उसके पूर्व तुम लौट जाओ! उफ, तुम कब जाओगे, अतिथि?

शब्दार्थ
गुंजायमान –
गुँजित करने के

व्याख्या – लेखक अपने मन ही कहता है कि अतिथि के सत्कार करने की उसकी क्षमता अब समाप्त हो रही थी। डिनर से चले थे, खिचड़ी पर आ गए थे। अब भी अगर अतिथि अपने बिस्तर को गोलाकार रूप नहीं प्रदान करते अर्थात अब भी अगर अतिथि नहीं जाता तो हमें लेखक और उसकी पत्नी को उपवास तक जाना होगा। लेखक अपने मन ही अतिथि से कहता है कि उन दोनों का रिश्ता अब एक संक्रमण के दौर से गुज़र रहा हैं। अतिथि के जाने का यह चरम क्षण है। लेखक चाहता है कि अतिथि अब चला जाए। लेखक अपने मन ही कहता है कि लेखक जानता है कि अतिथि को लेखक के घर में अच्छा लग रहा है। दूसरों के यहाँ अच्छा ही लगता है। अगर बस चलता तो सभी लोग दूसरों के यहाँ रहते, पर ऐसा नहीं हो सकता। लेखक कहता है कि अपने घर की महत्ता के गीत इसी कारण गाए गए हैं। होम को इसी कारण स्वीट-होम कहा गया है कि लोग दूसरे के होम की स्वीटनेस को काटने न दौडे़ं। अतिथि को लेखक के घर में अच्छा लग रहा है, लेखक अपने मन ही अतिथि से कहता है कि सोचो प्रिय, कि शराफ़त भी कोई चीज़ होती है और गेट आउट भी एक वाक्य है, जो बोला जा सकता है। लेखक अपने मन ही अतिथि से कहता है कि अपने खर्राटों से एक और रात गुँजित करने के बाद कल जो किरण अतिथि के बिस्तर पर आएगी वह अतिथि के लेखक के घर में आगमन के बाद पाँचवें सूर्य की परिचित किरण होगी। लेखक अतिथि से उम्मीद करता है कि सूर्य की किरणें जब चूमेगी और अतिथि घर लौटने का सम्मानपूर्ण निर्णय ले लोगा। लेखक कहता है कि वह उसकी सहनशीलता की आखरी सुबह होगी। उसके बाद भी अगर अतिथि नहीं जाएगा तो लेखक खड़ा नहीं हो पाएगा और लड़खड़ा जाएगा। लेखक अपने मन ही अतिथि से कहता है कि लेखक जानता है कि अतिथि देवता होता है, पर आखिर लेखक भी मनुष्य ही है। लेखक कोई अतिथि की तरह देवता नहीं है। लेखक कहता है कि एक देवता और एक मनुष्य अधिक देर साथ नहीं रहते। देवता दर्शन देकर लौट जाता है। लेखक अतिथि को लौट जाने के लिए कहता है और कहता है कि इसी में अतिथि का देवत्व सुरक्षित रहेगा। लेखक अपने मन ही अतिथि से गुस्से में कहता है कि लेखक अपनी वाली पर उतरे, उसके पूर्व अतिथि को लौट जाना चाहिए। लेखक अंत में दुखी हो कर अतिथि से कहता है उफ, तुम कब जाओगे, अतिथि?

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तुम कब जाओगे अतिथि प्रश्न अभ्यास

तुम कब जाओगे अतिथि Class 9 NCERT Solutions (महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर )

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 25 – 30 शब्दों में लिखिए

प्रश्न 1 – लेखक अतिथि को कैसी विदाई देना चाहता था?
उत्तर –
लेखक चाहता था कि अतिथि दूसरे दिन ही चला जाता तो अच्छा होता। फिर वह अतिथि को भावभीनी विदाई देता। वह अतिथि को स्टेशन तक छोड़ने भी जाता। परन्तु जब अतिथि पाँचवे दिन भी नहीं गया तो लेखक की उम्मीदें धरी की धरी रह गई।

प्रश्न 2 – पाठ में आए निम्नलिखित कथनों की व्याख्या कीजिए
(क) अंदर ही अंदर कहीं मेरा बटुआ काँप गया।
उत्तर – यह प्रसंग तब का है जब अतिथि का आगमन हुआ था। अतिथि के आने से उसके स्वागत सत्कार के खर्चे बढ़ जाते हैं। इससे एक मध्यम वर्गीय परिवार का पूरा बजट बिगड़ सकता है। इसलिए लेखक उस अनावश्यक खर्चे को लेकर चिंतित हो रहा था।

(ख) अतिथि सदैव देवता नहीं होता, वह मानव और थोड़े अंशों में राक्षस भी हो सकता है।
उत्तर –
एक कहावत है, “अतिथि देवो भव”। इसका मतलब होता है कि अतिथि देवता के समान होता है। लेकिन जब लेखक के अतिथि ने तीसरे दिन कपड़े धुलवाने के बहाने यह इशारा कर दिया कि वह अभी और दिन रुकेगा तो लेखक की समझ में आया कि अतिथि हमेशा देवता नहीं होता। लेखक को लगने लगा कि अतिथि एक मानव होता है जिसमें राक्षस की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है। इसी राक्षसी प्रवृत्ति के कारण अतिथि लंबे समय तक टिक जाता है और अलग-अलग तरीकों से मेजबान को दुखी करता रहता है।

(ग) लोग दूसरे के होम की स्वीटनेस को काटने न दौड़ें।
उत्तर –
लेखक का अतिथि ऐसा व्यक्ति है जिसे दूसरे का घर बड़ा अच्छा लगता है। दूसरे के घर ठहरने पर एक व्यक्ति खर्चे जोड़ने की चिंता से मुक्त रहता है और अपनी सारी परेशानियों को भूलकर आतिथ्य का आनंद लेता है। लेकिन यह व्यावहारिक नहीं है क्योंकि इससे मेजबान के सुखी जीवन में खलल पड़ने लगता है। इसलिए लेखक का मानना है कि अपने घर की मधुरता का आनंद लेना चाहिए लेकिन किसी दूसरे के घर की सुख शांति में खलल नहीं डालना चाहिए।

(घ) मेरी सहनशीलता की वह अंतिम सुबह होगी।
उत्तर –
लेखक को उम्मीद है कि जब पाँचवे दिन का सूर्य निकलेगा तो वह अतिथि को इस बात के लिए जागृत कर देगा कि वह अपने घर वापस चला जाए। अन्यथा उस दिन लेखक की सहनशीलता टूट जाएगी। उसके बाद लेखक को मजबूरन अतिथि से जाने के लिए कहना पड़ेगा।

(ङ) एक देवता और एक मनुष्य अधिक देर साथ नहीं रहते।
उत्तर –
लेखक मन ही मन अतिथि से कहना चाहता है कि अतिथि और मेजबान अधिक दिनों तक साथ नहीं रह सकते। भगवान भी दर्शन देने के फौरन बाद चला जाता है। गणपति की पूजा में ग्यारह दिन के बाद गणपति का विसर्जन कर दिया जाता है। इसलिए अतिथी रूपी देवता को भी अधिक दिनों तक नहीं रुकना चाहिए।

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 50-60 शब्दों में लिखिए

प्रश्न 1 – कौन सा आघात अप्रत्याशित था और उसका लेखक पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर –
तीसरे दिन सुबह जब अतिथि ने कपड़े धुलवाने की बात की तो उसने परोक्ष रूप से यह बतला दिया कि वह इतनी आसानी से जाने वाला नहीं। यह आघात लेखक के लिए अप्रत्याशित था। उस समय लेखक की समझ में आया कि अतिथि सदैव देवता नहीं होता, बल्कि एक इंसान होता है जिसमें राक्षस के भी अंश होते हैं। वह अतिथि ऐसे राक्षस की तरह बरताव करने लगा था जिससे मेहमान को असह्य पीड़ा होने लगे।

प्रश्न 2 – ‘संबंधों का संक्रमण के दौर से गुजरना’ – इस पंक्ति से आप क्या समझते हैं? विस्तार से लिखिए।
उत्तर –
इस पंक्ति का मतलब है कि संबंधों के अच्छे दौर समाप्त हो गये हैं और लोग किसी तरह से संबंधों को बरकरार रखने की कोशिश कर रहे हैं। लेखक और उसके अतिथि के बीच पहले दिन तो बड़े उल्लासपूर्ण माहौल में बातचीत चलती रही। उन दोनों ने लगभग हर उस विषय पर बातचीत कर ली जिन पर बातचीत की जा सकती थी। लेखक ने अतिथि के सत्कार में कोई कमी नहीं छोड़ी। लेकिन जब अतिथि के प्रवास की अवधि खिंचती चली गई तो फिर लेखक उसके बोझे को ढ़ो रहा था। अब स्थिति ये हो गई थी कि मेजबान बस इस इंतजार में था कि अतिथि किसी तरह से उसका पीछा छोड़ दे।

प्रश्न 3 – जब अतिथि चार दिन तक नहीं गया तो लेखक के व्यवहार में क्या-क्या परिवर्तन आए?
उत्तर –
जब अतिथि चार दिन तक नहीं गया तो लेखक के व्यवहार में कई बदलाव आए। अब उसने अतिथि से बातचीत करना लगभग बंद कर दिया। उसकी पत्नी ने अच्छे खाने की जगह खिचड़ी परोसना शुरु कर दिया। दोनों पति पत्नी मन ही मन खिन्न हो रहे थे और भगवान से उस अतिथि के जाने की दुआ माँग रहे थे।

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