Dukh Ka Adhikar Class 9 summary, explanation, question answers

“दुःख का अधिकार” Class 9 Hindi Chapter 1 Summary, Explanation and Important Question Answers

Dukh Ka Adhikar class 9

Dukh Ka Adhikar Class 9 Hindi Sparsh Lesson 1 summary with a detailed explanation of the lesson  दुःख का अधिकार along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with a summary and all the exercises, Question and Answers given at the back of the lesson

यहाँ हम कक्षा 9 हिंदी ”स्पर्श – भाग 1 ” के पाठ 1 ”दुःख का अधिकार” के पाठ प्रवेश, पाठ सार, पाठ व्याख्या, कठिन शब्दों के अर्थ और NCERT पुस्तक के अनुसार प्रश्नों के उत्तर- इन सभी बारे में जानेंगे –

दुःख का अधिकार कक्षा 9 स्पर्श भाग 1 पाठ 1

 

लेखक परिचय

लेखक – यशपाल
जन्म – 1903

दुःख का अधिकार पाठ प्रवेश

इस पाठ में लेखक समाज में होने वाले उच्च वर्ग और निम्न वर्ग के भेदभाव को दर्शा रहा है। यहाँ लेखक अपने एक अनुभव को साँझा करते हुए कहता है कि दुःख मनाने का अधिकार सभी को होता है फिर चाहे वह समाज के किसी भी वर्ग का हो।

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दुःख का अधिकार पाठ सार (Dukh ka Adhikar Summary)

लेखक के अनुसार मनुष्यों का पहनावा ही समाज में मनुष्य का अधिकार और उसका दर्ज़ा निश्चित करता है। परन्तु लेखक कहता है कि समाज में कभी ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है कि हम समाज के ऊँचे वर्गों के लोग छोटे वर्गों की भावनाओं को समझना चाहते हैं परन्तु उस समय समाज में उन ऊँचे वर्ग के लोगों का पहनावा ही उनकी इस भावना में बाधा बन जाती है।

लेखक अपने द्वारा अनुभव किये गए एक दृश्य का वर्णन करता हुआ कहता है कि एक दिन लेखक ने बाज़ार में, फुटपाथ पर कुछ खरबूजों को टोकरी में और कुछ को ज़मीन पर रखे हुए देखा। खरबूजों के नज़दीक ही एक ढलती उम्र की औरत बैठी रो रही थी।

लेखक कहता है कि खरबूज़े तो बेचने के लिए ही रखे गए थे, परन्तु उन्हें खरीदने के लिए कोई कैसे आगे बढ़ता? क्योंकि खरबूजों को बेचने वाली औरत ने तो कपड़े में अपना मुँह छिपाया हुआ था और उसने अपने सिर को घुटनों पर रखा हुआ था और वह बुरी तरह से बिलख – बिलख कर रो रही थी। लेखक कहता है कि उस औरत का रोना देखकर लेखक के मन में दुःख की अनुभूति हो रही थी, परन्तु उसके रोने का कारण जानने का उपाय लेखक को समझ नहीं आ रहा था क्योंकि फुटपाथ पर उस औरत के नज़दीक बैठ सकने में लेखक का पहनावा लेखक के लिए समस्या खड़ी कर रहा था क्योंकि लेखक ऊँचे वर्ग का था और वह औरत छोटे वर्ग की थी।

लेखक कहता है कि उस औरत को इस अवस्था में देख कर एक आदमी ने नफरत से एक तरफ़ थूकते हुए कहा कि देखो क्या ज़माना है! जवान लड़के को मरे हुए अभी पूरा दिन नहीं बीता और यह बेशर्म दुकान लगा के बैठी है। वहीं खड़े दूसरे साहब अपनी दाढ़ी खुजाते हुए कह रहे थे कि अरे, जैसा इरादा होता है अल्ला भी वैसा ही लाभ देता है।

लेखक कहता है कि सामने के फुटपाथ पर खड़े एक आदमी ने माचिस की तीली से कान खुजाते हुए कहा अरे, इन छोटे वर्ग के लोगों का क्या है? इनके लिए सिर्फ रोटी ही सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण होती है।

इनके लिए बेटा-बेटी, पति-पत्नी, धर्म-ईमान सब रोटी का टुकड़ा है। इन छोटे लोगों के लिए कोई भी रिश्ता रोटी नहीं है। जब लेखक को उस औरत के बारे में जानने की इच्छा हुई तो लेखक ने वहाँ पास-पड़ोस की दुकानों से उस औरत के बारे में पूछा और पूछने पर पता लगा कि उसका तेईस साल का एक जवान लड़का था।

घर में उस औरत की बहू और पोता-पोती हैं। उस औरत का लड़का शहर के पास डेढ़ बीघा भर ज़मीन में सब्जियाँ उगाने का काम करके परिवार का पालन पोषण करता था। लड़का परसों सुबह अँधेरे में ही बेलों में से पके खरबूजे चुन रहा था। खरबूजे चुनते हुए उसका पैर दो खेतों की गीली सीमा पर आराम करते हुए एक साँप पर पड़ गया।

साँप ने लड़के को डस लिया।लेखक कहता है कि जब उस औरत के लड़के को साँप ने डँसा तो उस लड़के की यह बुढ़िया माँ पागलों की तरह भाग कर झाड़-फूँक करने वाले को बुला लाई। झाड़ना-फूँकना हुआ। नागदेव की पूजा भी हुई।

लेखक कहता है कि पूजा के लिए दान-दक्षिणा तो चाहिए ही होती है। उस औरत के घर में जो कुछ आटा और अनाज था वह उसने दान-दक्षिणा में दे दिया। पर भगवाना जो एक बार चुप हुआ तो फिर न बोला। लेखक कहता है कि ज़िंदा आदमी नंगा भी रह सकता है, परंतु मुर्दे को नंगा कैसे विदा किया जा सकता है? उसके लिए तो बजाज की दुकान से नया कपड़ा लाना ही होगा, चाहे उसके लिए उस लड़के की माँ के हाथों के ज़ेवर ही क्यों न बिक जाएँ।

लेखक कहता है की भगवाना तो परलोक चला गया और घर में जो कुछ भी अनाज और पैसे थे वह सब उसके अन्तिम संस्कार करने में लग गए। लेखक कहता है कि बाप नहीं रहा तो क्या, लड़के सुबह उठते ही भूख से बिलबिलाने लग गए। अब बेटे के बिना बुढ़िया को दुअन्नी-चवन्नी भी कौन उधार देता।

क्योंकि समाज में माना जाता है कि कमाई केवल लड़का कर सकता है और उस औरत के घर में कमाई करना वाला लड़का मर गया था तो अगर कोई उधार देने की सोचता तो यह सोच कर नहीं देता कि लौटाने वाला उस घर में कोई नहीं है। यही कारण था कि बुढ़िया रोते-रोते और आँखें पोंछते-पोंछते भगवाना के बटोरे हुए खरबूजे टोकरी में समेटकर बाज़ार की ओर बेचने के लिए आ गई।

उस बेचारी औरत के पास और चारा भी क्या था? लेखक कहता है कि बुढ़िया खरबूजे बेचने का साहस करके बाज़ार तो आई थी, परंतु सिर पर चादर लपेटे, सिर को घुटनों पर टिकाए हुए अपने लड़के के मरने के दुःख में बुरी तरह रो रही थी। लेखक अपने आप से ही कहता है कि कल जिसका बेटा चल बसा हो, आज वह बाजार में सौदा बेचने चली आई है, इस माँ ने किस तरह अपने दिल को पत्थर किया होगा?

लेखक कहता है कि जब कभी हमारे मन को समझदारी से कोई रास्ता नहीं मिलता तो उस कारण बेचैनी हो जाती है जिसके कारण कदम तेज़ हो जाते हैं। लेखक भी उसी हालत में नाक ऊपर उठाए चल रहा था और अपने रास्ते में चलने वाले लोगों से ठोकरें खाता हुआ चला जा रहा था और सोच रहा था कि शोक करने और गम मनाने के लिए भी इस समाज में सुविधा चाहिए और… दुःखी होने का भी एक अधिकार होता है।

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दुःख का अधिकार पाठ व्याख्या Explanation

पाठ – मनुष्यों की पोशाकें उन्हें विभिन्न श्रेणियों में बाँट देती हैं। प्रायः पोशाक ही समाज में मनुष्य का अधिकार और उसका दर्ज़ा निश्चित करती है। वह हमारे लिए अनेक बंद दरवाज़े खोल देती है, परंतु कभी ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है कि हम ज़रा नीचे झुककर समाज की निचली श्रेणियों की अनुभूति को समझना चाहते हैं।

उस समय यह पोशाक ही बंधन और अड़चन बन जाती है। जैसे वायु की लहरें कटी हुई पतंग को सहसा भूमि पर नहीं गिर जाने देतीं, उसी तरह खास परिस्थितियों में हमारी पोशाक हमें झुक सकने से रोके रहती है।

शब्दार्थ –
पोशाक –
पहरावा
विभिन्न –
अलग -अलग
अड़चन –
बाधा

व्याख्या – लेखक कहता है कि मनुष्यों का पहरावा उन्हें अलग -अलग श्रेणियों में बाँट देता है। लेखक के अनुसार मनुष्यों का पहरावा ही समाज में मनुष्य का अधिकार और उसका दर्ज़ा निश्चित करत। है। मनुष्यों का पहरावा ही मनुष्यों के लिए समाज के अनेक बंद दरवाज़े खोल देता है परन्तु लेखक कहता है कि समाज में कभी ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है कि हम समाज के ऊँचे वर्गों के लोग छोटे वर्गों की भावनाओं को समझना चाहते हैं परन्तु उस समय समाज में उन ऊँचे वर्ग के लोगों का पहनावा ही उनकी इस भावना में बाधा बन जाती है। लेखक उदाहरण देते हुए समझाते हैं कि जैसे वायु की लहरें कटी हुई पतंग को कभी भी अचानक भूमि पर नहीं गिरने देती, उसी तरह खास परिस्थितियों में हमारा पहरावा हमें हमारी भावनाओं को दर्शाने से रोक देता है।

पाठ – बाजार में, फुटपाथ पर कुछ खरबूज़े डलिया में और कुछ ज़मीन पर बिक्री के लिए रखे जान पड़ते थे। खरबूजों के समीप एक अधेड़ उम्र की औरत बैठी रो रही थी। खरबूज़े बिक्री के लिए थे, परन्तु उन्हें खरीदने के लिए कोई कैसे आगे बढ़ता? खरबूजों को बेचने वाली तो कपड़े से मुँह छिपाए सिर को घुटनों पर रखे फफक-फफककर रो रही थी।

शब्दार्थ –
डलिया –
टोकरी
अधेड़ –
ढलती उम्र
फफक-फफक कर – बिलख –
बिलख कर

व्याख्या – लेखक अपने द्वारा अनुभव किये गए एक दृश्य का वर्णन करता हुआ कहता है कि एक दिन लेखक ने बाजार में, फुटपाथ पर कुछ खरबूजों को टोकरी में और कुछ को ज़मीन पर रखे हुए देखा, ऐसा लग रहा था कि उनको वहाँ बेचने के लिए रखा हुआ है।
खरबूजों के नज़दीक ही एक ढलती उम्र की औरत बैठी रो रही थी। लेखक कहता है कि खरबूज़े तो बेचने के लिए ही रखे गए थे, परन्तु उन्हें खरीदने के लिए कोई कैसे आगे बढ़ता? क्योंकि खरबूजों को बेचने वाली औरत ने तो कपड़े में अपना मुँह छुपाया हुआ था और उसने अपने सिर को घुटनों पर रखा हुआ था और वह बुरी तरह से बिलख – बिलख कर रो रही थी।

पाठ – पड़ोस की दुकानों के तख्तों पर बैठे या बाजार में खडे़ लोग घृणा से उसी स्त्री के संबंध में बात कर रहे थे। उस स्त्री का रोना देखकर मन में एक व्यथा-सी उठी, पर उसके रोने का कारण जानने का उपाय क्या था?
फुटपाथ पर उसके समीप बैठ सकने में मेरी पोशाक ही व्यवधान बन खड़ी हो गई। एक आदमी ने घृणा से एक तरफ़ थूकते हुए कहा, “क्या ज़माना है! जवान लड़के को मरे पूरा दिन नहीं बीता और यह बेहया दुकान लगा के बैठी है।” दूसरे साहब अपनी दाढ़ी खुजाते हुए कह रहे थे, “अरे जैसी नीयत होती है अल्ला भी वैसी ही बरकत देता है।”

शब्दार्थ –
घृणा –
नफ़रत
व्यथा –
दुःख
व्यवधान –
समस्या
बेहया –
बेशर्म
नीयत –
इरादा
बरकत –
लाभ

व्याख्या – लेखक कहता है कि उस औरत को इस तरह रोता हुआ देख कर आसपास पड़ोस की दुकानों के तख्तों पर बैठे हुए और बाजार में खडे़ लोग नफ़रत से उस औरत के बारे में ही बात कर रहे थे। लेखक कहता है कि उस औरत का रोना देखकर लेखक के मन में दुःख की अनुभूति हो रही थी,परन्तु उसके रोने का कारण जानने का उपाय लेखक को समझ नहीं आ रहा था क्योंकि फुटपाथ पर उस औरत के नज़दीक बैठ सकने में लेखक का पहरावा लेखक के लिए समस्या खड़ी कर रहा था क्योंकि लेखक ऊँचे वर्ग का था और वह औरत छोटे वर्ग की थी। लेखक कहता है कि उस औरत को इस अवस्था में देख कर एक आदमी ने नफरत से एक तरफ़ थूकते हुए कहा कि देखो क्या ज़माना है! जवान लड़के को मरे हुए अभी पूरा दिन नहीं बीता और यह बेशर्म दुकान लगा के बैठी है। वहीं खड़े दूसरे साहब अपनी दाढ़ी खुजाते हुए कह रहे थे कि अरे, जैसा इरादा होता है अल्ला भी वैसा ही लाभ देता है।

पाठ – सामने के फुटपाथ पर खड़े एक आदमी ने दियासलाई की तीली से कान खुजाते हुए कहा,”अरे, इन लोगों का क्या है? ये कमीने लोग रोटी के टुकड़े पर जान देते हैं। इनके लिए बेटा-बेटी, खसम-लुगाई, धर्म-ईमान सब रोटी का टुकड़ा है।”

परचून की दुकान पर बैठे लाला जी ने कहा,” अरे भाई, उनके लिए मरे जिए का कोई मतलब न हो, पर दूसरे के धर्म-ईमान का तो खयाल करना चाहिए! जवान बेटे के मरने पर तेरह दिन का सूतक होता है और वह यहाँ सड़क पर बाजार में आकर खरबूजे बेचने बैठ गई है।

हज़ार आदमी आते-जाते हैं। कोई क्या जानता है कि इसके घर में सूतक है। कोई इसके खरबूजे खा ले तो उसका ईमान-धर्म कैसे रहेगा? क्या अँधेर है!”

शब्दार्थ –
दियासलाई –
माचिस
खसम –
पति
लुगाई –
पत्नी
परचून की दुकान –
दाल आदि की दुकान
सूतक –
छूत

व्याख्या – लेखक कहता है कि सामने के फुटपाथ पर खड़े एक आदमी ने माचिस की तीली से कान खुजाते हुए कहा अरे, इन छोटे वर्ग के लोगों का क्या है? ये कमीने लोग रोटी के टुकड़े पर जान देते हैं। इनके लिए सिर्फ रोटी ही सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण होती है।इनके लिए बेटा-बेटी, पति-पत्नी, धर्म-ईमान सब रोटी का टुकड़ा है।
इन छोटे लोगों के लिए कोई भी रिश्ता रोटी नहीं है। लेखक कहता है कि दाल आदि की दुकान पर बैठे लाला जी ने उस औरत के बारे में बात करते हुए कहा कि अरे भाई, इन छोटे वर्ग के लोगों के लिए मरे जिए का कोई मतलब हो या न हो, पर दूसरे के धर्म-ईमान का तो इन लोगों को ख्याल करना चाहिए।
जवान बेटे के मरने पर तेरह दिन का छूत होता है और वह यहाँ सड़क पर बाजार में आकर खरबूजे बेचने बैठ गई है। हज़ार आदमी आते-जाते हैं। किसी को क्या पता कि इसके घर में किसी की मौत हुई है और अभी सूतक है। कोई इसके खरबूजे खा ले तो उसका ईमान-धर्म कैसे रहेगा? सब नष्ट हो जाएगा।

पाठ – पास-पड़ोस की दुकानों से पूछने पर पता लगा-उसका तेईस बरस का जवान लड़का था। घर में उसकी बहू और पोता-पोती हैं। लड़का शहर के पास डेढ़ बीघा भर ज़मीन में कछियारी करके परिवार का निर्वाह करता था। खरबूजो की डलिया बाजार में पहुँचाकर कभी लड़का स्वयं सौदे के पास बैठ जाता, कभी माँ बैठ जाती।
लड़का परसों सुबह मुँह-अँधेरे बेलों में से पके खरबूजे चुन रहा था। गीली मेड़ की तरावट में विश्राम करते हुए एक साँप पर लड़के का पैर पड़ गया। साँप ने लड़के को डँस लिया।

शब्दार्थ –
बरस –
साल
कछियारी –
सब्जियाँ उगाने का काम
निर्वाह –
पालन पोषण
मेड़ –
दो खेतों की सीमा
विश्राम –
आराम

व्याख्या – जब लेखक को उस औरत के बारे में जानने की इच्छा हुई तो लेखक ने वहाँ पास-पड़ोस की दुकानों से उस औरत के बारे में पूछा और पूछने पर पता लगा कि उसका तेईस साल का एक जवान लड़का था। घर में उस औरत की बहू और पोता-पोती हैं। उस औरत का लड़का शहर के पास डेढ़ बीघा भर ज़मीन में सब्जियाँ उगाने का काम करके परिवार का पालन पोषण करता था। खरबूजो की टोकरी बाजार में पहुँचाकर कभी उस औरत का लड़का खुद बेचने के लिए पास बैठ जाता था, कभी वह औरत बैठ जाती थी। पास-पड़ोस की दुकान वालों से लेखक को पता चला कि लड़का परसों सुबह अँधेरे में ही बेलों में से पके खरबूजे चुन रहा था। खरबूजे चुनते हुए उसका पैर दो खेतों की गीली सीमा पर आराम करते हुए एक साँप पर पड़ गया। साँप ने लड़के को डँस लिया।

पाठ – लड़के की बुढ़िया माँ बावली होकर ओझा को बुला लाई। झाड़ना-फूँकना हुआ। नागदेव की पूजा हुई। पूजा के लिए दान-दक्षिणा चाहिए। घर में जो कुछ आटा और अनाज था, दान-दक्षिणा में उठ गया। माँ, बहू और बच्चे ‘भगवाना’ से लिपट-लिपटकर रोए, पर भगवाना जो एक दफे चुप हुआ तो फिर न बोला। सर्प के विष से उसका सब बदन काला पड़ गया था।
ज़िंदा आदमी नंगा भी रह सकता है, परंतु मुर्दे को नंगा कैसे विदा किया जाए? उसके लिए तो बजाज की दुकान से नया कपड़ा लाना ही होगा, चाहे उसके लिए माँ के हाथों के छन्नी-ककना ही क्यों न बिक जाएँ।

 

शब्दार्थ –
बावली-
पागलों की तरह
ओझा –
झाड़-फूँक करने वाले
दफे –
बार
छन्नी-ककना –
ज़ेवर

व्याख्या – लेखक कहता है कि जब उस औरत के लड़के को साँप ने डँसा तो उस लड़के की यह बुढ़िया माँ पागलों की तरह भाग कर झाड़-फूँक करने वाले को बुला लाई। झाड़ना-फूँकना हुआ। नागदेव की पूजा भी हुई। लेखक कहता है कि पूजा के लिए दान-दक्षिणा तो चाहिए ही होती है। उस औरत के घर में जो कुछ आटा और अनाज था वह उसने दान-दक्षिणा में दे दिया।परन्तु कुछ भी नहीं हुआ क्योंकि सर्प के विष से उसका सब बदन काला पड़ गया था। माँ, बहू और बच्चे ‘भगवाना’ से लिपट-लिपटकर रोए, पर भगवाना जो एक बार चुप हुआ तो फिर न बोला। लेखक कहता है कि ज़िंदा आदमी नंगा भी रह सकता है,परंतु मुर्दे को नंगा कैसे विदा किया जा सकता है? उसके लिए तो बजाज की दुकान से नया कपड़ा लाना ही होगा, चाहे उसके लिए उस लड़के की माँ के हाथों के ज़ेवर ही क्यों न बिक जाएँ।

पाठ – भगवाना परलोक चला गया। घर में जो कुछ चूनी भूसी थी सो उसे विदा करने में चली गई। बाप नहीं रहा तो क्या, लड़के सुबह उठते ही भूख से बिलबिलाने लगे। दादी ने उन्हें खाने के लिए खरबूजे दे दिए लेकिन बहू को क्या देती? बहू का बदन बुखार से तवे की तरह तप रहा था। अब बेटे के बिना बुढ़िया को दुअन्नी-चवन्नी भी कौन उधार देता।
बुढ़िया रोते-रोते और आँखें पोंछते-पोंछते भगवाना के बटोरे हुए खरबूजे डलिया में समेटकर बाजार की ओर चली – और चारा भी क्या था?

व्याख्या – लेखक कहता है की भगवाना तो परलोक चला गया और घर में जो कुछ भी अनाज और पैसे थे वह सब उसके अन्तिम संस्कार करने में लग गए। लेखक कहता है कि बाप नहीं रहा तो क्या, लड़के सुबह उठते ही भूख से बिलबिलाने लग गए। दादी ने उन्हें खाने के लिए खरबूजे दे दिए लेकिन बहू को क्या देती? बहू का बदन बुखार से तवे की तरह तप रहा था। अब बेटे के बिना बुढ़िया को दुअन्नी-चवन्नी भी कौन उधार देता। क्योंकि समाज में माना जाता है कि कमाई केवल लड़का कर सकता है और उस औरत के घर में कमाई करना वाला लड़का मर गया था तो अगर कोई उधार देने की सोचता तो यह सोच कर नहीं देता कि लौटाने वाला उस घर में कोई नहीं है। यही कारण था कि बुढ़िया रोते-रोते और आँखें पोंछते-पोंछते भगवाना के बटोरे हुए खरबूजे टोकरी में समेटकर बाजार की ओर बेचने के लिए आ गई। उस बेचारी औरत के पास और चारा भी क्या था?

पाठ – बुढ़िया खरबूजे बेचने का साहस करके आई थी, परंतु सिर पर चादर लपेटे, सिर को घुटनों पर टिकाए हुए फफक-फफकर रो रही थी।
कल जिसका बेटा चल बसा, आज वह बाजार में सौदा बेचने चली है, हाय रे पत्थर-दिल!
उस पुत्र-वियोगिनी के दुःख का अंदाजा लगाने के लिए पिछले साल अपने पड़ोस में पुत्र की मृत्यु से दुःखी माता की बात सोचने लगा। वह संभ्रांत महिला पुत्र की मृत्यु के बाद अढ़ाई मास तक पलंग से उठ न सकी थी।
उन्हें पंद्रह-पंद्रह मिनट बाद पुत्र-वियोग से मूर्छा आ जाती थी और मूर्छा न आने की अवस्था में आँखों से आँसू न रुक सकते थे। दो-दो डाॅक्टर हरदम सिरहाने बैठे रहते थे। हरदम सिर पर बर्फ रखी जाती थी। शहर भर के लोगों के मन उस पुत्र-शोक से द्रवित हो उठे थे।

शब्दार्थ –
पुत्र-वियोगिनी –
पुत्र को खोने वाली
पुत्र-वियोग –
पुत्र के बिछड़ने के दुःख
मूर्छा –
बेहोश
हरदम –
हमेशा

व्याख्या – लेखक कहता है कि बुढ़िया खरबूजे बेचने का साहस करके बाजार तो आई थी, परंतु सिर पर चादर लपेटे, सिर को घुटनों पर टिकाए हुए अपने लड़के के मरने के दुःख में बुरी तरह रो रही थी। लेखक अपने आप से ही कहता है कि कल जिसका बेटा चल बसा हो, आज वह बाजार में सौदा बेचने चली आई है, इस माँ ने किस तरह अपने दिल को पत्थर किया होगा?अपने पुत्र को खोने वाली उस माँ के दुःख का अंदाजा लगाने के लिए लेखक पिछले साल उसके पड़ोस में पुत्र की मृत्यु से दुःखी माता की बात सोचने लगा। वह बेचारी महिला पुत्र की मृत्यु के बाद अढ़ाई मास तक पलंग से ही नहीं उठ पाई थी।उन्हें पंद्रह-पंद्रह मिनट बाद पुत्र के बिछड़ने के दुःख के कारण से बेहोशी आ जाती थी और जब वह होश में होती थी तो भी उसकी आँखों से आँसू न रुक सकते थे। दो-दो डाॅक्टर हमेशा उसके सिरहाने बैठे रहते थे। हमेशा सिर पर बर्फ रखी जाती थी। शहर भर के लोगों के मन उसका इस तरह पुत्र की याद में दुखी रहने के कारण से दुखी हो उठता था।

पाठ – जब मन को सूझ का रास्ता नहीं मिलता तो बेचैनी से कदम तेज़ हो जाते हैं। उसी हालत में नाक ऊपर उठाए, राह चलतों से ठोकरें खाता मैं चला जा रहा था।
सोच रहा था – शोक करने, गम मनाने के लिए भी सहूलियत चाहिए और… दुःखी होने का भी एक अधिकार होता है।

शब्दार्थ –
सूझ –
समझदारी
सहूलियत –
सुविधा

व्याख्या – लेखक कहता है कि जब कभी हमारे मन को समझदारी से कोई रास्ता नहीं मिलता तो बेचैनी हो जाती है जिसके कारण कदम तेज़ हो जाते हैं। लेखक भी उसी हालत में नाक ऊपर उठाए चल रहा था और अपने रास्ते में चलने वाले लोगों से ठोकरें खाता हुआ चला जा रहा था और सोच रहा था कि शोक करने और गम मनाने के लिए भी इस समाज में सुविधा चाहिए और… दुःखी होने का भी एक अधिकार होता है।

 

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दुःख का अधिकार प्रश्न-अभ्यास Question Answers

दुःख का अधिकार NCERT Solutions (महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर )

(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर (25-30 शब्दों में) लिखिए –

प्रश्न 1- मनुष्य के जीवन में पोशाक का क्या महत्त्व है?
उत्तर – मनुष्य के जीवन में पोशाक का अत्यधिक महत्त्व है क्योंकि समाज में किसी व्यक्ति की पोशाक देखकर हमें उस व्यक्ति की हैसियत और जीवन शैली का पता लगत। है। एक अच्छी पोशाक व्यक्ति की समृद्धि का प्रतीक भी कही जा सकती है। हमारी पोशाक हमें समाज में एक निश्चित दर्जा दिलवाती है। पोशाक हमारे लिए कई दरवाज़े खोलती है। कभी कभी वही पोशाक हमारे लिए अड़चन भी बन जाती है।

प्रश्न2 – पोशाक हमारे लिए कब बंधन और अड़चन बन जाती है?
उत्तर – कभी कभार ऐसा होता है कि हम नीचे झुक कर समाज के दर्द को जानना चाहते हैं। ऐसे समय में हमारी पोशाक अड़चन बन जाती है क्योंकि अपनी पोशाक के कारण हम झुक नहीं पाते हैं। हमें यह डर सताने लगता है कि अच्छे पोशाक में झुकने से आस पास के लोग क्या कहेंगे। कहीं अच्छी पोशाक में झुकने के कारण हम समाज में अपना दर्जा न खो दें।

प्रश्न3 – लेखक उस स्त्री के रोने का कारण क्यों नहीं जान पाया?
उत्तर – लेखक एक सम्पन्न वर्ग से सम्बन्ध रखता है। उसने अपनी संपन्नता के हिसाब से कपड़े पहने हुए थे। इसलिए वह झुक कर या उस बुढ़िया के पास बैठकर उससे बातें करने में असमर्थ था। इसलिए वह उस स्त्री के रोने का कारण नहीं जान पाया।

प्रश्न4 – भगवाना अपने परिवार का निर्वाह कैसे करता था?
उत्तर – भगवाना पास में ही एक ज़मीन पर कछियारी करके अपना और अपने परिवार का निर्वाह करता था। वह उस ज़मीन में खरबूजे उगाता था। वहाँ से वह खरबूजे तोड़कर लाता था और बेचता था। कभी-कभी वह स्वयं दुकानदारी करता था तो कभी दुकान पर उसकी माँ बैठती थी।

प्रश्न5 – लड़के की मृत्यु के दूसरे ही दिन बुढ़िया खरबूजे बेचने क्यों चल पड़ी?
उत्तर – लड़के के इलाज में बुढ़िया की सारी जमा पूँजी ख़त्म हो गई थी। जो कुछ बचा था वह लड़के के अंतिम संस्कार में खर्च हो गया। अब लड़के के बच्चों की भूख मिटाने के लिए यह जरूरी था कि बुढ़िया कुछ कमा कर लाए। उसकी बहू भी बीमार थी। इसलिए लड़के की मृत्यु के दूसरे ही दिन बुढ़िया को खरबूजे बेचने के लिए निकलना पड़ा।

प्रश्न6 – बुढ़िया के दुःख को देखकर लेखक को अपने पड़ोस की संभ्रांत महिला की याद क्यों आई?
उत्तर – बुढ़िया के दुख को देखकर लेखक को अपने पड़ोस की संभ्रांत महिला की याद इसलिए आई कि उस संभ्रांत महिला के पुत्र की मृत्यु पिछले साल ही हुई थी। पुत्र के शोक में वह महिला ढ़ाई महीने बिस्तर से उठ नहीं पाई थी। उसकी खातिरदारी में डॉक्टर और नौकर लगे रहते थे। शहर भर के लोगों में उस महिला के शोक मनाने की चर्चा थी और यहाँ बाजार में भी सभी उसी तरह बुढ़िया के बारे में बात कर रहे थे।

(ख) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर (50-60 शब्दों में) लिखिए-
प्रश्न1- बाजार के लोग खरबूजे बेचनेवाली स्त्री के बारे में क्या-क्या कह रहे थे? अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर – बाजार के लोग खरबूजे बेचने वाली स्त्री के बारे में तरह तरह की बातें कर रहे थे। कोई कह रहा था कि बेटे की मृत्यु के तुरंत बाद बुढ़िया को बाहर निकलना ही नहीं चाहिए था। कोई कह रहा था कि सूतक की स्थिति में वह दूसरे का धर्म भ्रष्ट कर सकती थी इसलिए उसे नहीं निकलना चाहिए था। किसी ने कहा, कि ऐसे लोगों के लिए रिश्तों नातों की कोई अहमियत नहीं होती। वे तो केवल रोटी को अहमियत देते हैं। अधिकांश लोग उस स्त्री को नफरत की नजर से देख रहे थे। कोई भी उसकी दुविधा को नहीं समझ रहा था।

प्रश्न2 – पास-पड़ोस की दुकानों से पूछने पर लेखक को क्या पता चला?
उत्तर – पास-पड़ोस की दुकानों से पूछने पर लेखक को उस बुढ़िया के दुख के बारे में पता चला। लेखक को पता चला कि बुढ़िया का इकलौता बेटा साँप के काटने से मर गया था। बुढ़िया के घर में उसकी बहू और पोते पोती रहते थे। बुढ़िया का सारा पैसा बेटे के इलाज में खर्च हो गया था। बहू को तेज बुखार था। इसलिए अपने परिवार की भूख मिटाने के लिए बुढ़िया को खरबूजे बेचने के लिए घर से बाहर निकलना पड़ा था।

प्रश्न3 – लड़के को बचाने के लिए बुढ़िया माँ ने क्या-क्या उपाय किए?
उत्तर – लड़के को बचाने के लिए बुढ़िया ने जो उचित लगा, जो उसकी समझ में आया किया। उसने झटपट ओझा को बुलाया। ओझा ने झाड़-फूँक शुरु किया। ओझा को दान दक्षिणा देने के लिए बुढ़िया ने घर में जो कुछ था दे दिया। घर में नागदेव की पूजा भी करवाई।

प्रश्न4 – लेखक ने बुढ़िया के दुःख का अंदाशा कैसे लगाया?
उत्तर – लेखक ने बुढ़िया के दुख का अंदाजा पहले तो बुढ़िया के रोने से लगाया। लेखक को लगा कि जो स्त्री खरबूजे बेचने के लिए आवाज लगाने की बजाय अपना मुँह ढ़क कर रो रही हो वह अवश्य ही गहरे दुख में होगी। फिर लेखक ने देखा कि अन्य लोग बुढ़िया को बड़े नफरत की दृष्टि से देख रहे थे। इससे भी लेखक ने बुढ़िया के दुख का अंदाजा लगाया। लेखक ने उसके पड़ोस में एक संपन्न स्त्री के दुःख के साथ जोड़ कर भी समझना चाहा।

प्रश्न5 – इस पाठ का शीर्षक ‘दुःख का अधिकार’ कहाँ तक सार्थक है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – इस पाठ में मुख्य पात्र एक बुढ़िया है जो पुत्र शोक से पीड़ित है। उस बुढ़िया की तुलना एक अन्य स्त्री से की गई है जिसने ऐसा ही दर्द झेला था। दूसरी स्त्री एक संपन्न घर की थी। इसलिए उस स्त्री ने ढ़ाई महीने तक पुत्र की मृत्यु का शोक मनाया था। उसके शोक मनाने की चर्चा कई लोग करते थे। लेकिन बुढ़िया की गरीबी ने उसे पुत्र का शोक मनाने का भी मौका नहीं दिया। बुढ़िया को मजबूरी में दूसरे ही दिन खरबूजे बेचने के लिए घर से बाहर निकलना पड़ा। ऐसे में लोग उसे नफरत की नजर से ही देख रहे थे। एक स्त्री की संपन्नता के कारण शोक मनाने का पूरा अधिकार मिला वहीं दूसरी स्त्री इस अधिकार से वंचित रह गई। इसलिए इस पाठ का शीर्षक बिलकुल सार्थक है।

निम्नलिखित के आशय स्पष्ट कीजिए –
प्रश्न 1 -जैसे वायु की लहरें कटी हूई पतंग को सहसा भूमि पर नहीं गिर जाने देतीं उसी तरह खास परिस्थितियों में हमारी पोशाक हमें झुक सकने से रोके रहती है।
उत्तर – कोई भी पतंग कटने के तुरंत बाद जमीन पर धड़ाम से नहीं गिरती। हवा की लहरें उस पतंग को बहुत देर तक हवा में बनाए रखती हैं। पतंग धीरे-धीरे बल खाते हुए जमीन की ओर गिरती है। हमारी पोशाक भी हवा की लहरों की तरह काम करती है। कई ऐसे मौके आते हैं कि हम अपनी पोशाक की वजह से झुककर जमीन की सच्चाई जानने से वंचित रह जाते हैं। इस पाठ में लेखक अपनी पोशाक की वजह से बुढ़िया के पास बैठकर उससे बात नहीं कर पाता है।

प्रश्न 2 – इनके लिए बेटा-बेटी, खसम-लुगाई, धर्म-ईमान सब रोटी का टुकड़ा है।
उत्तर – यह एक प्रकार का कटाक्ष है जो किसी की गरीबी और उससे उपजी मजबूरी का उपहास उड़ाता है। जो व्यक्ति यह कटाक्ष कर रहा है उसे सिक्के का एक पहलू ही दिखाई दे रहा है। हर व्यक्ति रिश्तों नातों की मर्यादा रखना चाहता है। लेकिन जब भूख की मजबूरी होती है तो कई लोगों को मजबूरी में यह मर्यादा लांघनी पड़ती है। उस बुढ़िया के साथ भी यही हुआ था। बुढ़िया को न चाहते हुए भी खरबूजे बेचने के लिए निकलना पड़ा था।

प्रश्न 3 – शोक करने, गम मनाने के लिए भी सहूलियत चाहिए और … दुखी होने का भी एक अधिकार होता है।
उत्तर – शोक मनाने की सहूलियत भगवान हर किसी को नहीं देता है। कई बार जीवन में कुछ ऐसी मजबूरियाँ या जिम्मेदारियाँ आ जाती हैं कि मनुष्य को शोक मनाने का मौका भी नहीं मिलता। यह बात खासकर से किसी गरीब पर अधिक लागू होती है। पाठ के आधार पर कहा जा सकता है कि गरीब को तो शोक मनाने का अधिकार ही नहीं होता है।

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