Kallu Kumhar Ki Unakoti Class 9 Hindi Lesson Explanation, Summary, Question Answers

 

Kallu Kumhar Ki Unakoti

 

CBSE Class 9 Hindi Sanchayan Book Lesson 3 Kallu Kumhar Ki Unakoti Explanation, Summary, Question and Answers and Difficult word meaning

 
“कल्लू कुम्हार की उनाकोटी” CBSE Class 9 Hindi Sanchayan Book Lesson 3 summary with detailed explanation of the Lesson along with the meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the Lesson ‘Kallu Kumhar Ki Unakoti’ along with a summary and all the exercises, Question and Answers given at the back of the lesson.

यहाँ हम हिंदी कक्षा 9 ”संचयन – भाग 1” के पाठ 3 “कल्लू कुम्हार की उनाकोटी” के पाठ प्रवेश, पाठ सार, पाठ व्याख्या, कठिन शब्दों के अर्थ, अतिरिक्त प्रश्न और NCERT पुस्तक के अनुसार प्रश्नों के उत्तर इन सभी बारे में जानेंगे –

कक्षा 9 संचयन भाग 1 पाठ 3 – “कल्लू कुम्हार की उनाकोटी”

 

 

लेखक परिचय

लेखक – के. विक्रम सिंह
जन्म – 1938

 

कल्लू कुम्हार की उनाकोटी पाठ प्रवेश

प्रस्तुत पाठ में लेखक के. विक्रम सिंह हमें अपने उनाकोटी की यात्रा के बारे में बता रहा है। लेखक पहले तो अपने बारे में बताता है कि वह किस तरह दूसरों से अलग है और फिर एक दिन लेखक को दिल्ली की एक सुबह के भयानक मौसम को देख कर अचानक उनाकोटी की याद आ गई थी। लेखक ने बहुत ही अद्भुत तरीके से इस पाठ में अपनी पूरी यात्रा का वर्णन किया है। लेखक उनाकोटी क्यों गया था? उनाकोटी तक पहुँचाने तक लेखक को किन-किन समस्यायों का सामना करना पड़ा था?, लेखक किन-किन लोगों से मिला?, उनाकोटी के बारे में लेखक को क्या पता चला? और इस पाठ के शीर्षक कल्लू कुमार के बारे में लेखक को क्या पता चला? इन सभी प्रश्नों के उत्तर इस पाठ को पढ़ कर हम अच्छे से जान पाएँगे।
 
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Kallu Kumhar Ki Unakoti Class 9 Video Explanation

 
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कल्लू कुम्हार की उनाकोटी पाठ सार

लेखक ध्वनि का एक अनोखा गुण बताते हुए कहता है कि वह एक क्षण में ही आपको किसी दूसरे ही समय-संदर्भ में पहुँचा सकती है। लेखक ने ऐसा इसलिए कहा है क्योंकि लेखक यहाँ हमें यह समझाना चाहता है कि जब हम कभी कोई काम कर रहे होते है और अचानक ही कोई तेज आवाज हो तो हम हड़बड़ा जाते है और कुछ समय के लिए कभी-कभी तो भूल भी जाते हैं कि हम क्या काम कर रहे थे। लेखक अपने बारे में कहता है कि वह उन लोगों में से नहीं है जो सुबह चार बजे उठते हैं, पाँच बजे तक सुबह की सैर के लिए तैयार हो जाते हैं और फिर लोधी गार्डन पहुँच कर वहाँ बने मकबरों को निहारते रहते है और अपनी मेम साहबों के साथ में लंबी सैर पर निकल जाते हैं। लेखक तो आमतौर पर सूर्योदय के साथ उठता है और फिर अपनी चाय खुद बनाता है और फिर चाय और अखबार लेकर लंबी आलस से भरी हुई सुबह का मजा लेता है। लेखक कहता है कि अकसर अखबार की खबरों पर उसका कोई ध्यान नहीं रहता। उसका अखबार पढ़ना तो सिर्फ दिमाग को किसी कटी पतंग की तरह ऐसे ही हवा में तैरने देने का एक बहाना है। लेखक किसी एक दिन की सुबह का वर्णन करता हुआ कहता है कि उस दिन अभी लेखक की वह शांतिपूर्ण दिनचर्या शुरू ही हुई थी कि उसमें एक बाधा पड़ गई। उस सुबह लेखक एक ऐसी कान को फाड़ कर रख देने वाली तेज आवाज के कारण जागा, यह आवाज तोप दगने और बम फटने जैसी लग रही थी, उस आवाज को सुनकर लेखक को लगा कि गोया जार्ज डब्लू. बुश और सद्दाम हुसैन की मेहरबानी से तीसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत हो चुकी हो। लेखक ने खुदा का शुक्रियादा किया क्योंकि ऐसी कोई बात नहीं थी। दरअसल यह तो सिर्फ स्वर्ग में चल रहा देवताओं का कोई खेल था, जिसकी झलक बिजलियों की चमक और बादलों की गरज के रूप में देखने को मिल रही थी। लेखक ने खिड़की के बाहर झाँका। लेखक ने देखा कि आकाश बादलों से भरा था जिसे देखकर ऐसा लग रहा था जैसे सेनापतियों द्वारा छोड़ दिए गए सैनिक आतंक में एक-दूसरे से टकरा रहे हो। इस तांडव के गर्जन-तर्जन ने लेखक को तीन साल पहले त्रिपुरा में उनाकोटी की एक शाम की याद दिला दी थी। लेखक कहता है कि वह तीन साल पहले दिसंबर 1999 में ‘ऑन द रोड’ शीर्षक वाली एक टीवी शृंखला बनाने के सिलसिले में मैं त्रिपुरा की राजधानी अगरतला गया था। त्रिपुरा भारत के सबसे छोटे राज्यों में से एक है। चैंतीस प्रतिशत से ज्यादा की इसकी जनसंख्या वृद्धि दर दूसरे राज्यों की अपेक्षा भी खासी ऊँची है। लेखक इसकी सीमा के बारे में बताते हुए कहता है कि यह तीन तरफ से तो बांग्लादेश से घिरा हुआ है और बाकी बचा शेष भाग भारत के साथ ऐसे स्थान से जुड़ा हुआ है जहाँ पर हर किसी का पहुँचना आसान नहीं है। बांग्लादेश से लोगों का बिना अनुमति के त्रिपुरा में आना और यहीं बस जाना जबर्दस्त है और इसे यहाँ सामाजिक रूप से स्वीकार भी किया गया है। यहाँ की असाधारण जनसंख्या वृद्धि का मुख्य कारण लेखक इसी को मानता है। असम और पश्चिम बंगाल से भी लोगों का त्रिपुरा प्रवास यहाँ होता ही है। लेखक कहता है कि पहले के तीन दिनों में उसने अगरतला और उसके आस-पास ही शूटिंग की, जहाँ लेखक शूटिंग कर रहा था वह स्थान कभी मंदिरों और महलों के शहर के रूप में जाना जाता था। त्रिपुरा में लगातार बाहरी लोगों के आने और यहीं बस जाने से कुछ समस्याएँ तो पैदा हुई हैं लेकिन इसके कारण यह राज्य विभिन्न धर्मों वाले समाज का उदाहरण भी बना है। त्रिपुरा में उन्नीस अनुसूचित जनजातियों और विश्व के चारों बड़े धर्मों का प्रतिनिध्त्वि मौजूद है। लेखक कहता है कि अगरतला में शूटिंग के बाद उन्होंने त्रिपुरा का राष्ट्रीय राजमार्ग-44 पकड़ा और टीलियामुरा कस्बे में जा पहुँचे। यहाँ लेखक की मुलाकात हेमंत कुमार जमातिया से हुई जो वहाँ के एक बहुत ही प्रसिद्ध लोकगायक थे और उन्हें 1996 में संगीत नाटक अकादमी द्वारा पुरस्कार भी दिए गए हैं। जिला परिषद ने लेखक की शूटिंग यूनिट के लिए एक भोज का प्रबंध किया था। त्रिपुरा के लोग अभी दिखावटी दुनिया से दूर थे, वे अपने रीती-रिवाजों को ही मानते आ रहे थे। भोजन करने के बाद लेखक ने हेमंत कुमार जमातिया से एक गीत सुनाने की प्रार्थना की और उन्होंने अपनी धरती पर बहती शक्तिशाली नदियों, ताजगी भरी हवाओं और शांति से भरा एक गीत गाया। टीलियामुरा शहर के वार्ड नं. 3 में लेखक की मुलाकात एक और गायक से हुई। वह गायक थी मंजु ऋषिदास। ऋषिदास मोचियों के एक समुदाय का नाम है। लेकिन जूते बनाने के अलावा इस समुदाय के कुछ लोग थाप वाले वाद्यों जैसे तबला और ढोल के निर्माण और उनकी मरम्मत के काम में भी बहुत ज्यादा अच्छे थे। मंजु ऋषिदास के बारे में लेखक बताते हैं कि मंजु ऋषिदास एक बहुत ही आकर्षक महिला थीं और वह एक रेडियो कलाकार भी थी। रेडियो कलाकार होने के अलावा वे नगर पंचायत में अपने वार्ड का प्रतिनिधित्व भी करती थीं। लेखक कहता है कि मंजु ऋषिदास भले ही पढ़ी-लिखी नहीं थीं। लेकिन वे अपने वार्ड की सबसे बड़ी आवश्यकता यानी साफ पीने के पानी के बारे में उन्हें पूरी जानकारी थी। त्रिपुरा के उस मुख्य भाग में प्रवेश करने से पहले जहाँ पर हिंसा हो रही थी, टीलियामुरा वहाँ की आखिरी जगह थी। मुख्य सचिव और आई.जी., सी.आर.पी.एफ. से लेखक ने निवेदन किया था कि वे लेखक और लेखक की पूरी यूनिट को घेरेबंदी में चलने वाले यात्रियों के दलों के आगे-आगे चलने दें। इसके लिए मुख्य सचिव और आई.जी., सी.आर.पी.एफ. पहले तो तैयार नहीं हुए परन्तु फिर थोड़ी ना-नुकुर करने के बाद वे इसके लिए तैयार हो गए लेकिन उन्होंने लेखक के सामने एक शर्त रखी। वह शर्त थी कि लेखक और लेखक के कैमरामैन को सी.आर.पी.एफ. की हथियारों से भरी गाड़ी में चलना होगा और यह काम लेखक और लेखक के कैमरामैन को अपने जोखिम पर करना होगा। लेखक मनु कस्बे के बारे में बताता हुआ कहता है कि त्रिपुरा की प्रमुख नदियों में से एक मनु नदी है। जिसके किनारे स्थित मनु एक छोटा सा कस्बा है। जिस वक्त लेखक और लेखक की यूनिट मनु नदी के पार जाने वाले पुल पर पहुँची, तब शाम हो रही थी और लेखक उस शाम का सुन्दर वर्णन करता हुआ कहता है कि उस शाम को सूर्य की सुनहरी किरणें को मनु नदी के जल पर बिखरा हुआ देखकर ऐसा लग रहा था जैसे सूर्य मनु नदी के पानी में अपना सोना उँड़ेल रहा था। लेखक कहता है कि अब वे सब उत्तरी त्रिपुरा जिले में आ गए थे। यहाँ की लोकप्रिय घरेलू गतिविधियों में से एक गति-विधि अगरबत्तियों के लिए बाँस की पतली सींकें तैयार करना है। अगरबत्तियों के लिए बाँस की पतली सींकें तैयार करने के बाद अगरबत्तियाँ बनाने के लिए इन्हें कर्नाटक और गुजरात भेजा जाता है। उत्तर त्रिपुरा पहुँचाने के बाद लेखक ने वहाँ के जिलाधिकारी से मुलाकात की, वह जिलाधिकारी केरल से आया हुआ एक नौजवान निकला। उसके बारे में लेखक बताता है कि वह जिलाधिकारी बहुत तेज, सभी से अच्छी तरह मिलने वाला और उत्साह से भरा हुआ व्यक्ति था। जब लेखक और वह जिलाधिकारी चाय पी रहे थे उस दौरान उस जिलाधिकारी ने लेखक को बताया कि टी.पी.एस. (टरू पोटेटो सीड्स) की खेती को त्रिपुरा में, खासकर पर उत्तरी जिले में किस तरह से सफलता मिली है। त्रिपुरा से टी.पी.एस. को अब न सिर्फ असम, मिज़ोरम, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश को ही भेजा जाता है, बल्कि अब तो विदेशो में जैसे बांग्लादेश, मलेशिया और विएतनाम को भी भेजा जा रहा है। जिलाधिकारी ने अचानक लेखक से पूछा कि क्या वह उनाकोटी में शूटिंग करना पसंद करेंगा? जिलाधिकारी ने लेखक को उनाकोटी के बारे में आगे बताते हुए कहा कि उनाकोटी भारत का सबसे बड़ा तो नहीं परन्तु सबसे बड़े भगवान् शिव के तीर्थों में से एक जरूर है। जिलाधिकारी कहता है कि यह जगह जंगल में काफी भीतर है हालाँकि जहाँ लेखक और उसकी यूनिट अभी थी वहाँ से इसकी दूरी सिर्फ नौ किलोमीटर ही थी। अब तक जिलाधिकारी ने उनाकोटी के बारे में इतना सब कुछ बता दिया था कि लेखक के पर इस जगह का रंग पूरी तरह से चढ़ चुका था। टीलियामुरा से मनु तक की यात्रा कर लेने के बाद तो लेखक अपने आप को कुछ ज्यादा ही साहसी महसूस करने लगा था। क्योंकि टीलियामुरा से मनु तक की यात्रा बहुत खतरनाक थी और लेखक उसे पार कर चूका था तो उसे लगता है कि वह टीलियामुरा से मनु तक की यात्रा को कर सकता है तो उनाकोटी पहुँचाने के लिए जंगल पार करना कौन सी बड़ी बात है। लेखक हमें उनाकोटी के बारे में बताता हुआ कहता है कि उनाकोटी का मतलब है एक कोटि, यानी एक करोड़ से एक कम। लेखक कहता है कि एक काल्पनिक कथा के अनुसार उनाकोटी में शिव की एक करोड़ से एक कम मूर्तियाँ हैं। यहाँ पहाड़ों को अंदर से काटकर विशाल आधार-मूर्तियाँ बनाई गई हैं। एक बहुत विशाल चट्टान ऋषि भगीरथ की प्रार्थना पर स्वर्ग से पृथ्वी पर गंगा के उतरने की पौराणिक कथा को चित्रित करती है। गंगा के पृथ्वी पर उतरने के धक्के से कहीं पृथ्वी ध्ँसकर पाताल लोक में न चली जाए, इसी वजह से भगवान् शिव को इसके लिए तैयार किया गया कि वे गंगा को अपनी जटाओं में उलझा लें और इसके बाद इसे धीरे-धीरे पृथ्वी पर बहने दें। लेखक कहता है कि यहाँ पर भगवान शिव का चेहरा एक पूरी चट्टान पर बना हुआ है और उनकी जटाएँ दो पहाड़ों की चोटियों पर फैली हुई हैं। भारत में शिव की यह सबसे बड़ी आधार-मूर्ति है। लेखक कहता है कि यहाँ पूरे साल बहने वाला एक झरना पहाड़ों से उतरता है जिसे गंगा जितना ही पवित्र माना जाता है। यह पूरा इलाका ही प्रत्येक शब्द के अनुसार ही देवियों-देवताओं की मूर्तियों से भरा पड़ा है। यहाँ लेखक के कहने का अर्थ है कि यहाँ हर कदम पर आपको किसी न किसी देवी-देवता की मूर्ति जरूर मिल जाएगी। लेखक कहता है कि उनाकोटी में बनी इन आधार-मूर्तियों का निर्माण किसने किया है यह अभी तक पता नहीं किया जा सका हैं। स्थानीय आदिवासियों का मानना है कि इन मूर्तियों का निर्माता कल्लू कुम्हार था। वह माता पार्वती का भक्त था और भगवान शिव-माता पार्वती के साथ उनके निवास स्थान कैलाश पर्वत पर जाना चाहता था। परन्तु भगवान शिव उसे अपने साथ नहीं लेना चाहते थे। पार्वती के जोर देने पर शिव कल्लू को कैलाश ले चलने को तैयार तो हो गए लेकिन इसके लिए उन्होंने कल्लू के सामने एक शर्त रखी और वह शर्त थी कि उसे एक रात में शिव की एक करोड़ मूर्तियाँ बनानी होंगी। कल्लू अपनी धुन का पक्का व्यक्ति था इसलिए वह इस काम में जुट गया।
लेकिन जब सुबह हुई तो कल्लू के द्वारा बनाई गई मूर्तियाँ एक करोड़ से एक कम निकलीं। कल्लू नाम की इस मुसीबत से पीछा छुड़ाने पर अड़े भगवान शिव ने इसी बात को बहाना बनाते हुए कल्लू कुम्हार को उसके द्वारा बनाई गई मूर्तियों के साथ उनाकोटी में ही छोड़ दिया और खुद माता पार्वती के साथ कैलाश की ओर चलते बने। लेखक कहता है कि उस जगह की शूटिंग पूरी करते-करते शाम के चार बज गए थे। सूर्य के ऊँचे पहाड़ों के पीछे जाते ही उनाकोटी में अचानक भयानक अंधकार छा गया। कुछ ही मिनटों में जाने कहाँ से बादल भी घिर आए। जब तक लेखक और लेखक की यूनिट अपने शूटिंग के उपकरण समेटते, तब तक बादलों की सेना गर्जन-तर्जन के साथ कहर बरसाने लगी। ऐसा लग रहा था जैसे शिव का तांडव शुरू हो गया हो। इसी शाम की भयानक गर्जन-तर्जन को याद करके लेखक को वर्तमान में यानि उनाकोटी जाने के तीन साल बाद जाड़े की एक सुबह दिल्ली में वैसे ही मौसम को देख कर उनाकोटी की याद आ गई थी।
 
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कल्लू कुम्हार की उनाकोटी पाठ व्याख्या

पाठ – ध्वनि में यह अद्भुत गुण है कि एक क्षण में ही वह आपको किसी दूसरे समय-संदर्भ में पहुँचा सकती है। मैं उनमें से नहीं हूँ जो सुबह चार बजे उठते हैं, पाँच बजे तक तैयार हो लेते हैं और फिर लोधी गार्डन पहुँच कर मकबरों और मेम साहबों की सोहबत में लंबी सैर पर निकल जाते हैं। मैं आमतौर पर सूर्योदय के साथ उठता हूँ, अपनी चाय खुद बनाता हूँ और फिर चाय और अखबार लेकर लंबी अलसायी सुबह का आनंद लेता हूँ। अकसर अखबार की खबरों पर मेरा कोई ध्यान नहीं रहता। यह तो सिर्फ दिमाग को कटी पतंग की तरह यों ही हवा में तैरने देने का एक बहाना है। दरअसल इसे कटी पतंग योग भी कहा जा सकता है। इसे मैं अपने लिए काफी ऊर्जादायी पाता हूँ और मेरा दृढ़ विश्वास है कि संभवतः इससे मुझे एक और दिन के लिए दुनिया का सामना करने में मदद मिलती है-एक ऐसी दुनिया का सामना करने में जिसका कोई सिर-पैर समझ पाने में मैं अब खुद को असमर्थ पाता हूँ।

शब्दार्थ
अद्भुत – अनोखा
सोहबत – संगति, साथ
अलसायी – आलस से भरी हुई
ऊर्जादायी – शक्ति देने वाला

व्याख्या – लेखक यहाँ ध्वनि के बारे में बात करता हुआ कहता है कि ध्वनि में एक अनोखा गुण यह होता है कि वह एक क्षण में ही वह आपको किसी दूसरे ही समय-संदर्भ में पहुँचा सकती है। लेखक ने ऐसा इसलिए कहा है क्योंकि लेखक यहाँ हमें यह समझाना चाहता है कि जब हम कभी कोई काम कर रहे होते है और अचानक ही कोई तेज आवाज हो तो हम हड़बड़ा जाते है और कुछ समय के लिए कभी-कभी तो भूल भी जाते हैं कि हम क्या काम कर रहे थे। लेखक कहता है कि वह उन लोगों में से नहीं है जो सुबह चार बजे उठते हैं, पाँच बजे तक सुबह की सैर के लिए तैयार हो जाते हैं और फिर लोधी गार्डन पहुँच कर वहाँ बने मकबरों को निहारते रहते है और अपनी मेम साहबों के साथ में लंबी सैर पर निकल जाते हैं। लेखक तो आमतौर पर सूर्योदय के साथ उठता है और फिर अपनी चाय खुद बनाता है और फिर चाय और अखबार लेकर लंबी आलस से भरी हुई सुबह का मजा लेता है। लेखक कहता है कि अकसर अखबार की खबरों पर उसका कोई ध्यान नहीं रहता। उसका अखबार पढ़ना तो सिर्फ दिमाग को किसी कटी पतंग की तरह ऐसे ही हवा में तैरने देने का एक बहाना है। दरअसल लेखक इसे कटी पतंग योग भी कहता है। इस योग से लेखक को ऐसा लगता है जैसे यह योग उसे शक्ति देता हो और लेखक का दृढ़ विश्वास है कि संभवतः इससे ही लेखक को एक और दिन के लिए दुनिया का सामना करने में मदद मिलती है। यह लेखक एक ऐसी दुनिया का सामना करने की बात करता है जिसका कोई सिर-पैर समझ पाने में लेखक अब तक खुद को असमर्थ पाता है। क्योंकि हमारी दुनिया में हर समय कुछ न कुछ घटनाएँ होती रहती है और लेखक को यह सब समझ नहीं आता।

पाठ –  अभी हाल में मेरी इस शांतिपूर्ण दिनचर्या में एक दिन खलल पड़ गया। मैं जगा एक ऐसी कानफाड़ू आवाज से, जो तोप दगने और बम फटने जैसी थी, गोया जार्ज डब्लू. बुश और सद्दाम हुसैन की मेहरबानी से तीसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत हो चुकी हो। खुदा का शुक्र है कि ऐसी कोई बात नहीं थी। दरअसल यह तो महज स्वर्ग में चल रहा देवताओं का कोई खेल था, जिसकी झलक बिजलियों की चमक और बादलों की गरज के रूप में देखने को मिल रही थी।
मैंने खिड़की के बाहर झाँका। आकाश बादलों से भरा था जो सेनापतियों द्वारा त्याग दिए गए सैनिकों की तरह आतंक में एक-दूसरे से टकरा रहे थे। विक्षिप्तों की तरह आकाश को भेद-भेद देने वाली तड़ित के अलावा जाड़े की अलस्सुबह का ठंडा भूरा आकाश भी था, जो प्रकृति के तांडव को एक पृष्ठभूमि मुहैया करा रहा था। इस तांडव के गर्जन-तर्जन ने मुझे तीन साल पहले त्रिपुरा में उनाकोटी की एक शाम में पहुँचा दिया।

शब्दार्थ
खलल – बाधा, विघन
कानफाड़ू – कान को फाड़ कर रख देने वाली आवाज
महज – सिर्फ
विक्षिप्त – पागल
तड़ित – बिजली
अलस्सुबह – तड़के, बिलकुल सुबह

व्याख्या – लेखक किसी एक दिन की सुबह का वर्णन करता हुआ कहता है कि उस दिन अभी लेखक की वह शांतिपूर्ण दिनचर्या शुरू ही हुई थी कि उसमें एक बाधा पड़ गई। उस सुबह लेखक एक ऐसी कान को फाड़ कर रख देने वाली तेज आवाज के कारण जागा, यह आवाज तोप दगने और बम फटने जैसी लग रही थी, उस आवाज को सुनकर लेखक को लगा कि गोया जार्ज डब्लू. बुश और सद्दाम हुसैन की मेहरबानी से तीसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत हो चुकी हो। लेखक ने खुदा का शुक्रियादा किया क्योंकि ऐसी कोई बात नहीं थी। दरअसल यह तो सिर्फ स्वर्ग में चल रहा देवताओं का कोई खेल था, जिसकी झलक बिजलियों की चमक और बादलों की गरज के रूप में देखने को मिल रही थी। लेखक ने खिड़की के बाहर झाँका। लेखक ने देखा कि आकाश बादलों से भरा था जिसे देखकर ऐसा लग रहा था जैसे सेनापतियों द्वारा छोड़ दिए गए सैनिक आतंक में एक-दूसरे से टकरा रहे हो। पागलों की तरह आकाश को भेद-भेद देने वाली बिजली के अलावा जाड़े की उस बिल्कुल सुबह का ठंडा भूरा आकाश था, जो प्रकृति के तांडव को एक पृष्ठभूमि तैयार कर के दे रहा था। इस तांडव के गर्जन-तर्जन ने लेखक को तीन साल पहले त्रिपुरा में उनाकोटी की एक शाम की याद दिला दी थी।

पाठ – दिसंबर 1999 में ‘ऑन द रोड’ शीर्षक से तीन खंडों वाली एक टीवी शृंखला बनाने के सिलसिले में मैं त्रिपुरा की राजधानी अगरतला गया था। इसके पीछे बुनियादी विचार त्रिपुरा की समूची लंबाई में आर-पार जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग-44 से यात्रा करने और त्रिपुरा की विकास सम्बन्धी गतिविधियों के बारे में जानकारी देने का था।
त्रिपुरा भारत के सबसे छोटे राज्यों में से है। चैंतीस प्रतिशत से ज्यादा की इसकी जनसंख्या वृद्धि दर भी खासी ऊँची है। तीन तरफ से यह बांग्लादेश से घिरा हुआ है और शेष भारत के साथ इसका दुर्गम जुड़ाव उत्तर-पूर्वी सीमा से सटे मिज़ोरम और असम के द्वारा बनता है। सोनामुरा, बेलोनिया, सबरूम और कैलासशहर जैसे त्रिपुरा के ज्यादातर महत्त्वपूर्ण शहर बांग्लादेश के साथ इसकी सीमा के करीब हैं। यहाँ तक कि अगरतला भी सीमा चैकी से महज दो किलोमीटर पर है। बांग्लादेश से लोगों की अवैध् आवक यहाँ ज़बरदस्त है और इसे यहाँ सामाजिक स्वीकृति भी हासिल है। यहाँ की असाधरण जनसंख्या वृद्धि का मुख्य कारण यही है। असम और पश्चिम बंगाल से भी लोगों का प्रवास यहाँ होता ही है। कुल मिलाकर बाहरी लोगों की भारी आवक ने जनसंख्या संतुलन को स्थानीय आदिवासियों के खिलाफ ला खड़ा किया है। यह त्रिपुरा में आदिवासी असंतोष की मुख्य वजह है।

शब्दार्थ
समूची – पूरी
दुर्गम – ऐसी जगह जहाँ जाना आसान न हो
अवैध् आवक – बिना अनुमति के आना

व्याख्या – लेखक कहता है कि वह तीन साल पहले दिसंबर 1999 में ‘ऑन द रोड’ शीर्षक वाली एक टीवी शृंखला बनाने के सिलसिले में मैं त्रिपुरा की राजधानी अगरतला गया था। यह टीवी शृंखला तीन खंडों में बनने वाली थी। इसको बनाने के पीछे बुनियादी विचार त्रिपुरा की पूरी लंबाई में आर-पार जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग-44 से यात्रा करने और त्रिपुरा की विकास से सम्बन्धी सभी गतिविधियों के बारे में लोगों को जानकारी देने का था। लेखक बताता है कि त्रिपुरा भारत के सबसे छोटे राज्यों में से एक है। चैंतीस प्रतिशत से ज्यादा की इसकी जनसंख्या वृद्धि दर दूसरे राज्यों की अपेक्षा भी खासी ऊँची है। लेखक इसकी सीमा के बारे में बताते हुए कहता है कि यह तीन तरफ से तो बांग्लादेश से घिरा हुआ है और बाकि बचा शेष भाग भारत के साथ ऐसे स्थान से जुड़ा हुआ है जहाँ पर हर किसी का पहुँचना आसान नहीं है। यह स्थान भारत के उत्तर-पूर्वी सीमा से सटे मिज़ोरम और असम के द्वारा बनता है। सोनामुरा, बेलोनिया, सबरूम और कैलासशहर जैसे त्रिपुरा के ज्यादातर महत्त्वपूर्ण शहर बांग्लादेश के साथ इसकी सीमा के करीब ही हैं। लेखक बताता है कि त्रिपुरा की राजधानी अगरतला भी सीमा चैकी से महज दो किलोमीटर की दुरी पर है। बांग्लादेश से लोगों का बिना अनुमति के त्रिपुरा में आना और यहीं बस जाना ज़बरदस्त है और इसे यहाँ सामाजिक रूप से स्वीकार भी किया गया है। यहाँ की असाधारण जनसंख्या वृद्धि का मुख्य कारण लेखक इसी को मानता है। असम और पश्चिम बंगाल से भी लोगों का त्रिपुरा प्रवास यहाँ होता ही है। कुल मिलाकर बाहरी लोगों की इस तरह भारी संख्या में आना और यही बस जाने के कारण जनसंख्या संतुलन को यहाँ के स्थानीय आदि-वासियों के खिलाफ ला खड़ा किया है। यह कारण त्रिपुरा में आदिवासी असंतोष की मुख्य वजह भी है।

पाठ – पहले तीन दिनों में मैंने अगरतला और उसके इर्द-गिर्द शूटिंग की, जो कभी मंदिरों और महलों के शहर के रूप में जाना जाता था। उज्जयंत महल अगरतला का मुख्य महल है जिसमें अब वहाँ की राज्य विधनसभा बैठती है। राजाओं से आम जनता को हुए सत्ता हस्तांतरण को यह महल अब नाटकीय रूप में प्रतीकित करता है। इसे भारत के सबसे सफल शासक वंशों में से एक, लगातार 183 क्रमिक राजाओं वाले त्रिपुरा के माणिक्य वंश का दुखद अंत ही कहेंगे।
त्रिपुरा में लगातार बाहरी लोगों के आने से कुछ समस्याएँ तो पैदा हुई हैं लेकिन इसके चलते यह राज्य बहुधर्मिक समाज का उदाहरण भी बना है। त्रिपुरा में उन्नीस अनुसूचित जनजातियों और विश्व के चारों बड़े धर्मों का प्रतिनिध्त्वि मौजूद है। अगरतला के बाहरी हिस्से पैचारथल में मैंने एक सुंदर बौद्ध मंदिर देखा। पूछने पर मुझे बताया गया कि त्रिपुरा के उन्नीस कबीलों में से दो, यानी चकमा और मुघ महायानी बौद्ध हैं। ये कबीले त्रिपुरा में बर्मा या म्यांमार से चटगाँव के रास्ते आए थे। दरअसल इस मंदिर की मुख्य बुध प्रतिमा भी 1930 के दशक में रंगून से लाई गई थी।

शब्दार्थ
इर्द-गिर्द – आस-पास
हस्तांतरण – एक व्यक्ति के हाथ से दूसरे व्यक्ति के हाथ में जाना
प्रतीकित – अभिव्यक्त करना
बहुधर्मिक – बहुत धर्मों वाला

व्याख्या – लेखक कहता है कि पहले के तीन दिनों में उसने अगरतला और उसके आस-पास ही शूटिंग की, जहाँ लेखक शूटिंग कर रहा था वह स्थान कभी मंदिरों और महलों के शहर के रूप में जाना जाता था। लेखक कहता है कि उज्जयंत महल अगरतला का मुख्य महल है जिसका प्रयोग अब वहाँ की राज्य विधानसभा के लिए किया जाता है। राजाओं के पास से आम जनता के हाथों में आने की कहानी को यह महल अब किसी नाटक के रूप में व्यक्त करता है। लेखक यहाँ बताना चाहता है कि इसे भारत के सबसे सफल शासक वंशों में से एक, माणिक्य वंश का दुखद अंत ही कहेंगे क्योंकि इस वंश के लगातार 183 राजाओं ने त्रिपुरा पर राज किया था। लेखक कहता है कि त्रिपुरा में लगातार बाहरी लोगों के आने और यहीं बस जाने से कुछ समस्याएँ तो पैदा हुई हैं लेकिन इसके कारण यह राज्य विभिन्न धर्मों वाले समाज का उदाहरण भी बना है। त्रिपुरा में उन्नीस अनुसूचित जनजातियों और विश्व के चारों बड़े धर्मों का प्रतिनिध्त्वि मौजूद है। अगरतला के बाहरी हिस्से पैचारथल में लेखक ने एक सुंदर बौद्ध मंदिर भी देखा था। जब लेखक ने उसके बारे में पूछा तो लेखक को बताया गया कि त्रिपुरा के उन्नीस कबीलों में से दो कबीले, यानी चकमा और मुघ महायानी बौद्ध हैं। ये कबीले त्रिपुरा में बर्मा या म्यांमार से चटगाँव के रास्ते से आए थे। लेखक को यह भी बताया गया कि इस मंदिर की जो मुख्य बुध प्रतिमा है उसे भी 1930 के दशक में रंगून से यहाँ लाया गया था।

पाठ – अगरतला में शूटिंग के बाद हमने राष्ट्रीय राजमार्ग-44 पकड़ा और टीलियामुरा कस्बे में पहुँचे जो दरअसल कुछ ज्यादा बड़ा हो गया गाँव ही है। यहाँ मेरी मुलाकात हेमंत कुमार जमातिया से हुई जो यहाँ के एक प्रसिद्ध लोक-गायक हैं और जो 1996 में संगीत नाटक अकादमी द्वारा पुरस्कृत भी हो चुके हैं। हेमंत कोकबारोक बोली में गाते हैं जो त्रिपुरा की कबीलाई बोलियों में से है। जवानी के दिनों में वे पीपुल्स लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन के कार्यकर्ता थे। लेकिन जब उनसे मेरी मुलाकात हुई तब वे हथियारबंद संघर्ष का रास्ता छोड़ चुके थे और चुनाव लड़ने के बाद जिला परिषद के सदस्य बन गए थे।
जिला परिषद ने हमारी शूटिंग यूनिट के लिए एक भोज का आयोजन किया। यह एक सीध-सादा खाना था जिसे सम्मान और लगाव के साथ परोसा गया था। भारत की मुख्य धरा में आई मुँहजोर और दिखावेबाज संस्कृति ने अभी त्रिपुरा के जन-जीवन को नष्ट नहीं किया है। भोज के बाद मैंने हेमंत कुमार जमातिया से एक गीत सुनाने का अनुरोध् किया और उन्होंने अपनी धरती पर बहती शक्तिशाली नदियों, ताजगी भरी हवाओं और शांति का एक गीत गाया। त्रिपुरा में संगीत की जड़ें काफी गहरी प्रतीत होती हैं। ग़ौरतलब है कि बॉलीवुड के सबसे मौलिक संगीतकारों में एक एस.डी. बर्मन त्रिपुरा से ही आए थे। दरअसल वे त्रिपुरा के राज-परिवार के उत्तराधिकारियों में से थे।

शब्दार्थ
कबीलाई – कबीलों से सम्बन्धित
हथियारबंद – हथियारों के साथ
अनुरोध् – प्रार्थना

व्याख्या – लेखक कहता है कि अगरतला में शूटिंग के बाद उन्होंने त्रिपुरा का राष्ट्रीय राजमार्ग-44 पकड़ा और टीलियामुरा कस्बे में जा पहुँचे। लेखक कहता है कि वह क़स्बा अब दरअसल कुछ ज्यादा बड़ा हो गया था उसे गाँव ही कहना ठीक है। यहाँ लेखक की मुलाकात हेमंत कुमार जमातिया से हुई जो वहाँ के एक बहुत ही प्रसिद्ध लोक-गायक थे और उन्हें 1996 में संगीत नाटक अकादमी द्वारा पुरस्कार भी दिए गए हैं। हेमंत वहाँ की ही एक बोली-कोकबारोक बोली में गीत गाते हैं। यह बोली त्रिपुरा में मौजूद कबीलों की बोलियों में से एक है। लेखक बताते हैं कि जवानी के दिनों में हेमंत कुमार जमातिया पीपुल्स लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन के कार्यकर्ता थे। लेकिन जब उनसे लेखक की मुलाकात हुई तब वे हथियारों के साथ संघर्ष का रास्ता छोड़ चुके थे और चुनाव लड़ने के बाद अब वे जिला परिषद के सदस्य बन गए थे। लेखक कहता है कि जिला परिषद ने लेखक की शूटिंग यूनिट के लिए एक भोज का प्रबंध किया था। यह एक सीध-सादा खाना था जिसे जिला परिषद के सदस्यों ने सम्मान और लगाव के साथ उन लोगों के सामने परोसा था। लेखक यहाँ यह भी स्पष्ट करता है कि भारत में जो एक दूसरे की देखा-देखी की संस्कृति बन चुकी थी उसने अभी तक फिलहाल त्रिपुरा के जन-जीवन को नष्ट नहीं किया था कहने का तात्पर्य यह है कि त्रिपुरा के लोग अभी दिखावटी दुनिया से दूर थे, वे अपने रीती-रिवाजों को ही मानते आ रहे थे। भोजन करने के बाद लेखक ने हेमंत कुमार जमातिया से एक गीत सुनाने की प्रार्थना की और उन्होंने अपनी धरती पर बहती शक्तिशाली नदियों, ताजगी भरी हवाओं और शांति से भरा एक गीत गाया। लेखक के अनुसार त्रिपुरा में संगीत की जड़ें काफी गहरी हैं। गौरतलब है कि बॉलीवुड के सबसे मौलिक या मनपसंद संगीतकारों में एक एस.डी. बर्मन त्रिपुरा से ही आए थे। दरअसल वे त्रिपुरा के राजपरिवार के उत्तराधिकारियों में से एक थे।

पाठ – टीलियामुरा शहर के वार्ड नं. 3 में मेरी मुलाकात एक और गायक मंजु ऋषिदास से हुई। ऋषिदास मोचियों के एक समुदाय का नाम है। लेकिन जूते बनाने के अलावा इस समुदाय के कुछ लोगों की विशेषज्ञता थाप वाले वाद्यों जैसे तबला और ढोल के निर्माण और उनकी मरम्मत के काम में भी है। मंजु ऋषिदास आकर्षक महिला थीं और रेडियो कलाकार होने के अलावा नगर पंचायत में अपने वार्ड का प्रतिनिधित्व भी करती थीं। वे निरक्षर थीं। लेकिन अपने वार्ड की सबसे बड़ी आवश्यकता यानी स्वच्छ पेयजल के बारे में उन्हें पूरी जानकारी थी। नगर पंचायत को वे अपने वार्ड में नल का पानी पहुँचाने और इसकी मुख्य गलियों में ईंटें बिछाने के लिए राशी कर चुकी थीं।
हमारे लिए उन्होंने दो गीत गाए और इसमें उनके पति ने शामिल होने की कोशिश की क्योंकि मैं उस समय उनके गाने की शूटिंग भी कर रहा था। गाने के बाद वे तुरंत एक गृहिणी की भूमिका में भी आ गईं और बगैर किसी हिचक के हमारे लिए चाय बनाकर ले आईं। मैं इस बात को लेकर आश्वस्त हूँ कि किसी उत्तर भारतीय गाँव में ऐसा होना संभव नहीं है क्योंकि स्वच्छता के नाम पर एक नए किस्म की अछूत-प्रथा वहाँ अब भी चलन में है।

शब्दार्थ
विशेषज्ञता – किसी काम को करने में निपूर्ण होना
निरक्षर – अनपढ़
पेयजल – पीने का पानी
आश्वस्त – पूरा विश्वास होना

व्याख्या – लेखक कहता है कि टीलियामुरा शहर के वार्ड नं. 3 में लेखक की मुलाकात एक और गायक से हुई। वह गायक थी मंजु ऋषिदास। ऋषिदास मोचियों के एक समुदाय का नाम है। लेकिन जूते बनाने के अलावा इस समुदाय के कुछ लोग थाप वाले वाद्यों जैसे तबला और ढोल के निर्माण और उनकी मरम्मत के काम में भी बहुत ज्यादा अच्छे थे। मंजु ऋषिदास के बारे में लेखक बताते हैं कि मंजु ऋषिदास एक बहुत ही आकर्षक महिला थीं और वह एक रेडियो कलाकार भी थी। रेडियो कलाकार होने के अलावा वे नगर पंचायत में अपने वार्ड का प्रतिनिधित्व भी करती थीं। लेखक कहता है कि मंजु ऋषिदास भले ही पढ़ी-लिखी नहीं थीं। लेकिन वे अपने वार्ड की सबसे बड़ी आवश्यकता यानी साफ पीने के पानी के बारे में उन्हें पूरी जानकारी थी। नगर पंचायत को वे अपने वार्ड में नल का पानी पहुँचाने और इसकी मुख्य गलियों में ईंटें बिछाने के लिए पैसों का इंतज़ाम कर चुकी थीं। लेखक कहता है कि मंजु ऋषिदास ने भी लेखक और उनकी यूनिट के लिए दो गीत गाए और इसमें उनके पति ने शामिल होने की कोशिश की क्योंकि लेखक उस समय उनके गाने की शूटिंग भी कर रहा था। लेखक बताता है कि गाना गाने के बाद वे तुरंत एक गृहिणी की भूमिका में भी आ गईं और बिना किसी हिचक के उन सब के लिए चाय बनाकर ले आईं। लेखक इस बात को लेकर पूरे विश्वास से कह सकता है कि किसी उत्तर भारतीय गाँव में ऐसा होना संभव नहीं है क्योंकि जिस समय की बात लेखक कर रहा है उस समय स्वच्छता के नाम पर एक नए किस्म की अछूत-प्रथा उत्तर भारतीय के प्रत्येक गाँव में अब भी चल रही थी।

पाठ – त्रिपुरा के हिंसाग्रस्त मुख्य भाग में प्रवेश करने से पहले, अंतिम पड़ाव टीलियामुरा ही है। राष्ट्रीय राजमार्ग-44 पर अगले 83 किलोमीटर यानी मनु तक की यात्रा के दौरान ट्रैफिक सी.आर.पी.एफ. की सुरक्षा में काफिलों की शक्ल में चलता है। मुख्य सचिव और आई.जी., सी.आर.पी.एफ. से मैंने निवेदन किया था कि वे हमें घेरेबंदी में चलने वाले काफिले के आगे-आगे चलने दें। थोड़ी ना-नुकुर के बाद वे इसके लिए तैयार हो गए लेकिन उनकी शर्त यह थी कि मुझे और मेरे कैमरामैन को सी.आर.पी.एफ. की हथियारबंद गाड़ी में चलना होगा और यह काम हमें अपने जोखिम पर करना होगा।
काफिला दिन में 11 बजे के आसपास चलना शुरू हुआ। मैं अपनी शूटिंग के काम में ही इतना व्यस्त था कि उस समय तक डर के लिए कोई गुंजाईश ही नहीं थी जब तक मुझे सुरक्षा प्रदान कर रहे सी.आर.पी.एफ. कर्मी ने साथ की निचली पहाड़ियों पर इरादतन रखे दो पत्थरों की तरफ मेरा ध्यान आकृष्ट नहीं किया। “दो दिन पहले हमारा एक जवान यहीं विद्रोहियों द्वारा मार डाला गया था”, उसने कहा। मेरी रीढ़ में एक झुरझुरी सी दौड़ गई। मनु तक की अपनी शेष यात्रा में मैं यह खयाल अपने दिल से निकाल नहीं पाया कि हमें घेरे हुए सुंदर और अन्यथा शांतिपूर्ण प्रतीत होने वाले जंगलों में किसी जगह बंदूकें लिए विद्रोही भी छिपे हो सकते हैं।

शब्दार्थ
हिंसाग्रस्त – जहाँ हिंसा हो रही हो
अंतिम पड़ाव – आखिरी जगह
काफिला – दल
आकृष्ट – आकर्षित

व्याख्या – लेखक कहता है कि त्रिपुरा के उस मुख्य भाग में प्रवेश करने से पहले जहाँ पर हिंसा हो रही थी, टीलियामुरा वहाँ की आखिरी जगह थी। लेखक बताता है कि वहाँ पर राष्ट्रीय राजमार्ग-44 पर अगले 83 किलोमीटर यानी मनु तक की यात्रा के दौरान ट्रैफिक सी.आर.पी.एफ. की सुरक्षा में यात्रियों के दलों की शक्ल में चलता था। मुख्य सचिव और आई.जी., सी.आर.पी.एफ. से लेखक ने निवेदन किया था कि वे लेखक और लेखक की पूरी यूनिट को घेरेबंदी में चलने वाले यात्रियों के दलों के आगे-आगे चलने दें। इसके लिए मुख्य सचिव और आई.जी., सी.आर.पी.एफ. पहले तो तैयार नहीं हुए परन्तु फिर थोड़ी ना-नुकुर करने के बाद वे इसके लिए तैयार हो गए लेकिन उन्होंने लेखक के सामने एक शर्त रखी। वह शर्त थी कि लेखक और लेखक के कैमरामैन को सी.आर.पी.एफ. की हथियारों से भरी गाड़ी में चलना होगा और यह काम लेखक और लेखक के कैमरामैन को अपने जोखिम पर करना होगा। यात्रियों का समूह दिन में लगभग 11 बजे के आसपास चलना शुरू हुआ। लेखक कहता है कि वह अपनी शूटिंग के काम में ही इतना व्यस्त था कि उस समय तक डर के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं थी जब तक लेखक को सुरक्षा प्रदान कर रहे सी.आर.पी.एफ. कर्मी ने साथ की निचली पहाड़ियों पर किसी इरादे से रखे दो पत्थरों की तरफ लेखक का ध्यान आकर्षित नहीं हुआ। जब लेखक ने उन दो पत्थरों के बारे में पूछा तो सी.आर.पी.एफ. कर्मी ने लेखक को बताया कि दो दिन पहले ही उनके एक जवान को यहीं विद्रोहियों द्वारा मार डाला गया था। यह सुन कर लेखक कहता है कि डर के कारण लेखक की रीढ़ में एक झुरझुरी सी दौड़ गई थी। मनु तक की अपनी शेष यात्रा में लेखक अपने दिल से यह खयाल निकाल नहीं पाया कि उनको घेरे हुए सुंदर और पूरी तरह से शांतिपूर्ण लगने वाले जंगलों में किसी जगह बंदूकें लिए विद्रोही भी छिपे हो सकते हैं। अब लेखक को डर लगने लगा था।

पाठ – त्रिपुरा की प्रमुख नदियों में से एक मनु नदी के किनारे स्थित मनु एक छोटा कस्बा है। जिस वक्त हम मनु नदी के पार जाने वाले पुल पर पहुँचे, सूर्य मनु के जल में अपना सोना उँड़ेल रहा था। वहाँ मैंने एक और काफिला देखा। एक साथ बँधे हजारों बाँसों का एक काफिला किसी विशाल ड्रैगन जैसा दिख रहा था और नदी पर बहा चला आ रहा था। डूबते सूरज की सुनहरी रोशनी उसे सुलगा रही थी और हमारे काफिले को सुरक्षा दे रही सी.आर.पी.एफ. की एक समूची कंपनी के उलट इसकी सुरक्षा का काम सिर्फ चार व्यक्ति सँभाले हुए थे।
अब हम उत्तरी त्रिपुरा जिले में आ गए थे। यहाँ की लोकप्रिय घरेलू गतिविधियों में से एक है अगरबत्तियों के लिए बाँस की पतली सींकें तैयार करना। अगरबत्तियाँ बनाने के लिए इन्हें कर्नाटक और गुजरात भेजा जाता है। उत्तरी त्रिपुरा जिले का मुख्यालय कैलासशहर है, जो बांग्लादेश की सीमा के काफी करीब है।

व्याख्या – लेखक मनु कस्बे के बारे में बताता हुआ कहता है कि त्रिपुरा की प्रमुख नदियों में से एक मनु नदी है। जिसके किनारे स्थित मनु एक छोटा सा कस्बा है। जिस वक्त लेखक और लेखक की यूनिट मनु नदी के पार जाने वाले पुल पर पहुँची, तब शाम हो रही थी और लेखक उस शाम का सुन्दर वर्णन करता हुआ कहता है कि उस शाम को सूर्य की सुनहरी किरणें को मनु नदी के जल पर बिखरा हुआ देखकर ऐसा लग रहा था जैसे सूर्य मनु नदी के पानी में अपना सोना उँड़ेल रहा था। वहाँ लेखक को एक और यात्रियों का दल दिखा। लेखक कहता है कि एक साथ बँधे हजारों बाँसों के उस समूह को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे लेखक कोई विशाल ड्रैगन देख रहा हो और ऐसा लग रहा था कि वह नदी पर बहा चला आ रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे डूबते सूरज की सुनहरी रोशनी उसे सुलगा रही थी और लेखक और लेखक की यूनिट के समूह को सुरक्षा दे रही सी.आर.पी.एफ. की एक समूची कंपनी के उलट उस दूसरे समूह की सुरक्षा का काम सिर्फ चार व्यक्ति सँभाले हुए थे। लेखक कहता है कि अब हम वे सब उत्तरी त्रिपुरा जिले में आ गए थे। यहाँ की लोकप्रिय घरेलू गतिविधियों में से एक गति-विधि अगरबत्तियों के लिए बाँस की पतली सींकें तैयार करना है। अगरबत्तियों के लिए बाँस की पतली सींकें तैयार करने के बाद अगरबत्तियाँ बनाने के लिए इन्हें कर्नाटक और गुजरात भेजा जाता है। लेखक यहाँ बताता है कि उत्तरी त्रिपुरा जिले का मुख्यालय कैलासशहर है, जो बांग्लादेश की सीमा के काफी करीब है।

पाठ – मैंने यहाँ के जिलाधिकारी से मुलाकात की, जो केरल से आए एक नौजवान निकले। वे तेज़तर्रार, मिलनसार और उत्साही व्यक्ति थे। चाय के दौरान उन्होंने मुझे बताया कि टी.पी.एस. (टरू पोटेटो सीड्स) की खेती को त्रिपुरा में, खासकर उत्तरी जिले में किस तरह सफलता मिली है। आलू की बुआई के लिए आमतौर पर पारंपरिक आलू के बीजों की शुरुआत दो मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर पड़ती है। इसके बरक्स टी.पी.एस की सिर्फ 100 ग्राम मात्रा ही एक हेक्टेयर की बुआई के लिए काफी होती है। त्रिपुरा से टी.पी.एस. का निर्यात अब न सिर्फ असम, मिजोरम, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश को, बल्कि बांग्लादेश, मलेशिया और विएतनाम को भी किया जा रहा है। कलेक्टर ने अपने एक अधिकारी को हमें मुराई गाँव ले जाने को कहा, जहाँ टी.पी.एस. की खेती की जाती थी।

शब्दार्थ
तेशतर्रार – बहुत तेज
मिलनसार – सभी से अच्छी तरह घुलने-मिलने वाला
पारंपरिक – परम्परागत, काफी समय से चली आ रही कोई प्रथा
निर्यात – माल बाहर भेजना

व्याख्या – लेखक कहता है कि उत्तर त्रिपुरा पहुँचाने के बाद लेखक ने वहाँ के जिलाधिकारी से मुलाकात की, वह जिलाधिकारी केरल से आया हुआ एक नौजवान निकला। उसके बारे में लेखक बताता है कि वह जिलाधिकारी बहुत तेज, सभी से अच्छी तरह मिलने वाला और उत्साह से भरा हुआ व्यक्ति था। जब लेखक और वह जिलाधिकारी चाय पी रहे थे उस दौरान उस जिलाधिकारी ने लेखक को बताया कि टी.पी.एस. (टरू पोटेटो सीड्स) की खेती को त्रिपुरा में, खासकर पर उत्तरी जिले में किस तरह से सफलता मिली है। आलू की बुआई के लिए आमतौर पर परम्परागत आलू के बीजों की शुरुआत दो मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर पड़ती है। इसके बरक्स टी.पी.एस की सिर्फ 100 ग्राम मात्रा ही एक हेक्टेयर की बुआई के लिए काफी होती है। त्रिपुरा से टी.पी.एस. को अब न सिर्फ असम, मिजोरम, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश को ही भेजा जाता है, बल्कि अब तो विदेशो में जैसे बांग्लादेश, मलेशिया और विएतनाम को भी भेजा जा रहा है। कलेक्टर ने अपने एक अधिकारी को लेखक और लेखक की यूनिट को मुराई गाँव ले जाने को कहा, जहाँ टी.पी.एस. की खेती की जाती थी।

पाठ – फिर जिलाधिकारी ने अचानक मुझसे पूछा, “क्या आप उनाकोटी में शूटिंग करना पसंद करेंगे?”
यह नाम मुझे कुछ जाना-पहचाना सा लगा, लेकिन इसके बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी। जिलाधिकारी ने आगे बताया कि यह भारत का सबसे बड़ा नहीं तो सबसे बड़े शैव तीर्थों में से एक है। संसार के इस हिस्से में जहाँ युगों से स्थानीय आदिवासी धर्म ही फलते-फूलते रहे हैं, एक शैव तीर्थ? जिलाधिकारी के लिए मेरी उत्सुकता स्पष्ट थी। ‘यह जगह जंगल में काफी भीतर है हालाँकि यहाँ से इसकी दूरी सिर्फ नौ किलोमीटर है।’ अब तक मेरे ऊपर इस जगह का रंग चढ़ चुका था। टीलियामुरा से मनु तक की यात्रा कर लेने के बाद मैं खुद को ज्यादा साहसी भी महसूस करने लगा था। मैंने कहा कि मैं निश्चय ही वहाँ जाना चाहूँगा और यदि संभव हुआ तो इस जगह की शूटिंग करना भी मुझे अच्छा लगेगा।
अगले दिन जिलाधिकारी ने सारे सुरक्षा इंतजाम किए और यहाँ तक कि उनाकोटी में ही हमें लंच कराने का प्रस्ताव भी रखा। वहाँ हम सुबह नौ बजे के आसपास पहुँच गए लेकिन एक घंटे हमें इंतजार करना पड़ा क्योंकि खासे ऊँचे पहाड़ों से घिरी होने के चलते इस जगह सूरज की रोशनी दस बजे ही पहुँच पाती है।

शब्दार्थ 
शैव तीर्थ – भगवान् शिव के तीर्थ

व्याख्या – लेखक कहता है कि जिलाधिकारी से जब वह बात कर रहा था तो जिलाधिकारी ने अचानक लेखक से पूछा कि क्या वह उनाकोटी में शूटिंग करना पसंद करेंगा? लेखक को यह नाम कुछ जाना-पहचाना सा लग रहा था, लेकिन इसके बारे में लेखक को कोई जानकारी नहीं थी। जिलाधिकारी ने लेखक को उनाकोटी के बारे में आगे बताते हुए कहा कि उनाकोटी भारत का सबसे बड़ा तो नहीं परन्तु सबसे बड़े भगवान शिव के तीर्थों में से एक जरूर है। जिलाधिकारी लेखक को बताता है कि संसार के इस हिस्से में युगों से केवल स्थानीय आदिवासी धर्म ही फलते-फूलते रहे हैं, और यह एक प्रसिद्ध शिव तीर्थ है। जिलाधिकारी के लिए लेखक की उत्सुकता स्पष्ट थी। जिलाधिकारी कहता है कि यह जगह जंगल में काफी भीतर है हालाँकि जहाँ लेखक और उसकी यूनिट अभी थी वहाँ से इसकी दूरी सिर्फ नौ किलोमीटर ही थी। अब तक जिलाधिकारी ने उनाकोटी के बारे में इतना सब कुछ बता दिया था कि लेखक के पर इस जगह का रंग पूरी तरह से चढ़ चुका था। टीलियामुरा से मनु तक की यात्रा कर लेने के बाद तो लेखक अपने आप को कुछ ज्यादा ही साहसी महसूस करने लगा था। क्योंकि टीलियामुरा से मनु तक की यात्रा बहुत खतरनाक थी और लेखक उसे पार कर चूका था तो उसे लगता है कि वह टीलियामुरा से मनु तक की यात्रा को कर सकता है तो उनाकोटी पहुँचाने के लिए जंगल पार करना कौन सी बड़ी बात है। लेखक ने जिलाधिकारी से कहा कि वह निश्चय ही वहाँ जाना चाहेगा और यदि संभव हुआ तो उसे उस जगह की शूटिंग करना भी अच्छा लगेगा। लेखक कहता है कि अगले दिन जिलाधिकारी ने लेखक और लेखक की यूनिट की सुरक्षा के सारे इंतज़ाम किए और यहाँ तक कि उनाकोटी में ही लेखक और लेखक की यूनिट को लंच कराने का प्रस्ताव भी रखा। वहाँ लेखक और लेखक की यूनिट सुबह नौ बजे के आसपास पहुँच गए लेकिन एक घंटे उन्हें इंतजार करना पड़ा क्योंकि खासे ऊँचे पहाड़ों से घिरी होने के चलते इस जगह सूरज की रोशनी दस बजे ही पहुँच पाती थी।

पाठ – उनाकोटी का मतलब है एक कोटि, यानी एक करोड़ से एक कम। दंतकथा के अनुसार उनाकोटी में शिव की एक कोटि से एक कम मूर्तियाँ हैं। विद्वानों का मानना है कि यह जगह दस वर्ग किलोमीटर से कुछ ज्यादा इलाके में फैली है और पाल शासन के दौरान नवीं से बारहवीं सदी तक के तीन सौ वर्षों में यहाँ चहल-पहल रहा करती थी।
पहाड़ों को अंदर से काटकर यहाँ विशाल आधार-मूर्तियाँ बनी हैं। एक विशाल चट्टान ऋषि भगीरथ की प्रार्थना पर स्वर्ग से पृथ्वी पर गंगा के अवतरण के मिथक को चित्रित करती है। गंगा अवतरण के धक्के से कहीं पृथ्वी ध्ँसकर पाताल लोक में न चली जाए, लिहाजा शिव को इसके लिए तैयार किया गया कि वे गंगा को अपनी जटाओं में उलझा लें और इसके बाद इसे धीरे-धीरे पृथ्वी पर बहने दें। शिव का चेहरा एक समूची चट्टान पर बना हुआ है और उनकी जटाएँ दो पहाड़ों की चोटियों पर फैली हैं। भारत में शिव की यह सबसे बड़ी आधार-मूर्ति है। पूरे साल बहने वाला एक जल प्रपात पहाड़ों से उतरता है जिसे गंगा जितना ही पवित्र माना जाता है। यह पूरा इलाका ही शब्दशः देवियों-देवताओं की मूर्तियों से भरा पड़ा है।

शब्दार्थ
दंतकथा – काल्पनिक कथा, जनश्रुति
अवतरण – उतरना
मिथक – पौराणिक कथा
प्रपात – झरना
शब्दशः – प्रत्येक शब्द के अनुसार

व्याख्या – लेखक हमें उनाकोटी के बारे में बताता हुआ कहता है कि उनाकोटी का मतलब है एक कोटि, यानी एक करोड़ से एक कम। लेखक कहता है कि एक काल्पनिक कथा के अनुसार उनाकोटी में शिव की एक करोड़ से एक कम मूर्तियाँ हैं। विद्वानों का मानना है कि यह जगह दस वर्ग किलोमीटर से कुछ ज्यादा इलाके में फैली है और पाल शासन के दौरान नवीं से बारहवीं सदी तक के तीन सौ वर्षों में यहाँ चहल-पहल रहा करती थी। परन्तु यह जगह अब जंगल से घिर गई है और विद्रोहियों के हमलों के कारण अब यहाँ कुछ ज्यादा चहल-पहल नहीं होती। लेखक बताता है कि यहाँ पहाड़ों को अंदर से काटकर विशाल आधार-मूर्तियाँ बनाई गई हैं। एक बहुत विशाल चट्टान ऋषि भगीरथ की प्रार्थना पर स्वर्ग से पृथ्वी पर गंगा के उतरने की पौराणिक कथा को चित्रित करती है। गंगा के पृथ्वी पर उतरने के धक्के से कहीं पृथ्वी ध्ँसकर पाताल लोक में न चली जाए, इसी वजह से भगवान् शिव को इसके लिए तैयार किया गया कि वे गंगा को अपनी जटाओं में उलझा लें और इसके बाद इसे धीरे-धीरे पृथ्वी पर बहने दें। लेखक कहता है कि यहाँ पर भगवान शिव का चेहरा एक पूरी चट्टान पर बना हुआ है और उनकी जटाएँ दो पहाड़ों की चोटियों पर फैली हुई हैं। भारत में शिव की यह सबसे बड़ी आधार-मूर्ति है। लेखक कहता है कि यहाँ पूरे साल बहने वाला एक झरना पहाड़ों से उतरता है जिसे गंगा जितना ही पवित्र माना जाता है। यह पूरा इलाका ही प्रत्येक शब्द के अनुसार ही देवियों-देवताओं की मूर्तियों से भरा पड़ा है। यहाँ लेखक के कहने का अर्थ है कि यहाँ हर कदम पर आपको किसी न किसी देवी-देवता की मूर्ति जरूर मिल जाएगी।

पाठ –इन आधार-मूर्तियों के निर्माता अभी चिह्नित नहीं किए जा सके हैं। स्थानीय आदिवासियों का मानना है कि इन मूर्तियों का निर्माता कल्लू कुम्हार था। वह पार्वती का भक्त था और शिव-पार्वती के साथ उनके निवास कैलाश पर्वत पर जाना चाहता था। पार्वती के जोर देने पर शिव कल्लू को कैलाश ले चलने को तैयार हो गए लेकिन इसके लिए शर्त यह रखी कि उसे एक रात में शिव की एक कोटि मूर्तियाँ बनानी होंगी। कल्लू अपनी धुन के पक्के व्यक्ति की तरह इस काम में जुट गया। लेकिन जब भोर हुई तो मूर्तियाँ एक कोटि से एक कम निकलीं। कल्लू नाम की इस मुसीबत से पीछा छुड़ाने पर अड़े शिव ने इसी बात को बहाना बनाते हुए कल्लू कुम्हार को अपनी मूर्तियों के साथ उनाकोटी में ही छोड़ दिया और चलते बने।
इस जगह की शूटिंग पूरी करते शाम के चार बज गए। सूर्य के ऊँचे पहाड़ों के पीछे जाते ही उनाकोटी में अचानक भयावना अन्धकार छा गया। मिनटों में जाने कहाँ से बादल भी घिर आए। जब तक हम अपने उपकरण समेटें, बादलों की सेना गर्जन-तर्जन के साथ कहर बरपाने लगी। शिव का तांडव शुरू हो गया था जो कुछ-कुछ वैसा ही था, जैसा मैंने तीन साल बाद जाड़े की एक सुबह दिल्ली में देखा और जिसने मुझे एक बार फिर उनाकोटी पहुँचा दिया था।

शब्दार्थ
चिह्नित – जिनकी अभी पहचान नहीं की जा सकी हैं
भोर – सुबह
भयावना – भयानक, डरावना

व्याख्या – लेखक कहता है कि उनाकोटी में बनी इन आधार-मूर्तियों का निर्माण किसने किया है यह अभी तक पता नहीं किया जा सका हैं। स्थानीय आदिवासियों का मानना है कि इन मूर्तियों का निर्माता कल्लू कुम्हार था। वह माता पार्वती का भक्त था और भगवान् शिव-माता पार्वती के साथ उनके निवास स्थान कैलाश पर्वत पर जाना चाहता था। परन्तु भगवान शिव उसे अपने साथ नहीं लेना चाहते थे। पार्वती के जोर देने पर शिव कल्लू को कैलाश ले चलने को तैयार तो हो गए लेकिन इसके लिए उन्होंने कल्लू के सामने एक शर्त रखी और वह शर्त थी कि उसे एक रात में शिव की एक करोड़ मूर्तियाँ बनानी होंगी। कल्लू अपनी धुन का पक्का व्यक्ति था इसलिए वह इस काम में जुट गया। लेकिन जब सुबह हुई तो कल्लू के द्वारा बनाई गई मूर्तियाँ एक करोड़ से एक कम निकलीं। कल्लू नाम की इस मुसीबत से पीछा छुड़ाने पर अड़े भगवान् शिव ने इसी बात को बहाना बनाते हुए कल्लू कुम्हार को उसके द्वारा बनाई गई मूर्तियों के साथ उनाकोटी में ही छोड़ दिया और खुद माता पार्वती के साथ कैलाश की ओर चलते बने। लेखक कहता है कि उस जगह की शूटिंग पूरी करते-करते शाम के चार बज गए थे। सूर्य के ऊँचे पहाड़ों के पीछे जाते ही उनाकोटी में अचानक भायनक अन्धकार छा गया। कुछ ही मिनटों में जाने कहाँ से बादल भी घिर आए। जब तक लेखक और लेखक की यूनिट अपने शूटिंग के उपकरण समेटते, तब तक बादलों की सेना गर्जन-तर्जन के साथ कहर बरसाने लगी। ऐसा लग रहा था जैसे शिव का तांडव शुरू हो गया हो। इसी शाम की भयानक गर्जन-तर्जन को याद करके लेखक को वर्तमान में यानि उनाकोटी जाने के तीन साल बाद जाड़े की एक सुबह दिल्ली में वैसे ही मौसम को देख कर उनाकोटी की याद आ गई थी।
 
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कल्लू कुम्हार की उनाकोटी प्रश्न अभ्यास

कल्लू कुम्हार की उनाकोटी NCERT Solutions (महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर )

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए

प्रश्न 1 – ‘उनाकोटी’ का अर्थ स्पष्ट करते हुए बतलाएँ कि यह स्थान इस नाम से क्यों प्रसिद्ध है?

उत्तर – उनाकोटी का अर्थ है एक कोटि, यानी एक करोड़ से एक कम। एक काल्पनिक कथा के अनुसार उनाकोटी में शिव की एक करोड़ से एक कम मूर्तियाँ हैं। विद्वानों का मानना है कि यह जगह दस वर्ग किलोमीटर से कुछ ज्यादा इलाके में फैली है और पाल शासन के दौरान नवीं से बारहवीं सदी तक के तीन सौ वर्षों में यहाँ चहल-पहल रहा करती थी। परन्तु यह जगह अब जंगल से घिर गई है और विद्रोहियों के हमलों के कारण अब यहाँ कुछ ज्यादा चहल-पहल नहीं होती। यहाँ पहाड़ों को अंदर से काटकर विशाल आधार-मूर्तियाँ बनाई गई हैं। एक बहुत विशाल चट्टान ऋषि भगीरथ की प्रार्थना पर स्वर्ग से पृथ्वी पर गंगा के उतरने की पौराणिक कथा को चित्रित करती है। यहाँ पर भगवान शिव का चेहरा एक पूरी चट्टान पर बना हुआ है और उनकी जटाएँ दो पहाड़ों की चोटियों पर फैली हुई हैं। भारत में शिव की यह सबसे बड़ी आधार-मूर्ति है। यहाँ पूरे साल बहने वाला एक झरना पहाड़ों से उतरता है जिसे गंगा जितना ही पवित्र माना जाता है। यह पूरा इलाका ही प्रत्येक शब्द के अनुसार ही देवियों-देवताओं की मूर्तियों से भरा पड़ा है। यहाँ हर कदम पर आपको किसी न किसी देवी-देवता की मूर्ति जरूर मिल जाएगी। उनाकोटी भारत का सबसे बड़ा तो नहीं परन्तु सबसे बड़े भगवान् शिव के तीर्थों में से एक जरूर है। संसार के इस हिस्से में युगों से केवल स्थानीय आदिवासी धर्म ही फलते-फूलते रहे हैं, और यह एक प्रसिद्ध शिव तीर्थ है। बहुत अधिक मूर्तियाँ एक ही स्थान पर होने के कारण यह स्थान प्रसिद्ध है।

प्रश्न 2 – पाठ के संदर्भ में उनाकोटी में स्थित गंगावतरण की कथा को अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर – उनाकोटी में पहाड़ों को अंदर से काटकर विशाल आधार मूर्तियाँ बनाई गई हैं। एक बहुत विशाल चट्टान ऋषि भगीरथ की प्रार्थना पर स्वर्ग से पृथ्वी पर गंगा के उतरने की पौराणिक कथा को चित्रित करती है। गंगा के पृथ्वी पर उतरने के धक्के से कहीं पृथ्वी ध्ँसकर पाताल लोक में न चली जाए, इसी वजह से भगवान शिव को इसके लिए तैयार किया गया कि वे गंगा को अपनी जटाओं में उलझा लें और इसके बाद इसे धीरे-धीरे पृथ्वी पर बहने दें। लेखक कहता है कि यहाँ पर भगवान शिव का चेहरा एक पूरी चट्टान पर बना हुआ है और उनकी जटाएँ दो पहाड़ों की चोटियों पर फैली हुई हैं। भारत में शिव की यह सबसे बड़ी आधार-मूर्ति है। लेखक कहता है कि यहाँ पूरे साल बहने वाला एक झरना पहाड़ों से उतरता है जिसे गंगा जितना ही पवित्र माना जाता है।

प्रश्न 3 – कल्लू कुम्हार का नाम उनाकोटी से किस प्रकार जुड़ गया?

उत्तर – उनाकोटी में बनी इन आधार-मूर्तियों का निर्माण किसने किया है यह अभी तक पता नहीं किया जा सका हैं। स्थानीय आदिवासियों का मानना है कि इन मूर्तियों का निर्माता कल्लू कुम्हार था। वह माता पार्वती का भक्त था और भगवान् शिव-माता पार्वती के साथ उनके निवास स्थान कैलाश पर्वत पर जाना चाहता था। परन्तु भगवान शिव उसे अपने साथ नहीं लेना चाहते थे। पार्वती के जोर देने पर शिव कल्लू को कैलाश ले चलने को तैयार तो हो गए लेकिन इसके लिए उन्होंने कल्लू के सामने एक शर्त रखी और वह शर्त थी कि उसे एक रात में शिव की एक करोड़ मूर्तियाँ बनानी होंगी। कल्लू अपनी धुन का पक्का व्यक्ति था इसलिए वह इस काम में जुट गया। लेकिन जब सुबह हुई तो कल्लू के द्वारा बनाई गई मूर्तियाँ एक करोड़ से एक कम निकलीं। कल्लू नाम की इस मुसीबत से पीछा छुड़ाने पर अड़े भगवान् शिव ने इसी बात को बहाना बनाते हुए कल्लू कुम्हार को उसके द्वारा बनाई गई मूर्तियों के साथ उनाकोटी में ही छोड़ दिया और खुद माता पार्वती के साथ कैलाश की ओर चलते बने। इसी मान्यता के कारण कल्लू कुम्हार का नाम उनाकोटी से जुड़ गया।

प्रश्न 4 – मेरी रीढ़ में एक झुरझरी-सी दौड़ गई’-लेखक के इस कथन के पीछे कौन-सी घटना जुड़ी है?

उत्तर – लेखक राजमार्ग संख्या 44 पर टीलियामुरा से 83 किलोमीटर आगे मनु नामक स्थान पर शूटिंग के लिए जा रहा था। इस यात्रा में वह सी.आर.पी.एफ. की सुरक्षा में चल रहा था। लेखक और उसका कैमरा मैन हथियार बंद गाड़ी में चल रहे थे। लेखक अपनी शूटिंग के काम में ही इतना व्यस्त था कि उस समय तक डर के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं थी जब तक लेखक को सुरक्षा प्रदान कर रहे सी.आर.पी.एफ. कर्मी ने साथ की निचली पहाड़ियों पर किसी इरादे से रखे दो पत्थरों की तरफ लेखक का ध्यान आकर्षित नहीं हुआ। जब लेखक ने उन दो पत्थरों के बारे में पूछा तो सी.आर.पी.एफ. कर्मी ने लेखक को बताया कि दो दिन पहले ही उनके एक जवान को यहीं विद्रोहियों द्वारा मार डाला गया था। यह सुन कर लेखक कहता है कि डर के कारण लेखक की रीढ़ में एक झुरझुरी सी दौड़ गई थी। मनु तक की अपनी शेष यात्रा में लेखक अपने दिल से यह खयाल निकाल नहीं पाया कि उनको घेरे हुए सुंदर और पूरी तरह से शांतिपूर्ण लगने वाले जंगलों में किसी जगह बंदूकें लिए विद्रोही भी छिपे हो सकते हैं। अब लेखक को डर लगने लगा था।

प्रश्न 5 – त्रिपुरा ‘बहुधार्मिक समाज’ का उदाहरण कैसे बना?

उत्तर – बांग्लादेश से लोगों का बिना अनुमति के त्रिपुरा में आना और यहीं बस जाना जबरदस्त है और इसे यहाँ सामाजिक रूप से स्वीकार भी किया गया है। यहाँ की असाधारण जनसंख्या वृद्धि का मुख्य कारण लेखक इसी को मानता है। असम और पश्चिम बंगाल से भी लोगों का त्रिपुरा प्रवास यहाँ होता ही है। कुल मिलाकर बाहरी लोगों की इस तरह भारी संख्या में आना और यही बस जाने के कारण जनसंख्या संतुलन को यहाँ के स्थानीय आदिवासियों के खिलाफ ला खड़ा किया है। त्रिपुरा में लगातार बाहरी लोगों के आने और यहीं बस जाने से कुछ समस्याएँ तो पैदा हुई हैं लेकिन इसके कारण यह राज्य विभिन्न धर्मों वाले समाज का उदाहरण भी बना है। त्रिपुरा में उन्नीस अनुसूचित जनजातियों और विश्व के चारों बड़े धर्मों का प्रतिनिध्त्वि मौजूद है। इस प्रकार यहाँ अनेक धर्मों का समावेश हो गया है। तब से यह राज्य बहुधार्मिक समाज का उदाहरण बन गया है।

प्रश्न 6 – टीलियामुरा कस्बे में लेखक का परिचय किन दो प्रमुख हस्तियों से हुआ? समाज-कल्याण के कार्यों में उनका क्या योगदान था?

उत्तर – टीलियामुरा कस्बे में लेखक का परिचय जिन दो प्रमुख हस्तियों से हुआ उनमें एक हैं- हेमंत कुमार जमातिया, जो त्रिपुरा के प्रसिद्ध लोक गायक हैं। जमातिया 1996 में संगीत नाटक अकादमी द्वारा पुरस्कृत किए जा चुके हैं। अपनी युवावस्था में वे पीपुल्स लिबरेशन आर्गनाइजेशन के कार्यकर्ता थे, पर अब वे चुनाव लड़ने के बाद जिला परिषद के सदस्य बन गए हैं। लेखक की मुलाकात दूसरी प्रमुख हस्ती मंजु ऋषिदास से हुई, जो आकर्षक महिला थी। वे रेडियो कलाकार भी थीं। रेडियो कलाकार होने के अलावा वे नगर पंचायत में अपने वार्ड का प्रतिनिधित्व भी करती थीं। लेखक ने उनके गाए दो गानों की शूटिंग की। गीत के तुरंत बाद मंजु ने एक कुशल गृहिणी के रूप में चाय बनाकर पिलाई।

प्रश्न 7 – कैलासशहर के जिलाधिकारी ने आलू की खेती के विषय में लेखक को क्या जानकारी दी?

उत्तर – जब लेखक और वह जिलाधिकारी चाय पी रहे थे उस दौरान उस जिलाधिकारी ने लेखक को बताया कि टी.पी.एस. (टरू पोटेटो सीड्स) की खेती को त्रिपुरा में, खासकर पर उत्तरी जिले में किस तरह से सफलता मिली है। आलू की बुआई के लिए आमतौर पर परंपरागत आलू के बीजों की शुरुआत दो मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर पड़ती है। इसके बरक्स टी.पी.एस की सिर्फ 100 ग्राम मात्रा ही एक हेक्टेयर की बुआई के लिए काफी होती है। त्रिपुरा से टी.पी.एस. को अब न सिर्फ असम, मिज़ोरम, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश को ही भेजा जाता है, बल्कि अब तो विदेशो में जैसे बांग्लादेश, मलेशिया और विएतनाम को भी भेजा जा रहा है।

प्रश्न 8 – त्रिपुरा के घरेलू उद्योगों पर प्रकाश डालते हुए अपनी जानकारी के कुछ अन्य घरेलू उद्योगों के विषय में बताइए?

उत्तर – त्रिपुरा के लघु उद्योगों में लोकप्रिय घरेलू गतिविधियों में से एक गति-विधि अगरबत्तियों के लिए बाँस की पतली सींकें तैयार करना है। अगरबत्तियों के लिए बाँस की पतली सींकें तैयार करने के बाद अगरबत्तियाँ बनाने के लिए इन्हें कर्नाटक और गुजरात भेजा जाता है। इनका प्रयोग अगरबत्तियाँ बनाने में किया जाता है। इन्हें कर्नाटक और गुजरात भेजा जाता है ताकि अगरबत्तियाँ तैयार की जा सकें। त्रिपुरा में बाँस बहुतायत मात्रा में पाया जाता है। इस बाँस से टोकरियाँ सजावटी वस्तुएँ आदि तैयार की जाती हैं।

 
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