मधुर मधुर मेरे दीपक जल सार Madhur Madhur Mere Deepak Jal Summary, Explanation, Word meanings JKBOSE Class 10
मधुर मधुर मेरे दीपक जल पाठ सार
JKBOSE Class 10 Hindi Chapter 8 “Madhur Madhur Mere Deepak Jal”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Bhaskar Bhag 2 Book
मधुरमधुरमेरेदीपकजल सार – Here is the JKBOSE Class 10 Hindi Bhaskar Bhag 2 Book Chapter 8Madhur Madhur Mere Deepak Jal Summary with detailed explanation of the lesson ‘Madhur Madhur Mere Deepak Jal’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary
इस पोस्ट में हम आपके लिए जम्मू और कश्मीर माध्यमिक शिक्षा बोर्डकक्षा 10 हिंदी भास्कर भाग 2 के पाठ 8 मधुरमधुरमेरेदीपकजल पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 मधुरमधुरमेरेदीपकजल पाठ के बारे में जानते हैं।
Madhur Madhur Mere Deepak Jal (मधुरमधुरमेरेदीपकजल)
कवयित्री परिचयकवयित्री – महादेवी वर्मा
जन्म – 1907 (उत्तरप्रदेश – फर्रुखाबाद )
मृत्यु – 11 सितम्बर 1987
दूसरों से बातें करना,दूसरों को समझाना ,दूसरों को सही रास्ता दिखाना ऐसे काम तो सब करते हैं। कोई आसानी से कर लेता है ,कोई थोड़ी कठिनाई उठा कर ,कोई थोड़ी झिझक और संकोच के बाद और कोई किसी तीसरे का सहारा ले कर करता है। लेकिन इससे कहीं ज्यादा परिश्रम का काम होता है आपने आप को समझाना। अपने आप से बात करना ,अपने आप को सही रास्ते पर बनाये रखने की कोशिश करना। अपने आपको हर परिस्थिति में ढालने के लिए तैयार रखना ,हर स्थिति में सावधान रहना और अपने आपको को चैतन्य बनाये रखना।
प्रस्तुत पाठ में कवयित्री आपने आप से जो उम्मीदें कर रही है , अगर वो उम्मीदें पूरी हो जाती हैं तो न केवल उसका , हम सभी का बहुत भला हो सकता है। क्योंकि हम शरीर से भले ही अनेक हों किन्तु प्रकृति ने हम सब को एक मनुष्य जाति के रूप में बनाया है।
इस कविता के माध्यम से कवयित्री कहती हैं कि मेरे मन के दीपक (ईश्वर के प्रति आस्था) तू मधुरता और कोमलता से ज्ञान का रास्ता प्रकाशित करता जा। अपनी सुगंध को अर्थात अपनी अच्छाई को इस तरह फैला जैसे एक धुप या अगरबत्ती अपनी खुशबु को फैलाते हैं। तेरे प्रकाश की कोई सीमा ही न रहे और इस तरह जल की तेरे शरीर का एक – एक अणु उसमें समा कर प्रकाश को फैलाए अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि अज्ञान का अँधेरा बहुत गहरा होता है अतः इसे दूर करने के लिए तन मन दोनों निछावर करने होते हैं।
कवयित्री कहती हैं कि मेरे मन के दीप तू सब को रोमांचित करता हुआ जलता जा। इस तरह से जल कि सभी तुझसे तेरी आग के कुछ कण मांगे अर्थात सभी जिसे भी ज्ञान की जरुरत हो वो तेरे पास आये। तू उन्हें ऐसा प्रकाश दे या ऐसा ज्ञान दे कि वो कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार रहे। ज्ञान इतना होना चाहिए की सबके काम आ सके और कोई उसमे जल कर भस्म ना हो जाये। इसलिए कवयित्री कहती है कि दीपक तू कंपते हुए इस तरह जल की तेरा प्रभाव सब पर पड़े। कवयित्री कहती हैं कि आकाश में जलते हुए अनेक तारे तो हैं परन्तु उनमें दीपक की तरह प्रेम नहीं है क्योंकि उनके पास प्रकाश तो है परन्तु वे दुनिया को प्रकाशित नहीं कर सकते। वहीँ दूसरी ओर जल से भरा सागर अपने हृदय को जलाता रहता है क्योंकि उसके पास इतना पानी होने के बावजूद भी वह पानी किसी के काम का नहीं है और बादल बिजली की सहायता से पूरी दुनिया पर बारिश करता है उसी तरह कवयित्री कहती है कि मेरे मन के दीपक तू भी अपनी नहीं दूसरों की भलाई करता जा।
मधुर मधुर मेरे दीपक जल
युग युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल,
प्रियतम का पथ आलोकित कर।
शब्दार्थ प्रतिक्षण – हर घडी प्रतिपल – हर पल प्रियतम – आराध्य , ईश्वर आलोकित – प्रकाशित
प्रसंग -: प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इन पंक्तियों की कवयित्री महादेवी वर्मा है। इन पंक्तियों में कवयित्री मन के दीपक को जला कर दूसरों को रह दिखने की प्रेरणा दे रही है।
व्याख्या -: कवयित्री कहती हैं कि मेरे मन के दीपक (ईश्वर के प्रति आस्था) तू मधुरता और कोमलता से जलता जा और हर पल ,हर घडी ,हर दिन और युगो -युगो तक मेरे आराध्य अथवा ईश्वर का या ज्ञान का रास्ता प्रकाशित करता जा अर्थात ईश्वर में आस्था बनी रहे।
काव्यांश 2
सौरभ फैला विपुल धूप बन,
मृदुल मोम सा घुल रे मृदु तन;
दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित,
तेरे जीवन का अणु गल गल
पुलक पुलक मेरे दीपक जल।
प्रसंग -: प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इन पंक्तियों की कवयित्री महादेवी वर्मा है। इन पंक्तियों में कवयित्री अपने मन के दीपक को अनन्त रौशनी (ज्ञान) फैलाने को प्रेरित कर रही हैं।
व्याख्या -: कवयित्री कहती हैं कि मेरे मन के दीपक, तू अपनी सुगंध को अर्थात अपनी अच्छाई को इस तरह फैला जैसे एक धुप या अगरबत्ती अपनी खुशबु को फैलाते हैं। अपने स्वच्छ शरीर के सहारे अपनी कोमल मोम को इस तरह से पिघला दे कि तेरे प्रकाश की कोई सीमा ही न रहे और इस तरह जल की तेरे शरीर का एक – एक अणु उसमें समा कर प्रकाश को फैलाए अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि अज्ञान का अँधेरा बहुत गहरा होता है ।अतः इसे दूर करने के लिए तन मन दोनों निछावर करने होते हैं। कवयित्री कहती हैं कि मेरे मन के दीप तू सब को रोमांचित करता हुआ जलता जा।
काव्यांश 3
सारे शीतल कोमल नूतन,
माँग रहे तुझसे ज्वाला कण
विश्व शलभ सिर धुन कहता ‘मैं
हाय न जल पाया तुझमें मिल।
सिहर सिहर मेरे दीपक जल।
शब्दार्थ नूतन – नया ज्वाला कण – आग की लपट शलभ – पतंगा सिर धुन – पछताना सिहर – कांपना
प्रसंग -: प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इन पंक्तियों की कवयित्री महादेवी वर्मा है। इन पंक्तियों में कवयित्री दीपक को इस तरह से जलने को कहती है कि सबको बराबर प्रकाश मिले और किसी को उस प्रकाश से हानि ना हो।
व्याख्या-: कवयित्री कहती हैं कि कि मेरे मन के दीपक तू इस तरह से जल कि सभी ठण्डे , मुलायम और नए तुझसे तेरी आग के कुछ कण मांगे अर्थात सभी जिसे भी ज्ञान की जरुरत हो वो तेरे पास आये। तू उन्हें ऐसा प्रकाश दे या ऐसा ज्ञान दे कि वो कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार रहे। पतंगे पछताते हुए कहें कि वो तेरी आग में समा कर क्यों नहीं जले अर्थात सांसारिक लोग भी तेरी तरह बनना चाहें अर्थात ज्ञान इतना होना चाहिए की सबके काम आ सके और कोई उसमे जल कर भस्म ना हो जाये। इसलिए कवयित्री कहती है कि दीपक तू कंपते हुए इस तरह जल की तेरा प्रभाव सब पर पड़े अर्थात सब अपनी जरुरत और क्षमता के हिसाब से प्रकाश या ज्ञान ले सकें।
काव्यांश 4
जलते नभ में देख असंख्यक,
स्नेहहीन नित कितने दीपक;
जलमय सागर का उर जलता,
विद्युत ले घिरता है बादल।
विहँस विहँस मेरे दीपक जल।
शब्दार्थ असंख्यक – अनेक
स्नेहहीन – प्रेम से रहित
उर – ह्रदय
विद्युत – बिजली
विहँस – भलाई
प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इन पंक्तियों की कवयित्री महादेवी वर्मा है। इन पंक्तियों में कवयित्री अपने मन के दीपक को सबकी भलाई करते हुए आगे बढ़ने को कह रही हैं।
व्याख्या:- कवयित्री कहती हैं कि आकाश में जलते हुए अनेक तारे तो हैं परन्तु उनमें दीपक की तरह प्रेम नहीं है क्योंकि उनके पास प्रकाश तो है परन्तु वे दुनिया को प्रकाशित नहीं कर सकते। वहीँ दूसरी ओर जल से भरा सागर अपने हृदय को जलाता रहता है क्योंकि उसके पास इतना पानी होने के बावजूद भी वह पानी किसी के काम का नहीं है और बादल बिजली की सहायता से पूरी दुनिया पर बारिश करता है। उसी तरह कवयित्री कहती है कि मेरे मन के दीपक तू भी अपनी नहीं दूसरों की भलाई करता जा।