Ateet Mein Dabe Paon Summary

 

CBSE Class 12 Hindi Vitan Bhag 2 Book Chapter 3 अतीत में दबे पाँव Summary

 

इस पोस्ट में हम आपके लिए CBSE Class 12 Hindi Vitan Bhag 2 Book के Chapter 3 अतीत में दबे पाँव का पाठ सार लेकर आए हैं। यह सारांश आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे आप जान सकते हैं कि इस कहानी का विषय क्या है। इसे पढ़कर आपको को मदद मिलेगी ताकि आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। Ateet Mein Dabe Paon Summary of CBSE Class 12 Hindi Vitan Bhag-2 Chapter 3.

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अतीत में दबे पाँव पाठ का सार (Ateet Mein Dabe Paon Summary) 

 

“अतीत में दबे पाँव” के लेखक ओम थानवी जी हैं, जिन्होंने इस पाठ में सिंधु घाटी सभ्यता के एक महत्वपूर्ण स्थल “मोहनजोदड़ो” की अपनी यात्रा का वर्णन किया हैं।
सिंधु घाटी सभ्यता को लगभग 5,000 साल पुरानी सभ्यता माना जाता हैं। मुअनजो-दड़ो और हड़प्पा केवल प्राचीन भारत के ही नहीं, बल्कि दुनिया के दो सबसे पुराने नियोजित शहर माने जाते हैं। कई जगहों पर खुदाई में और भी शहर भी मिले हैं। परन्तु मुअनजो-दड़ो ताम्र काल के शहरों में सबसे बड़ा है। इसकी व्यापक खुदाई में बड़ी तादाद में इमारतें, सड़कें, धातु-पत्थर की मूर्तियाँ, चाक पर बने चित्रित भांडे, मुहरें, साजो-सामान और खिलौने आदि मिले है।
मुअनजो-दड़ो के बारे में यह धारणा है कि अपने समय में वह घाटी की सभ्यता का केंद्र रहा होगा। इसके बारे में कहा जाता है यह शहर दो सौ हैक्टर क्षेत्र में फैला था और इसकी आबादी कोई पचासी हज़ार थी। सबसे दिलचस्प बात जो सामने आई है कि सिंधु घाटी मैदान की संस्कृति थी, परन्तु पूरा मुअनजो-दड़ो छोटे-मोटे टीलों पर आबाद था। इन टीलों को कच्ची और पक्की दोनों तरह की ईंटों से धरती की सतह को ऊँचा उठाया गया था, ताकि यदि कभी सिंधु का पानी बाहर पसर आए तो उससे बचा जा सके।
मुअनजो-दड़ो की खूबी यह है कि इस अत्यधिक पुराने शहर की सड़कों और गलियों में आज भी घुमा जा सकता हैं। यहाँ की सभ्यता और संस्कृति का प्राचीन सामान आज भले ही अजायबघरों की शोभा बढ़ा रहा हो, परन्तु शहर जहाँ था अब भी वहीं है। भले ही यह एक खंडहर क्यों न हो, परन्तु इसकी किसी भी दीवार पर पीठ टिका कर सुस्ता सकते हैं। किसी घर की देहरी पर पाँव रखकर आप सहसा सहम सकते हैं, रसोई की खिड़की पर खड़े होकर उसकी गंध महसूस कर सकते हैं। या शहर के किसी सुनसान मार्ग पर कान लगाकर उस बैलगाड़ी की रुन-झुन सुन सकते हैं जिसे आपने पुरातत्त्व की तसवीरों में मिट्टी के रंग में देखा है। यह सच है कि यहाँ किसी आँगन की टूटी-फूटी सीढ़ियाँ अब आपको कहीं नहीं ले जातीं; वे आकाश की तरफ अधूरी रह जाती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि वहाँ की सीढ़ियाँ तो सलामत है परन्तु उन सीढ़ियों के द्वारा जिस दूसरी मंजिल पर जाया जाए वो दूसरी मंजिल नहीं है। लेकिन उन अधूरे पायदानों पर खड़े होकर अनुभव किया जा सकता है कि आप दुनिया की छत पर हैं; वहाँ से आप इतिहास को नहीं, उसके पार झाँक रहे हैं। अर्थात आप सबूतों के द्वारा इतिहास को जान सकते हो परन्तु यहाँ के प्रत्यक्ष साक्ष्यों को देख कर आप इतिहास के उस पन्ने को लिखते हो जिसके साबुत नहीं हैं।
इसके सबसे ऊँचे चबूतरे पर बड़ा बौद्ध स्तूप है। यह बौद्ध स्तूप पचीस फुट ऊँचे चबूतरे पर छब्बीस सदी पहले बनी ईंटों के दम पर बनाया गया है। चबूतरे पर भिक्षुओं के कमरे भी हैं। 1922 में जब राखालदास बनर्जी यहाँ आए, तब वे इसी स्तूप की खोजबीन करना चाहते थे। इसके इर्द-गिर्द जब उन्होंने खुदाई शुरू की  तो उन्होंने पाया कि यहाँ ईसा पूर्व के निशान हैं। जब भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के महानिदेशक जॉन मार्शल के निर्देश पर खुदाई का व्यापक अभियान शुरू हुआ तो यह खोज विशेषज्ञों को सिंधु घाटी सभ्यता की देहरी पर ले आई। इस खोज से दुनिया की प्राचीन सभ्यता होने के भारत के दावे को पुरातत्त्व का वैज्ञानिक आधार मिल गया। इस स्तूप को नागर भारत का सबसे पुराना लैंडस्केप कहा गया है।
लेखक को यह इलाका राजस्थान से बहुत मिलता-जुलता लगा। यहाँ केवल रेत के टीले की जगह खेतों का हरापन है। बाकी यहाँ वही खुला आकाश, सूना परिवेश; धूल, बबूल और ज़्यादा ठंड, ज़्यादा गरमी। परन्तु यहाँ की धूप का मिजाज़ राजस्थान की धुप से अलग है। राजस्थान की धूप पारदर्शी है। सिंध की धूप चौंधियाती है।
स्तूप वाला चबूतरा मुअनजो-दड़ो के सबसे खास हिस्से के एक सिरे पर स्थित है। इस हिस्से को पुरातत्त्व के विद्वान ‘गढ़’ कहते हैं। चारदीवारी के भीतर ऐतिहासिक शहरों के सत्ता-केंद्र अवस्थित होते थे, चाहे वह राजसत्ता हो या धर्मसत्ता। बाकी शहर गढ़ से कुछ दूर बसे होते थे। यह सब देखकर एक प्रश्न यह उठता है कि क्या यह रास्ता भी दुनिया को मुअनजो-दड़ो ने दिखाया?
सभी अहम और अब दुनिया-भर में प्रसिद्ध इमारतों के खंडहर चबूतरे के पीछे यानी पश्चिम में हैं। इनमें ‘प्रशासनिक’ इमारतें, सभा भवन, ज्ञानशाला और कोठार हैं। वह अनुष्ठानिक महाकुंड भी जो सिंधु घाटी सभ्यता के अद्वितीय वास्तुकौशल को स्थापित करने के लिए अकेला ही काफी माना जाता है। असल में यहाँ यही एक निर्माण है जो अपने मूल स्वरूप के बहुत नज़दीक बचा रह सका है। बाकी इमारतें इतनी उजड़ी हुई हैं कि कल्पना और बरामद चीजों के जोड़ से उनके उपयोग का अंदाज़ा भर लगाया जा सकता है। कहने का अर्थ यह है कि मुअनजो-दड़ो के सभी खंडहरों और खुदाई में मिली चीजों को जोड़-जोड़ कर उन खंडहरों और चीजों के इस्तेमाल का केवल हम अंदाजा मात्र लगा सकते हैं। हमें नहीं पता कि हम कहाँ तक मुअनजो-दड़ो के इतिहास को सही से जान पाए हैं।
नगर नियोजन को मुअनजो-दड़ो की अनूठी मिसाल के तौर पर समझा जाता है। क्योंकि यहाँ की इमारतें भले ही खंडहरों में बदल चुकी हों मगर ‘शहर’ की सड़कों और गलियों के विस्तार को स्पष्ट करने के लिए ये खंडहर काफी हैं। यहाँ की कमोबेश सारी सड़कें सीधी हैं या फिर आड़ी। आज वास्तुकार इसे ‘ग्रिड प्लान’ कहते हैं। आज की सेक्टर-मार्का कॉलोनियों में हमें आड़ा-सीधा ‘नियोजन’ बहुत मिलता है।
मुअनजो-दड़ो की साक्षर सभ्यता एक सुसंस्कृत समाज की स्थापना थी, लेकिन उसमें नगर नियोजन और वस्तुकला की आखिर कितनी भूमिका थी?
स्तूप वाले चबूतरे के पीछे ‘गढ़’ और ठीक सामने ‘उच्च’ वर्ग की बस्ती है। उसके पीछे पाँच किलोमीटर दूर सिंधु नदी बहती है। पूरब की इस बस्ती से दक्षिण की तरफ नज़र दौड़ाते हुए पूरा पीछे घूम जाएँ तो मुअनजो-दड़ो के खंडहर हर जगह दिखाई देते हैं। दक्षिण में जो टूटे-फूटे घरों का जमघट है, वह कामगारों की बस्ती है। हर संपन्न समाज में वर्ग तो होते हु हैं और संभव है कि मुअनजो-दड़ो में भी होंगे। लेकिन क्या मुअनजो-दड़ो में निम्न वर्ग नहीं था? क्योंकि विशेषज्ञों की माने तो निम्न वर्ग के घर इतनी मज़बूत सामग्री के नहीं रहे होंगे कि पाँच हज़ार साल टिक सकें। और संभव है कि उनकी बस्तियाँ ‘गढ़’ और ‘उच्च’ वर्ग की बस्तियों से और दूर रही होंगी। इन सब का केवल अंदाजा इसलिए लगाया गया है क्योंकि सौ साल में अब तक इस इलाके के केवल एक-तिहाई हिस्से की खुदाई ही हो पाई है। अब वह भी कुछ कारणों के कारण बंद हो चुकी है। और जिन इलाकों की खुदाई हुई है उनमें ‘गढ़’ और ‘उच्च’ वर्ग की बस्ती के अवशेष ही मिले हैं।
स्तूप के टीले से दाईं तरफ एक लंबी गली दीखती है। इसके आगे महाकुंड है। धरोहर के प्रबंधकों ने उस गली का नाम दैव मार्ग (डिविनिटि स्ट्रीट) रखा है। विशेषज्ञों की माने तो उस सभ्यता में सामूहिक स्नान किसी अनुष्ठान का अंग होता था। कुंड करीब चालीस फुट लंबा और पच्चीस फुट चौड़ा है। गहराई सात फुट। कुंड में उत्तर और दक्षिण से सीढ़ियाँ उतरती हैं। इसके तीन तरफ साधुओं के कक्ष बने हुए हैं। उत्तर में दो पाँत में आठ स्नानघर हैं। इनमें किसी भी स्नानघर का द्वार दूसरे स्नानघर के सामने नहीं खुलता। यह एक सिद्ध वास्तुकला का नमूना है। इस कुंड में खास बात पक्की ईंटों का जमाव है। कुंड का पानी रिस न सके और बाहर का ‘अशुद्ध’ पानी कुंड में न आए, इसके लिए कुंड के तल में और दीवारों पर ईंटों के बीच चूने और चिरोड़ी के गारे का इस्तेमाल हुआ है। पार्श्व की दीवारों के साथ दूसरी दीवार खड़ी की गई है जिसमें सफेद डामर का प्रयोग है। कुंड के पानी के बंदोबस्त के लिए एक तरफ कुआँ है। दोहरे घेरे वाला यह अकेला कुआँ है। इसे भी कुंड के पवित्र या अनुष्ठानिक होने का प्रमाण माना गया है। कुंड से पानी को बाहर बहाने के लिए नालियाँ हैं। इनकी खासियत यह है कि ये भी पक्की ईंटों से बनी हैं और ईंटों से ढकी भी हैं।
पक्की और आकार में एक समान धूसर ईंटें तो सिंधु घाटी सभ्यता की विशिष्ट पहचान मानी ही गई हैं, साथ ही पुरातात्त्विक विद्वान और इतिहासकार ढकी हुई नालियों का उल्लेख भी इस घाटी की पहचान के रूप में देते हैं। पानी-निकासी का ऐसा सुव्यवस्थित बंदोबस्त इससे पहले के इतिहास में कहीं नहीं मिलता।
कुंड के दूसरी तरफ विशाल कोठार है। इन कोठारों में शायद कर के रूप में हासिल अनाज जमा किया जाता था। यह अंदाजा इसके निर्माण रूप को खासकर चौकियों और हवादारी को देखकर लगाया गया है। यहाँ नौ-नौ चौकियों की तीन कतारें हैं। उत्तर में एक गली है जहाँ से बैलगाड़ियों में इस अनाज की लाया या लेजाया जाता होगा। बैलगाड़ियों के प्रयोग के साक्ष्य सिंधु घाटी सभ्यता में मिले हैं।
सिंधु घाटी के दौर में व्यापार ही नहीं, उन्नत खेती भी होती थी। परन्तु कई वर्षों तक यह माना जाता रहा कि सिंधु घाटी के लोग अन्न नहीं उगाते थे, बल्कि दूसरी जगह से उसका आयात करते थे। परन्तु नयी खोज ने इस खयाल को निर्मूल साबित किया है। बल्कि अब कुछ विद्वान मानते हैं कि सिंधु घाटी मूलतः खेतिहर और पशुपालक सभ्यता ही थी। वहाँ लोहा शुरू में नहीं था पर पत्थर और ताँबे की बहुतायत थी। पत्थर सिंध में ही था, ताँबे की खानें राजस्थान में थीं। इतिहासकार इरफान हबीब के मुताबिक यहाँ के लोग रबी की फसल लेते थे। कपास, गेहूँ, जौ, सरसों और चने की उपज के पुख्ता सबूत खुदाई में मिले हैं। वह सभ्यता का तर-युग था जो धीमे-धीमे सूखे में ढल गया। विद्वानों का मानना है कि यहाँ ज्वार, बाजरा और रागी की उपज भी होती थी। लोग खजूर, खरबूज़े और अंगूर उगाते थे। झाड़ियों से बेर जमा करते थे। कपास की खेती भी होती थी। कपास को छोड़कर बाकी सबके बीज मिले हैं और उन्हें परखा भी गया है। कपास की खेती का अंदाजा वहाँ पर सूती कपड़ा मिलने से किया गया है। ये दुनिया में सूत के दो सबसे पुराने नमूनों में एक है। दूसरा सूती कपड़ा तीन हज़ार ईसा पूर्व का है जो जॉर्डन में मिला।
महाकुंड के उत्तर-पूर्व में एक बहुत लंबी-सी इमारत के अवशेष हैं। इसके बीचों बीच खुला बड़ा दालान है। तीन तरफ बरामदे हैं। इनके साथ कभी छोटे-छोटे कमरे रहे होंगे। पुरातत्त्व के जानकार कहते हैं कि धार्मिक अनुषनों में ज्ञानशालाएँ सटी हुई होती थीं, उस नज़रिए से इसे ‘कॉलेज ऑफ प्रीस्ट्स’ माना जा सकता है। दक्षिण में एक और टूटी इमारत है। इसमें बीस खंभों वाला एक बड़ा हॉल है। अनुमान लगाया गया है कि यह राज्य सचिवालय, सभा-भवन या कोई सामुदायिक केंद्र रहा होगा।
पूरब की बस्ती ‘रईसों की बस्ती’ है। हालाँकि आज के युग में पूरब की बस्तियाँ गरीबों की बस्तियाँ मानी जाती हैं। मुअनजो-दड़ो इसका उलट था। यानी बड़े घर, चौड़ी सड़कें, ज्यादा कुएँ। मुअनजो-दड़ो के सभी खंडहरों को खुदाई कराने वाले पुरातत्त्ववेत्ताओं का संक्षिप्त नाम दे दिया गया है। जैसे ‘डीके’ हलका-दीक्षित काशीनाथ की खुदाई। उनके नाम पर यहाँ दो हलके हैं। ‘डीके’ क्षेत्र दोनों बस्तियों में सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। शहर की मुख्य सड़क (फर्स्ट स्ट्रीट) यहीं पर है। यह बहुत लंबी सड़क है, मानो कभी पूरे शहर को नापती हो। अब यह आधा मील बची है। इसकी चौड़ाई तैंतीस फुट है। मुअनजो-दड़ो से तीन तरह के वाहनों के साक्ष्य मिले हैं। इनमें सबसे चौड़ी बैलगाड़ी रही होगी। इस सड़क पर दो बैलगाड़ियाँ एक साथ आसानी से आ-जा सकती हैं। यह सड़क वहाँ पहुँचती है, जहाँ कभी ‘बाज़ार’ था।
मुअनजो-दड़ो में इमारतों से पहले जो चीज़ दूर से ध्यान खींचती है, वह है कुओं का प्रबंध। ये कुएँ भी पकी हुई एक ही आकार की ईंटों से बने हैं। इतिहासकार कहते हैं सिंधु घाटी सभ्यता संसार में पहली ज्ञात संस्कृति है जो कुएँ खोद कर भू-जल तक पहुँची। उनके मुताबिक केवल मुअनजो-दड़ो में सात सौ के करीब कुएँ थे। नदी, कुएँ, कुंड, स्नानागार और बेजोड़ पानी-निकासी। इन सभी को देखते हुए विशेषज्ञ प्रश्न करते हैं कि क्या सिंधु घाटी सभ्यता को जल-संस्कृति कह सकते हैं?
बड़ी बस्ती में पुरातत्त्वशास्त्री काशीनाथ दीक्षित के नाम पर एक हलका ‘डीके-जी’ कहलाता है। इसके घरों की दीवारें ऊँची और मोटी हैं। मोटी दीवार का अर्थ यह लगाया जाता है कि उस पर दूसरी मंजिल भी रही होगी। सभी घर ईंट के हैं। सभी भट्टी में पकी हुईं एक ही आकार की ईंटें-1ः2ः4 के अनुपात की हैं। इन घरों में दिलचस्प बात यह है कि सामने की दीवार में केवल प्रवेश द्वार बना है, कोई खिड़की नहीं है। खिड़कियाँ शायद ऊपर की दीवार में रहती हों, यानी दूसरी मंजिल पर। हालाँकि सभी घर खंडहर हैं और दिखाई देने वाली चीजों से हम सिर्फ अंदाजा लगा सकते हैं।
डीके-बी, सी हलका आगे पूरब में है। दाढ़ी वाले ‘याजक-नरेश’ की मूर्ति इसी तरफ के एक घर से मिली थी। प्रसिद्ध ‘नर्तकी’ शिल्प भी यहीं एक छोटे घर की खुदाई में निकला था। इसके बारे में पुरातत्त्वविद मार्टिमर वीलर ने कहा था कि संसार में इसके जोड़ की दूसरी चीज़ शायद ही होगी। यह मूर्ति अब दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में है।
मुअनजो-दड़ो में कुँओं को छोड़कर लगता है जैसे सब कुछ चौकोर या आयताकार हो। नगर की योजना, बस्तियाँ, घर, कुंड, बड़ी इमारतें, ठप्पेदार मुहरें, चौपड़ का खेल, गोटियाँ, तौलने के बाट आदि सब कुछ। छोटे घरों में छोटे कमरे समझ में आते हैं। पर बड़े घरों में छोटे कमरे देखकर थोड़ी हैरानी होती है। इसका एक अर्थ तो यह लगाया गया है कि शहर की आबादी काफी रही होगी। और दूसरी तरफ यह विचार सामने आया है कि बड़े घरों में निचली(भूतल) मंजिल में नौकर-चाकर रहते होंगे। बड़े घरों के आँगन में चौड़ी सीढ़ियाँ हैं। कुछ घरों में ऊपर की मंजिल के निशान हैं, पर सीढ़ियाँ नहीं हैं। शायद यहाँ लकड़ी की सीढ़ियाँ रही हों, जो समय के साथ नष्ट हो गईं हो। कुछ घरों में बाहर की तरफ सीढ़ियों के संकेत हैं। यहाँ शायद ऊपर और नीचे अलग-अलग परिवार रहते होंगे। छोटे घरों की बस्ती में छोटी संकरी सीढ़ियाँ हैं। उनके पायदान भी ऊँचे हैं। ऐसा जगह की तंगी की वजह से होता होगा।
मुअनजो-दड़ो के किसी घर में खिड़कियों या दरवाजों पर छज्जों के चिह्न नहीं हैं। अक्सर गरम इलाकों के घरों में छाया के लिए यह आम प्रावधान होता है। इससे यह अंदाजा लगाया गया कि उस वक्त यहाँ इतनी कड़ी धूप नहीं पड़ती होगी। मुअनजो-दड़ो की जानी-मानी मुहरों के पशुयों के चिह्न है जैसे शेर, हाथी या गैंडा। इस मरु-भूमि में ऐसे जानवर नहीं रह सकते। इससे यह अंदाजा लगाया गया कि उस वक्त यहाँ जंगल भी रहे होंगे। इन सभी तथ्यों से स्थापित हो चुका है कि यहाँ अच्छी खेती होती थी। पुरातत्त्वी शीरीन रत्नागर का मानना है कि सिंधु-वासी कुँओं से सिंचाई कर लेते थे। परन्तु मुअनजो-दड़ो की किसी खुदाई में नहर होने के प्रमाण नहीं मिले हैं। तो यह संभव है कि बारिश उस काल में काफी होती होगी। इन सभी से यह भी अंदाजा लगाया गया कि हो सकता है बारिश घटने और कुँओं के अत्यधिक इस्तेमाल से भू-तल जल पहुँच से दूर चला गया और पानी के अभाव में यह इलाका उजड़ा और उसके साथ सिंधु घाटी की समृद्ध सभ्यता का भी पतन हो गया।
मुअनजो-दड़ो की गलियों या घरों में लेखक को राजस्थान का खयाल आ गया। क्योंकि (पश्चिमी) राजस्थान और सिंध-गुजरात की दृश्यावली एक-सी है। और भी कई चीजें हैं जो मुअनजो-दड़ो को राजस्थान से जोड़ जाती हैं। जैसे हजारों साल पुराने यहाँ के खेत। बाजरे और ज्वार की खेती। मुअनजो-दड़ो के घरों में टहलते हुए लेखक को कुलधरा की याद आई। क्योंकि वहाँ भी गाँव में घर हैं, पर लोग नहीं हैं। कोई डेढ़ सौ साल पहले राजा से तकरार पर स्वाभिमानी गाँव का हर बाशिंदा रातोंरात अपना घर छोड़ चला गया। घर खंडहर हो गए पर ढहे नहीं। घरों की दीवारें, प्रवेश और खिड़कियाँ ऐसी हैं जैसे कल की बात हो। लोग निकल गए, वक्त वहीं रह गया। खंडहरों ने उसे थाम लिया। जैसे सुबह लोग घरों से निकले हों, शायद शाम ढले लौट आने वाले हों। राजस्थान ही नहीं, गुजरात, पंजाब और हरियाणा में भी कुएँ, कुंड, गली-कूचे, कच्ची-पक्की ईंटों के कई घर भी आज वैसे मिलते हैं जैसे हजारों साल पहले हुए।
मुअनजो-दड़ो की खुदाई में निकली पंजीकृत चीजों की संख्या पचास हजार से ज्यादा है। मगर जो मुट्ठी भर चीजें अजायबघर में प्रदर्शित हैं, पहुँची हुई सिंधु सभ्यता की झलक दिखाने को काफी हैं। काला पड़ गया गेहूँ, ताँबे और काँसे के बर्तन, मुहरें, वाद्य, चाक पर बने विशाल मृद्-भांड, उन पर काले-भूरे चित्र, चौपड़ की गोटियाँ, दीये, माप-तौल पत्थर, ताँबे का आईना, मिट्टी की बैलगाड़ी और दूसरे खिलौने, दो पाटन वाली चक्की, कंघी, मिट्टी के कंगन, रंग-बिरंगे पत्थरों के मनकों वाले हार और पत्थर के औजार। अजायबघर में प्रदर्शित चीजों में औजार तो हैं, पर हथियार कोई नहीं है। मुअनजो-दड़ो क्या, हड़प्पा से लेकर हरियाणा तक समूची सिंधु सभ्यता में हथियार उस तरह कहीं नहीं मिले हैं जैसे किसी राजतंत्र में होते हैं। इस बात को लेकर विद्वान सिंधु सभ्यता में शासन या सामाजिक प्रबंध के तौर-तरीके को समझने की कोशिश कर रहे हैं। क्योंकि वहाँ कोई अनुशासन तो ज़रूर था, पर वो अनुशासन ताकत के बल पर नहीं था। वे मानते हैं कोई सैन्य सत्ता शायद यहाँ न रही हो। मगर कोई अनुशासन ज़रूर था जो नगर योजना, वास्तुशिल्प, मुहर-ठप्पों, पानी या साफ-सफाई जैसी सामाजिक व्यवस्थाओं आदि में एकरूपता तक को कायम रखे हुए था।
दूसरी जगहों पर राजतंत्र या धर्मतंत्र की ताकत का प्रदर्शन करने वाले महल, उपासना-स्थल, मूर्तियाँ और पिरामिड आदि मिलते हैं। हड़प्पा संस्कृति में न भव्य राजप्रसाद मिले हैं, न मंदिर। न राजाओं, महंतों की समाधियाँ। यहाँ के मूर्तिशिल्प छोटे हैं और औजार भी। मुअनजो-दड़ो के ‘नरेश’ के सिर पर जो ‘मुकुट’ है, शायद उससे छोटे सिरपेंच की कल्पना भी नहीं की जा सकती। और तो और, उन लोगों की नावें बनावट में मिस्र की नावों जैसी होते हुए भी आकार में छोटी रहीं। आज के मुहावरे में कह सकते हैं वह ‘लो-प्रोफाइल’ सभ्यता थी; लघुता में भी महत्ता अनुभव करने वाली संस्कृति।
मुअनजो-दड़ो सिंधु सभ्यता का सबसे बड़ा शहर ही नहीं बल्कि साधनों और व्यवस्थाओं को देखते हुए सबसे समृद्ध भी माना गया है। फिर भी इसकी संपन्नता की बात बहुत कम हुई है वह इसलिए क्योंकि उसमें भव्यता का आडंबर नहीं है।
सिंधु घाटी के लोगों में कला या सुरुचि का महत्त्व ज्यादा था। वास्तुकला या नगर-नियोजन ही नहीं, धातु और पत्थर की मूर्तियाँ, मृद्-भांड, उन पर चित्रित मनुष्य, वनस्पति और पशु-पक्षियों की छवियाँ, सुनिर्मित मुहरें, उन पर बारीकी से उत्कीर्ण आकृतियाँ, खिलौने, केश-विन्यास, आभूषण और सबसे ऊपर सुघड़ अक्षरों का लिपिरूप सिंधु सभ्यता को तकनीक-सिद्ध से ज्यादा कला-सिद्ध जाहिर करता है। एक पुरातत्त्ववेत्ता के मुताबिक सिंधु सभ्यता की खूबी उसका सौंदर्य-बोध है, “जो राज-पोषित या धर्म-पोषित न होकर समाज-पोषित था।” शायद इसीलिए आकार की भव्यता की जगह उसमें कला की भव्यता दिखाई देती है।
अजायबघर में रखी चीजों में कुछ सुइयाँ भी हैं। खुदाई में ताँबे और काँसे की तो बहुत सारी सुइयाँ मिली थीं। काशीनाथ दीक्षित को सोने की तीन सुइयाँ मिलीं जिनमें एक दो-इंच लंबी थी। उन्हें देखकर यह समझा गया है कि यह बारीक कशीदेकारी में काम आती होगी। नर्तकी के अलावा मुअनजो-दड़ो के नाम से प्रसिद्ध जो दाढ़ी वाले ‘नरेश’ की मूर्ति है, उसके बदन पर आकर्षक गुलकारी वाला दुशाला भी है। आज छापे वाला कपड़ा ‘अजरक’ सिंध की खास पहचान बन गया है, पर कपड़ों पर छपाई का आविष्कार बहुत बाद का है। खुदाई में सुइयों के अलावा हाथीदाँत और ताँबे के सुए भी मिले हैं। जानकार मानते हैं कि इनसे शायद दरियाँ बुनी जाती थीं। परन्तु दरी का कोई नमूना या साक्ष्य खुदाई में हासिल नहीं हुआ है। और वह शायद कभी हासिल भी न हो, क्योंकि मुअनजो-दड़ो में अब खुदाई बंद कर दी गई है। क्योंकि सिंधु के पानी के रिसाव से क्षार और दलदल की समस्या पैदा हो गई है। जिससे मौजूदा खंडहरों को बचाकर रखना ही अब अपने आप में बड़ी चुनौती है। यही कारण है कि खुदाई को बंद कर दिया गया है और सिंधु सभ्यता के कई राज अभी भी दफ़न है जो शायद हमेशा दफ़न ही रहेंगे और उनके बारे में केवल कयास ही लगाए जा सकते हैं।

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