CBSE Class 12 Hindi Vitan Bhag 2 Book Chapter 2 जूझ Summary
इस पोस्ट में हम आपके लिए CBSE Class 12 Hindi Vitan Bhag 2 Book के Chapter 2 जूझ का पाठ सार लेकर आए हैं। यह सारांश आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे आप जान सकते हैं कि इस कहानी का विषय क्या है। इसे पढ़कर आपको को मदद मिलेगी ताकि आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। Joojh Summary of CBSE Class 12 Hindi Vitan Bhag-2 Chapter 2.
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जूझ पाठ का सार (Joojh Summary)
लेखक का मन पाठशाला जाने के लिए तड़पता था। परन्तु लेखक को अपने दादा अर्थात पिता से यह कहने में डर लगता था लेकिन वह चाहता था कि कोई उसके पिता को यह समझा दे। लेखक इसलिए भी पढ़ना चाहता था क्योंकि उसे लगता था कि खेती से उनका गुजारा नहीं हो पाएगा। इसका कारण यह भी था कि उसके दादा के समय में जितनी खेती सफल थी अब उसके पिता के समय में नहीं रह गई थी। लेखक चाहता था कि वह पढ़–लिख कर कोई नौकरी कर ले जिससे चार पैसे उसके हाथ में रहेंगे। यह विचार उसके मन में चलता रहता था।
लेखक की खेती की बात की जाए तो उन्हें दीवाली बीत जाने पर महीना–भर ईख पेरने का कोल्हू चलाना होता था। लेखक के पिता का कहना था कि यदि कोल्हू ज़रा जल्दी शुरू किया तो ईख की अच्छी–खासी कीमत मिल जाती है। क्योंकि जब चारों ओर कोल्हू चलने लगते हैं तो बाज़ार में गुड़ की मात्रा अधिक हो जाती और उसके भाव नीचे गिर जाते हैं। इसलिए पुरे गाँव में लेखक के परिवार का कोल्हू सबसे पहले शुरू होता था। इसी कारण से इस साल भी कोल्हू जल्दी शुरू हुआ और लेखक का परिवार इस काम को जल्दी निपटा कर आगे के कामों में लग गए।
लेखक की माँ धूप में कंडे थाप रही थी और लेखक भी उनकी मदद कर रहा था। बातों–ही–बातों में लेखक ने अपने पढ़ने की बात छेड़ दी। परन्तु लेखक की माँ भी जानती थी कि वह इस विषय में लेखक की कोई मदद नहीं कर सकती हैं। क्योंकि लेखक के पिता लेखक की पढाई की बात नहीं जमती। लेखक अपनी माँ मना लेता कि अब उनके खेत का सारा काम समाप्त हो गया है उसके लिए अब कोई काम नहीं है इसलिए वे दोनों दत्ता जी राव सरकार के पास जा कर उनको सारी बात समझा सकते हैं जिससे वे लेखक की पढ़ाई के बारे में लेखक के पिता को अच्छे से समझा दे। माँ भी मान जाती है और रात में दोनों दत्ता जी राव देसाई के यहाँ गए। लेखक की माँ ने दत्ता जी राव को सारी बात कह दी। और वे भी उनकी बात से सहमत हो गए। माँ ने दत्ता जी राव को यह भी बताया कि लेखक के पिता खेती के काम में हाथ नहीं लगाते। उनको सारे गाँव भर आजादी के साथ घूमने को मिलता रहे, इसलिए उन्होंने लेखक का पढ़ना बंद कर उसे खेती में जोत दिया है। यह सुनते ही देसाई दादा को गुस्सा आ गया। जब लेखक ने कहा कि जनवरी का महीना है और परीक्षा नज़दीक आ गई है। और यदि वह अभी भी कक्षा में बैठेगा तो दो महीने में पाँचवीं की सारी तैयारी हो जाएगी और वह परीक्षा पास कर लेगा क्योंकि पहले ही उसका एक वर्ष बेकार में चला गया है। और देसाई दादा उसके पिता को यह न बताए कि उसने यहाँ आकर यह सब कहा है नहीं तो उसका पिता उसे बहुत मारेगा। देसाई दादा ने उसकी साड़ी बातें सुनी और कहा कि वह चिंता न करे उन्हें पता है कि क्या करना है। वह बस उसके पिता को उनके पास भेज दें और खुद भी थोड़ी देर बाद आ जाए और साथ–ही–साथ वे जो भी पूछें वह बिना डरे उसका उत्तर अपने पिता के ही सामने अच्छे से दें।
जब लेखक के पिता घर पहुंचे तो लेखक की माँ ने उन्हें देसाई दादा के यहाँ भेज दिया और कुछ समय बाद पिता को बुलाने के बहाने वह भी देसाई दादा के घर पहुँच गया। सवाल जवाब में जब देसाई दादा ने बड़ी चतुराई से पूछा की लेखक कौन सी कक्षा में पढता है तो लेखक ने भी तुरंत कह दिया कि वह पाँचवी कक्षा में पढ़ता था परन्तु अब विद्यालय नहीं जाता क्योंकि उनके खेतों में पानी देने वाला कोई नहीं है। इस पर देसाई दादा ने लेखक के पिता को खूब बातें सुनाई। देसाई दादा ने लेखक के पिता द्वारा दिए गए सभी तर्कों को काट दिया और लेखक को रोज स्कूल जाने को कहा और यदि उसका पिता उसे न जाने दें तो उसे अपने पास सुबह–शाम जो भी काम हो सके वह करने को कहा और उसके बदले वे उसे पढ़ाएंगे। यह बात सुन कर लेखक के पिता ने कहा कि वे उसे स्कूल जाने से नहीं रोकते अगर उसे ज़रा गलत–सलत आदत न पड़ गई होती। इसलिए पाठशाला से निकालकर ज़रा नज़रों के सामने रख लिया है। देसाई दादा के पूछने पर पिता ने बताया कि वह यहाँ–वहाँ कुछ भी करता है। कभी वंकंडे बेचता, कभी चारा बेचता, सिनेमा देखता, कभी खेलने जाता। खेती और घर के काम में इसका बिलकुल ध्यान नहीं है। इस पर लेखक ने सफाई देते हुए कहा कि कभी एक बार मेले में पटा पर पैसे लगा दिए थे। दादा तो कभी भी सिनेमा के लिए पैसे नहीं देते हैं। इसलिए खेत पर गोबर बीन–बीनकर माँ से कंडे थपवा लिए थे और उन्हें बेचकर ही कपड़े भी बनवाए थे। उसी समय एक बार सिनेमा भी गया था। देसाई दादा ने सारी बातें सुनी और बीती बातें भूल कर अगले दिन से स्कूल जाने को कहा।
घर पर खाना खाते–खाते लेखक के पिता ने लेखक को कुछ शर्तें बताई जैसे कि उसकी पाठशाला का समय ग्यारह बजे होता है। इसलिए लेखक को दिन निकलते ही खेत पर हाज़िर होना है। ग्यारह बजे तक खेतों पर पानी देना है। खेतों में पानी देकर आते समय ही पढ़ने का बस्ता घर से ले जाना। घर से सीधे पाठशाला पहुँचना। छुट्टी होते ही घर में बस्ता रखकर सीधे खेत पर आकर एक घंटे जानवरों को चराना और कभी खेतों में ज़्यादा काम हुआ तो पाठशाला में गैर–हाज़िरी लगाना। लेखक ने भी सभी शर्तों को मान लिया।
लेखक की पाठशाला किसी तरह फिर से शुरू हो गई। ग्यारह से पाँच बजे तक गरमी–सरदी, हवा–पानी, वर्षा, भूख–प्यास आदि का कुछ भी खयाल न करते हुए खेती के काम से लेखक को छुटकारा मिल गया। खेती के कठिन काम से ज्यादा अच्छी लेखक को मास्टर की छड़ी की मार लगती थी। लेखक स्कूल में फिर से पाँचवीं में जाकर बैठने लगा। लेखक के साथ के सभी लड़के आगे चले गए थे। और जब लेखक को समझ आया कि जिन्हें वह कम उम्र और कम अकल का समझता था, उन्हीं के साथ अब बैठना पड़ेगा, तो उसका मन खट्टा हो गया।
जब कक्षा के बच्चों ने लेखक के पहनावे का मजाक बनाया, उसकी धोती खींचीं–गमछा खींचा हैं, तो लेखक निराश हो कर सोचने लगा कि ऐसी पाठशाला में वह नहीं जाएगा। इससे तो उसका खेत ही अच्छा है–चुपचाप काम करते रहो। और कक्षा में उसकी गली के दो ही लड़के हैं, जो उससे भी कमज़ोर हैं। उनसे कोई मदद नहीं मिल सकती। लेखक का मन उदास हो गया। उसे चौथी से पाँचवीं तक पाठशाला अपनी लगती थी। लेकिन अब वह एकदम पराई–पराई जैसी लगने लगी है। उसे लग रहा था जैसे कक्षा में उसका कोई नहीं है। परन्तु सवेरा होते ही लेखक फिर से उमंग में था और फिर से पाठशाला चला गया। उसके पहनावे का मजाक न बने इसलिए माँ के पीछे पड़कर उसने एक नयी टोपी और दो नाड़ीवाली चड्डी आठ दिन में मँगवा ली। चड्डी पहनकर पाठशाला में और धोती पहनकर खेत पर जाना शुरू हुआ। धीरे–धीरे लड़कों से परिचय बढ़ गया।
लेखक बताते हैं कि मंत्री नामक मास्टर कक्षा अध्यापक के रूप में बीच में आए। उनसे सभी डरते थे क्योंकि वे छड़ी का उपयोग न करके, हाथ से गरदन पकड़कर पीठ पर घूसा लगाते थे। वे गणित पढ़ाते थे। अगर कोई सवाल गलत हो जाता तो उसे वे अपने पास बुलाकर समझा देते थे। उनकी मार के डर से सभी लड़के घर से पढ़ाई करके आने लगे थे।
लेखक की कक्षा में एक वसंत पाटील नाम का एक दुबला–पतला, किन्तु बड़ा होशियार लड़का था। उसकी होश्यारी के कारण मास्टर ने उसे कक्षा मॉनीटर बना दिया था। लेखक को वह अपनी अपेक्षा छोटा लगता था और लेखक उससे पहले ही पाँचवीं में पहुँच गया था। गलती से पिछड़ गया था। इसलिए लेखक के अनुसार मास्टर को कक्षा की मॉनीटरी उसे सौंपनी चाहिए थी। परन्तु दूसरी ओर लेखक को पता था कि उसके पास पाँचवी की परीक्षा पास करने के लिए केवल दो महीने ही है। कक्षा में दंगा करना और पढ़ाई की उपेक्षा करना लेखक के लिए मुमकिन नहीं था। इन सब बातों के कारण लेखक का सारा ध्यान पढ़ाई की ओर ही रहा और पढ़ाई में लेखक वसंत पाटिल की नकल करने लगा। जिसके परिणाम स्वरूप लेखक के मन की एकाग्रता बड़ गई और लेखक को गणित झटपट समझ में आने लगा और सवाल सही होने लगे। मास्टरों लेखक को अपनेपन का व्यवहार मिलने लगा। मास्टरों के इस व्यवहार के कारण और वसंत की दोस्ती के कारण पाठशाला में लेखक का विश्वास बढ़ने लगा।
लेखक के एक मराठी मास्टर जिनका नाम न.वा.सौंदलगेकर था। वे कविता बहुत ही अच्छे ढंग से पढ़ाते थे। पहले तो वे एकाध कविता को गाकर सुनाते थे–फिर बैठे–बैठे अभिनय के साथ कविता के भाव बच्चों को समझाते थे। वे स्वयं भी कविता की रचना करते थे। कभी कक्षा में कोई अपनी कविता याद आती तो वे सुना देते। लेखक उनके द्वारा सुनाई व् अभिनय की गई कविताओं को ध्यान से सुनता व् देखता था। लेखक अपनी आँखों और कानों का पूरा ध्यान लगाकर मास्टर के हाव–भाव, ध्वनि, गति, चाल और रस को ग्रहण करता था। और उन सभी कविताओं को सुबह–शाम खेत पर पानी लगाते हुए या जानवरों को चराते हुए अकेले में खुले गले से मास्टर के ही हाव–भाव, यति–गति और आरोह–अवरोह के अनुसार गाता था। पहले जानवरों को चराते हुए, पानी लगाते हुए, दूसरे काम करते हुए, लेखगक को अकेलापन बहुत खटकता था। उसे किसी के साथ बोलते हुए, गपशप करते हुए, हँसी–मजाक करते हुए काम करना अच्छा लगता था। लेकिन अब उलटा लेखक को अकेले रहना अच्छा लगता था क्योंकि अकेले में वह कविता ऊँची आवाज़ में गा सकता था और किसी भी तरह का अभिनय कर सकता था। लेखक ने अनेक कविताओं को अपनी खुद की चाल में गाना शुरू किया।
मास्टर स्वयं कविता करते थे और अनेक मराठी कवियों के काव्य–संग्रह उनके घर में थे। वे उन कवियों के चरित्र और उनके संस्मरण बच्चों को बताया करते थे। इसके कारण ये कवि लोग लेखक को ‘आदमी’ ही लगने लगे थे। इसलिए लेखक को भी यह विश्वास हुआ कि वह भी कविता कर सकता है। मास्टर के दरवाजे पर मालती की बेल पर मास्टर ने एक कविता लिखी थी। वह कविता और वह लता लेखक ने दोनों ही देखी थी। इसके कारण लेखक को भी लगता था कि अपने आसपास, अपने गाँव में, अपने खेतों में, कितने ही ऐसे दृश्य हैं जिन पर वह कविता बना सकता है। लेखक भैंस चराते–चराते, फसलों पर, जंगली फूलों पर तुकबंदी करने लगा। उन्हें जोर से गुनगुनाता भी था और अपनी बनाई कवितायेँ मास्टर को दिखाने भी लगा। मास्टर कविता लिखने में लेखक का मार्गदर्शन भी किया करते थे। वे लेखक को बताते कि कवि की भाषा कैसी होनी चाहिए, संस्कृत भाषा का उपयोग कविता के लिए किस तरह होता है, छंद की जाति कैसे पहचानें, उसका लयक्रम कैसे देखें, अलंकारों में सूक्ष्म बातें कैसी होती हैं, अलंकारों का भी एक शास्त्र होता है, कवि को शुद्ध लेखन करना क्यों जरूरी होता है, शुद्ध लेखन के नियम क्या हैं, आदि। अब लेखक इसी दिशा में कोशिश करने लगा और जाने–अनजाने लेखक की मराठी भाषा भी सुधरने लगी। लेखक लिखते समय अब बहुत सचेत रहने लगा। अलंकार, छंद, लय आदि को सूक्ष्मता से देखने लगा। लेखक पर अब शब्दों का नशा चढ़ने लगा और उसे ऐसा प्रतीत होने लगा कि उसके मन में कोई मधुर बाजा बजता रहता है। यह लेखक की अपनी लगन व मेहनत ही थी कि जहाँ उस छोटे बच्चे के पिता उसकी पढ़ाई–लिखाई के विरोधी थी ,अब वही छोटा बच्चा बड़ा होकर महान कथाकार व उपन्यासकर बन गया था।
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