CBSE Class 12 Hindi Aroh Bhag 2 Book Chapter 15 श्रम विभाजन और जाति-प्रथा Summary
इस पोस्ट में हम आपके लिए CBSE Class 12 Hindi Aroh Bhag 2 Book के Chapter 15 श्रम विभाजन और जाति-प्रथा का पाठ सार लेकर आए हैं। यह सारांश आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे आप जान सकते हैं कि इस कहानी का विषय क्या है। इसे पढ़कर आपको को मदद मिलेगी ताकि आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। Shram Vibhaajan Aur Jaati-Pratha Summary of CBSE Class 12 Hindi Aroh Bhag-2 Chapter 15.
श्रम विभाजन और जाति-प्रथा पाठ का सार (Summary)
यहाँ प्रस्तुत पाठ अंबेडकर के विख्यात भाषण एनीहिलेशन ऑफ कास्ट (1936) के ललई सिंह यादव द्वारा कृत हिंदी-रूपांतर जाति-भेद का उच्छेद के दो प्रकरणों के तौर पर है। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जी कहते हैं कि इस आधुनिक युग में भी जातिवाद को समर्थन देने वालों की कोई कमी नहीं है वे विभिन्न तर्कों के आधार पर जातिवाद का समर्थन करते रहते है। जातिवाद के उन समर्थकों द्वारा एक तर्क यह भी दिया जाता है कि आधुनिक सभ्य समाज में कार्यकुशलता के लिए कार्य विभाजन या कार्य का बंटवारा करना आवश्यक है और जातिप्रथा, कार्य विभाजन का ही दूसरा रूप है। इसीलिए उनके अनुसार जातिवाद में कोई बुराई नहीं है। परन्तु सच तो यह है कि जाति प्रथा, काम का बंटवारा करने के साथ-साथ लोगों का बंटवारा भी करती हैं। यह भी सत्य है कि
समाज के विकास के लिए कार्य का बंटवारा भी आवश्यक है। परन्तु समाज का विकास तभी संभव है जब यह कार्य विभाजन किसी जाति के आधार पर नहीं बल्कि व्यक्ति की योग्यता, रूचि और उसकी कार्य कुशलता व निपुणता के आधार पर हो। भारतीय समाज की जाति प्रथा की एक यह भी विशेषता है कि यह कार्य के आधार पर श्रमिकों का विभाजन नहीं करती बल्कि समाज में पहले से ही विभाजित वर्गों अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, के आधार पर कार्य का विभाजन करती है। उदाहरण के तौर पर ब्राह्मण का बेटा वेद-पुराणों का ही अध्ययन करेगा तो क्षत्रिय का बेटा रक्षा का ही कार्य करेगा, लोहार का बेटा लोहार का ही कार्य करेगा। भले ही इन कार्यों को करने में उनकी रूचि हो या न हो। इस तरह की व्यवस्था विश्व के किसी भी समाज में नहीं दिखाई देती है।
भीमराव अंबेडकर जी कहते हैं कि एक समय के लिए जाति प्रथा को यदि श्रम विभाजन मान भी लिया जाए तो भी यह स्वाभाविक और उचित नहीं होगा। क्योंकि यह मनुष्य की रुचि के हिसाब से नहीं है। इसमें व्यक्ति जिस जाति या वर्ग में जन्म लेता हैं, उसे उसी के अनुसार कार्य करना होता हैं। भले फिर वह उसकी रूचि का कार्य हो या ना हो। अथवा वह किसी अन्य कार्य में ज्यादा निपूण हो और सबसे बड़ी बात तो यह है कि सब कुछ उसके माता-पिता के सामाजिक स्तर के हिसाब से बच्चे के जन्म लेने से पहले अर्थात उसके गर्भ से ही निर्धारित कर दिया जाता है कि उसका पेशा क्या होगा। यानि वह भविष्य में क्या कार्य करेगा। जातिप्रथा का सबसे बड़ा नकारात्मक पहलू यही है।
जबकि व्यक्ति को उसकी रूचि के आधार पर कार्य करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। जैसे अगर कोई ब्राह्मण का पुत्र सैनिक, वैज्ञानिक या इंजीनियर बनकर देश सेवा करना चाहता है तो उसे ऐसा करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्ति को अपनी रूचि व क्षमता के हिसाब से अपना कार्य क्षेत्र चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। तभी देश का युवक वर्ग अपनी पूरी क्षमता से समाज व राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका निभा पाएंगे।
भीमराव अंबेडकर जी प्रस्तुत पाठ में जातिप्रथा के दोष बताते हुए कहते हैं कि जातिप्रथा, व्यक्ति के कार्यक्षेत्र को पहले से ही निर्धारित तो करती ही हैं। साथ ही साथ यह मनुष्य को जीवन भर के लिए उसी पेशे के साथ बंधे रहने को मजबूर भी करती है। फिर भले ही व्यक्ति की उस कार्य को करने में कोई रुचि हो या ना हो, या फिर उस कार्य से उसकी आजीविका चल रही हो या चल रही हो, उसका और उसके परिवार का भरण पोषण हो रहा हो या ना हो रहा हो। यहाँ तक कि उस कार्य से उसके भूखे मरने की नौबत भी आ जाए तो भी, वह अपना कार्य बदल कर कोई दूसरा कार्य नहीं सकता है। जबकि आधुनिक समय में कई बार प्रतिकूल परिस्थितियाँ होने के कारण अपना और अपने परिवार की सुख-सुविधाओं के लिए इंसान को अपना पेशा या कार्यक्षेत्र बदलने की जरूरत पड़ सकती है। लेकिन अगर प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना कार्यक्षेत्र बदलने की स्वतंत्रता ना हो तो उसके भूखे मरने की नौबत तो आयेगी ही। हिंदू धर्म की जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा कोई कार्यक्षेत्र चुनने की अनुमति नहीं देती है जो उसका पैतृक पेशा ना हो। भले ही वह किसी दूसरे कार्य को करने में अधिक निपुण और पारंगत क्यों ना हो। इसीलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि कार्यक्षेत्र को बदलने की अनुमति न देकर जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी व् भुखमरी बढ़ाने में भी अहम भूमिका निभाती है।
यदि देखा जाए तो श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति प्रथा में कई दोष हैं क्योंकि जातिप्रथा में श्रम विभाजन मनुष्य की इच्छा पर निर्भर नहीं होता। इसमें मनुष्य की व्यक्तिगत भावनाओं व व्यक्तिगत रूचि का कोई स्थान और महत्व भी नहीं होता। हर जाति या वर्ग के लोगों को उनके लिए पहले से ही निर्धारित कार्य करने पड़ते है। कई लोगों को अपने पूर्व निर्धारित या पैतृक कार्य में कोई रुचि नहीं होती, फिर भी उन्हें वो कार्य करने पड़ते है। क्योंकि जाति प्रथा के आधार पर वह कार्य उनके लिए पहले से ही निश्चित है और कोई अन्य कार्य या व्यवसाय चुनने की उन्हें कोई अनुमति नहीं है। ऐसी स्थिति में जब व्यक्ति अपनी इच्छा के विपरीत किसी कार्य को करता है तो वह उस कार्य को पूरी लगन, कर्तव्यनिष्ठा और मेहनत से नहीं कर पाता और केवल कार्य को निपटाने की कोशिश करता है। और यह भी सत्य है कि जब व्यक्ति किसी कार्य को पुरे मन से अथवा लगन से नहीं करेगा तो, वह उस कार्य को पूरी कुशलता या निपुणता से कैसे कर सकता है। अतः इस बात से यह प्रमाणित होता है कि व्यक्ति की आर्थिक असुविधाओं के लिए भी जाति प्रथा हानिकारक है। क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक रुचि के अनुसार कार्य करने की अनुमति नहीं देती। और बेमन से किया गए कार्य में व्यक्ति कभी भी उन्नति नहीं कर सकता।
मेरी कल्पना का आदर्श-समाज –
डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जी कहते हैं कि उनकी कल्पना का आदर्श समाज स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे पर आधारित है। और किसी भी आदर्श समाज में इतनी गतिशीलता या लचीलापन तो होना ही चाहिए कि यदि समय के साथ समाज में कोई परिवर्तन करने की आवश्यकता हो तो वह परिवर्तन आसानी से किये जा सकें और यदि लोगों की भलाई के लिए कोई फैसला या नियम बनाया जाए तो उन फैसलों या नियमों का लाभ उच्च वर्ग से निम्न वर्ग तक के सभी व्यक्ति को एक समान रूप से मिल सके, जिससे समाज के सभी लोगों को उन्नति के समान अवसर मिलें। समाज में लोगों के बीच किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। क्योंकि जिस समाज में लोग एक दूसरे के हितों का ध्यान रखते है या एक दूसरे की भलाई के बारे में सोचते हैं। वह समाज निश्चित रूप से उन्नति करता है।
डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जी का मानना है कि समाज में भाईचारा दूध और पानी के समान होना चाहिए। जैसे पानी, दूध में मिलकर दूध जैसा ही हो जाता है और फिर उसे दूध से अलग करना संभव नही होता। ठीक उसी तरह समाज में भाईचारा होना चाहिए। जिस समाज में भाईचारा होता है और कोई भेदभाव नहीं होता। सही अर्थों में वही लोकतंत्र कहलाता है।
लेखक लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि लोकतंत्र सिर्फ देश चलाने के लिए एक शासन व्यवस्था नहीं हैं बल्कि लोकतंत्र एक ऐसा समाज है जहाँ लोग एक दूसरे का, अपने साथियों का सम्मान करें , उनके प्रति श्रद्धा भाव रखें, जहाँ हर किसी को अपना व्यवसाय या कार्यक्षेत्र चुनने की आजादी हो, वही लोकतंत्र है।
लेखक प्रश्न पूछते हैं कि जब हमें कही भी आने-जाने, अपने जीवन की सुरक्षा करने, अपने कार्य के लिए आवश्यक औजार और सामग्री रखने की स्वतंत्रता मिल सकती है तो फिर हमें अपने मनपसंद का या रूचि के अनुसार कार्य चुनने की स्वतंत्रता क्यों नहीं मिल सकती। कुछ जाति प्रथा के समर्थक जीवन, शारीरिक सुरक्षा व संपत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता को मान भी लेंगे लेकिन अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता देने के लिए बिलकुल तैयार नहीं होंगे। इसका सीधा-सीधा मतलब हुआ कि लोगों को दासता अर्थात गुलामी में जकड़ कर रखना।
दासता अर्थात गुलामी केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कहा जा सकता। जब कुछ लोगों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार और कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता हैं। यह भी एक तरह की गुलामी ही है। और जाति प्रथा में लोगों को अक्सर अपनी इच्छा के विपरीत दूसरे लोगों द्वारा बनाए हुए कानूनों को मानना पड़ता है। क्योंकि जातिप्रथा वाले समाज में प्रतिकूल परिस्थिति होने पर भी व्यक्ति अपना व्यवसाय या कार्यक्षेत्र नहीं बदल सकता। एक व्यक्ति को अपने जन्म से पूर्व निर्धारित कार्यों को ही इच्छा के विरुद्ध जीवन भर करना पड़ता हैं चाहे वह उसके व् उसके परिवार के लिए अनुकूल हो ना हो।
लेखक कहते हैं कि इसी तरह समाज में समानता का अधिकार भी होना चाहिए। हालांकि कुछ लोग इसकी आलोचना करते हुए यह भी कह सकते हैं कि सभी मनुष्य बराबर नहीं होते और उनका यह तर्क कुछ हद तक सही भी हो सकता है। क्योंकि सभी मनुष्य इन तीन बातों पर समान नहीं होते –
(1) शारीरिक-वंश परंपरा अर्थात शारीरिक रंग-रूप, आकृति और जन्म के आधार पर यानि व्यक्ति किस धर्म या जाति में जन्म लेगा, इन पर किसी व्यक्ति का नियंत्रण नहीं होता।
(2) सामाजिक उत्तराधिकार – कहने का तात्पर्य यह है कि किसी को उनके माता पिता से कितनी धन-सम्पत्ति मिलेगी या अन्य चीजें मिलेंगी, ये किसी के हाथ में नही हैं।
(3) मनुष्य के अपने प्रयत्न – प्रत्येक मनुष्य अपनी कुशलता के आधार पर अलग-अलग कसौटी पर प्रयत्न करता है।
लेकिन इन तीन विशेषताओं के आधार पर अर्थात शारीरिक वंश परंपरा व सामाजिक उत्तराधिकार का अधिकार व्यक्ति के अपने हाथ में नहीं हैं, इसीलिए इस आधार पर किसी के साथ असमान व्यवहार करना उचित नहीं है। जाति, धर्म, संप्रदाय से ऊपर उठकर हमें मानव मात्र के प्रति समान व्यवहार रखना चाहिए।समाज में भेदभाव को छोड़ कर सभी लोगों को समान अवसर और अधिकार मिलने चाहिए। यह सब असंभव है किन्तु यही सत्य है।
लेखक कहते हैं कि यदि उत्तम व्यवहार के हक की कोई प्रतियोगिता हो तो वो लोग निश्चित ही आगे निकल जाएंगे जिन्होंने अच्छे कुल में जन्म लिया और जिन्हें विरासत में अथाह धन संपत्ति, व्यवसाय व प्रतिष्ठा मिली है। अगर हम केवल सुख-सुविधाओं से संपन्न लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करें या उन्हें ही अच्छा व्यवहार का हकदार मानें , तो हमारा यह निर्णय पक्षपाती कहा जाएगा। और यह निर्णय सुविधा संपन्नों के पक्ष में निर्णय देना जैसे होगा। इसीलिए कभी भी शारीरिक वंश परंपरा और सामाजिक उत्तराधिकार के आधार पर निर्णय नहीं लेना चाहिए। यदि हमें समाज के सभी सदस्यों से अधिकतम योगदान प्राप्त करना है तो हमें सभी को सामान अवसर उपलब्ध कराने होंगे और सभी के साथ एक समान व्यवहार करना होगा। और प्रत्येक व्यक्ति को उसकी क्षमता का विकास करने के लिए प्रोत्साहित भी करना होगा। क्योंकि यह संभव है कि किसी व्यक्ति का प्रयत्न कम हो सकता है और किसी का ज्यादा लेकिन कम से कम हम सभी को समान प्रयत्न करने का अवसर तो उपलब्ध करवा सकते हैं।
अंबेडकर जी कहते हैं कि मानवता की दृष्टि से समाज को दो श्रेणियों में नहीं बांटा जा सकता। व्यवहारिक सिद्धांत भी यही कहता है कि सभी के साथ समान व्यवहार किया जाए। जैसे राजनीतिज्ञ सबके साथ समान व्यवहार करते हैं। राजनेता इसी धारणा को लेकर चलता है कि सबके साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए। तभी उसकी राजनीति फलती फूलती है। हालांकि समानता एक काल्पनिक जगत की वस्तु है फिर भी राजनीतिज्ञ को सभी परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए , यही मार्ग अपनाना पड़ता है क्योंकि यही व्यवहारिक भी है और यही उसके व्यवहार की एकमात्र कसौटी भी है।
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Lesson Question Answers
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