Kavitawali Lakshman Moorchha aur Ram ka Vilap Summary

 

CBSE Class 12 Hindi Chapter 7 “Kavitawali, Lakshman Moorchha aur Ram ka Vilap”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Aroh Bhag 2 Book

 

इस पोस्ट में हम आपके लिए CBSE Class 12 Hindi Aroh Bhag 2 Book के Chapter 7 में  गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित  दो  कविताएँ कवितावली (उत्तर काण्ड से) और लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप का पाठ सार, व्याख्या और  कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं। यह सारांश और व्याख्या आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे आप जान सकते हैं कि इस कविता का विषय क्या है। इसे पढ़कर आपको को मदद मिलेगी ताकि आप इस कविता के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। Goswami Tulsidas Poems Kavitawali (Uttar Kand Se), Lakshman Moorchha aur Ram ka Vilap Summary, Explanation, Difficult word meanings of CBSE Class 12 Hindi Aroh Bhag-2 Chapter 7.

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कवितावली (उत्तर काण्ड से)

 

कवितावली (उत्तर काण्ड से) का पाठ सार – (Summary)

 

कवितावली (उत्तर काण्ड से) – कवित्त में गोस्वामी तुलसीदास जी ने बताया है कि संसार के सभी लोग अच्छे-बुरे काम बिना धर्म-अधर्म की परवाह किए केवल  ‘पेट की आग’ को शांत करने के लिए करते है, इस पेट की आग को बुझाने के लिए कोई बुरे कर्म न करने पड़े इसके लिए कवि एक उपाय बताते हैं और वह उपाय है – राम-रूपी घनश्याम का कृपा-जल।

इस कवित्त में कवि ने पेट की आग को सबसे बड़ा व् भयानक बताया है। संसार के सभी मनुष्य अपने सारे काम इसी आग को बुझाने के लक्ष्य से करते हैं, फिर चाहे वह व्यापार हो, खेती हो, नौकरी हो, नाच-गाना हो, किसी की प्रशंसा करना हो, चोरी-चकारी हो, किसी का संदेशवाहक बनना हो, किसी की सेवा करना हो, शिकार करना या जंगलों में घूमना हो। इस पेट की आग को बुझाने के लिए लोग अपनी संतानों तक को बेचने के लिए विवश हो जाते हैं। यह पेट की आग समुद्र की आग से भी भयानक बताई गई है। कवि के अनुसार इस आग को बुझाने का कार्य अब केवल रामरूपी घनश्याम ही कर सकते हैं।

पहले सवैये में कवि ने अकाल की स्थिति व् गरीबी को प्रदर्शित किया है। समय पर बारिश न होने के कारण अकाल पड़ा हुआ है। जिस कारण किसान खेती नही कर पा रहा है, भिखारी को भीख नहीं मिल रही है, ब्राह्मण को दक्षिणा नहीं मिल पा रहा है, व्यापारी अपना व्यापार करने में असमर्थ है और नौकर को कोई नौकरी नहीं मिल रही हैं। लोगों के पास आजीविका का कोई साधन नहीं है। वेदों और पुराणों में कहा गया है और इस संसार में सदैव देखा गया है संकट के समय भगवान राम की कृपा से ही सब ठीक कर सकती है। कवि राम से प्रार्थना करते हैं कि अब वे ही इस दरिद्रता रूपी रावण का विनाश करें।

दूसरे सवैये में कवि ने भक्त की गहनता और सघनता में उपजे भक्त-हृदय के आत्मविश्वास का सजीव चित्रण किया है। वे कहते हैं कि चाहे कोई उन्हें बुरा व्यक्ति कहे या सज्जन कहे, राजपूत कहे या करघे पर कपड़ा बुनने वाला शिल्पकार, उन्हें किसी से कोई फर्क नही पड़ता है। उन्हें किसी की बेटी से अपने बेटे की शादी नहीं करनी हैं और न ही उन्हें किसी से रिश्ता बनाकर उसकी जाति को बिगाड़ना है। यह तो सारे संसार में प्रसिद्ध हैं कि वे श्रीराम की भक्ति के गुलाम हैं। जिसे जो अच्छा लगे, वही कहे। वे तो भिक्षा मांग कर भी खा सकते है और मस्जिद में भी सो सकते हैं। उन्हें समाज और लोग दोनों ही से कुछ लेना-देना या मतलब नहीं हैं वे तो राम के समर्पित भक्त हैं।

 

कवितावली (उत्तर काण्ड से) कविता की व्याख्या (Explanation)

 

पद्यांश 1 –
किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी, भाट,
चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी।
पेटको पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि,
अटत  गहन-गन अहन अखेटकी।।
ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,
पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी।।
“तुलसी” बुझाई एक राम घनस्याम ही तें,
आग बड़वागि तें बड़ी है आगि पेटकी।।

कठिन शब्द –
किसबी – मजदूर, श्रमजीवी, धंधा करने वाले
कुल – परिवार
बनिक – व्यापारी
भाट – नाचने गाने वाले लोग, प्रशंसा करने वाला
चाकर – घरेलू नौकर, सेवक
चपल नट – रस्सी पर चलने वाला
चार – गुप्तचर, दूत, संदेशवाहक
चटकी – जादूगर
गुनगढ़त – विभिन्न कलाएँ व विधाएँ सीखना
अटत – घूमता, पूरा पड़ना, काफी होना
अखटकी – शिकार करना
गहन गन – घना जंगल
अहन – दिन, भोर, सूर्योदय, सुबह की महिमा
करम – कार्य, काम, भाग्य, किस्मत
अधरम – पाप
बुझाड़ – बुझाना, शांत करना
घनश्याम – काला बादल
बड़वागितें – समुद्र की आग से
आग येट की – भूख

व्याख्या उपरोक्त पंक्तियों में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि इस संसार में मजदूर अथवा वैश्य, किसान परिवार, व्यापारी , भिखारी, नाचने गाने वाले लोग  अथवा किसी की प्रशंसा करने वाले लोग, नौकर अथवा सेवक, रस्सी पर चलने वाले अथवा अभिनय करने वाले, चोरी करने वाले,  दूतअथवा संदेशवाहक, जादूगर, ये सभी लोग अपना पेट भरने के लिए अलग-अलग तरह के काम करते हैं। पेट भरने के लिए कोई पढ़ता है, तो कोई अनेक तरह के हुनर सीखता है और कोई पर्वत पर चढ़ता है अर्थात पेट भरने के लिए मुश्किल से मुश्किल कार्य करने के लिए तैयार रहता हैं। कोई जंगलों में दिनभर शिकार की खोज में  भटकता हैं। कोई भी काम अच्छा या बुरा बिना धर्म-अधर्म की परवाह किए करते हैं। यहां तक कि ये लोग अपने पेट की आग को बुझाने के लिए अपने बेटे और बेटी तक को बेच देते देने के लिए मजबूर हो जाते हैं। 

तुलसीदास जी कहते हैं कि इस आग को केवल श्री राम रूपी बादल ही बुझा सकते हैं अर्थात श्री राम की कृपा दृष्टि से ही लोगों के दुःख दूर हो सकते है। क्योंकि मनुष्य के पेट की आग, समुद्र की आग से भी भयानक होती है।

 

पद्यांश 2 –
खेती न किसान को, भिखारी न भीख, बलि,
बनिक को बनिज , न चाकर को चाकरी।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सौं  “कहाँ जाइ, का करी?”
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे सबैं पै, राम !  रावरें कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु !
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी।। 

कठिन शब्द –
बलि – दान-दक्षिणा, नैवेद्य, भोग
बनिक – व्यापारी
बनिज – व्यापार
चाकर – घरेलू नौकर, सेवक
चाकरी – नौकरी, सेवा
जीविका – भरण-पोषण का साधन, काम-धंधा, रोज़ी, वृत्ति
बिहीन – रहित, बिना
सीद्यमान – दुःखी, पीड़ित
सोच – चिंतन, चिंता, फ़िक्र
बस – वश में
एक एकन सों – आपस में
का करी – क्या करें
बेदहूँ – वेद
पुरान – पुराण
लोकहूँ – लोक में भी
बिलोकिअत – देखते हैं
साँकरे – संकट
रावरें – आपने
दारिद – गरीबी
दसानन – रावण
दबाढ़ – दबाया
दुनी – संसार
दीनबंधु – दुखियों पर कृपा करने वाला
दुरित – पाप
दहन – जलाने वाला, नाश करने वाला
हहा करी – दुखी हुआ

व्याख्याउपरोक्त पंक्तियों में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि समय पर बारिश न होने के कारण अकाल पड़ा हुआ है। जिस कारण किसान खेती नही कर पा रहा है, स्थिति इतनी दयनीय है कि भिखारी को भीख नहीं मिल रही है, ब्राह्मण को दक्षिणा अथवा भोग नहीं मिल पा रहा है, व्यापारी अपना व्यापार करने में असमर्थ है क्योंकि उसे साधनों की कमी हो रही है और नौकर को कोई नौकरी नहीं मिल रही हैं। बेरोजगारी के कारण बेरोजगार यानि आजीविका रहित लोग दुःखी हैं और बस सोच में पड़े हैं और एक दूसरे से पूछ रहे हैं कि अब कहाँ जाएं और क्या करें? गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि हमारे वेदों और पुराणों में कहा गया है और इस संसार में सदैव देखा गया है कि जब-जब सब पर संकट आया है, तब-तब श्री राम ने ही सब पर कृपा की है अर्थात सबके दुखों को दूर किया है। तुलसीदास जी ईश्वर को पुकारते हुए कहते हैं कि हे दुःखियों पर कृपा करने वाले! दरिद्रता रूपी रावण ने इस दुनिया को पूरी तरह से दबाया हुआ है। पूरी दुनिया बहुत दुखी हैं और पाप की अग्नि में जलती, दुनिया को देखकर तुलसीदास के मन में हाहाकार मच गया हैं और वे प्रभु से इस दुखी संसार का उद्धार करने की प्रार्थना करते हैं।

 

पद्यांश 3 –
धूत कहौ,  अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ।।
तुलसी सरनाम गुलामु हैं राम को, जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ।
माँगि कै खैबो, मसीत को सोइबो, लैबोको एकु न दैबको दोऊ।।

कठिन शब्द –
धूत – त्यागा हुआ, त्यक्त, दूर किया हुआ
अवधूत – संन्यासी, साधुओं का एक भेद
रजपूतु – राजपूत
जलहा – जुलाहा, करघे पर कपड़ा बुनने वाला शिल्पी
कोऊ – कोई
काहू की – किसी की
ब्याहब – ब्याह करना है
बिगार – बिगाड़ना
सरनाम  – प्रसिद्ध, मशहूर
गुलामु – दास, गुलाम
जाको – जिसे
रुच – अच्छा लगे
ओऊ – और
खैबो – खाऊँगा
मसीत  – मसजिद
सोढ़बो  – सोऊँगा
लैंबो – लेना
वैब – देना
दोऊ – दोनों

व्याख्या उपरोक्त पंक्तियों में गोस्वामी तुलसीदास जी अपने आप को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि समाज उन्हें बुरा व्यक्ति कहे या सज्जन कहे, राजपूत कहे या करघे पर कपड़ा बुनने वाला शिल्पकार कहने का तात्पर्य यह है कि तुलसीदास जी लोगों से कहते हैं कि वे उन्हें जो चाहे कहे या समझे, उन्हें किसी से कोई फर्क नही पड़ता है। तुलसीदास जी कहते हैं कि उन्हें किसी की बेटी से अपने बेटे की शादी नहीं करनी हैं और न ही उन्हें किसी से रिश्ता बनाकर उसकी जाति को बिगाड़ना है। तुलसीदास जी आगे कहते हैं कि यह तो सारे संसार में प्रसिद्ध हैं कि वे श्रीराम की भक्ति के गुलाम हैं। इसीलिए जिसे जो अच्छा लगता है, वो कह सकता है। तुलसीदास जी कहते हैं कि वे तो भिक्षा मांग कर भी खा सकते है और मस्जिद में भी सो सकते हैं। उन्हें समाज और लोग दोनों ही से कुछ लेना-देना या मतलब नहीं हैं। कहने का अभीप्राय यह है कि तुलसीदास जी का समाज से कोई संबंध नहीं है, वे तो राम के समर्पित भक्त हैं।

 

 लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप

 

 लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप का पाठ सार – (Summary)

 

‘रामचरितमानस’ के लंका कांड से गृहीत लक्ष्मण के शक्ति बाण लगने का प्रसंग कवि की मार्मिक स्थलों की पहचान का एक श्रेष्ठ नमूना है। भाई के शोक में राम का विलाप धीरे-धीरे प्रलाप में बदल जाता है, जिसमें लक्ष्मण के प्रति राम के अंतरमन में छिपे प्रेम के कई कोण सहसा ही सामने आ जाते है। यह प्रसंग हनुमान जी के भरत जी से मिलने से प्रारंभ होता है जहाँ हनुमान जी भरत जी के गौरव व् यश को अपने हृदय में धारण करके, भरत जी से आज्ञा लेकर लंका चल देते हैं। भरत जी के बाहुबल व् शील स्वभाव तथा प्रभु श्री राम के प्रति उनके अपार प्रेम को मन में सराहते हुए बार-बार पवन पुत्र हनुमान भरत जी की बड़ई अर्थात प्रशंसा किए जा रहे थे। उधर लंका में प्रभु श्री राम लक्ष्मण को निहारते हुए एक साधारण मनुष्य के समान विलाप करते हुए कह रहे थे कि आधी रात बीत गई है परन्तु हनुमान जी अभी तक नहीं आए हैं। यह कहकर श्री राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया था और कहने लगे थे कि लक्ष्मण कभी उन्हें दुःखी नहीं देख सकते थे और उनका व्यवहार सदैव प्रभु राम के लिए कोमल व विनम्र रहा। प्रभु राम हित के लिए ही लक्ष्मण ने अपने माता-पिता को त्याग दिया और राम जी के साथ जंगल में ठंड, धूप, तूफ़ान आदि को सहन किया। जिस प्रकार पंख के बिना पक्षी, मणि के बिना सांप और सूँड के बिना हाथी बहुत ही दीन-हीन हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार लक्ष्मण के बिना श्री राम केवल भाग्य से जीवित रहेंगे मगर उनका जीवन अत्यंत कठिन होगा। श्री राम कहते हैं कि वे अयोध्या कौन सा मुँह लेकर जाएंगे। क्योंकि सभी कहेंगे कि राम ने पत्नी के लिए अपना प्रिय भाई खो दिया। इस संसार में पत्नी को खोने का कलंक सह किया जा सकता है। क्योंकि इस संसार में अनुसार स्त्री की हानि कोई विशेष क्षति नहीं होती हैं। अब तुम्हें खोने का अपयश भी मुझे सहन करना होगा और मेरा निष्ठुर, कठोर हृदय तुझे खोने का दुःख भी सहेगा। तुम अपनी माँ की एकमात्र संतान हो और उनके जीने का एकमात्र सहारा भी तुम ही हो। श्री राम कहते हैं कि तुम्हारी माता ने तुम्हारा हाथ पकड़कर, तुम्हें मुझे सौंपा था। सभी के दुखों का नाश करने वाले श्री राम बहुत प्रकार से विचार कर रहे हैं और उनके कमल की पंखुड़ी के समान नेत्रों से आंसू बह रहे है। यह सब भगवान शंकर, माता पार्वती को सुना रहे हैं और माता पार्वती को बता रहे हैं कि हे ! उमा, प्रभु राम अखंड है। उन्होंने अपने भक्तों पर कृपा करने के लिए मनुष्य रूप धारण किया है। प्रभु श्रीराम के व्याकुल व् तर्कहीन वचन-प्रवाह को सुनकर वानर व भालू का समूह भी बैचेन व व्याकुल हो गया। जैसे ही हनुमान जी आए, ऐसा लगा जैसे करुण रस में वीर रस का संचार हो गया है। हनुमान के आने पर श्री राम जी ने बहुत खुश होकर हनुमान जी को गले से लगा लिया। उसके बाद तुरंत ही वैद्य ने लक्ष्मण जी का उपचार किया और थोड़ी ही देर बाद लक्ष्मण जी उठकर बैठ गए और अत्यंत प्रसन्न हुए। लक्ष्मण फिर से जीवित हो गये हैं, इस बात को जब रावण ने सूना तो उसे बहुत दुख हुआ और वह बार-बार अपना सिर पीटने लगा। रावण अत्यंत परेशान होकर अपने छोटे भाई कुंभकरण के पास गया। अभिमानी रावण ने जिस प्रकार से सीता का हरण किया था और अब तक युद्ध में घटी सारी धटनाएँ कुंभकरण को बताई। रावण के वचन सुनकर कुंभकर्ण दुखी होकर बिलखने लगा और बोला,  हे मूर्ख! जगत माता सीता का हरण कर अब तुम अपना कल्याण चाहते हो? यह संभव नही है।

 

 

लक्ष्मण मूर्छा व राम का विलाप की व्याख्या -(Explanation)

 

दोहा –
तव प्रताप उर राखि प्रभु, जैहउँ नाथ तुरंग।
अस कहि आयसु पाह पद, बदि चलेउ हनुमत।
भरत बाहु बल सील गुन, प्रभु पद प्रीति अपार।
मन महुँ जात सराहत, पुनि-पुनि पवनकुमार।।

 

कठिन शब्द –
तव – तुम्हारा, आपका
प्रताप – यश, गौरव, तेज
उर – हृदय
राखि – रखकर
जैहऊँ – जाऊँगा
नाथ – स्वामी
अस – इस तरह
आयसु – आज्ञा
पाड़ – पाकर
पद – चरण, पैर
बदि – वंदना करके
बहु – भुजा
सील – सद्व्यवहार
गुन – गुण
प्रीति – प्रेम
अयार – अधिक
महुँ – में
सराहत – बड़ाई करते हुए
पुनि-पुनि – फिर-फिर
पवनकुमार – हनुमान

व्याख्याउपरोक्त दोहे में हनुमान जी भरत जी से कहते हैं कि हे! प्रभु मैं आपके गौरव व् यश को अपने हृदय में धारण करके समय से वहाँ अर्थात लंका पहुँच जाऊँगा। ऐसा कहकर भरत जी से आज्ञा लेकर, उनके चरण स्पर्श करके, उनकी वंदना करके हनुमान जी चल दिए।

भरत जी के बाहुबल व् शील स्वभाव तथा प्रभु श्री राम के प्रति उनके अपार प्रेम को मन में सराहते हुए बार-बार पवन पुत्र हनुमान भरत जी की बड़ई अर्थात प्रशंसा किए जा रहे थे।

 

चौपाई
उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी ।
अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायउ ।।
सकहु न दुखित देखि मोहि काउ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ ।
मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता ।।
सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई।
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू ।।

 

कठिन शब्द –
उहाँ – वहाँ
लछिमनहि – लक्ष्मण को
निहारी – देखा
मनुज – मनुष्य
अनुसारी – समान
अर्ध – आधी
राति – रात
कपि – बंदर (हनुमान)
आयउ – आया
अनुज- छोटा भाई (लक्ष्मण)
उर – हृदय
सकहु – सके
दुखित – दुखी
मोहि – मुझे
काउ – किसी प्रकार
बंधु – भाई, भ्राता
तव – तेरा
मृदुल – कोमल
सुभाऊ – स्वभाव
मम – मेरे
हित – भला
तजहु – त्याग दिया
सहेहु – सहन किया
बिपिन – जंगल
हिम – बर्फ
आतप – धूप
बाता – हवा, तूफ़ान
सो – वह
अनुराग – प्रेम
बच – वचन

बिकलाई – व्याकुल
जौं – यदि
जनतेऊँ – जानता
बिछोहू – बिछड़ना, वियोग
मनतेऊँ – मानता
ओहू – उस 

व्याख्याइस प्रसंग में कवि द्वारा लक्ष्मण-मूच्छा पर राम के करुण विलाप का वर्णन किया गया है। कवि कहते हैं कि उधर लंका में प्रभु श्री राम लक्ष्मण को निहारते हुए एक साधारण मनुष्य के समान विलाप करते हुए कहते हैं कि आधी रात बीत गई है परन्तु हनुमान जी अभी तक नहीं आए हैं। यह कहकर श्री राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया और कहने लगे कि तुम मुझे कभी दुःखी नहीं देख सकते थे और मेरे भाई तुम्हारा व्यवहार सदैव कोमल व विनम्र रहा। मेरे हित के लिए ही तुमने अपने माता-पिता को त्याग दिया और मेरे साथ जंगल में ठंड, धूप, तूफ़ान आदि को सहन किया। श्री राम आगे कहते हैं कि हे! भाई तुम्हारा वो प्यार अब कहाँ गया? तुम मेरे व्याकुलता भरे वचनों को सुनकर भी क्यों नहीं उठ रहे हो। यदि मैं यह जानता कि वन में मुझे मेरे भाई से बिछड़ना होगा तो मैं पिता के वचनों को भी नहीं मानता अर्थात में वन में नहीं आता।

 

चौपाई
सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा।
अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।।
जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना।
अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जौं जड़ दैव जिआवै मोही।।
जैहउँ अवध कवन मुहुँ लाई। नारि हेतु प्रिय भाई गँवाई।
बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं।।

कठिन शब्द
बित – धन
नारि – स्त्री, पत्नी
होहिं – आते हैं
जाहि – जाते हैं
जग – संसार
बारहिं बारा – बार-बार
अस – ऐसा, इस तरह
बिचारि – सोचकर
जियँ – मन में
ताता – भाई के लिए संबोधन
सहोदर – एक ही माँ की कोख से जन्मे
भ्राता – भाई
जथा – जिस प्रकार
बिनु – के बिना
दीना – दीन-हीन
मनि – नागमणि
फनि – फन (साँप)
करिबर – श्रेष्ठ हाथी
कर – सूंड़
हीना – से रहित
मम – मेरा
जिवन – जीवन
बंधु – भाई
तोही – तुम्हारे
जौं – यदि
जड़ – कठोर
दैव – भाग्य
जिआवै – जीवित रखे
मोही – मुझे
जैहऊँ – जाऊँगा
कवन – कौन
मुहुँ – मुख
हेतु – के लिए
गँवाई – खोकर
बरु – चाहे
अपजस – अपयश
सहतेऊँ – सहन करता
माहीं – में
बिसेष – खास
छति – हानि, नुकसान 

व्याख्या –  इस पद्यांश में कवि लक्ष्मण-मूच्छा पर राम के विलाप का वर्णन कर रहे है। पद्यांश में श्री राम कहते हैं कि पुत्र, धन, स्त्री, घर और परिवार, ये सब इस संसार में बार-बार मिल सकते हैं। क्योंकि इस संसार में सगा भाई दुबारा नहीं मिल सकता इसलिए ऐसा विचार करके हे भाई तुम जाग जाओ। श्री राम आगे कहते हैं कि जिस प्रकार पंख के बिना पक्षी, मणि के बिना सांप और सूँड के बिना हाथी बहुत ही दीन-हीन हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार हे भाई! तुम्हारे बिना मैं केवल भाग्य से जीवित रहूंगा मगर तुम्हारे बिना मेरा जीवन अत्यंत कठिन होगा। श्री राम कहते हैं कि हे भाई! मैं अयोध्या कौन सा मुँह लेकर जाऊंगा। क्योंकि सभी कहेंगे कि राम ने पत्नी के लिए अपना प्रिय भाई खो दिया। इस संसार में पत्नी को खोने का कलंक सह कर सकता हूं। क्योंकि इस संसार में अनुसार स्त्री की हानि कोई विशेष क्षति नहीं होती हैं।

 

चौपाई
अब अपलोकु सोकु सुत तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा।
निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा।।
सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी।
उतरु काह दैहउँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई।।
बहु बिधि सोचत सोच बिमोचन। स्रवत सलिल राजिव दल लोचन।
उमा एक अखंड रघुराई।   नर गति भगत कृपाल देखाई।। 

कठिन शब्द –
अपलोकु -अपयश
सहिहि – सहन कर लेगा
निठुर – कठोर
उर – हृदय
निज – अपनी
जननी – माँ
कुमारा – पुत्र
तात – पिता
तासु – उसके
प्रान अधारा – प्राणों के आधार
साँयेसि – सौपा था
मोह – मुझे
गहि – पकड़कर
यानी – हाथ
हित – हितैषी
जानी – जानकर
उतरु – उत्तर
काह – क्या
तेहि – उसे
किन – क्यों नहीं
सोच बिमोचन – शोक दूर करने वाला
स्त्रवत – चूता है
सलिल – जल
राजिव – कमल
गति – दशा 

व्याख्याइस पद्यांश में कवि ने लक्ष्मण-मूच्छा पर राम के विलाप व हनुमान के वापस आने का वर्णन किया है। उपरोक्त पंक्तियों में श्री राम कहते हैं कि हे भाई! अब तुम्हें खोने का अपयश भी मुझे सहन करना होगा और मेरा निष्ठुर, कठोर हृदय तुझे खोने का दुःख भी सहेगा। तुम अपनी माँ की एकमात्र संतान हो और उनके जीने का एकमात्र सहारा भी तुम ही हो। श्री राम कहते हैं कि तुम्हारी माता ने तुम्हारा हाथ पकड़कर, तुम्हें मुझे सौंपा था। सब प्रकार से सुख देने वाला तथा परम हितकारी जानकार ही उन्होंने ऐसा किया था। अब मैं तुम्हारी माता को क्या उत्तर दूंगा। हे भाई! तुम एक बार उठकर मुझे यह सब सिखा दो अथवा बता दो। सभी के दुखों का नाश करने वाले श्री राम बहुत प्रकार से विचार कर रहे हैं और उनके कमल की पंखुड़ी के समान नेत्रों से आंसू बह रहे है।

यह सब भगवान शंकर, माता पार्वती को सुना रहे हैं और माता पार्वती को बता रहे हैं कि हे ! उमा, प्रभु राम अखंड है। उन्होंने अपने भक्तों पर कृपा करने के लिए मनुष्य रूप धारण किया है।

 

सोरठा

 प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस।।

कठिन शब्द
प्रलाप – तर्कहीन वचन-प्रवाह
बिकल – परेशान
निकर – समूह
जिमि – जैसे
मँह – में।

व्याख्या – प्रभु श्रीराम के व्याकुल व् तर्कहीन वचन-प्रवाह को सुनकर वानर व भालू का समूह भी बैचेन व व्याकुल हो गया। जैसे ही हनुमान जी आए, ऐसा लगा जैसे करुण रस में वीर रस का संचार हो गया है।

 

चौपाई
हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना।
तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई।।
हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता।
कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा। जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा।।

 कठिन शब्द –
हरषि – खुश होकर
भेंटेउ – गले लगाकर प्रेम प्रकट किया
अति – बहुत अधिक
कृतग्य – आभार
सुजाना – अच्छा ज्ञानी, समझदार
बैद – वैद्य
कीन्ह – किया
भ्राता – भाई
हरषे – खुश हुए
सकल – समस्त
ब्राता – समूह, झुंड
पुनि – दुबारा
ताहि – उसको
लइ आवा – लेकर आए थे 

व्याख्याइस पद्यांश में कवि ने लक्ष्मण के स्वस्थ होकर उठने तथा सभी की प्रसन्नता का वर्णन किया है। हनुमान के आने पर श्री राम जी ने बहुत खुश होकर हनुमान जी को गले से लगा लिया। एक समझदार व्यक्ति की तरह प्रभु श्री राम हनुमान जी के कृतज्ञ हो गए। उसके बाद तुरंत ही वैद्य ने लक्ष्मण जी का उपचार किया और थोड़ी ही देर बाद लक्ष्मण जी उठकर बैठ गए और अत्यंत प्रसन्न हुए। प्रभु श्री राम ने अपने भाई को गले से लगा लिया है। सभी भालुओं और वानरों के समूह खुश हो गए। और फिर हनुमान्‌ जी ने पुनः वैद्य जी को वहीँ पहुँचा दिया, जिस प्रकार पहले वे उन्हें ले आए थे।

 

चौपाई
यह बृत्तांत दसानन सुनेऊ। अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ।
ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा। बिबिध जतन करि ताहि जगावा।।
जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा ।
कुंभकरन बूझा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई।।

 कठिन शब्द –
बृतांत – वर्णन
बिषाद – दुख
सिर धुनेऊ – पछताया
पहिं – पास
बिबिध – अनेक
जतन – उपाय, प्रयास
करि – करके
ताहि – उसे
जगावा – जगाया
निसिचर – राक्षस अर्थात कुंभकरण
कालु – मौत
देह – शरीर
धरि – धारण करके
बैसा – बैठा
बूझा – पूछा
कहु – कहो
काहे – क्यों
तव – तेरा
सुखाई – सूख रहे हैं

व्याख्या इस पद्यांश में कवि ने कुंभकरण के जागने का वर्णन किया है। लक्ष्मण फिर से जीवित हो गये हैं, इस बात को जब रावण ने सूना तो उसे बहुत दुख हुआ और वह बार-बार अपना सिर पीटने लगा। रावण अत्यंत परेशान होकर अपने छोटे भाई कुंभकरण के पास गया और उसने विभिन्न प्रकार से जगाने की कोशिश की। (क्योंकि कुंभकरण 6 महीने सोता था और 6 महीने जागता था। और इस वक्त वह सोया हुआ था।)

कुंभकर्ण जाग उठा और जागने के बाद वह इस तरह दिख रहा था जैसे मानो स्वयं काल (अर्थात यमराज) ही शरीर धारण करके बैठा हो। कुंभकर्ण ने रावण से पूछा,  कहो भाई! तुम्हारा मुख क्यों सूख रहा हैं? अर्थात तुम क्यों परेशान दिख रहे हो।

 

चौपाई
कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी।
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महा महा जोधा संघारे ।।
दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकंपन भारी।
अपर महोदर आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा ।।

दोहा
सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान ।
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान ।।

 

कठिन शब्द –
कथा – कहानी
तेहिं – उस
जहि – जिस
हरि – हरण करके
आनी – लाए
कपिन्ह – हनुमान आदि वानर
महा महा – बड़े-बड़े
जोधा – योद्धा
संघारे – संहार किया
दुर्मुख – एक राक्षस का नाम
सुररियु – देवताओं का शत्रु (इंद्रजीत)
मनुज अहारी – नरांतक
भट – योद्धा
अतिकाय – एक राक्षस का नाम
अपर – दूसरा
महोदर – एक राक्षस का नाम
आदिक – आदि
समर – युद्ध
महि – धरती
रनधीरा – रणधीर
दसकंधर – रावण
बिलखान – दुखी होकर रोने लगा
जगदंबा – जगत-जननी
हरि – हरण करके
आनि – लाकर
सठ – मूर्ख
कल्यान – कल्याण, शुभ 

व्याख्याइस पद्यांश में कवि ने कुंभकरण व् रावण के वार्तालाप का वर्णन किया है। तब अभिमानी रावण ने जिस प्रकार से सीता का हरण किया था और अब तक युद्ध में घटी सारी धटनाएँ कुंभकरण को बताई। उसने कुंभकरण को यह भी बताया कि उन वानरों ने सारे राक्षसों को मार डाला हैं और सारे बड़े-बड़े योद्धाओं का भी संहार कर दिया हैं। दुर्मुख, देवताओं का शत्रु (सुररिपु) , मनुष्य को खाने वाला (मनुज अहारी), भारी शरीर वाला योद्धा (अतिकाय अकंपन) तथा महोदर आदि सभी वीर रणभूमि में मारे गए हैं।

रावण के वचन सुनकर कुंभकर्ण दुखी होकर बिलखने लगा और बोला,  हे मूर्ख! जगत माता सीता का हरण कर अब तुम अपना कल्याण चाहते हो? यह संभव नही है।

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