CBSE Class 12 Hindi Aroh Bhag 2 Book Chapter 10 भक्तिन Summary
इस पोस्ट में हम आपके लिए CBSE Class 12 Hindi Aroh Bhag 2 Book के Chapter 10 भक्तिन का पाठ सार लेकर आए हैं। यह सारांश आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे आप जान सकते हैं कि इस कहानी का विषय क्या है। इसे पढ़कर आपको को मदद मिलेगी ताकि आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। Bhaktin Summary of CBSE Class 12 Hindi Aroh Bhag-2 Chapter 10.
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भक्तिन पाठ का सार (Summary)
‘भक्तिन’ महादेवी जी का प्रसिद्ध संस्मरणात्मक रेखाचित्र है जो ‘स्मृति की रेखाएँ’ में संकलित है। इसमें लेखिका ने अपनी सेविका भक्तिन (लछमिन) के भूतकाल और वर्तमान के बारे में बताते हुए उसके व्यक्तित्व का दिलचस्प खाका खींचा है। कैसे महादेवी के घर में काम शुरू करने से पहले उसने एक संघर्ष से भरा, स्वाभिमानी और कर्मठ जीवन जिया, कैसे पुरुषप्रधान मान्यताओं और छल-कपट भरे समाज में अपने और अपनी बेटियों के हक की लड़ाई लड़ती रही और हारकर कैसे ज़िंदगी की राह पूरी तरह बदल लेने के निर्णय तक पहुँची, इसका संवेदनशील चित्रण लेखिका ने किया है।
लेखिका बताती है कि भक्तिन का कद छोटा व शरीर दुबला था और उसके होंठ पतले थे। वह गले में कंठी-माला पहनती थी। वैसे तो उसका नाम लछमिन (लक्ष्मी) था, परंतु उसने अपना परिचय ईमानदारी से देने के बाद लेखिका से यह नाम प्रयोग न करने की प्रार्थना की थी, क्योंकि उसका नाम उसकी आर्थिक स्थिति से बिल्कुल विपरीत था। फिर उसकी कंठी-माला को देखकर लेखिका ने उसका नाम ‘भक्तिन’ रख दिया था। जब भी कोई पूछता था कि वह लेखिका के साथ कब से है तो वह बोल दिया करती थी कि पचास वर्षों से। सेवा-धर्म में वह हनुमान जी से स्पर्द्धा करती थी।
उसके अतीत के बारे में लेखिका बताती है कि भक्तिन ऐतिहासिक झूसी के गाँव के प्रसिद्ध सूरमा की इकलौती बेटी थी। उसका लालन-पालन उसकी सौतेली माँ ने किया। उसका विवाह पाँच वर्ष की उम्र में ही हँडिया गाँव के एक गोपालक के पुत्र के साथ कर दिया गया था। नौ वर्ष की उम्र में उसका गौना हो गया। जब उसके पिता की मृत्यु हुई तो उसकी सास ने रोने-पीटने के अपशकुन से बचने के लिए उसे यह कहकर मायके भेज दिया कि वह बहुत दिनों से गई नहीं है। मायके जाने पर पिता की मृत्यु से दुखी होकर वह बिना पानी पिए ही घर वापस चली आई। घर आकर सास को खरी-खोटी सुनाई तथा पति के ऊपर गहने फेंककर अपना दुःख प्रकट किया। जीवन का पहला भाग तो भक्तिन का कष्टों भरा बीता। साथ ही भक्तिन को जीवन के दूसरे भाग में भी सुख नहीं मिला। उसकी लगातार तीन लड़कियाँ पैदा हुई तो सास व जेठानियों ने उसकी उपेक्षा करनी शुरू कर दी। इसका कारण यह था कि सास के तीन कमाऊ बेटे थे तथा जेठानियों के भी काले-काले लाल थे। सजा के तौर पर जेठानियाँ कोई काम नहीं करती थी बल्कि बैठकर खातीं थी तथा घर का सारा काम जैसे – चक्की चलाना, कूटना, पीसना, खाना बनाना आदि कार्य-भक्तिन ही किया करती थी। साथ ही छोटी लड़कियाँ गोबर उठातीं तथा कंडे थापती थीं। खाने पर भी भेदभाव किया जाता था। जेठानियाँ और उनके लड़कों को भात पर सफेद राब, दूध व मलाई मिलती तथा भक्तिन को काले गुड़ की डली, मट्ठा तथा लड़कियों को चने-बाजरे की घुघरी मिलती थी। इस पूरे वाक्य में भक्तिन फिर भी अपने आप को सौभाग्वती मानती थी क्योंकि उसके पति का व्यवहार उसके साथ बहुत अच्छा था। जबकि जेठानियों के पति उन्हें कभी भी किसी भी बात पर मारा-पीटा करते थे।
पति-प्रेम के बल पर ही वह सबसे अलग हो गई। अलग होते समय अपने ज्ञान के कारण उसे गाय-भैंस, खेत, खलिहान, अमराई के पेड़ आदि ठीक-ठाक मिल गए। दोनों पति-पत्नी के परिश्रम के कारण घर में समृद्ध आ गई। पति ने बड़ी लड़की का विवाह धूमधाम से किया। इसके बाद वह भक्तिन और दो कन्याओं को छोड़कर चल बसा। उस समय भक्तिन की आयु केवल 29 वर्ष की थी। उसकी संपत्ति और समृद्धि देखकर परिवार वालों के मुँह में पानी आ गया। उन्होंने षडियंत्र वश भक्तिन के समक्ष दूसरे विवाह का प्रस्ताव किया तो भक्तिन ने साफ मना कर दिया। उसने अपने सारे केश मुँड़वा दिए तथा गुरु से मंत्र लेकर कंठी बाँध ली। उसने दोनों लड़कियों की शादी भी कर दी और बड़े दामाद को घर-जमाई बनाकर रखा। दूसरे परिछेद की ही तरह जीवन के तीसरे परिच्छेद में भी दुर्भाग्य ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। उसकी लड़की भी विधवा हो गई। परिवार वालों की दृष्टि अब भी उसकी संपत्ति पर थी। उन्होंने भक्तिन की बेटी के दूसरे विवाह के लिए अपने तीतर लड़ाने वाले साले को बुला लाया क्योंकि उसका विवाह हो जाने पर सब कुछ उन्हीं के अधिकार में रहता। परन्तु भक्तिन की लड़की ने उस वर को नापसंद कर दिया। एक दिन भक्तिन की अनुपस्थिति में उस तीतरबाज वर ने बेटी की कोठरी में घुसकर भीतर से दरवाजा बंद कर लिया और उसके समर्थक गाँव वालों को बुलाने लगे। जब लड़की ने उसकी खूब मरम्मत की तो पंच भी समस्या में पड़ गए। क्योंकि वर कहता था कि वह तो निमंत्रण पा कर आया था, परन्तु उसके गाल पर छपी पांच उँगलियाँ कुछ और ही बता रही थी। अंत में पंचायत ने कलियुग को इस समस्या का कारण बताया और अपीलहीन फैसला हुआ कि दोनों को पति-पत्नी के रूप में रहना पड़ेगा। अपमानित बालिका व माँ विवश थीं। यह संबंध सुखकर नहीं था। दामाद निश्चित होकर तीतर लड़ाता था, जिसकी वजह से पारिवारिक द्वेष इस कदर बढ़ गया कि लगान अदा करना भी मुश्किल हो गया। लगान न पहुँचने के कारण जमींदार ने एक दिन सजा के तौर पर भक्तिन को पूरा दिन कड़ी धूप में खड़ा रखा।
भक्तिन यह अपमान सहन न कर सकी और कमाई के विचार से शहर चली आई। जीवन के अंतिम परिच्छेद में, घुटी हुई चाँद, मैली धोती तथा गले में कंठी पहने वह लेखिका के पास नौकरी के लिए पहुँची। नौकरी मिलने पर उसने अगले दिन स्नान करके लेखिका की धुली धोती भी जल के छींटों से पवित्र करने के बाद पहनी। निकलते सूर्य व पीपल को अर्घ दिया। दो मिनट जप किया और कोयले की मोटी रेखा से चौके की सीमा निर्धारित करके खाना बनाना शुरू किया। भक्तिन छूत-पाक को मानने वाली थी, इस कारण लेखिका ने समझौता करना उचित समझा। जब भोजन के समय भक्तिन ने लेखिका को गढ़ी दाल के साथ मोटी काली चार रोटियाँ परोसीं तो लेखिका ने उसे टोका। उसने अपना तर्क दिया कि अच्छी सेंकने के प्रयास में रोटियाँ अधिक कड़ी हो गई। उसने तरकारी न बनाकर दाल बना दी। इस खाने पर लेखिका की प्रश्नवाचक दृष्टि होने पर भक्तिन ने अमचूरण, लाल मिर्च की चटनी या गाँव से लाए गुड़ का प्रस्ताव रखा।
भक्तिन के लेक्चर के कारण लेखिका रूखी दाल से एक मोटी रोटी खाकर विश्वविद्यालय पहुँची और न्यायसूत्र पढ़ते हुए शहर और देहात के जीवन के अंतर पर विचार करने लगी। भक्तिन दूसरों को अपने मन के अनुकूल बनाने की इच्छा रखती थी, परन्तु स्वयं को वह बदल नहीं सकती थी। भक्तिन की संगत में लेखिका देहाती बन गई थी, परंतु भक्तिन को शहर की हवा नहीं लगी। उसने लेखिका को ग्रामीण खाना-खाना सिखा दिया था, परंतु स्वयं शहर में रहकर ‘रसगुल्ला’ भी नहीं खाया था। लेखिका के अनुसार भक्तिन में दुर्गुणों का अभाव नहीं था। वह इधर-उधर पड़े पैसों को भण्डारगृह में किसी मटकी में छिपाकर रख देती थी जिसे वह चोरी नहीं मानती थी। पूछने पर वह कहती थी कि यह उसका अपना घर है, पैसा-रुपया जो इधर-उधर पड़ा देखा, सँभालकर रख लिया। अपनी मालकिन को खुश करने के लिए वह किसी बात को बदल भी देती थी। लेखिका ने उसे सिर मुँडवाने से रोका तो उसने ‘तीरथ गए मुँड़ाए सिद्ध।’ कहकर अपना तर्क दे दिया। उसे पढ़ना-लिखना पसंद नहीं था। यही कारण है कि जब लेखिका ने उसे हस्ताक्षर करना सीखाना चाहा तो उसने तर्क दिया कि उसकी मालकिन दिन-रात किताब पढ़ती है। यदि वह भी पढ़ने लगे तो घर के काम कौन करेगा। उत्तर-पुस्तिका के निरीक्षण-कार्य में लेखिका का जब किसी ने सहयोग नहीं दिया तब वह कहती फिरती थी कि उसकी मालकिन जैसा कार्य कोई नहीं जानता। वह स्वयं सहायता करती थी। कभी उत्तर-पुस्तिकाओं को बाँधकर, कभी अधूरे चित्र को कोने में रखकर, कभी रंग की प्याली धोकर और कभी चटाई को आँचल से झाड़कर वह जो सहायता करती थी उससे भक्तिन का अन्य व्यक्तियों से अधिक बुद्धिमान होना प्रमाणित हो जाता है। जब लेखिका की कोई पुस्तक प्रकाशित होती थी तो भक्तिन बहुत प्रसन्न होती थी। वह उस कृति में अपना सहयोग खोजती थी। लेखिका भी खुद को उसकी आभारी मानती थी क्योंकि जब लेखिका बार-बार बुलाने के बाद भी भोजन के लिए न उठकर चित्र बनाती रहती थी, तब भक्तिन कभी दही का शरबत अथवा कभी तुलसी की चाय पिलाकर उसे भूख के कष्ट से बचाती थी।
भक्तिन में गजब का सेवा-भाव था। छात्रावास की रोशनी बुझने पर जब लेखिका के परिवार के सदस्य-हिरनी सोना, कुत्ता बसंत, बिल्ली गोधूलि भी-आराम करने लगते थे, तब भी भक्तिन लेखिका के साथ जागती रहती थी। वह उसे कभी पुस्तक देती, कभी स्याही तो कभी फ़ाइल देती थी। भक्तिन लेखिका के जागने से पहले जागती थी तथा लेखिका के बाद सोती थी। लेखिका को भक्तिन अपनी छाया के समान लगने लगी थी। युद्ध के समय लोग डरे हुए थे, उस समय वह बेटी-दामाद के आग्रह बुलाने पर भी गाँव नहीं गई और लेखिका के साथ ही रही। युद्ध में भारतीय सेना के पलायन की बात सुनकर वह लेखिका को अपने गाँव ले जाना चाहती थी। वह लेखिका से कहती है कि वह गाँव में उसके लिए हर तरह के प्रबंध कर देगी। क्योंकि उसने कुछ रूपए गाँव में ही छिपा रखे हैं।
लेखिका का मानना है कि उनके बीच स्वामी-सेवक का संबंध नहीं था। इसका कारण यह था कि लेखिका चाहते हुए भी उसे नौकरी से हटा नहीं सकती थी और भक्तिन भी चले जाने का आदेश पाकर हँसकर टाल देती थी। भक्तिन लेखिका के परिचितों व साहित्यिक बंधुओं से भी परिचित थी। वह उनके साथ वैसा ही व्यवहार करती थी जैसा वे लेखिका से करती थी। भक्तिन कारागार से बहुत डरती थी, इसी बात पर लोग उसे चिढ़ाते थे कि लेखिका को कारागार में डाला जा सकता है। इस पर कारागार से डरने के बावजूद भी भक्तिन लेखिका के साथ कारागार चलने का हठ करने लगी थी। अपनी मालकिन के साथ जेल जाने के हक के लिए वह बड़े लाट तक से लड़ने को तैयार थी। लेखिका बताती हैं कि भक्तिन के अंतिम परिच्छेद को वह पूरा नहीं करना चाहती। इसका कारण लेखिका का भक्तिन से लगाव और उसे खोने का डर है।
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