CBSE Class 12 Hindi Aroh Bhag 2 Book Chapter 11 बाजार दर्शन Summary
इस पोस्ट में हम आपके लिए CBSE Class 12 Hindi Aroh Bhag 2 Book के Chapter 11 बाजार दर्शन का पाठ सार लेकर आए हैं। यह सारांश आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे आप जान सकते हैं कि इस कहानी का विषय क्या है। इसे पढ़कर आपको को मदद मिलेगी ताकि आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। Bazar Darshan Summary of CBSE Class 12 Hindi Aroh Bhag-2 Chapter 11.
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बाजार दर्शन पाठ का सार (Summary)
“बाजार दर्शन” जैनेंद्र कुमार जी द्वारा लिखित एक रोचक निबंध है। जिसमें उन्होंने बाजार के बारे में खुलकर अपने दिल की बात सामने रखी हैं। वे अपने परिचितों, मित्रों से जुड़े अनुभव बताते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि बाजार की जादुई ताकत कैसे हमें अपना गुलाम बना लेती है। अगर हम अपनी आवश्यकताओं को ठीक-ठीक समझकर बाजार का उपयोग करें, तो उसका लाभ उठा सकते हैं। लेकिन अगर हम ज़रूरत को तय कर बाजार में जाने के बजाय उसकी चमक-दमक में फँस गए तो वह असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल कर हमें सदा के लिए बेकार बना सकता है। इस मूलभाव को जैनेंद्र कुमार ने तरह-तरह उदाहरण देकर समझाने की कोशिश की है।
लेखक कहते हैं कि उनका एक मित्र अपनी पत्नी के साथ कुछ जरूरत का सामान लेने बाजार गया था लेकिन बाजार से उन्होंने इतना गैर जरूरी सामान खरीद लिया कि उनके पास घर वापस आने के लिए रेल का टिकट खरीदने तक के लिए भी पैसे नही बचे थे। इस धटना पर वो कहते हैं कि पैसा ही पावर है क्योंकि आज के समय में पैसे से ही सब कुछ खरीदा जा सकता हैं। बिना पैसे के जीवन जीना असंभव है। लेखक कहते हैं कि पैसे में पर्चेजिंग पावर है कहने का आशय यह है कि जेब में जितना अधिक पैसा होगा, उतना ही अधिक सामान की खरीदारी की जा सकेगी। फिर चाहे वो सामान उनकी जरूरत का हो या न हो। कुछ लोग इसी पर्चेजिंग पावर का इस्तेमाल करने में खुशी महसूस करते हैं। परन्तु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो पैसे के महत्व को समझते है और फ़जूल खर्ची करने से अपने मन पर नियंत्रण रखते हैं और अपनी बुद्धि और संयम से जोड़े हुए पैसों को खर्च करने के बजाय सहेज कर रखने में ज्यादा गर्व महसूस करते है। लेखक ने जब अपने मित्र से इस बारे में पूछा कि उसने इतना फजूल सामान क्यों खरीदा तो उन्होंने बाजार को दोष देते हुए जबाब दिया कि यह बाजार तो शैतान का जाल है। जहाँ सामान को कुछ इस तरह आकर्षक तरीके से रखा जाता हैं कि आदमी आकर्षित हुए बिना नहीं रह सकता हैं। लेखक कहते हैं कि बाजार सबको मूक आमंत्रित करता हैं। बाजार का तो काम ही ग्राहकों को आकर्षित करना है। जब कोई व्यक्ति बाजार में खड़ा होता है तो आकर्षक तरीके से रखे हुए सामान को देख कर उसके मन में उस सामान को लेने की तीव्र इच्छा हो जाती है। और अगर उसके पास पर्चेजिंग पावर है तो वह बाजार की गिरफ्त में आ ही जाएगा।
अपने एक और मित्र का उदाहरण देते हुए लेखक कहते हैं कि उनके एक और मित्र जो दिल्ली के चांदनी चौक में चक्कर लगाकर वहां से बिना कोई सामान खरीदे वापस लौट आए थे। जब लेखक ने अपने मित्र से बाजार से खाली हाथ लौट आने का कारण पूछा, तो उन्होंने लेखक को जबाब दिया कि बाजार में जिन भी वस्तुओं को उसने देखा उन्हें उन सभी वस्तुओं को लेने का मन कर रहा था। लेकिन वे सभी को तो ले नहीं सकते थे और अगर वे थोड़ा लेता तो बाकी छूट जाता और वे तो कुछ भी नहीं छोड़ना चाहते थे। इसलिए उन्होंने कुछ भी नहीं खरीदा। लेखक कहते हैं कि जब पता ही न हो कि हमें क्या लेना हैं? तो बाजार की सभी वस्तुएं हमें अपनी और आकर्षित करेंगी। जिसका परिणाम हमेशा बुरा ही होगा। क्योंकि हम ऐसी स्थिति में बेकार की चीजों को ले आएँगे। लेखक आगे कहते हैं कि बाजार में एक जादू हैं जो आँखों के रास्ते काम करता हैं। बाजार के जादू से कैसे बचा जाए, इसका उपाए बताते हुए लेखक कहते हैं कि अगर मन खाली हो तो बाजार जाना ही नहीं चाहिए। क्योंकि अगर आँखे बंद भी कर ली जाए तो तब भी मन यहां वहां घूमता रहता है। हमें अपने मन पर खुद ही नियंत्रण रखना होगा। क्योंकि अगर व्यक्ति की जेब भरी है और मन भी भरा है तो बाजार का जादू उस पर असर नहीं करेगा। लेकिन अगर जेब भरी है और मन खाली है तो बाजार उसे जरूर आकर्षित करेगा। और फिर व्यक्ति को सभी चीज़े अपने काम की लगेगी और बिना सोचे विचारे वह सारा सामान खरीदने लगेगा।
लेखक अब अपने एक पड़ोसी का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि भगत नाम के एक व्यक्ति जो पिछले दस वर्षों से लेखक के पडोसी हैं वे चूरन बेचते हैं। वे रोज चूरन बेचने जाते हैं। परन्तु वह उतना ही चूरन बेचते हैं जितने में उनकी छः आने की आमदनी होती है। छः आने की कमाई होने के बाद वो बचा हुआ सारा चूरन बच्चों में बांट देते हैं। वो चाहते तो और भी पैसे कमा सकते थे। लेकिन वह ऐसा नहीं करते हैं। जब भगत बाजार जाते हैं तो इधर-उधर न झांकते हुए सीधे पन्सारी की दुकान पर ही जाते हैं जहां उनकी जरूरत का सारा सामान मिल जाता है। वो वहां से अपना सामान लेकर सीधे घर आ जाते हैं। इसके आलावा वो न तो बहुत पैसा कमाने का लालच रखते हैं और न ही बाजार से गैर जरूरी सामान खरीदने में विश्वास रखते हैं।
लेखक बाजार की सार्थकता तभी मानते है जब व्यक्ति केवल अपनी जरूरत का सामान खरीदें। बाजार हमेशा ग्राहकों को अपनी चकाचौंध से आकर्षित करता है। व्यक्ति का अपने मन पर नियंत्रण होना चाहिए। लेकिन जो लोग अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण नहीं रखते हैं। ऐसे व्यक्ति न तो खुद बाज़ार से कुछ लाभ उठा सकते हैं और न ही बाजार को लाभ दे सकते हैं। ये लोग सिर्फ बाजार का बाजारूपन बढ़ाते हैं। जिससे बाजार में छल कपट बढ़ता हैं। सद्भावना का नाश होता हैं। फिर ग्राहक और विक्रेता के बीच संबंध सद्भावना का न होकर, केवल लाभ-हानि तक ही सीमित रहता हैं। सद्भाव से हीन बाजार मानवता के लिए विडंबना है और ऐसे बाज़ार का अर्थशास्त्र अनीति का शास्त्र है।
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