Aroh Bhag 2 Book Lesson
Chapter 5 – उषा
प्रश्न 1 – “नील जल में या किसी की
गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो ।”
– पंक्ति में ‘उषा’ का सौंदर्य व्यक्त करने के लिए किस उपमान का प्रयोग किया गया है ? स्पष्ट करते हुए भाव-सौन्दर्य लिखिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – उपरोक्त पंक्ति में ‘उषा’ का सौंदर्य व्यक्त करने के लिए कवि द्वारा चुने गए उपमान प्राकृतिक दृश्य के अनुरूप ही है। नीला आकाश, नीला जल है और पीला प्रकाश जल में झिलमिलाती किसी गोरी रमणी की देह है। निरंतर होते दृश्य परिवर्तन को कवि ने ‘हिलती’ शब्द द्वारा व्यक्त किया है। अतः इन पंक्तियों में प्रयुक्त उपमान दृश्य के अनुरूप और उसमें पूर्णता तथा प्रभाव उत्पन्न करने वाले हैं। इस पंक्ति में ‘नील जल’ से तात्पर्य है कि जल का रंग नीला है, जो आकाश या गहरे पानी की छवि को दर्शाता है। यह शांत और गहरे भावनाओं को व्यक्त करता है। ‘गौर झिलमिल देह’ का अर्थ है कि पीला प्रकाश जो जल में ऐसे झिलमिलाता किसी की त्वचा या देह चमक रही हो। यह एक सुंदर और आकर्षक छवि प्रस्तुत करता है, जैसे कि सुबह की पहली किरणें जब जल पर पड़ती हैं। इस प्रकार, यह पंक्ति उषा के आगमन और प्रकृति की सुंदरता को दर्शाती है।
प्रश्न 2 – ‘उषा’ कविता के किन उपमानों को देखकर कहा जा सकता है कि यह कविता गाँव की सुबह का गतिशील शब्द – चित्र है ? (50-60 शब्दों में)
अथवा
प्रातः कालीन सौंदर्य का चित्रण करने के लिए ‘उषा’ कविता में प्रयुक्त उपमानों को स्पष्ट कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – कवि को प्रभात का समय नीले शंख की तरह सुंदर व् पवित्र लगता है। उसे भोर का समय राख से लीपे हुए गीले चौके के समान प्रतीत होता है। धीरे-धीरे बढ़ता समय लाल केसर से धोए हुए सिल-सा लगता है। किसी बच्चे के स्लेट पर लाल खड़िया मलने जैसा भी प्रतीत होता है। ये सभी उपमान गाँव के वातावरण व् गाँव से संबंधित हैं। साथ ही साथ नील आकाश में जब सूर्य पूरी तरह उदय होता है तो ऐसा लगता है जैसे नीले जल में किसी युवती का गोरा शरीर झिलमिला रहा है। सूर्य के उदय होते ही उषा का पल-पल बिखरता जादू भी समाप्त हो जाता है। इन उपमानों को देखकर यह कहा जा सकता है कि उषा कविता गाँव की सुबह का गतिशील शब्द चित्र है।
प्रश्न 3 – ‘उषा’ कविता में कवि ने प्रात:कालीन प्रकृति का मनोहारी चित्रण किया है । कविता के आधार पर स्पष्ट कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – इस कविता में कवि ने सूर्योदय से ठीक पहले आकाश में होने वाले परिवर्तनों को सुंदर शब्दों में उकेरा है। कवि को सूर्योदय से पहले का आकाश किसी नील शंख के सामान पवित्र व सुंदर दिखाई दे रहा है। धीरे-धीरे सुबह का आसमान कवि को ऐसा लगने लगता है जैसे किसी ने राख से चौका लीपा हो अर्थात आसमान धीरे-धीरे गहरे नीले रंग से राख के रंग यानी गहरा स्लेटी होने लगता है। प्रात:काल में ओस की नमी होती है। गीले चौके में भी नमी होती है। अत: नीले नभ को गीला बताया गया है। साथ ही प्रातः कालीन वातावरण की नमी ने सुबह के वातावरण को किसी शंख की भांति और भी सुंदर, निर्मल व पवित्र बना दिया है। धीरे-धीरे जैसे-जैसे सूर्योदय होने लगता है तो हलकी लालिमा आकाश में फैल जाती है। उस दृश्य को देखकर ऐसा लगता है जैसे काली रंग की सिल अर्थात मसाला पीसने के काले पत्थर को लाल केसर से धो दिया गया है। सुबह के समय आकाश ऐसा लगता है मानो किसी बच्चे की काली स्लेट पर किसी ने लाल खड़िया मिट्टी (चिह्न बनाने के काम आने वाली मिट्टी) मल दी हो। सूरज की किरणें सूर्योदय के समय ऐसे प्रतीत हो रही है जैसे किसी युवती की सुंदर गोरी काया अर्थात शरीर साफ़ नीले जल में झिलमिला रहा हो। कुछ समय बाद जब सूर्योदय हो जाता है अर्थात जब सूर्य पूरी तरह से आकाश में निकल आता है तब उषा यानी ब्रह्म वेला का हर पल बदलता सौंदर्य एकदम समाप्त हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे प्रात: कालीन आकाश का जादू भी धीरे-धीरे खत्म हो रहा है।
प्रश्न 4 – ‘उषा’ कविता के उस जादू को स्पष्ट कीजिए जो सूर्योदय के जादू के साथ टूटता है ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – कवि ने नीले आकाश की तुलना नीले जल से और सूरज की किरणों की तुलना युवती की सुंदर गोरी काया अर्थात शरीर से की है। जब सूर्योदय हो जाता है अर्थात जब सूर्य पूरी तरह से आकाश में निकल आता है तब उषा यानी ब्रह्म वेला का हर पल बदलता सौंदर्य एकदम समाप्त हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे प्रात: कालीन आकाश का जादू भी धीरे-धीरे खत्म हो रहा हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि सूर्योदय से पहले आकाश में जो बदलाव होते हैं वे सूर्योदय होने पर समाप्त हो जाते हैं।
प्रश्न 5 – ‘उषा’ कविता के आधार पर लिखिए कि सूर्योदय से पहले आकाश में क्या-क्या परिवर्तन होते हैं ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – धीरे-धीरे सुबह का आसमान कवि को ऐसा लगने लगता है जैसे किसी ने राख से चौका लीपा हो अर्थात आसमान धीरे-धीरे गहरे नीले रंग से राख के रंग यानी गहरा स्लेटी होने लगता है। और सुबह वातावरण में नमी होने के कारण कवि को वह गहरे स्लेटी रंग का आकाश ऐसा प्रतीत होता है जैसे राख से किसी ने चौके यानी खाना बनाने की जगह को लीप दिया हो, जिस कारण वो अभी भी गीला है। कहने का अभिप्राय यह है कि प्रात:काल में ओस की नमी होती है। गीले चौके में भी नमी होती है। अत: नीले नभ को गीला बताया गया है। साथ ही प्रातः कालीन वातावरण की नमी ने सुबह के वातावरण को किसी शंख की भांति और भी सुंदर, निर्मल व पवित्र बना दिया है।
प्रश्न 6 – ‘उषा’ कविता में ‘भोर के नभ’ की तुलना किससे की गई है और क्यों ?(50-60 शब्दों में)
उत्तर – ‘उषा’ कविता में ‘भोर के नभ’ की तुलना ‘राख से लीपे गए गीले चौके’ से की गई है। ऐसा इसलिए किया गया है क्योंकि भोर के समय आकाश नम और धुंधला होता है और उसका रंग राख से लिपे चूल्हे जैसा मटमैला होता है। धीरे-धीरे सुबह का आसमान कवि को ऐसा लगने लगता है जैसे किसी ने राख से चौका लीपा हो अर्थात आसमान धीरे-धीरे गहरे नीले रंग से राख के रंग यानी गहरा स्लेटी होने लगता है। प्रात:काल में ओस की नमी होती है। गीले चौके में भी नमी होती है। अत: नीले नभ को गीला बताया गया है।
प्रश्न 7 – ‘उषा’ कविता में ‘भोर के नभ’ की पवित्रता, निर्मलता और उज्ज्वलता को किन रूपों में वर्णन किया गया है ? अपने शब्दों में लिखिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – सुबह सूर्योदय से पहले के समय का आकाश बहुत गहरा नीला दिखाई दे रहा है। जो कवि को किसी नीले शंख के समान प्रतीत हो रहा है कहने का आशय यह है कि कवि को सूर्योदय से पहले का आकाश किसी नील शंख के सामान पवित्र व सुंदर दिखाई दे रहा हैं। धीरे-धीरे सुबह का आसमान कवि को ऐसा लगने लगता है जैसे किसी ने राख से चौका लीपा हो अर्थात आसमान धीरे-धीरे गहरे नीले रंग से राख के रंग यानी गहरा स्लेटी होने लगता है। प्रात:काल में ओस की नमी होती है। गीले चौके में भी नमी होती है। अत: नीले नभ को गीला बताया गया है। साथ ही प्रातः कालीन वातावरण की नमी ने सुबह के वातावरण को किसी शंख की भांति और भी सुंदर, निर्मल व पवित्र बना दिया है।
प्रश्न 8 – ‘उषा’ कविता के आधार पर बताइए कि भोर के नभ और राख से लीपे गए चौके में क्या समानता है ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – ‘उषा’ कविता में भोर के नभ और राख से लीपे चौके में समानता है कि दोनों ही नए आरंभ, पवित्रता और शांति का प्रतीक हैं, जहाँ राख से लीपा चौका सुबह की निर्मलता और नभ की शांति का प्रतीक है।
पवित्रता और निर्मलता– राख से लीपा चौका और भोर का नभ दोनों ही पवित्र और निर्मल होने का आभास कराते हैं।
नया आरंभ – राख से लीपा चौका एक नई शुरुआत का प्रतीक है, ठीक उसी तरह जैसे भोर का नभ दिन की शुरुआत का।
शांत और सुंदर – भोर का नभ और राख से लीपा चौका दोनों ही शांत और सुंदर होते हैं।
नमी -सूर्योदय से पहले आकाश में नमी होती है, जैसे राख से लीपा चौका भी गीला होता है।
काली सिल पर लाल केसर – कवि ने सूर्योदय से पहले आकाश को काली सिल पर लाल केसर डालकर धो दिए जाने जैसा बताया है, जो भोर के नभ की सुंदरता को दर्शाता है।
प्रश्न 9 – ‘उषा’ कविता के आधार पर बताइए कि कविता में भोर के नभ को राख से लीपा, गीला चौका क्यों कहा गया है।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – ‘उषा’ कविता में भोर के नभ को राख से लीपा, गीला चौका इसलिए कहा गया है कि सुबह वातावरण में नमी होने के कारण कवि को वह गहरे स्लेटी रंग का आकाश ऐसा प्रतीत होता है जैसे राख से किसी ने चौके यानी खाना बनाने की जगह को लीप दिया हो, जिस कारण वो अभी भी गीला है। कहने का अभिप्राय यह है कि प्रात:काल में ओस की नमी होती है। गीले चौके में भी नमी होती है। अत: नीले नभ को गीला बताया गया है। साथ ही प्रातः कालीन वातावरण की नमी ने सुबह के वातावरण को किसी शंख की भांति और भी सुंदर, निर्मल व पवित्र बना दिया है।
प्रश्न 10 – आपने सूर्योदय देखा होगा । ‘उषा’ कविता में वर्णित सूर्योदय से स्वयं देखे सूर्योदय की तुलना करते हुए अपना अनुभव लिखिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – कविता में सुबह सूर्योदय से पहले के समय का आकाश बहुत गहरा नीला दिखाई दे रहा बताया गया है। जो कवि को किसी नील शंख के सामान पवित्र व सुंदर दिखाई दे रहा हैं। आसमान धीरे-धीरे गहरे नीले रंग से राख के रंग यानी गहरा स्लेटी होने लगता है। साथ ही प्रातः कालीन वातावरण की नमी ने सुबह के वातावरण को किसी शंख की भांति और भी सुंदर, निर्मल व पवित्र दिखाया गया है। हमारे द्वारा देखे सूर्योदय का हमारा अनुभव थोड़ा अलग है। सुबह का आकाश ऐसा लगता है जैसे किसी ने आकाश में नारंगी साड़ी का पल्लू फैलाया हुआ है। ठंडी-ठंडी हवाएँ पुरे मस्तिष्क को मानो निर्मल कर जाती हैं और एक नयी उम्मंग जीवन में भर जाती है।
प्रश्न 11 – ‘उषा’ कविता में प्रयुक्त अलंकारों के प्रयोग से उत्पन्न काव्य-सौन्दर्य को स्पष्ट कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – ‘उषा’ कविता में प्रयुक्त अलंकारों के प्रयोग से कविता में अध्भुत काव्य-सौन्दर्य उत्पन्न हुआ है। जैसे “काली सिल” में अनुप्रास अलंकार, “स्लेट पर या लाल खड़िया चाक मल दी हो किसी ने” पंक्ति में उत्प्रेक्षा अलंकार, ‘नील जल’ व् ‘हिल रही हो’ में उत्प्रेक्षा अलंकार आदि प्रयोग से कविता ने एक नयापन महसूस होता है। कवि ने अलंकारों के माध्यम से गाँव की भोर को मानो गतिशीलता प्रदान की है।
प्रश्न 12 – ‘उषा’ कविता में प्रकृति में होने वाले परिवर्तन, मानवीय जीवन के चित्र बनकर अभिव्यक्त हुए हैं, कैसे ? स्पष्ट कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – कविता में कवि ने सूर्योदय से ठीक पहले आकाश में होने वाले परिवर्तनों को सुंदर शब्दों में उकेरा है। कवि ने नए बिंब, नए उपमान, नए प्रतीकों का प्रयोग किया है। कवि को सूर्योदय से पहले का आकाश किसी नील शंख के सामान पवित्र व सुंदर दिखाई दे रहा हैं। धीरे-धीरे सुबह का आसमान कवि को ऐसा लगने लगता है जैसे किसी ने राख से चौका लीपा हो अर्थात आसमान धीरे-धीरे गहरे नीले रंग से राख के रंग यानी गहरा स्लेटी होने लगता है। धीरे-धीरे जैसे-जैसे सूर्योदय होने लगता है तो हलकी लालिमा आकाश में फैल जाती है। उस दृश्य को देखकर ऐसा लगता है जैसे काली रंग की सिल अर्थात मसाला पीसने के काले पत्थर को लाल केसर से धो दिया गया है। सुबह के समय आकाश ऐसा लगता है मानो किसी बच्चे की काली स्लेट पर किसी ने लाल खड़िया मिट्टी (चिह्न बनाने के काम आने वाली मिट्टी) मल दी हो। सूरज की किरणें सूर्योदय के समय ऐसे प्रतीत हो रही है जैसे किसी युवती की सुंदर गोरी काया अर्थात शरीर साफ़ नीले जल में झिलमिला रहा हो।
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Chapter 7 – कवितावली (उत्तर कांड से) , लक्ष्मण-मूर्छा और राम का विलाप
प्रश्न 1 – ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा और राम का विलाप’ प्रसंग से ली गई पंक्ति ‘बोले बचन मनुज अनुसारी’ का क्या तात्पर्य है ? (50-60 शब्दों में)
उत्तर – ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा और राम का विलाप’ प्रसंग से ली गई पंक्ति ‘बोले बचन मनुज अनुसारी’ का तात्पर्य यह है कि लंका में प्रभु श्री राम लक्ष्मण को निहारते हुए एक साधारण मनुष्य के समान विलाप कर रहे थे। श्री राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया था और याद कर रहे थे कि लक्ष्मण कभी उन्हें दुःखी नहीं देख सकते थे और उनका व्यवहार सदैव प्रभु राम के लिए कोमल व विनम्र रहा। प्रभु राम हित के लिए ही लक्ष्मण ने अपने माता-पिता को त्याग दिया और राम जी के साथ जंगल में ठंड, धूप, तूफ़ान आदि को सहन किया। प्रभु राम एक साधारण मनुष्य की तरह विलाप कर रहे थे कि जिस प्रकार पंख के बिना पक्षी, मणि के बिना सांप और सूँड के बिना हाथी बहुत ही दीन-हीन हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार लक्ष्मण के बिना श्री राम केवल भाग्य से जीवित रहेंगे मगर उनका जीवन अत्यंत कठिन होगा।
प्रश्न 2 – ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा और राम का विलाप’ पाठ में आए “जैहऊँ अवध कवन मुँहु लाई” काव्यांश के आधार पर बताइए कि अवध लौटने में राम को क्यों संकोच हो रहा था ? (50-60 शब्दों में)
उत्तर – श्री राम अयोध्या जाने में इसलिए संकोच कर रहे थे क्योंकि सभी उनसे कहेंगे कि राम ने पत्नी के लिए अपना प्रिय भाई खो दिया। इस संसार में पत्नी को खोने का कलंक सहन किया जा सकता है। क्योंकि इस संसार के अनुसार स्त्री की हानि कोई विशेष क्षति नहीं होती है। प्रभु राम सोच रहे थे कि अब लक्ष्मण को खोने का अपयश भी उन्हें ही सहन करना होगा और उनका निष्ठुर, कठोर हृदय लक्ष्मण को खोने का दुःख भी सहेगा। लक्ष्मण अपनी माँ की एकमात्र संतान थे और उनके जीने का एकमात्र सहारा भी लक्ष्मण ही थे। लक्ष्मण की माता ने लक्ष्मण का हाथ पकड़कर, लक्ष्मण को प्रभु राम को सौंपा था। इन्हीं सब विचारों के कारण प्रभु राम को अयोध्या लौटने पर संकोच हो रहा था।
प्रश्न 3 – ‘लक्ष्मण – मूर्च्छा और राम का विलाप’ प्रसंग के आधार पर राम द्वारा वर्णित लक्ष्मण के गुणों का उल्लेख कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – श्री राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया और उनके गुणों का उल्लेख करते हुए कहने लगे कि लक्ष्मण कभी राम को दुःखी नहीं देख सकते थे और राम के प्रति उनका व्यवहार सदैव कोमल व विनम्र रहा। राम के हित के लिए ही लक्ष्मण ने अपने माता-पिता को त्याग दिया और राम के साथ जंगल में ठंड, धूप, तूफ़ान आदि को सहन किया। श्री राम कहते हैं कि पुत्र, धन, स्त्री, घर और परिवार, ये सब इस संसार में बार-बार मिल सकते हैं। परन्तु इस संसार में सगा भाई दुबारा नहीं मिल सकता। श्री राम लक्ष्मण के गुणों से इतने प्रभावित थे कि वे कहते हैं कि जिस प्रकार पंख के बिना पक्षी, मणि के बिना सांप और सूँड के बिना हाथी बहुत ही दीन-हीन हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार लक्ष्मण के बिना राम केवल भाग्य से जीवित रहेंगे , मगर लक्ष्मण के बिना राम का जीवन अत्यंत कठिन होगा।
प्रश्न 4 – ‘किसबी, किसान – कुल’ छंद के आधार पर बताइए कि पेट की आग की विशालता और भयावहता को तुलसीदास ने कैसे प्रस्तुत किया है ?(50-60 शब्दों में)
उत्तर – तुलसीदास जी का जीवन निर्धनता में बीता था। इसलिए वे पेट की आग की विशालता और भयावहता को जानते थे। वे कहते हैं कि पेट की आग समुद्री ज्वालामुखी की आग से भी ज्यादा बड़ी और पीड़ा देने वाली होती है। चाहे श्रमिक-मज़दूर हों, किसान का परिवार हो, व्यापारी हो, भिखारी हो, भाट हो, नौकर हो, नट हो, चोर हो, अनुचर-गुप्तचर हो या जादूगर हो- सब पेट भरने के लिए ही काम-धंधा-विद्याएं सीखते हैं, पहाड़ों पर जाते हैं, भोजन के लिए शिकार करते हैं । पेट भरने के लिए ही लोग अच्छे और बुरे कर्म भी करते हैं, धर्मसम्मत और अधर्मपूर्ण कार्य करते हैं और यहाँ तक कि अपने बेटे-बेटी को भी बेच देते हैं। तुलसीदास जी ने पेट की आग को समुद्री ज्वालामुखी की आग से भी ज्यादा जलाने वाली बताया है।
प्रश्न 5 – ‘कवितावली’ के छंद के आधार पर बताइए कि तुलसीदास ने दरिद्रता की तुलना किससे की है और क्यों ?(50-60 शब्दों में)
उत्तर – तुलसीदास ने दरिद्रता की तुलना रावण से की है। क्योंकि गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि हमारे वेदों और पुराणों में कहा गया है और इस संसार में सदैव देखा गया है कि जब-जब सब पर संकट आया है, तब-तब श्री राम ने ही सब पर कृपा की है अर्थात सबके दुखों को दूर किया है। तुलसीदास जी ईश्वर को पुकारते हुए कहते हैं कि हे दुःखियों पर कृपा करने वाले! दरिद्रता रूपी रावण ने इस दुनिया को तुलसीदास ने दरिद्रता की तुलना पूरी तरह से दबाया हुआ है। पूरी दुनिया बहुत दुखी हैं और पाप की अग्नि में जलती, दुनिया को देखकर तुलसीदास के मन में हाहाकार मच गया हैं और वे प्रभु से इस दुखी संसार का उद्धार करने की प्रार्थना करते हैं।
प्रश्न 6 – ‘खेती न किसान को ‘ छंद के आधार पर बताइए कि तुलसीदास ने अपने समाज के लोगों की जीविका विहीनता का चित्रण कैसे किया है ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – ‘खेती न किसान को ‘ छंद के आधार पर तुलसीदास ने अपने समाज के लोगों की जीविका विहीनता का चित्रण किया है। समय पर बारिश न होने के कारण अकाल पड़ा हुआ है। जिस कारण किसान खेती नही कर पा रहा है, स्थिति इतनी दयनीय है कि भिखारी को भीख नहीं मिल रही है, ब्राह्मण को दक्षिणा अथवा भोग नहीं मिल पा रहा है, व्यापारी अपना व्यापार करने में असमर्थ है क्योंकि उसे साधनों की कमी हो रही है और नौकर को कोई नौकरी नहीं मिल रही हैं। बेरोजगारी के कारण बेरोजगार यानि आजीविका रहित लोग दुःखी हैं और बस सोच में पड़े हैं और एक दूसरे से पूछ रहे हैं कि अब कहाँ जाएं और क्या करें? तुलसीदास जी ईश्वर को पुकारते हुए कहते हैं कि हे दुःखियों पर कृपा करने वाले! दरिद्रता रूपी रावण ने इस दुनिया को पूरी तरह से दबाया हुआ है। पूरी दुनिया बहुत दुखी हैं और पाप की अग्नि में जलती, दुनिया को देखकर तुलसीदास के मन में हाहाकार मच गया हैं और वे प्रभु से इस दुखी संसार का उद्धार करने की प्रार्थना करते हैं।
प्रश्न 7 – ‘धूत कहौ, अवधूत कहौ’ छंद में तुलसीदास ने समाज पर अपना क्षोभ कैसे व्यक्त किया है ?(50-60 शब्दों में)
उत्तर – ‘धूत कहौ, अवधूत कहौ’ छंद में तुलसीदास ने समाज पर अपने क्षोभ को प्रकट किया है। राम के प्रति उनकी भक्ति अनंत हैं तथा पूर्ण रूप से समर्पित हैं। समाज के द्वारा उन्हें दिए जाने वाले कटाक्षों का उन पर कोई प्रभाव नहीं है। उनका यह कहना कि उन्हें किसी के साथ अपनी बेटी का वैवाहिक संबंध स्थापित नहीं करना। वे किसी से कोई मदद नहीं लेते। वे भिक्षा मांग कर अपना जीवन-निर्वाह करते हैं तथा मस्जिद में भी जाकर सो जाते हैं। वे किसी की परवाह नहीं करते कि कोई उनके बारे में क्या कहेगा। तुलसीदास जी ने अपनी कृतियों के सहारे जीवन की किसी भी परिस्थिति में सभी को स्वाभिमान के साथ जीना सिखाया और उनकी राम भक्ति ने उन्हें इतना आत्मविश्वासी व साहसी बना दिया कि उन्होंने समाज में फैली कुप्रथाओं का खुलकर विरोध किया।
प्रश्न 8 – ‘लक्ष्मण – मूर्च्छा और राम का विलाप’ प्रसंग के आधार पर बताइए कि पंख के बिना पक्षी और सूँड के बिना हाथी की क्या दशा होती है ? कविता में इनका उल्लेख क्यों किया गया है ?(50-60 शब्दों में)
उत्तर – पंख के बिना पक्षी, मणि के बिना सांप और सूँड के बिना हाथी बहुत ही दीन-हीन हो जाते हैं। कविता में इनका उल्लेख प्रभु राम और लक्ष्मण के मध्य प्रेम को दर्शाने के लिए किया गया है। क्योंकि लक्ष्मण के मूर्छित हो जाने पर प्रभु राम किसी साधारण मनुष्य की तरह विलाप करने लगे थे। लक्ष्मण कभी उन्हें दुःखी नहीं देख सकते थे और उनका व्यवहार सदैव प्रभु राम के लिए कोमल व विनम्र रहा। प्रभु राम हित के लिए ही लक्ष्मण ने अपने माता-पिता को त्याग दिया और राम जी के साथ जंगल में ठंड, धूप, तूफ़ान आदि को सहन किया। उनके इसी प्रेम के कारण प्रभु राम को उन्हें खोने का अत्यधिक दुःख था।
प्रश्न 9 – ‘कवितावली’ के छंदों के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि तुलसीदास अपने समय की सामाजिक स्थितियों की अच्छी परख रखते थे । कैसे ?(50-60 शब्दों में)
उत्तर – ‘कवितावली’ के छंदों के आधार पर स्पष्ट है कि तुलसीदास अपने समय की सामाजिक स्थितियों की अच्छी परख रखते थे। उन्होंने अपने युग की अनेक विषम परिस्थितियों को देखा, उनका सामना किया तथा अपनी रचनाओं के माध्यम से उन समस्याओं को सभी के सम्मुख प्रस्तुत करने का साहस दिखाया। समाज में व्याप्त भयंकर बेकारी-बेरोजगारी और भुखमरी को लेकर ‘कवितावली’ आदि में आक्रोश-आवेश के साथ अपना मन्तव्य स्पष्ट किया था। उस समय किसान, श्रमिक, भिखारी, व्यापारी, नौकर, कलाकार आदि सब आर्थिक समस्या से विवश थे। कवितावली के द्वारा स्पष्ट हो जाता है कि तुलसी को अपने युग की आर्थिक विषमता की अच्छी समझ थी।
प्रश्न 10 – ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा और राम का विलाप’ प्रसंग के आधार पर लिखिए कि लक्ष्मण के मूर्च्छित होने पर राम की क्या मनोदशा हुई और उन्होंने उसे कैसे व्यक्त किया ।(50-60 शब्दों में)
अथवा
‘लक्ष्मण – मूर्च्छा और राम का विलाप प्रसंग में संकलित चौपाइयों के आधार पर राम का लक्ष्मण के प्रति प्रेम-भाव का वर्णन कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – लंका में प्रभु श्री राम लक्ष्मण को निहारते हुए एक साधारण मनुष्य के समान विलाप कर रहे थे और कह रहे थे कि आधी रात बीत गई है परन्तु हनुमान जी अभी तक नहीं आए हैं। यह कहकर श्री राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया था और कहने लगे थे कि लक्ष्मण कभी उन्हें दुःखी नहीं देख सकते थे और उनका व्यवहार सदैव प्रभु राम के लिए कोमल व विनम्र रहा। प्रभु राम हित के लिए ही लक्ष्मण ने अपने माता-पिता को त्याग दिया और राम जी के साथ जंगल में ठंड, धूप, तूफ़ान आदि को सहन किया। श्री राम लक्ष्मण जी को उठाने का प्रयास करते हुए कहते हैं कि श्री राम के लिए उनका वो प्यार अब कहाँ गया? वे राम के व्याकुलता भरे वचनों को सुनकर भी क्यों नहीं उठ रहे हैं। यदि राम जानते कि वन में उन्हें अपने भाई से बिछड़ना होगा तो वे वन में नहीं आते। श्री राम कहते हैं कि पुत्र, धन, स्त्री, घर और परिवार, ये सब इस संसार में बार-बार मिल सकते हैं। क्योंकि इस संसार में सगा भाई दुबारा नहीं मिल सकता। जिस प्रकार पंख के बिना पक्षी, मणि के बिना सांप और सूँड के बिना हाथी बहुत ही दीन-हीन हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार लक्ष्मण के बिना श्री राम केवल भाग्य से जीवित रहेंगे मगर उनका जीवन अत्यंत कठिन होगा। श्री राम कहते हैं कि वे अयोध्या कौन सा मुँह लेकर जाएंगे। क्योंकि सभी कहेंगे कि राम ने पत्नी के लिए अपना प्रिय भाई खो दिया। इस संसार में पत्नी को खोने का कलंक सहन किया जा सकता है। क्योंकि इस संसार में अनुसार स्त्री की हानि कोई विशेष क्षति नहीं होती हैं।
प्रश्न 11 – कुंभकरण के बिलखने के कारणों का उल्लेख ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा और राम का विलाप’ प्रसंग के आधार पर कीजिए । (50-60 शब्दों में)
उत्तर – कुंभकरण के बिलखने के पीछे यह कारण है कि अभिमानी रावण ने जिस प्रकार से सीता का हरण किया था और अब तक युद्ध में घटी सारी धटनाएँ कुंभकरण को बताई। उसने कुंभकरण को यह भी बताया कि उन वानरों ने सारे राक्षसों को मार डाला हैं और सारे बड़े-बड़े योद्धाओं का भी संहार कर दिया हैं। दुर्मुख, देवताओं का शत्रु (सुररिपु) , मनुष्य को खाने वाला (मनुज अहारी), भारी शरीर वाला योद्धा (अतिकाय अकंपन) तथा महोदर आदि सभी वीर रणभूमि में मारे गए हैं। रावण के वचन सुनकर कुंभकर्ण दुखी होकर बिलखने लगा क्योंकि वह जानता था कि जगत माता सीता का हरण कर रावण ने मूर्खता की है और अब उसका कल्याण संभव नहीं है।
प्रश्न 12 – “उहाँ राम लछिमनहि निहारी । बोले बचन मनुज अनुसारी”
तुलसीदास द्वारा रचित उपर्युक्त पंक्तियों का भाव स्पष्ट करते हुए अपने विचार व्यक्त कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – प्रभु श्री राम लक्ष्मण को निहारते हुए एक साधारण मनुष्य के समान विलाप करते हुए कह रहे थे कि आधी रात बीत गई है परन्तु हनुमान जी अभी तक नहीं आए हैं। यह कहकर श्री राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया था और कहने लगे थे कि लक्ष्मण कभी उन्हें दुःखी नहीं देख सकते थे और उनका व्यवहार सदैव प्रभु राम के लिए कोमल व विनम्र रहा। प्रभु राम हित के लिए ही लक्ष्मण ने अपने माता-पिता को त्याग दिया और राम जी के साथ जंगल में ठंड, धूप, तूफ़ान आदि को सहन किया। जिस प्रकार पंख के बिना पक्षी, मणि के बिना सांप और सूँड के बिना हाथी बहुत ही दीन-हीन हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार लक्ष्मण के बिना श्री राम केवल भाग्य से जीवित रहेंगे मगर उनका जीवन अत्यंत कठिन होगा।
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Chapter 8 – रुबाइयाँ
प्रश्न 1 – “आँगन में लिए चाँद के टुकड़े को खड़ी
हाथों पे झुलाती है उसे गोद – भरी ”
‘रुबाइयाँ’ से उद्धृत उपर्युक्त पंक्ति में ‘गोद भरी’ प्रयोग की विशेषता को स्पष्ट कीजिए । (50-60 शब्दों में)
उत्तर – एक माँ अपने घर के आंगन में अपने चांद के टुकड़े को अर्थात अपने बच्चे को अपने हाथों पर झूला झूलती है तो कभी उसे प्यार से गोद में भर लेती है। ‘गोद भरी’ प्रयोग की विशेषता यह है कि इससे एक माँ के प्यार को दर्शाने में कवि को आसानी होती है क्योंकि एक माँ की ममता का वर्णन शब्दों में करना अत्यंत कठिन है। अतः कवि इस तरह के शब्दों का प्रयोग करके माँ की ममता को शब्दों में उकेरने का प्रयत्न करता है।
प्रश्न 2 – ‘रुबाइयाँ’ कविता के आधार पर बालक की हठ और माँ द्वारा बच्चे को बहलाने की कोशिश का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – छोटा बच्चा अपने आँगन में मचल रहा है और जिद कर रहा है। उस बच्चे का मन चाँद को देख कर ललचाया हुआ है और वह उस आकाश के चांद को पाने की जिद्द कर रहा है। बच्चे की इस जिद्द पर माँ बच्चे को एक आईना पकड़ा देती है। और फिर उस दर्पण में चाँद का प्रतिबिम्ब दिखाकर बच्चे को समझा देती है कि देखो, आकाश का चांद शीशे में उतर आया है। कहने का आशय यह है कि एक माँ अपने बच्चे की ख़ुशी के लिए उसकी हर जिद्द को किसी न किसी तरह पूरा कर ही देती है।
प्रश्न 3 – “आँगन में ठुनक रहा है जिदयाया है।
बालक तो हई चाँद पै ललचाया है”
‘रुबाइयाँ’ की उपर्युक्त पंक्तियों में बालक की कौन सी विशेषता अभिव्यक्त हुई है ? (50-60 शब्दों में)
उत्तर – “आँगन में ठुनक रहा है जिदयाया है। बालक तो हई चाँद पै ललचाया है” ‘रुबाइयाँ’ की उपर्युक्त पंक्तियों में बालक के बालपन व् जिद्दी स्वभाव प्रदर्शित होता है। छोटा बच्चा अपने आँगन में मचल रहा है और जिद कर रहा है। उस बच्चे का मन चाँद को देख कर ललचाया हुआ है और वह उस आकाश के चांद को पाने की जिद्द कर रहा है।
प्रश्न 4 – “आँगन में लिए चाँद के टुकड़े को खड़ी
हाथों पे झुलाती है उसे गोद भरी
रह-रह के हवा में जो लोका देती है।
गूँज उठती है खिलखिलाते बच्चे की हँसी” –
‘रुबाइयाँ’ की इन पंक्तियों में माँ के वात्सल्य भाव को किस उदाहरण द्वारा प्रकट किया गया है ? स्पष्ट करते हुए भाव-सौन्दर्य लिखिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – “आँगन में लिए चाँद के टुकड़े को खड़ी हाथों पे झुलाती है उसे गोद भरी रह-रह के हवा में जो लोका देती है। गूँज उठती है खिलखिलाते बच्चे की हँसी” – ‘रुबाइयाँ’ की इन पंक्तियों में माँ के वात्सल्य भाव को प्रकट किया गया है। जब छोटा बच्चा अपने आँगन में मचल रहा है। क्योंकि उस बच्चे का मन चाँद को देख कर ललचाया हुआ है और वह उस आकाश के चांद को पाने की जिद्द कर रहा है। तब बच्चे की इस जिद्द पर माँ बच्चे को एक आईना पकड़ा देती है। और फिर उस दर्पण में चाँद का प्रतिबिम्ब दिखाकर बच्चे को समझा देती है कि देखो, आकाश का चांद शीशे में उतर आया है। भाव यह है कि एक माँ अपने बच्चे की ख़ुशी के लिए कुछ न कुछ प्रबंध कर ही लेती है।
प्रश्न 5 – फ़िराक गोरखपुरी की ‘रुबाइयाँ’ में भाई-बहन के संबंध को किस प्रकार व्यक्त किया गया है, और राखी के लच्छे को किसकी उपमा दी गई है ? स्पष्ट कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – कवि ने रक्षाबंधन का वर्णन करते हुए भाई-बहन के रिश्ते को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। कवि कहते हैं कि रक्षाबंधन एक मीठा बंधन है। रक्षाबंधन के दिन सुबह से ही भाई-बहन बड़े उत्सुक रहते हैं। रक्षाबंधन की सुबह आनंद व मिठास की सौगात है। राखी के लच्छे को ‘बिजली की चमक’ की उपमा दी गई है। रक्षाबंधन का त्यौहार सावन के महीने में आता है। उस समय हर वक्त आकाश में काले धने बादल छाये रहते हैं। और बिजली भी चमकती रहती है। रक्षाबंधन के दिन सुबह के समय आकाश में हल्के-हल्के बादल छाए हुए हैं। और जिस तरह उन बादलों के बीच बिजली चमक रही हैं ठीक उसी तरह राखी के लच्छों भी चमक रहे हैं। और बहिन बड़े ही प्यार से उस चमकती राखी को अपने भाई की कलाई पर बांधती हैं।
प्रश्न 6 – फ़िराक की रुबाइयों के आधार पर उसमें उभरे घरेलू जीवन के बिंबों का सौंदर्य स्पष्ट कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
अथवा
‘फ़िराक की रुबाइयों में ग्रामीण जीवन के बिंबों का सुंदर प्रयोग हुआ है ।’ उदाहरण सहित सिद्ध कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – फ़िराक गोरखपुरी की ‘रुबाइयाँ’ में हिंदी का एक घरेलू रूप दिखता है। इस रचना में कवि ने वात्सल्य वर्णन किया है। एक माँ अपने घर के आंगन में अपने चांद के टुकड़े को अपने हाथों पर झूला झूलती है तो कभी उसे प्यार से गोद में भर लेती है। कभी-कभी वह माँ उस बच्चे को हवा में उछाल भी लेती हैं। माँ के इस प्यार-दुलार भरे खेल से बच्चा भी बहुत खुश होता है और खिलखिला कर हंस देता है। जब माँ अपने बच्चे को अपने घुटनों के बीच पकड़ कर के कपड़े पहनाती है तो बच्चा कितने ही प्यार से अपनी माँ के चेहरे को देखता है। छोटा बच्चा अपने आँगन में मचल रहा है और जिद कर रहा है। उस बच्चे का मन चाँद को देख कर ललचाया हुआ है और वह उस आकाश के चांद को पाने की जिद्द कर रहा है। बच्चे की इस जिद्द पर माँ बच्चे को एक आईना पकड़ा देती है। और फिर उस दर्पण में चाँद का प्रतिबिम्ब दिखाकर बच्चे को समझा देती है कि देखो, आकाश का चांद शीशे में उतर आया है। रक्षाबंधन की सुबह आनंद व मिठास की सौगात है। रक्षाबंधन के दिन सुबह के समय आकाश में हल्के-हल्के बादल छाए हुए हैं। और जिस तरह उन बादलों के बीच बिजली चमक रही हैं ठीक उसी तरह राखी के लच्छों भी चमक रहे हैं। और बहिन बड़े ही प्यार से उस चमकती राखी को अपने भाई की कलाई पर बांधती हैं।
प्रश्न 7 – फिराक की रुबाइयों के आधार पर घर-आँगन में दीवाली और राखी के दृश्य-बिंब को अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – दीपावली की शाम को अपने साफ-सुथरे व् पुताई किये हुए या रंग रोगन किये हुए, सुन्दर सजे घर में माँ अपने बच्चे के लिए चीनी मिट्टी से बने खिलौने व जगमगाते हुए दिये लेकर आयी हैं। शाम को जब वह अपने पूरे घर में दिये जलाती हैं तो कुछ दिए बच्चे के द्वारा बनाए छोटे से मिट्टी के घर में भी जला देती है। और यह सब करते हुए माँ का सुंदर चेहरा कोमलता व ममता की चमक से दमक उठता है।
रक्षाबंधन का त्यौहार सावन के महीने में आता है। उस समय हर वक्त आकाश में काले धने बादल छाये रहते हैं। और बिजली भी चमकती रहती है। रक्षाबंधन की सुबह आनंद व मिठास की सौगात है। रक्षाबंधन के दिन सुबह के समय आकाश में हल्के-हल्के बादल छाए हुए हैं। और जिस तरह उन बादलों के बीच बिजली चमक रही हैं ठीक उसी तरह राखी के लच्छों भी चमक रहे हैं। और बहिन बड़े ही प्यार से उस चमकती राखी को अपने भाई की कलाई पर बांधती हैं।
प्रश्न 8 – फ़िराक गोरखपुरी की रुबाइयों से उभरने वाले वात्सल्य भाव के चित्रों को अपने शब्दों में चित्रित कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – इस रचना में कवि ने वात्सल्य वर्णन किया है। एक माँ अपने घर के आंगन में अपने चांद के टुकड़े को अपने हाथों पर झूला झूलती है तो कभी उसे प्यार से गोद में भर लेती है। कभी-कभी वह माँ उस बच्चे को हवा में उछाल भी लेती हैं। माँ के इस प्यार-दुलार भरे खेल से बच्चा भी बहुत खुश होता है और खिलखिला कर हंस देता है। जब माँ अपने बच्चे को अपने घुटनों के बीच पकड़ कर के कपड़े पहनाती है तो बच्चा कितने ही प्यार से अपनी माँ के चेहरे को देखता है। छोटा बच्चा अपने आँगन में मचल रहा है और जिद कर रहा है। उस बच्चे का मन चाँद को देख कर ललचाया हुआ है और वह उस आकाश के चांद को पाने की जिद्द कर रहा है। बच्चे की इस जिद्द पर माँ बच्चे को एक आईना पकड़ा देती है। और फिर उस दर्पण में चाँद का प्रतिबिम्ब दिखाकर बच्चे को समझा देती है कि देखो, आकाश का चांद शीशे में उतर आया है।
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Chapter 13 – पहलवान की ढोलक
प्रश्न 1 – ‘पहलवान की ढोलक’ पाठ के आधार पर बताइए कि गाँव में महामारी फैलने और अपने दोनों बेटों की मृत्यु के बाद भी लुट्टन पहलवान ढोलक क्यों बजाता रहा ?(50-60 शब्दों में)
उत्तर – गाँव में महामारी फैलने और सही उपचार न मिलने के कारण लोग रोज मर रहे थे और लोगों में निराशा व् हताशा फैल गई थी। घर के घर खाली हो रहे थे और लोगों का मनोबल दिन प्रतिदिन टूटता जा रहा था। ऐसे में पहलवान की ढोलक की आवाज ही लोगों को उनके जिंदा होने का एहसास दिलाती थी। वह उनके लिए संजीवनी का काम करती थी। पहलवान के दोनों बेटे भी बीमारी की चपेट में आकर मरने की स्थिति में पहुंच चुके थे और मरने से पहले वो अपने पिता से ढोलक बजाने को कहते हैं। लुट्टन सिंह रात भर ढोलक बजाता है और सुबह जाकर देखता है तो वो दोनों पेट के बल मरे पड़े थे। वह अपने दोनों बेटों को कंधे पर ले जाकर नदी में बहा देता हैं। लोगों का मनोबल न टूटे इसके लिए वह उसी रात को फिर से ढोलक बजाता है। लोगों ने उसकी हिम्मत की दाद दी और साथ ही साथ खुद में भी एक ऊर्जा का अनुभव किया।
प्रश्न 2 – ‘लुट्टन पहलवान द्वारा रात्रि में बजायी जाने वाली ढोलक महामारी से जूझ रहे लोगों को लड़ने का हौसला कैसे देती थी’ ? ‘पहलवान की ढोलक’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
अथवा
‘निर्धन, साधनहीन और महामारीग्रस्त गाँव में पहलवान की ढोलक, मरने वालों को हौसला – हिम्मत देती थी।’ ‘पहलवान की ढोलक’ पाठ के आधार पर इस कथन को सिद्ध कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
अथवा
‘ढोलक की थाप मृत-गाँव में संजीवनी शक्ति भरती रहती थी ।’ – कथन का आशय ‘पहलवान की ढोलक’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – पहलवान की ढोलक निरीह, साधनहीन और विवश गाँव वालों के प्रति संजीवनी की भूमिका निभाती थी। पूरा गाँव माहमारी से पीड़ित था और मौत के डर ने पूरे गाँव की मानो पूरी शक्ति ही छीन ली थी। पहलवान की ढोलक संध्याकाल से लेकर प्रात:काल तक लगातार एक ही गति से बजती रहती थी। महामारी की त्रासदी से जूझते हुए ग्रामीणों को ढोलक की आवाज संजीवनी शक्ति की तरह मौत से लड़ने की प्रेरणा देती थी। महामारी फैलने पर गाँव में चिकित्सा और देखरेख के अभाव में ग्रामीणों की दशा दयनीय हो जाती थी। लोग दिन भर खाँसते कराहते रहते थे। रोज दो-चार व्यक्ति मरते थे। दवाओं के अभाव में उनकी मृत्यु निश्चित थी। शरीर में शक्ति नहीं रहती थी। पहलवान की ढोलक मृतप्राय शरीरों में आशा व जीवंतता भरती थी। वह संजीवनी शक्ति का कार्य करती थी।
प्रश्न 3 – ‘पहलवान की ढोलक’ पाठ के आधार पर बताइए कि लुट्टन सिंह को राज पहलवान की पदवी कैसे मिली ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – लुट्टन सिंह की चुनौती चाँद सिंह ने स्वीकार कर ली लेकिन जब लुट्टन सिंह, चाँद सिंह से भिड़ा तो चाँद सिंह बाज की तरह लुट्टन से भीड़ गया और उसने पहली बार में ही लुट्टन को जमीन में पटक दिया। लेकिन लुट्टन सिंह उठ खड़ा हुआ और दुबारा दंगल शुरू हुआ। परन्तु राजा साहब ने बीच में ही कुश्ती रोक कर लुट्टन को बुलाकर उसके साहस के लिए उसे दस रूपए देकर मेला घूमने और घर जाने को कहा। परन्तु इस बार लुट्टन सिंह ने सभी की उम्मीदों के विपरीत चांद सिंह को चित कर दिया। उसने इस पूरी कुश्ती में ढोल को अपना गुरु मानते हुए उसके स्वरों के हिसाब से ही दांव-पेंच लगाया और कुश्ती जीत ली। जीत की ख़ुशी में उसने राजा जी को उठा लिया और राजा ने भी प्रसन्न होकर कहा कि उसने बाहर से आए पहलवान को हरा कर अपनी मिट्टी की लाज रख ली और उन्होंने उसे राज पहलवान बना दिया।
प्रश्न 4 – ‘पहलवान की ढोलक’ पाठ में ‘शेर के बच्चे’ की उपाधि से किसे संबोधित किया गया है और क्यों ? (50-60 शब्दों में)
उत्तर – ‘पहलवान की ढोलक’ पाठ में ‘शेर के बच्चे’ की उपाधि चाँद सिंह नाम के एक पहलवान को दी गई थी। एक बार लुट्टन सिंह श्याम नगर मेले में दंगल देखने गया। वहाँ कुश्ती देखकर और ढोल की आवाज सुनकर उसकी नसों में जैसे खून बिजली की तरह दौड़ने लगा और उसने बिना सोचे समझे वहाँ चाँद सिंह नाम के एक पहलवान को चुनौती दे दी। चाँद सिंह पहलवान अपने गुरु बादल सिंह के साथ पंजाब से आया था और उसे “शेर के बच्चे” का खिताब दिया गया था। क्योंकि उसने वहाँ तीन दोनों में ही सभी पहलवानो को धूल चटा दी थी।
प्रश्न 5 – ‘पहलवान की ढोलक’ पाठ के आधार पर “अँधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी” – इस कथन का विश्लेषण कीजिए ।
उत्तर – जाड़ों के मौसम में गाँव में महामारी फैली हुई थी। गांव के अधिकतर लोग मलेरिया और हैजे से ग्रस्त थे। जाडे के दिन थे और रातें एकदम काली अंधेरी व डरावनी लग रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे रात उस गाँव के दुःख में दुःखी होकर चुपचाप आँसू बहा रही हो। टूटते तारे का उदाहरण देते हुए लेखक बताता है कि उस गाँव के दुःख को देख कर यदि कोई बाहरी व्यक्ति उस गाँव के लोगों की कुछ मदद करना भी चाहता था तो चाह कर भी नहीं कर सकता था क्योंकि उस गाँव में फैली महामारी के कारण कोई भी अपने जीवन को कष्ट नहीं डालना चाहता था। रात की खामोशी में सिर्फ सियारों और उल्लूओं की आवाज ही सुनाई देती थी। कभी कभी उस काली अंधेरी रात में कोई कमजोर स्वर भगवान को पुकारता हुआ सुनाई पड़ जाता था और कभी किसी बच्चे के द्वारा अपनी माँ को पुकारने की धीमी सी आवाज सुनाई देती थी। क्योंकि कुत्तों में परिस्थिति को समझने की विशेष बुद्धि होती है। इसीलिए वो रात होते ही रोने लगते थे। और गांव के दुख में अपना स्वर मिलाने लगते थे।
प्रश्न 6 – ‘पहलवान की ढोलक’ कहानी में पुरानी व्यवस्था और नई व्यवस्था के टकराव से उत्पन्न समस्या को किस प्रकार व्यक्त किया गया है ? स्पष्ट कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – पहलवान की ढोलक’ कहानी में पुरानी और नई व्यवस्था के टकराव से उत्पन्न समस्या को व्यक्त किया गया है। पुरानी व्यवस्था में राजदरबार लोक कलाकारों को संरक्षण प्रदान करता था। उनके सहारे ये अपना जीवन खुशहाली से व्यतीत करते थे, परंतु नई व्यवस्था में विलायती दृष्टिकोण को अपनाया गया। लोक कलाकारों का कोई ख़ास महत्त्व नहीं रह गया। जिन खेलों में अधिक समय लगता था व् अधिक खर्चीले होते थे उनको समाप्त कर दिया गया।
प्रश्न 7 – ‘पहलवान की ढोलक’ कहानी प्राचीन लोक-कलाओं के संरक्षण का संदेश देती है । इनके पुनर्जीवन के लिए क्या प्रयास किए जा सकते हैं ?(50-60 शब्दों में)
अथवा
‘पहलवान की ढोलक’ कहानी प्राचीन लोक-कलाओं के धीरे-धीरे विलुप्त होने के दर्द का वर्णन करती है। कैसे ? पाठ के आधार पर लिखिए ।(50-60 शब्दों में)
अथवा
‘पहलवान की ढोलक’ कहानी से क्या संदेश मिलता है ? अपने शब्दों में लिखिए।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – ‘पहलवान की ढोलक’ कहानी में व्यवस्था के बदलने के साथ लोककला व इसके कलाकार के अप्रासांगिक हो जाने की कहानी है। राजा साहब को कुश्ती में दिलचस्पी थी परन्तु उनकी जगह नए राजकुमार का आकर कुश्ती को फजूलख़र्ची बताकर बंद कर देना और पहलवानों को निकाल देना, सिर्फ व्यक्तिगत सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि पुरानी व्यवस्था को पूरी तरह उलट देने और उस पर सभ्यता के नाम पर एक दम नयी व्यवस्था के स्थापित करने का प्रतीक है। यह ‘भारत’ पर ‘इंडिया’ के छा जाने की समस्या है जो लुट्टन पहलवान को लोक कलाकर के आसन से उठाकर पेट भरने के लिए कठोर मेहनत करने वाली निरीहता की भूमि पर पटक देती है।
प्राचीन लोक-कलाओं के पुनर्जीवन के लिए निम्नलिखित प्रयास किए जा सकते हैं- जैसे –
- प्राचीन लोक-कलाओं के महत्त्व को आज की पीढ़ी के समक्ष प्रस्तुत करना।
- प्राचीन लोक-कलाओं का अधिक से अधिक मंचन करना।
- प्राचीन लोक-कलाओं की प्रतियोगिताएँ आयोजित करना इत्यादि।
प्रश्न 8 – ‘पहलवान की ढोलक’ पाठ के आधार पर बताइए कि चाँद सिंह नामक पहलवान को चित्त करने के बाद लुट्टन के जीवन में क्या परिवर्तन आ गया ।(50-60 शब्दों में)
अथवा
‘पहलवान की ढोलक’’ पाठ के आधार पर बताइए कि लुट्टन सिंह को राजा साहब की कृपा दृष्टि कब प्राप्त हुई। उससे पहलवान के जीवन में क्या परिवर्तन आया ?(50-60 शब्दों में)
उत्तर – राजा का संरक्षण मिलने के बाद लुट्टन सिंह को अच्छा खाना व कसरत करने की सभी सुविधाएं मिलने लगी। बाद में काले खाँ जैसे कई प्रसिद्ध पहलवानों को हराकर वह लगभग 15 वर्षों तक अजेय रहा। इसीलिए उसके ऊपर हमेशा राजा की विशेष कृपा दृष्टि रहती थी। धीरे-धीरे राजा उसे किसी से लड़ने भी नहीं देते थे क्योंकि लुट्टन सिंह सभी पहलवानों को आसानी से हरा देता था और खेल का मज़ा खराब हो जाता था। अब वह राज दरबार का सिर्फ एक दर्शनीय जीव बन कर रह गया था। लुट्टन सिंह के दो बेटे थे और उसने अपने दोनों बेटों को भी पहलवान बना दिया था। वह ढोलक को ही अपना गुरु मनाता था इसीलिए अपने दोनों बेटों को भी ढोलक की थाप में पूरा ध्यान देने को कहता था।
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Chapter 15 – श्रम विभाजन और जाति-प्रथा
प्रश्न 1 – डॉ. भीमराव आंबेडकर के मतानुसार ‘दासता’ की व्यापक परिभाषा क्या है ? समझाइए । (50-60 शब्दों में)
अथवा
‘मेरी कल्पना का आदर्श समाज’ पाठ के आधार पर ‘दासता’ की व्यापक परिभाषा स्पष्ट कीजिए । (50-60 शब्दों में)
उत्तर – लेखक के मत के अनुसार दासता या गुलामी का तात्पर्य सिर्फ कानूनी गुलामी नहीं है। बल्कि दासता का तात्पर्य यह है कि किसी व्यक्ति को उसकी रूचि के अनुसार कार्य करने की अनुमति न होना अथवा यह भी कहा जा सकता है कि जब किसी व्यक्ति को उसकी शैक्षणिक योग्यता व् कार्य कुशलता के अनुसार रोजगार या व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता ना हो और उसे समाज के द्वारा बनाए गए रूढ़िवादी नियम कानून के अनुसार अपना जीवन यापन करना पड़े तो, यह भी एक तरह की गुलामी ही है।
प्रश्न 2 – श्रम और श्रमिक विभाजन का बुनियादी अंतर ‘श्रम – विभाजन और जाति-प्रथा’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – समाज के विकास के लिए कार्य का बंटवारा भी आवश्यक है। परन्तु समाज का विकास तभी संभव है जब यह कार्य विभाजन किसी जाति के आधार पर नहीं बल्कि व्यक्ति की योग्यता, रूचि और उसकी कार्य कुशलता व निपुणता के आधार पर हो। भारतीय समाज की जाति प्रथा की एक यह भी विशेषता है कि यह कार्य के आधार पर श्रमिकों का विभाजन नहीं करती बल्कि समाज में पहले से ही विभाजित वर्गों अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, के आधार पर कार्य का विभाजन करती है। उदाहरण के तौर पर ब्राह्मण का बेटा वेद-पुराणों का ही अध्ययन करेगा तो क्षत्रिय का बेटा रक्षा का ही कार्य करेगा, लोहार का बेटा लोहार का ही कार्य करेगा। भले ही इन कार्यों को करने में उनकी रूचि हो या न हो। इस तरह की व्यवस्था विश्व के किसी भी समाज में नहीं दिखाई देती है।भीमराव अंबेडकर जी कहते हैं कि एक समय के लिए जाति प्रथा को यदि श्रम विभाजन मान भी लिया जाए तो भी यह स्वाभाविक और उचित नहीं होगा। क्योंकि यह मनुष्य की रुचि के हिसाब से नहीं है। इसमें व्यक्ति जिस जाति या वर्ग में जन्म लेता हैं, उसे उसी के अनुसार कार्य करना होता हैं।
प्रश्न 3 – ‘श्रम विभाजन और जाति प्रथा’ पाठ के आधार पर लिखिए कि श्रम विभाजन किस आधार पर होना चाहिए और उसके लिए क्या आवश्यक है ?(50-60 शब्दों में)
उत्तर – समाज के विकास के लिए कार्य का बंटवारा भी आवश्यक है। परन्तु समाज का विकास तभी संभव है जब यह कार्य विभाजन किसी जाति के आधार पर नहीं बल्कि व्यक्ति की योग्यता, रूचि और उसकी कार्य कुशलता व निपुणता के आधार पर हो। भारतीय समाज की जाति प्रथा की एक यह भी विशेषता है कि यह कार्य के आधार पर श्रमिकों का विभाजन नहीं करती बल्कि समाज में पहले से ही विभाजित वर्गों अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, के आधार पर कार्य का विभाजन करती है। उदाहरण के तौर पर ब्राह्मण का बेटा वेद-पुराणों का ही अध्ययन करेगा तो क्षत्रिय का बेटा रक्षा का ही कार्य करेगा, लोहार का बेटा लोहार का ही कार्य करेगा। भले ही इन कार्यों को करने में उनकी रूचि हो या न हो। इस तरह की व्यवस्था विश्व के किसी भी समाज में नहीं दिखाई देती है। भीमराव अंबेडकर जी कहते हैं कि एक समय के लिए जाति प्रथा को यदि श्रम विभाजन मान भी लिया जाए तो भी यह स्वाभाविक और उचित नहीं होगा। क्योंकि यह मनुष्य की रुचि के हिसाब से नहीं है। इसमें व्यक्ति जिस जाति या वर्ग में जन्म लेता हैं, उसे उसी के अनुसार कार्य करना होता हैं।
प्रश्न 4 – ‘मेरी कल्पना का आदर्श समाज’ के आधार पर बताइए कि लोकतंत्र का वास्तविक स्वरूप किसे कहा गया है ।(50-60 शब्दों में)
अथवा
डॉ. आंबेडकर के आदर्श समाज की कल्पना में ‘भ्रातृता’ का महत्त्व स्पष्ट कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जी का मानना है कि समाज में भाईचारा दूध और पानी के समान होना चाहिए। जैसे पानी, दूध में मिलकर दूध जैसा ही हो जाता है और फिर उसे दूध से अलग करना संभव नहीं होता। ठीक उसी तरह समाज में भाईचारा होना चाहिए। जिस समाज में भाईचारा होता है और कोई भेदभाव नहीं होता। सही अर्थों में वही लोकतंत्र कहलाता है। लेखक लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि लोकतंत्र सिर्फ देश चलाने के लिए एक शासन व्यवस्था नहीं हैं बल्कि लोकतंत्र एक ऐसा समाज है जहाँ लोग एक दूसरे का, अपने साथियों का सम्मान करें , उनके प्रति श्रद्धा भाव रखें, जहाँ हर किसी को अपना व्यवसाय या कार्यक्षेत्र चुनने की आजादी हो, वही लोकतंत्र है।
प्रश्न 5 – ‘स्वतंत्रता’ के संदर्भ में डॉ. आंबेडकर के विचारों का उल्लेख कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – डॉ. आंबेडकर के अनुसार जब हमें कही भी आने-जाने, अपने जीवन की सुरक्षा करने, अपने कार्य के लिए आवश्यक औजार और सामग्री रखने की स्वतंत्रता मिल सकती है तो फिर हमें अपने मनपसंद का या रूचि के अनुसार कार्य चुनने की स्वतंत्रता क्यों नहीं मिल सकती। कुछ जाति प्रथा के समर्थक जीवन, शारीरिक सुरक्षा व संपत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता को मान भी लेंगे लेकिन अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता देने के लिए बिलकुल तैयार नहीं होंगे। इसका सीधा-सीधा मतलब हुआ कि लोगों को दासता अर्थात गुलामी में जकड़ कर रखना। दासता अर्थात गुलामी केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कहा जा सकता। जब कुछ लोगों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार और कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता हैं। यह भी एक तरह की गुलामी ही है। और जाति प्रथा में लोगों को अक्सर अपनी इच्छा के विपरीत दूसरे लोगों द्वारा बनाए हुए कानूनों को मानना पड़ता है। क्योंकि जातिप्रथा वाले समाज में प्रतिकूल परिस्थिति होने पर भी व्यक्ति अपना व्यवसाय या कार्यक्षेत्र नहीं बदल सकता।
प्रश्न 6 – ‘श्रम विभाजन और जाति प्रथा’ पाठ के आधार पर लिखिए कि रुचि और क्षमता के आधार पर श्रम विभाजन न किए जाने पर कौन से दुष्परिणाम निकलते हैं ?(50-60 शब्दों में)
उत्तर – कई लोगों को अपने पूर्व निर्धारित या पैतृक कार्य में कोई रुचि नहीं होती, फिर भी उन्हें वो कार्य करने पड़ते है। क्योंकि जाति प्रथा के आधार पर वह कार्य उनके लिए पहले से ही निश्चित है और कोई अन्य कार्य या व्यवसाय चुनने की उन्हें कोई अनुमति नहीं है। ऐसी स्थिति में जब व्यक्ति अपनी इच्छा के विपरीत किसी कार्य को करता है तो वह उस कार्य को पूरी लगन, कर्तव्यनिष्ठा और मेहनत से नहीं कर पाता और केवल कार्य को निपटाने की कोशिश करता है। और यह भी सत्य है कि जब व्यक्ति किसी कार्य को पुरे मन से अथवा लगन से नहीं करेगा तो, वह उस कार्य को पूरी कुशलता या निपुणता से कैसे कर सकता है। अतः इस बात से यह प्रमाणित होता है कि व्यक्ति की आर्थिक असुविधाओं के लिए भी जाति प्रथा हानिकारक है। क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक रुचि के अनुसार कार्य करने की अनुमति नहीं देती। और बेमन से किया गए कार्य में व्यक्ति कभी भी उन्नति नहीं कर सकता।
प्रश्न 7 – ‘मेरी कल्पना का आदर्श समाज’ पाठ के आधार पर लिखिए कि किन तीन दृष्टियों से मनुष्य समान नहीं होते ?(50-60 शब्दों में)
उत्तर – सभी मनुष्य इन तीन बातों पर समान नहीं होते –
(1) शारीरिक-वंश परंपरा अर्थात शारीरिक रंग-रूप, आकृति और जन्म के आधार पर यानि व्यक्ति किस धर्म या जाति में जन्म लेगा, इन पर किसी व्यक्ति का नियंत्रण नहीं होता।
(2) सामाजिक उत्तराधिकार – कहने का तात्पर्य यह है कि किसी को उनके माता पिता से कितनी धन-सम्पत्ति मिलेगी या अन्य चीजें मिलेंगी, ये किसी के हाथ में नहीं हैं।
(3) मनुष्य के अपने प्रयत्न – प्रत्येक मनुष्य अपनी कुशलता के आधार पर अलग-अलग कसौटी पर प्रयत्न करता है।
प्रश्न 8 – मनुष्यों की क्षमता किन तीन बातों पर निर्भर करती है ? ‘मेरी कल्पना का आदर्श समाज’ पाठ के आधार पर लिखिए।
उत्तर – व्यक्ति को उसकी रूचि के आधार पर कार्य करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। जैसे अगर कोई ब्राह्मण का पुत्र सैनिक, वैज्ञानिक या इंजीनियर बनकर देश सेवा करना चाहता है तो उसे ऐसा करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्ति को अपनी रुचि व क्षमता के हिसाब से अपना कार्य क्षेत्र चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। तभी देश का युवक वर्ग अपनी पूरी क्षमता से समाज व राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका निभा पाएंगे।
प्रश्न 9 – ‘श्रम विभाजन और जाति प्रथा’ पाठ के आधार पर बताइए कि किसी मनुष्य को व्यवसाय बदलने की आवश्यकता कब पड़ती है और किसी मनुष्य को जीवन-भर के लिए यदि एक ही व्यवसाय में बाँध दिया जाए तो उसके क्या परिणाम निकलेंगे ?
अथवा
पेशा बदलने की अनुमति न होना भारत में बेरोज़गारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष करण कैसे बना हुआ है और इसके क्या परिणाम संभावित हैं ? ‘श्रम विभाजन और जाति प्रथा’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
अथवा
‘श्रम – विभाजन और जाति-प्रथा’ पाठ के आधार पर लिखिए कि जाति आधारित श्रम विभाजन आर्थिक विकास के लिए किस प्रकार बाधक है ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – जातिप्रथा में श्रम विभाजन मनुष्य की इच्छा पर निर्भर नहीं होता। हर जाति या वर्ग के लोगों को उनके लिए पहले से ही निर्धारित कार्य करने पड़ते है। कई लोगों को अपने पूर्व निर्धारित या पैतृक कार्य में कोई रुचि नहीं होती, फिर भी उन्हें वो कार्य करने पड़ते है। क्योंकि जाति प्रथा के आधार पर वह कार्य उनके लिए पहले से ही निश्चित है और कोई अन्य कार्य या व्यवसाय चुनने की उन्हें कोई अनुमति नहीं है। ऐसी स्थिति में जब व्यक्ति अपनी इच्छा के विपरीत किसी कार्य को करता है तो वह उस कार्य को पूरी लगन, कर्तव्यनिष्ठा और मेहनत से नहीं कर पाता और केवल कार्य को निपटाने की कोशिश करता है। और यह भी सत्य है कि जब व्यक्ति किसी कार्य को पूरे मन से अथवा लगन से नहीं करेगा तो, वह उस कार्य को पूरी कुशलता या निपुणता से कैसे कर सकता है। अतः इस बात से यह प्रमाणित होता है कि व्यक्ति की आर्थिक असुविधाओं के लिए भी जाति प्रथा हानिकारक है। क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक रुचि के अनुसार कार्य करने की अनुमति नहीं देती। और बेमन से किया गए कार्य में व्यक्ति कभी भी उन्नति नहीं कर सकता।
प्रश्न 10 – ‘समता’ को काल्पनिक जगत की वस्तु क्यों माना गया है ? डॉ. भीमराव आंबेडकर ने समता की आवश्यकता पर बल क्यों दिया है ? ‘मेरी कल्पना का आदर्श समाज’ पाठ के आधार पर लिखिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – प्रत्येक व्यक्ति शारीरिक क्षमता, वंश-परम्परा या जन्म से, सामाजिक उत्तराधिकार की परम्परा से तथा अपने प्रयत्नों के कारण दूसरों से भिन्न और असमान होता है। इस तरह समता पहले से ही स्वयं नहीं आती है। समता को आदर्श समाज के निर्माण हेतु अपनायी जाती है। अतः समाज-निर्माण में समता की सत्ता काल्पनिक है। शारीरिक वंश परंपरा और सामाजिक उत्तराधिकार की दृष्टि से मनुष्यों में असमानता संभावित रहने के बावजूद आंबेडकर समता को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह इसलिए करते हैं क्योंकि किसी भी वर्ग या समुदाय में पैदा होना किसी व्यक्ति के हाथ में नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी कार्य क्षमता के विकास करने का समान अवसर मिलना चाहिए। अंबेडकर जी शारीरिक वंश परंपरा व सामाजिक उत्तराधिकार के आधार पर असमान व्यवहार को अनुचित ठहराते हैं। उनका मानना यह है कि यदि समाज चाहता है कि उसे बेहतरीन से बेहतरीन नागरिक व् आदर्श व्यक्तित्व वाले व्यक्ति चाहिए, तो उसे समाज के प्रत्येक सदस्यों को बिना वर्ग की परवाह किए शुरू से ही समान अवसर व समान व्यवहार उपलब्ध करवाने चाहिए।
प्रश्न 11 – ‘श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा’ पाठ के आधार पर बताइए कि मनुष्य को पेशा बदलने की आवश्यकता क्यों पड़ती है ? पेशा बदलने की स्वतंत्रता न होने से क्या परिणाम होता है ?(50-60 शब्दों में)
उत्तर – जातिप्रथा, व्यक्ति के कार्यक्षेत्र को पहले से ही निर्धारित तो करती ही हैं। साथ ही साथ यह मनुष्य को जीवन भर के लिए उसी पेशे के साथ बंधे रहने को मजबूर भी करती है। फिर भले ही व्यक्ति की उस कार्य को करने में कोई रुचि हो या ना हो, या फिर उस कार्य से उसकी आजीविका चल रही हो या चल रही हो, उसका और उसके परिवार का भरण पोषण हो रहा हो या ना हो रहा हो। यहाँ तक कि उस कार्य से उसके भूखे मरने की नौबत भी आ जाए तो भी, वह अपना कार्य बदल कर कोई दूसरा कार्य नहीं सकता है। जबकि आधुनिक समय में कई बार प्रतिकूल परिस्थितियाँ होने के कारण अपना और अपने परिवार की सुख-सुविधाओं के लिए इंसान को अपना पेशा या कार्यक्षेत्र बदलने की जरूरत पड़ सकती है।
दूसरी ओर पेशा बदलने की स्वतंत्रता न होने से व्यक्ति को गरीबी, बेरोजगारी और सामाजिक असमानता का सामना करना पड़ सकता है, साथ ही यह समाज में रूढ़िवादी सोच को भी बढ़ावा देता है।
प्रश्न 12 – डॉ. आंबेडकर ने आर्थिक असमानता से भी अधिक हानिकारक किसे और क्यों माना है ? ‘श्रम विभाजन और जाति प्रथा’ पाठ के आधार पर लिखिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – डॉ. आंबेडकर ने आर्थिक असमानता से भी अधिक हानिकारक व्यक्ति का अपनी इच्छा से काम न कर पाना माना है। व्यक्ति की किसी कार्य को करने में कोई रुचि हो या ना हो, या फिर उस कार्य से उसकी आजीविका चल रही हो या चल रही हो, उसका और उसके परिवार का भरण पोषण हो रहा हो या ना हो रहा हो। यहाँ तक कि उस कार्य से उसके भूखे मरने की नौबत भी आ जाए तो भी, वह अपना कार्य बदल कर कोई दूसरा कार्य नहीं सकता है। व्यक्ति को उसकी रूचि के आधार पर कार्य करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। जैसे अगर कोई ब्राह्मण का पुत्र सैनिक, वैज्ञानिक या इंजीनियर बनकर देश सेवा करना चाहता है तो उसे ऐसा करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्ति को अपनी रुचि व क्षमता के हिसाब से अपना कार्य क्षेत्र चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। तभी देश का युवक वर्ग अपनी पूरी क्षमता से समाज व राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका निभा पाएंगे।
प्रश्न 13 – डॉ. आंबेडकर की कल्पना के आदर्श समाज की आधारभूत बातें संक्षेप में लिखिए । (50-60 शब्दों में)
उत्तर – डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जी की कल्पना का आदर्श समाज स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे पर आधारित है। और किसी भी आदर्श समाज में इतनी गतिशीलता या लचीलापन तो होना ही चाहिए कि यदि समय के साथ समाज में कोई परिवर्तन करने की आवश्यकता हो तो वह परिवर्तन आसानी से किये जा सके और यदि लोगों की भलाई के लिए कोई फैसला या नियम बनाया जाए तो उन फैसलों या नियमों का लाभ उच्च वर्ग से निम्न वर्ग तक के सभी व्यक्ति को एक समान रूप से मिल सके, जिससे समाज के सभी लोगों को उन्नति के समान अवसर मिले। समाज में लोगों के बीच किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। क्योंकि जिस समाज में लोग एक दूसरे के हितों का ध्यान रखते है या एक दूसरे की भलाई के बारे में सोचते हैं। वह समाज निश्चित रूप से उन्नति करता है।
प्रश्न 14 – डॉ. भीमराव आंबेडकर जाति प्रथा को श्रम विभाजन का ही रूप क्यों नहीं मानते हैं ? ‘श्रम विभाजन और जाति प्रथा’ पाठ के आधार पर लिखिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – श्रम विभाजन, निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है। जातिप्रथा को यदि श्रम विभाजन मान लिया जाये तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है। श्रम विभाजन में क्षमता और कार्यकुशलता के आधार पर काम का बँटवारा होता है जबकि श्रमिक विभाजन में लोगों को जन्म के आधार पर बाँटकर पैतृक पेशे को अपनाने के लिए बाध्य किया जाता है। श्रम-विभाजन में व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार व्यवसाय का चयन करता है। श्रमिक-विभाजन में व्यवसाय का चयन तो दूर की बात है, व्यवसाय परिवर्तन की भी अनुमति नहीं होती है। जिससे समाज में ऊँच-नीच, भेदभाव, असमानता का भाव पैदा होता है। यह अस्वाभाविक विभाजन है। इससे गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी जैसी गंभीर समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं।
प्रश्न 15 – “जाति-प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है, इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है ।” जाति प्रथा के पोषकों के इस तर्क में क्या आपत्तिजनक है ? ‘श्रम विभाजन और जाति प्रथा’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए ।(50-60 शब्दों में)
उत्तर – इस आधुनिक युग में भी जातिवाद को समर्थन देने वालों की कोई कमी नहीं है वे विभिन्न तर्कों के आधार पर जातिवाद का समर्थन करते रहते है। जातिवाद के उन समर्थकों द्वारा एक तर्क यह भी दिया जाता है कि आधुनिक सभ्य समाज में कार्यकुशलता के लिए कार्य विभाजन या कार्य का बंटवारा करना आवश्यक है और जातिप्रथा, कार्य विभाजन का ही दूसरा रूप है। इसीलिए उनके अनुसार जातिवाद में कोई बुराई नहीं है।
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Chapter 3 – अतीत में दबे पाँव
प्रश्न 1 – “टूटे-फूटे खंडहर, सभ्यता और संस्कृति के इतिहास के साथ-साथ धड़कती ज़िंदगी के अनछुए समयों का भी दस्तावेज होते हैं।” इस कथन की समीक्षा ‘अतीत में दबे पाँव’ पाठ के आधार पर कीजिए ।
उत्तर – यह सच है कि टूटे-फूटे खंडहर, सभ्यता और संस्कृति के इतिहास के साथ-साथ धड़कती जिंदगियों के अनछुए समयों का भी दस्तावेज होते हैं। मुअनजो-दड़ो में प्राप्त खंडहर यह अहसास कराते हैं कि आज से पाँच हजार साल पहले कभी यहाँ एक सुनियोजित बस्ती थी। ये खंडहर उस समय की सभ्यता व् संस्कृति का परिचय कराते हैं। लेखक बताता है कि इस प्राचीन शहर के जो अब केवल खंडहर ही बचा है, उसके किसी भी मकान की दीवार पर पीठ टिकाकर सुस्ता सकते हैं, किसी घर की देहरी पर पाँव रखकर आप सहसा सहम सकते हैं, रसोई की खिड़की पर खड़े होकर उसकी गंध महसूस कर सकते हैं या शहर के किसी सुनसान मार्ग पर कान देकर बैलगाड़ी की रुन-झुन सुन सकते हैं। इस तरह जीवन के प्रति सजग दृष्टि होने पर पुरातात्विक खंडहर भी जीवन की धड़कन सुना देते हैं। ये एक प्रकार के दस्तावेज होते हैं जो इतिहास के साथ-साथ उस अनछुए समय को भी हमारे सामने उपस्थित कर देते हैं। जो कभी उन शहरों का हिस्सा रहे हैं।
प्रश्न 2 – पुरातत्त्व के किन चिन्हों के आधार पर आप यह कह सकते हैं कि – “सिंधु सभ्यता ताकत से शासित होने की अपेक्षा समझ से अनुशासित सभ्यता थी।”
उत्तर – सिंधु-सभ्यता की खुदाई से जो अवशेष प्राप्त हुए हैं उनमें औजार तो मिले हैं, परन्तु हथियार नहीं मिले हैं। अगर मुअनजो-दड़ो, हड़प्पा से लेकर हरियाणा तक समूची सिंधु-सभ्यता में कोई हथियार मिला भी है तो वह उस तरह के नहीं हैं जैसे किसी राजतंत्र में होते हैं। दूसरी जगहों पर राजतंत्र या धर्मतंत्र की ताकत का प्रदर्शन करने वाले महल, उपासना-स्थल, मूर्तियाँ और पिरामिड आदि मिलते हैं। हड़प्पा संस्कृति में न तो भव्य राजमहल मिले हैं, न कोई मंदिर मिला है, न ही राजाओं व महतों की कोई समाधि मिली हैं। मुअनजो-दड़ो से जो नरेश के सिर का मुकुट मिला है वह भी बहुत छोटा है। परन्तु यहाँ जो नगर-योजना, वास्तु-शिल्प, मुहर-ठप्पों, पानी या साफ़-सफ़ाई जैसी सामाजिक व्यवस्थाओं में एकरूपता दिखती है उससे कहा जा सकता है कि यहाँ पर कोई न कोई अनुशासन व्यवस्था तो अवश्य रही होगी। इन आधारों पर विद्वान यह मानते हैं कि सिंधु सभ्यता ताकत से शासित होने की अपेक्षा समझ से अनुशासित सभ्यता थी।
प्रश्न 3 – उन तथ्यों का उल्लेख कीजिए जो लेखक की इस मान्यता की पुष्टि करते हैं कि “सिंधु घाटी सभ्यता समृद्ध थी परंतु उसमें भव्यता का आडंबर नहीं था” ।
उत्तर – इसमें कोई दोराहे नहीं है कि सिंधु-सभ्यता साधन-संपन्न थी। क्योंकि सिंधु सभ्यता के शहर मुअनजो-दड़ो की व्यवस्था, साधन और नियोजन एक अद्धभुत व् रोचक विषय रहा है। यह बात सभी को आश्चयचकित कर देती हैं कि वहाँ पर अन्न-भंडारण व्यवस्था, जल-निकासी की व्यवस्था अत्यंत विकसित और परिपक्व थी। वहाँ पर हर निर्माण बड़ी ही बुद्धमानी के साथ किया गया था, इसका उदाहरण हम जल-निकासी की व्यवस्था से ले सकते हैं कि यदि सिंधु नदी का जल बस्ती तक आ भी जाए तो उससे बस्ती को कम-से-कम नुकसान हो। सिंधु सभ्यता की सारी व्यवस्थाओं के बीच भी इस सभ्यता की संपन्नता की बात बहुत ही कम हुई है। क्योंकि इनमें अन्य सभ्यताओं की तरह भव्यता का आडंबर नहीं है। इस सभ्यता में व्यापारिक व्यवस्थाओं की जानकारी तो मिलती है, मगर अब तक की जानकारियों में सब कुछ आवश्यकताओं से ही जुड़ा हुआ पाया गया है, भव्यता के लिए कोई व्यापारिक सम्बन्ध कहीं नहीं मिलता। हो सकता है कि यदि सिंधु सभ्यता की लिपि पढ़ ली जाए तो उसके बाद इस विषय में कुछ और अधिक महत्वपूर्ण जानकारी मिले।
प्रश्न 4 – मुअनजो-दड़ो के बड़े घरों में छोटे कमरे होने का क्या कारण था?
उत्तर – मुअनजो-दड़ो में कुँओं को छोड़कर लगता है जैसे सब कुछ चौकोर या आयताकार हो। नगर की योजना, बस्तियाँ, घर, कुंड, बड़ी इमारतें, ठप्पेदार मुहरें, चौपड़ का खेल, गोटियाँ, तौलने के बाट आदि सब कुछ। छोटे घरों में छोटे कमरे समझ में आते हैं। पर बड़े घरों में छोटे कमरे देखकर थोड़ी हैरानी होती है। इसका एक अर्थ तो यह लगाया गया है कि शहर की आबादी काफी रही होगी। और दूसरी तरफ यह विचार सामने आया है कि बड़े घरों में निचली(भूतल) मंजिल में नौकर-चाकर रहते होंगे।
प्रश्न 5 – मुअनजो-दड़ो के घरों में टहलते हुए लेखक को कुलधरा की याद क्यों हो आई ? ‘अतीत में दबे पाँव’ पाठ के आधार पर लिखिए ।
उत्तर – मुअनजो-दड़ो के घरों में टहलते हुए लेखक को कुलधरा की याद आई। क्योंकि वहाँ भी गाँव में घर हैं, पर लोग नहीं हैं। कोई डेढ़ सौ साल पहले राजा से तकरार पर स्वाभिमानी गाँव का हर बाशिंदा रातोंरात अपना घर छोड़ चला गया। घर खंडहर हो गए पर ढहे नहीं। घरों की दीवारें, प्रवेश और खिड़कियाँ ऐसी हैं जैसे कल की बात हो। लोग निकल गए, वक्त वहीं रह गया। खंडहरों ने उसे थाम लिया। जैसे सुबह लोग घरों से निकले हों, शायद शाम ढले लौट आने वाले हों। राजस्थान ही नहीं, गुजरात, पंजाब और हरियाणा में भी कुएँ, कुंड, गली-कूचे, कच्ची-पक्की ईंटों के कई घर भी आज वैसे मिलते हैं जैसे हजारों साल पहले हुए।
प्रश्न 6 – ‘मुअनजो-दड़ो’ और ‘हड़प्पा’ को भारत के ही नहीं दुनिया के सबसे पुरा उत्कृष्ट शहर के रूप में क्यों जाना जाता है ? ‘अतीत में दबे पाँव’ पाठ के आधार पर कारण सहित लिखिए ।
उत्तर – मुअनजो-दड़ो शहर ताप्रकाल के शहरों में सबसे बड़ा और उत्कृष्ट था क्योंकि इसकी व्यापक खुदाई में बड़ी तादाद में इमारतें, सड़कें, धातु-पत्थर की मूर्तियाँ, चाक पर बने चित्रित भांडे, मुहरें, साजो-सामान और खिलौने आदि मिले है। यहाँ बड़े-घर, चौड़ी-सड़कें, और बहुत सारे कुएँ हैं। मोहन जोदड़ो की सड़कें इतनी बड़ी हैं, कि यहाँ आसानी से दो बैलगाड़ी निकल सकती हैं। यहाँ पर सड़क के दोनों ओर घर हैं, दिलचस्प बात यह है, कि यहाँ सड़क की ओर केवल सभी घरो की पीठ दिखाई देती है, मतलब दरवाज़े अंदर गलियों में हैं। वास्तव में स्वास्थ्य के प्रति मोहन जोदड़ो का शहर काबिले-तारीफ़ है, कयोंकि हमसे इतने पिछड़े होने के बावज़ूद यहाँ की जो नगर नियोजन व्यव्स्था है वह कमाल की है।
प्रश्न 7 – मोहनजो-दड़ो की सभ्यता और संस्कृति का सामान भले अजायबघरों की शोभा बढ़ा रहा हो, शहर जहाँ था अब भी वहीं है, कैसे ? “अतीत में दबे पाँव” के आधार पर समझाइए ।
उत्तर – इस कथन के पीछे लेखक का आशय यह है कि सिंधु सभ्यता भले ही खंडहर हो गई हो परन्तु इसके बाद भी आँगन की टूटी-फूटी सीढ़ियाँ व् पायदान बीते इतिहास का पूरा परिचय देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि इन आँगन की टूटी-फूटी सीढ़ियों व् पायदानों से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन खंडहरों की दूसरी मंजिल भी रही होगी और इतनी ऊँची छत पर स्वयं चढ़कर इतिहास का अनुभव करना एक बढ़िया रोमांच है। लेखक का मानना है कि सिंधु घाटी की सभ्यता केवल इतिहास नहीं है बल्कि इतिहास के पार की वस्तु है और इतिहास के पार की वस्तु को इन अधूरे पायदानों पर खड़े होकर ही देखा जा सकता है। ये अधूरे पायदान यही दर्शाते हैं कि विश्व की दो सबसे प्राचीन सभ्यताओं का इतिहास कैसा रहा। क्योंकि इतिहास को आप मिले हुए सबूतों के बल पर जानते हैं और ये पायदान आपको उससे भी परे सोचने पर मजबूर करते हैं? मोहनजो-दड़ो की सभ्यता और संस्कृति का सामान भले अजायबघरों की शोभा बढ़ा रहा हो, किन्तु खंडहर अभी भी उसी जगह मौजूद हैं जहाँ वे अस्तित्व में आए थे।
प्रश्न 8 – नगर नियोजन की दृष्टि से मोहनजो-दड़ो अनूठी मिसाल कैसे है ? उदाहरण सहित लिखिए ।
उत्तर – मुअनजो-दड़ो की खूबी यह है कि इस अत्यधिक पुराने शहर की सड़कों और गलियों में आज भी घुमा जा सकता हैं। यहाँ की सभ्यता और संस्कृति का प्राचीन सामान आज भले ही अजायबघरों की शोभा बढ़ा रहा हो, परन्तु शहर जहाँ था अब भी वहीं है। भले ही यह एक खंडहर क्यों न हो, परन्तु इसकी किसी भी दीवार पर पीठ टिका कर सुस्ता सकते हैं। किसी घर की देहरी पर पाँव रखकर आप सहसा सहम सकते हैं, रसोई की खिड़की पर खड़े होकर उसकी गंध महसूस कर सकते हैं। या शहर के किसी सुनसान मार्ग पर कान लगाकर उस बैलगाड़ी की रुन-झुन सुन सकते हैं जिसे आपने पुरातत्त्व की तसवीरों में मिट्टी के रंग में देखा है। यह सच है कि यहाँ किसी आँगन की टूटी-फूटी सीढ़ियाँ अब आपको कहीं नहीं ले जातीं; वे आकाश की तरफ अधूरी रह जाती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि वहाँ की सीढ़ियाँ तो सलामत है परन्तु उन सीढ़ियों के द्वारा जिस दूसरी मंजिल पर जाया जाए वो दूसरी मंजिल नहीं है। लेकिन उन अधूरे पायदानों पर खड़े होकर अनुभव किया जा सकता है कि आप दुनिया की छत पर हैं; वहाँ से आप इतिहास को नहीं, उसके पार झाँक रहे हैं। अर्थात आप सबूतों के द्वारा इतिहास को जान सकते हो परन्तु यहाँ के प्रत्यक्ष साक्ष्यों को देख कर आप इतिहास के उस पन्ने को लिखते हो जिसके साबुत नहीं हैं।
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Chapter 3 – विभिन्न माध्यमों के लिए लेखन
प्रश्न 1 – अच्छे फीचर की किन्हीं दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा
फ़ीचर क्या है ? फ़ीचर लेखन की शैली का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर – अखबारों में समाचारों के अलावा भी अन्य कई तरह का पत्रकारीय लेखन छपता है। इनमें फीचर प्रमुख है। फीचर एक सुव्यवस्थित, सृजनात्मक और आत्मनिष्ठ लेखन है जिसका उद्देश्य पाठकों को सूचना देने, शिक्षित करने के साथ मुख्य रूप से उनका मनोरंजन करना होता है। फीचर समाचार की तरह पाठकों को तात्कालिक घटनाक्रम से अवगत नहीं कराता है। फीचर-लेखन में निजी दृष्टिकोण और भावनाओं को व्यक्त किया जाता है। फीचर-लेखन की शैली भी समाचार-लेखन से अलग होती है, इसमें उलटा पिरामिड-शैली का प्रयोग नहीं होता है, इसकी शैली प्रायः कथात्मक होती है।
फ़ीचर लिखते समय अग्रलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए –
फ़ीचर लिखते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि उसे सजीव बनाने के लिए उसमें उस विषय से जुड़े लोगों यानी पात्रों की मौजूदगी जरूरी है। फीचर की शैली कथात्मक होती है। इसमें कथ्य को प्रयुक्त पात्रों के माध्यम से कहने का प्रयत्न किया जाना चाहिए।
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Chapter 4 – पत्रकारीय लेखन के विभिन्न रूप और लेखन प्रक्रिया
प्रश्न 1 – पत्रकारीय लेखन साहित्यिक लेखन से किस प्रकार भिन्न है ? स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर – पत्रकारीय लेखन साहित्यिक या सृजनात्मक लेखन से भिन्न होता है क्योंकि इसमें तथ्य होते हैं, कल्पना नहीं। दूसरे यह तात्कालिकता और अपने पाठकों की रुचियों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाने वाला लेखन है जबकि साहित्यिक या सृजनात्मक लेखन में लेखक को काफी छूट होती है।
प्रश्न 2 – पत्रकारिता जगत में साक्षात्कार का क्या महत्त्व है ?
उत्तर – समाचार माध्यमों में साक्षात्कार का बहुत महत्त्व है। पत्रकार एक तरह से साक्षात्कार के ज़रिये ही समाचार, फीचर, विशेष रिपोर्ट और अन्य कई तरह के पत्रकारीय लेखन के लिए कच्चा माल इकट्टा करते हैं।
पत्रकारिय साक्षात्कार और सामान्य बातचीत में यह फर्क होता है कि साक्षात्कार में एक पत्रकार किसी अन्य व्यक्ति से तथ्य, उसकी राय और भावनाएँ जानने के लिए सवाल पूछता है।
साक्षात्कार से सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण बातें –
- साक्षात्कार का एक स्पष्ट मकसद और ढाँचा होता है।
- एक सफल साक्षात्कार के लिए आपके पास न सिर्फ ज्ञान होना चाहिए बल्कि आपमें संवेदनशीलता, कूटनीति, धैर्य और साहस जैसे गुण भी होने चाहिए।
- एक अच्छे और सफल साक्षात्कार के लिए यह ज़रूरी है कि आप जिस विषय पर और जिस व्यक्ति के साथ साक्षात्कार करने जा रहे हैं, उसके बारे में आपके पास पर्याप्त जानकारी हो।
- आप साक्षात्कार से क्या निकालना चाहते हैं, इसके बारे में स्पष्ट रहना बहुत ज़रूरी है।
- आपको वे सवाल पूछने चाहिए जो किसी अखबार के एक आम पाठक के मन में हो सकते हैं।
- साक्षात्कार को अगर रिकार्ड करना संभव हो तो बेहतर है लेकिन अगर ऐसा संभव न हो तो साक्षात्कार के दौरान आप नोट्स लेते रहें।
- साक्षात्कार को लिखते समय आप दो में से कोई भी एक तरीका अपना सकते हैं। एक – आप साक्षात्कार को सवाल और फिर जवाब के रूप मे लिख सकते हैं या फिर उसे एक आलेख की तरह से भी लिख सकते हैं।
प्रश्न 3 – अच्छे लेखन के लिए किसी भी पत्रकार को ख़बर लिखते समय किन बातों पर ध्यान देना चाहिए ?
उत्तर – अखबार और पत्रिका के लिए लिखने वाले लेखक और पत्रकार को निम्नलिखित बातों को हमेशा याद रखना चाहिए –
- कि वह विशाल समुदाय के लिए लिख रहा है जिसमें एक विश्वविद्यालय के कुलपति जैसे विद्वान से लेकर कम पढ़ा–लिखा मज़दूर और किसान सभी शामिल हैं। इसलिए उसकी लेखन शैली, भाषा और गूढ़ से गूढ़ विषय की प्रस्तुति ऐसी सहज, सरल और रोचक होनी चाहिए कि वह आसानी से सबकी समझ में आ जाए।
पत्रकारीय लेखन में अलंकारिक–संस्कृतनिष्ठ भाषा–शैली के बजाय आम बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल किया जाता है। - पाठकों को ध्यान में रखकर ही अखबारों में सीधी, सरल, साफ–सुथरी लेकिन प्रभावी भाषा के इस्तेमाल पर जोर दिया जाता है।
- शब्द सरल और आसानी से समझ में आने वाले होने चाहिए।
- वाक्य छोटे और सहज होने चाहिए।
- जटिल और लंबे वाक्यों से बचना चाहिए।
- भाषा को प्रभावी बनाने के लिए गैरज़रूरी विशेषणों, मुहावरों व् लोकोक्तियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
प्रश्न 4 – समाचार लेखन की सबसे लोकप्रिय, उपयोगी और बुनियादी शैली कौन सी है ? उसकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए ।
अथवा
समाचार लेखन की उलटा पिरामिड शैली क्या है ? समझाइए ।
अथवा
समाचार लेखन की उलटा-पिरामिड शैली की विशेषता का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर – समाचार लेखन को उलटा पिरामिड–शैली (इंवर्टेड पिरामिड स्टाइल) के नाम से जाना जाता है। यह समाचार लेखन की सबसे लोकप्रिय, उपयोगी और बुनियादी शैली है। यह शैली कहानी या कथा लेखन की शैली के ठीक उलटी है जिसमें क्लाइमेक्स बिलकुल आखिर में आता है। इसे उलटा पिरामिड इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य या सूचना ‘यानी क्लाइमेक्स’ पिरामिड के सबसे निचले हिस्से में नहीं होती बल्कि इस शैली में पिरामिड को उलट दिया जाता है। इसका प्रयोग 19वीं सदी के मध्य से ही शुरू हो गया था लेकिन इसका विकास अमेरिका में गृहयुद्ध के दौरान हुआ। उस समय संवाददाताओं को अपनी खबरें टेलीग्राफ संदेशों के ज़रिये भेजनी पड़ती थीं जिसकी सेवाएँ महँगी, अनियमित और दुर्लभ थीं। कई बार तकनीकी कारणों से सेवा ठप्प हो जाती थी। इसलिए संवाददाताओं को किसी घटना की खबर कहानी की तरह विस्तार से लिखने के बजाय संक्षेप में देनी होती थी। इस तरह उलटा पिरामिड–शैली का विकास हुआ और धीरे–धीरे लेखन और संपादन की सुविधा के कारण यह शैली समाचार लेखन की मानक (स्टैंडर्ड) शैली बन गई।
प्रश्न 5 – समाचार-पत्र में ‘संपादक के नाम पत्र’ स्तंभ का क्या महत्त्व है और क्यों ?
उत्तर – “संपादक के नाम पत्र” वे पत्र होते हैं, जो पाठक समाचार पत्रों के संपादकों को लिखते हैं। इन पत्रों के लिए समाचार पत्रों में “संपादक के नाम पत्र” के लिए एक विशेष कॉलम निर्धारित होता है। इस माध्यम से व्यक्ति अपनी बातों को सभी पाठकों, अधिकारियों और सरकार तक पहुँचाता है। ये पत्र विभिन्न समाचार पत्रों में अलग-अलग शीर्षकों के साथ प्रकाशित होते हैं, जैसे – नजूर अपनी-अपनी, जनता की आवाज, सुझाव और शिकायतें आदि।
प्रश्न 6 – समाचार लेखन के छह ककारों का उल्लेख करते हुए बताइए कि पहले चार ककारों में किस पहलू पर और अंतिम दो ककारों में किस पहलू पर जोर दिया जाता है ।
उत्तर – किसी समाचार को लिखते हुए मुख्यतः छह सवालों का जवाब देने की कोशिश की जाती है क्या हुआ, किसके साथ हुआ, कहाँ हुआ, कब हुआ, कैसे और क्यों हुआ? इस–क्या, किसके (या कौनद्ध), कहाँ, कब, क्यों और कैसे–को छह ककारों के रूप में भी जाना जाता है। किसी घटना, समस्या या विचार से संबंधित खबर लिखते हुए इन छह ककारों को ही ध्यान में रखा जाता है। समाचार के मुखड़े (इंट्रो) यानी पहले पैराग्राफ या शुरुआती दो–तीन पंक्तियों में आमतौर पर तीन या चार ककारों को आधार बनाकर खबर लिखी जाती है। ये चार ककार हैं–क्या, कौन, कब और कहाँ? इसके बाद समाचार की बॉडी में और समापन के पहले बाकी दो ककारों–कैसे और क्यों–का जवाब दिया जाता है। इस तरह छह ककारों के आधार पर समाचार तैयार होता है। इनमें से पहले चार ककार–क्या, कौन, कब और कहाँ–सूचनात्मक और तथ्यों पर आधारित होते हैं जबकि बाकी दो ककारों–कैसे और क्यों–में विवरणात्मक, व्याख्यात्मक और विश्लेषणात्मक पहलू पर जोर दिया जाता है।
प्रश्न 7 – स्तंभ लेखन किसे कहते हैं ? समझाइए ।
उत्तर – स्तंभ लेखन भी विचारपरक लेखन का एक प्रमुख रूप है। कुछ महत्त्वपूर्ण लेखक अपने खास वैचारिक रुझान के लिए जाने जाते हैं। उनकी अपनी एक लेखन–शैली भी विकसित हो जाती है। ऐसे लेखकों की लोकप्रियता को देखकर अखबार उन्हें एक नियमित स्तंभ (कॉलम) लिखने का जिम्मा दे देते हैं। स्तंभ (कॉलम) का विषय चुनने और उसमें अपने विचार व्यक्त करने की स्तंभ (कॉलम) लेखक को पूरी छूट होती है। स्तंभ (कॉलम) में लेखक के विचार अभिव्यक्त होते हैं। यही कारण है कि स्तंभ (कॉलम) अपने लेखकों के नाम पर जाने और पसंद किए जाते हैं। कुछ स्तंभ (कॉलम) इतने लोकप्रिय होते हैं कि अखबार उनके कारण भी पहचाने जाते हैं। लेकिन नए लेखकों को स्तंभ (कॉलम) लेखन का मौका नहीं मिलता है।
प्रश्न 8 – एक सफल साक्षात्कार के लिए साक्षात्कारकर्ता में किन गुणों का होना आवश्यक है ?
उत्तर – एक अच्छे साक्षात्कारकर्ता के गुण सामाजिक अंवेषण में वास्तविक सूचनाएँ एकत्रित करना एक कठिन कार्य है। सफल अनुसंधानकर्ता अथवा साक्षात्कारकर्ता अपनी सूझ-बूझ के आधार पर इसे अधिक सरल बना देता है। एक अच्छे अनुसंधानकर्ता अथवा साक्षात्कारकर्ता में निम्नलिखित गुण होने अनिवार्य हैं –
- एक अच्छे साक्षात्कारकर्ता का सबसे प्रथम गुण उसका अच्छा एवं उच्च व्यक्तित्व है। उसके व्यक्तित्व का इतना प्रभाव होना चाहिए कि सूचनादाता उसे सूचनाएँ देने के लिए तत्पर हो जाए।
- एक अच्छे साक्षात्कारकर्ता में उच्च कोटि की मनोवैज्ञानिकता होना भी अनिवार्य है।
- साक्षात्कारकर्ता में इतनी क्षमता एवं योग्यता का होना आवश्यक है कि वह सूचनादाताओं से अधिक-से-अधिक सहयोग ले सके।
- यदि साक्षात्कारदाता साक्षात्कारकर्ता से मिलकर कार्य नहीं करेगा या उसको सहयोग नहीं देगा तो साक्षत्कारकर्ता अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता।
- एक सफल साक्षात्कारकर्ता का एक अन्य विशिष्ट गुण निष्पक्षता तथा ईमानदारी है।
- एक अच्छे साक्षात्कारकर्ता का कुशल एवं चतुर होना भी अनिवार्य है। एक कुशल एवं चतुर साक्षात्कारकर्ता ही सूचनादाताओं, जो कि विविध प्रकार की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के होते हैं, से ठीक प्रकार से सूचना प्राप्त कर सकता है।
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Chapter 5 – विशेष लेखन-स्वरूप और प्रकार
प्रश्न 1 – विशेष रिपोर्ट किसे कहा जाता है ? यह कैसे तैयार की जाती है ?
उत्तर – अख़बारों और पत्रिकाओं में सामान्य समाचारों के अलावा गहरी छानबीन, विश्लेषण और व्याख्या के आधार पर विशेष रिपोर्ट भी प्रकाशित होती हैं। ऐसी रिपोर्टों को तैयार करने के लिए किसी घटना, समस्या या मुद्दे की गहरी छानबीन की जाती है। उससे संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्यों को इकट्ठा किया जाता है। तथ्यों के विश्लेषण के ज़रिए उसके नतीजे, प्रभाव और कारणों को स्पष्ट किया जाता है। सामान्य खबरों से आगे बढ़कर उस विशेष क्षेत्र या विषय से जुड़ी घटनाओं, मुद्दों और समस्याओं का बारीकी से विश्लेषण करें और पाठकों के लिए उसका अर्थ स्पष्ट करने की कोशिश करें। विशेष लेखन करने के लिए ज़रूरी है कि उस क्षेत्र के बारे में आपको ज्यादा से ज़्यादा पता हो, उसकी ताजा से ताजा सूचना आपके पास हो, आप उसके बारे में लगातार पढ़ते हों, जानकारियाँ और तथ्य इकट्टे करते हों और उस क्षेत्र से जुड़े लोगों से लगातार मिलते रहते हों।
प्रश्न 2 – विशेष लेखन’ का क्या आशय है ? इसकी भाषा शैली कैसी होनी चाहिए और क्यों ?
अथवा
विशेष लेखन से क्या अभिप्राय है ? इसकी भाषा शैली संबंधी विशेषताओं का आधार क्या होता है और क्यों ?
अथवा
विशेष लेखन की भाषा-शैली सामान्य लेखन से अलग क्यों होती है ?
उत्तर – विशेष लेखन अर्थात किसी खास विषय पर सामान्य लेखन से हटकर किया गया लेखन। अधिकतर समाचारपत्रों और पत्रिकाओं के अलावा टी.वी. और रेडियो चैनलों में विशेष लेखन के लिए अलग डेस्क होता है और उस विशेष डेस्क पर काम करने वाले पत्राकारों का समूह भी अलग होता है।
विशेष लेखन का संबंध जिन विषयों और क्षेत्रों से है, उनमें से अधिकांश तकनीकी रूप से जटिल क्षेत्र हैं और उनसे जुड़ी घटनाओं और मुद्दों को समझना आम पाठकों के लिए कठिन होता है। इसलिए इन क्षेत्रों में विशेष लेखन की ज़रूरत पड़ती है जिससे पाठकों को समझने में मुश्किल न हो। विशेष लेखन की भाषा और शैली कई मामलों में सामान्य लेखन से अलग है। उनके बीच सबसे बुनियादी फर्क यह है कि हर क्षेत्र विशेष की अपनी विशेष तकनीकी शब्दावली होती है जो उस विषय पर लिखते हुए आपके लेखन में आती है।
विशेष लेखन की कोई निश्चित शैली नहीं होती। लेकिन अगर आप अपने बीट से जुड़ा कोई समाचार लिख रहे हैं तो उसकी शैली उलटा पिरामिड शैली ही होगी। लेकिन अगर आप समाचार फीचर लिख रहे हैं तो उसकी शैली कथात्मक हो सकती है। इसी तरह अगर आप लेख या टिप्पणी लिख रहे हों तो इसकी शुरुआत भी फीचर की तरह हो सकती है। आप शैली कोई भी अपनाएँ लेकिन मूल बात यह है कि किसी खास विषय पर लिखा गया आपका आलेख सामान्य लेख से अलग होना चाहिए।
प्रश्न 3 – विशेष लेखन किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित लिखिए ।
उत्तर – किसी भी क्षेत्र में विशेष रूप से लेखन करना विशेष लेखन कहलाता है। समाचार पत्र सामान्य समाचारों के अलावा साहित्य , विज्ञान , खेल इत्यादि की भी पर्याप्त जानकारी देते हैं। इसी कार्य के अंतर्गत जब किसी खास विषय पर सामान्य लेखन से हटकर लेखन किया जाए तो उसे विशेष लेखन कहते हैं। विशेष लेखन में समाचारों के अलावा, खेल, अर्थ-व्यापार, सिनेमा, या मनोरंजन जैसे विषयों पर लिखा जाता है। इसकी भाषा और शैली, समाचारों की भाषा-शैली से अलग होती है।
प्रश्न 4 – विशेष लेखन के दायरे में आजकल किन विषयों को अधिक महत्त्व मिल रहा है ? किन्हीं दो महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर – अर्थ-व्यापार, खेल, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, कृषि, विदेश, रक्षा, पर्यावरण, शिक्षा, स्वास्थ्य, फ़िल्म-मनोरंजन, अपराध, सामाजिक मुद्दे, कानून, आदि।
अर्थ-व्यापार = धन हर व्यक्ति के जीवन का एक महत्वपूर्ण आधार है। हमारा कोई भी कार्य, बाजार से कोई वस्तु खरीदना, बैंक में पैसे जमा करना, किसी तरह की कोई बचत करना, किसी व्यापार को करने के बारे में सोचना, आर्थिक धन लाभ-हानि के बारे में विचार करना आदि अर्थ व्यवस्था से जुड़ी चीजें हैं। इनका हमारे दैनिक जीवन में बहुत महत्त्व है।
खेल = खेल एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें छोटे बड़े, युवा-वृद्ध सभी की रूचि होती है। हम सभी में कोई न कोई खिलाड़ी छुपा होता है जिसे हम अपने जीवन की व्यस्थता के कारण छुपाए ही रखते हैं। परन्तु खेलों में जो दिलचस्पी होती है वह विभिन्न तरह की खेल प्रतियोगिताओं के दौरान देखने को मिलती है। खेल हमारे सर्वांगीण विकास में अहम भूमिका निभाता है।
प्रश्न 5 – बीट रिपोर्टर बनने के लिए क्या-क्या तैयारियाँ करनी पड़ती हैं ? उदाहरण सहित समझाइए ।
उत्तर – खबरें भी कई तरह की होती हैं–राजनीतिक, आर्थिक, अपराध, खेल, फ़िल्म, कृषि, कानून, विज्ञान या किसी भी और विषय से जुड़ी हुई। संवाददाताओं के बीच काम का विभाजन आमतौर पर उनकी दिलचस्पी और ज्ञान को ध्यान में रखते हुए किया जाता है। मीडिया की भाषा में इसे बीट कहते हैं। एक संवाददाता की बीट अगर अपराध है तो इसका अर्थ यह है कि उसका कार्यक्षेत्र अपने शहर या क्षेत्र में घटनेवाली आपराधिक घटनाओं की रिपोर्टिंग करना है। अखबार की ओर से वह इनकी रिपोर्टिंग के लिए जिम्मेदार और जवाबदेह भी है।
सामान्य बीट रिपोर्टिंग के लिए भी एक पत्राकार को काफी तैयारी करनी पड़ती है। उदाहरण के तौर पर जो पत्राकार राजनीति में दिलचस्पी रखते हैं या किसी खास राजनीतिक पार्टी को कवर करते है तो पत्राकार को उस पार्टी के भीतर गहराई तक अपने संपर्क बनाने चाहिए और खबर हासिल करने के नए–नए स्रोत विकसित करने चाहिए। किसी भी स्रोत या सूत्र पर आँख मूँदकर भरोसा नहीं करना चाहिए और जानकारी की पुष्टि कई और स्रोतों के ज़रिये भी करनी चाहिए। यानी उस पत्राकार को ज्यादा से ज़्यादा समय अपने क्षेत्र के बारे में हर छोटी बड़ी जानकारी इकट्टी करने में बिताना पड़ता है तभी वह उस बारे में विशेषज्ञता हासिल कर सकता है और उसकी रिपोर्ट या खबर विश्वसनीय मानी जाती है।
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Chapter 11 – कैसे करें कहानी का नाट्य रूपांतरण
प्रश्न 1 – कहानी और नाटक के समान तत्त्वों का उल्लेख करते हुए बताइए कि दोनों में क्या अंतर हैं ?
अथवा
कहानी और नाटक में क्या अंतर है ? दोनों के मूल तत्त्वों की समानता बताते हुए अंतर स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर – कहानी को किसी भी शैली में प्रस्तुत कर सकते हैं जबकि नाटक को केवल संवाद की शैली में प्रस्तुत किया जाता है।
कहानी और नाटक में निम्नलिखित समानताएँ हैं –
- कहानी का मूलाधार कथानक होता है, नाटक भी कथानक पर ही आधारित होता है।
- कहानी में घटनाएँ क्रमबद्ध रहती हैं, नाटक में भी घटनाओं का वर्णन क्रमबद्ध रूप में होता है।
- कहानी में पात्रों की मुख्य भूमिका होती है, नाटक की रचना में भी पात्रों का मुख्य स्थान होता है।
- कहानी में एक परिवेश रहता है, नाटक में भी परिवेश होता है।
- कहानी में पात्रों के मध्य द्वंद्व होता है, नाटक के पात्रों के मध्य भी द्वंद्व दिखाया जाता है।
- कहानी उद्देश्य विशेष को लेकर चलती है, नाटक भी उद्देश्य विशेष को लेकर ही लिखा जाता है।
- कहानी का चर्मोत्कर्ष होता है, नाटक का भी चर्मोत्कर्ष होता है।
प्रश्न 2 – कहानी का नाट्य रूपांतरण करते समय दृश्य विभाजन किन आधारों पर किया जाता है ?
उत्तर – कहानी का नाटक में रूपांतरण करने के लिए सबसे पहले कहानी और नाटक में विविधता या अनेकता तथा समानताओं को समझना आवश्यक है। इसके लिए हमें नाटक की विशेषताओं को समझना होगा। जहाँ कहानी का संबंध लेखक और पाठक से जुड़ता है वहीं नाटक लेखक, निर्देशक, पात्र, दर्शक, श्रोता एवं अन्य लोगों को एक–दूसरे से जोड़ता है। चूँकि दृश्य का स्मृतियों से गहरा संबंध होता है इसलिए नाटक एवं फ़िल्म को लोग देर तक याद रखते हैं। यही कारण है कि गोदान, देवदास, उसने कहा था, सद्गति आदि के नाट्य रूपांतरण कई बार हुए हैं और कई तरह से हुए हैं।
प्रश्न 3 – कहानी को नाटक में किस प्रकार रूपांतरित किया जा सकता है ? आधार बिन्दुओं का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर – कहानी को नाटक में रूपांतरित करने के लिए सबसे पहले कहानी की विस्तृत कथावस्तु को समय और स्थान के आधार पर विभाजित किया जाता है। कथावस्तु उन घटनाओं का लेखा–जोखा है जो कहानी में घटती है। प्रत्येक घटना किसी स्थान पर किसी समय में घटती है। ऐसा भी संभव है कि घटना स्थान तथा समयविहीन हो। कहानी की कथावस्तु (कथानक) को सामने रखकर एक–एक घटना को चुन–चुनकर निकाला जाता है और उसके आधार पर दृश्य बनता है। तात्पर्य यह कि यदि एक घटना एक स्थान और एक समय में घट रही है तो वह एक दृश्य होगा। ईदगाह कहानी के संदर्भ में देखें तो इसके आरंभ में लेखक ने मेले को लेकर बच्चों के उतावलेपन और कुतूहल का लंबा मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है इसके लिए पहले दृश्य में गाँव के उस हिस्से को फोकस कर सकते हैं, जहाँ बच्चे भाग–दौड़ कर रहे हैं, तैयार हो रहे हैं, बार–बार अपने पैसे गिन रहे हैं और टोली के निकलने की राह देख रहे हैं। पहले दृश्य का अंतिम हिस्सा हामिद और उसकी दादी अमीना पर केंद्रित हो सकता है और उनके संवाद दिए जा सकते हैं।
प्रश्न 4 – कहानी के नाट्य रूपांतरण में किस प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है ?
उत्तर – कहानी का नाटक में रूपांतरण करने के लिए सबसे पहले कहानी और नाटक में विविधता या अनेकता तथा समानताओं को समझना आवश्यक है। इसके लिए हमें नाटक की विशेषताओं को समझना होगा। जहाँ कहानी का संबंध लेखक और पाठक से जुड़ता है वहीं नाटक लेखक, निर्देशक, पात्र, दर्शक, श्रोता एवं अन्य लोगों को एक–दूसरे से जोड़ता है। चूँकि दृश्य का स्मृतियों से गहरा संबंध होता है इसलिए नाटक एवं फ़िल्म को लोग देर तक याद रखते हैं। यही कारण है कि गोदान, देवदास, उसने कहा था, सद्गति आदि के नाट्य रूपांतरण कई बार हुए हैं और कई तरह से हुए हैं।
प्रश्न 5 – कहानी के संवादों का नाट्य रूपांतरण करते समय किन तथ्यों का ध्यान रखना आवश्यक है और क्यों?
उत्तर – कहानी को नाटक में रूपांतरित करने के लिए सबसे पहले कहानी की विस्तृत कथावस्तु को समय और स्थान के आधार पर विभाजित किया जाता है। कथावस्तु उन घटनाओं का लेखा–जोखा है जो कहानी में घटती है। प्रत्येक घटना किसी स्थान पर किसी समय में घटती है। ऐसा भी संभव है कि घटना स्थान तथा समयविहीन हो। कहानी की कथावस्तु (कथानक) को सामने रखकर एक–एक घटना को चुन–चुनकर निकाला जाता है और उसके आधार पर दृश्य बनता है। तात्पर्य यह कि यदि एक घटना एक स्थान और एक समय में घट रही है तो वह एक दृश्य होगा।
स्थान और समय के आधार पर कहानी का विभाजन करके दृश्यों को लिखा जा सकता है। प्रत्येक दृश्य का कथानक के अनुसार औचित्य हो।
प्रत्येक दृश्य एक बिंदु से प्रारंभ होता है। कथानुसार अपनी आवश्यकताएँ पूरी करता है और उसका ऐसा अंत होता है जो उसे अगले दृश्य से जोड़ता है।
ऐसा हो सकता है कि कुछ ऐसे दृश्य बनते हों जिनमें लेखक ने केवल विवरण दिया हो और उसमें कोई संवाद न हो। ऐसे दृश्यों का भी पूरा खाका तैयार कर लेना चाहिए। यह अवश्य देखना चाहिए कि जानकारियाँ, सूचनाएँ और घटनाएँ दोहराई न गई हों।
दृश्य निर्धारित करने के बाद दृश्यों और मूल कहानी को पढ़ने से यह अनुमान लग सकता है कि मूल कहानी में ऐसा क्या है जो दृश्यों में नहीं आया है।
लेखक द्वारा परिवेश का विवरण या परिस्थितियों पर टिप्पणियाँ प्रायः दृश्यों में नहीं ढल पातीं। यह देखना आवश्यक है कि परिस्थिति, परिवेश, पात्र, कथानक से संबंधित विवरणात्मक टिप्पणियाँ किस प्रकार की हैं।
प्रश्न 6 – कहानी में वर्णित पात्रों का चरित्र-चित्रण, नाटक में किस प्रकार दिखाया जाता है ?
उत्तर – कहानी में चरित्र–चित्रण अलग प्रकार से किया जाता है और नाटक में उसकी विधि कुछ बदल जाती है। रूपांतरण करते समय कहानी के पात्रों की दृश्यात्मकता और नाटक के पात्रों में उसका प्रयोग किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए प्रेमचंद ने ईदगाह में मेले में जाते हामिद के कपड़ों का जिक्र नहीं किया है और न ही अन्य लड़कों के बारे में कुछ लिखा है परंतु कहानी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि हामिद नंगे पैर होगा, उसके कुर्ते में पैबंद लगे होंगे जबकि अन्य लड़कों के कपड़े उनकी अच्छी आर्थिक स्थिति के सूचक होंगे।
प्रश्न 7 – कहानी के पात्रों को नाट्य रूपांतरण में किस प्रकार प्रभावशाली बनाया जा सकता है ? उदाहरण सहित लिखिए ।
उत्तर – कहानी के पात्रों को नाट्य रूपांतरण में प्रभावशाली बनाने का एक तरीका अभिनय है जो प्रायः निर्देशक का काम है, पर लेखक भी इस ओर संकेत कर सकता है।
- पात्र की भावभंगिमाओं और उसके तौरतरीकों से प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है।
- कहानी के लंबे संवादों को छोटा करके उन्हें अधिक नाटकीय बनाया जा सकता है।
- स्थानीय रंग में संवादों को रंग कर चरित्र–चित्रण को परिमार्जित किया जा सकता है।
- ध्वनि और प्रकाश भी चरित्र–चित्रण करने तथा संवेदनात्मक प्रभाव उत्पन्न करने में कारगर सिद्ध हो सकते हैं। प्रायः निर्देशक ही इस संबंध में निर्णय लेते हैं पर लेखकों के सुझाव सदा स्वागत योग्य होते हैं। लेखक को यदि इन संभावनाओं की जानकारी है तो उसके अंदर आत्मविश्वास पैदा होता है और रूपांतरण का कार्य संतोषजनक होता है।
प्रश्न 8 – कहानी को नाट्य रूप में परिवर्तित करते समय उसे दृश्यों में क्यों विभाजित किया जाता है ?
उत्तर – कहानी में चरित्र–चित्रण अलग प्रकार से किया जाता है और नाटक में उसकी विधि कुछ बदल जाती है। रूपांतरण करते समय कहानी के पात्रों की दृश्यात्मकता और नाटक के पात्रों में उसका प्रयोग किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए प्रेमचंद ने ईदगाह में मेले में जाते हामिद के कपड़ों का जिक्र नहीं किया है और न ही अन्य लड़कों के बारे में कुछ लिखा है परंतु कहानी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि हामिद नंगे पैर होगा, उसके कुर्ते में पैबंद लगे होंगे जबकि अन्य लड़कों के कपड़े उनकी अच्छी आर्थिक स्थिति के सूचक होंगे।
विभिन्न प्रकार के विवरणों को नाटक में स्थान देने के अलग–अलग तरीके हैं। उदाहरण के लिए विवरणात्मक टिप्पणी यदि परिवेश के बारे में है तो उसे मंच सज्जा के अंतर्गत लिया जा सकता है या पार्श्व संगीत के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता है। विवरण यदि पात्रों के बारे में है तो उन्हें संवादों के माध्यम से निर्धारित दृश्यों में उचित स्थान पर दिया जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कहानी में व्यक्त महत्त्वपूर्ण सूत्र नाटक के स्वरूप के अनुसार अपनी जगह निर्धारित कर लेते हैं।
प्रश्न 9 – किसी भी कहानी का नाट्य रूपांतरण करते समय परिवेश तथा उन पर लेखक की टिप्पणियों को दृश्य में नहीं ढाला जा सकता है । इन तत्त्वों को नाटक में किस प्रकार दर्शाया जा सकता है ? स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर – विभिन्न प्रकार के विवरणों को नाटक में स्थान देने के अलग–अलग तरीके हैं। उदाहरण के लिए विवरणात्मक टिप्पणी यदि परिवेश के बारे में है तो उसे मंच सज्जा के अंतर्गत लिया जा सकता है या पार्श्व संगीत के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता है। विवरण यदि पात्रों के बारे में है तो उन्हें संवादों के माध्यम से निर्धारित दृश्यों में उचित स्थान पर दिया जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कहानी में व्यक्त महत्त्वपूर्ण सूत्र नाटक के स्वरूप के अनुसार अपनी जगह निर्धारित कर लेते हैं।
प्रश्न 10 – कथानक से आप क्या समझते हैं। कहानी या नाटक में इसे केंद्रीय बिन्दु क्यों माना जाता है ?
उत्तर – कहानी को लिखने की पूरी योजना को ‘कथानक’ कहा जाता है। कथानक कहानी का वह प्रमुख तत्व है जो समयबद्ध और शृंखलाबद्ध घटनाओं की धुरी बनकर कथा को गति प्रदान करता है। कहानी की सभी घटनाएँ कथानक के चारों ओर ताने-बाने की तरह बुनी जाती हैं और उसी के माध्यम से विकसित होती हैं।
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Chapter 12 – कैसे बनता है रेडियो नाटक
प्रश्न 1 – रेडियो नाटक लेखन हेतु कहानी का चयन करते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ?
उत्तर – नाट्य आंदोलन के विकास में रेडियो नाटक की अहम भूमिका रही है!
सिनेमा और रंगमंच की तरह रेडियो एक दृश्य माध्यम नहीं, श्रव्य माध्यम है।
रेडियो की प्रस्तुति संवादों और ध्वनि प्रभावों के माध्यम से होती है।
फिल्म की तरह रेडियो में एक्शन की गुंजाइश नहीं होती।
चूँकि रेडियो नाटक की अवधि सीमित होती है इसलिए पात्रों की संख्या भी सीमित होती है क्योंकि सिर्फ आवाज़ के सहारे पात्रों को याद रख पाना मुश्किल होता है।
पात्र संबंधी विविध जानकारी संवाद एवं ध्वनि संकेतों से उजागर होती है।
प्रश्न 2 – रेडियो नाटक के लिए पात्रों की संख्या सीमित क्यों रखनी चाहिए ?
उत्तर – रेडियो नाटक की अवधि ही सीमित है, तो फिर अपने-आप ही पात्रों की संख्या भी सीमित हो जाएगी। क्योंकि श्रोता सिर्फ आवाज़ के सहारे चरित्रों को याद रख पाता है, ऐसी स्थिति में रेडियो नाटक में यदि बहुत ज़्यादा किरदार हैं तो उनके साथ एक रिश्ता बनाए रखने में श्रोता को दिक्कत होगी। 15 मिनट की अवधि वाले रेडियो नाटक में पात्रों की अधिकतम संख्या 5-6 हो सकती है। 30-40 मिनट की अवधि के नाटक में 8 से 12 पात्र। अगर एक घंटे या उससे ज़्यादा अवधि का रेडियो नाटक लिखना ही पड़ जाए, तो उसमें 15 से 20 भूमिकाएँ गढ़ी जा सकती हैं। पात्रों की संख्या के मामले में बताई गईं संख्याएँ एक अंदाजा मात्र हैं। ये प्रमुख और सहायक भूमिकाओं की संख्या है। छोटे-मोटे किरदारों की गिनती इसमें नहीं की गई है। मतलब, फेरीवाले की एक आवाज़ या पोस्टमैन का एक संवाद या न्यायालय में जज का सिर्फ ‘ऑर्डर-ऑर्डर’ कहना आदि।
प्रश्न 3 – रेडियो नाटक की अवधि आमतौर पर 15-30 मिनट तक की ही क्यों रखी जाती है ?
अथवा
सिनेमा या मंच पर अभिनीत नाटकों की तुलना में रेडियो नाटक की अवधि सीमित क्यों रखी जाती है ? तर्क सहित उत्तर दीजिए ।
उत्तर – आमतौर पर रेडियो नाटक की अवधि 15 मिनट से 30 मिनट होती है। इसलिए अमूमन रेडियो नाटक की अवधि छोटी होती है और अगर आपकी कहानी लंबी है तो फिर वह एक धारावाहिक के रूप में पेश की जा सकती है, जिसकी हर कड़ी 15 या 30 मिनट की होगी। रेडियो पर निश्चित समय पर निश्चित कार्यक्रम आते हैं, इसलिए उनकी अवधि भी निश्चित होती है 15 मिनट, 30 मिनट, 45 मिनट, 60 मिनट वगैरह। सिनेमा या नाटक में दर्शक अपने घरों से बाहर निकल कर किसी अन्य सार्वजनिक स्थान पर एकत्रित होते हैं इसका मतलब वो इन आयोजनों के लिए एक प्रयास करते हैं और अनजाने लोगों के एक समूह का हिस्सा बनकर प्रेक्षागृह में बैठते हैं। अंग्रेज़ी में इन्हें कैपटिव ऑडिएंस कहते हैं, अर्थात एक स्थान पर कैद किए गए दर्शक। जबकि टी.वी. या रेडियो ऐसे माध्यम हैं कि आमतौर पर इंसान अपने घर में अपनी मर्जी से इन यंत्रों पर आ रहे कार्यक्रमों को देखता–सुनता है। सिनेमाघर या नाट्यगृह में बैठा दर्शक थोड़ा बोर हो जाएगा, लेकिन आसानी से उठ कर जाएगा नहीं। पूरे मनोयोग से जो कार्यक्रम देखने आया है, देखेगा। जबकि घर पर बैठ कर रेडियो सुननेवाला श्रोता मन उचटते ही किसी और स्टेशन के लिए सुई घुमा सकता है या उसका ध्यान कहीं और भी भटक सकता है।
प्रश्न 4 – रेडियो नाटक के लिए किन तीन मुख्य बातों का विचार करना चाहिए और क्यों ?
उत्तर – रेडियो नाटक के लिए निम्नलिखित तीन मुख्य बातों पर विचार करना चाहिए- संवाद, ध्वनि प्रभाव और संगीत। संवाद रेडियो नाटक का मुख्य आधार हैं क्योंकि वे श्रोताओं को कहानी से जोड़ते हैं और पात्रों के चरित्र को उजागर करते हैं। ध्वनि प्रभाव कहानी को जीवंत बनाते हैं और दृश्य तत्वों की कमी को पूरा करते हैं। संगीत संवाद और ध्वनि प्रभावों का समर्थन करता है और नाटक में भावनात्मक गहराई जोड़ता है।
प्रश्न 5 – रेडियो नाटक के लेखन तथा सिनेमा और रंगमंच के लेखन में क्या अंतर है ? रेडियो नाटक के लेखन में संप्रेषण कैसे होता है ?
उत्तर – रेडियो नाटक, सिनेमा और रंगमंच तीनों के लेखन में मुख्य अंतर यह है कि रेडियो नाटक पूरी तरह से श्रव्य माध्यम है, जबकि सिनेमा और रंगमंच में दृश्य भी होते हैं। रेडियो नाटक में केवल संवाद और ध्वनि प्रभाव होते हैं, जबकि सिनेमा और रंगमंच में दृश्य, रंग, प्रकाश आदि भी महत्वपूर्ण होते हैं।
रेडियो नाटक में, संप्रेषण संवाद, ध्वनि प्रभाव, संगीत और आवाज के माध्यम से होता है, क्योंकि दृश्य नहीं होते।
प्रश्न 6 – रेडियो नाटक का लेखन सिनेमा और रंगमंच के लेखन से भिन्न कैसे है ?
उत्तर – सिनेमा और रंगमंच की तरह रेडियो नाटक में भी चरित्र होते हैं उन चरित्रों के आपसी संवाद होते हैं और इन्हीं संवादों के ज़रिये आगे बढ़ती है कहानी। बस सिनेमा और रंगमंच की तरह रेडियो नाटक में विजुअल्स अर्थात दृश्य नहीं होते। यही सबसे बड़ा अंतर है, रेडियो नाटक तथा सिनेमा या रंगमंच के माध्यम में। रेडियो पूरी तरह से श्रव्य माध्यम है इसीलिए रेडियो नाटक का लेखन सिनेमा व रंगमंच के लेखन से थोड़ा भिन्न भी है और थोड़ा मुश्किल भी। आपको सब कुछ संवादों और ध्वनि प्रभावों के माध्यम से संप्रेषित करना होता है। यहाँ आपकी सहायता के लिए न मंच सज्जा तथा वस्त्र सज्जा है और न ही अभिनेता के चेहरे की भाव–भंगिमाएँ। वरना बाकी सब कुछ वैसा ही है। एक कहानी, कहानी का वही ढाँचा, शुरुआत–मध्य–अंत, इसे यूँ भी कह सकते हैं, परिचय–द्वंद्व–समाधान। बस ये सब होगा आवाज़ के माध्यम से। रेडियो नाटक की अवधि ही सीमित है, तो फिर अपने–आप ही पात्रों की संख्या भी सीमित हो जाएगी। क्योंकि श्रोता सिर्फ आवाज़ के सहारे चरित्रों को याद रख पाता है, ऐसी स्थिति में रेडियो नाटक में यदि बहुत ज़्यादा किरदार हैं तो उनके साथ एक रिश्ता बनाए रखने में श्रोता को दिक्कत होगी।
प्रश्न 7 – ‘संवाद’ से जुड़ा वह कौन-सा तथ्य है जो रेडियो नाटक पर विशेष रूप से लागू होता है और क्यों ?
उत्तर – रेडियो नाटक में संवाद का महत्व बहुत अधिक होता है क्योंकि यह केवल श्रवण पर आधारित होता है। दृश्यता का अभाव होने के कारण, संवाद के माध्यम से ही कहानी को आगे बढ़ाया जाता है। संवाद में भावनाओं, चरित्रों और घटनाओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त करना आवश्यक होता है। इसलिए, संवाद का चयन और प्रस्तुति रेडियो नाटक में विशेष रूप से महत्वपूर्ण होती है।
प्रश्न 8 – मंच पर अभिनीत किए जाने वाले नाटकों से रेडियो नाट्य लेखन में क्या अंतर है और क्यों ?
उत्तर – मंच का नाट्यालेख, फिल्म की पटकथा और रेडियो नाट्यलेखन में काफी समानता है। सबसे बड़ा फर्क यही है कि इसमें दृश्य गायब है, उसका निर्माण भी ध्वनि प्रभावों और संवादों के ज़रिये करना होगा। ध्वनि प्रभाव में संगीत भी शामिल है। सिनेमा और रंगमंच की तरह रेडियो नाटक में भी चरित्र होते हैं उन चरित्रों के आपसी संवाद होते हैं और इन्हीं संवादों के ज़रिये आगे बढ़ती है कहानी। बस सिनेमा और रंगमंच की तरह रेडियो नाटक में विजुअल्स अर्थात दृश्य नहीं होते। यही सबसे बड़ा अंतर है, रेडियो नाटक तथा सिनेमा या रंगमंच के माध्यम में। रेडियो पूरी तरह से श्रव्य माध्यम है इसीलिए रेडियो नाटक का लेखन सिनेमा व रंगमंच के लेखन से थोड़ा भिन्न भी है और थोड़ा मुश्किल भी। आपको सब कुछ संवादों और ध्वनि प्रभावों के माध्यम से संप्रेषित करना होता है। यहाँ आपकी सहायता के लिए न मंच सज्जा तथा वस्त्र सज्जा है और न ही अभिनेता के चेहरे की भाव-भंगिमाएँ। वरना बाकी सब कुछ वैसा ही है। एक कहानी, कहानी का वही ढाँचा, शुरुआत-मध्य-अंत, इसे यूँ भी कह सकते हैं, परिचय-द्वंद्व-समाधान। बस ये सब होगा आवाज़ के माध्यम से।
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Chapter 13 – नए और अप्रत्याशित विषयों पर लेखन
प्रश्न 1 – नए एवं अप्रत्याशित विषयों पर लेखन से आप क्या समझते हैं ? यह एक चुनौती कैसे है ?
उत्तर – ऐसे लेखन के लिए किसी भी तरह के विषय दिए जा सकते हैं, उनकी संख्या अपरिमित है। जैसे आपके सामने की दीवार, उस दीवार पर टंगी घड़ी, उस दीवार में बाहर की ओर खुलता झरोखा इत्यादि। ऐसे विषय भी हो सकते हैं, जिनमें इनके मुकाबले खुलापन थोड़ा कम हो और ‘फोकस’ अधिक स्पष्ट हो। जैसे टी.वी. धारावाहिकों में स्त्री, बहुत ज़रूरी है शिक्षा, इत्यादि।
इस तरह के लेखन में विषय दो खंभों के बीच बंधी रस्सी की तरह नहीं होता, जिस पर चलते हुए हम एक कदम भी इधर–उधर रखने का जोखिम नहीं उठा सकते। बहुत खुलापन रखने वाले विषयों पर अगर हम शताधिक कोणों से विचार कर सकते हैं, तो उनसे भिन्न, किंचित केंद्रित प्रकृति के विषयों पर विचार करने के कोण स्वाभाविक रूप से थोड़े कम होते हैं। किसी भी विषय पर एक ही व्यक्ति के ज़ेहन में कई तरीकों से सोचने की प्रवृत्ति होती है। शुरुआत आकर्षक होने के साथ–साथ निर्वाह–योग्य भी हो। शुरुआत से आगे बात कैसे सिलसिलेवार बढ़ेगी, इसकी एक रूपरेखा ज़ेहन में होनी चाहिए। जब विषय पर विचार करने की चौहद्दियाँ बहुत सख्ती से तय न कर दी गई हों, उस सूरत में सुसंबद्धता बनाए रखने के लिए कोशिश करनी पड़ती है।
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