CBSE Class 12 Hindi Core Abhivyakti Aur Madhyam Book Chapter 13 नए और अप्रत्याशित विषयों पर लेखन Summary
इस पोस्ट में हम आपके लिए CBSE Class 12 Hindi Core Abhivyakti Aur Madhyam Book के Chapter 13 नए और अप्रत्याशित विषयों पर लेखन का पाठ सार लेकर आए हैं। यह सारांश आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे आप जान सकते हैं कि इस कहानी का विषय क्या है। इसे पढ़कर आपको को मदद मिलेगी ताकि आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। Naye Aur Apratyashit Vishyon Par Lekhna Summary of CBSE Class 12 Hindi Core Abhivyakti Aur Madhyam Chapter 13.
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नए और अप्रत्याशित विषयों पर लेखन पाठ का सार (Naye Aur Apratyashit Vishyon Par Lekhan Summary)
अप्रत्याशित विषयों पर लेखन कम समय में अपने विचारों को संकलित कर उन्हें सुंदर और सुघड़ ढंग से अभिव्यक्त करने की चुनौती है। आपने आसपास की घटनाओं को देखते हुए अपने समय और समाज की जो तसवीर आपके मन में बनती है, क्या उसे आप एक लेख में व्यक्त कर सकते हैं?
किसी भी घटना या परिस्थिति को लेख की शक्ल देना, उसे शब्दों के सहारे पन्नों पर उकेरना–बहुत से लोगों के लिए यह मुश्किल काम है। जिन विचारों को कह डालना कठिन नहीं होता, उन्हें लिख डालने का निमंत्रण एक चुनौती की तरह लगने लगता है। इसके अनगिनत कारण हो सकते हैं, परन्तु एक मुख्य कारण यह है कि ज्यादातर लोग आत्मनिर्भर होकर लिखित रूप में अभिव्यक्ति का अभ्यास ही नहीं करते। अभ्यास के हर मौके को हम रटंत पर निर्भर होकर गँवा बैठते हैं।
रटंत का मतलब है, दूसरों के द्वारा तैयार की गई सामग्री को याद करके ज्यों–का–त्यों प्रस्तुत कर देने की कुटेव (बुरी लत)। इस कुटेव का शिकार हो जाने पर असली अभ्यास या रियाज़ का मौका ही कहाँ मिलता है? लेखन का आशय यहाँ यांत्रिक हस्तकौशल से नहीं है। उसका आशय भाषा के सहारे किसी चीज़ पर विचार करने और उस विचार को व्याकरणिक शुद्धता के साथ सुसंगठित रूप में अभिव्यक्त करने से है। भाषा विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम ही नहीं, स्वयं विचार करने का साधन भी है। विचार करने और उसे व्यक्त करने की यह प्रक्रिया निबंध के चिरपरिचित विषयों के साथ आमतौर पर घटित नहीं हो पाती। इसका कारण यह है कि उन विषयों पर तैयारशुदा सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहती है और हम कुछ नया सोचने–लिखने की ज़हमत उठाने के बजाय उसी सामग्री पर निर्भर हो जाते हैं। मौलिक प्रयास एवं अभ्यास को बाधित करने वाली यह निर्भरता हमारे अंदर लिखित अभिव्यक्ति की क्षमता विकसित नहीं होने देती। इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि हम निबंध के परंपरागत विषयों को छोड़ कर नए तरह के विषयों पर लिखने का अभ्यास करें। यही अभ्यास हमें अपने मौलिक अधिकारों में से एक–अभिव्यक्ति के अधिकार का पूरा–पूरा उपयोग कर पाने की सामर्थ्य देगा।
अप्रत्याशित विषयों पर लेखन के विषय –
ऐसे लेखन के लिए किसी भी तरह के विषय दिए जा सकते हैं, उनकी संख्या अपरिमित है। जैसे आपके सामने की दीवार, उस दीवार पर टंगी घड़ी, उस दीवार में बाहर की ओर खुलता झरोखा इत्यादि। ऐसे विषय भी हो सकते हैं, जिनमें इनके मुकाबले खुलापन थोड़ा कम हो और ‘फोकस’ अधिक स्पष्ट हो। जैसे टी.वी. धारावाहिकों में स्त्री, बहुत ज़रूरी है शिक्षा, इत्यादि।
अप्रत्याशित विषयों की माँग –
अप्रत्याशित विषय कुछ भी हो सकते हैं अतः ये अलग–अलग प्रकृति के हो सकते हैं और इसीलिए इनकी माँग भी अलग–अलग किस्म की होगी।
- कोई विषय तार्किक विचार प्रक्रिया में उतारना चाहता है।
- कोई आपसे यह माँग करता है कि जो कुछ आपने देखा–सुना है या देख–सुन रहे हैं, उसे थोड़ी बारीकी से पुनःसंकलित करते हुए एक व्यवस्था में ढाल दें।
- कोई अपनी स्मृतियों को खंगालने के लिए आपको प्रेरित करता है।
- कोई अनुभव का सैद्धांतिक नज़रिये से जाँचने–परखने के लिए आपको उकसाता है।
अप्रत्याशित विषयों की माँगों के जवाब में हम जो कुछ लिखेंगे, वह कभी निबंध बन पड़ेगा, कभी संस्मरण, कभी रेखाचित्र की शक्ल लेगा, तो कभी यात्रावृत्तांत की। इसीलिए हम उसे एक सामान्य नाम देंगे–लेख, ताकि ऐसा न लगे कि किसी विधा विशेष के भीतर ही लेखन करने का दबाव बन रहा है।
अप्रत्याशित विषयों पर लेख प्रस्तुत करने की चुनौती सामने हो, तो क्या करना चाहिए?
यह सत्य है कि लिखने का कोई फॉर्मूला आज तक दुनिया में नहीं बना। अगर फॉर्मूला होता, तो कंप्यूटर हमारे मुकाबले बेहतर लेखक साबित हो सकता था। कुछ ऐसे सुझाव दिए जा सकते हैं, जो अचानक सामने आए विषय से मुखामुखम होने में मददगार साबित हो सकते हैं।
- इस तरह के लेखन में विषय दो खंभों के बीच बंधी रस्सी की तरह नहीं होता, जिस पर चलते हुए हम एक कदम भी इधर–उधर रखने का जोखिम नहीं उठा सकते। वह तो खुले मैदान की तरह होता है, जिसमें बेलाग दौड़ने, कूदने और कुलाँचे भरने की छूट होती है।
- असल में ऐसे विषय के साहचर्य से जो भी सार्थक और सुसंगत विचार हमारे मन में आते हैं, उन्हें हम यहाँ व्यक्त कर सकते हैं।
- अपेक्षाकृत स्पष्ट फोकस वाले विषय मिलने पर (मसलन, टी.वी. धारावाहिकों में स्त्री) इस विचार–प्रवाह को थोड़ा नियंत्रित रखना पड़ता है। इन पर लिखते हुए विषय में व्यक्त वस्तुस्थिति की हम उपेक्षा नहीं कर सकते।
- बहुत खुलापन रखने वाले विषयों पर अगर हम शताधिक कोणों से विचार कर सकते हैं, तो उनसे भिन्न, किंचित केंद्रित प्रकृति के विषयों पर विचार करने के कोण स्वाभाविक रूप से थोड़े कम होते हैं।
- किसी भी विषय पर एक ही व्यक्ति के ज़ेहन में कई तरीकों से सोचने की प्रवृत्ति होती है। ऐसी स्थिति अगर आपके साथ हो, तो सबसे पहले दो–तीन मिनट ठहर कर यह तय कर लें कि उनमें से किस कोण से उभरनेवाले विचारों को आप थोड़ा विस्तार दे सकते हैं। यह तय कर लेने के बाद एक आकर्षक–सी शुरुआत पर विचार करें।
- शुरुआत आकर्षक होने के साथ–साथ निर्वाह–योग्य भी हो। ऐसा न हो कि जो कुछ कहना चाहते हैं, उसे प्रस्थान के साथ सुसंबद्ध और सुसंगत रूप में पिरो पाना मुमकिन ही न हो।
- शुरुआत से आगे बात कैसे सिलसिलेवार बढ़ेगी, इसकी एक रूपरेखा ज़ेहन में होनी चाहिए। वस्तुतः सुसंबद्धता किसी भी तरह के लेखन का एक बुनियादी नियम है। खासतौर से, जब विषय पर विचार करने की चौहद्दियाँ बहुत सख्ती से तय न कर दी गई हों, उस सूरत में सुसंबद्धता बनाए रखने के लिए कोशिश करनी पड़ती है।
विवरण–विवेचन के सुसंबद्ध होने के साथ–साथ उसका सुसंगत होना भी अच्छे लेखन की एक खासियत है। आपकी कही गई बातें न सिर्फ आपस में जुड़ी हुई हों, बल्कि उनमें तालमेल भी हो। अगर आपकी दो बातें आपस में ही एक–दूसरे का खंडन करती हों, तो यह लेखन का ही नहीं, किसी भी तरह की अभिव्यक्ति का एक अक्षम्य दोष है।
लेख–चाहे संस्मरणात्मक हो, रेखाचित्रात्मक हो अथवा वैचारिक, उसकी सुसंबद्धता और सुसंगति के प्रति हर लेखक को सचेत होना चाहिए। वैसे हमारे सोचने की प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से इन गुणों को धारण करती ही है, फिर भी सचेत न रहने पर, संभव है, ये गुण कहीं–कहीं नदारद हो जाएँ!
सामान्यतः निबंधों या आलेखों / प्रश्नोत्तरों में जहाँ ‘मैं’ शैली का प्रयोग वर्जित होता है, वहीं इस तरह के लेखन में ‘मैं’ की आवाजाही बेरोकटोक चल सकती है।
यहाँ विषय की प्रकृति में ही निहित होता है कि लेख में व्यक्त विचारों में आत्मनिष्ठता और लेखक के व्यक्तित्व की छाप होगी। इसलिए अन्यत्र वस्तुनिष्ठता के आग्रह से ‘मैं’ शैली को भले ही ठीक न माना जाता हो, यहाँ उस पर कोई प्रतिबंध नहीं होता।
अप्रत्याशित विषयों के कुछ उदहारण –
‘दीवाल घड़ी’ एक बिलकुल खुला हुआ विषय है। इस विषय के साथ आपके ज़ेहन में जो भी खयाल उभर रहे हैं, उन्हें सुसंगत तरीके से शब्दबद्ध करने के लिए तीन उदाहरण दिए गए हैं जिन्हें पढ़ने से लेखन सम्बन्धी बातें स्पष्ट हो जाएगी।
दीवाल घड़ी-1
उसे देखते ही किसी फ़िल्म का एक खूबसूरत–सा दृश्य याद आता है। घड़ियों की एक दुकान में नायक–नायिका की मुलाकात होती है। हर तरफ भाँति–भाँति की घड़ियाँ टँगी हैं। बारह बजने ही वाले हैं। ज्यों ही नायक कुछ कहना चाहता है। और वह कुछ बड़ा ही मानीखेज़ है–घड़ियों की सुइयाँ बारह पर पहुँच जाती हैं और एक–एक कर सारी घड़ियों से बारह बार घंटी बजने की आवाज़ उठने लगती है। अगले कुछ सेकेंड तक ऐसा संगीतमय शोर गूँजता रहता है कि नायक हकला कर चुप रह जाता है। घड़ियों ने मानो उसका मंच ही छीन लिया हो! फिर नायक–नायिका, दोनों इस मधुर विडंबना पर मुसकराते हुए एक–दूसरे को देखते रह जाते हैं… यह खूबसूरत दृश्य मेरी याददाश्त में उसी तरह टँगा है, जिस तरह दीवार पर घड़ी टँगी होती है। कहीं आती–जाती नहीं, हमेशा स्थिर, फिर भी गतिशील!
ऐसी कई स्मृतियाँ दीवाल घड़ी के साथ जुड़ी हैं। मेरे घर में जब पहली दीवाल घड़ी खरीद कर आई (वही अभी तक की आखिरी भी है), तो उसे टाँगने की जुगत में पूरा घर जिस तरह लगा रहा, उसकी याद आते ही बेसाख्ता हँसी छूट जाती है। हम सब उस दिन अंकल पोज़र की मुद्रा में थे। हर कोई भवनशास्त्र से लेकर सौंदर्यशास्त्र तक का विशेषज्ञ होने का दावा कर रहा था। ‘घड़ी यहाँ टँगनी चाहिए’। ‘नहीं, वहाँ टँगनी चाहिए’। कील ऐसे ठोंकी जानी चाहिए, ‘नहीं, वैसे ठोंकी जानी चाहिए’ ‘घड़ी हाथ की पहुँच में होनी चाहिए’, ‘नहीं, पहुँच से बाहर होनी चाहिए’। ये सारी बहसें हम तमाम विशेषज्ञों के बीच चलती रहीं और अंत में जब सर्वसम्मति से किसी फॉर्मूले के तहत काम संपन्न हो पाया, तब तक दीवार पर कम–से–कम छह जगह उसे टाँगे जाने की कोशिशों के निशान छूट चुके थे। अगली दीवाली पर उन गड्डों के भरे जाने तक दीवाल घड़ी तारों के बीच चमकते धवल चाँद की तरह स्थापित रही। चाँद तो अब भी है, पर तारे नहीं रहे। यह चाँद ऐसा है, जो तकरीबन सभी मध्यवर्गीय घरों में पाया जाता है। मेरी ही तरह उन घरों के बाशिंदों के मन में भी उसे लेकर कुछ–न–कुछ यादें बसी होंगी। यह कितना अजीब है कि जो प्रतिक्षण समय के बीते जाने पर टकटकी लगाए रखता है, वही स्मृतियों के रूप में हमारे भीतर समय को कहीं स्थिर भी कर देता है।
दीवाल घड़ी-2
वह मेरे ठीक सामने है, एक साफ–सुथरी दीवार पर कील के सहारे टँगी हुई। कील दिखती नहीं। इसका मतलब यह कि कील पर उसके टँगे होने का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं है। लेकिन तर्कशास्त्रियों ने तो तर्कसंगत अनुमान को भी प्रमाण की ही श्रेणी में रखा है। इसलिए तर्क पर आधारित यह अनुमान बिलकुल निरापद है कि घड़ी कील के सहारे टँगी है।… वह अपनी जगह बिलकुल स्थिर है, पता नहीं कब से, लेकिन चल रही है। उसके काँटों में एक अनवरत चक्रीय गति है। चक्र या वृत्त की न कोई शुरुआत होती है, न उसका अंत होता है। इस तरह इन काँटों की चक्रीय गति हमें बताती है कि समय अनादि अनंत है। घड़ी को दीवार के आसन पर बिठा कर मानो यही बताते रहने का जि़्म्मा सौंप दिया गया है कि समय लगातार बीत रहा है, पर खत्म होने के लिए नहीं। यह विरोधाभास–सा लगता है ना! किसी झुके हुए मर्तबान से लगातार पानी गिर रहा है, पर न पानी कम होता है, न मर्तबान खाली होता है। गौर करें तो यह विरोधाभास नहीं है। समय अनंत है, पर हम सबका अपना–अपना समय अनंत नहीं।
घड़ी के चक्र में हर थोड़ी–थोड़ी दूरी पर जो लकीरें हैं, वे समय के कृत्रिम खंड ही सही, वे हमें बताती हैं कि हर इंसान का, हर चीज़ का और हर काम का अपना समय होता है। वह शुरू भी होता है और खत्म भी। याद आता है, कौन बनेगा करोड़पति का वह छोटा–सा बहुचखचत जुमला-‘तो आपका समय शुरू होता है अब!’
दीवाल घड़ी-3
वह मेरे ठीक सामने है, एक साफ–सुथरी दीवार पर कील के सहारे टँगी हुई। बिलकुल स्थिर है अपनी जगह पर, पता नहीं कब से, पर लगातार चल रही है, हिंदी में टिक–टिक–टिक–टिक और अंग्रेज़ी में टिक–टॉक, टिक–टॉक! उसे अंग्रेज़ी या हिंदी नही आती, पर दोनों तरह के भाषा–भाषी उसकी पदचाप को अपने–अपने तरीके से सुनते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कुत्तों को अंग्रेज़ी या हिंदी नहीं आती, पर अंग्रेजी समाज के लिए वह बाउ–बाउ करता है और हिंदी समाज के लिए भौं–भौं! टिक–टिक या टिक–टॉक की पदचाप के साथ लगातार चलायमान यह घड़ी सामने की दीवार पर एक खूबसूरत–सी बिंदी के समान दिख रही है। कमरे की चारों दीवारों पर कहीं भी और कुछ नहीं है–न कोई पेंटिंग, न कैलेंडर। ऐसे में इस गोलाकार घड़ी का वजूद सिर्फ उपयोगितावादी नहीं लगता। वह खूबसूरती के लिए भी है। दीवार की हल्की पीली रंगत के साथ उसका भूरा रंग एक नयनाभिराम कंट्रास्ट रचता है और उसकी अनथक चलती सुइयाँ दीवारों की स्थिरता के बीच एक जीवंत स्पंदन भरती हैं। दीवारों की खामोशी और स्थिरता के बीच वह ऐसी दिखती है, मानो कोई बच्चा चुपचाप बैठे रहने की सजा निभा रहा हो, पर उसकी आँखें लगातार बोल रही हों। हाँ, वह बोल रही है, न अंग्रेज़ी में, न हिंदी में, बल्कि एक ऐसी ज़बान में, जिसे इस धरती पर रहनेवाला हर समझदार इंसान समझता है। कुछ ज़्यादा नहीं है उसके पास कहने के लिए। वह तो सिर्फ इतना कह रही है कि वक्त किसी के लिए नहीं ठहरता। बात बड़ी है, भले ही इस घड़ी की सुइयाँ मेरी कलम के आकार से ज़्यादा बड़ी न हों! बस, एक चीज़ अखरती है। लगानेवाले ने उसे ऐसी जगह लगाया है कि उसे देखो, तो खिड़की की तरफ पीठ करनी पड़ती है। काश, ऐसा न होता!
इन नमूनों में से पहला मुख्यतः स्मृति–आधारित है। दीवाल–घड़ी को देख कर जो यादें मन में उभर आई हैं, उन्हें लेखक एक तरतीब दे रहा है। तरतीब देने के सिलसिले में ध्यान इस बात का रखा गया है कि वे स्मृतियाँ पाठक को दिलचस्प जान पड़ें! साथ ही, यथासंभव उन स्मृतियों से कहीं एक–दो वाक्यों में ऐसा निचोड़ निकाला जाए कि वे किसी सामान्य सत्य–यानी एक बड़े धरातल पर अनुभव किए जानेवाले सत्य की ओर इशारा करने लगें।
दूसरा नमूना दार्शनिक मिजाश का है। यहाँ लेखक दीवाल घड़ी को देखता है और रोज़मर्रा की छोटी–मोटी चीजों से ऊपर उठ कर कुछ ऐसे गंभीर प्रश्नों की ओर उन्मुख हो जाता है, जो उस घड़ी के साथ एक क्षीण तंतु से जुड़े हैं।
तीसरा नमूना मुख्यतः अवलोकन–आधारित है। सामने की दीवार पर एक घड़ी दिखती है और उसकी खूबसूरती, गति, आवाज़, टँगे होने का अंदाज़–ये सारी चीज़े लेखक की टिप्पणी का विषय बन जाती हैं।
तरीवेफ और भी हो सकते हैं। मसलन, किसी ज्वलंत सामाजिक–सांस्कृतिक प्रश्न (जातिवाद का ज़हर) पर लिखना हो, तो आप तथ्य और उसका विश्लेषण प्रस्तुत करने की पद्धति अपना सकते हैं। किसी खास जगह के दृश्य (मेरे मुहल्ले का चौराहा) को उकेरना हो, तो आप कल्पना में उस दृश्य को उपस्थित मान कर चल–कैमरे की तरह अनेक ब्योरों को समेट सकते हैं! किसी प्रवृत्ति या चलन पर लिखना हो, तो उसके गुणावगुण पर तर्कपूर्वक विचार कर सकते हैं।
‘जातिवाद का ज़हर’, विषय हो तो कल्पना की उड़ान वाली शैली नहीं अपनाई जा सकती। क्योंकि यह एक ज्वलंत सामाजिक मुद्दा है, जो ठोस विश्लेषण और स्पष्ट राय की माँग करता है।
जातिवाद का ज़हर
ज़हर जीवित शरीर को मौत की नींद सुला देता है और अगर शरीर की प्रतिरोध क्षमता के कारण वह ऐसा न कर पाए, तब भी शरीर की व्यवस्था में भयंकर उथल–पुथल मचा कर उसे अशक्त और बीमार तो बना ही देता है। मानव–समाज के जीवित शरीर में जातिवाद ने ऐसे ही ज़हर का काम किया है। हमारे जिन पुरखों ने कर्म के आधार पर वर्ण तय किए थे, उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि कल को यह विचार जन्मना जातिव्यवस्था में परिणत हो जाएगा और इसके चलते गर्भ में शिशु के आते ही उसकी नियति तय हो जाया करेगी। उन्हें इस बात का शायद ही अंदाजा रहा हो कि वे जो बीज बो रहे हैं, उससे ऐसा विषवृक्ष निकलेगा, जो आगे हजारों सालों तक गैर–बराबरी और शोषण–उत्पीड़न का आधार बन कर समाज की तंदुरुस्ती का क्षय करता रहेगा। आज हम बड़े–बड़े औद्योगिक संयत्रों, तीव्र गतिवाले परिवहन–साधनों, स्वचालित उपकरणों, कंप्यूटर और इंटरनेट के युग में जी रहे हैं, फिर भी जन्म के आधार पर कुछ लोगों को अपना और कुछ को पराया मानने, कुछ को बड़ा और कुछ को क्षुद्र मानने की सदियों पुरानी परिपाटी कायम है। आए दिन अखबारों में इस तरह की खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि फलाँ गाँव या कस्बे में किसी प्रेमी युगल को इसलिए मार डाला गया कि उन्होंने अलग–अलग जातियों से आने के बावजूद साथ जीवन बिताने का सपना देखा था। ऐसी खबरों का दुहराव होने में भी ज्यादा अंतराल नहीं आता कि किसी गाँव में एक जातिविशेष के टोले पर दूसरी जाति के लोगों ने हमला कर दिया और महिलाओं–बच्चों समेत बड़ी संख्या में लोग मारे गए। यह कहना गलत न होगा कि जातिवादी तनाव हमारे रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा बन बैठा है, जो गाहे–बगाहे अपना चरम रूप धारण कर लेता है और अपने तांडव में कितनी ही जिंदगियों को उजाड़ देता है।
सामान्य रूप से यह माना जाता है कि आधुनिक लोकतंत्र ऐसी मानवविरोधी परिपाटियों के वजूद को मिटा डालता है, पर हमारे यहाँ मंज़र ही उलटा है। हमारे
लोकतांत्रिक चुनावों ने जातिवादी भावनाओं को और गहरा बनाने का काम किया है! अलग–अलग जातियाँ राजनीतिक दलों के वोट बैंकों में तब्दील हो गई हैं। ऐसे में कोई उम्मीद भी कैसे कर सकता है कि यह लोकतंत्र जातिवाद की जड़ों पर प्रहार कर पाएगा! राजनीति में जब जातिगत आधारों पर गोलबंदियाँ होती हैं, तब स्वाभाविक है कि हमारे गली–मोहल्ले, हमारे काम के स्थान, हमारे शिक्षण–संस्थान इत्यादि भी इस तरह की गोलबंदियों से मुक्त नहीं होंगे। जिस तरह शरीर में प्रवेश करनेवाला ज़हर धमनियों में दौड़ते खून की मदद से अंग–प्रत्यंगों तक पहुँच जाता है, वैसे ही जातिवाद का ज़हर समाज के हर अंग को अपनी जकड़ में ले चुका है। पर इस समाज की जिजीविषा अद्भुत है। वह इस ज़हर को परास्त करके ही रहेगा, क्योंकि इसे जीना है और वह भी तंदुरुस्त रहकर, घिसट–घिसट कर नहीं। जातिवाद से फायदा उठानेवाले लोग मुट्टीभर हैं और उसका नुकसान झेलनेवाले बहुसंख्यक–इस बात को समझने के संकेत हिंदुस्तान की जनता देने लगी है। जिस दिन उसकी सोच पर पड़े सारे झोल को चीर कर यह बात साफ–साफ दिखने लगेगी, उसी दिन इस मारक विष का सही उपचार शुरू हो पाएगा।