Kabir Ke Pad Summary

 

CBSE Class 11 Hindi Chapter 9 “Kabir Ke Pad”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Aroh Bhag 1 Book

इस पोस्ट में हम आपके लिए CBSE Class 11 Hindi Aroh Bhag 1 Book के Chapter 9 कबीर के पद का पाठ सार और व्याख्या लेकर आए हैं। यह सारांश और व्याख्या आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे आप जान सकते हैं कि इस कहानी का विषय क्या है। इसे पढ़कर आपको को मदद मिलेगी ताकि आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। Kabir Ke Pad Summary, Explanation of CBSE Class 11 Hindi Aroh Bhag-1 Chapter 9.

 

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कबीर के पद पाठ सार (Kabir Ke Pad Summary)

 

कबीरदास जी दवारा रचित ये पद जयदेव सिंह और वासुदेव सिंह द्वारा संकलित और संपादित “कबीर वाङ्मय – खंड 2 (सबद) “ से लिया गया हैं। कबीरदास जी अद्वैतवाद के सिद्धांत को मानते हैं। वो निर्गुण , सर्वव्यापक , अविनाशी , निराकार परब्रह्म के उपासक थे। इसीलिए वो कहते थे कि ईश्वर एक ही हैं और उसी ईश्वर की सत्ता इस पूरी सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है। कबीर जी ने परमात्मा को सृष्टि के कण-कण में देखा है, ज्योति रूप में स्वीकारा है तथा उसकी व्याप्ति चराचर संसार में दिखाई है। वो आत्मा को भी परमात्मा का ही अंश मानते हैं। संसार के लोग अज्ञानवश इन्हें अलग-अलग मानते हैं। कवि पानी, पवन, प्रकाश आदि के उदाहरण देकर उन्हें एक जैसा बताता है। बाढ़ी लकड़ी को काटता है, परंतु आग को कोई नहीं काट सकता। परमात्मा सभी के हदय में विद्यमान है। माया के कारण इसमें अंतर दिखाई देता है। कबीरदासजी ईश्वर प्राप्ति के लिए बाह्य आडंबरों का विरोध करते हैं। वो कहते हैं कि ईश्वर हमारे अंदर ही समाया हैं। वह बहुत सरलता से हमें प्राप्त हो जाता हैं। बस जरूरत हैं अपने अंदर झाँक कर देखने की, ईश्वर के उस सत्य को जानने की। कबीर प्रभु भक्ति में लीन हो गये हैं। उनके प्रेम में डूब गए हैं। और वो इस सांसारिक मोह को छोड़ चुके हैं। इसीलिए कबीरदास कहते हैं कि हे! मनुष्य तू इस संसार के झूठे मोह-माया, भौतिक सुख सुविधाओं के प्रति आकर्षित होकर व्यर्थ में अभिमानी हो रहा हैं। कबीर जान चुके हैं कि आत्मा परमात्मा एक हैं। और सभी उसी परमात्मा की संतान हैं। इसीलिए वो संसारिक मायामोह से दूर होकर और निर्भय होकर एक दीवाने की तरह प्रभु भक्ति में लीन हो चुके हैं।

 

कबीर के पद व्याख्या (Kabir Ke Pad Explanation)

 

1.
हम तौ एक एक करि जांनां ।
दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां ।।

शब्दार्थ –
एक – परमात्मा
दोई – दो
तिनहीं – उनको
दोजग – नरक
नाहिंन – नहीं

व्याख्या – कबीरदास कहते हैं कि हम तो एक ही ईश्वर को जानते हैं। जिसने इस सम्पूर्ण सृष्टि की रचना की हैं और जो इस जगत के हर प्राणी मात्र के अंदर समाया हैं। जो परमात्मा के इस सत्य को नहीं जान पाये हैं और उसको एक नहीं बल्कि दो मानते है वो नर्क के भागी होते हैं। यानि आत्मा व परमात्मा एक ही हैं और पूरे संसार में एक ही ईश्वर की सत्ता हैं। जो लोग ईश्वर को अलग-अलग मानते हैं। वो नर्क के अधिकारी हैं। अर्थात उनको नर्क ही प्राप्त होगा।

2.
एकै पवन एक ही पानीं एकै जाेति समांनां ।
एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै काेंहरा सांनां ।।

शब्दार्थ –
एकै – एक
पवन – हवा
जोति – प्रकाश
समाना – व्याप्त
खाक – मिट्टी
गढ़े – रचे हुए
भांड़े – बर्तन
कोहरा – कुम्हार
सांनां – एक साथ मिलकर

व्याख्या – कबीरदास कहते हैं कि एक ही हवा है। एक ही पानी है। और एक ही ईश्वर हैं। और इस संसार के हर इंसान के भीतर उसी ईश्वर का अंश ज्योति रूप में समाया है। कबीरदास कहते हैं कि जैसे कुम्हार एक ही मिट्टी से अनेक तरह के बर्तन बनाता है। ठीक उसी प्रकार ईश्वर रुपी कुम्हार ने भी एक ही मिट्टी से अनेक तरह के मनुष्य बनाये है। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी मनुष्यों का शरीर पंचतत्व (जल , वायु , अग्नि , आकाश और पृथ्वी) से बना है। जो मनुष्य के मर जाने पर मिट्टी में मिल जाता हैं।

3.
जैसे बाढी काष्ट ही काटै अगिनि न काटै कोई ।
सब घटि अंतरि तूँही व्यापक धरै सरूपै सोई ।।

शब्दार्थ –
बाढ़ी – बढ़ई
काष्ट – लकड़ी
अगिनि – आग
घटि – घड़ा, हृदय
अंतरि – भीतर, अंदर
व्यापक – विस्तृत
धरे – रखे
सरूपै – स्वरूप

व्याख्या – कबीर दास जी कहते हैं कि लकड़ी के भीतर आग हर वक्त मौजूद रहती है जो सिर्फ लकड़ी के जलने पर ही दिखाई देती हैं। कबीरदास कहते हैं कि जिस प्रकार बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है लेकिन उसके भीतर की आग को नहीं काट सकता। ठीक उसी प्रकार मनुष्य का शरीर भले ही मर जाता है क्योंकि वह नश्वर हैं लेकिन उसके भीतर की आत्मा अमर है क्योंकि वह परमात्मा का अंश है। अर्थात परमात्मा सभी जीवों के अंदर आत्मा के रूप में बसता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी प्राणियों के ह्रदय के भीतर वही ईश्वर अनेक रुप धर कर व्याप्त है।

4.
माया देखि के जगत लुभांनां काहे रे नर गरबांनां ।
निरभै भया कछू नहिं ब्यापै कहै कबीर दिवांनां ।।

शब्दार्थ –
जगत – संसार
लुभाना – मोहित होना
नर – मनुष्य
गरबानां – गर्व करना
निरभै – निडर
भया – हुआ
दिवानां – बैरागी

व्याख्या – इन पंक्तियों में कबीर प्रभु भक्ति में लीन हो गये हैं। उनके प्रेम में डूब गए हैं। और वो इस सांसारिक मोह को छोड़ चुके हैं। इसीलिए कबीरदास कहते हैं कि हे! मनुष्य तू इस संसार के झूठे मोह-माया, भौतिक सुख सुविधाओं के प्रति आकर्षित होकर व्यर्थ में अभिमानी हो रहा हैं। क्योंकि ये सब तो नश्वर हैं।कबीरदास कहते हैं कि इसीलिए संसार के सभी मोह-माया के बंधनों से मुक्त होकर, निडर होकर जियो और प्रभु भक्ति में लीन होकर उसे जानने व समझने की कोशिश करो। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस तरह कबीर जान चुके हैं कि आत्मा परमात्मा एक हैं। और सभी उसी परमात्मा की संतान हैं। इसीलिए वो संसारिक मायामोह से दूर होकर और निर्भय होकर एक दीवाने की तरह प्रभु भक्ति में लीन हो चुके हैं।

 

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