CBSE Class 11 Hindi Core Abhivyakti Aur Madhyam Book Chapter 1 जनसंचार माध्यम Summary
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जनसंचार माध्यम पाठ सार (Jansanchar Madhyam Summary)
आज के समय में हम संचार के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। मानव सभ्यता के विकास में संचार की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। संचार को परिभाषित करते हुए कहा जा सकता है कि संचार दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच सूचनाओं, विचारों और भावनाओं का आदान-प्रदान है। संचार एक प्रक्रिया है जिसमें कई तत्त्व शामिल हैं। संचार के कई प्रकार हैं जिनमें मौखिक और अमौखिक संचार के अलावा अंतःवैयक्तिक, अंतरवैयक्तिक, समूह संचार और जनसंचार प्रमुख हैं। जनसंचार कई मामलों में संचार के अन्य रूपों से अलग है। जनसंचार सूचना, शिक्षा और मनोरंजन के अलावा एजेंडा तय करने का काम भी करता है। भारत में जनसंचार के विभिन्न माध्यमों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। जनसंचार माध्यमों का लोगों पर सकारात्मक के साथ-साथ नकारात्मक प्रभाव भी पड़ता है। इन नकारात्मक प्रभावों के प्रति लोगों का सचेत होना बहुत ज़रूरी है।
संचार-परिभाषा और महत्त्व
संचार यानी संदेशों का आदान-प्रदान। क्या आप बिना बात किए रह सकते हैं? हम बिना बात किए रह ही नहीं सकते। यदि समाज में रहना है और उसके विभिन्न क्रियाकलापों में हिस्सा लेना है तो यह बिना बातचीत या संचार के संभव नहीं है। अकेलेपन और सोने के समय को छोड़ दिया जाए तो हम-सभी अपने अधिकांश समय में अपनी छोटी-छोटी ज़रूरतों को पूरा करने या अपनी भावनाओं और विचारों को प्रकट करने के लिए एक-दूसरे से या समूह में बातचीत या संचार करने में लगा देते हैं।
अपने दैनिक जीवन में हम संचार किए बिना नहीं रह सकते। हम सभी जब तक जीवित है, संचार करते रहते है। संचार जीवन की निशानी है। यहाँ तक कि एक बच्चा भी संचार के बिना नहीं रह सकता। वह रोकर या चिल्लाकर अपनी माँ का ध्यान अपनी ओर खींचता है। एक तरह से संचार खत्म होने का अर्थ है-मृत्यु। अर्थात एक व्यक्ति तभी संचार को रोक सकता है जब उसकी मृत्यु हो जाए। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे एक सामाजिक प्राणी के रूप में विकसित करने में उसकी संचार क्षमता की सबसे बड़ी भूमिका रही है।
परिवार और समाज में एक व्यक्ति के रूप में हम अन्य लोगों से संचार के ज़रिये ही संबंध स्थापित करते हैं और रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी करते हैं। मनुष्य ने चाहे भाषा का विकास किया हो या लिपि का या फिर छपाई का, इसके पीछे मूल इच्छा संदेशों के आदान-प्रदान की ही थी। दरअसल, संदेशों के आदान-प्रदान में लगने वाले समय और दूरी को पाटने के लिए ही मनुष्य ने संचार के माध्यमों की खोज की।
आज हम जिस संचार क्रांति की बात करते हैं, आखिर वह क्या है? संचार और जनसंचार के विभिन्न माध्यमों-टेलीफोन, इंटरनेट, फैक्स, समाचारपत्र, रेडियो, टेलीविज़न और सिनेमा आदि के ज़रिये मनुष्य संदेशों के आदान-प्रदान में एक-दूसरे के बीच की दूरी और समय को लगातार कम से कम करने की कोशिश कर रहा है।
दुनिया के किसी भी कोने में कोई घटना हो, जनसंचार माध्यमों के ज़रिये कुछ ही मिनटों में हमें सभी खबर मिल जाती है। अगर उस घटना वाले स्थल पर कोई टेलीविज़न समाचार चैनल का संवाददाता मौजूद हो तो हमें वहाँ की तसवीरें भी तुरंत देखने को मिल जाती हैं। याद कीजिए 11 सितंबर 2001 को अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमले को पूरी दुनिया ने अपनी आँखों के सामने घटते देखा। एक और उदाहरण के तौर पर आप क्रिकेट मैच देखने स्टेडियम भले न जा पाएँ लेकिन आप घर बैठे उस मैच का सीधा प्रसारण (लाइव) देख सकते हैं। जनसंचार हमारे लिए न सिर्फ सूचना के माध्यम हैं बल्कि वे हमें जागरूक बनाने और हमारा मनोरंजन करने में भी सबसे अहम् भूमिका निभा रहे हैं।
अब प्रश्न उठता है कि संचार क्या है?
‘संचार’ शब्द की उत्पत्ति ‘चर’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है – चलना या एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचना। आपने अपने विज्ञान के विषय में ताप संचार के बारे में पढ़ा होगा कि कैसे गरमी एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक पहुँचती है। इसी तरह टेलीफोन के तार या बेतार के ज़रिये मौखिक या लिखित संदेश को एक जगह से दूसरी जगह भेजने को भी संचार ही कहा जाता है। लेकिन हम यहाँ जिस संचार की बात कर रहे हैं, उससे हमारा तात्पर्य दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच सूचनाओं, विचारों और भावनाओं का आदान-प्रदान है। एक-दूसरे से संचार करते हुए हम अपने अनुभवों को ही एक-दूसरे से बाँटते हैं। संचार के अंतर्गत सिर्फ दो या उससे अधिक व्यक्तियों में ही नहीं, हजारों-लाखों लोगों के बीच होने वाले जनसंचार तक को शामिल किया जाता है। इस प्रकार सूचनाओं, विचारों और भावनाओं को लिखित, मौखिक या दृश्य-श्रव्य माध्यमों के ज़रिये सफलतापूर्वक एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाना ही संचार है और इस प्रक्रिया को अंजाम देने में मदद करने वाले तरीके संचार माध्यम कहलाते हैं।
संचार एक घटना के बजाए प्रक्रिया है। एक ऐसी जीवंत प्रक्रिया जिसमें सूचना देने और सूचना पाने वाले की क्रियाशील भागीदारी ज़रूरी है। दोनों की क्रियाशील भागीदारी से ही यह प्रक्रिया पूरी होती है। अगर दोनों में से कोई संचार के लिए अनिच्छुक है तो संचार-प्रक्रिया का आगे बढ़ना मुश्किल होता है। इस अर्थ में संचार अंतर्क्रियात्मक प्रक्रिया है।
संचार के तत्त्व
संचार एक प्रक्रिया है, इस प्रक्रिया में कई चरण या तत्त्व शामिल हैं। इनमें से कुछ प्रमुख तत्त्वों की हम यहाँ सिलसिलेवार चर्चा करेंगे।
संचार के निम्नलिखित तत्व हैं –
संचार प्रक्रिया की शुरुआत स्रोत या संचारक से होती है। जब स्रोत या संचारक एक उद्देश्य के साथ अपने किसी विचार, संदेश या भावना को किसी और तक पहुँचाना चाहता है तो संचार-प्रक्रिया की शुरुआत होती है।
संचार की प्रक्रिया का दूसरा चरण भाषा है। भाषा असल में, एक तरह का कूट चिह्न या कोड है। आप अपने संदेश को उस भाषा में कूटीकृत या एनकोडिंग करते हैं। सफल संचार के लिए यह ज़रूरी है कि दूसरा व्यक्ति भी उस भाषा यानी कोड से परिचित हो जिसमें आप अपना संदेश भेज रहे हैं।
संचार-प्रक्रिया में अगला चरण स्वयं संदेश का आता है। सफल संचार के लिए ज़रूरी है कि संचारक अपने संदेश को लेकर खुद पूरी तरह से स्पष्ट हो। संदेश जितना स्पष्ट और सीधा होगा, संदेश प्राप्त करने वाले के लिए उसे समझना उतना ही आसान होगा। टेलीफ़ोन, समाचारपत्र, रेडियो, टेलीविज़न, इंटरनेट और फ़िल्म आदि विभिन्न माध्यमों के ज़रिये भी संदेश प्राप्तकर्ता तक पहुँचाया जाता है।
प्राप्तकर्ता यानी रिसीवर प्राप्त संदेश का कटवाचन यानी उसकी डीकोडिंग करता है। डीकोडिंग का अर्थ है प्राप्त संदेश में निहित अर्थ को समझने की कोशिश। यह एक तरह से एनकोडिंग की उलटी प्रक्रिया है। इसमें संदेश का प्राप्तकर्ता उन चिहनों और संकेतों के अर्थ निकालता है। जाहिर है कि संचारक और प्राप्तकर्ता दोनों का उस कोड से परिचित होना ज़रूरी है।
संचार-प्रक्रिया में प्राप्तकर्ता की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है, क्योंकि वही संदेश का आखिरी लक्ष्य होता है। प्राप्तकर्ता कोई एक व्यक्ति, एक समूह या कोई संस्था अथवा एक विशाल जनसमूह भी हो सकता है। प्राप्तकर्ता को जब संदेश मिलता है तो वह उस सन्देश के मुताबिक ही अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करता है। वह प्रतिक्रिया सकारात्मक या नकारात्मक दोनों ही तरह की हो सकती है। संचार-प्रक्रिया में प्राप्तकर्ता की इस प्रतिक्रिया को फ़ीडबैक कहा जाता हैं।
संचार-प्रक्रिया की सफलता में फ़ीडबैक की भी अत्यधिक अहम् भूमिका होती है। फ़ीडबैक से ही पता चलता है कि संचार-प्रक्रिया में कहीं कोई अड़चन तो नहीं आ रही है। इसके साथ – ही – साथ फ़ीडबैक से यह भी पता चलता है कि संचारक ने जिस अर्थ के साथ संदेश भेजा था वह उसी अर्थ में प्राप्तकर्ता को मिला है या नहीं? इसी फ़ीडबैक के अनुसार ही संचारक अपने संदेश में सुधार करता है और इस तरह संचार की प्रक्रिया आगे बढ़ती है।
लेकिन वास्तविक जीवन में संचार प्रक्रिया इतनी अच्छे ढंग से नहीं चलती। उसमें बहुत सी बाधाएँ भी आती हैं। इन बाधाओं को शोर अथवा नॉयज कहा जाता हैं। यह शोर किसी भी तरह का हो सकता है। यह मानसिक से लेकर तकनीकी और भौतिक शोर तक हो सकता है। शोर के कारण संदेश जिस रूप में भेजा गया है उस मूल रूप में प्राप्तकर्ता तक नहीं पहुँच पाता। सफल संचार के लिए संचार प्रक्रिया से शोर को हटाना या कम करना बहुत आवश्यक होता है।
संचार के प्रकार –
संचार एक कठिन या पेचीदा प्रक्रिया है। उसके कई रूप या प्रकार हैं-
सांकेतिक संचार – जैसे कभी आप अपने मित्र को इशारे से बुलाते हैं। ज़ाहिर है कि यह इशारा भी संचार है। इसे सांकेतिक संचार कहते हैं।
मौखिक और अमौखिक संचार – जब हम अपने से बड़ों को सम्मान से प्रणाम करते हैं तो उसमें मौखिक संचार के साथ-साथ दोनों हथेलियाँ जोड़कर प्रणाम का इशारा भी करते हैं। इस तरह एक ही साथ मौखिक और अमौखिक संचार होता है। मौखिक संचार की सफलता में अमौखिक संचार की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। हमारे जीवन की कुछ सबसे महत्त्वपूर्ण भावनाएँ मौखिक से कहीं ज्यादा अमौखिक संचार के ज़रिये व्यक्त होती हैं जैसे-खुशी, दुख, प्रेम, डर, आदि।
अंतःवैयक्तिक संचार – जब आप अकेले में होते हैं तो क्या कर रहे होते हैं? आप कुछ सोच रहे होते हैं, कुछ योजना बना रहे होता हैं या किसी को याद कर रहे होते हैं। यह भी एक संचार है। इस संचार-प्रक्रिया में संचारक और प्राप्तकर्ता एक ही व्यक्ति होता है। यह संचार का सबसे बुनियादी रूप है। इसे अंतःवैयक्तिक (इंट्रापर्सनल) संचार कहते हैं। किसी विषय या मुद्दे पर सोच-विचार करना या विचार-मंथन भी संचार का ही एक रूप है।
अंतरवैयक्तिक संचार – जब दो व्यक्ति आपस में और आमने – सामने संचार करते हैं तो इसे अंतरवैयक्तिक (इंटरपर्सनल) संचार कहते हैं। इस संचार में फ़ीडबैक तत्काल प्राप्त होता है।
संचार का तीसरा प्रकार है – समूह संचार। इसमें एक समूह आपस में विचार-विमर्श या चर्चे करता है। यह किसी एक या दो व्यक्ति के लिए न होकर पूरे समूह के लिए होता है। समूह संचार का उपयोग समाज और देश के सामने उपस्थित समस्याओं को बातचीत और विचार-विमर्श के ज़रिये हल करने के लिए होता है।
संचार का सबसे महत्त्वपूर्ण और आखिरी प्रकार है – जनसंचार अर्थात मास कम्युनिकेशन। जब हम व्यक्तियों के समूह के साथ प्रत्यक्ष संवाद की बजाय किसी तकनीकी या यांत्रिक माध्यम के जरिये समाज के एक विशाल वर्ग से संवाद कायम करने की कोशिश करते हैं तो इसे जनसंचार कहते हैं।
जनसंचार की विशेषताएँ –
(i) जनसंचार के श्रोताओं, पाठकों और दर्शकों की संख्या बहुत अधिक होती है। साथ ही उनका गठन भी बहुत पंचमेल होता है। जैसे किसी टेलीविज़न चैनल के दर्शकों में अमीर वर्ग भी हो सकता है और गरीब वर्ग भी, शहरी भी और ग्रामीण भी, पुरुष भी और महिला भी, युवा तथा वृद्ध भी। लेकिन सभी एक ही समय टी.वी. पर अपनी पसंद का कार्यक्रम देख रहे हो सकते हैं।
(ii) जनसंचार माध्यमों के ज़रिये प्रकाशित या प्रसारित संदेशों की प्रकृति सार्वजनिक होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि अंतरवैयक्तिक या समूह संचार की तुलना में जनसंचार के संदेश सबके लिए होते हैं।
(iii) जनसंचार संचारक और प्राप्तकर्ता के बीच कोई सीधा संबंध नहीं होता है।
(iv) जनसंचार के लिए एक औपचारिक संगठन की भी ज़रूरत पड़ती है। उदाहरण के तौर पर समाचारपत्र किसी न किसी संगठन से प्रकाशित होता है या रेडियो का प्रसारण किसी रेडियो संगठन की ओर से किया जाता है।
(v) जनसंचार माध्यमों में कई सारे द्वारपाल काम करते हैं। किसी जनसंचार माध्यम में काम करने वाले द्वारपाल ही तय करते हैं कि वहाँ किस तरह की सामग्री प्रकाशित या प्रसारित की जाएगी।
संचार के कार्य –
हम अपने रोज़मर्रा के जीवन में संचार को कई तरह से इस्तेमाल करते हैं। संचार विशेषज्ञों के अनुसार संचार के कई कार्य हैं। इनमें से कुछ कार्यों निम्नलिखित हैं –
(i) संचार का प्रयोग हम कुछ प्राप्त करने के लिए करते हैं। जैसे अपने मित्र से किताब माँगने के लिए।
(ii) नियंत्रण – संचार के ज़रिये हम किसी के व्यवहार को नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं। जैसे कक्षा में शिक्षक विद्यार्थियों को नियंत्रित करते हैं।
(iii) सूचना – किसी से कुछ जानने के लिए या कुछ बताने के लिए भी हम संचार का प्रयोग करते हैं।
(iv) अभिव्यक्ति – संचार का उपयोग हम अपनी भावनाओं के स्पष्टीकरण के लिए या अपने आप को एक खास तरह से प्रस्तुत करने के लिए भी करते हैं।
(v) सामाजिक संपर्क – संचार का प्रयोग हम किसी व्यक्ति, किसी समूह या किसी संस्था में अपने संपर्कों को बढ़ाने के लिए भी करते हैं।
(vi) संचार का प्रयोग अकसर समस्याओं या किसी चिंता को दूर करने के लिए किया जाता हैं।
(vii) प्रतिक्रिया – संचार का प्रयोग हम अपनी पसंद या न पसंद की किसी वस्तु या विषय के प्रति प्रतिकार प्रकट करने के लिए भी करते हैं।
जनसंचार के कार्य –
जिस प्रकार संचार के कई कार्य हैं, उसी तरह जनसंचार माध्यमों के भी कई कार्य हैं। उनमें से कुछ प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं –
(i) जनसंचार माध्यमों का प्रमुख कार्य सूचना देना है। उनके ज़रिये ही दुनियाभर से सूचनाएँ प्राप्त होती हैं।
(ii) जनसंचार माध्यम सूचनाओं के ज़रिये हमें जागरूक बनाते हैं। जनसंचार माध्यम देश-दुनिया के हाल से परिचित कराने और उसके प्रति सजग बनाने में महत्पूर्ण भूमिका निभाते है।
(iii) जनसंचार माध्यम मनोरंजन के भी प्रमुख साधन हैं। सिनेमा, टी.वी., रेडियो, संगीत के टेप, वीडियो और किताबें आदि मनोरंजन के प्रमुख माध्यम हैं।
(iv) जनसंचार माध्यम सूचनाओं और विचारों के ज़रिये किसी देश और समाज का एजेंडा भी तय करते हैं। देश या समाज की किसी घटना या मुद्दे को चर्चा का विषय बनाकर जनसंचार माध्यम.सरकार और समाज को उस घटना या मुद्दे पर अनुकूल प्रतिक्रिया करने के लिए विवश कर देते हैं।
(v) जनसंचार माध्यम सरकार और संस्थाओं के कामकाज पर निगरानी रखते हैं। अगर सरकार कोई गलत कदम उठाती है या संगठन/संस्था अपना कार्य अच्छे से नहीं करती हैं तो इन चीजों को लोगों के सामने लाने की ज़िम्मेदारी जनसंचार माध्यमों पर है।
(vi) जनसंचार माध्यम विभिन्न विचारों को प्रकट करने के लिए मंच उपलब्ध कराते हैं। इस तरह जनसंचार माध्यम विचार-विमर्श के मंच के रूप में भी काम करते हैं।
भारत में जनसंचार माध्यमों का विकास –
भारत के मौजूदा जनसंचार के आधुनिक माध्यमों की प्रेरणा भले ही पश्चिमी जनसंचार माध्यम रहे हों, परन्तु हमारे देश के जनसंचार माध्यमों का इतिहास भी बहुत पुराना हैं। बड़ी सहजता के साथ इसके बीज पौराणिक काल के काल्पनिक पात्रों में खोजे जा सकते हैं। देवर्षि नारद को भारत का पहला समाचार वाचक माना जाता है जो वीणा की मधुर झंकार के साथ धरती और देवलोक के बीच संवाद-सेतु थे। उन्हीं की तरह महाभारत काल में महाराज धृतराष्ट्र और रानी गांधारी को युद्ध की झलक दिखाने और उसका विस्तार पूर्वक विवरण सुनाने के लिए जिस तरह संजय की परिकल्पना की गई है, वह एक बहुत ही समृद्ध संचार व्यवस्था की ओर इशारा करती है।
चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक जैसे सम्राटों के शासन-काल में स्थायी महत्त्व के संदेशों के लिए शिलालेखों और समयानुसार या तुरंत भेजे जाने वाले संदेशों के लिए कच्ची स्याही या रंगों से संदेश लिखकर प्रकट करने की व्यवस्था और मजबूत हुई। तब ख़ास तौर पर प्रतिदिन किए जाने वाले कार्यों को लिखने के लिए कर्मचारी नियुक्त किए जाने लगे और जनता के बीच संदेश भेजने के लिए भी सही व्यवस्था की गई।
लेकिन भारतीय संचार परंपरा की ख़ास बात यह भी रही है कि राजदरबारों के सामान ही हमारे यहाँ लोक माध्यमों की भी सुलझी हुई व्यवस्था मौजूद रही है। इसके उदाहरण प्रागैतिहासिक काल से ही मिलते हैं। भीमबेटका के गुफाचित्र इसके प्रबल प्रमाण हैं। यह सामान व्यवस्था बाद में कठपुतली और लोकनाटकों की विविध शैलियों के रूप में दिखाई पड़ती है। देश के विभिन्न हिस्सों में प्रचलित विभिन्न नाट्यरूपों-कथावाचन, बाउल, सांग, रागनी, तमाशा, लावनी, नौटंकी, जात्रा, गंगा-गौरी, यक्षगान आदि का विशेष महत्त्व है। इन विधाओं के कलाकार मनोरंजन तो करते ही थे, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक संदेश पहुँचाने का काम भी करते थे।
जनसंचार के आधुनिक माध्यमों के रूप चाहे समाचारपत्र हों या रेडियो, टेलीविज़न या इंटरनेट, सभी माध्यम पश्चिम से ही आए और हमने शुरुआत में उन्हें उसी रूप में अपनाया लेकिन धीरे-धीरे वे हमारी सांस्कृतिक विरासत के अंग बनते चले गए। इसलिए आज के जनसंचार माध्यमों का ढाँचा भले पश्चिमी हो, लेकिन उनकी विषयवस्तु और रंगरूप भारतीय ही हैं।
जनसंचार माध्यमों के वर्तमान प्रचलित रूपों में समाचारपत्र-पत्रिकाएँ, रेडियो, टेलीविज़न, सिनेमा और इंटरनेट आदि प्रमुख हैं। इन माध्यमों के ज़रिये जो भी जानकारी आज जनता तक पहुँच रही है, वह राष्ट्र के निर्माण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।
समाचारपत्र-पत्रिकाएँ –
पत्र-पत्रिकाएँ या प्रिंट मीडिया को जनसंचार की सबसे मज़बूत कड़ी कहा जाता है। भले ही अपने विशाल दर्शक वर्ग और तीव्रता के कारण रेडियो और टेलीविज़न की ताकत ज़्यादा मानी जा सकती है लेकिन वाणी को शब्दों के रूप में रिकार्ड करने वाला आरंभिक माध्यम होने की वजह से प्रिंट मीडिया का महत्त्व हमेशा बना रहेगा। आज भले ही प्रिंट, रेडियो, टेलीविज़न या इंटरनेट, सभी को पत्रकारिता के अंतर्गत रखा जाता हो, लेकिन शुरुआत में सिर्फ़ प्रिंट माध्यमों के ज़रिये खबरों के आदान-प्रदान को ही पत्रकारिता कहा जाता था। पत्रकारिता के तीन पहलू हैं-पहला समाचारों को इकठ्ठा करना, दूसरा उन्हें संपादित कर छपने लायक बनाना और तीसरा पत्र या पत्रिका के रूप में छापकर पाठक तक पहुँचाना। भले ही तीनों ही काम आपस में जुड़े हैं लेकिन पत्रकारिता के अंतर्गत हम पहले दो कामों को ही लेते हैं क्योंकि प्रकाशन और वितरण का कार्य तकनीकी और प्रबंधकीय विभागों के अंतर्गत आते हैं जबकि रिपोर्टिंग और संपादन के काम के लिए एक विशेष बौद्धिक और पत्रकारीय कौशल की आवश्यकता होती है। जहाँ बाहर से खबरे लाने का काम संवाददाताओं का होता है, वहीं सभी खबरों, लेखों, फ़ीचरों को व्यवस्थित तरीके से संपादित करने और व्यवस्थित ढंग से छापने का काम संपादकीय विभाग में काम करने वाले संपादकों का होता है।
भले ही दुनिया में अखबारी पत्रकारिता को अस्तित्व में आए 400 साल हो गए हैं, लेकिन भारत में इसकी शुरुआत सन् 1780 में जेम्स ऑगस्ट हिकी के ‘बंगाल गज़ट’ से हुई जो कलकत्ता (कोलकाता) से निकला था जबकि हिंदी का पहला साप्ताहिक पत्र ‘उदंत मार्तंड’ भी कलकत्ता से ही सन् 1826 में पंडित जुगल किशोर शुक्ल के संपादन में निकला था।
आज़ादी के बाद के प्रमुख हिंदी अखबारों में ‘नवभारत टाइम्स’, ‘जनसत्ता’, ‘नई दुनिया’, ‘राजस्थान पत्रिका’, ‘अमर उजाला’, ‘दैनिक भास्कर’, ‘दैनिक जागरण’ और पत्रिकाओं में ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘दिनमान’, रविवार’, ‘इंडिया टुडे’ और ‘आउटलुक’ का नाम लिया जा सकता है। इनमें से कई पत्रिकाएँ अब छपनी बंद हो चुकी हैं। आज़ादी के बाद के हिंदी के प्रमुख पत्रकारों में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती, मनोहर श्याम जोशी, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, सुरेंद्र प्रताप सिंह का नाम लिया जा सकता है।
रेडियो –
पत्र-पत्रिकाओं के बाद रेडियो ऐसा दूसरा माध्यम है जिसने दुनिया को सबसे ज़्यादा प्रभावित किया। सन् 1895 में जब इटली के इलैक्ट्रिकल इंजीनियर जी. मार्कोनी ने वायरलेस के ज़रिये ध्वनियों और संकेतों को एक जगह से दूसरी जगह भेजने में कामयाबी हासिल की, तब रेडियो जैसा माध्यम अस्तित्व में आया। पहले विश्वयुद्ध तक रेडियो सूचनाओं के आदान-प्रदान का एक महत्त्वपूर्ण औज़ार बन चुका था। 1892 में अमेरिकी शहर पिट्सबर्ग, न्यूयॉर्क और शिकागो में शुरुआती रेडियो स्टेशन खुले। भारत में भी रेडियो की शुरुआत लगभग इसी समय हुई थी।
‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने डाक-तार विभाग की सहायता से मुंबई में 1921 में संगीत कार्यक्रम प्रसारित किया। 1936 में पुरे विधि विधान के साथ ऑल इंडिया रेडियो की स्थापना हुई और आज़ादी के समय तक देश में कुल नौ रेडियो स्टेशन खुल चुके थे। जो लखनऊ, दिल्ली, बंबई (मुंबई), कलकत्ता (कोलकाता), मद्रास (चेन्नई), तिरुचिरापल्ली, ढाका, लाहौर और पेशावर में थे।
आज आकाशवाणी देश की 24 भाषाओं और 146 बोलियों में कार्यक्रम प्रस्तुत करती है और लगभग देश की 96 प्रतिशत आबादी तक रेडियो की पहुँच है। 1993 में एफएम (फ्रिक्वेंसी मॉड्यूलेशन) की शुरुआत हुई। एफ.एम. के दूसरे चरण के साथ देश के 90 शहरों में 350 से अधिक निजी एफएम चैनल शुरू हो रहे हैं।
रेडियो एक ध्वनि माध्यम है। गांधी जी ने रेडियो को इसकी तात्कालिकता, घनिष्ठता और प्रभाव के कारण एक अद्भुत शक्ति कहा था। ध्वनि तरंगों के ज़रिये यह देश के कोने-कोने तक पहुँचता है। दूर-दराज़ के गाँवों में, जहाँ संचार और मनोरंजन के अन्य साधन नहीं होते, वहाँ रेडियो ही एकमात्र ऐसा साधन है, जो गाँव को बाहरी दुनिया से जुड़ने का काम करता है। इसके साथ-ही-साथ रेडियो, अखबार और टेलीविज़न की तुलना में बहुत सस्ता भी है। इसलिए भारत के दूरदराज के इलाकों में लोगों ने रेडियो क्लब बना लिए हैं।
टेलीविज़न –
वर्तमान समय में टेलीविज़न जनसंचार का सबसे लोकप्रिय और ताकतवर माध्यम बन गया है। इसका प्रमुख कारण यह है कि जब प्रिंट मीडिया के शब्द और रेडियो की ध्वनियों के साथ टेलीविज़न के दृश्य मिल जाते हैं तो किसी भी सूचना की विश्वसनीयता कई गुना बढ़ जाती है। 1927 में बेल टेलीफ़ोन लेबोरेट्रीज़ ने न्यूयॉर्क और वाशिंगटन के बीच प्रायोगिक टेलीविज़न कार्यक्रम का प्रसारण किया। 1936 तक बीबीसी ने भी अपनी टेलीविज़न सेवा शुरू कर दी थी।
15 सितंबर, 1959 को भारत में भी टेलीविज़न की शुरुआत यूनेस्को की एक शैक्षिक परियोजना के तहत हुई थी। इस परियोजना का उदेश्य टेलीविज़न के ज़रिये शिक्षा और सामुदायिक विकास को प्रोत्साहित करना था। 1965 में स्वतंत्रता दिवस से भारत में विधिपूर्ण तरीके से टी.वी. सेवा का आरंभ हुआ। तब रोज़ एक घंटे के लिए टी.वी. कार्यक्रम दिखाया जाने लगा। 1975 तक दिल्ली, मुंबई, श्रीनगर, अमृतसर, कोलकाता, मद्रास और लखनऊ में टी.वी. सेंटर खुल गए। लेकिन 1976 तक टी.वी. सेवा आकाशवाणी का ही हिस्सा थी, परन्तु 1 अप्रैल 1976 से इसे अलग कर दिया गया और इसे दूरदर्शन नाम दिया गया।
स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को दूरदर्शन की ताकत की एहसास था। यही कारण था कि वह देशभर में टेलीविज़न केंद्रों का जाल बिछाना चाहती थीं। 1980 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने प्रोफ़ेसर पी.सी. जोशी की अध्यक्षता में दूरदर्शन के कार्यक्रमों की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए एक समिति गठित की। जोशी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि हमारे जैसे समाज में जहाँ हमारे पुराने मूल्य टूट रहे हों और नए मूल्य न बन रहे हों, वहाँ दूरदर्शन एक बहुत बड़ी भूमिका निभाते हुए जनतंत्र को मजबूत बना सकता है। समिति ने जनसंचार के माध्यम के बतौर भारत में दूरदर्शन के कुछ उद्देश्य स्थापित किए थे। उनमें सामाजिक परिवर्तन, राष्ट्रीय एकता, वैज्ञानिक चेतना का विकास, परिवार कल्याण को प्रोत्साहन, कृषि विकास, पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक विकास, खेल संस्कृति का विकास, सांस्कृतिक धरोहर को प्रोत्साहन शामिल थे।
जब 1991 में खाड़ी युद्ध हुआ तो इस दौरान दुनियाभर के लोगों ने केव्ल टी.वी. के ज़रिये युद्ध का सीधा प्रसारण देखा था। इसके बाद भारत में भी टी.वी. की दुनिया में निजी चैनलों की शुरुआत हुई, विदेशी चैनलों को भी प्रसारण की अनुमति दे दी गई और इसके साथ ही भारत में सीएनएन, बीबीसी जैसे चैनल दिखाए जाने लगे। जल्दी ही स्टार टी.वी. जैसे चैनलों ने अपने भारत केंद्रित समाचार चैनल भी आरंभ कर दिए। इसके अलावा डिस्कवरी, नेशनल ज्यॉग्राफ़िक जैसे शैक्षिक और मनोरंजन चैनलों के साथ ही एफ.टी.वी., एमटी.वी. व वीटी.वी. जैसे विशुद्ध पश्चिमी किस्म के चैनल भी दिखने लगे। विदेशी चैनलों के प्रसारण के कारण कुछ लोगों ने इसे देश पर सांस्कृतिक हमला भी कहा और इन चैनलों का विरोध भी किया।
जब भारत में देशी निजी चैनलों की बाढ़ आने लगी, तब टेलीविज़न का असली विस्तार हुआ। अक्टूबर, 1993 में ज़ी टी. वी. और स्टार टी.वी. के बीच समझौता हुआ। उसके बाद समाचार के क्षेत्र में भी ज़ी न्यूज़ और स्टार न्यूज़ नामक चैनल आए और सन् 2002 में आजतक के स्वतंत्र चैनल के रूप में आने के बाद तो जैसे समाचार चैनलों की बाढ़ ही आ गई। जहाँ पहले हमारे सार्वजनिक प्रसारक दूरदर्शन का उद्देश्य राष्ट्र निर्माण और सामाजिक उन्नति था, वहीं इन निजी चैनलों का उद्देश्य केवल व्यावसायिक लाभ कमाना रह गया। इससे जहाँ टेलीविज़न समाचार को निष्पक्षता की पहचान मिली, उसमें ताज़गी आई और वह पेशेवर हुआ, वहीं एक अंधी होड़ के कारण अनेक बार पत्रकारिता के मूल्यों और उसकी नैतिकता का भी हनन हुआ। इन सभी चीजों के बावजूद भी आज देश भर में लगभग 200 चैनल प्रसारित हो रहे हैं और इनकी संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है।
सिनेमा –
जनसंचार का सबसे लोकप्रिय और प्रभावशाली माध्यम सिनेमा है। सिनेमा के आविष्कार का श्रेय थॉमस अल्वा एडिसन को जाता है। भले ही यह जनसंचार के अन्य माध्यमों की तरह सीधे तौर पर सूचना देने का काम नहीं करता लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से सूचना, ज्ञान और संदेश देने का काम करता है। सिनेमा को मनोरंजन के एक मजबूत माध्यम के तौर पर देखा जाता रहा है। 1894 में फ्रांस में पहली फ़िल्म बनी ‘द अराइवल ऑफ़ ट्रेन’। सिनेमा की तकनीक में तेजी से विकास हुआ और जल्दी ही यूरोप और अमेरिका में भी कई अच्छी फ़िल्में बनने लगीं।
भारत में पहली मूक फ़िल्म बनाने का श्रेय दादा साहेब फाल्के को जाता है। यह फ़िल्म 1913 में बनी थी जिसका नाम था -‘राजा हरिश्चंद्र’। 1931 में पहली बोलती फ़िल्म बनाई गई थी। जिसका नाम था -‘आलम आरा’। इसके बाद बोलती फ़िल्मों का दौर शुरू हो गया। सत्तर के दशक तक सिनेमा की बुनियाद प्रेम, फंतासी और एक कभी न हारने वाले सुपर नैचुरल हीरो की परिकल्पना रही। उस समय की कहानियों में कुछ न कुछ संदेश देने की भी कोशिश हुई लेकिन इसके तरीके में व्यवहारिकता की कमी रही। सत्तर और अस्सी के दशक में कुछ फ़िल्मकारों ने महसूस किया कि सिनेमा एक बहुत ही मजबूत संचार माध्यम है और इसका इस्तेमाल आम लोगों में चेतना फैलाने, व्यावहारिक जीवन की समस्याओं से जोड़ने और अन्याय के खिलाफ़ एक कलात्मक अभिव्यक्ति के तौर पर किया जा सकता है। यही समानांतर सिनेमा का दौर था और इस दौरान ‘अंकुर’, ‘निशांत’, ‘अर्धसत्य’ जैसी फ़िल्में बनी। वैसे तो सत्यजित राय ने पचास के दशक में ही ‘पथेर पांचाली’ बनाकर इसकी शुरुआत कर दी थी लेकिन साठ के दशक के आखिरी वर्षों और सत्तर के दशक में समानांतर सिनेमा ने एक आंदोलन की शक्ल ली। यह आंदोलन अस्सी के दशक में भी जारी रहा। लेकिन हर वस्तु या विचार को उत्पाद समझकर बिकाऊ बना देने की विचारधारा और व्यावसायिकता के दबाव में समानांतर या कला फ़िल्मों का दौर अस्सी के दशक में ही खत्म होने लगा। एक बार फिर लोकप्रिय मुंबइयाँ फ़िल्में छाने लगीं। दरअसल, हिंदी सिनेमा पर शुरू से ही पॉपुलर या लोकप्रिय फ़िल्मों का दबदबा रहा है। कला फ़िल्मों के कमज़ोर पड़ने के साथ एक बार फिर पॉपुलर या लोकप्रिय सिनेमा हावी हो गया और तकनीक कथानक पर भारी पड़ने लगी।
भारतीय सिनेमा में पारिवारिक फ़िल्मों की भी एक धारा लगातार चलती रही है। हलके-फुलके सदस्य और एक आम आदमी के परिवार की खट्टी-मीठी कहानी पर बनी इन साफ़-सुथरी फ़िल्मों को खूब पसंद किया जाता रहा है। परन्तु यह भी सच है कि लोकप्रिय और पारिवारिक फ़िल्मों की पहुँच गाँव और शहर के साधारण दर्शकों तक रहती आई है। लेकिन अस्सी और नब्बे के दशक में मुंबइया सिनेमा पर व्यावसायिकता का नशा इस कदर छाता गया कि फ़ॉर्मला फ़िल्में फ़िल्मकारों के लिए मुनाफ़ा कमाने का सबसे बड़ा हथियार बन गईं। ऐसी फ़िल्मों के केंद्र में रोमांस, हिंसा, सेक्स और एक्शन को रखा जाता रहा है। कहने के लिए हर फ़िल्म में कोई न कोई सामाजिक संदेश देने की औपचारिकता जरूर निभाई जाती है परन्तु इनका उद्येश्य केवल पैसा कमाना ही होता है। ऐसी फ़िल्मों ने खासकर युवाओं के मन में बहुत गलत प्रभाव छोड़ा है।
इस तरह कहा जा सकता है कि सिनेमा जनसंचार के एक बेहतरीन और सबसे ताकतवर माध्यमों में से एक है। यह मनोरंजन के साथ-साथ समाज को बदलने का, लोगों में नयी सोच विकसित करने का और अत्याधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से लोगों को सपनों की दुनिया में ले जाने का माध्यम भी है। आज के वर्तमान समय में भारत हर साल लगभग 800 फ़िल्मों का निर्माण करता है और दुनिया का सबसे बड़ा फ़िल्म निर्माता देश बन गया है। यहाँ हिंदी के अलावा अन्य क्षेत्रीय भाषा और बोली में भी कई फ़िल्में बनती हैं और खूब चलती भी हैं।
इंटरनेट –
इंटरनेट जनसंचार का एक ऐसा माध्यम है जो सबसे नया है लेकिन तेज़ी से लोकप्रिय हो रहा है। यह एक ऐसा माध्यम है जिसमें प्रिंट मीडिया, रेडियो, टेलीविज़न, किताब, सिनेमा यहाँ तक कि पुस्तकालय के सारे गुण मौजूद हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि इसमें सभी माध्यमों का संगम है। इसकी पहुँच दुनिया के कोने-कोने तक है और इसकी रफ़्तार का कोई जवाब नहीं है। इंटरनेट पर आप दुनिया के किसी भी कोने से छपने वाले अखबार या पत्रिका में छपी सामग्री पढ़ सकते हैं। रेडियो सुन सकते हैं। सिनेमा देख सकते हैं। किताब पढ़ सकते हैं और विश्वव्यापी जाल के भीतर जमा करोड़ों पन्नों में से पलभर में अपने मतलब की सामग्री खोज सकते हैं।
साथ ही साथ यह एक अंतक्रियात्मक माध्यम है यानी आप इसमें केवल मूक दर्शक नहीं हैं। आप सवाल-जवाब, तर्क-वितर्क में भाग लेते हैं, आप चैट कर सकते हैं और मन हो तो अपना ब्लाग बनाकर पत्रकारिता की किसी बहस के सूत्रधार बन सकते हैं। हर माध्यम में कुछ गुण और कुछ अवगुण होते हैं। इंटरनेट ने जहाँ पढ़ने-लिखने वालों के लिए, शोधकर्ताओं के लिए संभावनाओं के नए दरवाजे खोले हैं, वहीं इसमें कुछ खामियाँ भी हैं। पहली खामी तो यही है कि उसमें लाखों अश्लील पन्ने भर दिए गए हैं जिसका बच्चों के कोमल मन पर बुरा असर पड़ सकता है। दूसरी खामी यह है कि इसका दुरुपयोग किया जा सकता है। हाल के वर्षों में इंटरनेट के दुरुपयोग की कई साड़ी घटनाएँ सामने आई हैं।
जनसंचार माध्यमों का प्रभाव –
हमारी जीवनशैली पर संचार माध्यमों का बहुत असर पड़ा है। आज के संचार प्रधान समाज में जनसंचार माध्यमों के बिना हम अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। अखबार पढ़े बिना हमारी सुबह नहीं होती। जो अखबार नहीं पढ़ते, वे समाचारों और सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए इंटरनेट का उपयोग करने लगे है। खरीदारी-बिक्री के हमारे फ़ैसलों पर भी विज्ञापनों का असर साफ़ देखा जा सकता है। यहाँ तक कि शादी-ब्याह के लिए भी लोगों की अखबार या इंटरनेट के मैट्रिमोनियल पर निर्भरता बढ़ने लगी है। टिकट बुक कराने, अपनी सेहत से लेकर धर्म-आध्यात्म तक के बारे में जानकारी और टेलीफ़ोन का बिल जमा कराने से लेकर सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ा है। जनसंचार माध्यम आज हमारी जीवनशैली को प्रभावित कर रहे हैं और हम उन्हें चाहते हुए भी रोक नहीं सकते। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जनसंचार माध्यमों ने हमारे जीवन को और ज़्यादा सरल हमारी क्षमताओं को और ज्यादा समर्थ, हमारे सामाजिक जीवन को और अधिक सक्रिय बनाया है। हाल के वर्षों में स्टिंग आपरेशन के ज़रिये सामने आया ‘तहलका कांड’ हो या ‘ऑपरेशन दुर्योधन’ या ‘चक्रव्यूह’, सबने यही साबित किया है कि यदि चाहे तो जनसंचार माध्यम सत्ता के शिखर को भी हिला सकते हैं।
सकारात्मक प्रभावों के साथ – साथ जनसंचार माध्यमों के कुछ नकारात्मक प्रभाव भी हैं। अगर सावधानी से इसका इस्तेमाल न किया जाए तो लोगों पर इसका बहुत बुरा प्रभाव भी पड़ता है। सिनेमा और टी.वी. जैसे जनसंचार माध्यम काल्पनिक और लुभावनी कथाओं के ज़रिये लोगों को एक नकली दुनिया में पहुँचा देते हैं जिसका वास्तविक जीवन से कोई संबंध नहीं होता है।
जनसंचार माध्यमों खासकर सिनेमा पर यह आरोप भी लगता रहा है कि उन्होंने समाज में हिंसा, अश्लीलता और असामाजिक व्यवहार को प्रोत्साहित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। परन्तु विशेषज्ञों का यह मानना है कि जनसंचार माध्यमों का लोगों पर उतना वास्तविक प्रभाव नहीं पड़ा जितना कि उसके बारे में समझा जाता है।
जनसंचार माध्यमों के प्रभाव को लेकर कुछ धारणाएँ इस प्रकार हैं-
जनसंचार माध्यम लोगों के व्यवहार और आदतों में परिवर्तन नहीं करते बल्कि उनमें थोड़ा-बहुत फेरबदल और उन्हें और ज़्यादा मज़बूत करने का काम करते हैं।
जनसंचार माध्यमों का उन लोगों पर अधिक प्रभाव पड़ता है, जो किसी चीज़ के प्रति जिम्मेदार नहीं हैं या कार्यों को लेकर निश्चित नहीं हैं।
जनसंचार माध्यमों का प्रभाव तब और अधिक बढ़ जाता है जब लगभग सारे माध्यम एक ही समय में एक ही बात कहने लगते हैं।
जब सभी माध्यम कई मुद्दों के बजाय किसी एक मुद्दे को बहुत अधिक उछालने लगते हैं और बार-बार उन्हीं संदेशों, छवियों, विचारों को दोहराने लगते हैं, तब भी उनका गहरा प्रभाव पड़ता है।
अखबारों और टेलीविज़न चैनलों में किसी खास खबर या मुद्दे को ज़रूरत से ज़्यादा उछाला जाता है और कुछ अन्य मुद्दों और खबरों को बिलकुल जगह नहीं मिलती है।
जनसंचार माध्यमों पर किसका नियंत्रण है? यह सवाल भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। जनसंचार माध्यमों का संबंध सार्वजनिक हित से जुड़ा हुआ है। उनसे यह उम्मीद की जाती है कि वे सार्वजनिक हित को आगे बढ़ाएँगे लेकिन यह एक तथ्य है कि अधिकांश जनसंचार माध्यमों पर कंपनियों या व्यक्तियों का अधिकार है। वे उन्हें सार्वजनिक हित से ज़्यादा अपने व्यावसायिक मुनाफ़े को ध्यान में रखकर संचालित करते हैं। इसके लिए तथ्यों के साथ तोड़-मरोड़ और सच्चाई को छुपाने की कोशिश की जाती है।
खासकर बच्चों और युवाओं पर जनसंचार माध्यमों के ज़रिये प्रस्तुत की जा रही आधुनिक व् पश्चिमी जीवनशैली का गहरा प्रभाव पड़ रहा है।
जनसंचार माध्यमों ने जहाँ एक ओर अपने सकारात्मक प्रभावों के चलते लोगों को सचेत और जागरूँक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, वहीं उसके नकारात्मक प्रभावों से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि एक जागरूक पाठक, दर्शक और श्रोता होने के कारण हमें अपनी आँखें, कान और दिमाग हमेशा खुले रखने चाहिए। अर्थात किसी भी खबर या मुद्दे को बिना पूरी जानकारी के विश्वास नहीं करना चाहिए।
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