Mera Chota Sa Niji Pustakalaya Class 9 Hindi Lesson Explanation, Summary, Question Answers

 

Mera Chota Sa Niji Pustakalaya

 

CBSE Class 9 Hindi Sanchayan Book Lesson 4 ‘मेरा छोटा-सा निजी पुस्तकालय’ Explanation, Summary, Question and Answers and Difficult word meaning

मेरा छोटा-सा निजी पुस्तकालय CBSE Class 9 Hindi Sanchayan Book Lesson 4 summary with detailed explanation of the Lesson along with the meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the Lesson ‘Mera Chota Sa Niji Pustakalaya’ along with a summary and all the exercises, Questions and Answers given at the back of the lesson.

यहाँ हम हिंदी कक्षा 9 ”संचयन – भाग 1” के पाठ 4 “मेरा छोटा-सा निजी पुस्तकालय” के पाठ प्रवेश, पाठ सार, पाठ व्याख्या, कठिन शब्दों के अर्थ, अतिरिक्त प्रश्न और NCERT पुस्तक के अनुसार प्रश्नों के उत्तर इन सभी बारे में जानेंगे –

कक्षा 9 संचयन भाग 1 पाठ 4 “मेरा छोटा-सा निजी पुस्तकालय”

 

 

लेखक परिचय

लेखक – धर्मवीर भारती
जन्म – 1926

 

मेरा छोटा-सा निजी पुस्तकालय पाठ प्रवेश

“मेरा छोटा-सा निजी पुस्तकालय” पाठ में लेखक अपने बारे में बताता हुआ कहता है कि उसने किस तरह से पुस्तकालय की पहली पुस्तक से ले कर एक बड़ा पुस्तकालय तैयार किया। उसे कैसे पुस्तकों को पढ़ने का शौक जाएगा और फिर किस तरह उन किताबों को इक्कठा करने का शौक जगा? अपनी पहली पुस्तक लेखक ने किस परिस्थिति में खरीदी? लेखक ने अपने ऑपरेशन के बाद अपने पुस्तकालय में ही रहने का निश्चय क्यों किया? इन सभी के बारे में लेखक ने इस पाठ में बताया है।
 
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Mera Chota Sa Niji Pustakalaya Class 9 Video Explanation

 
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मेरा छोटा-सा निजी पुस्तकालय पाठ सार

लेखक इस पाठ में अपने बारे में बात कर रहा है। लेखक साल 1989 जुलाई की बात करता हुआ कहता है कि उस समय लेखक को तीन-तीन जबरदस्त हार्ट-अटैक आए थे और वो भी एक के बाद एक। उनमें से एक तो इतना खतरनाक था कि उस समय लेखक की नब्ज बंद, साँस बंद और यहाँ तक कि धड़कन भी बंद पड़ गई थी। उस समय डॉक्टरों ने यह घोषित कर दिया था कि अब लेखक के प्राण नहीं रहे। लेखक कहता है कि उन सभी डॉक्टरों में से एक डॉक्टर बोर्जेस थे जिन्होंने फिर भी हिम्मत नहीं हारी थी। उन्होंने लेखक को नौ सौ वॉल्ट्स के शॉक्स (shocks) दिए। लेखक के प्राण तो लौटे, पर इस प्रयोग में लेखक का साठ प्रतिशत हार्ट सदा के लिए नष्ट हो गया। अब लेखक का केवल चालीस प्रतिशत हार्ट ही बचा था जो काम कर रहा था। लेखक कहता है कि उस चालीस प्रतिशत काम करने वाले हार्ट में भी तीन रुकावटें थी। जिस कारण लेखक का ओपेन हार्ट ऑपरेशन तो करना ही होगा पर सर्जन हिचक रहे हैं।सर्जन को डर था कि अगर ऑपरेशन कर भी दिया तो हो सकता है कि ऑपरेशन के बाद न हार्ट रिवाइव ही न हो। सभी ने तय किया कि हार्ट के बारे में अच्छी जानकारी रखने वाले अन्य विशेषज्ञों की राय ले ली जाए, उनकी राय लेने के बाद ही ऑपरेशन की सोचेंगे। तब तक लेखक को घर जाकर बिना हिले-डुले आराम करने की सलाह दी गई। लेखक ने जिद की कि उसे बेडरूम में नहीं बल्कि उसके किताबों वाले कमरे में ही रखा जाए। लेखक की जिद मानते हुए लेखक को वहीं लेटा दिया गया। लेखक को लगता था कि लेखक के प्राण किताबों के उस कमरे की हजारों किताबों में बसे हैं जो पिछले चालीस-पचास साल में धीरे-धीरे लेखक के पास जमा होती गई थी। ये इतनी सारी किताबें लेखक के पास कैसे जमा हुईं, उन किताबों को इकठ्ठा करने की शुरुआत कैसे हुई, इन सब की कथा लेखक हमें बाद में सुनाना चाहता है। पहले तो लेखक हमें यह बताना जरूरी समझता है कि लेखक को किताबें पढ़ने और उन्हें सम्भाल कर रखने का शौक कैसे जागा। लेखक बताता है कि यह सब लेखक के बचपन से शुरू हुआ था। लेखक अपने बचपन के बारे में बताता हुआ कहता है कि उसके पिता की अच्छी-खासी सरकारी नौकरी थी। जब बर्मा रोड बन रही थी तब लेखक के पिता ने बहुत सारा धन कमाया था। लेकिन लेखक के जन्म के पहले ही गांधी जी के द्वारा बुलाए जाने पर लेखक के पिता ने सरकारी नौकरी छोड़ दी थी। सरकारी नौकरी छोड़ देने के कारण वे लोग रूपए-पैसे संबड़े बंधी कष्टों से गुजर रहे थे, इसके बावजूद भी लेखक के घर में पहले की ही तरह हर-रोज पत्र-पत्रिकाएँ आती रहती थीं। इन पत्र-पत्रिकाओं में ‘आर्यमित्र साप्ताहिक’, ‘वेदोदम’, ‘सरस्वती’, ‘गृहिणी’ थी और दो बाल पत्रिकाएँ खास तौर पर लेखक के लिए आती थी। जिनका नाम था-‘बालसखा’ और ‘चमचम’। लेखक के घर में बहुत सी पुस्तकें भी थीं। लेखक की प्रिय पुस्तक थी स्वामी दयानंद की एक जीवनी, जो बहुत ही मनोरंजक शैली में लिखी हुई थी, अनेक चित्रों से सज्जी हुई। लेखक की माँ लेखक को स्कूली पढ़ाई करने पर जोर दिया करती थी। लेखक की माँ लेखक को स्कूली पढ़ाई करने पर जोर इसलिए देती थी क्योंकि लेखक की माँ को यह चिंतित लगी रहतीं थी कि उनका लड़का हमेशा पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ता रहता है, कक्षा की किताबें कभी नहीं पढ़ता। कक्षा की किताबें नहीं पढ़ेगा तो कक्षा में पास कैसे होगा! लेखक स्वामी दयानन्द की जीवनी पढ़ा करता था जिस कारण लेखक की माँ को यह भी डर था कि लेखक कहीं खुद साधु बनकर घर से भाग न जाए। लेखक कहता है कि जिस दिन लेखक को स्कूल में भरती किया गया उस दिन शाम को लेखक के पिता लेखक की उँगली पकड़कर लेखक को घुमाने ले गए। लोकनाथ की एक दुकान पर लेखक को ताजा अनार का शरबत मिट्टी के बर्तन में पिलाया और लेखक के सिर पर हाथ रखकर बोले कि लेखक उनसे वायदा करे कि लेखक अपने पाठ्यक्रम की किताबें भी इतने ही ध्यान से पढ़ेगा जितने ध्यान से लेखक पत्रिकाओं को पढ़ता है और लेखक अपनी माँ की चिंता को भी मिटाएगा। लेखक कहता है कि यह उसके पिता का आशीर्वाद था या लेखक की कठिन मेहनत कि तीसरी और चौथी कक्षा में लेखक के अच्छे नंबर आए और पाँचवीं कक्षा में तो लेखक प्रथम आया। लेखक की मेहनत को देखकर लेखक की माँ ने आँसू भरकर लेखक को गले लगा लिया था, परन्तु लेखक के पिता केवल मुसकुराते रहे, कुछ बोले नहीं। क्योंकि लेखक को अंग्रेजी में सबसे ज्यादा नंबर मिले थे, अतः इसलिए लेखक को स्कूल से इनाम में दो अंग्रेजी किताबें मिली थीं। उनमें से एक किताब में दो छोटे बच्चे घोंसलों की खोज में बागों और घने पेड़ों के बीच में भटकते हैं और इस बहाने उन बच्चों को पक्षियों की जातियों, उनकी बोलियों, उनकी आदतों की जानकारी मिलती है। दूसरी किताब थी ‘ट्रस्टी द रग’ जिसमें पानी के जहाजों की कथाएँ थीं। उसमें बताया गया था कि जहाज कितने प्रकार के होते हैं, कौन-कौन-सा माल लादकर लाते हैं, कहाँ से लाते हैं, कहाँ ले जाते हैं, वाले जहाजों पर रहने नाविकों की जिंदगी कैसी होती है, उन्हें कैसे-कैसे द्वीप मिलते हैं, समुद्र में कहाँ ह्वेल मछली होती है और कहाँ शार्क होती है।लेखक कहता है कि स्कूल से इनाम में मिली उन अंग्रेजी की दो किताबों ने लेखक के लिए एक नयी दुनिया का द्वार लिए खोल दिया था। लेखक के पास अब उस दुनिया में पक्षियों से भरा आकाश था और रहस्यों से भरा समुद्र था। लेखक कहता है कि लेखक के पिता ने उनकी अलमारी के एक खाने से अपनी चीजें हटाकर जगह बनाई थी और लेखक की वे दोनों किताबें उस खाने में रखकर उन्होंने लेखक से कहा था कि आज से यह खाना तुम्हारी अपनी किताबों का है। अब यह तुम्हारी अपनी लाइब्रेरी है। लेखक कहता है कि यहीं से लेखक की लाइब्रेरी शुरू हुई थी जो आज बढ़ते-बढ़ते एक बहुत बड़े कमरे में बदल गई थी। लेखक बच्चे से किशोर अवस्था में आया, स्कूल से काॅलेज, काॅलेज से युनिवर्सिटी गया, डाॅक्टरेट हासिल की, यूनिवर्सिटी में बच्चों को पढ़ाने का काम किया, पढ़ाना छोड़कर इलाहाबाद से बंबई आया, लेखों को अच्छी तरह से पूरा करने का काम किया। और उसी अनुपात में अर्थात दो-दो करके अपनी लाइब्रेरी का विस्तार करता गया। अपनी लाइब्रेरी को बढ़ाता चला गया। लेखक अपनी बचपन की बातों को बताता हुआ कहता है कि हम लोग लेखक से यह पूछ सकते हैं कि लेखक को किताबें पढ़ने का शौक तो था यह मान लेते हैं पर किताबें इकट्ठी करने का पागलपन क्यों सवार हुआ? इसका कारण भी लेखक अपने बचपन के एक अनुभव को बताता है। लेखक बताता है कि इलाहाबाद भारत के प्रसिद्ध शिक्षा-केंद्रों में एक रहा है। इलाहाबाद में ईस्ट इंडिया द्वारा स्थापित की गई पब्लिक लाइब्रेरी से लेकर महामना मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित भारती भवन तक है। इलाहाबाद में विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी तथा अनेक काॅलेजों की लाइब्रेरियाँ तो हैं ही, इसके साथ ही इलाहाबाद के लगभग हर मुहल्ले में एक अलग लाइब्रेरी है। इलाहाबाद में हाईकोर्ट है, अतः वकीलों की अपनी अलग से लाइब्रेरियाँ हैं, अध्यापकों की अपनी अलग से लाइब्रेरियाँ हैं। उन सभी लाइब्रेरियों को देख कर लेखक भी सोचा करता था कि क्या उसकी भी कभी वैसी लाइब्रेरी होगी?, यह सब लेखक सपने में भी नहीं सोच सकता था, पर लेखक के मुहल्ले में एक लाइब्रेरी थी जिस्म नाम ‘हरि भवन’ था। लेखक की जैसे ही स्कूल से छुटी होती थी कि लेखक लाइब्रेरी में चला जाता था। मुहल्ले के उस छोटे-से ‘हरि भवन’ में खूब सारे उपन्यास थे। जैसे ही लाइब्रेरी खुलती थी लेखक लाइब्रेरी पहुँच जाता था और जब शुक्ल जी जो उस लाइब्रेरी के लाइब्रेरियन थे वे लेखक से कहते कि बच्चा, अब उठो, पुस्तकालय बंद करना है, तब लेखक बिना इच्छा के ही वहां से उठता था। लेखक के पिता की मृत्यु के बाद तो लेखक के परिवार पर रुपये-पैसे से संबंधित इतना अधिक संकट बढ़ गया था कि लेखक को फीस जुटाना तक मुश्किल हो गया था। अपने शौक की किताबें खरीदना तो लेखक के लिए उस समय संभव ही नहीं था। एक ट्रस्ट की ओर से बेसहारा छात्रों को पाठ्यपुस्तकें खरीदने के लिए सत्र के आरंभ में कुछ रुपये मिलते थे। लेखक उन से केवल ‘सेकंड-हैंड’ प्रमुख पाठ्यपुस्तकें खरीदता था, बाकी अपने सहपाठियों से लेकर पढ़ता और नोटिस बना लेता था। लेखक कहता है कि रुपये-पैसे की इतनी तंगी होने के बाद भी लेखक ने अपने जीवन की पहली साहित्यिक पुस्तक अपने पैसों से कैसे खरीदी, यह आज तक लेखक को याद है। लेखक अपनी याद को हमें बताता हुआ कहता है कि उस साल लेखक ने अपनी माध्यमिक की परीक्षा को पास किया था। लेखक पुरानी पाठ्यपुस्तकें बेचकर बी.ए. की पाठ्यपुस्तकें लेने एक सेकंड-हैंड बुकशाॅप पर गया। इस बार न जाने कैसे सारी पाठ्यपुस्तकें खरीदकर भी दो रुपये बच गए थे। लेखक ने देखा की सामने के सिनेमाघर में ‘देवदास’ लगा था। न्यू थिएटर्स वाला। उन दिनों उसकी बहुत चर्चा थी। लेकिन लेखक की माँ को सिनेमा देखना बिलकुल पसंद नहीं था। लेखक की माँ को लगता था कि सिनेमा देखने से ही बच्चे बिगड़ते हैं। लेखक ने माँ को बताया कि किताबें बेचकर दो रुपये लेखक के पास बचे हैं। वे दो रुपये लेकर माँ की सहमति से लेखक फ़िल्म देखने गया। लेखक बताता है कि पहला शो छूटने में अभी देर थी, पास में लेखक की परिचित किताब की दुकान थी। लेखक वहीं उस दुकान के आस-पास चक्कर लगाने लगा। अचानक लेखक ने देखा कि काउंटर पर एक पुस्तक रखी है-‘देवदास’। जिसके लेखक शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय हैं। उस किताब का मूल्य केवल एक रुपया था। लेखक ने पुस्तक उठाकर उलटी-पलटी। तो पुस्तक-विक्रेता को पहचानते हुए बोला कि लेखक तो एक विद्यार्थी है। लेखक उसी दुकान पर अपनी पुरानी किताबें बेचता है। लेखक उसका पुराना ग्राहक है। वह दुकानदार लेखक से बोले कि वह लेखक से कोई कमीशन नहीं लेगा। वह केवल दस आने में वह किताब लेखक को दे देगा। यह सुनकर लेखक का मन भी पलट गया। लेखक ने सोचा कि कौन डेढ़ रुपये में पिक्चर देख कर डेढ़ रुपये खराब करेगा? लेखक ने दस आने में ‘देवदास’ किताब खरीदी और जल्दी-जल्दी घर लौट आया, और जब लेखक ने वह किताब अपनी माँ को दिखाई तो लेखक की माँ के आँखों में आँसू आ गए। लेखक नहीं जानता कि वह आँसू खुशी के थे या दुख के थे। लेखक यहाँ बताता है कि वह लेखक के अपने पैसों से खरीदी लेखक की अपनी निजी लाइब्रेरी की पहली किताब थी। लेखक कहता है कि जब लेखक का ऑपरेशन सफल हो गया था तब मराठी के एक बड़े कवि विंदा करंदीकर लेखक से उस दिन मिलने आये थे। उन्होंने लेखक से कहा था कि भारती, ये सैकड़ों महापुरुष जो पुस्तक-रूप में तुम्हारे चारों ओर उपस्थित हैं, इन्हीं के आशीर्वाद से तुम बचे हो। इन्होंने तुम्हें दोबारा जीवन दिया है। लेखक ने मन-ही-मन सभी को प्रणाम किया-विंदा को भी, इन महापुरुषों को भी। यहाँ लेखक भी मानता था कि उसके द्वारा इकठ्ठी की गई पुस्तकों में उसकी जान बसती है जैसे तोते में राजा के प्राण बसते थे।

 
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मेरा छोटा-सा निजी पुस्तकालय पाठ व्याख्या

पाठ –  जुलाई 1989 । बचने की कोई उम्मीद नहीं थी। तीन-तीन जबरदस्त हार्ट-अटैक, एक के बाद एक। एक तो ऐसा कि नब्ज बंद, साँस बंद, धड़कन बंद। डॉक्टरों ने घोषित कर दिया कि अब प्राण नहीं रहे। पर डॉक्टर बोर्जेस ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी थी। उन्होंने नौ सौ वॉल्ट्स के शॉक्स (shocks) दिए। भयानक प्रयोग। लेकिन वे बोले कि यदि यह मृत शरीर मात्र है तो दर्द महसूस ही नहीं होगा, पर यदि कहीं भी जरा भी एक कण प्राण शेष होंगे तो हार्ट रिवाइव (revive) कर सकता है। प्राण तो लौटे, पर इस प्रयोग में साठ प्रतिशत हार्ट सदा के लिए नष्ट हो गया। केवल चालीस प्रतिशत बचा। उसमें भी तीन अवरोध् (blockage) हैं। ओपेन हार्ट ऑपरेशन तो करना ही होगा पर सर्जन हिचक रहे हैं। केवल चालीस प्रतिशत हार्ट है। ऑपरेशन के बाद न रिवाइव हुआ तो? तय हुआ कि अन्य विशेषज्ञों की राय ले ली जाए, तब कुछ दिन बाद ऑपरेशन की सोचेंगे। तब तक घर जाकर बिना हिले-डुले विश्राम करें।

शब्दार्थ 
अवरोध् – रुकावट
विशेषज्ञ – किसी विषय को अच्छी तरह समझने वाला
विश्राम – आराम

व्याख्या – लेखक यहाँ अपने बारे में बात कर रहा है। लेखक साल 1989 जुलाई की बात करता हुआ कहता है कि उस समय लेखक के बचने की कोई उम्मीद नहीं थी। क्योंकि लेखक को तीन-तीन ज़बरदस्त हार्ट-अटैक आए थे और वो भी एक के बाद एक। उनमें से एक तो इतना खतरनाक था कि उस समय लेखक की नब्ज बंद, साँस बंद और यहाँ तक कि धड़कन भी बंद पड़ गई थी। उस समय डॉक्टरों ने यह घोषित कर दिया था कि अब लेखक के प्राण नहीं रहे। लेखक कहता है कि उन सभी डॉक्टरों में से एक डॉक्टर बोर्जेस थे जिन्होंने फिर भी हिम्मत नहीं हारी थी। उन्होंने लेखक को नौ सौ वॉल्ट्स के शॉक्स (shocks) दिए। लेखक कहता है कि यह एक बहुत ही भयानक प्रयोग था। लेकिन डॉक्टर बोर्जेस बोले कि यदि यह केवल लेखक का मृत शरीर ही है तो उन्हें कोई दर्द महसूस ही नहीं होगा, पर यदि लेखक के शरीर में कहीं पर भी जरा सा एक कण प्राण शेष हो तो हार्ट रिवाइव (revive) कर सकता है। उनके कहने का तात्पर्य यह था कि यदि लेखक के शरीर में थोड़े से भी प्राण बाकी होंगे तो इस नौ सौ वॉल्ट्स के शॉक्स से लेखक के प्राण बच जाएँगे। लेखक कहता है कि उनका प्रयोग सफल रहा। लेखक के प्राण तो लौटे, पर इस प्रयोग में लेखक का साठ प्रतिशत हार्ट सदा के लिए नष्ट हो गया। अब लेखक का केवल चालीस प्रतिशत हार्ट ही बचा था जो काम कर रहा था। लेखक कहता है कि उस चालीस प्रतिशत काम करने वाले हार्ट में भी तीन रुकावटें थी। जिस कारण लेखक का ओपेन हार्ट ऑपरेशन तो करना ही होगा पर सर्जन हिचक रहे हैं। क्योंकि लेखक का केवल चालीस प्रतिशत हार्ट ही काम कर रहा था। सर्जन को डर था कि अगर ऑपरेशन कर भी दिया तो हो सकता है कि ऑपरेशन के बाद न हार्ट रिवाइव ही न हो। सभी ने तय किया कि हार्ट के बारे में अच्छी जानकारी रखने वाले अन्य विशेषज्ञों की राय ले ली जाए, उनकी राय लेने के बाद ही ऑपरेशन की सोचेंगे। तब तक लेखक को घर जाकर बिना हिले-डुले आराम करने की सलाह दी गई।

पाठ –  बरहाल, ऐसी अर्धमृत्यु की हालत में वापिस घर लाया जाता हूँ। मेरी जिद है कि बेडरूम में नहीं, मुझे अपने किताबों वाले कमरे में ही रखा जाए। वहीं लेटा दिया गया है मुझे। चलना, बोलना, पढ़ना मना। दिन भर पड़े-पड़े दो ही चीजें देखता रहता हूँ, बाईं ओर की खिड़की के सामने रह-रहकर हवा में झूलते सुपारी के पेड़ के झालरदार पत्ते और अंदर कमरे में चारों ओर फर्श से लेकर छत तक ऊँची, किताबों से ठसाठस भरी अलमारियाँ। बचपन में परी कथाओं (fairy tales) में जैसे पढ़ते थे कि राजा के प्राण उसके शरीर में नहीं, तोते में रहते हैं, वैसे ही लगता था कि मेरे प्राण इस शरीर से तो निकल चुके हैं, वे प्राण इन हजारों किताबों में बसे हैं जो पिछले चालीस-पचास बरस में धीरे-धीरे मेरे पास जमा होती गई हैं।
कैसे जमा हुईं, संकलन की शुरुआत कैसे हुई, यह कथा बाद में सुनाऊँगा। पहले तो यह बताना जरूरी है कि किताबें पढ़ने और सहेजने का शौक कैसे जागा। बचपन की बात है। उस समय आर्य समाज का सुधारवादी आंदोलन अपने पूरे जोर पर था। मेरे पिता आर्य समाज रानीमंडी के प्रधान थे और माँ ने स्त्री-शिक्षा के लिए आदर्श कन्या पाठशाला की स्थापना की थी।

शब्दार्थ 
बरहाल – फिलहाल
अर्धमृत्यु – अधमरा
संकलन – इकठ्ठा करना

व्याख्या – लेखक कहता है कि फिलहाल उसे वैसी ही अर्धमृत्यु की अधमरी सी हालत में वापिस घर लाया गया था। घर आने पर लेखक ने जिद की कि उसे बेडरूम में नहीं बल्कि उसके किताबों वाले कमरे में ही रखा जाए। लेखक की जिद मानते हुए लेखक को वहीं लेटा दिया गया। लेखक का कहीं भी चलना, किसी से भी बात करना और यहाँ तक की पढ़ना भी बंद था। सब कुछ मना होने पर लेखक दिन भर उस कमरे में पड़े-पड़े दो ही चीजें देखता रहता था, बाईं ओर की खिड़की के सामने रुक-रुककर हवा में झूलते सुपारी के पेड़ के झालरदार पत्ते और अंदर कमरे में चारों ओर फर्श से लेकर छत तक ऊँची, किताबों से ठसाठस भरी अलमारियाँ। इन सब को देखकर लेखक को उसके बचपन में पढ़ी हुई परी कथाओं की याद आ जाती थी। उन कथाओं में जैसे लेखक पढ़ता था कि राजा के प्राण उसके शरीर में नहीं, तोते में रहते हैं, वैसे ही लेखक को लगता था कि लेखक के प्राण लेखक के शरीर से तो निकल चुके हैं, परन्तु वे प्राण लेखक के किताबों के उस कमरे की हजारों किताबों में बसे हैं जो पिछले चालीस-पचास साल में धीरे-धीरे लेखक के पास जमा होती गई थी। ये इतनी सारी किताबें लेखक के पास कैसे जमा हुईं, उन किताबों को इकठ्ठा करने की शुरुआत कैसे हुई, इन सब की कथा लेखक हमें बाद में सुनाना चाहता है। पहले तो लेखक हमें यह बताना जरूरी समझता है कि लेखक को किताबें पढ़ने और उन्हें सम्भाल कर रखने का शौक कैसे जागा। लेखक बताता है कि यह सब लेखक के बचपन से शुरू हुआ था। उस समय आर्य समाज का सुधरवादी आंदोलन अपने पूरे जोर पर था। लेखक के पिता आर्य समाज रानीमंडी के प्रधान थे और माँ ने स्त्री-शिक्षा के लिए आदर्श कन्या पाठशाला की स्थापना की थी।

पाठ – पिता की अच्छी-खासी सरकारी नौकरी थी। बर्मा रोड जब बन रही थी तब बहुत कमाया था उन्होंने। लेकिन मेरे जन्म के पहले ही गांधी जी के आह्नान पर उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी थी। हम लोग बड़े आर्थिक कष्टों से गुजर रहे थे, फिर भी घर में नियमित पत्र-पत्रिकाएँ आती थीं-‘आर्यमित्र साप्ताहिक’, ‘वेदोदम’, ‘सरस्वती’, ‘गृहिणी’ और दो बाल पत्रिकाएँ खास मेरे लिए-‘बालसखा’ और ‘चमचम’। उनमें होती थी परियों, राजकुमारों, दानवों और सुंदरी राजकन्याओं की कहानियाँ और रेखा-चित्र। मुझे पढ़ने की चाट लग गई। हर समय पढ़ता रहता। खाना खाते समय थाली के पास पत्रिकाएँ रखकर पढ़ता। अपनी दोनों पत्रिकाओं के अलावा भी ‘सरस्वती’ और ‘आर्यमित्र’ पढ़ने की कोशिश करता। घर में पुस्तकें भी थीं। उपनिषदें और उनके हिंदी अनुवाद, ‘सत्यार्थ प्रकाश’। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के खंडन-मंडन वाले अध्याय पूरी तरह समझ तो नहीं पाता था, पर पढ़ने में मजा आता था। मेरी प्रिय पुस्तक थी स्वामी दयानंद की एक जीवनी, रोचक शैली में लिखी हुई, अनेक चित्रों से सुसज्जित। वे तत्कालीन पाखंडों के विरुद्ध अदम्य साहस दिखाने वाले अद्भुत व्यक्तित्व थे। कितनी ही रोमांचक घटनाएँ थीं उनके जीवन की जो मुझे बहुत प्रभावित करती थीं। चूहे को भगवान का भोग खाते देखकर मान लेना कि प्रतिमाएँ भगवान नहीं होतीं, घर छोड़कर भाग जाना, तमाम तीर्थों, जंगलों, गुफाओं, हिमशिखरों पर साधुओं के बीच घूमना और हर जगह इसकी तलाश करना कि भगवान क्या है? सत्य क्या है? जो भी समाज-विरोधी, मनुष्य-विरोधी मूल्य हैं, रूढ़ियाँ हैं, उनका खंडन करना और अंत में अपने से हारे को क्षमा कर उसे सहारा देना। यह सब मेरे बालमन को बहुत रोमांचित करता। जब इस सबसे थक जाता तब फिर ‘बालसखा’ और ‘चमचम’ की पहले पढ़ी हुई कथाएँ दुबारा पढ़ता।

शब्दार्थ 
आह्नान – पुकार, बुलावा
आर्थिक – रूपए पैसे संबंधी
नियमित – हर-रोज
चाट – आदत
रोचक – मनोरंजक
सुसज्जित – सज्जी हुई
तत्कालीन – उस समय का
पाखंड – ढोंग
अदम्य – जिसे दबाया न जा सके
रोमांचक – अद्भुत
प्रतिमाएँ – मूर्तियाँ
रूढ़ियाँ – प्रथाएँ

व्याख्या – लेखक अपने बचपन के बारे में बताता हुआ कहता है कि उसके पिता की अच्छी-खासी सरकारी नौकरी थी। जब बर्मा रोड बन रही थी तब लेखक के पिता ने बहुत सारा धन कमाया था। लेकिन लेखक के जन्म के पहले ही गांधी जी के द्वारा बुलाए जाने पर लेखक के पिता ने सरकारी नौकरी छोड़ दी थी। लेखक बताता है कि जब लेखक के पिता ने सरकारी नौकरी छोड़ दी तो वे लोग रूपए-पैसे संबड़े बंधी कष्टों से गुजर रहे थे, इसके बावजूद भी लेखक के घर में पहले की ही तरह हर-रोज पत्र-पत्रिकाएँ आती रहती थीं। इन पत्र-पत्रिकाओं में ‘आर्यमित्र साप्ताहिक’, ‘वेदोदम’, ‘सरस्वती’, ‘गृहिणी’ थी और दो बाल पत्रिकाएँ खास तौर पर लेखक के लिए आती थी। जिनका नाम था-‘बालसखा’ और ‘चमचम’। उन दो पत्रिकाओं में परियों, राजकुमारों, दानवों और सुंदरी राजकन्याओं की कहानियाँ और रेखाचित्र होते थे। लेखक को उन दो पत्रिकाओं को पढ़ने की आदत लग गई थी। लेखक उन पत्रिकाओं को हर समय पढ़ता रहता था। यहाँ तक की जब लेखक खाना खाता था तब भी थाली के पास पत्रिकाएँ रखकर पढ़ता रहता था। अपनी दोनों पत्रिकाओं के अलावा लेखक दूसरी पत्रिकाओं को भी पढ़ता था। लेखक ‘सरस्वती’ और ‘आर्यमित्र’ नामक पत्रिकाओं को पढ़ने की कोशिश करता था। लेखक के घर में बहुत सी पुस्तकें भी थीं। उपनिषदें और उनके हिंदी अनुवाद, ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नमक हिंदी लेखक की भी बहुत सी पुस्तकें लेखक के घर पर थी। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के खंडन-मंडन वाले अध्याय लेखक को पूरी तरह समझ तो नहीं आते थे, पर उन्हें पढ़ने में लेखक को मजा आता था। लेखक की प्रिय पुस्तक थी स्वामी दयानंद की एक जीवनी, जो बहुत ही मनोरंजक शैली में लिखी हुई थी, अनेक चित्रों से सज्जी हुई। वे उस समय के दिखावों और ढोंगों के विरुद्ध ऐसा अद्भुत साहस दिखाने वाले अद्भुत व्यक्तित्व थे जिन्हें दबाया न जा सकता था। कितनी ही अद्भुत घटनाएँ थीं उनके जीवन की जो लेखक को बहुत प्रभावित करती थीं। उन घटनाओं में मुख्य थी -चूहे को भगवान का भोग खाते देखकर यह मान लेना कि मूर्तियां भगवान नहीं होतीं, घर छोड़कर भाग जाना, सभी तीर्थों, जंगलों, गुफाओं, हिमशिखरों पर साधुओं के बीच घूमना और हर जगह इसकी तलाश करना कि भगवान क्या है? सत्य क्या है? जो भी समाज-विरोधी, मनुष्य-विरोधी मूल्य हैं, प्रथाएँ हैं, उनका खंडन करना और अंत में अपने से हारे हुए सभी को माफ़ कर उसे सहारा देना। यह सब घटनाएँ लेखक के बालमन को बहुत रोमांचित करती थी। जब लेखक यह अब पढ़ कर थक जाता था तब फिर से वह अपनी पत्रिकाओं ‘बालसखा’ और ‘चमचम’ की पहले से पढ़ी हुई कथाएँ दोबारा पढ़ता था।

पाठ –  माँ स्कूली पढ़ाई पर जोर देतीं। चिंतित रहती कि लड़का कक्षा की किताबें नहीं पढ़ता। पास कैसे होगा! कहीं खुद साधु बनकर घर से भाग गया तो? पिता कहते-जीवन में यही पढ़ाई काम आएगी, पढ़ने दो। मैं स्कूल नहीं भेजा गया था, शुरू की पढ़ाई के लिए घर पर मास्टर रखे गए थे। पिता नहीं चाहते थे कि नासमझ उम्र में मैं गलत संगति में पड़कर गाली-गलौज सीखूँ, बुरे संस्कार ग्रहण करूँ अतः मेरा नाम लिखाया गया, जब मैं कक्षा दो तक की पढ़ाई घर पर कर चुका था। तीसरे दर्जे में मैं भरती हुआ। उस दिन शाम को पिता उँगली पकड़कर मुझे घुमाने ले गए। लोकनाथ की एक दुकान ताजा अनार का शरबत मिट्टी के कुल्हड़ में पिलाया और सिर पर हाथ रखकर बोले-“वायदा करो कि पाठ्यक्रम की किताबें भी इतने ही ध्यान से पढ़ोगे, माँ की चिंता मिटाओगे।” उनका आशीर्वाद था या मेरा जी-तोड़ परिश्रम कि तीसरे, चैथे में मेरे अच्छे नंबर आए और पाँचवें में तो मैं फर्स्ट आया। माँ ने आँसू भरकर गले लगा लिया, पिता मुसकुराते रहे, कुछ बोले नहीं। चूँकि अंग्रेजी में मेरे नंबर सबसे ज्यादा थे, अतः स्कूल से इनाम में दो अंग्रेजी किताबें मिली थीं। एक में दो छोटे बच्चे घोंसलों की खोज में बागों और कुंजों में भटकते हैं और इस बहाने पक्षियों की जातियों, उनकी बोलियों, उनकी आदतों की जानकारी उन्हें मिलती है। दूसरी किताब थी ‘ट्रस्टी द रग’ जिसमें पानी के जहाजों की कथाएँ थीं-कितने प्रकार के होते हैं, कौन-कौन-सा माल लादकर लाते हैं, कहाँ से लाते हैं, कहाँ ले जाते हैं, नाविकों की जिंदगी कैसी होती है, कैसे-कैसे द्वीप मिलते हैं, कहाँ ह्वेल होती है, कहाँ शार्क होती है।

शब्दार्थ 
नासमझ – जिसे समझ न हो
दर्जे – कक्षा
कुल्हड़ – पात्र, बर्तन
जी-तोड़ – कठिन मेहनत
कुंज – घने पेड़ों वाला स्थान

व्याख्या – लेखक अपने बचपन की बातें बताता हुआ कहता है कि लेखक की माँ लेखक को स्कूली पढ़ाई करने पर जोर दिया करती थी। लेखक की माँ लेखक को स्कूली पढ़ाई करने पर जोर इसलिए देती थी क्योंकि लेखक की माँ को यह चिंतित लगी रहती थी कि उनका लड़का हमेशा पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ता रहता है, कक्षा की किताबें कभी नहीं पढ़ता। कक्षा की किताबें नहीं पढ़ेगा तो कक्षा में पास कैसे होगा! लेखक स्वामी दयानन्द की जीवनी पढ़ा करता था जिस कारण लेखक की माँ को यह भी डर था कि लेखक कहीं खुद साधु बनकर घर से भाग न जाए। लेखक की माँ को इतनी चिंता करता देख लेखक के पिता उनसे कहते थे कि जीवन में यही पढ़ाई काम आएगी, इसलिए लेखक को पढ़ने दो। लेखक कहता है कि लेखक को स्कूल नहीं भेजा गया था, लेखक की शुरू की पढ़ाई के लिए लेखक के घर पर मास्टर रखे गए थे। लेखक की पिता नहीं चाहते थे कि छोटी सी उम्र में जब किसी चीज की समझ नहीं होती उस उम्र में लेखक किसी गलत संगति में पड़कर गाली-गलौज न सीख ले, बुरे संस्कार न ग्रहण कर ले। यही कारण था कि जब लेखक कक्षा दो तक की पढ़ाई घर पर ही पूरी कर चुका था तब जाके स्कूल में लेखक का नाम लिखाया गया। और लेखक तीसरी कक्षा में स्कूल में भरती हुआ। लेखक कहता है कि जिस दिन लेखक को स्कूल में भरती किया गया उस दिन शाम को लेखक के पिता लेखक की उँगली पकड़कर लेखक को घुमाने ले गए। लोकनाथ की एक दुकान पर लेखक को ताजा अनार का शरबत मिट्टी के बर्तन में पिलाया और लेखक के सिर पर हाथ रखकर बोले कि लेखक उनसे वायदा करे कि लेखक अपने पाठ्यक्रम की किताबें भी इतने ही ध्यान से पढ़ेगा जितने ध्यान से लेखक पत्रिकाओं को पढ़ता है और लेखक अपनी माँ की चिंता को भी मिटाएगा। लेखक कहता है कि यह उसके पिता का आशीर्वाद था या लेखक की कठिन मेहनत कि तीसरी और चौथी कक्षा में लेखक के अच्छे नंबर आए और पाँचवीं कक्षा में तो लेखक प्रथम आया। लेखक की मेहनत को देखकर लेखक की माँ ने आँसू भरकर लेखक को गले लगा लिया था, परन्तु लेखक के पिता केवल मुसकुराते रहे, कुछ बोले नहीं। क्योंकि लेखक को अंग्रेजी में सबसे ज्यादा नंबर मिले थे, अतः इसलिए लेखक को स्कूल से इनाम में दो अंग्रेजी किताबें मिली थीं। उनमें से एक किताब में दो छोटे बच्चे घोंसलों की खोज में बागों और घने पेड़ो के बीच में भटकते हैं और इस बहाने उन बच्चों को पक्षियों की जातियों, उनकी बोलियों, उनकी आदतों की जानकारी मिलती है। दूसरी किताब थी ‘ट्रस्टी द रग’ जिसमें पानी के जहाज़ों की कथाएँ थीं। उसमें बताया गया था कि जहाज़ कितने प्रकार के होते हैं, कौन-कौन-सा माल लादकर लाते हैं, कहाँ से लाते हैं, कहाँ ले जाते हैं, वाले जहाज़ों पर रहने नाविकों की जिंदगी कैसी होती है, उन्हें कैसे-कैसे द्वीप मिलते हैं, समुद्र में कहाँ ह्वेल मछली होती है और कहाँ शार्क होती है।

पाठ – इन दो किताबों ने एक नयी दुनिया का द्वार मेरे लिए खोल दिया। पक्षियों से भरा आकाश और रहस्यों से भरा समुद्र। पिता ने अलमारी के एक खाने से अपनी चीजें हटाकर जगह बनाई और मेरी दोनों किताबें उस खाने में रखकर कहा-“आज से यह खाना तुम्हारी अपनी किताबों का। यह तुम्हारी अपनी लाइब्रेरी है।”
यहाँ से आरंभ हुई उस बच्चे की लाइब्रेरी। बच्चा किशोर हुआ, स्कूल से काॅलेज, काॅलेज से यूनिवर्सिटी गया, डाॅक्टरेट हासिल की, यूनिवर्सिटी में अध्यापन किया, अध्यापन छोड़कर इलाहाबाद से बंबई आया, संपादन किया। उसी अनुपात में अपनी लाइब्रेरी का विस्तार करता गया।

शब्दार्थ 
आरंभ – शुरू
अध्यापन – पढ़ाना
संपादन – अच्छी तरह से पूरा करना, प्रस्तुत करना

व्याख्या – लेखक कहता है कि स्कूल से इनाम में मिली उन अंग्रेजी की दो किताबों ने लेखक के लिए एक नयी दुनिया का द्वार लिए खोल दिया था। लेखक के पास अब उस दुनिया में पक्षियों से भरा आकाश था और रहस्यों से भरा समुद्र था। लेखक कहता है कि लेखक के पिता ने उनकी अलमारी के एक खाने से अपनी चीजें हटाकर जगह बनाई थी और लेखक की वे दोनों किताबें उस खाने में रखकर उन्होंने लेखक से कहा था कि आज से यह खाना तुम्हारी अपनी किताबों का है। अब यह तुम्हारी अपनी लाइब्रेरी है। लेखक कहता है कि यहीं से लेखक की लाइब्रेरी शुरू हुई थी जो आज बढ़ते-बढ़ते एक बहुत बड़े कमरे में बदल गई थी। लेखक बच्चे से किशोर अवस्था में आया, स्कूल से काॅलेज, काॅलेज से यूनिवर्सिटी गया, डाॅक्टरेट हासिल की, यूनिवर्सिटी में बच्चों को पढ़ाने का काम किया, पढ़ना छोड़कर इलाहाबाद से बंबई आया, लेखों को अच्छी तरह से पूरा करने का काम किया। और उसी अनुपात में अर्थात दो-दो करके अपनी लाइब्रेरी का विस्तार करता गया। अपनी लाइब्रेरी को बढ़ाता चला गया।

पाठ – पर आप पूछ सकते हैं कि किताबें पढ़ने का शौक तो ठीक, किताबें इकट्ठी करने की सनक क्यों सवार हुई? उसका कारण भी बचपन का एक अनुभव है। इलाहाबाद भारत के प्रख्यात शिक्षा-केंद्रों में एक रहा है। ईस्ट इंडिया द्वारा स्थापित पब्लिक लाइब्रेरी से लेकर महामना मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित भारती भवन तक। विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी तथा अनेक काॅलेजों की लाइब्रेरियाँ तो हैं ही, लगभग हर मुहल्ले में एक अलग लाइब्रेरी। वहाँ हाईकोर्ट है, अतः वकीलों की निजी लाइब्रेरियाँ, अध्यापकों की निजी लाइब्रेरियाँ। अपनी लाइब्रेरी वैसी कभी होगी, यह तो स्वपन में भी नहीं सोच सकता था, पर अपने मुहल्ले में एक लाइब्रेरी थी-‘हरि भवन’। स्कूल से छुटी मिली कि मैं उसमें जाकर जम जाता था। पिता दिवंगत हो चुके थे, लाइब्रेरी का चंदा चुकाने का पैसा नहीं था, अतः वहीं बैठकर किताबें निकलवाकर पढ़ता रहता था। उन दिनों हिंदी में विश्व साहित्य विशेष कर उपन्यासों के खूब अनुवाद हो रहे थे। मुझे उन अनूदित उपन्यासों को पढ़कर बड़ा सुख मिलता था। अपने छोटे-से ‘हरि भवन’ में खूब उपन्यास थे। वहीं परिचय हुआ बंकिमचंद्र चटोपाध्याय की ‘दुर्गेशनंदिनी’, ‘कपाल कुण्डला’ और ‘आनंदमठ’ से टालस्टाय की ‘अन्ना करेनिना’, विक्टर ह्यूगो का ‘पेरिस का कुबड़ा’ (हंचबैक ऑफ नात्रोदाम), गोर्की की ‘मदर’, अलेक्जंडर कुप्रिन का ‘गाड़ीवालों का कटरा’ (यामा द पिट) और सबसे मनोरंजक सर्वा-रीज़ का ‘विचित्र वीर’ (यानी डाॅन क्विक्ज़ोट)। हिंदी के ही माध्यम से सारी दुनिया के कथा-पात्रों से मुलाकात करना कितना आकर्षक था! लाइब्रेरी खुलते ही पहुँच जाता और जब शुक्ल जी लाइब्रेरियन कहते कि बच्चा, अब उठो, पुस्तकालय बंद करना है, तब बड़ी अनिच्छा से उठता। जिस दिन कोई उपन्यास अधूरा छूट जाता, उस दिन मन में कसक होती कि काश, इतने पैसे होते कि सदस्य बनकर किताब इश्यू करा लाता, या काश, इस किताब को खरीद पाता तो घर में रखता, एक बार पढ़ता, दो बार पढ़ता, बार-बार पढ़ता पर जानता था कि यह सपना ही रहेगा, भला कैसे पूरा हो पाएगा!

शब्दार्थ 
सनक – पागलपन
प्रख्यात – जाने-माने, प्रसिद्ध
निजी – अपनी
दिवंगत – स्वर्गीय
अनूदित – अनुवाद किए हुए
अनिच्छा – बिना इच्छा के
कसक – रुक-रुक कर होने वाली पीड़ा

व्याख्या – लेखक अपनी बचपन की बातों को बताता हुआ कहता है कि हम लोग लेखक से यह पूछ सकते हैं कि लेखक को किताबें पढ़ने का शौक तो था यह मान लेते हैं पर किताबें इकट्ठी करने का पागलपन क्यों सवार हुआ? इसका कारण भी लेखक अपने बचपन के एक अनुभव को बताता है। लेखक बताता है कि इलाहाबाद भारत के प्रसिद्ध शिक्षा-केंद्रों में एक रहा है। इलाहाबाद में ईस्ट इंडिया द्वारा स्थापित की गई पब्लिक लाइब्रेरी से लेकर महामना मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित भारती भवन तक है। इलाहाबाद में विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी तथा अनेक काॅलेजों की लाइब्रेरियाँ तो हैं ही, इसके साथ ही इलाहाबाद के लगभग हर मुहल्ले में एक अलग लाइब्रेरी है। इलाहाबाद में हाईकोर्ट है, अतः वकीलों की अपनी अलग से लाइब्रेरियाँ हैं, अध्यापकों की अपनी अलग से लाइब्रेरियाँ हैं। उन सभी लाइब्रेरियों को देख कर लेखक भी सोचा करता था कि क्या उसकी भी कभी वैसी लाइब्रेरी होगी?, यह सब लेखक सपने में भी नहीं सोच सकता था, पर लेखक के मुहल्ले में एक लाइब्रेरी थी जिस्म नाम ‘हरि भवन’ था। लेखक की जैसे ही स्कूल से छुटी होती थी कि लेखक लाइब्रेरी में चला जाता था। लेखक कहता है कि इस समय तक लेखक के पिता स्वर्गीय हो चुके थे, इसलिए लेखक के पास लाइब्रेरी का चंदा चुकाने के लिए भी पैसा नहीं था, इसी कारण लेखक वहीं लाइब्रेरी में बैठकर किताबें निकलवाकर पढ़ता रहता था। उन दिनों हिंदी में विश्व साहित्य विशेषकर उपन्यासों के खूब अनुवाद हो रहे थे। लेखक को उन अनुवाद किए गए उपन्यासों को पढ़कर बड़ा सुख मिलता था। लेखक कहता है कि उनके मुहल्ले के उस छोटे-से ‘हरि भवन’ में खूब सारे उपन्यास थे। वहीं पर लेखक ने बहुत से उपन्यास पढ़े जिसमें मुख्य हैं-बंकिमचंद्र चटोपाध्याय की ‘दुर्गेशनंदिनी’, ‘कपाल कुण्डला’ और ‘आनंदमठ’ से टालस्टाय की ‘अन्ना करेनिना’, विक्टर ह्यूगो का ‘पेरिस का कुबड़ा’ (हंचबैक ऑफ नात्रोदाम), गोर्की की ‘मदर’, अलेक्जंडर कुप्रिन का ‘गाड़ीवालों का कटरा’ (यामा द पिट) और सबसे मनोरंजक सर्वा-रीज़ का ‘विचित्र वीर’ (यानी डाॅन क्विक्ज़ोट)। लेखक कहता है कि उन्हें हिंदी के ही माध्यम से सारी दुनिया के कथा-पात्रों को जानना बहुत अधिक आकर्षक लगता था। जैसे ही लाइब्रेरी खुलती थी लेखक लाइब्रेरी पहुँच जाता था और जब शुक्ल जी जो उस लाइब्रेरी के लाइब्रेरियन थे वे लेखक से कहते कि बच्चा, अब उठो, पुस्तकालय बंद करना है, तब लेखक बिना इच्छा के ही वहां से उठता था। जब कभी किसी दिन लेखक से कोई उपन्यास अधूरा छूट जाता था, तो उस दिन लेखक के मन में एक तरह का रुक-रुक कर दर्द होता था और वह सोचता था कि काश, उसके पास इतने पैसे होते कि वह लाइब्रेरी का सदस्य बनकर किताब को इश्यू करा लाता, या काश, वह इस किताब को खरीद पाता तो घर में रखता, एक बार पढ़ता, दो बार पढ़ता, बार-बार पढ़ता। पर लेखक जानता था कि यह सपना ही रहेगा, भला यह कैसे पूरा हो पाएगा। क्योंकि लेखक के पास इतने पैसे नहीं थे और अभी उसके पास कोई साधन भी नहीं था जिससे वह पैसे कमा सके।

पाठ – पिता के देहावसान के बाद तो आर्थिक संकट इतना बढ़ गया कि पूछिए मत। फीस जुटाना तक मुश्किल था। अपने शौक की किताबें खरीदना तो संभव ही नहीं था। एक ट्रस्ट से योग्य पर असहाय छात्रों को पाठ्यपुस्तकें खरीदने के लिए कुछ रुपये सत्र के आरंभ में मिलते थे। उनसे प्रमुख पाठ्यपुस्तकें ‘सेकंड-हैंड’ खरीदता था, बाकी अपने सहपाठियों से लेकर पढ़ता और नोट्स बना लेता। उन दिनों परीक्षा के बाद छात्र अपनी पुरानी पाठ्यपुस्तकें आधे दाम में बेच देते और उसमें आने वाले नए लेकिन उसे विपन्न छात्र खरीद लेते। इसी तरह काम चलता।

शब्दार्थ 
देहावसान – देहांत, मृत्यु
आर्थिक – रुपये-पैसे सम्बंधित
असहाय – बेसहारा
विपन्न – गरीब

व्याख्या – लेखक कहता है कि लेखक के पिता की मृत्यु के बाद तो लेखक के परिवार पर रुपये-पैसे से सम्बंधित इतना अधिक संकट बढ़ गया था कि लेखक को फीस जुटाना तक मुश्किल हो गया था। अपने शौक की किताबें खरीदना तो लेखक के लिए उस समय संभव ही नहीं था। एक ट्रस्ट की ओर से बेसहारा छात्रों को पाठ्यपुस्तकें खरीदने के लिए सत्र के आरंभ में कुछ रुपये मिलते थे। लेखक उन से केवल ‘सेकंड-हैंड’ प्रमुख पाठ्यपुस्तकें खरीदता था, बाकी अपने सहपाठियों से लेकर पढ़ता और नोट्स बना लेता था। लेखक बताता है कि उन दिनों परीक्षा के बाद छात्र अपनी पुरानी पाठ्यपुस्तकें आधे दाम में बेच देते और उन्हीं में से आने वाले नए गरीब छात्र अपनी जरुरत की पाठ्यपुस्तकों को खरीद लेते थे। लेखक कहता है कि उन दिनों इसी तरह काम चलता था।

पाठ – लेकिन फिर भी मैंने जीवन की पहली साहित्यिक पुस्तक अपने पैसों से कैसे खरीदी, यह आज तक याद है। उस साल इंटरमीडिएट पास किया था। पुरानी पाठ्यपुस्तकें बेचकर बी.ए. की पाठ्यपुस्तकें लेने एक सेकंड-हैंड बुकशाॅप पर गया। उस बार जाने कैसे पाठ्यपुस्तकें खरीदकर भी दो रुपये बच गए थे। सामने के सिनेमाघर में ‘देवदास’ लगा था। न्यू थिएटर्स वाला। बहुत चर्चा थी उसकी। लेकिन मेरी माँ को सिनेमा देखना बिलकुल नापसंद था। उसी से बच्चे बिगड़ते हैं। लेकिन उसके गाने सिनेमागृह के बाहर बजते थे। उसमें सहगल का एक गाना था-‘दुख वेदिन अब बीतत नाहीं’। उसे अकसर गुनगुनाता रहता था। कभी-कभी गुनगुनाते आँखों में आँसू आ जाते थे जाने क्यों! एक दिन माँ ने सुना। माँ का दिल तो आखिर माँ का दिल! एक दिन बोली-“दुःख के दिन बीत जाएँगे बेटा, दिल इतना छोटा क्यों करता है? धीरज से काम ले!” जब उन्हें मालूम हुआ कि यह तो फिल्म ‘देवदास’ का गाना है, तो सिनेमा की घोर विरोधी माँ ने कहा-“अपना मन क्यों मारता है, जाकर पिक्चर देख आ। पैसे मैं दे दूँगी।” मैंने माँ को बताया कि “किताबें बेचकर दो रुपये मेरे पास बचे हैं।” वे दो रुपये लेकर माँ की सहमति से फ़िल्म देखने गया। पहला शो छूटने में देर थी, पास में अपनी परिचित किताब की दुकान थी। वहीं चक्कर लगाने लगा। सहसा देखा, काउंटर पर एक पुस्तक रखी है-‘देवदास’। लेखक शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय। दाम केवल एक रुपया। मैंने पुस्तक उठाकर उलटी-पलटी। तो पुस्तक-विक्रेता बोला-“तुम विद्यार्थी हो। यहीं अपनी पुरानी किताबें बेचते हो। हमारे पुराने ग्राहक हो। तुमसे अपना कमीशन नहीं लूँगा। केवल दस आने में यह किताब दे दूँगा”। मेरा मन पलट गया। कौन देखे डेढ़ रुपये में पिक्चर? दस आने में ‘देवदास’ खरीदी। जल्दी-जल्दी घर लौट आया, और दो रुपये में से बचे एक रुपया छः आना माँ के हाथ में रख दिए।

शब्दार्थ 
इंटरमीडिएट – माध्यमिक
नापसंद – पसंद न होना
सहसा – अचानक
दाम – मूल्य

व्याख्या – लेखक कहता है कि रुपये-पैसे की इतनी तंगी होने के बाद भी लेखक ने अपने जीवन की पहली साहित्यिक पुस्तक अपने पैसों से कैसे खरीदी, यह आज तक लेखक को याद है। लेखक अपनी याद को हमें बताता हुआ कहता है कि उस साल लेखक ने अपनी माध्यमिक की परीक्षा को पास किया था। लेखक पुरानी पाठ्यपुस्तकें बेचकर बी.ए. की पाठ्यपुस्तकें लेने एक सेकंड-हैंड बुकशाॅप पर गया। इस बार न जाने कैसे सारी पाठ्यपुस्तकें खरीदकर भी दो रुपये बच गए थे। लेखक ने देखा की सामने के सिनेमाघर में ‘देवदास’ लगा था। न्यू थिएटर्स वाला। उन दिनों उसकी बहुत चर्चा थी। लेकिन लेखक की माँ को सिनेमा देखना बिलकुल पसंद नहीं था। लेखक की माँ को लगता था कि सिनेमा देखने से ही बच्चे बिगड़ते हैं। लेकिन उसके गाने सिनेमागृह के बाहर बजते थे। उसमें सहगल का एक गाना था-‘दुख वेदिन अब बीतत नाहीं’। इस गाने को लेखक अकसर गुनगुनाता रहता था। कभी-कभी गुनगुनाते-गुनगुनाते लेखक की आँखों में आँसू आ जाते थे।ऐसा क्यों होता था यह लेखक को भी समझ नहीं आता था। एक दिन इस गाने को जब लेखक गुनगुना रहा था और उसकी आंखों से आसूँ आ गए थे तो लेखक की माँ ने लेखक को देख लिया था। लेखक कहता है कि माँ का दिल तो आखिर माँ का दिल होता है। एक दिन वह लेखक से बोली कि दुःख के दिन बीत जाएँगे बेटा, दिल इतना छोटा क्यों करता है? धीरज से काम ले। जब उन्हें मालूम हुआ कि यह तो फिल्म ‘देवदास’ का गाना है, तो लेखक की सिनेमा की घोर विरोधी माँ ने लेखक से कहा कि अपना मन क्यों मारता है, जाकर पिक्चर देख आ। पैसे मैं दे दूँगी। लेखक ने माँ को बताया कि किताबें बेचकर दो रुपये लेखक के पास बचे हैं। वे दो रुपये लेकर माँ की सहमति से लेखक फ़िल्म देखने गया। लेखक बताता है कि पहला शो छूटने में अभी देर थी, पास में लेखक की परिचित किताब की दुकान थी। लेखक वहीं उस दूकान के आस-पास चक्कर लगाने लगा। अचानक लेखक ने देखा कि काउंटर पर एक पुस्तक रखी है-‘देवदास’। जिसके लेखक शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय हैं। उस किताब का मूल्य केवल एक रुपया था। लेखक ने पुस्तक उठाकर उलटी-पलटी। तो पुस्तक-विक्रेता को पहचानते हुए बोला कि लेखक तो एक विद्यार्थी है। लेखक उसी दूकान पर अपनी पुरानी किताबें बेचता है। लेखक उसका पुराना गाहक है। वह दुकानदार लेखक से बोलै कि वह लेखक से कोई कमीशन नहीं लेगा। वह केवल दस आने में वह किताब लेखक को दे देदा। यह सुनकर लेखक का मन भी पलट गया। लेखक ने सोचा कि कौन डेढ़ रुपये में पिक्चर देख कर डेढ़ रुपये खराब करेगा? लेखक ने दस आने में ‘देवदास’ किताब खरीदी और जल्दी-जल्दी घर लौट आया, और दो रुपये में से बचे एक रुपया छः आना अपनी माँ के हाथ में रख दिए।

पाठ – “अरे तू लौट कैसे आया? पिक्चर नहीं देखी?” माँ ने पूछा।
“नहीं माँ! फ़िल्म नहीं देखी, यह किताब ले आया देखो।”
माँ की आँखों में आँसू आ गए। खुशी के थे या दुख के, यह नहीं मालूम। वह मेरे अपने पैसों से खरीदी, मेरी अपनी निजी लाइब्रेरी की पहली किताब थी। आज जब अपने पुस्तक संकलन पर नज़र डालता हूँ जिसमें हिंदी-अंग्रेजी के उपन्यास, नाटक, कथा-संकलन, जीवनियाँ, संस्मरण, इतिहास, कला, पुरातत्व, राजनीति की हजारहा पुस्तकें हैं, तब कितनी शिद्दत से याद आती है अपनी वह पहली पुस्तक की खरीदारी! रेनर मारिया रिल्के, स्टीफेन ज़्विंग, मोपाँसा, चेखव, टालस्टाय, दास्तोवस्की, मायकोवस्की, सोल्जेनिस्टिन, स्टीफेन स्पेण्डर, आडेन एज़रा पाउंड, यूजीन ओ नील, ज्याँ पाल सात्र, ऑलबेयर कामू, आयोनेस्को के साथ पिकासो, ब्रूगेल, रेम्ब्राँ, हेब्बर, हुसेन तथा हिंदी में कबीर, तुलसी, सूर, रसखान, जायसी, प्रेमचंद, पंत, निराला, महादेवी और जाने कितने लेखकों, चिंतकों की इन कृतियों के बीच अपने को कितना भरा-भरा महसूस करता हूँ।

शब्दार्थ
संकलन – इकट्ठे करना
हजारहा – हजारों से अधिक
शिद्दत – कठिनाई

 

व्याख्या – लेखक को जल्दी घर आता देखकर लेखक की माँ ने लेखक से पूछा कि अरे तू लौट कैसे आया? पिक्चर नहीं देखी? इसका उत्तर देते हुए लेखक ने अपनी माँ से कहा कि नहीं माँ! फ़िल्म नहीं देखी, बल्कि वह “देवदास” नामक किताब ले आया है। ऐसा बोल कर लेखक ने वह किताब अपनी माँ को दिखाई। लेखक कहता है कि उस किताब को देखकर लेखक की माँ के आँखों में आँसू आ गए। लेखक नहीं जानता कि वह आँसू खुशी के थे या दुख के थे। लेखक यहाँ बताता है कि वह लेखक के अपने पैसों से खरीदी लेखक की अपनी निजी लाइब्रेरी की पहली किताब थी। लेखक कहता है कि आज जब वह अपनी इकट्ठी की गई पुस्तकों पर नज़र डालता है, जिसमें हिंदी-अंग्रेजी के उपन्यास, नाटक, कथा-संकलन, जीवनियाँ, संस्मरण, इतिहास, कला, पुरातत्त्व, राजनीति की हजारों से अधिक पुस्तकें हैं, तब लेखक सोचता हुआ याद करता है कि कितनी कठिनाई से उसने अपनी वह पहली पुस्तक की खरीदारी की थी। लेखक बताता है कि रेनर मारिया रिल्के, स्टीफेन ज़्विंग, मोपाँसा, चेखव, टालस्टाय, दास्तोवस्की, मायकोवस्की, सोल्जेनिस्टिन, स्टीफेन स्पेण्डर, आडेन एज़रा पाउंड, यूजीन ओ नील, ज्याँ पाल सात्र, ऑलबेयर कामू, आयोनेस्को के साथ पिकासो, ब्रूगेल, रेम्ब्राँ, हेब्बर, हुसेन तथा हिंदी में कबीर, तुलसी, सूर, रसखान, जायसी, प्रेमचंद, पंत, निराला, महादेवी और जाने कितने लेखकों, चिंतकों की इन कृतियों के बीच अपने को वह कितना भरा-भरा महसूस करता हूँ। यहाँ लेखक कहना चाहता है कि वह अपने द्वारा इकट्ठी की गई इन सभी लेखकों की पुस्तकों के बीच अपने आपको कभी भी अकेला महसूस नहीं करता तभी लेखक ने अपने अंतिम समय में भी लाइब्रेरी में ही रहने का निश्चय किया था।

पाठ – मराठी के वरिष्ठ कवि विंदा करंदीकर ने कितना सच कहा था उस दिन! मेरा ऑपरेशन सफल होने के बाद वे देखने आये थे, बोले-“भारती, ये सैकड़ों महापुरुष जो पुस्तक-रूप में तुम्हारे चारों ओर विराजमान हैं, इन्हीं के आशीर्वाद से तुम बचे हो। इन्होंने तुम्हें पुनर्जीवन दिया है।” मैंने मन-ही-मन प्रणाम किया विंदा को भी, इन महापुरुषों को भी।

शब्दार्थ 
वरिष्ठ – बड़े
विराजमान – उपस्थित
पुनर्जीवन – मर कर दुबारा जीवित होना

व्याख्या – लेखक कहता है कि जब लेखक का ऑपरेशन सफल हो गया था तब मराठी के एक बड़े कवि विंदा करंदीकर लेखक से उस दिन मिलने आये थे। उन्होंने लेखक से कहा था कि भारती, ये सैकड़ों महापुरुष जो पुस्तक-रूप में तुम्हारे चारों ओर उपस्थित हैं, इन्हीं के आशीर्वाद से तुम बचे हो। इन्होंने तुम्हें दोबारा जीवन दिया है। लेखक ने मन-ही-मन सभी को प्रणाम किया-विंदा को भी, इन महापुरुषों को भी। यहाँ लेखक भी मानता था कि उसके द्वारा इकठ्ठी की गई पुस्तकों में उसकी जान बसती है जैसे तोते में राजा के प्राण बसते थे।

 
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मेरा छोटा-सा निजी पुस्तकालय प्रश्न अभ्यास

मेरा छोटा-सा निजी पुस्तकालय NCERT Solutions (महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर )

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए
प्रश्न 1 – लेखक का ऑपरेशन करने से सर्जन क्यों हिचक रहे थे?

उत्तर – लेखक को तीन-तीन ज़बरदस्त हार्ट-अटैक आए थे और वो भी एक के बाद एक। उनमें से एक तो इतना खतरनाक था कि उस समय लेखक की नब्ज बंद, साँस बंद और यहाँ तक कि धड़कन भी बंद पड़ गई थी। उस समय डॉक्टरों ने यह घोषित कर दिया था कि अब लेखक के प्राण नहीं रहे। उन सभी डॉक्टरों में से एक डॉक्टर बोर्जेस थे जिन्होंने फिर भी हिम्मत नहीं हारी थी। उन्होंने लेखक को नौ सौ वॉल्ट्स के शॉक्स दिए। यह एक बहुत ही भयानक प्रयोग था। उनका प्रयोग सफल रहा। लेखक के प्राण तो लौटे, पर इस प्रयोग में लेखक का साठ प्रतिशत हार्ट सदा के लिए नष्ट हो गया। अब लेखक का केवल चालीस प्रतिशत हार्ट ही बचा था जो काम कर रहा था। उस चालीस प्रतिशत काम करने वाले हार्ट में भी तीन रुकावटें थी। जिस कारण लेखक का ओपेन हार्ट ऑपरेशन तो करना ही होगा पर सर्जन हिचक रहे हैं। क्योंकि लेखक का केवल चालीस प्रतिशत हार्ट ही काम कर रहा था। सर्जन को डर था कि अगर ऑपरेशन कर भी दिया तो हो सकता है कि ऑपरेशन के बाद न हार्ट रिवाइव ही न हो।

प्रश्न 2 – ‘किताबों वाले कमरे’ में रहने के पीछे लेखक के मन में क्या भावना थी?

उत्तर – लेखक ने बहुत-सी किताबें जमा कर रखी थीं। किताबें बचपन से लेखक की सुख-दुख की साथी थीं। दुख के समय म

प्रश्न 3 – लेखक के घर कौन-कौन-सी पत्रिकाएँ आती थीं?

उत्तर – लेखक के घर में हर-रोज पत्र-पत्रिकाएँ आती रहती थीं। इन पत्र-पत्रिकाओं में ‘आर्यमित्र साप्ताहिक’, ‘वेदोदम’, ‘सरस्वती’, ‘गृहिणी’ थी और दो बाल पत्रिकाएँ खास तौर पर लेखक के लिए आती थी। जिनका नाम था-‘बालसखा’ और ‘चमचम’।

प्रश्न 4 – लेखक को किताबें पढ़ने और सहेजने का शौक कैसे लगा?

उत्तर – लेखक के पिता नियमित रुप से पत्र-पत्रिकाएँ मँगाते थे। लेखक के लिए खासतौर पर दो बाल पत्रिकाएँ ‘बालसखा’ और ‘चमचम’ आती थीं। इनमें राजकुमारों, दानवों, परियों आदि की कहानियाँ और रेखा-चित्र होते थे। इससे लेखक को पत्रिकाएँ पढ़ने का शौक लग गया। जब वह पाँचवीं कक्षा में प्रथम आया, तो उसे इनाम स्वरूप दो अंग्रेज़ी की पुस्तकें प्राप्त हुईं। लेखक के पिता ने उनकी अलमारी के एक खाने से अपनी चीजें हटाकर जगह बनाई थी और लेखक की वे दोनों किताबें उस खाने में रखकर उन्होंने लेखक से कहा था कि आज से यह खाना तुम्हारी अपनी किताबों का है। अब यह तुम्हारी अपनी लाइब्रेरी है। लेखक कहता है कि यहीं से लेखक की लाइब्रेरी शुरू हुई थी जो आज बढ़ते-बढ़ते एक बहुत बड़े कमरे में बदल गई थी। पिताजी ने उन किताबों को सहेजकर रखने की प्रेरणा दी। यहाँ से लेखक का निजी पुस्तकालय बनना आरंभ हुआ।

प्रश्न 5 – माँ लेखक की स्कूली पढ़ाई को लेकर क्यों चिंतित रहती थी?

उत्तर – लेखक की माँ लेखक को स्कूली पढ़ाई करने पर जोर दिया करती थी। लेखक की माँ लेखक को स्कूली पढ़ाई करने पर जोर इसलिए देती थी क्योंकि लेखक की माँ को यह चिंतित लगी रहतीं थी कि उनका लड़का हमेशा पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ता रहता है, कक्षा की किताबें कभी नहीं पढ़ता। कक्षा की किताबें नहीं पढ़ेगा तो कक्षा में पास कैसे होगा! लेखक स्वामी दयानन्द की जीवनी पढ़ा करता था जिस कारण लेखक की माँ को यह भी डर था कि लेखक कहीं खुद साधु बनकर घर से भाग न जाए।

प्रश्न 6 – स्कूल से इनाम में मिली अंग्रेज़ी की दोनों पुस्तकों ने किस प्रकार लेखक के लिए नयी दुनिया के द्वार खोल दिए?

उत्तर – लेखक पाँचवीं कक्षा में प्रथम आया था। उसे स्कूल से इनाम में दो अंग्रेज़ी की किताबें मिली थीं। दोनों ज्ञानवर्धक पुस्तकें थीं। उनमें से एक किताब में दो छोटे बच्चे घोंसलों की खोज में बागों और घने पेड़ों के बीच में भटकते हैं और इस बहाने उन बच्चों को पक्षियों की जातियों, उनकी बोलियों, उनकी आदतों की जानकारी मिलती है। दूसरी किताब थी ‘ट्रस्टी द रग’ जिसमें पानी के जहाजों की कथाएँ थीं। उसमें बताया गया था कि जहाज कितने प्रकार के होते हैं, कौन-कौन-सा माल लादकर लाते हैं, कहाँ से लाते हैं, कहाँ ले जाते हैं, वाले जहाजों पर रहने नाविकों की जिंदगी कैसी होती है, उन्हें कैसे-कैसे द्वीप मिलते हैं, समुद्र में कहाँ ह्वेल मछली होती है और कहाँ शार्क होती है। इन अंग्रेजी की दो किताबों ने लेखक के लिए एक नयी दुनिया का द्वार लिए खोल दिया था। लेखक के पास अब उस दुनिया में पक्षियों से भरा आकाश था और रहस्यों से भरा समुद्र था।

प्रश्न 7 -‘आज से यह खाना तुम्हारी अपनी किताबों का। यह तुम्हारी लाइब्रेरी है’ − पिता के इस कथन से लेखक को क्या प्रेरणा मिली?

उत्तर – पिताजी के इस कथन ने लेखक को पुस्तकें जमा करने की प्रेरणा दी तथा किताबों के प्रति उसका लगाव बढ़ाया। अभी तक लेखक मनोरंजन के लिए किताबें पढ़ता था परन्तु पिताजी के इस कथन ने उसके ज्ञान प्राप्ति के मार्ग को बढ़ावा दिया। आगे चलकर उसने अनगिनत पुस्तकें जमा करके अपना स्वयं का पुस्तकालय बना डाला। अब उसके पास ज्ञान का अतुलनीय भंडार था।

प्रश्न 8 – लेखक द्वारा पहली पुस्तक खरीदने की घटना का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।

उत्तर – लेखक आर्थिक तंगी के कारण पुरानी किताबें बेचकर नई किताबें लेकर पड़ता था। इंटरमीडिएट पास करने पर जब उसने पुरानी किताबें बेचकर बी.ए. की सैकंड-हैंड बुकशॉप से किताबें खरीदीं, तो उसके पास दो रुपये बच गए। उन दिनों देवदास फिल्म लगी हुई थी। उसे देखने का लेखक का बहुत मन था। माँ को फिल्में देखना पसंद नहीं था। अतः लेखक वह फिल्म देखने नहीं गया। लेखक इस फिल्म के गाने को अकसर गुनगुनाता रहता था। एक दिन माँ ने लेखक को वह गाना गुनगुनाते सुना। पुत्र की पीड़ा ने उन्हें व्याकुल कर दिया। माँ बेटे की इच्छा भाँप गई और उन्होंने लेखक को ‘देवदास’ फिल्म देखने की अनुमति दे दी। माँ की अनुमति मिलने पर लेखक फिल्म देखने चल पड़ा। पहला शो छूटने में अभी देर थी, पास में लेखक की परिचित किताब की दुकान थी। लेखक वहीं उस दुकान के आस-पास चक्कर लगाने लगा। अचानक लेखक ने देखा कि काउंटर पर एक पुस्तक रखी है-‘देवदास’। जिसके लेखक शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय हैं। उस किताब का मूल्य केवल एक रुपया था। लेखक ने पुस्तक उठाकर उलटी-पलटी। तो पुस्तक-विक्रेता को पहचानते हुए बोला कि लेखक तो एक विद्यार्थी है। लेखक उसी दुकान पर अपनी पुरानी किताबें बेचता है। लेखक उसका पुराना ग्राहक है। वह दुकानदार लेखक से बोले कि वह लेखक से कोई कमीशन नहीं लेगा। वह केवल दस आने में वह किताब लेखक को दे देदा। यह सुनकर लेखक का मन भी पलट गया। लेखक ने सोचा कि कौन डेढ़ रुपये में पिक्चर देख कर डेढ़ रुपये खराब करेगा? लेखक ने दस आने में ‘देवदास’ किताब खरीदी और जल्दी-जल्दी घर लौट आया। वह लेखक के अपने पैसों से खरीदी लेखक की अपनी निजी लाइब्रेरी की पहली किताब थी। इस प्रकार लेखक ने अपनी पहली पुस्तक खरीदी।

प्रश्न 9 – ‘इन कृतियों के बीच अपने को कितना भरा-भरा महसूस करता हूँ’ − का आशय स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – किताबें लेखक के सुख-दुख की साथी थीं। कई बार दुख के क्षणों में इन किताबों ने लेखक का साथ दिया था। वे लेखक की ऐसी मित्र थीं, जिन्हें देखकर लेखक को हिम्मत मिला करती थीं। किताबों से लेखक का आत्मीय संबंध था। बीमारी के दिनों में जब डॉक्टर ने लेखक को बिना हिले-डुले बिस्तर पर लेटे रहने की हिदायत दीं, तो लेखक ने इनके मध्य रहने का निर्णय किया। इनके मध्य वह स्वयं को अकेला महसूस नहीं करता था। ऐसा लगता था मानो उसके हज़ारों प्राण इन पुस्तकों में समा गए हैं। ये सब उसे अकेलेपन का अहसास ही नहीं होने देते थे। उसे इनके मध्य असीम संतुष्टि मिलती थी। भरा-भरा होने से लेखक का तात्पर्य पुस्तकें के साथ से है, जो उसे अकेला नहीं होने देती थीं। लेखक को ऐसा महसूस होता था जैसे उसके प्राण भी इन पुस्तकों में ऐसे बसे हैं जैसे राजा के प्राण तोते में बसे थे।

 
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