दो कलाकार पाठ सार
PSEB Class 10 Hindi Book Chapter 9 “Do Kalakaar” Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings
दो कलाकार सार – Here is the PSEB Class 10 Hindi Book Chapter 9 Do Kalakaar Summary with detailed explanation of the lesson “Do Kalakaar” along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary
इस पोस्ट में हम आपके लिए पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड कक्षा 10 हिंदी पुस्तक के पाठ 9 दो कलाकार पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 दो कलाकार पाठ के बारे में जानते हैं।
Do Kalakaar (दो कलाकार)
by मन्नू भंडारी
मन्नू भंडारी की कहानी ‘दो कलाकार’ मानवीय संवेदनाओं और जीवन-दृष्टि पर आधारित है। इसमें दो सहेलियों चित्रा और अरुणा का चित्रण किया गया है। चित्रा एक सफल चित्रकार है, जिसके बने चित्र राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित होते हैं। दूसरी ओर अरुणा समाजसेवा में जुटी है। वह अनाथ बच्चों और जरूरतमंद लोगों की मदद करके उनकी बेरंग ज़िंदगी में खुशियों के रंग भरती है।
लेखिका ने कहानी के माध्यम से यह दिखाया है कि कला केवल कागज़ या कैनवास तक सीमित नहीं है, बल्कि मानवता की सेवा और दुःख-दर्द को दूर करने में भी सच्ची कला छिपी है। इसलिए कहानी का शीर्षक ‘दो कलाकार’ अत्यंत सार्थक है, क्योंकि दोनों सहेलियाँ अपने-अपने तरीके से जीवन को कला का रूप देती हैं।
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दो कलाकार पाठ सार Do Kalakaar Summary
कहानी ‘दो कलाकार’ मन्नू भंडारी द्वारा लिखी गई है, जिसमें दो सहेलियों चित्रा और अरुणा के जीवन दृष्टिकोण को सामने रखा गया है। चित्रा एक प्रतिभाशाली चित्रकार है, जिसकी कलाकृतियाँ राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराही जाती हैं। उसकी महत्वाकांक्षा है कि उसका नाम एक बड़े कलाकार के रूप में अमृता शेरगिल की तरह प्रसिद्ध हो। वह कागज़ पर जीवन की जटिलताओं, भावनाओं और समाज की स्थिति को उकेरती है। दूसरी ओर, अरुणा एक संवेदनशील समाजसेविका है, जो लोगों की परेशानियों को प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करती है और उनकी सहायता के लिए हमेशा तत्पर रहती है। उसका मानना है कि दूसरों की ज़िंदगी में रंग भरना ही सच्ची कला है।
कहानी की शुरुआत हल्की-फुल्की नोकझोंक से होती है, जब चित्रा अरुणा को उठाकर अपना चित्र दिखाती है। चित्रा का कहना है कि उसकी कला में गहरा संदेश है, लेकिन अरुणा उसे व्यर्थ का समय-नष्ट मानती है और कहती है कि यह सब उलझन उसके दिमाग की ही उपज है। वहीं, अरुणा खुद गरीब बच्चों को पढ़ाने, बेसहारा लोगों की मदद करने और बाढ़ पीड़ितों की सेवा करने जैसे कार्यों में जीवन का वास्तविक अर्थ खोजती है। छात्रावास की अन्य लड़कियाँ भी अरुणा के कार्यों की चर्चा करती हैं। कुछ उसे लेकर ईर्ष्या करती हैं तो कुछ उसकी सेवा-भावना से प्रेरित होती हैं। अरुणा की पहचान दूसरों की मदद करने वाली और निस्वार्थ भाव से सेवा करने वाली लड़की के रूप में बनती है।
चित्रा और अरुणा के विचारों में गहरा अंतर है। चित्रा का मानना है कि किसी एक व्यक्ति की कोशिशों से समाज नहीं बदलता और जब तक ढाँचा नहीं बदलेगा, व्यक्तिगत प्रयासों का असर सीमित रहेगा। इसके विपरीत अरुणा कहती है कि अगर कुछ लोगों का जीवन भी बदल सके तो वही सच्ची कला है। कहानी में एक प्रसंग ऐसा आता है जब अरुणा फुलिया दाई के बीमार बच्चे की देखभाल में लगी रहती है। जब बच्चा बच नहीं पाता, तो अरुणा गहरे दुःख में डूब जाती है। लेकिन वह हार मानने वाली नहीं है, जल्दी ही अपने कामों में फिर से लग जाती है। इसके अलावा, बाढ़ पीड़ितों की सेवा करते समय उसकी हालत इतनी बिगड़ जाती है कि लौटने पर वह बहुत कमजोर और थकी हुई दिखाई देती है। यह उसकी निस्वार्थ सेवा और त्याग की भावना को उजागर करता है।
दूसरी ओर चित्रा अपनी महत्वाकांक्षाओं में जीती है। वह विदेश जाकर अपनी कला को और निखारती है और प्रसिद्धि पाती है। जब वह अपने पिता के पत्र का ज़िक्र करती है कि उसे विदेश जाने की अनुमति मिल गई है, तो उसकी खुशी देखते ही बनती है। वहीं अरुणा भावुक हो उठती है और कहती है कि छह साल साथ रहने के बाद अब जुदाई उसके लिए कठिन होगी। यहाँ दोनों के बीच का भावनात्मक संबंध और गहराई सामने आती है।
पूरी कहानी में लेखिका यह दिखाती हैं कि कला केवल कागज़ पर बने चित्रों तक सीमित नहीं है, बल्कि दूसरों की ज़िंदगी को संवारना भी एक बड़ी कला है। चित्रा जहाँ बाहरी शोहरत और पहचान चाहती है, वहीं अरुणा सेवा और त्याग को ही जीवन का उद्देश्य मानती है। इस तरह कहानी यह प्रश्न छोड़ देती है कि असली कलाकार कौन है, वह जो कागज़ पर चित्र बनाकर पुरस्कार जीतता है या वह जो लोगों के जीवन में वास्तविक परिवर्तन लाता है।
अंत में, ‘दो कलाकार’ केवल दो सहेलियों की कहानी नहीं है, बल्कि दो जीवन-दृष्टियों का टकराव है। चित्रा की कला में सौंदर्य और आकर्षण है, लेकिन अरुणा की सेवा-भावना में गहराई और जीवन की सच्चाई है। इस प्रकार कहानी यह संदेश देती है कि सच्ची कला वही है जो मानवता की सेवा करे और दूसरों की जिंदगी को बेहतर बनाने में योगदान दे।
दो कलाकार – पाठ व्याख्या Do Kalakaar Explanation
पाठ – “ए रूनी, उठ,” और चादर खींचकर, चित्रा ने सोती हुई अरुणा को झकझोरकर उठा दिया।
“अरे, क्या है?” आँख मलते हुए थोड़े खिझलाहट–भरी आवाज़ में अरुणा ने पूछा। चित्रा उसका हाथ पकड़कर खींचती हुई ले गयी और अपने नये बनाये हुए चित्र के सामने ले जाकर खड़ा करके बोली, “देख, मेरा चित्र पूरा हो गया।“
“ओह! तो इसे दिखाने के लिए तूने मेरी नींद खराब कर दी। बदतमीज़ कहीं की!”
“अरे, ज़रा इस चित्र को तो देख। न पा गयी पहला इनाम तो नाम बदल देना।” चित्र को चारों ओर से घुमाते हुए अरुणा बोली, “किधर से देखूं, यह तो बता दे? हज़ार बार तुझसे कहा कि जिसका चित्र बनाये उसका नाम लिख दिया कर, जिससे गलतफहमी न हुआ करे, वरना तू बनाये हाथी और हम समझें उल्लू।” फिर तस्वीर पर आँख गड़ाते हुए बोली, “किसी तरह नहीं समझ पा रही हूँ कि चौरासी लाख योनियों में से आखिर यह किस जीव की तस्वीर है ?”
“तो आपको यह कोई जीव नज़र आ रहा है ? अरे, जरा अच्छी तरह देख और समझने की कोशिश कर।“
शब्दार्थ-
झकझोरकर– जोर से हिलाकर या झटका देकर
खिझलाहट- खीझ से भरी हुई
बदतमीज़- असभ्य
गलतफहमी- किसी बात को गलत समझ लेना
चौरासी– 84 संख्या
योनियाँ– जीवन रूप
जीव- कोई प्राणी या इंसान
व्याख्या- प्रस्तुत गद्याँश में चित्रा अरुणा को अचानक जगा कर अपने द्वारा पूरा किया हुआ चित्र दिखाती है। चित्रा अरुणा को चादर खींचकर झकझोरते हुए उठाती है। जिससे अरुणा आँखें मलते हुए और थोड़ी खीज में पूछती है कि क्या हुआ। तब चित्रा उसका हाथ पकड़कर खींचते हुए उसे ले जाती है और बताती है कि उसका चित्र पूरा हो गया है और वह उसे दिखाना चाहती है। तब अरुणा चिढ़ते हुए कहती है कि यह चित्र दिखाने के लिए उसकी नींद क्यों खराब की। इस पर चित्रा कहती है कि यह चित्र उसने बहुत अच्छा बनाया है, उसे इसके लिए ईनाम जरूर मिलेगा।
तब अरुणा चित्र को घुमा-घुमाकर कहती है कि इसे कहाँ से देखा जाए। वह आगे कहती है कि उसने कई बार कहा है कि जिस किसी का चित्र बनाओ उसके नाम का उल्लेख कर दिया करो ताकि कोई गलतफ़हमी न हो। वह मजाक करते हुए कहती है कि कहीं ऐसा न हो कि तुम बनाओ हाथी और मैं उल्लू समझूँ। चित्र देखकर अरुणा यह ही समझ नहीं पा रही थी कि चौरासी लाख योनियों में से भी यह किस जीव की तस्वीर हो सकती है। तब चित्रा हैरानी से कहती है कि क्या तुम्हें यह कोई जानवर दिखाई दे रहा है और उससे विनती करती है कि वह ध्यान से देखकर समझने की कोशिश करे।
पाठ – “अरे, यह क्या ? इसमें तो सड़क, आदमी, ट्रॉम, बस, मोटर, मकान सब एक–दूसरे पर चढ़ रहे हैं, मानो सबकी खिचड़ी पकाकर रख दी हो। क्या घनचक्कर बनाया है?” और उसने वह चित्र रख दिया।
“जरा सोचकर बता कि यह किसका प्रतीक है ?”
“तेरी बेवकूफी का। आयी है बड़ी प्रतीक वाली।“
“अरे, जनाब, यह चित्र आज के जीवन में चल रही उलझन की तरफ ध्यान खींचता है।“
“समझी, मुझे तो यह चित्र तेरे दिमाग में चल रही उलझन ही लग रही है। बिना मतलब जिन्दगी खराब कर रही है।” और अरुणा मुँह धोने के लिए बाहर चली गयी। लौटी तो देखा, तीन–चार बच्चे उसके कमरे के दरवाजे पर खड़े उसकी राह देख रहे हैं। आते ही बोले, “दीदी ! सब बच्चे आकर बैठ गये, चलिए।“
“आ गये सब बच्चे ? अच्छा चलो, मैं अभी आयी।” बच्चे दौड़ पड़े।
“क्या ये बन्दर पाल रखे हैं तूने भी ?” फिर जरा हँसकर चित्रा बोली, “एक दिन तेरी पाठशाला का चित्र बनाना होगा। ज़रा लोगों को दिखाया ही करेंगे कि हमारी एक ऐसी मित्र साहब थीं जो सारे दाइयों, चपरासियों और दुनिया भर के बच्चों को पढ़ा–पढ़ाकर ही अपने को भारी पण्डिता और समाज सेविका समझती थी।“
“जा–जा समझते हैं तो समझते हैं। तू जाकर सारी दुनिया में ढिंडोरा पिटाना, हमें कोई शरम है क्या ? तेरी तरह लकीरें खींचकर तो समय बर्बाद नहीं करते।” और पैर में चप्पल डालकर वह बाहर मैदान में चली गयी, जहाँ एक छोटी–सी पाठशाला बनी हुई थी।
शब्दार्थ-
ट्रॉम- सड़क पर चलने वाला रेल जैसा वाहन
घनचक्कर- जंजाल
पाठशाला- स्कूल
प्रतीक- प्रतिरूप, चित्र
दाइयाँ- बच्चे की देखभाल करने वाली महिला
चपरासी- स्कूल या कार्यालय में सहायक कर्मचारी
पण्डिता- विदुषी
ढिंडोरा पीटना- जोर-जोर से प्रचार करना
व्याख्या- प्रस्तुत गद्याँश में चित्रा का नया बनाया चित्र देखकर अरुणा चौंक जाती है। उसे चित्र ऐसा लगता है जैसे सड़क, आदमी, ट्राम, बस, मोटर और मकान सब गड़बड़ होकर एक-दूसरे पर चढ़ गये हों, मानो सबकी खिचड़ी पका दी गयी हो। वह इसे घनचक्कर कहकर नकार देती है।
चित्रा चाहती है कि अरुणा सोचे और बताए कि यह किसका प्रतीक है। अरुणा व्यंग्य करते हुए कहती है कि यह उसकी बेवकूफी का प्रतीक है। चित्रा गंभीरता से समझाती है कि उसका चित्र आज के जीवन की उलझनों का प्रतीक है, लेकिन अरुणा हँसते हुए कहती है कि यह तो केवल चित्रा के दिमाग की उलझनें लग रही हैं और वह बेकार अपनी ज़िंदगी खराब कर रही है। ऐसा कहते हुए अरुणा अपना मुँह धोने के लिए चली जाती है।
लौटते ही उसे तीन-चार बच्चे बुलाने आ जाते हैं और कहते हैं कि दीदी, आ जाइए, सारे बच्चे आ गए हैं। अरुणा उनसे प्रेम से कहती है कि वह तुरंत आ रही है।
इस पर चित्रा मज़ाक करती हुई कहती है कि जैसे अरुणा ने बंदर पाल रखे हों और हँसते हुए कहती है कि कभी उसकी पाठशाला का चित्र बनाना पड़ेगा ताकि लोग देख सकें कि उसकी मित्र दाइयों, चपरासियों और बच्चों को पढ़ाकर ही अपने को बड़ी पंडिता और समाजसेविका समझती है। अरुणा पलटकर कहती है कि अगर लोग उसे ऐसा समझते हैं तो समझते रहें, इसमें कोई शर्म की बात नहीं। वह चित्रा की तरह रेखाएँ खींचकर समय बरबाद नहीं करती। अंत में वह चप्पल पहनकर मैदान में बनी छोटी पाठशाला की ओर बच्चों को पढ़ाने चली जाती है।
पाठ – रात के दस बजे थे। सारे छात्रावास की बत्तियाँ हमेशा की तरह बुझ चुकी थीं। ऊपर के एक तल्ले पर अँधेरे में ही खुसर– फुसर चल रही थी। रविवार के दिन तो यों ही छुट्टी होती है। दूसरे दिन के समय में काफी नींद निकाल ली जाती थी, सो दस बजे लड़कियों को किसी तरह भी नींद नहीं आती थी। तभी छात्रावास के फाटक में जलती हुई टॉर्च लिए कोई घुसा। अपने कमरे की खिड़की में से झाँकते हुए सविता ने कहा, “ठाठ तो छात्रावास में बस अरुणा ही के हैं, रात नौ बजे लौटो, दस बजे लौटो, कोई बंधन नहीं। हम लोग तो दस के बाद बत्ती भी नहीं जला सकते।“
“लौट आई अरुणा दी ? आज सवेरे से ही वे बड़ी परेशान थी। फुलिया दाई का बच्चा बड़ा बीमार था, दोपहर से वे उसी के यहां बैठी थी। पता नहीं, क्या हुआ बेचारे का ?” शीला ने ठंडी साँस भरते हुए कहा।
“तू बड़ी भक्त है अरुणा दी की !”
“उनके जैसे गुण अपना ले तो तेरी भी भक्त हो जाऊँगी।“
“मैं कहती हूँ, उन्हें यही सब करना है तो कहीं और रहें, छात्रावास में रहकर यह जो नवाबी चलाती हैं, सो तो हमसे बर्दाश्त नहीं होती। सारी लड़कियाँ डरती हैं तो कुछ कहती नहीं, पर प्रिंसिपल और वार्डन तक रोब खाती है इनका, तभी तो सब प्रकार की छूट दे रखी हैं।“
“तू भी जिस दिन हाड़ तोड़कर दूसरों के लिए यों मेहनत करने लग जायेगी न, उस दिन तेरा भी सब रोब खाने लगेंगे। पर तुम्हें तो सजने–संवरने से ही फुर्सत नहीं मिलती, दूसरों के लिए क्या खाक काम करोगी।“
“अच्छा–अच्छा चल, अपना भाषण अपने पास रख।“
शब्दार्थ-
छात्रावास- वह स्थान जहाँ छात्र/छात्राएँ अपने अध्ययन के दौरान रहते हैं, हॉस्टल
तल्ला- किसी इमारत की एक मंज़िल
खुसर-फुसर- धीरे-धीरे और गुपचुप बात करना
फाटक- प्रवेश द्वार या गेट
ठाठ- आदर, मान-सम्मान या खास पहचान
बर्दाश्त- सहन
वार्डन- छात्रावास या हॉस्टल की प्रधान|
रोब- अधिकार, दबदबा या प्रभाव
हाड़ तोड़कर मेहनत करना- अत्यधिक मेहनत करना।
व्याख्या- यह प्रसंग रात के समय छात्रावास का है। नियम के अनुसार दस बजे के बाद सारी बत्तियाँ बुझा दी जाती हैं, लेकिन लड़कियाँ नींद न आने के कारण अँधेरे में आपस में धीमी-धीमी बातें कर रही हैं। रविवार के दिन छुट्टी होने के कारण लड़कियाँ आराम कर चुकीं होती हैं जिससे वे देर रात तक जागती हैं।
तभी छात्रावास के फाटक से किसी के आने का आभास होता है, जिसके हाथ में जलती हुई टॉर्च है। यह देखकर छात्राएँ अनुमान लगा लेती हैं कि वह अरुणा ही होगी, क्योंकि उसे देर से लौटने की छूट मिलती रहती है।
सविता व्यंग्य करते हुए कहती है कि छात्रावास में असली ठाठ तो अरुणा के ही हैं। वह चाहे नौ बजे लौटे या दस बजे, उस पर कोई रोक-टोक नहीं है, जबकि अन्य छात्राओं को दस बजे के बाद बत्ती जलाने की भी अनुमति नहीं है। इससे उसका असंतोष और ईर्ष्या झलकती है। शीला अरुणा का पक्ष लेते हुए बताती है कि अरुणा मौज-मस्ती के लिए देर से नहीं लौटी, बल्कि दिनभर फुलिया दाई के बीमार बच्चे की देखभाल में व्यस्त रही। अरुणा के इस सेवा-भाव से शीला प्रभावित है और सहानुभूति प्रकट करती है। यह सुनकर दूसरी छात्रा ताना कसती है कि शीला तो अरुणा की भक्त है। इस पर शीला जवाब देती है कि यदि उनमें भी अरुणा जैसे गुण आ जाएँ, तो वह भी उनकी भक्त बन जाएगी।
सविता कहती है कि अरुणा को यदि समाजसेवा ही करनी है, तो उसे छात्रावास छोड़ देना चाहिए। उसे यह अच्छा नहीं लगता कि अरुणा छात्रावास में रहते हुए भी अपने नियम बनाती है और प्रिंसिपल तथा वार्डन तक उस पर विश्वास करके उसे छूट देते हैं। यह छात्रावास की कुछ लड़कियों को अच्छा नहीं लगता।
शीला दोबारा अरुणा की तरफ़दारी करते हुए कहती है कि अरुणा का सम्मान और उसका रोब उसकी मेहनत और सेवा-भाव के कारण है। जिस दिन तुम भी ऐसा करने लगोगी तो उस दिन सभी तुम्हारा भी रोब खाने लगेंगे। लेकिन तुम तो केवल अपने सजने-सँवरने और अपने रूप-रंग पर ध्यान देती हो, तुम समाज के लिए क्या काम कर पाओगी। इसलिए तुम्हे अरुणा जैसा सम्मान मिलना संभव नहीं है। अंत में, विरोध करने वाली छात्रा तर्क-वितर्क से थककर शीला की बात को भाषण कहकर टाल देती है और बातचीत समाप्त कर देती है।
पाठ – अरुणा अपने कमरे में घुसी तो बहुत ही धीरे से जिससे चित्रा की नींद न खराब हो। पर चित्रा जग ही रही थी। दोपहर से अरुणा बिना खाये–पिये बाहर थी, उसे नींद कैसे आती भला ? मेस से उसका खाना लेकर उसे मेज़ पर ढककर रख दिया था। अरुणा के आते ही वह उठ–बैठी और पूछा, “बड़ी देर लग गयी, क्या हुआ रूनी !”
“वह बच्चा नहीं बचा, चित्रा। किसी तरह उसे नहीं बचा सके।” और उसका स्वर किसी गहरे दुःख में डूब गया।
चित्रा ने माचिस लेकर लालटेन जलाया और स्टोव जलाने लगी, खाना गरम करने के लिए। तभी अरुणा ने कहा, “रहने दे चित्रा, मैं खाऊँगी नहीं, मुझे जरा भी भूख नहीं है।” और उसकी आँखें फिर छलछला आईं।
बहुत ही स्नेह से अरुणा की पीठ थपथपाते हुए चित्रा ने कहा, “जो होना था सो हो गया, अब भूखे रहने से क्या होगा, थोड़ा–बहुत खा ले।“
“नहीं चित्रा, अब रहने दे, बस तू लालटेन बुझा दे।“
उसके बाद दो–तीन दिन तक अरुणा बहुत ही उदास रहीं, लेकिन समय के साथ–साथ वह दुःख भी जाता रहा, और सब काम ज्यों–का–त्यों चलने लगा।
चार बजते ही कॉलेज से सारी लड़कियाँ लौट आई पर अरुणा नहीं लौटी। चित्रा चाय के लिए उसका इंतजार कर रही थी। “पता नहीं कहाँ–कहाँ अटक जाती है, बस इसके पीछे बैठे रहा करो।“
“अरे, क्यों बड़–बड़ कर रही है। ले मैं आ गई। चल बना चाय।“
शब्दार्थ-
मेस- हॉस्टल का भोजन कक्ष
लालटेन- प्रकाश देने वाला का दीपक
स्टोव- खाना बनाने या गरम करने का उपकरण
छलछला आना- आँखों में आँसू भर आना
स्नेह से- प्यार और ममता के भाव से
पीठ थपथपाना– हौसला देना, सांत्वना देना
ज्यों-का-त्यों- वैसे ही, किसी बदलाव के बिना
अटक जाना- रुक जाना
व्याख्या- जब अरुणा अपने कमरे में लौटती है, तो वह बहुत धीरे से दरवाज़ा खोलती है ताकि चित्रा की नींद खराब न हो। लेकिन चित्रा पहले से ही जाग रही थी। असल में अरुणा दोपहर से ही बिना खाए-पिए बाहर थी, इसलिए चित्रा को चिंता थी और वह सो ही नहीं पाई। उसने मेस से अरुणा का खाना लाकर मेज़ पर ढककर रखा था। जैसे ही अरुणा कमरे में दाखिल होती है तो चित्रा चिंता दिखाते हुए अरुणा से पूछती है कि इतनी देर क्यों लगा दी आने में।
अरुणा भारी मन से चित्रा से बोलती है कि वह बच्चा नहीं बचा। उसका स्वर गहरे दुःख में डूबा हुआ था। यह सुनकर वातावरण बहुत गंभीर और उदास हो जाता है। चित्रा तुरंत लालटेन जलाती है और स्टोव पर खाना गरम करने लगती है, ताकि अरुणा खाना खा सके। लेकिन अरुणा का मन इतना दुखी था कि वह साफ़ कह देती है कि उसे बिल्कुल भूख नहीं है और उसकी आँखें फिर आँसुओं से भर जाती हैं।
चित्रा बड़े स्नेह से उसकी पीठ थपथपाती है और समझाती है कि जो होना था, वह हो चुका है। अब भूखे रहने से कोई लाभ नहीं होगा, इसलिए थोड़ा-बहुत खा लेना चाहिए। लेकिन अरुणा दृढ़ स्वर में मना कर देती है और कहती है कि बस अब लालटेन बुझा दो। उसके इस दर्द और थकान से भरे जवाब ने उसके भीतर की पीड़ा को और गहरा कर दिया।
दो-तीन दिन तक अरुणा इस दुख में डूबी रहती है और बहुत उदास हो जाती है। लेकिन धीरे-धीरे समय के अनुसार उसका दुःख कम हो जाता है और वह फिर से अपने कामों में पहले की तरह लग जाती है।
इसके बाद कॉलेज से रोज़ाना की तरह सारी लड़कियाँ चार बजे लौट आती हैं, लेकिन अरुणा देर से लौटती है। चित्रा चाय बनाने के लिए उसका इंतजार करती है। इंतजार करते-करते वह झुंझलाहट में कहती है कि पता नहीं अरुणा कहाँ-कहाँ अटक जाती है, और हमेशा उसी के पीछे भागना पड़ता है। तभी अरुणा हँसते हुए कमरे में आ जाती है और बोलती है कि वह आ गई है, अब चाय बना सकते हैं।
पाठ – “तेरे मनोज की चिट्ठी आई है।“
“कहाँ, तूने तो पढ़ ही ली होगी फाड़कर।“
“चल हट, तुम्हारी चिट्ठियों में रहता ही क्या है जो कोई पढ़े। बड़े–बड़े आदर्श की बातें, मानो खत न हुआ भाषण हुआ।“
“अच्छा–अच्छा, तू लिखा करना रसभरी चिट्ठियाँ, हमें तो वह सब आता नहीं।” वह लिफाफा फाड़कर पत्र पढ़ने लगी। जब उसका पत्र समाप्त हो गया तो चित्रा बोली, “आज पिता जी का पत्र आया है, लिखा है जैसे ही यहाँ की पढ़ाई खत्म हो जाएगी, मैं विदेश जा सकती हूँ। मैं तो जानती थी, पिता जी कभी मना नहीं करेंगे।“
“हाँ भाई, धनी पिता की इकलौती बिटिया ठहरी। तेरी इच्छा कभी टाली जा सकती है। पर सच कहती हूँ, मुझे तो यह सारी कला इतनी बेमतलब लगती है कि बता नहीं सकती। किस काम की ऐसी कला, जो आदमी को आदमी न रहने दे।“
“तो तू मुझे आदमी नहीं समझती क्यों ? अरे, इस लगन को देखकर ही तो गुरुजी कहते हैं कि वह समय दूर नहीं, जब हिन्दुस्तान के कोने–कोने में मेरी शोहरत गूँज उठेगी। अमृता शेरगिल की तरह मेरा भी नाम गूँज उठे, बस यही तमन्ना है।“
शब्दार्थ-
खत- पत्र
लगन- मेहनत
शोहरत- प्रसिद्धि
अमृता शेरगिल- मशहूर चित्रकार
गूँज- परावर्तित होकर सुनाई पड़नेवाली आवाज़
तमन्ना- इच्छा, आकांक्षा
व्याख्या- प्रस्तुत अंश में चित्रा उत्साह से अरुणा को बताती है कि उसके मंगेतर मनोज की चिट्ठी आई है। अरुणा मज़ाक में कहती है कि ज़रूर चित्रा ने उसे पहले ही फाड़कर पढ़ लिया होगा। इस पर चित्रा झल्लाकर जवाब देती है कि अरुणा की चिट्ठियों में होता ही क्या है, बड़े-बड़े आदर्शों और उपदेशों जैसी बातें, मानो खत नहीं बल्कि भाषण हो।
अरुणा मुस्कराकर कहती है कि चित्रा चाहे तो अपने पत्रों में रस भरी बातें लिखे, लेकिन उसे ऐसे पत्र लिखने नहीं आते। वह लिफ़ाफा खोलकर ध्यान से पत्र पढ़ने लगती है। पत्र खत्म करने के बाद चित्रा गर्व से बताती है कि उसके पिता जी का भी पत्र आया है जिसमें लिखा है कि जैसे ही उसकी पढ़ाई पूरी हो जाती है तो वह विदेश जा सकती है। चित्रा को पहले से विश्वास था कि उसके पिता उसकी इच्छाओं को कभी नहीं टालेंगे।
इस पर अरुणा व्यंग्य करते हुए कहती है कि धनी पिता की इकलौती बेटी की इच्छाएँ तो कभी टाली ही नहीं जा सकतीं। वह आगे कहती है कि सच कहें तो उसे यह सारी कला बिल्कुल बेमतलब लगती है, क्योंकि ऐसी कला किस काम की जो इंसान को इंसान न रहने दे, यानि उसे व्यावहारिक जीवन से काट दे।
इस पर चित्रा कहती है कि क्या वो उसे इंसान नहीं मानती। वह आत्मविश्वास से कहती है कि गुरुजी भी उसकी लगन देखकर यही कहते हैं कि वह दिन दूर नहीं जब उसका नाम पूरे हिंदुस्तान में गूँजेगा। अमृता शेरगिल जैसी प्रसिद्ध कलाकार की तरह उसकी भी ख्याति चारों ओर फैलेगी, यही उसकी सबसे बड़ी आकांक्षा है।
पाठ – “कागज़ पर इन बेजान चित्रों को बनाने की बजाय दो–चार की जिन्दगी क्यों नहीं बना देती!”
“वह काम तो तेरे और मनोज के लिए छोड़ दिया है। तुम दोनों ब्याह कर लो और फिर जल्दी से सारी दुनिया का कल्याण करने के लिए झंडा लेकर निकल पड़ना।” और चित्रा हँस पड़ी। फिर बोली–
‘’अच्छा, यह बता कि तेरे यह सब करने से ही क्या हो जायेगा ? तूने अपनी अनोखी पाठशाला में दस–बीस बच्चे पढ़ा दिये, तो क्या निरक्षरता मिट जायगी, या झोंपड़ी में कुछ औरतों को हुनर सिखाकर कुछ कमाने लायक बना दिया तो उससे गरीबी मिट जायगी ? अरे, यह सब काम एक के किये होते नहीं। जब तक समाज का सारा ढाँचा नहीं बदलता तब तक कुछ होने का नहीं, और ढाँचा ही बदल गया तो तेरे मेरे कुछ करने की ज़रूरत नहीं, सब अपने आप ही हो जायेगा।“
तीन दिन से तेज़ वर्षा हो रही थी। रोज़ अखबारों में बाढ़ की खबरें आती थीं। बाढ़–पीड़ितों की दशा बिगड़ती जा रही थी।
“आज शाम को एक स्वयंसेवकों का दल जा रहा है। प्रिंसिपल से अनुमति ले ली, मैं भी उनके साथ जा रही हूँ।” शाम को अरुणा चली गयी। पंद्रह दिन बाद वह लौटी तो उसकी हालत काफी खस्ता हो गयी थी। सूरत ऐसी निकल आयी थी मानो छः महीने से बीमार हो।
शब्दार्थ-
ब्याह- विवाह, शादी
कल्याण- भलाई
अनोखी– विशेष या अलग प्रकार की
निरक्षरता- अनपढ़ता
हुनर- कौशल
समाज का ढाँचा– समाज की व्यवस्था, प्रणाली या संरचना
स्वयंसेवकों का दल– सेवा कार्य करने वाले लोगों का समूह
अनुमति- आज्ञा
खस्ता हालत- बहुत थकावट या कमजोर शरीर की स्थिति
व्याख्या- अरुणा चित्रा को समझाती है कि बेजान चित्र बनाने की बजाय अगर वह चाहे तो कुछ लोगों की ज़िंदगी बदल सकती है। यानी उसका कहना है कि कला से बढ़कर दूसरों की सेवा करना और उन्हें जीवन में सहारा देना अधिक महत्वपूर्ण है।
इस पर हँसते हुए व्यंग्य करती है और कहती है कि यह काम अरुणा और उसके मंगेतर मनोज के लिए छोड़ दिया है। वह मज़ाक में कहती है कि जब ये दोनों शादी कर लेंगे तो समाज सुधार का झंडा लेकर दुनिया का कल्याण करने निकल पड़ेंगे। इसके बाद चित्रा गंभीर होकर अरुणा से पूछती है कि उसके इस सब करने से वास्तव में क्या फर्क पड़ेगा।
चित्रा का तर्क है कि अरुणा की पाठशाला में दस-बीस बच्चों को पढ़ा देने से निरक्षरता खत्म नहीं होगी और कुछ औरतों को हुनर सिखा देने से गरीबी नहीं मिटेगी। वह मानती है कि जब तक समाज का पूरा ढाँचा नहीं बदलेगा, तब तक किसी एक व्यक्ति की कोशिशों से कुछ बड़ा नहीं हो सकता। और अगर समाज का ढाँचा ही बदल जाए, तो किसी व्यक्तिगत प्रयास की ज़रूरत ही नहीं रह जाएगी।
इस बीच लगातार तीन दिन से बारिश हो रही थी और अखबारों में बाढ़ की ख़बरें छप रही थीं। बाढ़-पीड़ितों की हालत दिन-प्रतिदिन बिगड़ रही थी। अरुणा को यह देखकर चैन नहीं मिला। उसने बताया कि उसी शाम एक स्वयंसेवकों का दल जा रहा है और उसने प्रिंसिपल से अनुमति लेकर उनके साथ जाने का निश्चय किया है। शाम को अरुणा बाढ़-पीड़ितों की सेवा के लिए निकल पड़ती है। पंद्रह दिन बाद जब वह लौटी, तो उसकी हालत बेहद खराब थी। उसका चेहरा ऐसा हो गया था मानो वह महीनों से बीमार रही हो।
पाठ- शाम को चित्रा गुरुदेव के पास से लौटी तो अरुणा को देखकर बड़ी खुश हुई। “अच्छा हुआ, तू लौट आयी। मैं तो सोच रही थी कहीं तू बाढ़–पीड़ितों की सेवा करती ही रह जाय और मैं जाने से पहले तुझसे मिल भी न पाऊँ।”
“क्यों, तेरा जाने का तय हो गया ?”
“हाँ, अगले बुध को मैं घर जाऊँगी और बस एक सप्ताह बाद हिन्दुस्तान की सीमा के बाहर पहुँच जाऊँगी।” उल्लास उसके स्वर में छलका पड़ रहा था।
“सच कह रही है, तू चली जायगी चित्रा ! छह साल से तेरे साथ रहते–रहते यह बात ही मैं तो भूल गयी कि कभी हमको अलग भी होना पड़ेगा। तू चली जायेगी तो मैं कैसे रहूँगी ?”
“अरे, दो महीने बाद शादी कर लेगी, फिर याद भी न रहेगा कि कौन कमबख्त थी चित्रा ! बड़ी लालसा थी तेरी शादी में आने की, पर अब तो आ नहीं सकूँगी। अच्छी तरह शादी करना, दोनों मिलकर सारे समाज का और सारे संसार का कल्याण करना।”
आज चित्रा को जाना था। हॉस्टल से उसे बड़ी शानदार विदाई मिली थी। अरुणा सवेरे से ही उसका सारा सामान ठीक कर रही थी। एक–एक करके चित्रा सबसे मिल आयी। बस गुरुजी के घर की तरफ चल पड़ी। तीन बज गये, पर वह लौटी नहीं अरुणा उसका सारा काम खत्म करके उसकी राह देख रही थी। और भी कई लड़कियाँ वहाँ जमा थीं, कुछ बार–बार आकर पूछ जाती थीं, चित्रा लौटी या नहीं। पाँच बजे की गाड़ी से वह जाने वाली है। अरुणा ने सोचा, वह खुद जाकर देख आये कि आखिर बात क्या हो गयी। तभी हड़बड़ाती–सी चित्रा कमरे में आई, “बड़ी देर हो गयी ना! अरे क्या करूँ, बस, कुछ ऐसा हो गया कि रुकना ही पड़ा।“
शब्दार्थ-
गुरुदेव- आदरणीय शिक्षक या गुरु
बाढ़ पीड़ितों- बाढ़ से प्रभावित रहने वाले लोग
उल्लास- हर्ष या खुशी
छलका- व्यक्त हुआ
कमबख्त- बदकिस्मत, हतभाग्य
लालसा- इच्छा, आकांक्षा
राह- रास्ता
हड़बड़ाती सी- जल्दी-जल्दी में
व्याख्या- शाम को जब चित्रा गुरुदेव से मिलकर लौटती है तो अरुणा को देखकर बहुत प्रसन्न होती है। वह कहती है कि अच्छा हुआ अरुणा तुम लौट आई, वरना कहीं वह बाढ़ पीड़ितों की सेवा में ही लगी रहती और उससे मिलने का अवसर नहीं मिलता।
अरुणा आश्चर्य से चित्रा से पूछती है कि क्या सचमुच तेरा जाने का निर्णय हो गया है। चित्रा उत्साह से बताती है कि वह अगले बुधवार को घर जाएगी और उसके एक सप्ताह बाद विदेश चली जाएगी। उसके स्वर में उल्लास झलक रहा था क्योंकि वह अपने भविष्य की ओर कदम बढ़ाने वाली थी।
चित्रा की बात सुनकर अरुणा भावुक हो उठती है। वह कहती है कि छह साल साथ रहने के बाद यह कभी सोचा ही नहीं था कि उन्हें अलग होना पड़ेगा। अब चित्रा के चले जाने के बाद वह कैसे रहेगी, यह सोचकर वह उदास हो जाती है। इसके उत्तर में चित्रा मज़ाकिया लहजे में उसे ढाढ़स बंधाते हुए कहती है कि दो महीने बाद उसकी शादी हो जाएगी, तब वह इतनी व्यस्त हो जाएगी कि चित्रा को याद भी नहीं रखेगी। साथ ही, वह यह भी कहती कि उसकी इच्छा थी कि वह शादी में शामिल हो, पर अब संभव नहीं है। चित्रा उसे आशीर्वाद देती है कि उसका वैवाहिक जीवन समाज और संसार के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करे।
उस दिन चित्रा को विदा होना था। हॉस्टल की ओर से उसे शानदार विदाई दी गई। अरुणा सुबह से ही उसका सारा सामान व्यवस्थित करती है। चित्रा एक-एक करके सभी से मिल चुकी थी और अब गुरुजी के घर गई थी। समय बीतता जा रहा था, तीन बज गए, लेकिन चित्रा वापस नहीं आती है। अरुणा उसका सारा काम निपटा कर उसकी प्रतीक्षा करती है। उसके मन में अधीरता और बेचैनी होती है।
इसी बीच और भी कई लड़कियाँ वहाँ आ जाती हैं। वे बार-बार पूछतीं कि क्या चित्रा लौट आई है। सभी को चिंता थी क्योंकि उसे पाँच बजे की गाड़ी पकड़नी थी। इतने में ही चित्रा हड़बड़ाती हुई कमरे में आती है और बोलती है कि देर हो गई, पर क्या किया जाए, कुछ ऐसा हो गया था कि उसे रुकना ही पड़ा।
पाठ – “आखिर क्या हो गया ऐसा, जो रुकना ही पड़ा, सुनें तो।” दो–तीन लड़कियाँ एक साथ बोली।
“गर्ग की दुकान के सामने पेड़ के नीचे अक्सर एक भिखारिन बैठी रहा करती थी ना, लौटी तो देखा कि वह वहीं मरी पड़ी है और उसके दोनों बच्चे उसके सूखे शरीर से चिपककर बुरी तरह रो रहे हैं। जाने क्या था उस सारे दृश्य में कि मैं अपने को रोक नहीं सकी–जल्दी ही उसे एक कागज़ पर उतार लिया। बस इसी में इतनी देर हो गयी।” चर्चा इसी पर चल पड़ी, “कैसे मर गयी, कल तो उसे देखा था।” किसी ने कहा, “अरे, जिन्दगी का क्या भरोसा, मौत कहकर थोड़े आती है।” आदि–आदि। पर इस सारी चर्चा से अरुणा कब खिसक गयी, कोई जान ही नहीं पाया।
साढ़े चार बजे और चित्रा हॉस्टल के फाटक पर आ गयी, पर तब तक अरुणा का कहीं पता नहीं था। बहुत सारी लड़कियाँ उसे छोड़ने को स्टेशन आयीं, पर चित्रा की आँखें बराबर अरुणा को ढूँढ़ रही थीं। उसे पूरा विश्वास था कि वह इस विदाई की वेला में उससे मिलने जरूर जायेगी। पाँच भी बज गये, रेल चल पड़ी, अनेक रूमालों ने हिल – हिलकर चित्रा को विदाई दी, पर उसकी आँसू भरी आँखें किसी और को ही ढूँढ़ रही थीं पर अरुणा न आयी सो न आयी।
शब्दार्थ-
भिखारिन- गरीब महिला जो भीख मांगती है।
चर्चा- वाद-विवाद
व्याख्या- जब चित्रा हड़बड़ाते हुए लौटती है और बोलती है कि देर हो गई, तो कुछ सहेलियाँ उत्सुक होकर एक साथ पूछती हैं कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो उसे रुकना पड़ा। तब चित्रा बताती है कि गर्ग की दुकान के सामने पेड़ के नीचे अक्सर एक भिखारिन बैठा करती थी। लौटते समय वह देखती है कि वही भिखारिन आज मर चुकी थी और उसके दोनों छोटे बच्चे उसकी सूखी देह से चिपककर जोर-जोर से रो रहे थे। यह दृश्य इतना मार्मिक था कि चित्रा खुद को रोक नहीं पाती है और तुरंत उस दृश्य को कागज़ पर उतारती है। इसी कारण उसे देर हो जाती है।
इसके बाद छात्राओं के बीच चर्चा शुरू होती है कि वह भिखारिन कैसे मर गई। उनमें से कोई कहता है कि अभी कल ही तो उसे देखा था, तो कोई बोलता है कि जीवन का कोई भरोसा नहीं, मौत तो अचानक आ जाती है। इस तरह सब लोग अपनी-अपनी बातें करते हैं। लेकिन इस चर्चा के बीच अरुणा चुपचाप वहाँ से चली जाती है, और किसी को इसका पता भी नहीं चलता।
शाम साढ़े चार बजे चित्रा हॉस्टल के फाटक पर आती है, लेकिन अरुणा कहीं दिखाई नहीं देती। कई सहेलियाँ उसे छोड़ने स्टेशन तक आती हैं, पर चित्रा की आँखें बार-बार अरुणा को ही ढूँढ़ती हैं। उसे पूरा विश्वास था कि इस विदाई के अवसर पर अरुणा ज़रूर आएगी। लेकिन पाँच बज जाते हैं और रेलगाड़ी चल पड़ती है। कई सहेलियों ने अपने रूमाल हिलाकर चित्रा को विदाई देती हैं, पर चित्रा की आँसुओं से भरी आँखें केवल अरुणा को ही खोजती रहती हैं। अफसोस कि अरुणा अंत तक नहीं आती है।
पाठ – विदेश जाकर चित्रा तन–मन से अपने काम में जुट गयी। विदेशों में उसके चित्रों की धूम मच गयी। भिखमंगी और दो अनाथ बच्चों के उस चित्र के बखान कई अखबारों में हुए। नाम और शोहरत पाकर चित्रा जैसे अपना पिछला सब कुछ भूल गयी। पहले साल तो अरुणा और उसके बीच चिट्ठियों का लगातार आना जाना लगा रहा। फिर कम होते–होते एकदम बंद हो गया। पिछले एक साल से तो उसे यह भी नहीं मालूम कि वह कहाँ है। नयी कल्पनाएँ और नये–नये विचार उसे चित्र बनाने की प्रेरणा देते और वह उन्हीं में खोयी रहती। उसके चित्रों की प्रदर्शनियाँ होतीं। अनेक प्रतियोगिताओं में उसका ‘अनाथ‘ शीर्षक वाला चित्र पहला इनाम पा चुका था। जाने क्या था उस चित्र में, जो देखता, वही हैरान रह जाता। दुःख और गरीबी जैसे सामने आकर खड़ी थी। तीन साल बाद जब वह भारत लौटी तो बड़ा स्वागत हुआ उसका। अखबारों में उसकी कला पर, उसके जीवन पर अनेक लेख छपे । पिता अपनी इकलौती बिटिया की इस कामयाबी पर बहुत खुश थे – समझ नहीं पा रहे थे कि उसे कहाँ–कहाँ उठायें, बिठायें। दिल्ली में उसके चित्रों की शानदार प्रदर्शनी हुई। उस प्रदर्शनी को देखने के लिए जनता उमड़ पड़ी थी, भूरि–भूरि प्रशंसा हो रही थी और चित्रा को लग रहा था, जैसे उसके सपने सच हो गये।
शब्दार्थ-
तन-मन से- पूरी शक्ति, पूरी लगन और समर्पण के साथ
धूम मच गयी– बहुत प्रसिद्धि या चर्चा हो गई
भिखमंगी- गरीब महिला जो भीख मांगती है
बखान- प्रशंसा
शोहरत– प्रसिद्धि
कल्पनाएँ– रचनात्मक विचार
प्रदर्शनियाँ– कला या चित्रों की सार्वजनिक प्रदर्शनी
अनाथ- बिना माता-पिता के बच्चा, बेसहारा बच्चा
इनाम– पुरस्कार
स्वागत हुआ- आदर-सम्मान
भूरि-भूरि प्रशंसा– अत्यधिक सराहना
व्याख्या- विदेश जाने के बाद चित्रा अपने पूरे तन-मन को कला साधना में लगा देती है। वहाँ उसके चित्र धूम मचा देते हैं। विशेषकर उस भिखमंगी और दो अनाथ बच्चों वाला चित्र कई अख़बारों में चर्चा का विषय बन जाता है। इस नाम और शोहरत चित्रा को इतना व्यस्त कर देती है कि वह अपना पुराना जीवन और रिश्ते लगभग भूल जाती है।
पहले साल तक अरुणा और चित्रा के बीच चिट्ठियों का आदान-प्रदान चलता रहता है, पर धीरे-धीरे पत्राचार कम होता जाता है और अंततः बंद हो जाता है। अब तो चित्रा को यह भी नहीं पता था कि अरुणा कहाँ है। उसे केवल नई-नई कल्पनाएँ और विचार ही चित्रकारी की प्रेरणा देते और वह उन्हीं में खोई रहती। उसके चित्रों की प्रदर्शनियाँ होने लगती हैं और अनेक प्रतियोगिताओं में उसके चित्र विशेषकर ‘अनाथ’ शीर्षक वाला पहला पुरस्कार जीतता है। उस चित्र में ऐसा प्रभाव था कि हर देखने वाला स्तब्ध रह जाता, मानो दुख और गरीबी स्वयं सामने आ खड़ी हों।
तीन साल बाद जब चित्रा भारत लौटती है, तो उसका भव्य स्वागत होता है। अखबारों में उसकी कला और जीवन पर अनेक लेख प्रकाशित होते हैं। उसके पिता अपनी इकलौती संतान की इस सफलता पर गर्व से फूले नहीं समाते। दिल्ली में जब उसकी चित्रों की प्रदर्शनी लगती है तो जनता उमड़ पड़ती है। चारों ओर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा होने लगती है और चित्रा को लगाता है कि उसके सपने सच हो गए हैं।
पाठ – भीड़–भाड़ में अचानक उसकी भेंट अरुणा से हो गयी। “रुनी!” कहकर वह भीड़ को भूलकर अरुणा के गले से लिपट गयी। “तुझे कब से चित्र देखने का शौक हो गया, रुनी!”

“अरे, ये बच्चे किसके हैं ?” दो प्यारे से बच्चे अरुणा से सटे खड़े थे। लड़के की उम्र दस की होगी तो लड़की की कोई आठ।
“मेरे बच्चे हैं, और किसके ! ये तुम्हारी चित्रा मासी हैं, नमस्ते करो अपनी मासी को।” अरुणा ने आदेश दिया।
बच्चों ने बड़ी अदा से नमस्ते किया। पर चित्रा हैरान होकर कभी उनका और कभी अरुणा का मुँह देख रही थी। वह सारी बात का कुछ तुक नहीं मिला पा रही थी। तभी अरुणा ने टोका, “कैसी मासी है, प्यार तो कर।” और चित्रा ने दोनों के सिर पर हाथ फेरा। प्यार का ज़रा–सा सहारा पाकर लड़की चित्रा की गोदी में जा चढ़ी। अरुणा ने कहा,
“तुम्हारी ये मासी बहुत अच्छी तस्वीरें बनाती हैं, ये सारी तस्वीरें इन्हीं की बनायी हुई हैं।“
“सच ?” आश्चर्य से बच्ची बोल पड़ी। “तब तो मासी, तुम ज़रूर चित्रकला में पहला नंबर लाती होगी। मैं भी पहला नंबर लाती हूँ–तुम हमारे घर आओगी तो अपनी कॉपी दिखाऊँगी।” बच्ची के स्वर में मुकाबले की भावना थी। चित्रा और अरुणा इस बात पर हँस पड़ी।
शब्दार्थ-
भीड़-भाड़- बहुत सारे लोगों का एक जगह पर होना
भेंट- मिलना, किसी से सामना होना
शौक- रुचि, किसी चीज़ को करने की इच्छा
अदा- विशेष ढंग, नज़ाकत या आकर्षक रूप
आश्चर्य– हैरानी
हैरान होना- आश्चर्यचकित या चकित होना
टोका- रोका
सहारा- मदद
प्रतियोगिता- मुकाबला
व्याख्या- इस गद्याँश में दिल्ली की प्रदर्शनी में भीड़ के बीच अचानक चित्रा की मुलाकात अरुणा से हो जाती है। उसे देखते ही चित्रा पुराने अपनत्व में डूब जाती है और भीड़ को भुलाकर अरुणा के गले से लिपट जाती है। अरुणा को देखकर वह चकित भी होती है और पूछ बैठती है कि आखिर उसे कब से चित्र देखने का शौक हो गया।
चित्रा की नज़र तुरंत अरुणा के पास खड़े दो बच्चों पर पड़ती है। एक दस साल का लड़का और आठ साल की लड़की। हैरानी से वह पूछती है कि ये बच्चे किसके हैं। अरुणा मुस्कुराकर जवाब देती है कि ये उसके अपने बच्चे हैं और बच्चों को कहती है कि यह तुम्हारी ‘चित्रा मासी’ हैं, इन्हें नमस्ते करो। बच्चे बड़े विनम्र ढंग से नमस्ते करते हैं। चित्रा आश्चर्यचकित होकर कभी बच्चों को और कभी अरुणा को देखती है। उसे यह सब बहुत अनपेक्षित लगता है और वह स्थिति को समझ नहीं पा रही होती।
अरुणा मज़ाकिया अंदाज़ में कहती है कि कैसी मासी है, प्यार तो करो। लड़की स्नेह पाकर तुरंत चित्रा की गोद में चढ़ जाती है। अरुणा बच्चों को बताती है कि उनकी मासी बहुत अच्छी तस्वीरें बनाती हैं और यह पूरी प्रदर्शनी उनके बनाए चित्रों की है। बच्ची आश्चर्यचकित होकर पूछती है कि क्या मासी चित्रकला में पहला नंबर लाती होंगी। वह गर्व से बताती है कि वह भी अपनी कक्षा में पहला नंबर लाती है और वादा करती है कि मासी जब घर आएँगी तो वह अपनी कॉपी दिखाएगी। बच्ची की इस मासूम स्पर्धा-भावना पर चित्रा और अरुणा दोनों हँस पड़ती हैं।
पाठ – ‘’आप हमें सब तस्वीरें दिखाइये मासी, समझा–समझाकर।” बच्चे ने फरमाइश की। चित्रा समझाती तो क्या, यों हीं तस्वीरें दिखाने लगी। घूमते–घूमते वे उसी भिखारिनी वाली तस्वीर के सामने आ पहुँचे । चित्रा ने कहा, “यही वह तस्वीर है रुनी, जिसने मुझे इतनी प्रसिद्धि दी।”
“ये बच्चे रो क्यों रहे हैं मासी ? तस्वीर को ध्यान से देखकर बालिका ने कहा।
“इनकी माँ मर गयी, देखती नहीं मरी पड़ी है। इतना भी नहीं समझती !” बालक ने मौका पाते ही अपने बड़प्पन की छाप लगायी।
“ये सचमुच के बच्चे थे मासी ?” – बालिका ने पूछा ।
“अरे, सचमुच के बच्चों को देख कर ही तो बनायी थी यह तस्वीर ।“
“हाय राम! इनकी माँ मर गयी तो फिर इन बच्चों का क्या हुआ ?” बालक ने पूछा।
“मासी, हमें ऐसी तस्वीर नहीं, अच्छी–अच्छी तस्वीरें दिखाओ, राजा–रानी की, परियों की– “उस तस्वीर को और देर देखना बच्ची के लिए भारी पड़ रहा था। तभी अरुणा के पति आ पहुँचे । परिचय हुआ। साधारण बातचीत के बाद अरुणा ने दोनों बच्चों को उसके हवाले करते हुए कहा, ‘आप जरा बच्चों को प्रदर्शनी दिखाइये, मैं चित्रा को लेकर घर चलती हूँ।“
शब्दार्थ-
फरमाइश- इच्छा
बड़प्पन की छाप- श्रेष्ठता या बड़े होने का भाव होना
परिचय- किसी से मिलवाना, जान-पहचान कराना
व्याख्या- इस गद्याँश में प्रदर्शनी में बच्चे उत्सुकता से चित्रा से कहते हैं कि वह उन्हें सारी तस्वीरें दिखाएँ और समझाएँ। चित्रा क्या समझाती, बस बच्चों को एक-एक कर तस्वीरें दिखाने लगती है। इसी दौरान वे उस मशहूर भिखारिन वाली तस्वीर तक पहुँचते हैं, जिसने चित्रा को दुनिया भर में प्रसिद्ध कर दिया था। चित्रा गर्व से अरुणा को बताती है कि यह वही चित्र है, जिसने उसकी ख्याति फैलाई।
बच्ची चित्र को देखकर मासूमियत से पूछती है कि ये दोनों बच्चे रो क्यों रहे हैं। इससे पहले कि चित्रा कुछ कहे, उसका भाई बड़ेपन का अहसास दिखाते हुए कहता है कि उनकी माँ मर गई है और यही वजह है कि बच्चे रो रहे हैं। बच्ची हैरानी से पूछती है कि क्या ये सचमुच के बच्चे थे। चित्रा बताती है कि हाँ, असली बच्चों को देखकर ही उसने यह तस्वीर बनाई थी।
फिर बालक दुखी होकर पूछता है कि जब उनकी माँ मर गई तो उन बच्चों का क्या हुआ होगा। बच्ची यह दृश्य सहन नहीं कर पाती और कहती है कि मासी उन्हें ऐसी दुखभरी तस्वीरें न दिखाएँ, बल्कि राजा-रानी या परियों की तस्वीरें दिखाएँ। तभी अरुणा के पति वहाँ पहुँचते हैं। सामान्य परिचय के बाद अरुणा बच्चों को उनके हवाले कर देती है और खुद चित्रा को अपने साथ घर ले जाने की बात करती है।
पाठ – बच्चे इच्छा न रहते हुए भी पिता के साथ विदा हुए। चित्रा को दोनों बच्चे बड़े ही प्यारे लगे।
वह उन्हें एकटक देखती रही, फिर पूछा, “सच–सच बता रुनी ये प्यारे–प्यारे बच्चे किसके हैं।
“कहा तो, मेरे।” अरुणा ने हँसते हुए कहा।
“अरे, बताओ ना! मुझे ही बेवकूफ बनाने चली है।“
एक पल रुककर अरुणा ने कहा, “बता दूँ ?” और फिर उस भिखारिनी वाले चित्र के दोनों बच्चों पर अँगुली रखकर बोली, “ये ही वे दोनों बच्चे हैं।“
“क्या ऽऽऽ!” हैरानी से चित्रा की आँखें फैली की फैली रह गयी।
“क्या सोच रही हैं, चित्रा ?”
“कुछ नहीं – मैं… मैं सोच रही थी कि… “पर शब्द शायद उसके विचारों में ही खो गये।
शब्दार्थ-
एकटक देखना– देखना
बेवकूफ बनाना– मूर्ख
हैरानी से आँखें फैलना– चकित या आश्चर्यचकित होना
शब्द खो जाना- भाव या विचारों को व्यक्त न कर पाना
व्याख्या- बच्चे अपने पिता के साथ अनमने मन से विदा होते हैं। वे वहाँ से जाना नहीं चाह रहे थे। चित्रा उन दोनों बच्चों को जाते हुए बड़े प्यार से देखती रही। उसके मन में बार-बार सवाल उठता रहा कि आखिर ये बच्चे किसके हैं। उसने अरुणा से सीधा पूछा कि सच-सच बताए, ये प्यारे बच्चे किसके हैं।
अरुणा मुस्कराकर कहती है कि ये उसी के बच्चे हैं। चित्रा को विश्वास नहीं होता और वह सोचती है कि अरुणा मज़ाक कर रही है। वह ज़िद करती है कि उसे सच्चाई बताई जाए। तब अरुणा थोड़ी देर चुप रहकर गंभीरता से कहती है कि वह बताएगी। वह प्रदर्शनी में लगे भिखारिन वाले चित्र की तरफ इशारा करते हुए कहती है कि ये वही दोनों बच्चें हैं जो अब उसके पास हैं।
चित्रा यह सुनकर दंग रह जाती है। उसकी आँखें आश्चर्य से बड़ी हो जाती हैं, मानो यक़ीन ही न कर पा रही हो। अरुणा उससे पूछती है कि वह इतनी हैरान क्यों है। चित्रा कुछ कहने की कोशिश करती है लेकिन उसके शब्द मानो उसके विचारों में ही खो जाते हैं। वह बस चुप और विस्मित रह जाती है।
Conclusion
इस पोस्ट में ‘दो कलाकार’ पाठ का सारांश, व्याख्या और शब्दार्थ दिए गए हैं। यह पाठ PSEB कक्षा 10 के पाठ्यक्रम में हिंदी की पाठ्यपुस्तक से लिया गया है। मन्नू भंडारी द्वारा लिखित यह कहानी मानवीय संवेदनाओं और जीवन-दृष्टि पर आधारित है। जिसमें दो सहेलियाँ अरुणा और चित्रा अपने-अपने तरीके से जीवन को कला का रूप देती हैं। यह पोस्ट विद्यार्थियों को पाठ को सरलता से समझने, उसके मुख्य संदेश को ग्रहण करने और परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने में सहायक सिद्ध होगा।