Popular Pad of Meera with Meaning and Explanation
Meera ke Pad – मीरा बाई, जिन्हें मीराबाई भी कहा जाता है, 16वीं सदी की एक प्रसिद्ध कवयित्री और कृष्णभक्त थीं। मीरा बाई का जन्म 1498 के आसपास हुआ था। उनका जन्म राजस्थान के मेवाड़ राज्य के कुम्भलगढ़ किले में हुआ था, जो वर्तमान में राजसमंद जिले में स्थित है। मीरा बाई का जन्म एक राजपूत परिवार में हुआ था, लेकिन उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय कृष्ण भक्ति और साधना में बिताया।
मेवाड़ के राजपूत परिवार से ताल्लुक रखने वाली मीरा बाई ने कृष्ण के प्रति अपनी गहरी भक्ति और प्रेम को अपनी भजनों के माध्यम से व्यक्त किया। उनके कविताएँ और भजन दिव्य प्रेम, आध्यात्मिकता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की भावना को दर्शाते हैं। सामाजिक और पारिवारिक विरोधों के बावजूद, मीरा बाई की अडिग भक्ति और काव्य प्रतिभा ने उन्हें भक्ति आंदोलन के महत्वपूर्ण व्यक्तियों में शामिल कर दिया। उनकी रचनाएँ आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं और उनकी भक्ति की गहराई को दर्शाती हैं।
आइए पढ़ते हैं मीरा के पद (Meera ke Pad)।
पद (1)
बरसै बदरिया सावन की
सावन की मन भावन की।
सावन में उमग्यो मेरो मनवा
भनक सुनी हरि आवन की।।
उमड घुमड चहुं दिससे आयो,
दामण दमके झर लावन की।
नान्हीं नान्हीं बूंदन मेहा बरसै,
सीतल पवन सोहावन की।।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर,
आनन्द मंगल गावन की।।
शब्दार्थ
मन भावन – अच्छा लगनेवाला
उमग्यो – उमंग से भरा हुआ
उमड – धावा
घुमड – चारों ओर से घिरकर एकत्रित होना
नागर – नगर में रहनेवाला
आनन्द – खुशी, हर्ष, उल्लास
व्याख्या :- उपरोक्त पद के माध्यम से मीराबाई कहती है कि मन को भाव विभोर और लुभाने वाली वर्षा ऋतु भी आ चुकी है और बादल भी बरसने लगे हैं। यह मनोरम दृश्य देखकर मेरा हृदय उमंग से भर उठा है। सखी इन सबसे मेरे मन में हरी कृष्ण के आने की संभावना जाग उठी है। बादल सभी दिशाओं से उमड़-घुमड़ कर आ रहे हैं। अब बहुत ही ज्यादा बिजलियाँ भी कड़क रही हैं। सावन की नन्हीं-नन्हीं बुदों की झड़ी लग चुकी है। बहती हुई ठंडी हवा मन को सुहा रही हैं। लग रहा है मेरे प्रभु गिरधर नागर आ रहे हैं। आओ सखी कृष्ण का अभिनंदन करने के लिए इस बेला पर हम मिलकर मंगल गान करें।
पद (2)
अंसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।
अब तो बेल फैल गई आणँद फल होई।
दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से बिलोई।
माखन जब काढ़ि लियो छाछ पिये कोई॥
भगति देखि राजी हई जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल गिरिधर तारो अब मोही॥
शब्दार्थ
अँसुवन – आँसू
मथनियाँ – मथानी
बिलोई – मथी
दधि – दही
छाछ – मट्ठा
काढ़ि लियो – निकाल लिया
तारो – उद्धार
मोहि – मुझे
व्याख्या :- मीरा कहती है कि उन्होंने अपने आंसुओं के जल से सींच-सींचकर कृष्ण प्रेम रूपी बेल बोई है। मीरा के आँसू उनकी सच्ची श्रद्धा और भक्ति को दिखाते है। अब यह बेल फैल गई है और इस पर आनंद रूपी फल लगने लगे हैं। वे कहती हैं कि मैंने कृष्ण के प्रेम रूप दूध को भक्ति रूपी मथानी में बड़े प्रेम से बिलोया हैं। मैंने दही से सार तत्व अर्थात् घी को निकाल लिया और छाछ रुपी सारहीन अंशों को छोड़ दिया। वे प्रभु के भक्त को देखकर बहुत प्रसन्न होती हैं और संसार के लोगों को मोह-माया में लिप्त देखकर रोती हैं। वे स्वयं को गिरधर की दासी बताती हैं और अपने उद्धार के लिए प्रार्थना करती हैं।
पद (3)
मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई॥
जाके सर मोर मुकुट मेरो पति सोई।
तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई॥
छाँड़ि दई कुल की कानि कहा करिहै कोई।
संतन ढिंग बैठि-बैठि लोकलाज खोई॥
चुनरी के किये टूक ओढ़ लीन्ही लोई।
मोती मूँगे उतार बनमाला पोई॥
शब्दार्थ
गिरिधर – पर्वत को धारण करने वाला यानी कृष्ण
गोपाल – गाएँ पालने वाला
मोर मुकुट – मोर के पंखों का बना मुकुट
जाके – जिसके
सोई – वही
तात, मात, भ्रात, बंधु – पिता, माता ,भाई ,दोस्त
छाड़ि दई – छोड़ दी
कल की – परिवार
कानि – मर्यादा
करिहै – करेगा
ढिंग – पास
लोकलाज – समाज की मर्यादा
मोती मूँगे – आभूषण
बनमाला – कंठी
सींचि – सींचकर
व्याख्या :- मीराबाई कहती हैं कि मेरे तो गिरधर गोपाल अर्थात श्री कृष्ण ही सब कुछ हैं, और दूसरा कोई नहीं, जिन्होंने पर्वत को ऊँगली पर उठाकर गिरधर नाम पाया उनके अलावा मैं किसी को अपना नहीं मानती। मीरा अपने गिरधर की पहचान बतलाते हुए कहती है जिसके सिर पर मोर के पंख का मुकुट है, वही है मेरे पति है। माता-पिता, भाई, दोस्त किसी भी पारिवारिक सदस्य या दूसरे से मेरा कोई संबंध नहीं है। मीरा खुद कृष्ण को अर्पित कर चुकी हैं वे कहती है कि कृष्ण के लिए परिवार की मर्यादा भी छोड़ दी है। अब मेरा कोई क्या कर सकता है? अर्थात् मुझे किसी की परवाह नहीं है। कृष्ण भक्ति में डूबी मीरा कहती है कि कृष्ण के बारे में सुनने के लिए उन्होंने संतों के पास समय देना शुरू कर दिया है जिससे उन्हें ज्ञान तो प्राप्त होता है, लेकिन समाज की दृष्टि में उन्होंने अपनी लोक-लाज भी खो दी है। उन्होंने अपने राजसी वस्त्र और आरामदायक जीवन का त्याग कर साधुओं की वेशभूषा धारण कर ली है उन्होंने अपने कीमती वस्त्रों के साथ ही अपने गहने आदि भी त्याग दिए हैं और कंठी धारण कर ली है, जो उनके समर्पण का प्रतीक है।
पद (4)
बसो मेरे नैनन में नंदलाल।
मोहनी मूरत, साँवरी सूरत, नैना बने बिसाल।
अधर सुधारस मुरली राजत, उर बैजंती माल॥
छुद्रघंटिका कटितट सोभित, नूपुर सबद रसाल।
मीरां प्रभु संतन सुखदाई भगत बछल गोपाल॥
शब्दार्थ
मोहनी – लुभावनी, मोहित करनेवाली
सुधारस – सुधा, अमृत
भगत – विचारवान्
व्याख्या :- ऐ नंदलाल, मेरी आँखों में आ बसो। कैसी मोहनी मूरत, कैसी साँवली सूरत है। आँखें कितनी बड़ी हैं! तुम्हारे चरणों पर गीतों के रस से भरी हुई बाँसुरी सजी हुई है और सीने पर वैजयंती माला है। कमर के गिर्द छोटी-छोटी घंटियाँ सजी हुई है और पैरों में बँधे हुए नूपुर मीठी आवाज में बोल रहे हैं। ऐ मीरा के प्रभु, तुम संतों के सुख पहचानते हो और अपने भक्तों के संरक्षक हो।
पद (5)
लगी मोहि राम खुमारी हो।
रमझम बरसै मेहंड़ा भीजै तन सारी हो॥
चहूँदिस चमकै दामणी गरजै घन भारी हो।
सत गुरु भेद बताइया खोली भरम किवारी हो॥
सब घट दीसै आतमा सबही सूँ न्यारी हो।
दीपग जोऊँ ग्यान का चढूँ अगम अटारी हो।
मीरा दासी राम की इमरत बलिहारी हो॥
शब्दार्थ
खुमारी – सुस्ती, आलसपन
भेद – छेदना
भरम – माया, मिथ्या, मोह
बलिहारी – क़ुर्बान जाना, निछावर होना
व्याख्या :- हे मेरे प्रभु मैं अब राम-नाम के नशे में चूर हो चुकी हूँ। बाहर हल्की-हल्की रिमझिम पानी बरस रहा है और मेरा शरीर और मेरी साड़ी इस बारिश में पूरी तरह से भीग गई हैं। चारों ओर बहुत तेज बादल गरज रहे हैं और बिजली कड़क रही है। आज मेरे सतगुरु ने सभी भ्रम के दरवाजों को खोलकर मुझे खुशहाल जीवन जीने की रहस्य की बात बता दी है। आज तो हर शरीर में परमात्मा के दर्शन हो रहे हैं पर फिर भी सभी आत्माएं अपने शरीर से अलग हो रही हैं। आज ज्ञान का दिव्य प्रकाश मेरे आँखों के सामने छा गया है। मीरा आगे दोहे में कहती हैं की राम की अमृत वाणी पर मैं पूर्ण रूप से बलिहारी हो गई हूँ।
पद (6)
मैं गिरधर के घर जाऊँ।।
गिरधर म्हाँरों साँचों प्रीतम, देखत रूप लुभाऊँ।
रैण पड़े तब ही उठि जाऊँ, भोर भये उठि आऊँ।
रैणदिना वाके सँग खेलूँ, ज्यूँ त्यूँ वाहि लुभाऊँ।
जो पहिरावै सोई पहिरूँ, जो दे सोई खाऊँ।
मेरी उणकी प्रीत पुराणी, उण बिण पल न रहाऊँ।
जहाँ बैठावें तितही बैठूँ, बेचे तो बिक जाऊँ।
मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, बार बार बलि जाऊँ।।
शब्दार्थ
गिरधर गिरिधर – श्रीकष्ण
म्हाँरों>म्हारो – हमारे
हमारो – हमारा
साँचो – सच्चा
प्रीतम – प्रियतम
रैण/रैन – रात
भोर – प्रातःकाल
रैणदिना – रात-दिन
वाके – उसके
ज्यूँ-त्यूँ – किसी भी तरह से अर्थात् हर प्रकार से
वाहि – उसे
पहिरावै – पहनाए
सोई – वही
उणकी – उनकी
तितही – वहीं
व्याख्या :- मीरा कहती हैं कि मैं तो गिरधर के घर जाती हूँ, वही मेरा सच्चा प्रियतम है और मैं उसके रूप-सौंदर्य पर मुग्ध हूँ अर्थात् कृष्ण के परम सौंदर्य ने मेरे मन में दर्शन का लोभ उत्पन्न कर दिया है, अतः मैं उसके प्रेम के वशीभूत होकर उसके घर जाती हूँ। रात होते ही मैं उसके घर जाने के लिए तत्पर हो जाती हूँ तथा प्रातःकाल होते ही वहाँ से उठ आती हूँ। मैं रात-दिन उसके साथ खेलती हूँ तथा हर प्रकार से उसे रिझाने तथा प्रसन्न करने का प्रयत्न करती हूँ। अब वह मुझे जो भी पहनाए मैं वही पहनूँगी तथा जो कुछ खाने को दे, वही खा लूँगी। आशय है कि मैंने अपनी इच्छा-अनिच्छा, रुचि-अरुचि सभी से मुक्त होकर पूर्ण रूप से कृष्ण के प्रति समर्पण कर दिया है। मीरा इसी भाव को और स्पष्ट करते हुए कहती हैं कि मेरी और उनकी (श्रीकृष्ण की) प्रीति पुरानी है और मैं उनके बिना एक पल भी नहीं रह सकती। वह जहाँ चाहे मैं वहीं बैठ जाऊँगी और यदि वह मुझे बेचना भी चाहे तो मैं सहर्ष बिक जाऊँगी। मीरा कहती हैं कि गिरधर नागर यानी श्रीकृष्ण मेरे स्वामी हैं तथा मैं बार-बार उन पर न्योछावर होती हूँ।
पद (7)
हे री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दरद न जाने कोय।
सूली ऊपर सेज हमारी, किस बिध सोना होय।
गगन मंडल पर सेज पिया की, किस बिध मिलना होय॥
घायल की गति घायल जानै, कि जिन लागी होय।
जौहरी की गति जौहरी जाने, कि जिन लागी होय॥
दरद की मारी बन बन डोलूँ, वैद मिल्यो नहीं कोय।
मीरां की प्रभु पीर मिटै, जब वैद सांवलया होय॥
शब्दार्थ
सूली – प्राण दंड देने की एक विधि
गगन मंडल – पृथ्वी के ऊपर का आकाश रूपी घेरा या मंडल
वैद – डाक्टर या चिकित्सक
व्याख्या :- इस पद के माध्यम से मीराबाई कहती हैं कि ऐ सखी, मैं तो इश्क में दीवानी हो गई हूँ, मेरा दर्द कोई नहीं जानता। हमारी सेज सूली पर है, भला नींद कैसे आ सकती है! और मेरे महबूब की सेज आसमान पर है। आख़िर कैसे मुलाक़ात हो। घायल की हालत तो घायल ही जान सकता है, जिसने कभी जख़्म खाया हो; जौहरी के जौहर को जौहरी ही पहचान सकता है बशर्ते कि कोई जौहरी हो। दर्द से बेचैन होकर जंगल-जंगल मारी फिर रही हूँ और कोई मुआलिज मिलता नहीं मेरे मालिक। मीरा का दर्द तो उस वक़्त मिटेगा जब सलोने-साँवले कृष्ण इसका इलाज करेंगे।
पद (8)
जोगिया री प्रीतड़ी है दुखड़ा री मूल।
हिलमिल बात बणावट मीठी पाछे जावत भूल॥
तोड़त जेज करत नहिं सजनी जैसे चमेली के मूल।
मीरा कहे प्रभु तुमरे दरस बिन लगत हिवड़ा में सूल॥
शब्दार्थ
दुखड़ा – दुःखगाथा
व्याख्या :- जोगी की प्रीति तमाम दु:खों की मूल है। जोगी पहले हिल-मिलकर मीठी-मीठी बातें बनाते हैं, और बाद में भूल जाते हैं। इस मुहब्बत को उतनी ही आसानी से तोड़ देते हैं जैसे चमेली का फूल। मीरा कहती है कि हे प्रभु! तुम्हारे दर्शन के बिना दिल में काँटे से चुभते हैं।
पद (9)
पग घुँघरू बाँध मीरा नाची रे।
मैं तो मेरे नारायण की आपहि हो गई दासी रे।
लोग कहे मीरा भई बावरी न्यात कहै कुलनासी रे।
विष का प्याला राणाजी भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे।
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर सहज मिले अविनासी रे।
शब्दार्थ
पग – पैर
घुँधरू – पायल
आपहि – स्वयं, खद ही
साची – सच्ची
बावरी – पागल
न्यात – परिवार के लोग, बिरादरी
कुल-नासी – कुल का नाश करने वाली
विष – जहर
हाँसी – हँस दी
गिरिधर – पर्वत उठाने वाले, कृष्ण
नागर – चतर
अविनासी – अमर
व्याख्या :- मीराबाई कहती हैं कि वह पैरों में घुंघरू बांधकर कृष्ण के समक्ष भक्ति में डूबकर नाच रही है। नाचते हुए वह सबको बताती है कि उनका सर्वस्व अब कृष्ण का है। उन्होंने खुद को कृष्ण की दासी के रूप में समर्पित किया है। उनके इस आचरण के कारण लोग उन्हें पागल, मूर्ख कहते हैं। समाज की नजर में मीरा विवाहिता है, उनका ये आचरण कुल की मान-मर्यादा के विरुद्ध है। उनके ससुराल वालों को लगता है कि मीरा कुल की प्रतिष्ठा का नाश कर रहीं हैं। जिस पर गुस्सा होकर परिवार और बिरादरी वाले उन्हें कुलनासी स्त्री कह रहे हैं। मीरा अपने परिवार के लिए समस्या बन गई है इसलिए उन्हें मारने के लिए राणा ने विष का प्याला भी भेजा है। राणा के भेजे जहर के प्याले को मीरा ने हंसते हुए पी लिया। क्योंकि उन्हें विश्वास है कि, उनके गिरधर रक्षा जरूर करेंगे, कृष्ण के होते हुए उनका बुरा नहीं हो सकता। मीरा कहती हैं उनके प्रभु बहुत चतुर है जिनके दर्शन उन्हें सहज ही सुलभ हो गए हैं।
पद (10)
हरि बिन कूण गति मेरी।
तुम मेरे प्रतिकूल कहिए मैं रावरी चेरी॥
आदि अंत निज नाँव तेरो हीया में फेरी।
बेरी-बेरी पुकारि कहूँ प्रभु आरति है तेरी॥
यौ संसार विकार सागर-बीच में घेरी।
नाव फाटी प्रभु पालि बाँधो बूड़त है बेरी॥
विरहणि पिव की बाट जोवै राखि ल्यौ नेरी।
दासि मीरा राम रटन है मैं सरण हूँ तेरी॥
शब्दार्थ
प्रतिकूल – जो अनुकूल न हो, विपरीत
बेरी-बेरी – बार-बार
रटन – रट लगाना
व्याख्या :- हरि के बग़ैर मेरी कौन गति! तुम मेरे ख़िलाफ़ कुछ भी कहो लेकिन मैं तो अपने राव कृष्ण की ग़ुलाम हूँ। शुरू से अंत तक मैं हृदय में तुम्हारा ही नाम लेती हूँ। मैं बार-बार पुकारकर कहती हूँ प्रभु, मैं तुझ पर क़ुर्बान हूँ। यह दुनिया विकारों का समुद्र है जिसमें मैं घिरी हुई हूँ। मेरी नाव टूटी हुई है। हे प्रभु! तुम इसमें पाल लगा दो, नहीं तो मैं डूब जाऊँगी। विरह की मारी मैं अपने पिया का रास्ता देखती हूँ, तुम मुझे अपने पास रख लो। दासी मीरा राम का नाम रटती है और कहती है कि मैं तेरी शरण में हूँ।
पद (11)
चालाँ वाही देस प्रीतम पावाँ चलाँ वाही देस।
कहो तो कुसुमल साड़ी रंगावाँ, कहो तो भगवा भेस॥
कहो तो मोतियन माँग भरावाँ, कहो छिरकावाँ केस।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, सुण गयो बिड़द नरेस॥
शब्दार्थ
कुसुमल – लाल रंग
भगवा – केसरिया रंग
भेस – पहनावा
व्याख्या :- चलो सखी! उसी देस को चलो जहाँ प्रीतम मिलेंगे। कहो तो कुसुंबल साड़ी रँगा लूँ। कहो तो भगवा भेष पहन लूँ। कहो तो अपनी माँग मोतियों से भरवा लूँ, कहो तो बाल बिखेर लूँ। मीरा के प्रभु गिरधर नागर हैं। यह बात महाराज को सुना दी गई है।
पद (12)
म्हाँरे घर आज्यो प्रीतम प्यारा तुम बिन सब जग खारा।
तन मन धन सब भेंट करूँ जो भजन करूँ मैं थाँरा।
तुम गुणवंत बड़े गुण सागर मैं हूँ जी औगणहारा॥
मैं त्रिगुणि गुण एक नाहीं तुझमें जी गुण सारा।
मीरा कहे प्रभु कबहि मिलोगे बिन दरसण दुखियारा॥
शब्दार्थ
खारा – नमकीन
दरसण – दर्शन, देखना
दुखियारा – दुःख में फँसा हुआ
व्याख्या :- हे मेरे प्रभु मेरे प्रीतम प्यारे आप मेरे घर पधारें। आपके बगैर सारा संसार बेकार लगता है। मैं आप पर अपना तन-मन-धन सब लुटा चुकी हूँ। मैं हमेशा ही आपका भजन करूंगी। आप गुणों के सागर हो और मैं आपका गुणगान करती हूँ। मुझमें भले ही लाखों बुराइयां हो लेकिन मैं निर्गुणी आप पर ही बलिहारी हूँ। मेरे प्रभु मैं आपसे कब मिलूंगी आपके दर्शन के बगैर मैं बहुत दुखी हूँ।
पद (13)
सखी म्हारी नींद नसाणी हो।
पिय रो पंथ निहारत सब रैण बिहाणी हो ||
सखियन सब मिल सीख दयाँ मण एक णा मानी हो।
बिन देख्याँ कल ना पड़ाँ मण रोस णा ठानी हो।
अंग खीण व्याकुल भयाँ मुख पिय पिय बाणी हो।
अंतर वेदन बिरह री म्हारी पीड़ णा जाणी हो।
ज्यूँ चातक घणकूँ रटै, मछरी ज्यूँ पाणी हो।
मीराँ व्याकुल बिरहणी, सुध बुध बिसराणी हो।।
शब्दार्थ
नसाणी – नष्ट हो गई है
रो – का
निहारत – निहारते हुए या देखते हुए
बिहाणी – बीत गई
दयाँ – दी
बिन देख्याँ – बिना देखे
कल ना पड़ाँ – कल नहीं पड़ती अर्थात चैन नही मिलता
रोस – क्रोध
अंग – शरीर
खीण – कमजोर , दुबला
व्याकुल भयाँ – व्याकुल हो गई हूं
बाणी – बोली आवाज
अंतर वेदन – हृदय की वेदना
पीड़ णा जाणी – पीड़ा नहीं जानी
घणकूँ > घन को – बादल को
रट – रट लगाना
मछरी – मछली
पाणी – पानी
सुध बुध बिसराणी – सुध – बुध खो बैठी है।
व्याख्या :- मीरा कहती हैं कि हे सखी, प्रियतम के वियोग में हमारी नींद जाती रही है, प्रियतम की राह देखते हुए सारी रात व्यतीत हो गई है। हालाँकि सारी सखियों ने मिलकर मुझे सीख दी थी, पर मेरे मन ने उनकी एक न मानी और मैंने कृष्ण से यह स्नेह संबंध जोड़ ही लिया। अब यह हालत है कि उन्हें देखे बिना मुझे चैन नहीं पड़ता और बैचेनी भी जैसे मुझे अच्छी लगने लगी है। मेरा सारा शरीर अत्यंत दुबला और व्याकुल हो गया है तथा मेरे मुख पर सिर्फ प्रियतम का ही नाम है। मीराँ कहती हैं, हे सखी! मेरे विरह ने मुझे जो आंतरिक पीड़ा दी है, उस पीड़ा को कोई नहीं जान पाता। जैसे चातक बादल की ओर एकटक दृष्टि लगाए रहता है और मछली पानी के बिना नहीं रह पाती, तड़पती रहती है, ठीक उसी प्रकार मैं, अपने प्रियतम के लिए तड़पती हूँ। प्रिय के वियोग में मैं अत्यंत व्याकुल हो गई हूँ और इस व्याकुलता में मैं अपनी सुध-बुध भी खो बैठी हूँ।
पद (14)
फूल मंगाऊं हार बनाऊ। मालीन बनकर जाऊं॥
कै गुन ले समजाऊं। राजधन कै गुन ले समाजाऊं॥
गला सैली हात सुमरनी। जपत जपत घर जाऊं॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। बैठत हरिगुन गाऊं॥
शब्दार्थ
राजधन – शाही ख़ज़ाना
जपत जपत – जो परमेश्वर की प्रशंसा करता है
व्याख्या :- मीराबाई कह रही हैं की एक-एक फूल को चुनकर उन्हें गूंथकर अपने प्रभु के लिए माला एवं हार बनाऊं। प्रभु की माला हेतु राज-धन का उपयोग करना चाहती हूँ पर यह राणा जी को कैसे समझाऊँ। प्रभु के गले के लिए माला बनाने हेतु उनका नाम जपते हुए फूलों को मैं घर-घर जाकर मांग रही हूँ। मीरा कहती हैं कि हे मेरे प्रभु मैं बैठकर आपके ही गुण गाती रहती हूँ।
पद (15)
मनमोहन कान्हा विनती करूं दिन रैन।
राह तके मेरे नैन।
अब तो दरस देदो कुञ्ज बिहारी।
मनवा हैं बैचेन।
नेह की डोरी तुम संग जोरी।
हमसे तो नहीं जावेगी तोड़ी।
हे मुरली धर कृष्ण मुरारी।
तनिक ना आवे चैन।
राह तके मेरे नैन
मै म्हारों सुपनमा।
लिसतें तो मै म्हारों सुपनमा।।
शब्दार्थ
दरस – दर्शन, भेंट, मुलाकात
नेह – स्नेह, प्रीति, प्यार
डोरी – रस्सी
चैन – आराम
व्याख्या :- उपरोक्त दोहे में मीरा बाई जी कहती हैं कि वह कृष्ण दर्शन की प्रार्थना कर रही हैं। मीराबाई जी कहती हैं हे मेरे प्रभु कृष्ण मैं आपकी आने की राह देख रही हूँ। मेरे ये दो नैन आपके दर्शन की अभिलाषी हैं। मेरा यह प्रेम आपके साथ एक डोर से जुड़ चूका है जो मेरी मृत्यु होने के बाद भी नहीं टूटेगी। हे श्री कृष्ण मैंने आपको अपना सब कुछ मान लिया है। श्री कृष्ण जब तक आप मुझे दर्शन नहीं दे देते तब तक मुझे चैन नहीं मिलेगा। मुझ पर अपनी कृपा बरसाओ और मुझे दर्शन दे जाओ।
पद (16)
मतवारो बादल आयें रे।
हरी को संदेसों कछु न लायें रे।
दादुर मोर पपीहा बोले।
कोएल सबद सुनावे रे।
काली अंधियारी बिजली चमके।
बिरहिना अती दर्पाये रे।
मन रे परसी हरी के चरण।
लिसतें तो मन रे परसी हरी के चरण।
शब्दार्थ
पपीहा – चातक
व्याख्या :- मीराबाई द्वारा रचित उपरोक्त पद में मीरा बाई कह रही हैं कि मेघ (बादल) गरजते हुए आ चुके हैं पर यह बादल मेरे प्रभु श्री कृष्ण का कोई संदेशा नहीं लाये। वर्षा ऋतु भी आ चुकी है और मोर अपने पंख फैलाकर नृत्य कर रहे हैं तथा कोयल अपनी मधुर आवाज़ में गीत गा रही है। मैं यह देख रही हूँ की आकाश में छाए काले बादलों से अंधियारा हो गया है और कड़कती हुई बिजली के कारण आसमान का कलेजा भी रोने लगा है। यह सम्पूर्ण दृश्य मेरी विरह की अग्नि को और बढ़ा रहा है। इस विरह में यह मेरी अंखियां हरी दर्शन की प्यासी हुई जा रही हैं।
पद (17)
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो…।
वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु।
किरपा करि अपनायो॥
जन्म जन्म की पूंजी पाई।
जग में सभी खोवायो॥
खरचै न खूटै चोर न लुटै।
दिन दिन बढ़त सवायो॥
सत की नाव खेवटिया सतगुरु।
भवसागर तर आयो॥
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर।
हरष हरष जस गायो॥
शब्दार्थ
अमोलिक – अमूल्य
सतगुरु – सच्चा गुरु
पूंजी – जमा किया हुआ धन
जग – संसार, जगत्
व्याख्या :- इस पद के माध्यम से मीराबाई कहती हैं कि उन्हें सद्गुरु की कृपा से जीवन को पार करने के लिए राम रूपी धन मिल गया है, जो कि दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है। वह कहती हैं, मेरे सद्गुरु ने कृपा करके ऐसी अमूल्य वस्तु भेट की हैं, उसे मैंने पूरे मनोयोग से अपना लिया है। उसे पाकर मुझे लगा मुझे ऐसी वस्तु प्राप्त हो गई है, जिसका जन्म-जन्मांतर से इंतजार था। यह नाम मुझे प्राप्त होते ही दुनिया की अन्य चीजें खो गई है। इस नाम रूपी धन की यह विशेषता है कि यह खर्च करने पर कभी घटता नहीं हैं, न ही इसे कोई चुरा सकता है। यह ऐसा धन है जो मोक्ष का मार्ग दिखता हैं, अर्थात कृष्ण को पाकर मीरा ने उनका गुणगान किया है।
पद (18)
दरस बिन दुखण लागे नैन।
जब से तुम बिछुरे प्रभु मोरे।
कबहूँ न पायो चैन॥
सबद सुनत मेरी छतियाँ कंपै।
मीठै लगे तुम बैन ॥
बिरह बिथा कासूँ कहूँ सजनी ।
बह गई करवत ऐन॥
कल परत पल हरि मग जोंवत।
भई छमासी रेण॥
‘मीरा’ के प्रभू कब रे मिलोगे ।
दु:ख मेटण सुख देण॥
शब्दार्थ
दरस – दर्शन
नैन – आंख
चैन – आराम , सुख
बिरह – वियोग, बिछोह, प्रेमी या प्रेमिका के अलग-अलग होने पर अकेलेपन की स्थिति
व्याख्या :- इस दोहे के माध्यम से मीराबाई यह बताना चाहती है कि वह अपने कृष्ण के आने की राह ताक रही हैं और अपने मन का हाल बता रही हैं कि किस तरह उनकी आंखें उनके प्रभु को देखने के लिए बेचैन हैं और उनके प्रभु के दर्शन के लिए तरस रही हैं। आखिर में मीरा कहती हैं कि प्रभु जब आप आकर मिलोगे तभी मेरी यह पीड़ा दूर होगी। आपके आने से ही सारा दुःख मिटेगा। आप आकर मेरा दुःख दूर कर दीजिए।
पद (19)
माई री म्हाँ लियाँ गोविन्दाँ मोल ।
थे कहयाँ छाणे म्हाँ काँ चोड्डे, लियां बजन्ता ढोल।
थे कहयाँ मुंहाधो म्हाँ कहयाँ सस्तो, लिया री तराजाँ तोल।
‘तण वारा म्हाँ जीवण वीराँ, वाराँ अमोलक मोल।
मीराँ कूँ प्रभु दरसण दीज्याँ, पूरर जणम को कोल।।
शब्दार्थ
माई री – ब्रज तथा राजस्थानी का एक सामान्य सम्बोधन (यहां हे सखी!)
म्हाँ – मैंने
थे – तुम
कहयाँ – कहती हो
छाणे – छिपकर
म्हाँ काँ – मैं कहती हूं
चोड्डे, – चौडे में अर्थात खुलेआम
बजन्ता ढोल – ढोल बजाकर खुलेआम
मुंहाधो – महंगा
सस्तो – सस्ता
कराजों तोल – तराजू में तोलकर
जीवण – जीवन
अमोलक – अमूल्य
मोल – कीमत, दाम
मीरा कूं – मीरा को
दरसण – दर्शन
दीज्योँ – दीजिए
पूरब जणम – पूर्व जन्म अर्थात पिछ्ला जन्म
कोल – वचन
व्याख्या :- मीरा कहती हैं कि ‘हे सखी ! मैंने तो श्रीकृष्ण को मोल ले लिया है अर्थात् मैंने कृष्ण के साथ अपने संबंध का मूल्य भी चुकता किया है। तुम कहती हो कि मैं उनसे यह संबंध छिपकर रखती हूँ और मैं कहती हूँ कि मैंने खुले में ढोल बजा कर श्रीकृष्ण को मोल लिया है अर्थात् उन्हें खुले आम अपना लिया है। आशय है कि मुझे कृष्ण के प्रति अपने प्रेम को गुप्त रखने की आवश्यकता नहीं है। मुझे उनसे प्रेम है और मैं सार्वजनिक तौर पर इस प्रेम की घोषणा करती हूँ। मीरा आगे कहती हैं कि ‘हे सखी, तुम कहती हो कि यह सौदा महंगा है पर मेरा मानना है कि यह बहुत सस्ता है; क्योंकि मैंने यह सौदा तराजू पर तोलकर किया है अर्थात् मैंने पूर्ण रूप से सोच-विचार कर, जाँच-परख कर ही ऐसा किया है और इसका जो मूल्य मैंने चुकाया है (लोक अपवाद, कुल-संबंधियों से मिलने वाली भर्त्सना और लांछना आदि) वह तुम्हारी दृष्टि में अधिक हो सकता है, पर मेरी दृष्टि में श्रीकृष्ण को पाने के लाभ की तुलना में बहुत कम है। मैंने तो उन पर अपना तन-मन और जीवन, सब कुछ न्योछावर कर दिया है अर्थात् मैं अपने इस अमूल्य सौदे यानी श्रीकृष्ण से प्रेम संबंध पर स्वयं न्योछावर हूँ। दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि मैंने अपना सब कुछ, जो अमूल्य था, कीमत के रूप में श्रीकृष्ण पर न्योछावर कर दिया। आगे, मीरा पूर्व जन्म में दिए गए वचन का स्मरण कराते हुए श्रीकृष्ण से दर्शन देने की प्रार्थना करती हैं।
पद (20)
राम मिलण के काज सखी, मेरे आरति उर में जागी री।
तड़पत-तड़पत कल न परत है, बिरहबाण उर लागी री।
निसदिन पंथ निहारूँ पिवको, पलक न पल भर लागी री।
पीव-पीव मैं रटूँ रात-दिन, दूजी सुध-बुध भागी री।
बिरह भुजंग मेरो डस्यो कलेजो, लहर हलाहल जागी री।
मेरी आरति मेटि गोसाईं, आय मिलौ मोहि सागी री।
मीरा ब्याकुल अति उकलाणी, पिया की उमंग अति लागी री।
शब्दार्थ
तड़पत – बहुत अधिक पीड़ा या दर्द के कारण छटपटाना
निसदिन – रात-दिन
पंथ – मार्ग, रास्ता
सुध-बुध – होश हवास
व्याख्या :- हरि से मिलने के लिए मीराबाई के हृदय में भक्ति की अग्नि प्रज्वलित हो रही है। अपने प्रभु से मिले बिना हर एक क्षण उनके लिए बहुत भारी हो रहा है। प्रभु मिलन की बिरह में मीराबाई तड़प रही हैं। वे हर क्षण अपने आराध्य की राह देख रही हैं, जिसके कारण वे अपनी पलकें भी नहीं झपका रही हैं। मीराबाई कहती हैं कि बिरह के विशाल भुजा वाले लहर ने उन्हें इस प्रकार डस लिया है कि अब दिन रात उन्हें केवल प्रभु का ही सुध रहता है और उनका ही नाम सदैव मीरा के मुख पर रहता है। मीरा बाई कन्हैया से मिलने के लिए इतनी व्याकुल हो चुकी हैं, कि हर क्षण उनके लिए विशाल बन गया है।
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