कबीर दोहावली पाठ सार
PSEB Class 9 Hindi Book Chapter 1 “Kabir Dohawali” Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings
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इस पोस्ट में हम आपके लिए पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड कक्षा 9 हिंदी पुस्तक के पाठ 1 कबीर दोहावली पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से कक्षा 9 कबीर दोहावली पाठ के बारे में जानते हैं।
Kabir Dohawali ( कबीर दोहावली)
(सन् 1398-1518)
प्रस्तुत पाठ ‘कबीर दोहावली’ में ‘कबीरदास’ जी द्वारा रचित दोहों का संकलन है। ये दोहे व्यक्ति को सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। इन दोहों में सत्य, प्रेम, भक्ति, आत्मचिंतन, सदाचार, धैर्य, संगति, संतुलन और समय के महत्त्व जैसे गहरे जीवन-मूल्यों की शिक्षा दी गई है।
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कबीर दोहावली पाठ सार Kabir Dohawali Summary
यह पाठ कबीरदास जी की चुनिंदा साखियों का संग्रह है, जिनमें जीवन, सत्य, भक्ति, व्यवहार और नैतिकता से जुड़े गहरे संदेश दिए गए हैं। इन साखियों में कबीर सत्य के महत्त्व, साधु के वास्तविक गुण, भोजन और संगति के प्रभाव, धैर्य का मूल्य, ज्ञान की सही परिभाषा, आत्मचिंतन, संतुलित आचरण, सच्चे सुमिरन और समय के सदुपयोग जैसे जीवन-मार्गदर्शक सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं।
कबीरदास जी सबसे पहले सत्य के महत्व को बताते हैं कि सच बोलना सबसे बड़ा तप है और जिसके हृदय में सत्य बसता है, उसमें ईश्वर स्वयं निवास करते हैं। वे समझाते हैं कि सच्चा संत धन का भूखा नहीं होता, वह केवल प्रेम और भावना को महत्त्व देता है। इसके बाद वे बताते हैं कि जैसा भोजन और जल मनुष्य ग्रहण करता है, वैसा ही उसका मन और वाणी बनती है। कबीरदास कहते हैं कि सज्जन व्यक्ति लाख बुरों के बीच भी अपने अच्छे स्वभाव को नहीं छोड़ता, जैसे चंदन पर सर्प बैठकर भी उसकी शीतलता नहीं मिटा पाता। वह यह भी बताते हैं कि केवल पुस्तकों का अध्ययन मनुष्य को विद्वान नहीं बनाता, प्रेम ही असली ज्ञान है। मनुष्य अक्सर दूसरों में बुराई खोजता है, जबकि असली कमी उसके भीतर ही होती है, इसलिए आत्मचिंतन आवश्यक है।
कबीरदास जी धैर्य का महत्त्व बताते हुए कहते हैं कि हर काम उचित समय पर ही फल देता है, जैसे पेड़ पर ऋतु आने पर ही फल लगता है। वह चेतावनी देते हैं कि साधु की जाति नहीं, उसका ज्ञान महत्वपूर्ण है, ठीक वैसे ही जैसे तलवार की धार मूल्यवान होती है, म्यान नहीं। संगति का प्रभाव समझाते हुए कहते हैं कि मनुष्य का शरीर मन की दिशा में चलता है, इसलिए जैसी संगति होगी, वैसे ही परिणाम मिलेंगे। वह संतुलन का पाठ भी देते हैं कि अत्यधिक बोलना या चुप रहना और बहुत बरसात या बहुत धूप, सब हानिकारक हैं, इसलिए संतुलन बनाना जरूरी है।
कबीरदास जी बताते हैं कि सिर्फ माला फेरने या नाम जपने से भक्ति पूर्ण नहीं होती, यदि मन भटकता रहे तो इसे सुमिरन नहीं कहा जा सकता। मन, वचन और कर्म तीनों का ईश्वर में लगना आवश्यक है। अंत में वह समय के महत्त्व पर जोर देते हैं कि जो काम कल पर टालते हैं, उसे आज ही कर लेना चाहिए, क्योंकि समय तेजी से बदलता है और बाद में अवसर हाथ से निकल सकता है। इन सभी दोहों में कबीरदास जी हमें सत्य, संयम, प्रेम, भक्ति, धैर्य, आत्मचिंतन और समय-पालन से युक्त एक सरल, सद्गुण और संतुलित जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं।
कबीर दोहावली पाठ व्याख्या Kabir Dohawali Explanation
पाठ
साच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदे साच है, ताके हिरदे आप।।
शब्दार्थ-
साच– सच
तप- तपस्या
पाप– गलत काम
जाके– जिसके
हिरदे– हृदय
भावार्थ- सच बोलना सबसे बड़ा तप है और झूठ बोलना सबसे बड़ा पाप है। जिसके दिल में सच होता है, उसके दिल में खुद गुरु बसते हैं।
व्याख्या- कबीरदास जी कहते हैं कि सत्य बोलना किसी बड़ी तपस्या से कम नहीं है अर्थात् सच्चाई के साथ जीवन जीना ही असली पूजा या तपस्या है। झूठ बोलना अत्यंत गलत माना गया है, क्योंकि यह मन को दूषित करता है। जो व्यक्ति सत्यनिष्ठ होता है, उसके हृदय में गुरु या भगवान का स्थान अपने आप बन जाता है। इसलिए हमें हमेशा सच बोलने और ईमानदारी से रहने का प्रयास करना चाहिए।
पाठ
साधू भूखा भाव का धन का भूखा नाहिं।
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं।।
शब्दार्थ-
साधू- संत, भक्ति-भाव वाला व्यक्ति
जी– व्यक्ति, इंसान
फिरै– घूमता है, भटकता है
नाहिं– नहीं
भावार्थ- साधु प्रेम और भाव का भूखा होता है, धन-संपत्ति का नहीं। जो व्यक्ति धन की लालसा में भटकता फिरता है, वह सच्चा साधु नहीं माना जा सकता।
व्याख्या- कबीरदास जी कहते हैं कि सच्चा साधु कभी धन, वस्त्र, आराम या सुविधाओं का इच्छुक नहीं होता। वह केवल प्रेम, भाव, भक्ति और सद्भावना का प्रेमी होता है। साधु का जीवन त्याग, सेवा और सरलता का प्रतीक है। लेकिन जो व्यक्ति साधु के वेश में रहकर धन, उपहार और लोभ की तलाश में भटकता है, वह वास्तविक साधु नहीं है। सच्चा साधु मन की पवित्रता और निस्वार्थ भाव का भूखा होता है, न कि धन-संपत्ति का।
पाठ
जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी बाणी होय।।
शब्दार्थ-
तैसा- वैसा
होय– होता है, बनता है
बाणी- वाणी, बोलने का तरीका
भावार्थ- जैसा भोजन हम ग्रहण करते हैं, वैसा ही हमारा मन बनता है, और जैसा जल पीते हैं, वैसी ही हमारी वाणी हो जाती है।
व्याख्या- कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य जैसा भोजन करता है, उसी प्रकार उसका मन और विचार बनते हैं। शुद्ध और सात्त्विक भोजन मन को शांत और पवित्र बनाता है, जबकि अशुद्ध भोजन मन को अस्थिर करता है। इसी तरह, जैसा पानी और वातावरण मनुष्य ग्रहण करता है, वैसी ही उसकी वाणी होती है, कोमल या कठोर।
पाठ
संत ना छाड़ संतई, जो कोटक मिले असंत।
चंदन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।।
शब्दार्थ-
छाड़– छोड़ देना
संतई– संतत्व, अच्छा स्वभाव
कोटक– करोड़
असंत– बुरा व्यक्ति
भुवंगा- साँप
बैठिया– बैठा है, लिपटा है
तऊ– तब भी, फिर भी
सीतलता- शीतलता, अच्छाई
तजंत– छोड़ना
भावार्थ- सज्जन व्यक्ति करोड़ों दुष्टों के बीच भी अपने अच्छे स्वभाव को नहीं छोड़ता। जैसे चंदन के वृक्ष पर सर्प लिपटा रहता है, फिर भी चंदन अपनी शीतलता नहीं त्यागता।
व्याख्या- प्रस्तुत दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि सच्चा संत या सज्जन व्यक्ति चाहे उसे कितने ही दुष्ट, कुटिल या असंत लोग क्यों न मिलें, अपनी अच्छाई, शांति और स्वभाविक कोमलता को नहीं छोड़ता। वह हर परिस्थिति में समान बना रहता है। जैसे चंदन के वृक्ष पर विषैला सर्प भी बैठ जाए तो भी चंदन अपनी शीतल सुगंध नहीं छोड़ता। उसी प्रकार, संत का स्वभाव बाहरी बुराइयों से प्रभावित नहीं होता।
पाठ
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित हुआ न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ें सु पंडित होय।।
शब्दार्थ-
पोथी- धार्मिक या विद्या से संबंधित पुस्तक
पढ़ि पढ़ि- बार-बार पढ़कर
जग- दुनिया
मुवा– मर गये
पंडित- विद्वान, ज्ञानी
आखर– अक्षर
पढ़ें सु- जो पढ़ ले, समझ ले
भावार्थ- बड़ी-बड़ी पुस्तकें पढ़ते-पढ़ते अनेक लोग संसार से विदा हो गए, पर वे सच्चे विद्वान नहीं बन सके। कबीर कहते हैं कि यदि कोई प्रेम के केवल ढाई अक्षर भी भली-भाँति समझ ले, तो वही वास्तविक ज्ञानी कहलाता है।
व्याख्या- कबीरदास जी कहते हैं कि संसार में अनगिनत लोग पोथियाँ पढ़ते-पढ़ते ही दुनिया से चले गए, परंतु वे सच्चे अर्थों में विद्वान नहीं बन पाए। केवल पुस्तकें रट लेने से हृदय में ज्ञान या विनम्रता नहीं आती। कबीरदास जी के अनुसार, जो व्यक्ति प्रेम के ढाई अक्षरों को समझ लेता है अर्थात् दया, करुणा और मानवता को समझ लेता है वही वास्तविक पंडित है। प्रेम ही सर्वोच्च ज्ञान है, जिसे अपनाने वाला ही सच में ज्ञानी कहलाता है।
पाठ
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।
शब्दार्थ-
मिलिया– मिला
कोय– कोई
खोजा- ढूँढा
भावार्थ- जब मैंने संसार में बुरे लोगों को खोजा, तो कोई भी बुरा नहीं मिला लेकिन जब मैंने अपने भीतर झाँका, तो पता चला कि इस दुनिया में मुझसे बुरा कोई नहीं।
व्याख्या- प्रस्तुत पँक्तियों में कबीरदास जी कहते हैं कि जब उन्होंने संसार में दूसरों की बुराई खोजने की कोशिश की, तो कोई भी उन्हें बुरा नहीं लगा। परंतु जैसे ही उन्होंने अपने हृदय में झाँककर स्वयं को परखा, उन्हें महसूस हुआ कि सबसे अधिक दोष उनके ही भीतर हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को दूसरों की आलोचना करने के बजाय पहले अपनी कमियों को पहचानकर उन्हें सुधारने का प्रयास करना चाहिए। आत्मचिंतन ही वास्तविक ज्ञान का मार्ग है।
पाठ
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय ।।
शब्दार्थ-
मना– मन
सींचे– पानी दे
ऋतु- मौसम
फल होय– परिणाम मिलता है
भावार्थ- मन में धैर्य रखने से ही सब कार्य सिद्ध होते हैं। यदि कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींच भी दे, तब भी फल तो उचित ऋतु आने पर ही लगेगा।
व्याख्या- कबीरदास जी कहते हैं कि मन को धीरज से काम लेना चाहिए, क्योंकि संसार में हर कार्य धीरे-धीरे और अपने सही समय पर ही होता है। जैसे कोई माली यदि पेड़ को सौ घड़े पानी से भी सींच दे, तो भी फल केवल मौसम आने पर ही लगेगा। इसी प्रकार, जीवन में मेहनत करना आवश्यक है, पर परिणाम उचित समय के अनुसार ही मिलते हैं।
पाठ
जातिना पूछो साधु की पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तरवार का पड़ा रहन दो म्यान।।
शब्दार्थ-
मोल– मूल्य
तरवार– तलवार
म्यान– तलवार रखने का खोल (कवर)
भावार्थ- साधु से कभी उसकी जाति नहीं पूछी जाती, क्योंकि उसका ज्ञान ही उसके सम्मान के लिए पर्याप्त होता है। जैसे तलवार का मूल्य उसकी धार से आँका जाता है, न कि उसकी म्यान से। उसी प्रकार साधु की जाति म्यान के समान है और उसका ज्ञान तलवार की धार के समान।
व्याख्या- कबीरदास जी कहते हैं कि साधु या किसी भी ज्ञानी व्यक्ति से उसकी जाति नहीं पूछनी चाहिए, क्योंकि उसका ज्ञान ही उसकी असली पहचान है। जैसे तलवार का मूल्य उसकी तेज धार से आँका जाता है, न कि बाहरी म्यान से, उसी प्रकार साधु की जाति केवल बाहरी आवरण है और उसका ज्ञान ही उसकी वास्तविक शक्ति व महत्त्व है।
पाठ
कबीर तन पंछी भया, जहाँ मन तहां उड़ी जाइ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।।
शब्दार्थ-
तन– शरीर
पंछी– पक्षी
भया- हो गया है
तहां- वहाँ
उड़ी जाइ– उड़कर चला जाता है
संगती– संगति, साथ
तैसा ही– वैसा ही
फल पाइ– फल पाता है
भावार्थ- संसारी मनुष्य का शरीर मानो पक्षी बन गया है, उसका मन जहाँ भटकता है, शरीर भी उसी ओर चला जाता है। वास्तव में, व्यक्ति जिस प्रकार की संगति करता है, उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है।
व्याख्या- कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य का तन ऐसे पक्षी के समान है, जो मन की दिशा में उड़ जाता है। जहाँ मन लगता है, शरीर भी वहीं चला जाता है। इसलिए संगति का बहुत महत्त्व है। व्यक्ति जिस प्रकार के लोगों के साथ रहता है, उसका स्वभाव, विचार और कर्म भी वैसा ही बन जाता है। अच्छी संगति से अच्छा फल मिलता है, और बुरी संगति से बुरा परिणाम।
पाठ
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
शब्दार्थ-
अति- बहुत ज़्यादा
भल– अच्छा
चूप- चुप्पी, मौन
बरसना- बारिश होना
भावार्थ- बहुत ज़्यादा बोलना भी अच्छा नहीं और बहुत ज़्यादा चुप रहना भी ठीक नहीं। ज़्यादा बारिश नुकसान करती है और बहुत तेज़ धूप भी कष्ट देती है। इसीलिए हर चीज़ में संतुलन होना जरूरी है।
व्याख्या- कबीरदास जी कहते हैं कि किसी भी चीज़ का ज़्यादा होना हानिकारक होता है। अगर कोई बहुत ज़्यादा बोलता है, तो उसकी बातों का महत्त्व खत्म हो जाता है। अगर कोई हमेशा चुप रहता है, तो वह अपनी बात नहीं कह पाता। वैसे ही ज़्यादा बारिश बाढ़ लाती है और ज़्यादा धूप गर्मी और परेशानी देती है। इसलिए हमें हर काम में संतुलन रखना चाहिए, न ज़्यादा, न बहुत कम।
पाठ
माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख मांहि।
मनुवा तौ चहुँ दिशि फिरै, यह तो सुमिरन नांहि।।
शब्दार्थ-
कर– हाथ
मनुवा– मन
चहुँ दिशि– चारों दिशाओं में, चारों ओर
सुमिरन– स्मरण
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि केवल हाथ में माला फेरना और जीभ से नाम-उच्चारण करना पर्याप्त नहीं है। अगर मन चारों दिशाओं में भटकता रहता है, तो यह सच्चा सुमिरन अर्थात् ईश्वर का स्मरण नहीं है।
व्याख्या- कबीरदास जी कहते हैं कि हाथ में माला फेरना और जीभ से भगवान का नाम जपना तभी सार्थक है जब मन भी पूरी तरह ईश्वर में लगा हो। यदि मन चारों दिशाओं में भटकता रहे अर्थात् इच्छाओं, लालसाओं, और चिंताओं में उलझा रहे तो बाहरी जप केवल एक क्रिया बनकर रह जाता है। इसे सच्चा सुमिरन नहीं कहा जा सकता। वास्तविक भक्ति वही है जिसमें मन, वचन और कर्म तीनों एक साथ ईश्वर की ओर समर्पित हों। कबीर हमें भीतर की एकाग्रता, मन की स्थिरता और वास्तविक आध्यात्मिकता की सीख देते हैं।
पाठ
काल्ह करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब।
पल में परलै होयगी, बहुरि करैगो कब्ब।।
शब्दार्थ-
काल्ह– कल (आने वाला)
अब्ब– अब
परलै- विनाश, मृत्यु
बहुरि– फिर
कब्ब– कब
भावार्थ- जो कार्य कल करने का विचार है, उसे आज ही पूरा कर लेना चाहिए, और जो आज करना है, उसे इसी क्षण कर लेना चाहिए। समय अत्यंत अनिश्चित है, पल भर में परिस्थितियाँ बदल सकती हैं, इसलिए किसी भी काम को कल के लिए टालना उचित नहीं है।
व्याख्या- कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य को अपने कार्यों को टालने की आदत छोड़ देनी चाहिए। जो काम कल के लिए सोचा है, उसे आज ही पूरा कर लेना बेहतर है, और जो आज करना है, उसे तुरंत आरंभ कर देना चाहिए। समय किसी के लिए नहीं ठहरता और न ही यह निश्चित है कि अगले ही क्षण क्या बदल जाए। जीवन की अनिश्चितता को देखते हुए, काम को टालना हानि का कारण बन सकता है। इसलिए, समय पर काम करना ही बुद्धिमानी है।
Conclusion
इस पोस्ट में ‘कबीर दोहावली’ पाठ का सारांश, भावार्थ, व्याख्या और शब्दार्थ दिए गए हैं। यह पाठ PSEB कक्षा 9 के पाठ्यक्रम में हिंदी की पाठ्यपुस्तक से लिया गया है। प्रस्तुत पाठ में कबीरदास जी की उन साखियों का संग्रह किया गया है जो हमें धर्मानुसार सही-ग़लत का विवेक देती हैं और जीवन के सत्य को पहचानने की दृष्टि देती हैं। यह पोस्ट विद्यार्थियों को पाठ को सरलता से समझने, उसके मुख्य संदेश को ग्रहण करने और परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने में सहायक सिद्ध होगा।