मित्रता पाठ सार

 

PSEB Class 10 Hindi Book Chapter 12 “Mitrata” Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings

 

मित्रता सार – Here is the PSEB Class 10 Hindi Book Chapter 12 Mitrata Summary with detailed explanation of the lesson “Mitrata” along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary

इस पोस्ट में हम आपके लिए पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड  कक्षा 10 हिंदी पुस्तक के पाठ 12 मित्रता पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप  इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 मित्रता पाठ के बारे में जानते हैं।

 

Mitrata (मित्रता) 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

 

प्रस्तुत निबंध ‘मित्रता’ में शुक्ल ने जीवन में मित्र के महत्त्व के साथ-साथ मित्र के चुनाव में रखी जाने वाली सावधानियों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। लेखक के अनुसार मित्र का चरित्र हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव डालता है। क्योंकि एक ओर जहाँ सच्चा और अच्छा मित्र हमारे कष्टों, दुःखों को दूर करके हमें जीवन में अच्छा बनने में सहायता दे सकता है वहीं दूसरी ओर मूर्ख और बुरे आचरण वाला हमें गलत आदतों का शिकार बना कर हमारे विनाश का कारण भी बन सकता है। इस कारण निबंधकार सलाह देते हैं कि उज्ज्वल और निष्कलंक बना रहने के लिए हमें सोच-समझ कर सावधानी पूर्वक मित्र का चयन करना चाहिए।

 

 Related: 

 

मित्रता पाठ सार  Mitrata Summary

‘मित्रता’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा लिखित एक विचारात्मक निबंध है। लेखक का मानना है कि ऐसे तो मेल-जोल से किसी के साथ भी मित्रता बड़ाई जा सकती है किंतु सच्चे मित्र का चुनाव एक कठिन समस्या है। लेखक ने मित्र के चुनाव, मित्र के लक्षण आदि का वर्णन इस निबंध में किया है।

लेखक युवा व्यक्ति की मानसिक स्थिति का वर्णन करते हुए कहता है कि जब कोई युवा व्यक्ति अपने घर से बाहर निकलकर संसार में प्रवेश करता है तो उसे सबसे पहले सच्चा मित्र चुनने की कठिनाई का सामना करना होता है। शुरुआत में वह बिल्कुल अकेला होता है। धीरे-धीरे उसकी जान-पहचान बढ़ने लगती है और उनमें से उसे अपने योग्य उचित मित्र का चुनाव करना पड़ता है। उसके जीवन की सफलता व् असफलता उसके द्वारा चुने गए मित्रों के उचित चुनाव पर निर्भर करती है, क्योंकि संगति का प्रभाव हमारे आचरण व् अवभाव पर भी पड़ता है। युवावस्था कच्ची मिट्टी के समान होती है जिसे कोई भी आकार दिया जा सकता है। अच्छे मित्र की मित्रता ही हमें जीवन में उन्नति व् बुरे मित्र की संगति हमें पतन की दिशा दिखती है। केवल कुछ चीजों को ध्यान में रखकर, बिना गुण-दोष परखे, किसी को भी मित्र बना लेना उचित नहीं है। हमें मित्र बनाते समय मैत्री के उद्देश्य व् कर्तव्यों पर भी विचार करना चाहिए क्योंकि मित्रता एक ऐसा साधन है जिससे जीवन की कठिनाइयों व् सफलताओं का कार्य आसान हो जाता है। विश्वासपात्र मित्र हमें उत्तमतापूर्वक जीवन निर्वाह करने में सहायता देते हैं। मित्रता की कसौटी पर खरे उतरने वाले व्यक्तियों के साथ ही मित्रता करने का प्रयत्न करना चाहिए।

छात्रावस्था की मित्रता के बारे में लेखक बताते हैं कि विद्यार्थी जीवन के युवकों में मित्रता की धुन सवार रहती है। मित्रता उनके हृदय से उमड़ पड़ती है। परन्तु युवा पुरुषों की मित्रता स्कूल के बच्चों की मित्रता से दृढ़, शांत और गंभीर होती है। असल में देखा जाए तो, सच्चा मित्र जीवन की कठिन परिस्थितियों में साथ देने वाला साथी होता है। सुंदर-आकृति, मन के अनुसार आचरण तथा स्वतंत्र व्यवहार आदि दो-चार गुण ही मित्रता के लिए पर्याप्त नहीं  होते। सच्चा-मित्र सही रास्ता दिखाने वाला होना चाहिए, जिस पर हम पूरा विश्वास कर सकें। वह भाई के समान होना चाहिए जिसे हम अपना प्रेम-पात्र बना सकें। संसार में देखा गया है कि भिन्न स्वभाव या प्रकृति के लोगों में भी अच्छी मित्रता होती है। दो भिन्न प्रकृति, व्यवसाय और रुचि के व्यक्तियों में भी मित्रता हो सकती है। राम-लक्ष्मण तथा अकबर-बीरबल और चन्द्रगुप्त-चाणक्य की मित्रता परस्पर विरोधी प्रकृति के होते हुए भी मिसाल है। सामान्यतः समाज में विभिन्नता देखकर ही लोग परस्पर एक-दूसरे के ओर आकर्षित होते हैं, क्योंकि हर कोई चाहता हैं कि जो गुण उनमें नहीं हैं, उन्हीं गुणों से युक्त मित्र उन्हें मिले। इसीलिए चिंतनशील व्यक्ति सदा प्रसन्न रहने वाले व्यक्ति को मित्र बनाता है। कमजोर व्यक्ति बलवान् को अपना मित्र बनाना चाहता है।

मित्र का कर्तव्य पर लेखक कहते हैं कि एक सच्चे मित्र का कर्तव्य है कि वह उच्च और महान् कार्यों में अपने मित्र को इस प्रकार सहायता दे। वह अपने मित्र को उसकी क्षमता से भी अधिक कार्य करने के लिए प्रेरित करे। इसके लिए हमें आत्मविश्वास से युक्त व्यक्ति को अपना मित्र बनाना चाहिए। संसार के अनेक महान् पुरुष हुए हैं जो मित्रों के द्वारा प्रेरित किए जाने पर ही बड़े-बड़े कार्य करने में समर्थ हुए हैं। सच्चे मित्र  संकट और विपत्ति में अपने मित्र को पूरा सहारा देते हैं। जीवन और मरण में सदा साथ रहते हैं।

मित्र के चुनाव में सावधानी वर्तनी चाहिए। इसके लिए लेखक बताते हैं कि मित्र का चुनाव करते हुए सर्तकता निभानी चाहिए क्योंकि अच्छे मित्र के चुनाव पर ही हमारे जीवन की सफलता व् असफलता निर्भर करती है। जैसी हमारी संगत होगी, वैसे ही हमारे संस्कार भी होंगे, अतः हमें दृढ़ चरित्र वाले व्यक्तियों से मित्रता करनी चाहिए। जो हमारे जीवन को उत्तम और आनंदमय बनाने में सहायता दे सके ऐसा एक मित्र सैंकड़ों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है।

लेखक ऐसे लोगों से दूर रहने के लिए कहता है जो हमारे लिए कुछ नहीं कर सकते, न हमें कोई अच्छी बात बता सकते हैं, न हमारे प्रति उनके मन में हमदर्दी है और न ही वे बुद्धिमान् हैं ।लेखक का मानना है कि आजकल हमें मौज-मस्ती में साथ देने के लिए अनेक व्यक्ति मिल सकते हैं परन्तु जो संकट में साथ दे, ऐसे मित्र नहीं मिलते। लेखक ने बुरी संगत को एक भयानक बुखार का नाम दिया है जो केवल नीति और सद्वृत्ति का नाश नहीं करता, अपितु बुद्धि का भी नाश करता है। बुरे व्यक्ति से मित्रता करने वाला व्यक्ति दिन-प्रतिदिन पतन की ओर जाता है इसलिए बुरे व्यक्तियों की संगत से सदा बचना चाहिए। इस संबंध में लेखक एक उदाहरण देता है कि इंग्लैंड के एक विद्वान् को युवावस्था में राज दरबारियों में स्थान नहीं मिला तो वह जीवन-भर अपने भाग्य को सराहता ही रहा। बहुत-से लोग तो इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहाँ वह बुरे लोगों की संगत में पड़ता जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होते। 

लेखक के अनुसार बुरी आदतें तथा बुरी बातें प्राय: व्यक्तियों को अपनी ओर अत्यधिक शीघ्र आकर्षित कर लेती हैं। अतः ऐसे लोगों के पास थोड़े समय भी नहीं रहना चाहिए जो अश्लील, अपवित्र और फूहड़ रूप से हमारे जीवन में प्रवेश करना चाहते हैं, क्योंकि यदि एक बार व्यक्ति को इन बातों अथवा कार्यों में आनंद आने लगेगा तो बुराई अटल भाव धारण कर उसमें प्रवेश कर जायेगी। व्यक्ति की भले-बुरे में अंतर करने की शक्ति भी नष्ट हो जायेगी तथा विवेक भी कुंठित हो जाता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति जल्द ही बुराई का भक्त बन जाता है। स्वयं को बुराई से दूर रखने के लिए समस्त बुराइयों से बचना आवश्यक है क्योंकि कुसंगति के प्रभाव से चतुर व्यक्ति भी बच नहीं पाता है। 

 

मित्रता पाठ व्याख्या Mitrata Lesson Explanation

 

पाठ – जब कोई युवा पुरुष अपने घर से बाहर निकलकर बाहरी संसार में अपनी स्थिति जमाता है, तब पहली कठिनता उसे मित्र चुनने में आती है। यदि उसकी स्थिति बिल्कुल एकांत और निराली नहीं रहती तो उसकी जान-पहचान के लोग धड़ाधड़ बढ़ते जाते हैं और थोड़े ही दिनों में कुछ लोगों से उसका हेल-मेल हो जाता है। यही हेल-मेल बढ़ते-बढ़ते मित्रता के रूप में परिणत हो जाता है। मित्रों के चुनाव की उपयुक्तता पर उसके जीवन की सफलता निर्भर हो जाती है, क्योंकि संगति का गुप्त प्रभाव हमारे आचरण पर बड़ा भारी पड़ता है। हम लोग ऐसे समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरम्भ करते हैं, जब कि हमारा चित्त कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य रहता है। हमारे भाव अपरिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है। हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते हैं, जिसे जो जिस रूप में चाहे, उस रूप में ढाले चाहे राक्षस बनाए चाहे देवता। 

शब्दार्थ –
युवा – जवान
जमाता – आजमाना
एकांत – अकेला, निर्जन स्थान
धड़ाधड़ – लगातार
हेल-मेल – मेल जोल, घनिष्ठता
परिणत – बदल
उपयुक्तता – सही होना
गुप्त – अदृश्य
आचरण – स्वभाव, व्यवहार
चित्त – मन
अपरिमार्जित – जो साफ सुथरा न हो
प्रवृत्ति – स्वभाव, आदत
अपरिपक्व – जो पका न हो, अविकसित 

व्याख्या लेखक बताता है कि जब कोई युवा व्यक्ति अपने घर से बाहर निकलकर बाहर के संसार अर्थात समाज में प्रवेश करता है, तब सबसे पहली चुनौती उसे सही मित्र बनाने में आती है। यदि वह समाज में अकेला और अलग नहीं रहता तो उसकी जान-पहचान के लोग लगातार और तेजी से बढ़ते जाते हैं और थोड़े ही दिनों में कुछ लोगों से उसका ताल-मेल बैठ जाता है। अर्थात जल्द ही उसकी कुछ लोगों से घनिष्ठता बढ़ जाती है। यही ताल-मेल बढ़ते-बढ़ते मित्रता के रूप में बदल जाता है। सही मित्रों का चयन करना उसके जीवन की सफलता को निर्धारित करता है, क्योंकि मित्रों की संगति का अदृश्य प्रभाव हमारे स्वभाव व् व्यवहार पर बहुत गहरा पड़ता है। हम लोग युवा अवस्था में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरम्भ करते हैं, जब कि युवा अवस्था में हमारा मन बहुत कोमल और हर तरह का संस्कार को ग्रहण करने योग्य रहता है। हमारे भाव जिनको युवा अवस्था तक अच्छी तरह से साफ नहीं किया गया होता और हमारे स्वभाव व् आदतें जो युवा अवस्था में अविकसित रहती है। उस अवस्था में हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते हैं, जिसे जो जिस रूप में चाहे, उस रूप में परिवर्तित कर सकता है। चाहे तो राक्षस बना दें या चाहे तो देवता। कहने का अभिप्राय यह है कि युवा अवस्था में व्यक्ति का मन और स्वभाव दोनों किसी कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, उसे जैसी संगति मिलती है वह वैसा ही बनता जाता है। 

 

पाठ – ऐसे लोगों का साथ करना हमारे लिए बुरा है, जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्प के हैं, क्योंकि हमें उनकी हर बात बिना विरोध के मान लेनी पड़ती है पर ऐसे लोगों का साथ करना और भी बुरा है, जो हमारी ही बात को ऊपर रखते हैं, क्योंकि ऐसी दशा में न तो हमारे ऊपर कोई नियंत्रण रहता है और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है। दोनों अवस्थाओं में जिस बात का भय रहता है, उसका पता युवकों को प्रायः बहुत कम रहता है। यदि विवेक से काम लिया जाए तो यह भय नहीं रहता, पर युवा पुरुष प्रायः विवेक से कम काम लेते हैं। कैसे आश्चर्य की बात है कि लोग एक घोड़ा लेते हैं तो उसके सौ गुण-दोष को परख कर लेते हैं, पर किसी को मित्र बनाने में उसके पूर्व आचरण और स्वभाव आदि का कुछ भी विचार और अनुसंधान नहीं करते। वे उसमें सब बातें अच्छी-ही-अच्छी मानकर अपना पूरा विश्वास जमा देते हैं। हँसमुख चेहरा, बातचीत का ढंग, थोड़ी चतुराई या साहस – ये ही दो-चार बातें किसी में देखकर लोग चटपट उसे अपना बना लेते हैं। हम लोग यह नहीं सोचते कि मैत्री का उद्देश्य क्या है? क्या जीवन के व्यवहार में उसका कुछ मूल्य भी है? यह बात हमें नहीं सूझती कि यह ऐसा साधन है, जिससे आत्मशिक्षा का कार्य बहुत सुगम हो जाता है। एक प्राचीन विद्वान का वचन है, “विश्वासपात्र मित्र से बड़ी भारी रक्षा रहती है। जिसे ऐसा मित्र मिल जाए उसे समझना चाहिए कि खजाना मिल गया।” विश्वासपात्र मित्र जीवन की एक औषध है। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे उत्तम संकल्पों से हमें दृढ़ करेंगे, दोषों और त्रुटियों से हमें बचाएँगे, हमारे सत्य, पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पुष्ट करेंगे, जब हम कुमार्ग पर पैर रखेंगे, तब वे हमें सचेत करेंगे, जब हम हतोत्साहित होंगे, तब हमें उत्साहित करेंगे। सारांश यह है कि हमें उत्तमतापूर्वक जीवन निर्वाह करने में हर तरह से सहायता देंगे। सच्ची मित्रता में उत्तम वैद्य की – सी निपुणता और परख होती है, अच्छी से अच्छी माता का सा धैर्य और कोमलता होती है। ऐसी ही मित्रता करने का प्रयत्न प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए।
छात्रावस्था में मित्रता की धुन सवार रहती है। मित्रता हृदय से उमड़ पड़ती है। पीछे के जो स्नेह-बंधन होते हैं, उनमें न तो उतनी उमंग रहती है, न उतनी खिन्नता। बाल मैत्री में जो मग्न करने वाला आनंद होता है, जो हृदय को बेधनेवाली ईर्ष्या और खिन्नता होती है, वह और कहाँ? कैसी मधुरता और कैसी अनुरक्ति होती है, कैसा अपार विश्वास होता है। हृदय के कैसे उद्गार निकलते हैं। वर्तमान कैसा आनंदमय दिखाई पड़ता है और भविष्य के संबंध में कैसी लुभानेवाली कल्पनाएँ मन में रहती है। कितनी जल्दी बातें लगती हैं और कितनी जल्दी मानना होता है।

शब्दार्थ –
दृढ़ संकल्प – पक्का इरादा
अवस्था – परिस्थिति
विवेक – अच्छे-बुरे को पहचानने की क्षमता
आश्चर्य – हैरानी
परख – जाँच, परीक्षा
अनुसंधान – खोज, पड़ताल।
चटपट – जल्दी-जल्दी, फटाफट
मैत्री – मित्रता
आत्मशिक्षा – जीवन-ज्ञान
सुगम – सरल
औषध – दवा
उत्तम – अच्छा
संकल्प – निश्चय
त्रुटियों – गलतियों
कुमार्ग – गलत मार्ग
सचेत – सावधान
हतोत्साहित – जिसमें उत्साह न हो
उत्साहित – उत्साह, हौंसला
निपुण – कुशल, प्रवीण
परख – पहचानने की शक्ति

व्याख्या –  लेखक सच्चे मित्र का चुनाव करने के लिए सही रास्ता दिखाते हुए कहते हैं कि हमारा ऐसे लोगों का साथ मित्रता करना बुरा साबित हो सकता है, जो हमसे अधिक पक्के इरादे रखने वाले हैं, क्योंकि हम उनकी किसी बात का विरोध नहीं कर सकते और हमें उनकी हर बात मान लेनी पड़ती है। परन्तु ऐसे लोगों के साथ मित्रता करना और भी बुरा होता है, जो हमारी ही बात को सबसे अधिक महत्त्व देते हैं, क्योंकि ऐसी स्थिति में न तो हमारे ऊपर किसी का नियंत्रण रहता है और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है। अर्थात यदि हमें ही महत्त्व मिलेगा तो हमें किसी का डर नहीं रहेगा और यदि हमें किसी की सहायता की आवश्यकता होगी तो भी हम किसी को नहीं कह पाएंगे। इन दोनों ही परिस्थितियों में जिस बात का डर रहता है, उसका पता युवकों को प्रायः बहुत कम होता है। अर्थात युवक अपने आप को अधिक महत्त्व मिलने के दुष्प्रभावों का ज्ञान नहीं रखते। यदि युवकों को अच्छे-बुरे की समझ का ज्ञान हो जाए तो इस बात का डर नहीं रहता कि मनुष्य आवश्यकता के समय अकेला रह जाएगा। परन्तु युवा पुरुष प्रायः बुद्धि से कम काम लेते हैं। यह बड़ी हैरानी की बात है कि लोग एक घोड़ा लेते हैं तो उसके सौ गुण-दोष की जाँच-पड़ताल कर के लेते हैं, परन्तु किसी को मित्र बनाने में उसके पहले के आचरण और स्वभाव आदि पर किसी भी प्रकार का विचार और जांच-पड़ताल नहीं करते। वे उस व्यक्ति में केवल सब बातें अच्छी-ही-अच्छी मानकर अपना पूरा विश्वास उस पर दिखाते हैं। हँसमुख चेहरा, बातचीत का ढंग, थोड़ी चतुराई या साहस – इन कुछ बातों को किसी में देखकर लोग फटाफट उसे अपना मित्र बना लेते हैं। हम लोग यह नहीं सोचते कि मित्रता करने का उद्देश्य क्या है? क्या जीवन के व्यवहार में मित्रता का कुछ मूल्य है? इस बात को हम लोग नहीं सोचते कि मित्रता एक ऐसा साधन है, जिससे जीवन-ज्ञान का कार्य बहुत सरल हो जाता है। अर्थात एक अच्छे मित्र के साथ से जीवन को अच्छे से जिया जा सकता है। एक प्राचीन विद्वान का वचन है, “विश्वासपात्र मित्र से बड़ी भारी रक्षा रहती है। जिसे ऐसा मित्र मिल जाए उसे समझना चाहिए कि खजाना मिल गया।”  अर्थात यदि आपके पास ऐसा मित्र है जिस पर पूरा विश्वास किया जा सकता है तो आप सबसे धनवान व्यक्ति है। विश्वासपात्र मित्र जीवन में एक दवा के समान है। हमारे मित्र ऐसे होने चाहिए जिनसे हम यह उम्मीद कर सकें कि वे अच्छे निश्चयों से हमें दृढ़ करेंगे, बुराइयों और गलतियों से हमें बचाएँगे, हमारे सत्य, पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पक्का करेंगे, जब हम गलत रास्ते पर पैर रखेंगे, तब वे हमें सावधान करेंगे, जब हम अपना हौंसला खो रहे होंगे, तब हमें हौंसला देंगे। सारांश में कहा जा सकता है कि हमारे मित्र ऐसे होने चाहिए कि वे हमें अच्छी तरह से जीवन व्यतीत करने में हर तरह से सहायता करें। सच्ची मित्रता में एक श्रेष्ठ वैद्य की तरह कुशलता और सोचने-समझने की शक्ति होती है, अच्छी से अच्छी माता की तरह धैर्य और कोमलता होती है। प्रत्येक व्यक्ति को इसी तरह की मित्रता करने का प्रयास करना चाहिए। अर्थात हर व्यक्ति को सच्चे मित्र  तलाश करने का प्रयास करना चाहिए। 

 

पाठ – छात्रावस्था में मित्रता की धुन सवार रहती है। मित्रता हृदय से उमड़ पड़ती है। पीछे के जो स्नेह-बंधन होते हैं, उनमें न तो उतनी उमंग रहती है, न उतनी खिन्नता। बाल मैत्री में जो मग्न करने वाला आनंद होता है, जो हृदय को बेधनेवाली ईर्ष्या और खिन्नता होती है, वह और कहाँ? कैसी मधुरता और कैसी अनुरक्ति होती है, कैसा अपार विश्वास होता है। हृदय के कैसे उद्गार निकलते हैं। वर्तमान कैसा आनंदमय दिखाई पड़ता है और भविष्य के संबंध में कैसी लुभानेवाली कल्पनाएँ मन में रहती है। कितनी जल्दी बातें लगती हैं और कितनी जल्दी मानना होता है।
‘सहपाठी की मित्रता’ इस उक्ति में हृदय के कितने भारी उथल-पुथल का भाव भरा हुआ है। किंतु जिस प्रकार युवा पुरुष की मित्रता स्कूल के बालक की मित्रता से दृढ़, शांत और गंभीर होती है, उसी प्रकार युवावस्था के मित्र बाल्यावस्था के मित्रों से कई बातों में भिन्न होते हैं। मैं समझता हूँ कि ‘मित्र चाहते हुए बहुत से लोग मित्र के आदर्श की कल्पना मन में करते होंगे, पर इस कल्पित आदर्श से तो हमारा काम जीवन के झंझटों में चलता नहीं। सुन्दर प्रतिभा, मनभावनी चाल और स्वच्छंद प्रकृति, ये ही दो-चार बातें देखकर मित्रता की जाती है, पर जीवन-संग्राम में साथ देनेवाले मित्रों में इनसे कुछ अधिक बातें चाहिए। मित्र केवल उसे नहीं कहते, जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा करें, पर जिससे हम स्नेह न कर सकें, जिससे अपने छोटे-छोटे काम ही हम निकालते जाएँ, पर भीतर- ही भीतर घृणा करते रहें। मित्र सच्चे पथ-प्रदर्शक के समान होना चाहिए, जिस पर हम पूरा विश्वास कर सकें।

शब्दार्थ –
छात्रावस्था – विद्यार्थी जीवन, छात्र अवस्था
धुन सवार रहना – किसी काम को निरंतर करते रहने की अनिवार्य प्रवृत्ति, कोई काम करते रहने की इच्छा , लगन
उमंग – मन में होने वाला आनंद और उत्साह, उल्लास
खिन्नता – खिन्न होने का भाव, उदासी, चिंता
बाल मैत्री – बचपन की मित्रता
मग्न – लीन, लिप्त, प्रसन्न, खुश
ईर्ष्या – जलन
अनुरक्ति – आसक्ति, अति अनुराग, प्रेम
अपार – अत्यधिक
उद्गार – भले विचार या भाव
सहपाठी – साथ में पढ़ाई करने वाला
उक्ति – वचन, वाक्य
भिन्न – अलग
कल्पित –  बनावटी, नकली
झंझटों – मुसीबतों
प्रतिभा – आकृति
मनभावनी – मन के अनुसार
चाल – स्वभाव
स्वच्छंद – स्वतंत्र
प्रकृति – व्यवहार
जीवन-संग्राम – जीवन की कठिनाइयाँ
घृणा – नफ़रत
पथ-प्रदर्शक – सही रास्ता दिखाने वाले 

व्याख्यालेखक बताते हैं कि विद्यार्थी जीवन में सभी को अधिक से अधिक मित्र बनाने की एक धुन सी सवार रहती है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे मित्रता उनके हृदय से उमड़ रही हो। उनके जीवन के जो प्रेम- बंधन अर्थात माता-पिता-भाई-बहन-रिश्तेदार इत्यादि होते हैं, उनमें न तो उन्हें उतनी ख़ुशी रहती है, न ही उनका साथ उन्हें उतनी खुशी दे पता है जितनी वे बाहर मित्रता में पाते हैं। बचपन की दोस्ती में जो लगन होती है, जो आनंद होता है, जो मित्रों के हृदय को आपस में जोड़े रखने वाली जलन और चिंता होती है, वह और कहीं नहीं होती। बचपन की दोस्ती में जो मधुरता और प्रेम होता है, जो एक दूसरे पर अत्यधिक विश्वास होता है, वह कहीं नहीं होता। हृदय से केवल मित्रों के लिए भले विचार व् भाव निकलते हैं। बचपन की मित्रता में बच्चों को अपना वर्तमान खुशियों से भरा दिखाई पड़ता है और भविष्य के संबंध में मन को लुभाने वाली कल्पनाएँ मन में रहती है। बचपन में जितनी जल्दी मित्रों की बातें मन में लगती हैं, उतनी ही जल्दी सब मित्रों से सुलह भी हो जाती है।
अपने साथ पढ़ने वालों की मित्रता के बारे में लेखक बताते हैं कि अपने साथ पढ़ने वाले मित्रों के मन में भारी उथल-पुथल के भाव भरे हुए होते है। अर्थात वे समझ नहीं पाते कि किसको मित्र की श्रेणी में रखना है या किसे नहीं। परन्तु जिस प्रकार युवा पुरुष की मित्रता, स्कूल के बालक की मित्रता से अधिक दृढ़, शांत और गंभीर होती है, उसी प्रकार युवावस्था के मित्र बचपन के मित्रों से कई बातों में अलग भी होते हैं। लेखक को लगता है कि जब कोई मित्र बनाना चाहता है तो बहुत से लोग एक आदर्श मित्र की कल्पना अपने मन में करते होंगे, परन्तु हमारे जीवन की मुसीबतों में किसी के बनावटी आदर्श से तो काम चलता नहीं है। केवल सुन्दर आकृति, मन को अच्छा लगने वाला आचरण और स्वतंत्र व्यवहार, ये ही दो-चार बातें देखकर लोगों के द्वारा किसी से मित्रता की जाती है, परन्तु जीवन की परेशानियों में साथ देने वाले मित्रों में इन बातों से कुछ अधिक बातें होनी चाहिए। मित्र केवल उसे नहीं कहा जा सकता, जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा कर सकते हैं, परन्तु जिससे हम प्रेम न कर सकें, जिससे हम अपने छोटे-छोटे काम ही निकालते जाएँ, परन्तु भीतर-ही-भीतर उससे नफ़रत करते रहें। मित्र ऐसा होना चाहिए जो हमें सच्चे रास्ते को दिखाए, जिस पर हम पूरा विश्वास कर सकें। कहने का अभिप्राय यह है कि मित्र केवल दिखावटी नहीं होना चाहिए बल्कि ऐसा होना चाहिए जिससे हम सुख-दुःख बाँट सकें। 

 

पाठ – मित्र भाई के समान होना चाहिए, जिसे हम अपना प्रीति पात्र बना सकें। हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभूति होनी चाहिए। ऐसी सहानुभूति जिससे एक के हानि-लाभ को दूसरा अपना हानि-लाभ समझे। मित्रता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दो मित्र एक ही प्रकार का कार्य करते हों या एक ही रुचि के हों। प्रकृति और आचरण की समानता भी आवश्यक वा वांछनीय नहीं है। दो भिन्न प्रकृति के मनुष्यों में बराबर प्रीति और मित्रता रही है। राम धीर और शांत प्रकृति के थे, लक्ष्मण उग्र और उद्धत स्वभाव के थे, पर दोनों भाईयों में अत्यंत प्रगाढ़ स्नेह था। उन दोनों की मित्रता खूब निभी। यह कोई बात नहीं है कि एक ही स्वभाव और रुचि के लोगों में ही मित्रता हो सकती है। समाज में विभिन्नता देखकर लोग एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं। जो गुण हममें नहीं हैं, हम चाहते हैं कि कोई ऐसा मित्र मिले, जिसमें वे गुण हों। चिंताशील मनुष्य प्रफुल्लित चित्त का साथ ढूँढ़ता है, निर्बल बली का, धीर उत्साही का उच्च आकांक्षा वाला चन्द्रगुप्त युक्ति और उपाय के लिए चाणक्य का मुँह ताकता था नीति विशारद अकबर मन बहलाने के लिए बीरबल की ओर देखता था।

शब्दार्थ –
|प्रीति –  प्रेम, प्यार, अनुराग, तृप्ति
सहानुभूति – हमदर्दी, संवेदना, दया, करुणा
वांछनीय – इच्छित, अपेक्षित, ज़रूरी
उग्र – निष्ठुर, क्रूर, क्रोधी
उद्धत – उग्र, प्रचंड, अक्खड़, अविनीत
प्रगाढ़ – गहरा
चिंताशील – जो किसी बात की प्रायः या बहुत चिंता करता रहता हो
प्रफुल्लित – बहुत अधिक प्रसन्न
निर्बल – कमजोर
बली – बलवान
धीर – गंभीर, विनीत
उत्साही – आनंद तथा तत्परता के साथ काम में लगने वाला
आकांक्षा – अभिलाषा, इच्छा, चाह
युक्ति – उचित विचार, तरकीब, दलील, तर्क
नीति – राष्ट्र या समाज की उन्नति या हित के लिए निश्चित आचार-व्यवहार
विशारद – दक्ष, कुशल, निपुण, चतुर

व्याख्या – मित्र हमारे भाई के समान होना चाहिए, जिससे हम अपना प्रेम बाँट सकें। हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची हमदर्दी या करुणा होनी चाहिए। ऐसी हमदर्दी जिससे यदि किसी एक मित्र को हानि या लाभ हुआ हो, तो दूसरा मित्र उस हानि या लाभ को अपना हानि-लाभ ही समझे। मित्रता रखने के लिए यह बिलकुल भी आवश्यक नहीं है कि दो मित्र एक ही प्रकार का कार्य करते हों या उनकी एक ही तरह की रुचि भी हों। व्यवहार और आचरण की समानता भी आवश्यक वा अनिवार्य नहीं है। क्योंकि सदैव देखा गया है कि दो अलग-अलग स्वभाव के मनुष्यों में भी बराबर प्रेम और मित्रता रही है। उदाहरण के लिए जैसे राम धैर्यवान और शांत स्वभाव के थे, वहीँ लक्ष्मण क्रोधी और प्रचंड स्वभाव के थे, परन्तु दोनों भाईयों में अत्यधिक गहरा प्रेम था। उन दोनों में खूब मित्रता रही। यह बात कहीं तक भी सार्थक नहीं है कि एक ही स्वभाव और रुचि रखने वाले लोगों में ही मित्रता हो सकती है। समाज में विभिन्नता देखकर ही लोग एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं। क्योंकि सभी चाहते हैं कि जो गुण हममें नहीं हैं, हम चाहते हैं कि कोई ऐसा मित्र मिले, जिसमें वे गुण हों। जो किसी बात की प्रायः या बहुत चिंता करता रहता हो ऐसा मनुष्य बहुत अधिक प्रसन्न रहने वाले का साथ ढूँढ़ता है, कमजोर व्यक्ति बलवान का, धैर्यवान व्यक्ति उत्साही व्यक्ति का साथ खोजता है। उच्च अभिलाषा रखने वाला चन्द्रगुप्त, उचित विचार, तर्क और उपाय के लिए चाणक्य पर निर्भर या विश्वास रखता था।  उसी तरह राष्ट्र या समाज की उन्नति या हित के लिए निश्चित आचार-व्यवहार में निपुण अकबर अपना मन बहलाने के लिए बीरबल पर निर्भर या विश्वास रखता था। कहने का अभिप्राय यह है कि समाज में सदैव देखा गया है कि विपरीत व्यवहार रखने वाले व्यक्ति अधिक अच्छे व् विश्वासपात्र मित्र बनते हैं। 

Mitrata Summary img1

पाठ – मित्र का कर्त्तव्य इस प्रकार बताया गया है, “उच्च और महान कार्यों में इस प्रकार सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिलाना कि तुम अपनी सामर्थ्य से बाहर काम कर जाओ।” यह कर्तव्य उसी से पूरा होगा, जो दृढ़ चित्त और सत्य संकल्प का हो। इससे हमें ऐसे ही मित्रों की खोज में रहना चाहिए जिनमें हमसे अधिक आत्मबल हो। हमें उनका पल्ला उसी तरह पकड़ना चाहिए जिस तरह सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था। मित्र हों तो प्रतिष्ठित और शुद्ध हृदय के हों, मृदुल और पुरुषार्थी हों, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, जिससे हम अपने को उनके भरोसे पर छोड़ सकें और यह विश्वास कर सकें कि उनसे किसी प्रकार का धोखा न होगा।
जो बात ऊपर मित्रों के संबंध में कही गई है, वही जान पहचानवालों के संबंध में भी ठीक है। जान-पहचान के लोग ऐसे हों, जिनसे हम कुछ लाभ उठा सकते हों, जो हमारे जीवन को उत्तम और आनंदमय बनाने में कुछ सहायता दे सकते हों, यद्यपि उतनी नहीं जितनी गहरे मित्र दे सकते हैं। मनुष्य का जीवन थोड़ा है, उसमें खोने के लिए समय नहीं। यदि क, ख और ग हमारे लिए कुछ नहीं कर सकते, न कोई बुद्धिमानी या विनोद की बातचीत कर सकते हैं, न कोई अच्छी बात बतला सकते हैं, न सहानुभूति द्वारा हमें ढाढ़स बँधा सकते हैं, न हमारे आनंद में सम्मिलित हो सकते हैं, न हमें कर्त्तव्य का ध्यान दिला सकते हैं, तो ईश्वर हमें उनसे दूर ही रखे। हमें अपने चारों ओर जड़ मूर्तियाँ सजानी नहीं हैं। आजकल जान-पहचान बढ़ाना कोई बड़ी बात नहीं है। कोई भी युवा पुरुष ऐसे अनेक युवा पुरुषों को पा सकता है, जो उसके साथ थियेटर देखने जाएँगे, नाचरंग में जाएंगे, सैर – सपाटे में जाएंगे, भोजन का निमंत्रण स्वीकार करेंगे। यदि ऐसे जान-पहचान के लोगों से कुछ हानि न होगी तो लाभ भी न होगा। पर यदि हानि होगी तो बड़ी भारी होगी। सोचो तो तुम्हारा जीवन कितना नष्ट होगा। यदि ये जान-पहचान के लोग उन मनचले युवकों में से निकलें, जो अमीरों की बुराइयों और मूर्खताओं की नकल किया करते हैं, दिन-रात बनाव सिंगार में रहा करते हैं, महफ़िलों में “ओ हो हो”, “वाह वाह” किया करते हैं, गलियों में उट्ठा मारते हैं और सिगरेट का धुआँ उड़ाते हैं। ऐसे नवयुवकों से बढ़कर शून्य, निस्सार और शोचनीय जीवन और किसका है? वे अच्छी बातों के सच्चे आनंद से कोसों दूर हैं। उनके लिए न तो संसार में सुंदर मनोहर उक्ति वाले कवि हुए हैं और न संसार में सुंदर आचरण वाले महात्मा । उनके लिए न तो बड़े वीर अद्भुत कर्म कर गए हैं। और न बड़े-बड़े ग्रंथकार ऐसे विचार छोड़ गए हैं, जिनसे मनुष्य जाति के हृदय में सात्विकता की उमंगें उठती हैं। उनके लिए फूल-पत्तियों में कोई सौंदर्य नहीं, झरनों के कल-कल में मधुर संगीत नहीं, अनंत सागर तरंगों में गंभीर रहस्यों का आभास नहीं, उनके भाग्य में सच्चे प्रयत्न और पुरुषार्थं का आनंद नहीं, उनके भाग्य में सच्ची प्रीति का सुख और कोमल हृदय की शांति नहीं। जिनकी आत्मा अपने इंद्रिय विषयों में ही लिप्त है, जिनका हृदय नीचाशयों और कुत्सित विचारों से कलुषित हैं, ऐसे नशोन्मुख प्राणियों को दिन-दिन अंधकार में पतित होते देख कौन ऐसा होगा जो तरस न खाएगा? हमें ऐसे प्राणियों का साथ न करना चाहिए।

शब्दार्थ –
मन बढ़ाना – हौंसला बढ़ाना
सामर्थ्य – योग्यता, क्षमता
दृढ़ –  मज़बूत, पक्का
संकल्प –  विचार, इरादा
आत्मबल – आत्मविश्वास
प्रतिष्ठित –  सम्मानित
पुरुषार्थी – परिश्रमी, मेहनतकश, कर्मठ
शिष्ट – अच्छे आचरण या स्वभाव वाला, सज्जन
विनोद – ख़ुशी, सुख
ढाढ़स बँधाना – हिम्मत देना
मनचले –  चंचल मनवाला, मनमौजी
बनाव – बनावटी
निस्सार – सारहीन, व्यर्थ
शोचनीय – चिंताजनक
सात्विकता – सात्विक होने का भाव
अनंत – जिसका अंत नहीं होता
गंभीर – गहन
रहस्य – छिपा हुआ
इंद्रिय-विषय – इंद्रियों से संबंधित
नीचाशय – घटिया इरादे
कुत्सित विचार – बुरे विचार
कलुषित – दूषित

व्याख्या मित्र के कर्तव्यों में बताया गया है कि मित्र का कर्तव्य है कि वह हमारे उच्च और महान कार्यों में हमारी सहायता करे, हमारा हौंसला बढ़ाए और हमें साहस दिलाए कि हम अपनी योग्यता और क्षमता से बढ़कर काम करें। यह कर्तव्य वही मित्र पूरा कर सकता है, जो पक्के मन और सत्य विचारों वाला हो। इसलिए हमें ऐसे ही मित्रों की खोज में रहना चाहिए जिनमें हमसे अधिक आत्मविश्वास हो। हमें उनका साथ उसी तरह पकड़ कर रखना चाहिए जिस तरह सुग्रीव ने राम जी का साथ पकड़ा था। मित्र ऐसे होने चाहिए जो सम्मानित और शुद्ध हृदय वाले हों, जो कोमल और परिश्रमी हों, जिनका आचरण अच्छा हो और जो सदैव सत्य का पालन करते हों, मित्र ऐसे होने चाहिए, जिन पर हम पूरा विश्वास करके अपने आप को उनके भरोसे पर छोड़ सकें। अर्थात हम कोई भी कार्य उनके विश्वास पर कर सकें। और यह विश्वास कर सकें कि उनसे हमें किसी भी प्रकार का धोखा नहीं मिलेगा।
जो बात मित्रों के संबंध में की जाती है, वही जान पहचान वालों के संबंध में भी होनी चाहिए। जान-पहचान के लोग ऐसे होने चाहिए, जिनसे हम कुछ लाभ उठा सकते हों, जो हमारे जीवन को अच्छा और खुशहाल बनाने में कुछ सहायता दे सकते हों, यद्यपि जान पहचान वाले लोग उतनी ख़ुशी हमें नहीं दे सकते, जितनी हमारे गहरे मित्र हमें दे सकते हैं। लेखक बताते हैं कि मनुष्य का जीवन बहुत छोटा होता है, उसमें कुछ खोने के लिए समय नहीं रहता। उदाहरण के लिए यदि क, ख और ग हमारे लिए कुछ नहीं कर सकते, न कोई बुद्धिमानी या सुख-ख़ुशी की बातचीत कर सकते हैं, न कोई अच्छी बात हमें बता सकते हैं, न हमदर्दी द्वारा हमें साहस बँधा सकते हैं, न हमारी ख़ुशी में शामिल हो सकते हैं, न हमें हमारे कर्त्तव्य का ध्यान दिला सकते हैं, तो ऐसे मित्रों या जान पहचान वाले लोगों से ईश्वर हमें दूर ही रखे। हमें अपने चारों ओर कोई जड़ मूर्तियाँ नहीं सजानी हैं। अर्थात केवल हमारे आस पास रहने से कोई हमारा नहीं हो जाता। आजकल के समय में जान-पहचान बढ़ाना कोई बड़ी बात नहीं है। कोई भी युवा पुरुष ऐसे अनेक युवा पुरुषों को मित्र बना सकता है, जो उसके साथ थियेटर देखने जाएँगे, नाचरंग में जाएंगे, सैर – सपाटे में जाएंगे, भोजन का निमंत्रण स्वीकार करेंगे। यदि ऐसे जान-पहचान के लोगों से हमें कुछ हानि नहीं होगी तो हमें कोई लाभ भी प्राप्त नहीं होगा। परन्तु यदि उनसे हमें कोई हानि होगी तो वह बहुत बड़ी होगी। यह सोच कर ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि तब हमारा जीवन कितना नष्ट होगा। यदि हमारे आस-पास के जान-पहचान के लोग उन मनमौजी युवकों में से निकलें, जो अमीरों की बुराइयों और मूर्खताओं की नकल किया करते हैं, दिन-रात बनावटी शृंगार में रहा करते हैं, महफ़िलों में “ओ हो हो”, “वाह वाह” किया करते हैं, गलियों में फालतू घूमा करते हैं और सिगरेट का धुआँ उड़ाते हैं। ऐसे नवयुवकों से बढ़कर शून्य, व्यर्थ और चिंताजनक जीवन और किसका होगा? ऐसे लोग अच्छी बातों के सच्चे सुख से कोसों दूर हैं। उनके लिए न तो संसार में कोई सुंदर मन को अच्छी लगने वाली विचारधारा रखने वाले कोई कवि हुए हैं और न संसार में सुंदर आचरण रखने वाले कोई महात्मा हुए हैं। उनके लिए न तो किसी बड़े वीर ने कोई अद्भुत कार्य किया है। और न बड़े-बड़े ग्रंथकार ऐसे विचार छोड़ गए हैं, जिनसे मनुष्य जाति के हृदय में सात्विक व् अच्छी उमंगें उठती हैं। उनके लिए फूल-पत्तियों में कोई सुंदरता नहीं है, झरनों के कल-कल में कोई मधुर संगीत नहीं है, उन्हें कभी न समाप्त होने वाले सागर तरंगों में गंभीर छुपे हुए रहस्यों का अंदाजा भी नहीं है, उनके भाग्य में सच्चे प्रयत्न और परिश्रम का सुख नहीं, उनके भाग्य में सच्चे प्रेम का सुख और कोमल हृदय की शांति भी नहीं है। जिनकी आत्मा अपने इंद्रिय विषयों में ही लिप्त है, जिनका हृदय घटिया इरादों और बुरे विचारों से मलीन हैं, ऐसे नशे में डूबे हुए प्राणियों को दिन-दिन अंधकार में जाते हुए देख कर कौन ऐसा होगा जो उन पर तरस नहीं खाएगा? हमें ऐसे प्राणियों का साथ कभी नहीं करना चाहिए। कहने का अभिप्राय यह है कि उपरोक्त बुराइयों से परिपूर्ण व्यक्तियों से हमें मित्रता नहीं करनी चाहिए।  और न ही उनकी संगति में रहना चाहिए। 

 

पाठ – मकदूनिया का बादशाह डेमट्रियस कभी-कभी राज्य के सब काम छोड़कर अपने ही मेल के दस – पाँच साथियों को लेकर मौज-मस्ती में लिप्त रहा करता था। एक बार बीमारी का बहाना करके इसी प्रकार वह अपने दिन काट रहा था। इसी बीच उसका पिता उससे मिलने के लिए गया और उसने एक हँसमुख जवान को कोठरी से बाहर निकलते देखा। जब पिता कोठरी के भीतर पहुँचा तब डेमेट्रियस ने कहा, “ज्वर ने मुझे अभी छोड़ा है।” पिता ने कहा, “हाँ, ठीक है, वह दरवाज़े पर मुझे मिला था।”
कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है। किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-रात अवनति के गड्ढे में गिराती जाएगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी, जो उसे निरंतर उन्नति की ओर उठाती जाएगी।
इंग्लैंड के एक विद्वान को युवावस्था में राज दरबारियों में जगह नहीं मिली। इस पर जिन्दगी भर वह अपने भाग्य को सराहता रहा। बहुत से लोग तो इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहाँ वह बुरे लोगों की संगति में पड़ता जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होते। बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जिनके घड़ी भर के साथ से भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, क्योंकि उतने ही बीच में ऐसी-ऐसी बातें कही जाती हैं जो कानों में न पड़नी चाहिए, चित्त पर ऐसे प्रभाव पड़ते हैं, जिनसे उसकी पवित्रता का नाश होता है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती हैं। इस बात को प्रायः सभी लोग जानते हैं कि भद्दे व फूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान पर चढ़ते हैं, उतनी जल्दी कोई गंभीर या अच्छी बात नहीं। एक बार एक मित्र ने मुझसे कहा कि उसने लड़कपन में कहीं से बुरी कहावत सुनी थी, जिसका ध्यान वह लाख चेष्टा करता है कि न आए, पर बार-बार आता है। जिन भावनाओं को हम दूर रखना चाहते हैं, जिन बातों को हम याद करना नहीं चाहते, वे बार-बार हृदय में उठती हैं और बेधती हैं। अतः तुम पूरी चौकसी रखो, ऐसे लोगों को साथी न बनाओ जो अश्लील, अपवित्र और फूहड़ बातों से तुम्हें हँसाना चाहें सावधान रहो। ऐसा न हो कि पहले-पहल तुम इसे एक बहुत सामान्य बात समझो और सोचो कि एक बार ऐसा हुआ, फिर ऐसा न होगा अथवा तुम्हारे चरित्र बल का ऐसा प्रभाव पड़ेगा कि ऐसी बातें कहने वाले आगे चलकर आप सुधर जाएंगे। नहीं, ऐसा नहीं होगा। जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है, तब फिर यह नहीं देखता कि वह कहाँ और कैसी जगह पैर रखता है। धीरे-धीरे उन बुरी बातों में अभ्यस्त होते-होते तुम्हारी घृणा कम हो जाएगी। पीछे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी, क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़ने की बात ही क्या है। तुम्हारा विवेक कुंठित हो जाएगा और तुम्हें भले-बुरे की पहचान न रह जाएगी। अंत में होते होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे। अतः हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगति की छूत से बचो। एक पुरानी कहावत है-
“काजल की कोठरी में कैसो ही सयानो जाय।
एक लीक काजल की लागि है पै लागि है। “

शब्दार्थ –
कुसंग – बुरी संगत
सद्वृत्ति – अच्छी बुद्धि
क्षय – हानि, कम होना
अवनति – पतन
चेष्टा – प्रयत्न
बेधना – घाव करना
चौकसी – सावधानी
अभ्यस्त – निपुण
कुंठित – अप्रखर, अक्षम, कमजोर, मद्धम
निष्कलंक – बिना कलंक के, पवित्र

व्याख्या लेखक मकदूनिया का बादशाह डेमट्रियस का उदाहरण देते हुए कहता है कि कभी-कभी राज्य के सब काम छोड़कर वह अपनी ही तरह स्वभाव के दस – पाँच साथियों को लेकर मौज-मस्ती में डूबा रहता था। एक बार बीमारी का बहाना करके इसी प्रकार मौज-मस्ती में वह अपने दिन काट रहा था। इसी बीच उसका पिता उससे मिलने के लिए गया और उसने एक हँसमुख जवान को उसकी कोठरी से बाहर निकलते देखा। जब पिता कोठरी के भीतर पहुँचा तब डेमेट्रियस ने उनसे कहा कि उसका बुखार अभी-अभी गया है। जिस पर उसके पिता ने कहा कि उन्हें उसका बुखार दरवाज़े पर मिला था।
बुरी संगती का बुखार सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और अच्छी बुद्धि का ही नाश नहीं करता, बल्कि बुद्धि को भी नष्ट करता है। किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-रात पतन के गड्ढे में गिराती जाएगी और यदि उसकी संगति अच्छी होगी तो वह उसे सहारा देने वाली भुजा के समान होगी, जो उसे लगातार उन्नति की ओर उठाती जाएगी।
एक और उदाहरण देते हुए लेखक कहते हैं कि इंग्लैंड के एक विद्वान को उनकी युवावस्था में राज दरबारियों में जगह नहीं मिली। इस बात पर वह पूरी जिन्दगी अपने भाग्य को सराहता रहा। अर्थात वह अपने आप को भाग्यशाली मानता रहा। यदि किसी और के साथ ऐसा होता हो बहुत से लोग तो इसे अपना बहुत बड़ा दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहाँ वह बुरे लोगों की संगति में पड़ जाता जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होते। अर्थात वह बड़े पद की जगह अच्छी संगत को महत्त्व देने वाला था। हमारे आस-पास बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जिनके थोड़ी देर के साथ से भी हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, क्योंकि उनके साथ थोड़े सा समय व्यतीत करने पर वह ऐसी-ऐसी बातें कह जाते हैं, जो कभी कानों में नहीं पड़नी चाहिए, उनकी बातों से मन पर ऐसे प्रभाव पड़ते हैं, जिनसे हमारी पवित्रता का नाश होता है। उन बातों से बुराई हमारे मन में अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी सोच या यादाश्त में बहुत दिनों तक टिक कर रहती हैं। इस बात को लगभग सभी लोग जानते हैं कि भद्दे व फूहड़ गीत जितनी जल्दी हमारे ध्यान पर चढ़ते हैं, उतनी जल्दी कोई गंभीर या अच्छी बात याद नहीं रह पाती। लेखक इस बात को सिद्ध करते हुए कहते हैं कि एक बार उनके एक मित्र ने उनसे कहा था कि उसने अपने बचपन में कहीं से एक बुरी कहावत सुनी थी, जिसका ध्यान वह लाख कोशिश करता है कि न आए, पर बार-बार आता है। कहने का अभिप्राय यह है कि जिन भावनाओं को हम दूर रखना चाहते हैं, जिन बातों को हम याद नहीं करना चाहते, वे बार-बार हमारे मन में उठती हैं और मन को खराब करती हैं। अतः लेखक हम से कहता है कि हमें पूरी सावधानी रखनी चाहिए, ऐसे लोगों को साथी नहीं बनाना चाहिए जो अश्लील, अपवित्र और फूहड़ बातों से हमें हँसाना चाहें। हमें सावधान रहना चाहिए। ऐसा न हो कि पहले-पहल हम इसे एक बहुत सामान्य बात समझे और सोचो कि एक बार ऐसा हुआ है, अब दुबारा ऐसा नहीं होगा। अथवा यह सोचें कि हमारे चरित्र बल का ऐसा प्रभाव पड़ेगा कि ऐसी बातें कहने वाले आगे चलकर अपने आप सुधर जाएंगे। ऐसा सोचना व्यर्थ है, क्योंकि ऐसा कभी नहीं होगा। क्योंकि जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है, तब फिर यह नहीं देखता कि वह कहाँ और कैसी जगह पैर रखता है। अर्थात एक बार व्यक्ति यदि बुरी बातों में फँसता है तो उसे पता नहीं चलता कि वह कितनी बुराई में फँसता जा रहा है। धीरे-धीरे उन बुरी बातों का असर होते-होते उनके प्रति हमारी घृणा कम हो जाएगी। फिर हमें उनसे कोई फर्क भी नहीं पड़ेगा, क्योंकि हम यह सोचने लगेंगे कि इनमें चिढ़ने की बात ही क्या है। यह तो सामान्य बात है। क्योंकि हमारी बुद्धि  कमजोर हो जाएगी और हमें भले-बुरे की पहचान न रह जाएगी। अंत में इन सबके द्वारा हम भी बुराई के भक्त बन जाएंगे। इसलिए हृदय को उज्ज्वल और पवित्र रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगति को छूने से भी बचना चाहिए। एक पुरानी कहावत कही गई है कि –
“काजल की कोठरी में कैसो ही सयानो जाय ।
एक लीक काजल की लागि है पै लागि है। ”
अर्थात – व्यक्ति कितना भी चौकन्ना हो, कितना बुद्धिमान हो, सर्तक हो, पर अगर वह बुरे व्यक्ति का साथ रखता है तो उस पर उसका बुरा असर पड़ना निश्चित है। कुसंगति के प्रभाव से चतुर व्यक्ति भी बच नहीं पाता है। 

 

Conclusion

प्रस्तुत निबंध ‘मित्रता’ में शुक्ल ने जीवन में मित्र के महत्त्व के साथ-साथ मित्र के चुनाव में रखी जाने वाली सावधानियों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। क्योंकि लेखक का मानना है कि जहाँ सच्चा और अच्छा मित्र हमारे कष्टों, दुःखों को दूर करके हमें जीवन में अच्छा बनने में सहायता दे सकता है वहीं मूर्ख और बुरे आचरण वाला हमें गलत आदतों का शिकार बना कर हमारे विनाश का कारण भी बन सकता है। इसलिए हमें सोच-समझ कर सावधानी पूर्वक मित्र का चयन करना चाहिए। PSEB Class 10 Hindi – 12 (मित्रता)’ की इस पोस्ट में सार, व्याख्या और शब्दार्थ दिए गए हैं। छात्र इसकी मदद से पाठ को तैयार करके परीक्षा में पूर्ण अंक प्राप्त कर सकते हैं।