मैं और मेरा देश पाठ सार

 

PSEB Class 10 Hindi Book Chapter 13 “Main Aur Mera Desh” Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings

 

मैं और मेरा देश सार – Here is the PSEB Class 10 Hindi Book Chapter 13 Main Aur Mera Desh Summary with detailed explanation of the lesson “Main Aur Mera Desh” along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary

इस पोस्ट में हम आपके लिए पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड  कक्षा 10 हिंदी पुस्तक के पाठ 13 मैं और मेरा देश पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप  इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 मैं और मेरा देश पाठ के बारे में जानते हैं।

 

Main Aur Mera Desh (मैं और मेरा देश) 

By कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’

 

कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ द्वारा लिखित निबंध ‘मैं और मेरा देश’ देश के प्रति हमारे कर्तव्य-बोध और सम्मान की महत्वपूर्ण भावना को बड़े सुंदर और प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करता है। इसमें लेखक ने यह समझाया है कि सिर्फ अपनी व्यक्तिगत ज़िंदगी और सुविधाओं तक सीमित रहना पर्याप्त नहीं है, बल्कि हमें अपने देश की जरूरतों को समझकर उसके सम्मान और विकास के लिए निरंतर प्रयास करना चाहिए। यह निबंध हर नागरिक को अपने देश के प्रति जागरूक और उत्तरदायी बनने के लिए प्रेरित करता है।

 

 

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मैं और मेरा देश पाठ सार Mein Aur Mera Desh Summary

यह निबंध ‘मैं और मेरा देश’ में लेखक कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ ने देश के प्रति हमारे कर्त्तव्य और जिम्मेदारियों को बहुत सुंदर और प्रेरणादायक ढंग से व्यक्त किया है। लेखक बताते हैं कि हम सिर्फ अपने छोटे-छोटे व्यक्तित्व और आसपास के लोगों तक सीमित नहीं रह सकते, बल्कि हमें अपने देश के प्रति भी पूरी जिम्मेदारी और सम्मान की भावना रखनी चाहिए। एक दिन लेखक को यह एहसास हुआ कि सिर्फ अपने घर, पड़ोस और नगर की सीमाओं में खुश रहना पर्याप्त नहीं है, क्योंकि जब तक देश स्वतंत्र और सम्मानित नहीं होगा, तब तक उसकी खुद की स्थिति भी कमजोर है। यह समझ उसे एक महान व्यक्ति, लाला लाजपतराय के अनुभव से मिली, जिन्होंने विश्व भ्रमण कर यह जाना कि भारत की गुलामी की छवि उनके माथे पर कलंक की तरह लगी रहती है।

इस अनुभव के बाद लेखक ने निश्चय किया कि चाहे उसके पास कितनी भी सफलता या संपत्ति हो, वह कभी भी ऐसा काम नहीं करेगा जो देश की स्वतंत्रता और सम्मान को ठेस पहुँचाए। हर व्यक्ति चाहे बड़ा वैज्ञानिक हो या साधारण नागरिक, अपने स्तर पर देश के लिए कुछ न कुछ कर सकता है। जीवन को एक युद्ध की तरह देखा गया है, जिसमें सिर्फ लड़ने वाले ही नहीं, बल्कि रसद देने वाले, जय बोलने वाले भी महत्वपूर्ण होते हैं। इतिहास में कई बार एक अकेले व्यक्ति ने बहुत बड़ा परिवर्तन किया है।

लेखक ने दो कहानियाँ सुनाई, स्वामी रामतीर्थ की जापान यात्रा की एक घटना, जहाँ एक जापानी युवक ने उनके देश की इज्जत बचाई, और एक घटना जिसमें जापान में शिक्षा लेने वाले एक युवक ने अपनी गलती से अपने देश को लांछित किया। ये कहानियाँ इस बात को साबित करती हैं कि एक नागरिक के कार्य से देश की प्रतिष्ठा जीती भी जा सकती है और खोई भी जा सकती है। प्रत्येक नागरिक को अपने देश के गौरव और हित के लिए सजग रहना चाहिए, क्योंकि व्यक्ति और देश अलग नहीं होते।

लेखक बताते हैं कि बड़े से बड़ा काम तभी महान होता है जब उस काम के पीछे सच्ची भावना हो, और सबसे छोटे-से छोटे काम भी महान बन जाते हैं जब उसमें देशभक्ति होती है। उन्होंने तुर्की के राष्ट्रपति कमालपाशा और भारत के एक किसान की कहानी से यह समझाया कि सच्चे हृदय से दिया गया साधारण उपहार भी महान सम्मान पा सकता है।

लेखक ने देश की शक्ति और सौंदर्य को बनाए रखने का महत्व बताया। उन्होंने कहा कि यदि हम अपने देश की ख़राबी की चर्चा करते हैं या अपने देश की तुलना दूसरों से कर के अपने देश को नीचा दिखाते हैं, तो इससे देश का आत्मविश्वास और सामूहिक ताकत घटती है। हर नागरिक को अपने व्यवहार, भाषा, स्वच्छता और चुनाव में ईमानदारी से काम लेना चाहिए। चुनाव ही देश की उन्नति और लोकतंत्र की कसौटी है, जहाँ सही और योग्य व्यक्ति को वोट देना हर देशवासी का अधिकार और दायित्व है।

इस निबंध में देश के प्रति प्रेम, जिम्मेदारी, सम्मान और सेवा की भावना को जीवंत उदाहरणों के माध्यम से समझाया गया है, जो हर नागरिक को अपने कर्त्तव्यों के प्रति सजग और जागरूक करता है। लेखक का संदेश है कि “मैं” और “मेरा देश” एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, और देश के लिए किया गया हर छोटा-बड़ा कार्य महत्वपूर्ण होता है। इस प्रकार हम सब मिलकर अपने देश को सम्मानित, स्वतंत्र और खुशहाल बना सकते हैं।

 

मैं और मेरा देश पाठ व्याख्या Mein Aur Mera Desh Explanation

 

पाठ – मैं अपने घर में जन्मा था, पला था।
अपने पड़ोस में खेलकर, पड़ोसियों की ममता-दुलार पा बड़ा हुआ था।
अपने नगर में घूम-फिरकर वहाँ के विशाल समाज का संपर्क पा, वहाँ के संचित ज्ञान-भंडार का उपयोग कर, उसे अपनी सेवाओं का दान दे, उसकी सेवाओं का सहारा पा और इस तरह एक मनुष्य से एक भरा-पूरा नगर बन कर मैं खड़ा हुआ था।
मैं अपने नगर के लोगों का सम्मान करता था, वे भी मेरा सम्मान करते थे।
मुझे बहुतों की अपने लिए जरूरत पड़ती थी। मैं भी बहुतों की ज़रूरत का उनके लिए जवाब था।
इस तरह मैं समझ रहा था कि मैं अपने में अब पूरा हो गया हूँ, पूरा फैल गया हूँ, पूरा मनुष्य हो गया हूँ।
मैं सोचा करता था कि मेरी मनुष्यता में अब कोई अपूर्णता नहीं रही, मुझे अब कुछ न चाहिए, जो चाहिए, वह सब मेरे पास है- मेरा घर, मेरा पड़ोस, मेरा नगर और मैं वाह, कैसी सुन्दर कैसी संगठित और कैसी पूर्ण है मेरी स्थिति।

शब्दार्थ-
पला- बढ़ा, विकसित हुआ
दुलार- स्नेह
नगर- शहर
समाज-   लोगों का बड़ा समूह जो साथ रहते हैं और एक-दूसरे की मदद करते हैं
संपर्क- जुड़ाव, संबंध
संचित- एकत्रित किया हुआ
ज्ञान- बोध, विद्या
भंडार- कोष, खजाना
सहारा- मदद
मनुष्य- इंसान
मनुष्यता- मनुष्य होने की अवस्था
अपूर्णता- अधूरापन, कमी
स्थिति- हालात या अवस्था
संगठित- एकत्रित जोड़ा हुआ

व्याख्या- प्रस्तुत गद्यांश में लेखक कहता है कि वह अपने घर में पैदा हुआ और बड़ा हुआ। पड़ोस में खेलकर और पड़ोसियों का प्यार पाकर उसका बचपन बीता। अपने शहर में घूमने-फिरने से उसे बड़े समाज का अनुभव मिला और शहर की सुविधाओं व ज्ञान का उपयोग करके उसने भी अपनी सेवाएँ समाज को दीं। इस प्रकार वह सिर्फ़ अकेला व्यक्ति न रहकर पूरे नगर का हिस्सा बन गया।
वह नगर के लोगों का सम्मान करता था और नगर के लोग भी उसका सम्मान करते थे। जैसे उसे बहुतों की ज़रूरत पड़ती थी, वैसे ही वह भी दूसरों की ज़रूरत पूरा करता था।
इसलिए उसे लगता था कि अब वह पूरी तरह से इंसान बन गया है, उसके जीवन में कोई कमी नहीं है। अब उसे कुछ नहीं चाहिए। उसका घर, पड़ोस, नगर सब कुछ अब उसके पास है। वह आगे कहता है कि यह स्थिति उसे सुंदर, संगठित और पूर्ण लगती है।

 

पाठ– एक दिन आनंद की इस दीवार में एक दरार पड़ गई और तब मुझे सोचना पड़ा कि अपने घर, अपने पड़ोस, अपने नगर की सीमाओं में ममता, सहारा, ज्ञान और आनंद के उपहार पाकर भी मेरी स्थिति एकदम हीन है और हीन भी इतनी कि मेरा कहीं भी कोई अपमान कर सकता है- एक मामूली अपराधी की तरह और मुझे यह भी अधिकार नहीं कि मैं उस अपमान का बदला लेना तो दूर रहा, उसके लिए कहीं अपील या दया प्रार्थना ही कर सकूँ।
“क्या कोई भूकंप आया था, जिससे दीवार में यह दरार पड़ गई?”
बड़े महत्त्व का प्रश्न है। इस अर्थ में भी कि यह बात को खिलने का, आगे बढ़ने का अवसर देता है और इस अर्थ में भी कि ठीक समय पर पूछा गया है। ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने में एक अपूर्व आनंद आता है, तो उत्तर यह है आपके प्रश्न का:

शब्दार्थ-
आनंद खुशी, सुख
दरार- टूटना, फटना, खांचा
सीमा-  हद
ममता- प्रेम, स्नेह
हीन- नीचा, तुच्छ, नगण्य
अपमान- बेइज्जती, तिरस्कार
अपराधी- दोषी व्यक्ति
अधिकार- हक
अतृप्ति- असंतुष्टि
अपूर्व अनोखा, असाधारण
भूकंप भूचाल
आनंद- खुशी
अधिकारी- किसी कार्य, लोगों का नेतृत्व या नियंत्रण रखने वाला

व्याख्या- लेखक यहाँ बताता है कि जब उसके जीवन में सबकुछ अच्छा था, घर में प्यार, पड़ोस में अपनापन, नगर में सम्मान और सुख तो उसे लगता था कि वही पूरी तरह संतुष्ट है और उसका जीवन बिल्कुल सही है। लेकिन अचानक, उसकी खुशियों की ‘दीवार’ में एक दरार आ गई।
अब वह महसूस करता है कि सिर्फ अपना सुख, पड़ोस, और नगर की सीमाओं में खुश रहना काफी नहीं है। अगर उसका देश कमजोर या गुलाम है, तो बाहर की दुनिया में उसका कोई सम्मान नहीं रहेगा, अगर वह खुद अच्छा इंसान है। कोई भी कभी भी उसका अपमान कर सकता है, या उसके देश को नीचा दिखा सकता है, और उसके पास न तो कोई अधिकार है उसका प्रतिरोध करने का, न मदद मांगने का।
लेकिन ऐसा क्या हुआ कि सबकुछ बदल गया। क्या सचमुच कोई बड़ा हादसा, जैसे भूकंप, आया था। लेखक कहता है कि यह सवाल बहुत ज़रूरी है, क्योंकि इसी से बात आगे बढ़ती है। इस सवाल का उत्तर यह है। 

 

पाठ – जी हाँ, एक भूकंप आया था, जिससे दीवार में यह दरार पड़ गई और लीजिए आपको कोई नया प्रश्न न पूछना पड़े, इसलिए मैं अपनी ओर से ही कह दे रहा हूँ कि यह दीवार थी मानसिक विचारों की, मानसिक विश्वासों की। इसलिए यह भूकंप भी किसी प्रांत या प्रदेश में नहीं उठा, मेरे मानस में ही उठा था।
“मानस में भूकंप उठा था।”
हाँ, जी, मानस में भूंकप उठा था और भूकंप में कहीं कोई धरती थोड़े ही हिली थी, आकाश थोड़े ही काँपा था, एक तेजस्वी पुरुष का अनुभव ही वह भूकंप था, जिसने मुझे हिला दिया।
वे तेजस्वी पुरुष थे-स्वर्गीय पंजाब-केसरी लाला लाजपतराय अपने महान राष्ट्र की पराधीनता के दीन दिनों में जिन लोगों ने अपने रक्त से गौरव के दीपक जलाए और जो घोर अंधकार और भयंकर बवंडरों के झकझोरों में जीवन भर खेल, उन दीपको को बुझने से बचाते रहे, उन्हीं में एक थे हमारे लाला जी । उनकी कलम और वाणी दोनों में तेजस्विता की ऐसी किरणें थीं कि वे फूटतीं, तो अपने मुग्ध हो जाते और पराए भौचक!

शब्दार्थ-
भूकंप- प्राकृतिक आपदा जिसमें धरती हिलती है, यहाँ मानसिक झटका या बड़ा बदलाव।
दीवार- किसी स्थान या व्यक्ति के विचारों और विश्वासों की सीमा या हिस्सा।
मानस- मन
तेजस्वी प्रकाशमान, तेज़,
स्वर्गीय दिवंगत, जो अब नहीं है
राष्ट्र देश
पराधीनता किसी दूसरे के नियंत्रण में होना
रक्त खून
बवंडर- आँधी-तूफान
झकझोरना- कुछ ऐसा प्रभाव जो गहरा असर डालता है
कलम- पैन, लेखन का औज़ार
वाणी- भाषण या बोलने की क्षमता
भौचक- हक्का-बक्का, हैरान

व्याख्या- इस अंश में लेखक कहता है कि उसके मन में एक भूकंप जैसा बड़ा बदलाव आया था, जिसने उसकी सोच की दीवार में दरार पैदा कर दी। यह दीवार किसी बाहरी चीज़ की नहीं, बल्कि उसके अपने विचारों और विश्वासों की थी, जो उसे सीमित कर रही थी। यह बदलाव किसी प्रांत या देश में नहीं, उसके मन में हुआ था। सचमुच, जमीन या आकाश हिले बिना, एक महान और तेजस्वी पुरुष लाला लाजपतराय के अनुभवों और विचारों ने उसके मन को झकझोर दिया। लाला लाजपतराय ऐसे प्रभावशाली नेता थे, जिन्होंने अपने रक्त से देश की आज़ादी का दीप जलाया और कठिनाइयों में भी अपने देश के गौरव को बचाए रखा। उनकी तेजस्विता और भाषणों की शक्ति इतनी प्रभावशाली थी कि जो कोई उन्हें सुनता या देखता, वह अचंभित रह जाता। इस महान पुरुष के विचारों ने लेखक के अंदर गहराई से झटका दिया और उसे एहसास हुआ कि असली सम्मान और पूर्णता तभी मिल सकती है जब देश स्वतंत्र और सशक्त हो, न कि केवल अपने छोटे-से घर, पड़ोस या नगर तक ही सीमित रहकर। इस तरह, उसके मन में आया वह भूकंप उसकी सोच की सीमाओं को तोड़कर उसे देश की अहमियत समझाने वाला एक प्रेरणादायक अनुभव था।

पाठ– वे उन्हीं दिनों सारे संसार में घूमे थे। उनके व्यक्तित्व के गठन में उनके परिवार, उनके पास- पड़ोस और उनके नगर ने अपने सर्वोत्तम रत्नों की जोत उन्हें भेंट दी थी। अजी क्या बात थी उनके व्यक्तित्व की । क्या देखने में, क्या सुनने में, वे एक अपूर्व मनुष्य थे। कौन था भला ऐसा, जिस पर वे मिलते ही छा न जाते । संसार के देशों में घूम-कर वे अपने देश में लौटे, तो उन्होंने अपना सारा अनुभव एक ही वाक्य में भरकर बखेर दिया। वह अनुभव ही तो वह भूकंप था, जिसने मेरी पूर्णता की उसक की अपूर्णता की कसक में बदल दिया।
उनका अनुभव यह था “मैं अमेरिका गया, इंग्लैंड गया, फ्रांस गया और संसार के दूसरे देशों में भी घूमा, पर जहाँ भी मैं गया, भारतवर्ष की गुलामी की लज्जा का कलंक मेरे माथे पर लगा रहा।”
क्या सचमुच यह अनुभव एक मानसिक भूकंप नहीं है, जो मनुष्य को झकझोरकर कहे कि मनुष्य के पास संसार एक ही नहीं, यदि स्वर्ग के भी सब उपहार और साधन हों, पर उसका देश गुलाम हो या किसी भी दूसरे रूप में हीन हो, तो वे सारे उपहार और साधन उसे गौरव नहीं दे सकते।

शब्दार्थ-
संसार- दुनिया, पूरी पृथ्वी
व्यक्तित्व – इंसान की पहचान, स्वभाव और गुणों का समूह
गठन- निर्माण, बनावट
सर्वोत्तम रत्न- सबसे श्रेष्ठ गुण और प्रेरणा
जोत- रोशनी, प्रकाश
भेंट- उपहार, देना
कलंक धब्बा, शर्मनाक दाग
गुलामी- पराधीनता, स्वतंत्रता का अभाव
लज्जा- शर्म, लाज
अनुभव- तजुर्बा
पूर्णता- पूरा होना
कसक- रुक-रुक कर होने वाली पीड़ा, टीस
गौरव- सम्मान, प्रतिष्ठा
साधन- संसाधन, उपलब्ध वस्तुएँ 

व्याख्या- लेखक कहता है कि लाला लाजपतराय उन समय दुनिया के कई देशों की यात्रा कर चुके थे। उनके व्यक्तित्व को बनाने में उनके परिवार, पड़ोस और नगर की शिक्षा, संस्कार और संस्कृतियों ने बहुत बड़ा योगदान दिया था, जैसे वे सभी अपने सबसे कीमती रत्नों की चमक उन्हें देते हों। उनकी बातें और चाल-ढाल दोनों ही बहुत खास थी, वे एक अनोखे और महान व्यक्ति थे। जब वे किसी से मिलते थे, तो उनके व्यक्तित्व की छाप तुरंत सब पर छा जाती थी।
दुनिया का भ्रमण करने के बाद जब वे अपने देश भारत लौटे, तो उन्होंने अपने सारे अनुभवों को एक वाक्य में बयां किया। यह अनुभव लेखक के लिए एक बड़ा झटका या मानसिक भूकंप साबित हुआ। लाला जी ने कहा कि वे अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस जैसे कई देशों में गए, मगर जहाँ भी गए, भारत की गुलामी की शर्म और कलंक उनके सिर पर बना रहा।
यह अनुभव सच में एक मानसिक भूकंप की तरह था, जिसने लेखक को झकझोर दिया कि चाहे किसी के पास दुनिया की सारी धन-दौलत और सुविधाएँ हों, लेकिन अगर उसका देश गुलाम है या कमजोर है, तो वह व्यक्ति असली सम्मान और गौरव नहीं पा सकता। देश की स्वतंत्रता और सम्मान के बिना कोई भी व्यक्ति पूरी तरह खुश या सफल नहीं हो सकता। इस सोच ने लेखक की पूरी दुनिया बदल दी और उसकी मानसिकता में गहरा परिवर्तन ला दिया।

 

पाठ– इस अनुभव की छाया में मैं-सोचता हूँ कि मेरा यह कर्त्तव्य है कि मुझे निजी रूप में सारे संसार का राज्य भी क्यों न मिलता हो, मैं कोई ऐसा काम न करूँ, जिससे मेरे देश की स्वतंत्रता को, दूसरे शब्दों में उसके सम्मान को धक्का पहुँचे, उसकी किसी भी प्रकार की शक्ति की कमी आए। साथ ही उसके एक नागरिक के रूप में मेरा यह अधिकार भी है कि अपने देश के सम्मान का पूरा-पूरा भाग मुझे ‘मिले और उसकी शक्तियों से अपने सम्मान की रक्षा का मुझे, जहाँ भी मैं हूँ, भरोसा रहे।
अजी भला एक आदमी अपने इतने बड़े देश के लिए कर ही क्या सकता है? फिर कोई बड़ा वैज्ञानिक हो, तो वह अपने आविष्कारों से ही देश को कुछ बल दे – दे या फिर कोई बहुत बड़ा धनपति हो, तो वह अपने धन का भामाशाह की तरह समय पर त्याग कर ही देश के काम आ सकता है, पर हरेक आदमी न तो ऐसा वैज्ञानिक ही हो सकता है, न धनिक ही फिर जो बेचारा अपनी ही दाल-रोटी की फ्रिक में लगा हुआ हो, वह अपने देश के लिए चाहते हुए भी क्या कर सकता है?

शब्दार्थ-
कर्तव्य- वह काम जो करना जरूरी हो, जिम्मेदारी
निजी रूप में- व्यक्तिगत तरीके से, अपने लिए
राज्य- शासन
स्वतंत्रता- आज़ादी, बंधनों से मुक्त होना
सम्मान- आदर, मान-सम्मान
धक्का पहुँचना- चोट लगना, नुकसान होना
शक्ति- ताकत, क्षमता
अधिकार- हक
वैज्ञानिक- वह व्यक्ति जो विज्ञान का अध्ययन करता है
आविष्कार- नई खोज
धनपति- बहुत धनवान व्यक्ति
भामाशाह- धन का दान करने वाला
त्याग- बलिदान या छोड़ देना
धनिक- धनवान व्यक्ति

व्याख्या- इस अंश में लेखक सोचता है कि चाहे उसके पास पूरी दुनिया पर राज्य करने की ताकत हो, फिर भी उसे कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिससे उसके देश की स्वतंत्रता या सम्मान को कोई चोट पहुँचे। वह अपने देश की शक्ति और सम्मान को कमजोर करने वाला हर कार्य करने से बचना चाहता है। साथ ही, वह यह भी मानता है कि एक नागरिक के नाते उसे अपने देश के सम्मान का पूरा हिस्सा मिलना चाहिए और वह हमेशा अपने देश के सम्मान की रक्षा करने में भरोसा रखता है चाहे वह कहीं भी हो।
फिर लेखक सवाल उठाता है कि आखिर एक आम आदमी अपने बड़े देश के लिए क्या कर सकता है? अगर कोई बहुत बड़ा वैज्ञानिक हो, तो वह अपने आविष्कारों से देश को बल दे सकता है, या बहुत अमीर हो तो धनदान करके देश की सेवा कर सकता है। लेकिन हर कोई ऐसा वैज्ञानिक या अमीर नहीं हो सकता। फिर साधारण इंसान जो अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में लगा हो, वह देश के लिए क्या योगदान दे सकता है, चाहे वह दिल से चाहे भी।
यहाँ लेखक ने सवाल उठाकर यह बताना शुरू किया है कि देश की सेवा केवल बड़े-बड़े कामों तक सीमित नहीं है, बल्कि हर व्यक्ति अपनी स्थिति और क्षमता के अनुसार कुछ न कुछ योगदान दे सकता है और देना चाहिए।

 

पाठ– आपका प्रश्न विचारों की उत्तेजना देता है, इसमें संदेह नहीं, पर इसमें भी कोई संदेह नहीं कि इसमें जीवन-शास्त्र का घोर अज्ञान भी भरा हुआ है।Main Aur Mera Desh Summary img1 अरे भाई, जीवन कोई आपके मुन्ने की गुड़िया थोड़े ही है कि आप कह सकें कि बस यह है, इतना ही है। वह तो एक विशाल समुद्र का तट है, जिस पर हरेक अपने लिए स्थान पा सकता है।
लो, एक और बात बताता हूँ आपको। जीवन को दर्शन शास्त्रियों ने बहुमुखी बताया है, उसकी अनेक धाराएँ हैं। सुना नहीं आपने कि जीवन एक युद्ध है और युद्ध में लड़ना ही तो कोई एक काम नहीं होता । लड़ने वालों को रसद न पहुँचे, तो वे कैसे लड़ें? किसान ठीक खेती न उपजाएँ तो रसद पहुँचाने वाले क्या करें और लो, जाने दो बड़ी-बड़ी बातें, युद्ध में जय बोलने वालों का भी महत्त्व है।
“जय बोलने वालों का ?”

शब्दार्थ-
विचारों की उत्तेजना- मन में भावनाओं और सोच को जगाना
संशय- संदेह, शंका
जीवन-शास्त्र – जीवन का अध्ययन या दर्शन
घोर- गहरा, अत्यंत
अज्ञान- अनजानी, ज्ञान की कमी
मुन्ने- छोटा बच्चा
गुड़िया- खिलौना गुड़िया
विशाल- बड़ा, व्यापक
समुद्र- सागर
तट- किनारा
स्थान- जगह
धाराएँ- लगातार बहनेवाली धारा
दर्शन शास्त्री- दर्शन के विचारक
युद्ध- लड़ाई
रसद- आवश्यक सामग्री, सहायता
किसान- जो खेती करता है
महत्त्व- अहमियत, अहम चीज

व्याख्या- लेखक यहाँ कहता है कि सवाल बहुत महत्वपूर्ण और सोचने वाला है। लेकिन साथ ही वह कहता है कि इस सवाल में जीवन के गहरे ज्ञान की कमी भी है। जीवन इतना छोटा या साधारण नहीं है कि हम उसे केवल एक सीमा तक समझ लें। जीवन किसी बच्चे की गुड़िया के समान नहीं है की बस इतना ही है। जीवन एक विशाल समुद्र के किनारे जैसा है, जहाँ हर किसी के लिए जगह और अवसर है।
लेखक आगे बताता है कि जीवन को ज्ञान और दर्शन ने बहुत व्यापक और बहुआयामी बताया है। जीवन कई तरह की धारणाओं और गतिविधियों से भरा है। जैसे जीवन को एक युद्ध समझा गया है, पर युद्ध में केवल लड़ना ही काम नहीं होता। लड़ाई में जो सैनिक होते हैं, उन्हें सही समय पर भोजन, हथियार और मदद मिलनी चाहिए, तभी वे लड़ पाएंगे। यदि किसान अच्छा अनाज नहीं उगाएगा, तो सेना को भोजन कहाँ से मिलेगा? युद्ध में सिर्फ लड़ो या जीत का नारा लगाने वाले लोग भी बहुत जरूरी होते हैं क्योंकि वे सैनिकों को हौसला और ताकत देते हैं।
इसलिए लेखक यह बताना चाहता है कि देश की सेवा केवल बड़े या मशहूर कामों तक सीमित नहीं है, बल्कि हर व्यक्ति अपनी-अपनी भूमिका निभाकर देश के लिए महत्वपूर्ण योगदान कर सकता है। 

 

पाठ– हाँ जी, युद्ध में जय बोलने वालों का भी बहुत महत्त्व है। कभी मैच देखने का तो अवसर ‘मिला ही होगा आपको? देखा नहीं आपने कि दर्शकों की तालियों से खिलाड़ियों के पैरों में बिजली लग जाती है और गिरते खिलाड़ी उभर जाते हैं। कवि-सम्मेलनों और मुशायरों की सारी सफलता दाद देने वालों पर ही निर्भर करती है। इसलिए मैं अपने देश का कितना भी साधारण नागरिक क्यों न हूँ, अपने देश के सम्मान की रक्षा के लिये बहुत कुछ कर सकता हूँ। “अकेला चना क्या भाड़ फोड़े।” यह कहावत मैं अपने अनुभव के आधार पर ही आपसे कह रहा हूँ कि सौ फीसदी झूठ है। इतिहास साक्षी है, बहुत बार अकेले चने ने ही भाड़ फोड़ा है और ऐसा फोड़ा है कि भाड़ खील-खील ही नहीं हो गया, उसका निशान तक ऐसा छूमंतर हुआ कि कोई यह भी न जान पाया कि वह बेचारा आखिर था कहाँ?
मैं जानता हूँ इतिहास की गहराइयों में उतरने का यह समय नहीं है, पर दो छोटी कहानियाँ तो सुन ही सकते हैं आप। और कहानियाँ भी न प्रेमचन्द की, न एंटन चेखोव की, दो युवकों के जीवन की दो घटनाएँ हैं, पर उन दो घटनाओं में वह गाँठ इतनी साफ है, जो नागरिक और देश को एक साथ बाँधती है कि आप बड़ी-बड़ी पुस्तकें पढ़कर भी उसे इतनी साफ नहीं देख सकते।

शब्दार्थ-
जय बोलना- उत्साह बढ़ाने वाली आवाज़ लगाना
अवसर- मौका
दर्शक- देखने वाले, ऑडियंस
उभरना- दोबारा साहस पाना, हिम्मत वापस आना
कवि-सम्मेलन- कविता पढ़ने का कार्यक्रम
मुशायरों उर्दू फारसी का कवि सम्मेलन
दाद देना- प्रशंसा करना, तालियाँ बजाना
निर्भर- आधारित
साधारण- सामान्य, आम
नागरिक- देश का निवासी
सम्मान- इज्ज़त, आदर
अकेला चना क्या भाड़ फोड़े– हिंदी में प्रसिद्ध कहावत-इसका अर्थ है अकेला व्यक्ति बड़ा काम नहीं कर सकता, सामूहिक प्रयास और सहयोग जरूरी है
सौ फीसदी- सौ प्रतिशत, पूरी तरह
इतिहास- भूतकाल की सच्ची घटनाएँ
साक्षी- गवाही देने वाला
नागरिक देश का निवासी
स्पष्ट- साफ़, अलग

व्याख्या- लेखक बताता है कि युद्ध में केवल लड़ने वाले ही नहीं, बल्कि जज्बा बढ़ाने वाले, यानी ‘जय बोलने वाले’ भी बहुत जरूरी होते हैं। जैसे खेलों में दर्शकों की तालियों से खिलाड़ियों में ऊर्जा आ जाती है और वे फिर से उठकर अच्छी तैयारी से खेलते हैं। कवि-सम्मेलनों में भी दाद देने वाले दर्शकों की वजह से कविता का जादू चलता है।
इसीलिए लेखक कहता है कि चाहे वह कितना भी सामान्य नागरिक क्यों न हो, वह अपने देश के सम्मान की रक्षा के लिए बहुत कुछ कर सकता है। वह कहता है कि जो कहावत है ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता’ वह पूरी तरह सही नहीं है। इतिहास में कई बार ऐसा हुआ है कि एक अकेले व्यक्ति ने बड़ा परिवर्तन किया और उसका प्रभाव इतना गहरा हुआ कि वह काम सब पर छा गया।
लेखक आगे कहता है कि बहुत गहरे इतिहास में जाने का समय नहीं है, लेकिन वह दो छोटी कहानियाँ सुनाएगा जो सहज और प्रभावशाली उदाहरण हैं। ये कहानियाँ न तो लेखक प्रेमचन्द की हैं, न रूस के लेखक एंटन चेखोव की, बल्कि दो युवा व्यक्तियों की जीवन की घटनाएँ हैं, जिनमें देश और नागरिक के मध्य मजबूत और साफ़ रिश्ता दिखता है। ऐसे संबंध बड़े-पाठ्य पुस्तकें भी अच्छी तरह नहीं समझा पातीं।

 

पाठ– हमारे देश के महान संत स्वामी रामतीर्थ एक बार जापान गये। वे रेल में यात्रा कर रहे थे कि एक दिन ऐसा हुआ कि उन्हें खाने को फल न मिले और उन दिनों फल ही उनका भोजन था। गाड़ी एक स्टेशन पर ठहरी, तो वहाँ भी उन्होंने फलों की खोज की पर वे पा न सके। उनके मुँह से निकला, “जापान में शायद अच्छे फल नहीं मिलते।”
एक जापानी युवक प्लेटफार्म पर खड़ा था। वह अपनी पत्नी को रेल में बैठाने आया था, उसने ये शब्द सुन लिए। सुनते ही वह अपनी बात बीच में ही छोड़कर भागा और कहीं दूर से एक टोकरी ताजे फल लाया। वे फल उसने स्वामी रामतीर्थ को भेंट करते हुए कहा, “लीजिए, आपको ताज़े फलों की जरूरत थी।”
स्वामी जी ने समझा यह कोई फल बेचने वाला है और उनके दाम पूछे पर उसने दाम लेने से इन्कार कर दिया। बहुत आग्रह करने पर उसने कहा, “आप इनका मूल्य देना ही चाहते हैं तो वह यह है कि आप अपने देश में जाकर किसी से यह न कहिएगा कि जापान में अच्छे फल नहीं मिलते।”

शब्दार्थ-
महान संत- बहुत बड़े तपस्वी या धार्मिक गुरु
स्टेशन- ट्रेनों के रुकने का स्थान
प्लेटफार्म- स्टेशन का वह हिस्सा जहाँ यात्री खड़े होते हैं
भेंट- उपहार
मूल्य- कीमत, दाम
इंकार- मना करना
आग्रह- हठ, हठपूर्वक प्रार्थना

व्याख्या- लेखक ने इस अंश में एक बात बताई है जिसमें हमारे देश के महान संत स्वामी रामतीर्थ एक बार जापान की यात्रा पर गए थे। यात्रा के दौरान वे रेल में सफर कर रहे थे और एक दिन ऐसा हुआ कि उनके पास खाने के लिए फल नहीं थे, क्योंकि वे उस समय फल ही अपना भोजन मानते थे। जब ट्रेन किसी स्टेशन पर रुकी तो उन्होंने वहाँ भी फलों की खोज की, लेकिन कहीं से अच्छे फल नहीं मिले। तब उन्होंने कहा कि जापान में शायद अच्छे फल नहीं मिलते।
यह बात एक जापानी युवक को सुनाई दी, जो अपनी पत्नी को रेल में बैठाने के लिए प्लेटफार्म पर खड़ा था। उसने तुरंत अपनी बात बीच में छोड़ दी और कहीं दूर से ताज़े फलों की एक टोकरी लेकर स्वामी रामतीर्थ को दी। जब स्वामी जी ने पूछा कि इनके दाम क्या हैं, तो उस युवक ने मना कर दिया कि वह कोई पैसे नहीं लेगा। युवक ने कहा कि अगर आप इन फलों का मूल्य देना चाहते हैं तो वह यह है कि आप अपने देश जाकर किसी से यह न कहिएगा कि जापान में अच्छे फल नहीं मिलते।
यह घटना हमे सिखाती है कि देश के लिए सम्मान बनाए रखना हर नागरिक की जिम्मेदारी है, और यह सम्मान छोटे-छोटे कार्यों और भावनाओं से ही बनता है।

 

पाठ– इस गौरव की ऊँचाई का अनुमान आप दूसरी घटना सुनकर ही पूरी तरह लगा सकेंगे। एक दूसरे देश का निवासी एक युवक जापान में शिक्षा लेने आया। एक दिन वह सरकारी पुस्तकालय से कोई पुस्तक पढ़ने को लाया। इस पुस्तक में कुछ दुर्लभ चित्र थे। ये चित्र इस युवक ने पुस्तक में से निकाल लिए और पुस्तक वापस कर आया। किसी जापानी विद्यार्थी ने यह देख लिया और पुस्तकालय को उसकी सूचना दे दी। पुलिस ने तलाशी लेकर वे चित्र उस विद्यार्थी के कमरे से बरामद किए और उस विद्यार्थी को जापान से निकाल दिया गया।
मामला यहीं तक रहता, तो कोई बात न थी। अपराधी को दंड मिलना ही चाहिए पर मामला यहीं तक नहीं रुका और उस पुस्तकालय के बाहर बोर्ड पर लिख दिया गया कि उस देश का (जिसका वह विद्यार्थी था) कोई निवासी इस पुस्तकालय में प्रवेश नहीं कर सकता।
मतलब साफ है, एक दम साफ कि जहाँ एक युवक ने अपने काम से अपने देश का सिर ऊँचा किया था, वहीं एक युवक ने अपने काम से अपने देश के मस्तक पर कलंक का ऐसा टीका लगाया, जो जाने कितने वर्षों तक संसार की आँखों में उसे लांछित करता रहा।

शब्दार्थ-
गौरव- आदर, सम्मान
अनुमान- अंदाज़ा लगाना
निवासी- रहने वाला व्यक्ति
शिक्षा- पढ़ाई, ज्ञान प्राप्ति
पुस्तकालय- पुस्तकें रखने और पढ़ने की जगह
दुर्लभ- कठिनता से प्राप्त होने वाला
बरामद करना- जब्त करना
मामला विषय, घटना
दंड- सजा
बोर्ड- सूचना पट्ट
प्रवेश- किसी स्थान में जाना
सिर ऊँचा होना– सम्मानित होना
मस्तक- सिर, सम्मानित स्थान
लांछित बदनाम, कलंकित

व्याख्या- इस अंश में लेखक एक और घटना सुनाकर देश के सम्मान की महत्ता को और अधिक स्पष्ट करता है। एक दूसरे देश का एक युवक जापान में पढ़ाई करने गया। उसने एक दिन सरकारी पुस्तकालय से एक किताब ली, जिसमें कुछ दुर्लभ चित्र थे। उसने उन चित्रों को निकाल कर किताब वापस कर दी। किसी जापानी विद्यार्थी ने यह देखा और पुस्तकालय को सूचना दे दी। पुलिस ने उस युवक के कमरे से चित्र बरामद कर उसे जापान से बाहर कर दिया।
अगर बात यहीं खत्म हो जाती, तो यह ठीक होता क्योंकि अपराधी को दंड मिलना चाहिए। लेकिन मामला यहीं नहीं रुका। पुस्तकालय के बाहर यह भी लिख दिया गया कि उस देश के किसी भी निवासी को इस पुस्तकालय में आने की अनुमति नहीं होगी।
इससे साफ हो जाता है कि जहाँ एक युवक ने अपने अच्छे काम से अपने देश का नाम ऊँचा किया, वहीं दूसरे युवक के गलत काम ने देश के सिर पर दाग लगवा दिया। यह कलंक लंबे समय तक उस देश के लोगों की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाता रहा।
लेखक इस घटना के माध्यम से यह बताना चाहता है कि हर नागरिक का व्यवहार और काम उसके देश की छवि पर प्रभाव डालता है। इसीलिए हर व्यक्ति को अपने देश के सम्मान और गौरव को बनाए रखना चाहिए, क्योंकि एक गलत काम भी वर्षों तक देश की छवि को खराब कर सकता है।

 

पाठ– इन घटनाओं से क्या यह स्पष्ट नहीं है कि हरेक नागरिक अपने देश के साथ बँधा हुआ है और देश की हीनता और गौरव का फल उसे ही नहीं मिलता, उसकी हीनता और गौरव का फल उसके देश को भी मिलता है।
मैं अपने देश का एक नागरिक हूँ और मानता हूँ कि मैं ही अपना देश हूँ। जैसे मैं अपने लाभ और सम्मान के लिए हरेक छोटी-छोटी बात पर ध्यान देता हूँ, वैसे ही मैं अपने देश के लाभ और सम्मान के लिए भी छोटी-छोटी बात पर ध्यान दूँ, यह मेरा कर्त्तव्य है और जैसे मैं अपने सम्मान और साधनों से अपने जीवन में सहारा पाता हूँ, वैसे ही देश के सम्मान और साधनों से ही सहारा पाऊँ, यह मेरा अधिकार है। बात यह है कि मैं और मेरा देश दो अलग चीज़ तो हैं ही नहीं।
मैंने जो कुछ जीवन में अध्ययन और अनुभव से सीखा है, वह यही है कि महत्त्व किसी कार्य की विशालता में नहीं है, उस कार्य के करने की भावना में है। बड़े से बड़ा कार्य हीन है, यदि उसके पीछे अच्छी भावना नहीं है और छोटे से छोटा कार्य भी महान है, यदि उसके पीछे अच्छी भावना है।

शब्दार्थ-
साधन- सुविधाएँ, संसाधन
अध्ययन- पढ़ाई, अध्ययन
विशालता- बड़ाई, बड़ा रूप
भावना- मन की कल्पना
महान- बड़ा, श्रेष्ठ

व्याख्या- लेखक कहता है कि हर नागरिक का अपने देश से गहरा संबंध होता है। देश की गरिमा और गिरावट का असर केवल देश पर नहीं, बल्कि उसके नागरिकों पर भी पड़ता है। देश की हीनता से नागरिकों की भी स्थिति हीन हो जाती है, और देश के गौरव से नागरिकों को भी सम्मान मिलता है।
लेखक कहता है कि वह अपने देश का एक नागरिक है और यह समझता है कि वह अपने देश का हिस्सा है।
जैसे वह अपनी व्यक्तिगत सफलताओं और सम्मान के लिए छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखता है, वैसे ही उसे देश के लाभ और सम्मान के लिए भी हर छोटी-छोटी बात का ख्याल रखना चाहिए। यह उसका कर्तव्य है। साथ ही, वह उम्मीद करता है कि देश का सम्मान और संसाधन उसे भी सुरक्षा और सहारा प्रदान करे।
लेखक यह भी कहता है कि वह और उसका देश अलग नहीं हैं, दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। उसने जीवन में यह सीखा है कि काम की महत्ता उसकी बड़ी या छोटी प्रकृति में नहीं, बल्कि उसे करने की भावना में होती है। बड़ा काम तब छोटा लगने लगता है जब उसमें सच्ची भावना न हो, और छोटा सा काम भी महान बन जाता है यदि उसमें सेवा और देशभक्ति की भावना हो।

 

पाठ- महान कमालपाशा उन दिनों अपने देश तुर्की के राष्ट्रपति थे। राजधानी में उनकी वर्षगाँठ बहुत धूमधाम से मनाई गई। देश के लोगों ने उस दिन लाखों रुपए के उपहार उन्हें भेंट किए। वर्षगाँठ का उत्सव समाप्त कर जब वे अपने भवन के ऊपर चले गए तो एक देहाती बूढ़ा उन्हें वर्षगाँठ का उपहार भेंट करने आया। सेक्रेटरी ने कहा, “अब तो समय बीत गया है।” बूढ़े ने कहा, “मैं तीस मील से पैदल चलकर आ रहा हूँ, इसलिए मुझे देर हो गई।”
राष्ट्रपति तक उसकी सूचना भेजी गई। कमालपाशा विश्राम के वस्त्र बदल चुके थे। वे उन्हीं कपड़ों के नीचे चले आए और उन्होंने आदर के साथ बूढ़े किसान का उपहार स्वीकार किया। यह उपहार मिट्टी की छोटी-सी हँडिया में पाव-भर शहद था, जिसे बूढ़ा स्वयं तोड़कर लाया था। कमालपाशा ने हँडिया को स्वयं खोला और उसमें दो उँगलियाँ भरकर चाटने के बाद तीसरी ऊँगली शहद से भरकर बूढ़े के मुँह में दे दी। बूढ़ा निहाल हो गया।
राष्ट्रपति ने कहा, “दादा, आज सर्वोत्तम उपहार तुमने ही मुझे भेंट किया, क्योंकि इसमें तुम्हारे हृदय का शुद्ध प्यार है।” उन्होंने आदेश दिया कि राष्ट्रपति की शाही कार में शाही-सम्मान के साथ उनके दादा को गाँव तक पहुँचाया जाए। क्या वह शहद बहुत कीमती था? क्या उसमें मोती हीरे मिले हुए थे? न, उस शहद के पीछे उसके लाने वाले की भावना थी, जिसने उसे सौ लालों का एक लाल बना दिया।

शब्दार्थ-
राष्ट्रपति- देश का सर्वाेच्च संवैधानिक पदाधिकारी
राजधानी- देश का मुख्य शहर
वर्षगाँठ- किसी घटना की सालगिरह
धूमधाम- बहुत जोश और उत्साह के साथ
उपहार तोहफा
भवन- इमारत, घर
देहाती- गाँव का रहने वाला
सेक्रेटरी सचिव, प्रमुख सहायक अधिकारी
पैदल- अपने पैरों से चलना
विश्राम- आराम
आदर- सम्मान
हँडिया- एक तरह की मिट्टी का बर्तन
पाव-भर- 250 ग्राम
शहद- मधुमक्खी द्वारा बनाया गया मीठा पदार्थ
निहाल- प्रसन्न एवं संतुष्ट
हृदय- मन, दिल
आदेश-  हुक्म, निर्देश
शाही कार राष्ट्रपति के उपयोग की विशेष गाड़ी
शाही-सम्मान विशेष सम्मान
सौ लालों का एक लाल– सबसे विशेष, श्रेष्ठ

व्याख्या- इस गद्याँश में लेखक बताते हैं कि महान कमालपाशा, जो तुर्की के राष्ट्रपति थे, उनकी अपनी राजधानी में उनके जन्मदिन पर बड़े धूमधाम से जश्न मनाया गया। उस दिन देश के लोगों ने उन्हें लाखों रुपए के महंगे उपहार दिए। लेकिन जब जश्न खत्म हुआ और राष्ट्रपति अपने भवन की छत पर गए, तो वहाँ एक बूढ़ा किसान आया जो मौका चूक गया था क्योंकि वह तीस मील पैदल चलकर आया था। सचिव ने कहा कि अब समय निकल चुका है, लेकिन राष्ट्रपति के पास बुजुर्ग के उपहार के बारे में सूचना पहुँची।
उस समय कमालपाशा अपने आराम वाले कपड़े पहन चुके थे। उन्होंने उसी कपड़े में जाकर बूढ़े किसान से मुलाकात की और बहुत आदर के साथ उसके उपहार को स्वीकार किया। वह उपहार मिट्टी की एक छोटी सी हँडिया में भरा हुआ शहद था, जिसे वह बूढ़ा खुद तोड़कर लाया था। राष्ट्रपति ने उस शहद को खुद खोला, दो उंगलियाँ उसमें से चाटीं और तीसरी उंगली से शहद बूढ़े के मुँह में डाल दिया। बूढ़ा बहुत खुश हुआ।
कमालपाशा ने कहा कि यह सबसे खास उपहार था क्योंकि इसमें बूढ़े की सच्ची भावना और प्यार था। उन्होंने आदेश दिया कि बूढ़े किसान को शाही गाड़ी में बैठाकर बड़े सम्मान के साथ गाँव तक छोड़ दिया जाए। शहद की कीमत उसकी असली कीमत नहीं थी, बल्कि उस में उस बूढ़े की भावना और लगन थी जिसने उसे अनमोल बना दिया।

 

पाठ – हमारे देश में भी एक ऐसी ही घटना घटी थी। एक किसान ने रंगीन सुतलियों से एक खाट बुनी और उसे रेल में रखकर वह दिल्ली लाया। दिल्ली स्टेशन से उस खाट को अपने कंधे पर रख, वह भारत के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की कोठी पर पहुँचा। पंडित जी कोठी से बाहर आए तो वह खाट उसने उन्हें दी। पंडित जी को देखकर, वह इतना भाव-मुग्ध हो गया कि कुछ कह ही न सका। पंडित जी ने पूछा, “क्या चाहते हो तुम?”
उसने कहा, “यही कि आप इसे स्वीकार करें।” प्रधानमंत्री ने उसका यह उपहार प्यार से स्वीकार किया और अपना एक फोटो दस्तखत करके उसे स्वयं भी उपहार में दिया। जिस दस्तख़ती फोटो के लिए देश के बड़े-बड़े लोग, विद्वान और धनी तरसते हैं, वह क्या उस मामूली खाट के बदले में दिया गया था? न, वह तो उस खाट वाले की भावना का ही सम्मान था।
“क्यों जी, हम यह कैसे जान सकते हैं कि हमारा काम देश के अनुकूल है या नहीं?”
वाह, क्या सवाल पूछा है, आपने! सवाल क्या बातचीत में आपने तो एक कीमती मोती ही जड़ दिया यह, पर इसके उत्तर में सिर्फ़ “हाँ” या “न” से काम न चलेगा। मुझे थोड़ा विवरण देना पड़ेगा।
हम अपने कार्यों को देश के अनुकूल होने की कसौटी पर कस कर चलने की आदत डालें, यह बहुत उचित है, बहुत सुन्दर है, पर हम इसमें तब तक सफल नहीं हो सकते, जब तक कि हम अपने देश की भीतरी दशा को ठीक-ठीक न समझ लें और उसे हमेशा अपने सामने न रखें।

शब्दार्थ-
रंगीन सुतली- रंग-बिरंगी डोरी
खाट- चारपाई
कोठी बंगला, बड़ा घर
भाव-मुग्ध- भावनाओं से अभिभूत
स्वीकार करना- मान लेना, ग्रहण करना
दस्तखत- हस्ताक्षर
विद्वान- ज्ञानी व्यक्ति
धनी- अमीर व्यक्ति
मामूली- साधारण
देश के अनुकूल– देशहित में
|विवरण- विस्तार
कसौटी- परख, जाँच

व्याख्या- यह अंश हमारे देश की एक घटना बताता है, जिसमें एक साधारण किसान ने अपनी मेहनत और लगन से रंगीन सुतलियों से एक सुंदर खाट बनाई। वह इस खाट को रेल में रखकर राजधानी दिल्ली तक लाया, और वहाँ से वह खाट अपने कंधे पर उठाकर सीधे भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की कोठी तक पहुँचा। जब प्रधानमंत्री जी बाहर निकले, तो किसान ने उनके सामने अपने प्यार और सम्मान से बना यह उपहार रखा। प्रधानमंत्री की गरिमामय उपस्थिति देखकर किसान इतना भावुक हो गया कि कुछ बोल नहीं पाया।
प्रधानमंत्री ने उस खाट को बड़ी सादगी और सम्मान के साथ स्वीकार किया। उन्होंने उस किसान से पूछा कि वह क्या चाहता है। किसान ने केवल इतना कहा कि वह चाहते हैं कि यह खाट प्रधानमंत्री स्वीकार करें। पंडित नेहरू ने पूरी मेहनत से बने इस खाट को स्वीकार किया और अपने हाथ से हस्ताक्षरित एक फोटो भी उस किसान को उपहार में दी। यह फोटो देश के महान और प्रतिष्ठित नेताओं की निशानी होती है, जिसे आमतौर पर विद्वान और अमीर लोग पाना चाहते हैं। इसका मतलब यह था कि प्रधानमंत्री ने उस खाट या किसान के प्रति अपने सम्मान और प्यार का इजहार किया। यह दिखाता है कि उपहार की मूल्यवानता उसकी भौतिक स्थिति से नहीं, बल्कि भावनाओं और सच्चे मन से होती है।
इसके बाद लेखक ने सवाल उठाया कि कैसे हम जान पाएँगे कि हमारा काम देश हित में है या नहीं। लेखक ने कहा कि यह सवाल बहुत ही महत्वपूर्ण है, और इसका उत्तर केवल हाँ या न में नहीं दिया जा सकता। हमें अधिक विस्तार से सोचने और समझने की जरूरत है। हमें अपने हर काम को देश की भलाई की कसौटी पर कसना चाहिए। यह आदत हमारे लिए बहुत अच्छी और उपयोगी होगी, लेकिन सफलता तभी मिलेगी जब हम देश की वास्तविक स्थिति को ठीक से समझेंगे और उसे हमेशा अपने मन में रखेंगे। तभी हम अपने कार्यों को सही दिशा में कर पाएंगे जो देश के लिए लाभकारी होंगे।

 

पाठ– हमारे देश को दो बातों की सबसे पहले और सबसे ज्यादा जरूरत है। एक शक्ति-बोध और दूसरा सौंदर्य-बोध ! बस, हम यह समझ लें कि हमारा कोई भी काम ऐसा न हो जो देश में कमज़ोरी की भावना को बल दे या कुरुचि की भावना को।
“जरा अपनी बात को और स्पष्ट कर दीजिए।” यह आपकी राय है और मैं इससे बहुत ही खुश हूँ कि आप मुझसे यह स्पष्टता माँग रहे हैं।
क्या आप चलती रेलों में, मुसाफिरखानों में, क्लबों में, चौपालों पर और मोटर-बसों में कभी ऐसी चर्चा करते हैं कि हमारे देश में यह नहीं हो रहा है, वह नहीं हो रहा है और यह गड़बड़ है, वह परेशानी है। साथ ही क्या इन स्थानों में या इसी तरह के दूसरे स्थानों में आप कभी अपने देश के साथ दूसरे देशों की तुलना करते हैं और इस तुलना में अपने देश को हीन और दूसरे देशों को श्रेष्ठ सिद्ध करते हैं।
यदि इन प्रश्नों का उत्तर हाँ है, तो आप देश के शक्ति-बोध को भयंकर चोट पहुँचा रहे हैं। और आपके हाथों देश के सामूहिक मानसिक बल का ह्रास हो रहा है। सुनी है आपने शल्य की बात । वह महाबली कर्ण का सारथी था। जब भी कर्ण अपने पक्ष की विजय की घोषणा करता, हुंकार भरता, वह अर्जुन की अजेयता का एक हलका-सा उल्लेख कर देता। बार-बार इस उल्लेख ने कर्ण के सघन आत्मविश्वास में संदेह की तरेड़ डाल दी, जो उसके भावी पराजय की नींव रखने में सफल हो गई।

शब्दार्थ-
शक्ति-बोध- अपनी सामर्थ्य, आत्मविश्वास और देश के प्रति गर्व की भावना
सौंदर्य-बोध- साफ-सफाई, संस्कृति, सुंदरता और अच्छे व्यवहार की समझ
कुरुचि – बुरी लगन
राय- सलाह, मत
चर्चा- बातचीत
मुसाफिरखाना- यात्री ठहरने का स्थान
चौपाल- गाँव का बैठक स्थल
श्रेष्ठ- उत्तम, सबसे अच्छा
भयंकर- बहुत गहरा, गंभीर
सामूहिक- समूह से संबंधित
मानसिक बल मन की ताकत
ह्रास- कमी, अभाव
महाबली- महान शक्तिशाली
सारथी- रथ हांकने वाला
पक्ष- दल, टीम
विजय- जीत
घोषणा- घोषणा करना, बताना
हुंकार- गर्जना, नारा
अजेयता- जिसे हराया न जा सके
उल्लेख- चर्चा, वर्णन
सघन- घना, मजबूत
आत्मविश्वास- खुद पर विश्वास
संदेह शक
तरेड़- दरार
भावी- आगे का, भविष्य
पराजय- हार
नींव- आधार

व्याख्या- लेखक यहाँ कहता है कि हमारे देश को सबसे पहले दो चीजों की बहुत ज़रूरत है, एक शक्ति-बोध और दूसरा सौंदर्य-बोध। शक्ति-बोध का मतलब है देश के प्रति आत्मविश्वास, अपनी क्षमता और ताकत का अहसास। सौंदर्य-बोध से तात्पर्य है देश की संस्कृति, स्वच्छता, और सुंदरता का सम्मान और उसे बनाए रखने की भावना। लेखक चाहता है कि हम ऐसा कोई भी काम न करें जिससे देश में कमजोरी या चिंता की भावना बढ़े या कोई भी चीज़ देश के प्रति नकारात्मक सोच को बढ़ावा दे।
फिर वह समझाता है कि क्या कभी आप रेलों, मुसाफिरखानों, क्लबों या चौपालों में इस तरह की बातें करते हैं कि हमारे देश में चीज़ें ठीक नहीं चल रही, दूसरे देश बेहतर हैं, हमारा देश उनसे कमतर है? अगर हाँ, तो आप देश के आत्मविश्वास को चोट पहुँचा रहे हैं। ऐसा करने पर देश के लोगों का सामूहिक मनोबल नीचे गिरता है और देश कमजोर दिखने लगता है।
लेखक महाभारत की एक कहानी का जिक्र करता है जिसमें महाबली कर्ण का सारथी शल्य था। जब भी कर्ण अपनी जीत का प्रचार करता, सारथी शल्य अर्जुन की अजेयता का बार-बार जिक्र करके कर्ण के आत्मविश्वास में दरार डाल देता था। इस कारण कर्ण के आत्मविश्वास में संदेह आने लगा जो अंततः उसकी हार की वजह बना।
लेखक हमें समझाना चाहता है कि अपनी भाषा, सोच और व्यवहार से हमें देश के आत्मसम्मान और शक्ति-बोध को बढ़ावा देना चाहिए, न कि उसे कमजोर करना। यही देश के उत्थान के लिए जरूरी है।

 

पाठ– अच्छा, आप इस तरह की चर्चा कभी नहीं करते, तो मैं आपसे दूसरा प्रश्न पूछता हूँ। क्या आप कभी केला खाकर छिलका रास्ते में फेंकते हैं? अपने घर का कूड़ा बाहर फेंकते हैं? मुँह में गंदे शब्दों से गंदे भाव प्रकट करते हैं? इधर की उधर, उधर की इधर, लगाते हैं? अपना घर, दफ़्तर, गली, गंदा रखते हैं? होटलों, धर्मशालाओं में या दूसरे ऐसे ही स्थानों में, जीनों में, कोनों में पीक थूकते हैं। उत्सवों, मेलों, रेलों और खेलों में ठेलमठेल करते हैं, निमंत्रित होने पर समय से लेट पहुँचते हैं यह वचन देकर भी घर आने वालों को समय पर नहीं मिलते और इसी तरह किसी भी रूप में क्या सुरुचि और सौंदर्य को आपके किसी काम से ठेस लगती है?
यदि आपका उत्तर हाँ है, तो आपके द्वारा देश के सौंदर्य-बोध को भयंकर आघात लग रहा है और आपके द्वारा देश की संस्कृति को गहरी चोट पहुँच रही है।
“क्या कोई ऐसी कसौटी भी बनाई जा सकती है, जिससे देश के नागरिकों को आधार बनाकर देश की उच्चता और हीनता को हम तोल सकें।”
लीजिए चलते-चलते आपको इस प्रश्न का भी उत्तर दे ही दूँ। इस उच्चता और हीनता की कसौटी है, चुनाव।
जिस देश के नागरिक यह समझते है कि चुनाव में किसे अपना मत देना चाहिए और किसे नहीं, वह देश उच्च है और जहाँ के नागरिक गलत लोगों के उत्तेजक नारों या व्यक्तियों के गलत प्रभाव में आकर मत देते हैं, वह हीन है।
इसीलिए मैं कह रहा हूँ कि मेरा, यानि हरेक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह जब भी कोई चुनाव हो, ठीक मनुष्य को अपना मत दें और मेरा अधिकार है कि मेरा मत लिए बिना कोई भी आदमी, वह संसार का सर्वश्रेष्ठ महापुरुष ही क्यों न हो, किसी अधिकार की कुर्सी पर न बैठ सके।

शब्दार्थ-
भाव- भावना, सोच
दफ़्तर- कार्यालय
गली- छोटा रास्ता
होटल- भोजनालय, विश्राम गृह
धर्मशाला- यात्रियों के लिए ठहरने का स्थान
जीनों में- सीढ़ियों में
पीक- सुपारी/गुटखा आदि का थूकना
उत्सव- त्योहार
ठेलमठेल- धक्कम धक्का
निमंत्रण बुलावा
कीमती- महँगा
ठेस- चोट, नुकसान
सौंदर्य-बोध – सुंदरता की पहचान
संस्कृति सभ्यता, परंपरा
आघात गहरी चोट
कसौटी- परीक्षा, परखने का मापदंड
मतदान वोट देना
मान्यता- विश्वास
उत्तेजक- भड़काने वाला
सर्वश्रेष्ठ- सबसे अच्छा
महापुरुष बड़ा या महान व्यक्ति

व्याख्या- यह अंश हमें देश के सौंदर्य-बोध और नागरिक कर्तव्य के महत्वपूर्ण पक्षों से अवगत कराता है। लेखक सबसे पहले पूछता है कि क्या हम कभी अपने आस-पास गंदगी फैलाते हैं या आस-पास के स्थानों की स्वच्छता का ध्यान नहीं रखते। उदाहरण के तौर पर, क्या कभी केले का छिलका सड़क पर फेंका है, घर का कूड़ा बाहर गिराया है, गंदे शब्द बोलकर दूसरों के भाव भड़काए हैं, गली-चौपाल या ऑफिस को गंदा रखा है, सार्वजनिक स्थानों जैसे होटलों, धर्मशालाओं या बस्तियों में अनुचित व्यवहार किया है, उत्सव या खेलों में धक्का-मुक्की की है, निमंत्रण मिलने पर भी समय पर नहीं पहुंचे हैं। यदि इन सबका जवाब हाँ है, तो इससे हम देश के सौंदर्य-बोध को चोट पहुँचाते हैं और देश की संस्कृति का नुकसान करते हैं।
फिर लेखक सवाल करता है कि क्या देश के नागरिकों की उच्चता या हीनता को मापने के लिए कोई कसौटी हो सकती है। वह खुद इसका उत्तर देता है कि यह कसौटी चुनाव होते हैं। जहाँ के नागरिक समझदारी और विवेक से चुनाव में सही व्यक्ति को वोट देते हैं, वह देश उच्च होता है। लेकिन जहाँ नागरिक भ्रामक और गलत व्यक्तियों के प्रभाव में आकर वोट देते हैं, वह देश हीन हो जाता है।
लेखक जोर देकर कहता है कि हर नागरिक का कर्त्तव्य है कि चुनाव के समय सही, ईमानदार और योग्य व्यक्ति को अपना मत दें। उनका मत व्यक्तिगत अधिकार है और बिना उनके मत के कोई भी व्यक्ति जो सबसे बड़ा महापुरुष हो अपने आप सत्ता में नहीं आ सकता। देश की स्वच्छता और सम्मान दोनों में नागरिकों की जिम्मेदारी होती है। उसका व्यवहार और चुनाव दोनों देश की ताकत और गरिमा तय करते हैं।

 

Conclusion

इस पोस्ट में ‘मैं और मेरा देश’ पाठ का सारांश, व्याख्या और शब्दार्थ दिए गए हैं। यह पाठ PSEB कक्षा 10 के पाठ्यक्रम में हिंदी की पाठ्यपुस्तक से लिया गया है। कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ द्वारा लिखित यह निबंध देश के प्रति हमारे कर्तव्य-बोध और सम्मान की महत्वपूर्ण भावना को बड़े सुंदर और प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करता है। यह पोस्ट विद्यार्थियों को पाठ को सरलता से समझने, उसके मुख्य संदेश को ग्रहण करने और परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने में सहायक सिद्ध होगा।