दोहावली पाठ सार
PSEB Class 10 Hindi Book Chapter 1 “Dohawali” Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings
दोहावली सार – Here is the PSEB Class 10 Hindi Book Chapter 1 Dohawali Summary with detailed explanation of the lesson “Dohawali” along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary
इस पोस्ट में हम आपके लिए पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड कक्षा 10 हिंदी पुस्तक के पाठ 1 दोहावली पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 दोहावली पाठ के बारे में जानते हैं।
Dohawali ( दोहावली)
तुलसीदास

गोस्वामी तुलसीदास हिंदी साहित्य और भक्तिकाल के महान कवि माने जाते हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से श्रीराम के चरित्र, भक्ति और जीवन मूल्यों का अत्यंत सरल और प्रभावशाली वर्णन किया है। दोहावली उनकी प्रमुख कृतियों में से एक है, जिसमें छोटे-छोटे दोहों के माध्यम से गहन जीवन-दर्शन प्रस्तुत किया गया है। इन दोहों में गुरु की महिमा, राम-नाम का महत्व, संतों की संगति, भक्त की श्रेष्ठता, नीति, ईर्ष्या से होने वाला अहित और प्रभु पर विश्वास जैसे कई विषय शामिल हैं।
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दोहावली पाठ सार Dohawali Summary
तुलसीदास जी की दोहावली भक्ति और जीवन मूल्यों से जुड़ी शिक्षाओं का अद्भुत संकलन है। इसमें उन्होंने अपने गुरु, श्रीराम, संतों, भक्तों और जीवन के व्यवहारिक पहलुओं की महत्ता को सरल और रोचक शैली में प्रस्तुत किया है।
सबसे पहले वे गुरु के चरणों की महिमा बताते हैं कि गुरु की कृपा से मन शुद्ध होकर भगवान के यश का वर्णन संभव होता है। इसके बाद वह राम-नाम की शक्ति बताते हैं, जिसे जीभ पर जपने से भीतर और बाहर दोनों ओर प्रकाश फैलता है और अज्ञान का नाश होता है। संतों की तुलना हंस से करते हुए वे कहते हैं कि संतजन केवल गुणों को ग्रहण करते हैं और दोषों को छोड़ देते हैं। श्रीराम के विनम्र स्वभाव को दिखाते हुए वे बताते हैं कि प्रभु ने वानरों को सेवक होते हुए भी अपने समान सम्मान दिया।
तुलसीदास जी स्पष्ट करते हैं कि जो भक्त श्री राम में प्रेम रखते हैं और संसार में समता की दृष्टि अपनाते हैं, वे जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाते हैं। वह कहते हैं कि संत-संगति से बड़ा कोई लाभ नहीं है, पर यह केवल भगवान की कृपा से ही संभव है। इसके विपरीत, दूसरों की समृद्धि देखकर ईर्ष्या करने वाला व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य को नष्ट कर लेता है।
तुलसीदास जी भक्त की महिमा का वर्णन करते हैं और कहते हैं कि श्रीराम को समुद्र पार करने के लिए सेतु बाँधना पड़ा, जबकि उनके भक्त हनुमान ने बिना किसी सहारे के समुद्र लांघ लिया। साथ ही वे नीति का उपदेश देते हैं कि यदि गुरु, वैद्य और मंत्री डर या लोभ से केवल प्रिय बातें ही कहें तो धर्म, शरीर और राज्य नष्ट हो जाते हैं। अंत में वह बताते हैं कि भगवान पर विश्वास के बिना भक्ति संभव नहीं है और भगवान की कृपा के बिना जीव को स्वप्न में भी शांति नहीं मिल सकती।
तुलसीदास जी की दोहावली में गुरु भक्ति, राम-नाम का महत्व, संतों की संगति, भक्त की महिमा, समता, ईर्ष्या से बचने की शिक्षा, तथा जीवन में नीति और विश्वास जैसे गहरे संदेश मिलते हैं। ये दोहे न केवल भक्तिपरक हैं, बल्कि जीवन को सही दिशा देने वाले प्रेरणादायी सूत्र भी हैं।
दोहावली पाठ व्याख्या Dohawali Explanation
पाठ
श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि।
बरनऊँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।। 1
शब्दार्थ-
चरन– चरण
सरोज– कमल
रज- धूल
निज– अपना
मुकुरु– दर्पण
सुधारि- सुधारकर, साफ करके
बरनऊँ- वर्णन करूँ
रघुबर- श्रीराम
बिमल– निर्मल
जसु- यश
दायकु– देने वाला
फल चारि- चार फल अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष
अर्थ- श्री गुरु महाराज के चरण-रज से अपने मन रूपी दर्पण को पवित्र करके मैं श्री राम के निर्मल यश का वर्णन करता हूँ, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने वाला है।
व्याख्या- प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास जी सबसे पहले अपने गुरु महाराज को स्मरण करते हैं। वे कहते हैं कि जैसे दर्पण (आईना) धूल से ढक जाने पर मैला हो जाता है और साफ किए बिना उसमें प्रतिबिंब स्पष्ट नहीं दिखता, उसी प्रकार मन भी सांसारिक चीज़ों से मैला हो जाता है। गुरु के चरणों की धूल अर्थात् गुरु के आशीर्वाद और कृपा से कवि अपने मन रूपी दर्पण को पवित्र और निर्मल करते हैं। इसके बाद वे श्रीराम के निर्मल यश का गान करते हैं। श्रीराम के यश का स्मरण करने से मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, ये चारों पुरुषार्थ सहज रूप से प्राप्त होते हैं।
पाठ
राम नाम मनी दीप धरु, जीह देहरी द्वार
तुलसी भीतर बाहरु हुँ, जौ चाहसि उजियार।। 2
शब्दार्थ-
मनी दीप- मणि से बना दीपक
धरु- धरो, रखो
जीह- जीभ
देहरी- दहलीज़
भीतर– अंदर
बाहरु- बाहर
चाहसि- चाहते हो
उजियार- प्रकाश, रोशनी
अर्थ- तुलसीदास जी, श्रीराम के नाम रूपी मणियों से बने दीपक को अपने हृदय में स्थापित करने का उपदेश देते हैं। यह दीपक हृदय के भीतर और बाहर प्रकाश फैलाता है, जिससे अज्ञान का अंधकार नष्ट हो जाता है।
व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं कि यदि मनुष्य अपने हृदय के भीतर और बाहर दोनों ओर प्रकाश चाहता है तो उसे राम-नाम रूपी मणि का दीपक जीभ रूपी देहली पर स्थापित करना चाहिए। जैसे घर की देहली पर रखा दीपक भीतर और बाहर दोनों जगह प्रकाश फैलाता है, वैसे ही जीभ पर रखा राम-नाम भीतर के मन और बाहर के जीवन दोनों को आलोकित कर देता है।
पाठ
जड़ चेतनगुन दोषधय, बिस्व कौन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि बारि विकार ।। 3
शब्दार्थ-
जड़- निर्जीव
चेतन- सजीव
गुन– अच्छाई, सद्गुण
दोष- बुराई, अवगुण
धय– धारण करता है, अपने में समेटता है
बिस्व– संसार
कौन्ह करतार– किसे सृष्टिकर्ता कहा जाए
संत- साधु, ज्ञानी व्यक्ति
गुन गहहिं- गुणों को ग्रहण करते हैं
पय- दूध
परिहरि- दूर करना
बारि- पानी
विकार- दोष, बुराई
अर्थ- तुलसीदास जी ने संतों की तुलना हंस से की है। जैसे हंस दूध और पानी को अलग कर केवल दूध पी लेता है, वैसे ही संत इस संसार में अच्छाई और बुराई को पहचानकर केवल गुणों को अपनाते हैं और दोषों तथा बुराइयों को त्याग देते हैं।
व्याख्या- प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास जी ने संत की तुलना हंस पक्षी से की है और उनके स्वभाव का वर्णन किया है। सृष्टिकर्ता ने संसार को गुण और दोष दोनों से मिलाकर बनाया है। इस संसार में कई गुण-दोष हैं। संतजन हंस की तरह विवेक से अच्छे गुणों को ग्रहण करते हैं और दोषों व विकारों को त्याग देते हैं।
पाठ
प्रभु तरुतर कपि द्वार पर, वे किए आयु समान।
तुलसी कहुँ न राम से, साहिब सील निधान।। 4
शब्दार्थ-
तरु- वृक्ष
तर- नीचे
कपि– बन्दर
साहिब- स्वामी, मालिक
शील निधान– शील (विनम्रता और सद्गुण) का भंडार
अर्थ- इस दोहे में श्रीराम जी के उदार चरित्र का वर्णन है, जहाँ उन्होंने वृक्षों पर रहने वाले साधारण वानरों को भी सम्मान और आदर प्रदान किया।
व्याख्या- प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास जी कहते हैं कि वानरों के स्वामी श्रीराम स्वयं वृक्ष के नीचे विराजते थे, जबकि सेवक होने पर भी वानर पेड़ की डालियों पर बैठे रहते थे। फिर भी प्रभु ने इस अशिष्टता पर ध्यान न देकर उन्हें अपने ही समान मान दिया। तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीराम जैसे शील और विनम्रता के भंडार स्वामी संसार में और कहीं नहीं मिलते।
पाठ
तुलसी ममता राम लो, समता सब संसार।
राग न रोष न दोष दुःख, दास भए भन पार।। 5
शब्दार्थ-
समता- समान भाव, समदृष्टि
राग– प्रेम
रोष– क्रोध
दोष– अवगुण, बुराई
भए भन- बनकर
अर्थ- इस दोहे में तुलसीदास जी बताते हैं कि ईश्वर से प्रेम करने, सबके प्रति समान भाव रखने और विकारों को त्याग देने से मनुष्य भवसागर से पार हो सकता है।
व्याख्या- प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास जी ऐसे भक्त की विशेषता बताते हैं, जो व्यक्ति अपने हृदय में श्रीराम के प्रति गहरी ममता रखते हैं और संसार के सभी लोगों के प्रति समान दृष्टि रखते हैं। ऐसे भक्त किसी से न प्रेम में अति करते हैं, न घृणा रखते हैं, न किसी की बुराई देखते हैं और न ही दूसरों के दुःख से स्वयं दुःखी होते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि ऐसे निष्काम और समभावी भक्त पहले ही भवसागर (जन्म-मरण के चक्र) से पार हो चुके हैं।
पाठ
गिरिजा संत समागम सम, न लाभ कछु आन
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं वेद पुरान। 6
शब्दार्थ-
गिरिजा- पार्वती जी (पर्वतराज हिमालय की पुत्री)
समागम- संगति, मिलन
सम- समान
आन- अन्य, और
बिनु– बिना
हरि कृपा– भगवान की कृपा
न होइ- नहीं होता
गावहिं– गाते हैं, कहते हैं
वेद पुरान– वेद और पुराण (धार्मिक ग्रंथ)
अर्थ- प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास जी कहते हैं कि हे गिरिजा! संतों की संगति से बढ़कर और कोई लाभ नहीं है। लेकिन यह संत-संग केवल श्रीहरि की कृपा से ही संभव है, ऐसा वेद और पुराणों में कहा गया है।
व्याख्या- प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास जी संतों की संगति का महत्व बताते हैं। वे कहते हैं कि संसार में संतो की संगति से बढ़कर कोई लाभ नहीं है, क्योंकि संतों की संगति से मनुष्य का जीवन बदल जाता है, अज्ञान दूर होता है और ईश्वर-भक्ति का मार्ग सहज हो जाता है। लेकिन यह महत्त्वपूर्ण संगति हर किसी को आसानी से नहीं मिलती। वेद और पुराण भी यही कहते हैं कि संतों की संगति केवल भगवान की कृपा से ही संभव होती है।
पाठ
पर सुख संपति देखि सुनि, जरहिं जे जड़ बिनु आगि।
तुलसी तिन के भाग ते, चलै भलाई भागि।। 7
शब्दार्थ-
संपति– संपत्ति, वैभव
देखि- देखकर
सुनि– सुनकर
जरहिं- जलते हैं, ईर्ष्या करते हैं
जे– जो
जड़– मूर्ख
बिनु- बिना
आगि– आग के
तिन के– उन लोगों के
भाग- भाग्य, किस्मत
ते- से
चलै- चल देती है, दूर हो जाती है
भागि– भाग जाती है
अर्थ- इस दोहे में गोस्वामी तुलसीदास जी स्वार्थी और ईर्ष्यालु व्यक्ति के भाग्य के बारे में बता रहे हैं। वह कहते हैं कि जो दूसरों के सुख और समृद्धि को देखकर ईर्ष्या की अग्नि में जलता है, उसका कभी हित नहीं हो सकता।
व्याख्या- प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास जी स्वार्थी और ईर्ष्यालु व्यक्ति के भाग्य की बात करते हैं, वह कहते हैं कि जो मूर्ख लोग दूसरों के सुख और संपत्ति को देखकर ईर्ष्या करते हैं और मन ही मन जलते रहते हैं, उनकी अपनी भलाई और सौभाग्य नष्ट हो जाता है। ऐसे लोगों के भाग्य से कल्याण स्वयं ही दूर हो जाता है अर्थात् ऐसे व्यक्ति का कभी भी हित नहीं हो सकता।
पाठ
साहब ते सेवक बड़ो, जो निज धरम सुजान।
राम बाँध उत्तरे उद्धि, लांधि गए हनुमान।। 8
शब्दार्थ-
साहब– स्वामी, मालिक (यहाँ भगवान राम)
सेवक- दास, भक्त (यहाँ हनुमान)
बड़ो- बड़ा, श्रेष्ठ
निज धरम– अपना धर्म, कर्तव्य
सुजान– जानने वाला, समझदार
बाँध– पुल (रामसेतु)
उत्तरे– पार किए, समुद्र पार गए
उद्धि– समुद्र
लांधि– छलांग लगाकर पार करना
हनुमान– भगवान राम के भक्त व सेवक
अर्थ- इस दोहे में तुलसीदास जी भगवान से भी बढ़कर भक्त की महिमा को बड़ा बताते हैं। वे कहते हैं कि जहाँ श्रीराम ने लंका पहुँचने के लिए समुद्र पर पुल का सहारा लिया, वहीं उनके भक्त हनुमान बिना किसी सहारे के ही विशाल समुद्र को लांघ गए।
व्याख्या- इस दोहे में तुलसीदास जी भक्त की महिमा का गुणगान करते हैं। वे बताते हैं कि सच्चे भक्त का पराक्रम और विश्वास इतना महान होता है कि वह भगवान से भी आगे दिखाई देता है। श्रीराम को लंका जाने के लिए समुद्र पर पुल बनवाना पड़ा, लेकिन उनके भक्त हनुमान ने केवल अपनी शक्ति और भक्ति के बल पर बिना किसी सहारे के समुद्र पार कर लिया।
पाठ
सचिव वैद गुरु तीनि जो प्रिय बोलहिं भयु आस।
राज, धर्म, तन तीनि कर, होइ बेगिही नाम ।। 9
शब्दार्थ-
सचिव– मंत्री
वैद– चिकित्सक (डॉक्टर)
तीनि– तीनों
प्रिय– मनभावन, अच्छा लगने वाला
बोलहिं- बोलते हैं, कहते हैं
भयु- यदि (अगर)
आस– अपेक्षा, भय अथवा लोभ से
राज- राज्य, शासन
धर्म– आचरण, धर्मपालन
तन– शरीर
कर- का
होइ- होता है
बेगिही– शीघ्र, बहुत जल्दी
नास– नाश, विनाश
अर्थ- इस दोहे में नीति का संदेश दिया गया है। तुलसीदास जी कहते हैं कि यदि गुरु, वैद्य या मंत्री भय या लोभवश हर बात पर हाँ में हाँ मिलाने लगें, तो धर्म, शरीर और राज्य तीनों का नाश निश्चित है। यह दोहा रावण के प्रसंग में कहा गया है, जिसके मंत्री डर के कारण उसे सच्ची सलाह न देकर हर बात पर सहमति जताते रहे, और इसी कारण उसका शीघ्र विनाश हो गया।
व्याख्या- प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास जी नीति की बात समझाते हैं। वह बताते हैं कि यदि गुरु अपने शिष्य को सही मार्ग न दिखाए, वैद्य रोगी को सच्चा उपचार न बताए और मंत्री राजा को उचित परामर्श न दे, बल्कि डर या लालच के कारण केवल उसकी बातों को मान ले, तो उसका परिणाम विनाशकारी होता है। धर्म नष्ट होता है, शरीर रोगग्रस्त होकर समाप्त होता है और राज्य भी टिक नहीं पाता। रावण इसका उदाहरण है, जिसके मंत्री डरकर उसे सही सलाह न दे सके और उसी की वजह से उसका नाश हो गया।
पाठ
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि वितु द्रवहिं न राम।
राम कृपा बिनु सपनेहूँ, जीवन लह विश्राम।। 10
शब्दार्थ-
बिनु– बिना
बिस्वास– विश्वास
भगति– भक्ति
नहिं– नहीं
तेहि– उस (भगवान को)
वितु- धन
द्रवहिं- पसीजना, द्रवित होना
सपनेहूँ- स्वप्न में भी, कभी नहीं|
लह– प्राप्त करता है
विश्राम- शांति, सुकून
अर्थ- भगवान पर श्रद्धा और विश्वास के बिना भक्ति संभव नहीं है। भक्ति के बिना श्रीराम प्रसन्न नहीं होते और उनकी कृपा के बिना जीव को स्वप्न में भी शांति प्राप्त नहीं होती।
व्याख्या- तुलसीदास जी लिखते हैं कि सच्चा भक्त भगवान पर अटूट विश्वास रखता है। बिना विश्वास के प्रभु की कृपा प्राप्त करना संभव नहीं है। भगवान राम की कृपा के बिना मनुष्य को क्षणभर भी शांति नहीं मिल सकती। इसलिए प्रभु श्रीराम पर अखंड विश्वास रखते हुए भक्ति करना ही हर प्रकार से लाभदायक है।
Conclusion
इस पोस्ट में ‘दोहावली – तुलसीदास’ पाठ का साराँश, भावार्थ, व्याख्या और शब्दार्थ दिए गए हैं । यह पाठ कक्षा 10 हिंदी के पाठ्यक्रम में हिंदी की पाठ्य पुस्तक से लिया गया है। इस पाठ में दिए गए दोहे कवि तुलसीदास जी द्वारा रचित हैं जो भक्ति से जुड़े हुए हैं एवं शिक्षाप्रद हैं।
यह पोस्ट विद्यार्थियों को दोहों को गहराई से समझने में मदद करेगा और परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने में भी सहायक सिद्ध होगा।