कश्मीर का लोकनाटक “बाँड – पाऽथर” पाठ सार

 

JKBOSE Class 10 Hindi Chapter 10 “Kashmir Ka Loknatak Bhand-Pathar”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Bhaskar Bhag 2 Book

 

कश्मीर का लोकनाटक “बाँड – पाऽथर” सार – Here is the JKBOSE Class 10 Hindi Bhaskar Bhag 2 Book Chapter 10 Kashmir Ka Loknatak “Bhand-Pathar” Summary with detailed explanation of the lesson Kashmir Ka Loknatak “Bhand-Pathar” along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary

इस पोस्ट में हम आपके लिए जम्मू और कश्मीर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड  कक्षा 10 हिंदी भास्कर भाग 2 के पाठ 10 कश्मीर का लोकनाटक “बाँड – पाऽथर” पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप  इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 कश्मीर का लोकनाटक “बाँड – पाऽथर” पाठ के बारे में जानते हैं।

 

Kashmir Ka Loknatak “Bhand-Pathar” (कश्मीर का लोकनाटक “बाँड – पाऽथर”)

 

यह पाठ कश्मीर की समृद्ध लोकनाट्य परंपरा “बाँड-पाऽथर” का परिचय कराता है। इस लोकनाटक की परंपरा कश्मीर के ग्रामीण जीवन से गहराई से जुड़ी हुई है। यह नाटक आम जनता द्वारा रचा और प्रस्तुत किया जाता है, जिसमें किसी लिखित स्क्रिप्ट का प्रयोग नहीं होता। कलाकार सहज ढंग से समाज के शोषण, दुख-दर्द और सामाजिक विषमताओं को हास्य और व्यंग्य के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं।

 

Related: 

 

कश्मीर का लोकनाटक “बाँड – पाऽथर” पाठ सार Kashmir Ka Loknatak “Bhand-Pathar” Summary

 

कश्मीर का लोकनाटक “बाँड-पाऽथर” कश्मीर की एक पारंपरिक लोकनाट्य शैली है जो आम लोगों द्वारा बनाई और प्रस्तुत की जाती है। जैसे लोकगीत और लोककथाएँ बिना किसी लिखित रूप के पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती हैं, वैसे ही यह लोकनाटक भी किसी स्क्रिप्ट पर आधारित नहीं होते। इन नाटकों को साधारण लोग ही खेलते हैं और उनके अभिनय में कोई बनावटीपन नहीं होता। वे अभ्यास और अनुभव से संवाद बोलना और दृश्य प्रस्तुत करना सीखते हैं। ये नाटक समाज के आम लोगों की समस्याएँ, दुख-दर्द, इच्छाएँ और सामाजिक स्थितियों को हास्य और व्यंग्य के माध्यम से दिखाते हैं। इसमें समाज के शोषक वर्ग की हरकतों की नकल करके लोगों को हँसाया जाता है और उसी के माध्यम से कलाकार अपनी जीविका भी चलाते हैं।

“बाँड-पाऽथर” कोई एक नाटक नहीं है, बल्कि एक खास किस्म की लोकनाट्य शैली है जिसे “बाँड” कहलाने वाले कलाकार खेलते हैं। ये कलाकार कश्मीर के गाँवों और कभी-कभी शहरों में भी घूमते हैं और खुले मैदानों, चौराहों, विद्यालयों के आंगनों या हॉलों में नाटक करते हैं। “बाँड” शब्द संस्कृत के “भाँड” से आया है, जिसका अर्थ है हँसाने वाला व्यक्ति। “पाऽथर” शब्द संस्कृत के “पात्र” से निकला है, जिसका मतलब है नाटक या स्वांग। इस प्रकार बाँड-पाऽथर का अर्थ है – बाँडों द्वारा किया गया हास्य नाटक। इन नाटकों की शुरुआत शहनाई (सुरनय) की धुन से होती है। फिर नाटक का सूत्रधार ‘मागुन’ मंच पर आता है और बाकी पात्र भी अपने-अपने विशेष वेशभूषा में मंच पर आकर नाटक को शुरू करते हैं। इसमें हँसी-मजाक करने वाले मसखरे आते हैं, ढोलक पर थाप पड़ती है और गीतों के साथ सभी पात्र नाचते हैं। अक्सर पुरुष ही स्त्रियों की भूमिकाएँ भी निभाते हैं।

अब तक आठ बाँड-पाऽथरों की परंपरा जीवित है। ये हैं – वातल पाऽथर, बुहुर्य पाऽथर, राजु पाऽथर, दरजु पाऽथर, ग्वसाऽन्य पाऽथर, बकरवाल पाऽथर, अंगरेज़ पाऽथर और शिकारगाह पाऽथर। इन नाटकों की कथाएँ, संवाद, पोशाक और मंच सज्जा पहले से तय होती है। इनमें से वातल पाऽथर सबसे पुराना माना जाता है, जिसमें एक गरीब मेहतर की जिंदगी की समस्यायों को दिखाया जाता है। राजु पाऽथर एक अन्यायी राजा की कहानी है जो गलत भाषा बोलता है और लोगों को परेशान करता है, लेकिन लोग मजाक उड़ाकर उसके खिलाफ विरोध प्रकट करते हैं। ग्वसाऽन्य पाऽथर एक ग्वालिन ‘गुपाली’ और साधु की भावनात्मक कहानी है जिसमें प्रेम और त्याग की परीक्षा होती है। अंगरेज़ पाऽथर में एक अंग्रेज़ अफसर का मजाक उड़ाया जाता है, जो गाँव में आकर रौब झाड़ता है लेकिन उसकी बातों और हरकतों पर गाँव वाले उसे चतुराई से हँसी का पात्र बना देते हैं।

कश्मीर के कुछ गाँवों में बाँड टोलियाँ पीढ़ियों से इस परंपरा को निभा रही हैं। कुछ बाँड संगीत बजाते हैं, कुछ मसखरे बनते हैं और कुछ अभिनय करते हैं। वे त्योहारों, शादियों और धार्मिक आयोजनों में जाकर गीत, नाच और स्वांग के ज़रिए लोगों का मनोरंजन करते हैं। पहले राजा-महाराजाओं के समय इनसे कर लिया जाता था, लेकिन महाराजा प्रताप सिंह ने बाँडों को कर से मुक्त किया और उन्हें सरकारी सहायता दी। स्वतंत्रता के बाद, जब किसानों को जमीन मिली और ज़मींदारी खत्म हुई, तो बाँडों ने खेतीबाड़ी भी शुरू कर दी। लेकिन उन्होंने अपनी नाटक कला को नहीं छोड़ा। आज सरकार बाँड-पाऽथर की परंपरा को बचाने के लिए इन कलाकारों को प्रोत्साहन देती है। इन्हें देश-विदेश में अपने नाटक प्रस्तुत करने के अवसर मिलते हैं।

इस प्रकार, बाँड-पाऽथर सिर्फ एक लोकनाटक नहीं बल्कि कश्मीर की सांस्कृतिक पहचान है। यह न केवल लोगों का मनोरंजन करता है, बल्कि समाज की सच्चाइयों को भी सामने लाता है। भारत में इसे वही स्थान प्राप्त है जो ‘भवई’ (गुजरात), ‘तमाशा’ (महाराष्ट्र), ‘जात्रा’ (बंगाल) और ‘नौटंकी’ (उत्तर प्रदेश) को प्राप्त है। यह हमारी लोकसंस्कृति की अमूल्य धरोहर है जिसे सहेजना और आगे बढ़ाना ज़रूरी है।

 

कश्मीर का लोकनाटकबाँडपाऽथरपाठ व्याख्या Kashmir Ka Loknatak “Bhand-Pathar” Explanation

 

पाठ: लोक गीत या लोक कहानी की तरह लोक नाटक भी आम लोगों के द्वारा रचा जाता है। आम लोग ही इसे खेल कर प्रस्तुत करते हैं। कई बार खेलने से लोकनाटक खेलने वाले नट अभ्यस्त हो जाते हैं और नाटक खेलने का व्यवसाय अपनाते हैं। उन्हें व्यावसायिक लोकनट कहते हैं। लोकनाटक में आम लोगों के दुख-दर्द, शोक – शिकायत आशा-आकांक्षा पर आधारित कोई पारंपरिक कथा पेश की जाती है। नाटक खेलने वाले नटों (पात्रों) ने कोई प्रशिक्षण नहीं पाया होता है। उनके अभिनय में बनावटीपन नहीं होता। वे अभ्यास से ही वार्तालाप और दृश्य दोहरा पाते हैं। लोकनाटक लिखे नहीं जाते। पात्र (अभिनेता) मिल बैठकर नाटक की विषयवस्तु, वार्तालाप, वेषभूषा, मंच-सज्जा आदि तय करते हैं। ज़्यादातर लोकनाटक ऐसे हैं जिनकी विषयवस्तु पहले से ही प्रचलित होती है। प्रायः इन नाटकों में समाज के शोषक वर्ग के लोगों की हरकतों की नकल उतारी जाती है। सामाजिक दोषों और बुराइयों पर व्यंग्य किया जाता है। दर्शकों को हँसाकर और उनका मनोरंजन करके लोकनट उनसे धन-धान्य प्राप्त करते हैं। इसी से उनका गुज़ारा होता है।

शब्दार्थ-
लोक गीत- लोगों द्वारा रचा गया पारंपरिक गीत
लोक कहानी- जनसामान्य में प्रचलित कथाएँ
लोक नाटक– जनसामान्य द्वारा प्रस्तुत किया गया पारंपरिक नाटक
आम लोग- साधारण जनता
रचा- बनाया
प्रस्तुत करते हैं- दर्शकों के सामने दिखाते हैं
नट– बाजीगर, भाँड
अभ्यस्त- आदी, बार-बार किया हुआ
व्यवसाय- रोज़गार, काम
व्यावसायिक– पेशेवर, रोजगार से जुड़ा हुआ
दुख-दर्द- पीड़ा, कष्ट
शोक-शिकायत- दुःख और असंतोष
आशा-आकांक्षा- उम्मीद और चाह
पारंपरिक- परंपरा से चला आया हुआ
कथा- कहानी
प्रशिक्षण- अभ्यास
अभिनय- किसी भूमिका को मंच पर निभाना
बनावटीपन- दिखावटीपन
अभ्यास- बार-बार दोहराने से सीखा गया कौशल
वार्तालाप- संवाद, बातचीत
दृश्य– दिखनेवाला
विषयवस्तु- विषय से संबंधित सामग्री
वेषभूषा- कपडा लिबास
मंच-सज्जा– मंच को सजाने की विधि
प्रचलित– जो पहले से लोगों में फैला हो
शोषक वर्ग- अत्याचार या अन्याय करने वाला वर्ग
व्यंग्य- मज़ाक के रूप में आलोचना
मनोरंजन- मन को आनंद देने वाला कार्य
धन-धान्य– पैसा और अनाज
गुज़ारा- जीवन यापन

व्याख्या- इस गद्याँश में बताया गया है कि जैसे लोक गीत और लोक कहानियाँ आम लोग खुद बनाते और सुनाते हैं, वैसे ही लोकनाटक भी गाँव-समाज के साधारण लोग बनाते और मंच पर प्रस्तुत करते हैं। ये नाटक किसी पेशेवर या प्रशिक्षित लेखक द्वारा नहीं लिखे जाते, बल्कि कुछ लोग मिलकर खुद ही विषय, संवाद, पोशाक और मंच सज्जा तय करते हैं।
जब ये लोग बार-बार नाटक करते हैं, तो उन्हें अभिनय का अभ्यास हो जाता है और कई बार वे इसे अपना पेशा बना लेते हैं। ऐसे लोगों को व्यावसायिक लोकनट कहा जाता है।
इन लोकनाटकों में आम लोगों की दुख-तकलीफ़, शिकायतें, उम्मीदें और जीवन की सच्चाईयाँ दिखाई जाती हैं। अभिनय करने वाले कलाकार किसी नाट्य विद्यालय से नहीं सीखे होते, इसलिए उनके अभिनय में कृत्रिमता नहीं होती, बल्कि उनकी सादगी और स्वाभाविकता दर्शकों को ज़्यादा आकर्षित करती है।
अधिकतर लोकनाटकों की कहानी पहले से प्रसिद्ध होती है। इन नाटकों में अक्सर समाज के शोषक वर्गों जैसे ज़मींदार, राजा या अफसरों की हरकतों की नकल और आलोचना की जाती है। समाज की बुराइयों को हँसते-हँसाते उजागर किया जाता है।
इन नाटकों के ज़रिए कलाकार लोगों का मनोरंजन करते हैं, और बदले में उनसे अन्न या पैसे लेते हैं। यही उनके रोज़गार और जीवनयापन का ज़रिया होता है। इस तरह लोकनाटक समाज का आईना भी बनते हैं और आजीविका का साधन भी।

 

पाठ: कश्मीरी लोक नाटकों की एक श्रृंखला है, जो “बाँड – पाऽथर” कहलाती है। ‘बाँड – पाऽथर’ किसी एक नाटक का नाम नहीं बल्कि एक खास ढंग के लोक नाटक ‘बाँड – पाऽथर’ कहलाते हैं। ये नाटक बाँडों की टोलियाँ खेलती हैं। ये टोलियाँ कश्मीर के गाँवों में (कभी-कभी शहरों में भी) घूमती रहती हैं और खुली जगहों, चौराहों, विद्यालयों के आंगनों या कस्बों- शहरों के भवनों-हालों में अपने नाटकों से लोगों का मनोरंजन करती हैं।
समय गुज़रने के साथ भाषा में परिवर्तन होते रहते हैं। शब्दों के रूप और अर्थ बदलते रहते हैं। संस्कृत का ‘भाँड’ शब्द बदलकर कश्मीरी में ‘बाँड’ हो गया है। ‘भाँड’ हास्य नाटक के चरित्र को कहते थे। हिंदी में संस्कृत का यह शब्द उसी प्रकार प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार कश्मीरी के ‘बाँड’ का अर्थ भी हँसाने वाला व्यक्ति या हँसी वाले नाटक का नट या अभिनेता होता है।

शब्दार्थ-
कश्मीरी– कश्मीर क्षेत्र से संबंधित
श्रृंखला- क्रमबद्ध समूह या कड़ी
बाँड-पाऽथर- बाँडों द्वारा प्रस्तुत हास्यप्रधान लोकनाटक
चौराहे– चार सड़कों का मिलन बिंदु
आँगन- घर या भवन का खुला हिस्सा
कस्बे- छोटा नगर
भवनों-हालों- इमारतों और बड़े कमरों/सार्वजनिक स्थानों
मनोरंजन- आनंद देना, मनोरथ का साधन
समय गुज़रना– वक्त का बीतना
भाषा– बोली
परिवर्तन– बदलाव
भाँड- हास्य नाटक करने वाला पात्र
अभिनेता- नाटक में अभिनय करने वाला व्यक्ति

व्याख्या- इस गद्याँश में कश्मीर की एक खास लोकनाट्य परंपरा “बाँड-पाऽथर” के बारे में बताया गया है। यह कोई एक नाटक नहीं, बल्कि एक लोकनाट्य शैली है, जिसमें हास्य और व्यंग्य के माध्यम से समाज का चित्रण किया जाता है। इस तरह के नाटक “बाँड” कहलाने वाले कलाकारों की टोलियाँ करती हैं, जो कश्मीर के गाँव-गाँव और कभी-कभी शहरों में भी घूमकर खुले मैदानों, स्कूलों के आँगनों, चौराहों या हॉलों में प्रदर्शन करती हैं।
यहाँ बताया गया है कि भाषा समय के साथ बदलती रहती है। जैसे संस्कृत का शब्द “भाँड”, जिसका मतलब होता है हँसाने वाला या नाटक का पात्र, वह बदलकर कश्मीरी भाषा में “बाँड” हो गया है। आज भी “बाँड” शब्द का अर्थ वही है ‘हँसी दिलाने वाला अभिनेता’। इससे यह समझ में आता है कि कश्मीर की यह लोक परंपरा प्राचीन संस्कृत परंपरा से जुड़ी हुई है और लोक जीवन से गहराई से संबंधित है।
इस तरह, “बाँड-पाऽथर” केवल एक मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि कश्मीर की सांस्कृतिक विरासत और भाषा विकास का जीवित उदाहरण है।
अन्य विशेष- ‘पाऽथर’ शब्द कश्मीरी भाषा का है। ‘पा’ के साथ लगा (ऽ) चिह्न कश्मीरी भाषा में प्रचलित एक स्वर को द् योतित करता है। यह ‘आ’ की अपेक्षा संवृत्त है।

 

पाठ: संस्कृत का ‘पात्र’ शब्द बदलकर कश्मीरी में ‘पाऽथर’ हो गया है। पात्र अभिनेता को कहते हैं परन्तु ‘पाऽथर’ का अर्थ है ‘स्वांग’ या ‘नाटक’। इस प्रकार ‘बाँड पाऽथर’ का अर्थ है बाँड चरित्रों या नटों के द्वारा रचा हुआ हास्य-नाटक। इस शब्द की व्याख्या से स्पष्ट है कि कश्मीर की यह लोकनाटक परंपरा संस्कृत से सीधी जुड़ी हुई है।
‘बाँड पाऽथर’ ‘सुरनय’ (शहनाई) के वादन से शुरू होता है। फिर नाटक का सूत्रधार या मुख्य पात्र ‘मागुन’ (महागुणी) प्रवेश करता है। उसके साथ नाटक के अन्य पात्र अपनी–अपनी वेषभूषा में आते हैं । ‘मागुन’ नाटक का परिचय देता है। अन्य पात्रों की वेषभूषा से हम जान जाते हैं कि कौन सा नाटक खेला जाने वाला है। बात-बात में नाटक शुरू हो जाता है। इतने में हँसी मज़ाक करते हुए या करतब दिखाते हुए ‘मसखरे ́ आ जाते हैं, ढोलक की थाप पर और सुरनय की लय पर गीत गाते-गाते नाचने लग जाते हैं। इस नृत्य में अन्य चरित्र भी शामिल हो जाते हैं। ‘बाँड पाऽथर’ में प्रायः पुरुष ही स्त्री की भूमिका निभाते हैं।

शब्दार्थ-
पात्र- अभिनेता, अभिनय करने वाला व्यक्ति
पाऽथर– स्वांग या नाटक (कश्मीरी शब्द)
हास्य-नाटक– हँसी उत्पन्न करने वाला नाटक
व्याख्या– विवरण, स्पष्ट रूप से समझाना
परंपरा– परिपाटी, लंबे समय से चली आ रही कोई रीत
सुरनय- शहनाई (वाद्य यंत्र)
वादन– वाद्य बजाना
सूत्रधार- नाटक का परिचय देने वाला मुख्य पात्र
मागुन- मुख्य पात्र (महागुणी), सूत्रधार
वेषभूषा- पोशाक, परिधान
परिचय– जानकारी देना
करतब- चतुराई या कला का प्रदर्शन
मसखरे- हँसोड़, बहुत हँसी-मज़ाक करने वाले
ढोलक- एक वाद्य यंत्र जो हाथ से बजाया जाता है
थाप- ताल या बीट
लय- संगीत की गति या बहाव
भूमिका- किरदार या रोल
प्रायः – अधिकतर, सामान्यतः

व्याख्या- इस गद्याँश में बताया गया है कि जैसे संस्कृत में “पात्र” शब्द का मतलब अभिनेता या कोई भूमिका निभाने वाला व्यक्ति होता है, उसी शब्द का रूप कश्मीरी भाषा में बदलकर “पाऽथर” हो गया है। लेकिन यहाँ “पाऽथर” का अर्थ केवल अभिनेता नहीं बल्कि पूरा नाटक या स्वांग होता है। इसलिए जब हम कहते हैं “बाँड पाऽथर”, तो उसका मतलब होता है – बाँडों (हँसाने वाले कलाकारों) द्वारा किया गया नाटक, जो आमतौर पर हास्य और व्यंग्य से भरा होता है। इससे यह साफ़ होता है कि कश्मीर की यह लोकनाट्य परंपरा सीधे-सीधे संस्कृत भाषा और संस्कृति से जुड़ी हुई है।
इस नाटक की शुरुआत “सुरनय” (यानी शहनाई) की मधुर धुन से होती है । इसके बाद मंच पर नाटक का सूत्रधार या मुख्य पात्र आता है, जिसे “मागुन” (महागुणी) कहते हैं। मागुन बाकी पात्रों के साथ मंच पर आता है और दर्शकों को बताता है कि कौन सा नाटक होने जा रहा है। बाकी पात्रों की वेशभूषा से भी दर्शक अनुमान लगा लेते हैं कि किस तरह का नाटक दिखाया जाएगा। नाटक की शुरुआत कोई भारी-भरकम ढंग से नहीं होती, बल्कि बातों-बातों में ही अभिनय शुरू हो जाता है।
इस बीच मंच पर मसखरे यानी मजाकिया पात्र आ जाते हैं। वे कभी करतब दिखाते हैं, तो कभी मज़ेदार बातें करते हैं। ढोलक की ताल और शहनाई की लय पर वे गाते और नाचते हैं, जिससे नाटक और भी रंगीन और मनोरंजक बन जाता है। उनके साथ बाकी पात्र भी नृत्य में शामिल हो जाते हैं।
इस परंपरा में एक खास बात यह भी है कि नाटक में स्त्री पात्रों की भूमिका भी पुरुष ही निभाते हैं, जैसा कि पुराने भारतीय नाटकों या लोकनाटकों में अक्सर देखा गया है।

 

पाठ: बाँड पाऽथरों के नाम उनकी विषय वस्तुओं पर रखे गए हैं। आज तक आठ पाऽथरों की परंपरा जीवित है। ये हैं:-
1. वातल (मेहतर का) पाऽथर
2. बुहुर्य् (पंसारी की) पाऽथर
3. राजुॅ (राजा का) पाऽथर
4. दरजुॅ (दरद जाति की स्त्री का) पाऽथर
5. ग्वसाऽन्य् (गोसाईं साधु का ) पाऽथर
6. बकरवाल (बकर वाल का ) पाऽथर
7. अंगरेज़ (अंग्रेज़ का) पाऽथर
8. शिकारगाह (शिकारी तथा वन्यपशुओं का ) पाऽथर
इन पाऽथरों की निश्चित कथाएँ हैं, निश्चित ढंग के वार्तालाप हैं, वेशभूषा तथा साजसज्जा भी निश्चित है।

शब्दार्थ-
बाँड पाऽथर– कश्मीरी लोकनाट्य परंपरा का नाम
विषयवस्तु- नाटक की केंद्रीय कहानी या कथानक
वातल- मेहतर (सफाईकर्मी)
बुहुर्य्- पंसारी (मसाले व सामान बेचने वाला)
राजुॅ- राजा
दरजुॅ– दरद जाति की स्त्री
ग्वसाऽन्य्- गोसाईं साधु
बकरवाल– बकरियाँ पालने वाला समुदाय
अंगरेज़- अंग्रेज (विदेशी शासक)
शिकारगाह– शिकारी और वन्यपशुओं से संबंधित
वार्तालाप– संवाद, बातचीत
साजसज्जा- सजावट

व्याख्या- प्रस्तुत अंश में बताया गया है कि “बाँड पाऽथर” नामक लोकनाटकों के नाम उनकी कहानियों (विषय वस्तु) पर आधारित होते हैं। यानी हर नाटक का नाम इस बात पर रखा गया है कि वह किस विषय या पात्र के इर्द-गिर्द घूमता है। अब तक ऐसे आठ प्रकार के बाँड पाऽथर प्रचलित हैं, जैसे- वातल पाऽथर – यह मेहतर की कहानी पर आधारित होता है, बुहुर्य पाऽथर – पंसारी (दुकानदार) की जिंदगी को दिखाता है, राजुॅ पाऽथर – राजा के अन्यायपूर्ण शासन को हास्य के रूप में प्रस्तुत करता है, दरजुॅ पाऽथर – एक विशेष जाति की स्त्री के जीवन पर आधारित होता है, ग्वसाऽन्य् पाऽथर – साधु (गोसाईं) की कथा को बताता है, बकरवाल पाऽथर – बकरवाल जनजाति के जीवन को लेकर होता है, अंगरेज़ पाऽथर – ब्रिटिश राज के अफसरों और उनके व्यवहार की नकल करता है, शिकारगाह पाऽथर – शिकारी और जंगली जानवरों से जुड़ी कहानी को दिखाता है।
इन सभी नाटकों की कहानियाँ पहले से तय होती हैं, उनके संवाद भी परंपरागत होते हैं। इतना ही नहीं, वेशभूषा (कपड़े) और मंच की सजावट भी पहले से ही निर्धारित रहती है।

 

पाठ: बाँड पाऽथरों में ‘वातल पाऽथर’ सबसे पुराना है। इसमें एक गरीब मेहतर (मोची) के घर की समस्याओं को उजागर किया जाता है। अनमेल विवाह से पैदा होने वाली विषमताओं का हास्यपूर्ण चित्रण किया जाता है। इस वर्ग के सीमित साधनों और असीम आकाँक्षाओं पर व्यंग्य किया जाता है। मेहतर को ऊँचे वर्गों की नफरत तथा मार – दुत्कार सहनी पड़ती थी। ज़ालिम लोग उसकी झोंपड़ी तक जला डालते, पर वह उफ भी नहीं करता था। सैकड़ों वर्षों से चले आ रहे अत्याचार की एक कथा पेश की जाती है ‘वातल पाऽथर’ में।
‘राजॅु पाऽथर’ में अन्यायी राजा का नाम ‘जय सरकार’ है। वह प्रजा पर रोब झाड़ने के लिए गलत-सलत फ़ारसी और पंजाबी बोलता है और हास्यास्पद बन जाता है। वेशभूषा तथा बोलने के लिहज़े से वह पठान लगता है। राजा के कारिंदे लोगों के बीच आकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। जब फरियादी राजा के पास आने लगते हैं तो कारिंदे उन्हें बीच राह में ही रोककर राजा के पास पहुँचने नहीं देते। आम दबे डरे लोग कारिंदों का मज़ाक उड़ाते हैं। इसी तरह राजा के प्रति अपने ढंग से विरोध प्रकट करते हैं। जैसे नाई राजा के काले बाल चुनचुन कर काटता है और सफेद रहने देता है।

शब्दार्थ-
उजागर करना- सामने लाना, प्रकट करना
विषमता– असमानता, अंतर
हास्यपूर्ण- हँसी का कारण बनने वाला
चित्रण- वर्णन, प्रस्तुति
सीमित साधन- कम संसाधन या सुविधाएँ
असीम आकांक्षा– अत्यधिक इच्छाएँ
दुत्कार- अपमान, तिरस्कार
ज़ालिम- अत्याचारी, निर्दयी
उफ नहीं करता- अत्याचार सहते हुए भी विरोध नहीं करता
अत्याचार- अन्यायपूर्ण व्यवहार
अन्यायी- जो अन्याय करता है
रोब झाड़ना- धौंस जमाना, प्रभाव दिखाना
गलत-सलत- अशुद्ध, बेतुकी (बोलियाँ)
हास्यास्पद- हँसी का पात्र, मजाकिया
लिहाज़ से- दृष्टिकोण से, हिसाब से
कारिंदा– राजा का सेवक, दरबारी
उल्लू सीधा करना– अपना स्वार्थ सिद्ध करना
फरियादी- शिकायत करने वाला व्यक्ति
मज़ाक उड़ाना- हँसी उड़ाना
विरोध प्रकट करना– असहमति दिखाना

व्याख्या- इस अंश में दो प्रमुख बाँड पाऽथरों ‘वातल पाऽथर’ और ‘राजु पाऽथर’ की कहानियों का वर्णन किया गया है।
‘वातल पाऽथर’ सबसे पुराना और प्रसिद्ध लोकनाटक है। इसमें एक गरीब मेहतर (या मोची) के जीवन की परेशानियों और सामाजिक समस्याओं को दिखाया गया है। यह नाटक समाज में वर्ग भेद, गरीबी, और ऊँची जातियों द्वारा किए गए अत्याचारों को हास्य के माध्यम से उजागर करता है। इसमें बताया गया है कि कैसे एक गरीब व्यक्ति, जिसकी आकांक्षाएँ तो बहुत होती हैं लेकिन साधन बहुत कम, अपने जीवन में अन्याय सहता रहता है। ऊँचे वर्ग के लोग उसे तिरस्कार करते हैं, यहाँ तक कि उसकी झोपड़ी भी जला डालते हैं, लेकिन वह विरोध नहीं करता। यह नाटक दिखाता है कि कैसे सदियों से समाज के निचले वर्गों पर अत्याचार होता आया है, और यह सब हँसी-हँसी में, व्यंग्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
दूसरे नाटक ‘राजॅु पाऽथर’ में एक अन्यायी राजा की कहानी है, जिसका नाम है ‘जय सरकार’। यह राजा जनता पर धौंस जमाने के लिए गलतफहमियों से भरी फ़ारसी और पंजाबी बोलता है, जिससे वह मूर्ख और मज़ाक का पात्र बन जाता है। उसका पहनावा और बोलने का अंदाज़ ऐसा होता है कि वह पठान जैसा लगता है। राजा के नौकर-चाकर (कारिंदे) जनता को परेशान करते हैं और जब कोई शिकायत लेकर राजा के पास जाना चाहता है, तो ये कारिंदे रास्ते में ही रोक देते हैं।
जनता, जो डरकर कुछ नहीं कहती, अपने ढंग से विरोध जताती है। उदाहरण के लिए, एक नाई राजा के काले बाल काट देता है और सफेद बाल छोड़ देता है, ताकि राजा बूढ़ा दिखे। यह हास्यास्पद है।

 

पाठ: ‘ग्वसाऽन्य पाऽथर’ में अमरनाथ के एक युवक साधु यात्री पर मोहित होने वाली एक ग्वालिन ‘गुपाली’ की कथा पेश की जाती है। साधु उसे टाल देने की इच्छा से उसके सामने कड़ी शर्तें रखता है, जैसे संसार का त्याग, शरीर पर भस्म मलना, ज़ेवरों का मोह छोड़ना आदि। वह सब मान जाती है तो साधु धर्मसंकट में पड़ जाता है। अंत में वह उसे ललेश्वरी के ‘वाख’ गाकर मन को शांत करने का उपदेश देता है और अंतर्ध्यान हो जाता है। अन्य साधु गुपाली से पूछते हैं कि तूने हमारे गोसाईं को कहाँ देखा है ? हमें उसका कोई अवशेष दो, कोई चिह्न बताओ दुखी ‘गुपाली’ यह सुनकर और दुखी होती है और वाख पढ़ती हुई स्वयं में लीन हो जाती है।
‘अँगरेज़ पाऽथर’ में एक अँग्रेज़ एक गाँव में आकर रोब झाड़ता फिरता है। वह नंबरदार और चौकीदार को पेश होने की आज्ञा सुनाता है। दोनों सरकारी नौकर भीगी-बिल्ली बनकर अफ़सर की ‘डैम फैट-लैट’ वाली गालियाँ सुनाते हैं। वह बेसिर पैर की अँग्रेजी और उर्दू ही बोलता है, यद्यपि कश्मीरी समझता है। दूसरे ग्रामीण लोग अँग्रेज़ की अटपटी बोली और विदेशी आदतों की नकल उतार कर उसका मज़ाक उड़ाते हैं। कुर्सी के बदले हाँडी पेश करते हैं, जो उसके बैठते ही टूट जाती है। सबसे ज़्यादा काम ‘बेगार’ का आदी व्यक्ति करता है, जबकि दूसरे लोग काम से जी चुराते हैं।

शब्दार्थ-
ग्वसाऽन्य पाऽथर- गोसाईं साधु की कथा पर आधारित बाँड पाऽथर
अमरनाथ- जम्मू-कश्मीर में स्थित एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल
युवक साधु- युवा संन्यासी या तपस्वी
मोहित होना– आकर्षित या प्रेम में पड़ जाना
ग्वालिन– गाय चराने वाली युवती
कथा- कहानी, किस्सा
टाल देना– टालमटोल करना, मना करना
कड़ी शर्तें- कठिन नियम या प्रतिबंध
धर्मसंकट- धार्मिक या नैतिक दुविधा
उपदेश- सीख देना
वाख- ललेश्वरी द्वारा रचित धार्मिक काव्य/कहावतें
अंतर्ध्यान- लुप्त, ओझल, गायब
अवशेष- कोई चिह्न, निशानी, स्मृति वस्तु
लीन हो जाना– किसी भाव में पूरी तरह डूब जाना
अँगरेज़ पाऽथर- अंग्रेज़ी शासन या अधिकारी पर आधारित व्यंग्यात्मक नाटक
नंबरदार- गाँव का मुखिया या राजस्व अधिकारी
चौकीदार- निगरानी रखने वाला व्यक्ति
पेश होने की आज्ञा- हाजिर होने का आदेश
भीगी-बिल्ली– डर के मारे चुप हो जाना
डैम-फैट-लैट- अटपटी अंग्रेजी की गाली या शब्द
बेसिर पैर की बात– तर्कहीन या बेतुकी बातें
अटपटी बोली- टेढ़ी-मेढ़ी, असामान्य भाषा
हाँडी- मिट्टी या धातु का बर्तन
बेगार– बिना मज़दूरी का काम

व्याख्या- इस अंश में दो लोकनाटकों ‘ग्वसाऽन्य पाऽथर’ और ‘अंगरेज़ पाऽथर’ की कथाओं को सरल रूप में समझाया गया है।
‘ग्वसाऽन्य पाऽथर’ एक आध्यात्मिक और भावनात्मक लोकनाटक है, जिसमें एक ग्वालिन लड़की ‘गुपाली’ की कहानी है। वह अमरनाथ यात्रा पर आए एक युवा साधु को देखकर उस पर मोहित हो जाती है और उससे विवाह करना चाहती है। साधु, संसार से विरक्त है, इसलिए गुपाली को टालने के लिए उससे कुछ कठिन शर्तें रखता है — जैसे दुनिया का त्याग करना, शरीर पर भस्म लगाना, गहनों का मोह छोड़ना आदि। लेकिन गुपाली इन सभी शर्तों को मान लेती है। इससे साधु धार्मिक संकट (धर्मसंकट) में पड़ जाता है क्योंकि अब वह उसे मना नहीं कर पाता। अंत में वह गुपाली को महान संत कवयित्री ललेश्वरी की ‘वाख’ (चार पंक्तियों की कविता) गाकर समझाता है और आत्मशांति की राह दिखाकर अचानक लुप्त हो जाता है (अंतर्ध्यान हो जाता है)। बाकी साधु जब गुपाली से पूछते हैं कि वह साधु कहाँ गया, उसका कोई चिन्ह बताओ तो गुपाली और भी दुखी हो जाती है और भावविभोर होकर वाख गुनगुनाते हुए खुद में लीन हो जाती है। यह नाटक त्याग, प्रेम और आत्मबोध की भावना से जुड़ा हुआ है।
दूसरी ओर, ‘अंगरेज़ पाऽथर’ एक हास्य-व्यंग्य से भरपूर नाटक है। इसमें दिखाया गया है कि कैसे एक अँग्रेज़ अफसर एक गाँव में आकर रौब जमाने की कोशिश करता है। वह गाँव के नंबरदार और चौकीदार को बुलवाता है, और वे डर के मारे भीगी बिल्ली बनकर उससे डाँट खाते हैं। यह अंग्रेज़ टूटी-फूटी अंग्रेज़ी और उर्दू बोलता है, जिससे उसका व्यवहार बहुत मजाकिया बन जाता है, हालांकि वह कश्मीरी भाषा समझता है।
गाँव के लोग उसकी विदेशी आदतों और अजीब बोलचाल का मज़ाक उड़ाते हैं। जैसे, जब उसे बैठने के लिए कुर्सी दी जाती है तो उसकी जगह एक मिट्टी की हाँडी दी जाती है, जो उसके बैठते ही टूट जाती है। इससे पूरा दृश्य हास्यपूर्ण बन जाता है। इस नाटक में यह भी दिखाया गया है कि किस तरह एक ‘बेगार’ का आदी व्यक्ति सबसे ज़्यादा काम करता है जबकि बाकी लोग काम करने से बचते हैं। यह नाटक अंग्रेज़ी हुकूमत के समय के अत्याचारों और बेगार प्रथा पर व्यंग्य करता है।

अन्य विशेष-
1. ललेश्वरी या ललद्यद आज से साढ़े छः सौ वर्ष पहले कश्मीरी भाषा की महान कवयित्री हुई हैं, जिनकी कविता वाखों (चार पंक्तियों के पदों) में मिलती है। इनमें भक्ति, नीति और मानव- पीड़ा वर्णित है।
2. आज से लगभग एक सौ वर्ष पूर्व जम्मू-कश्मीर में लोगों से ज़बरदस्ती और उनकी इच्छा के विरुद्ध मज़दूरी कराए जाने की रीत थी, जिसे बेगार कहते थे।

पाठ: कश्मीर के कुछ ‘गाँवों में ‘बाँड पाऽथर’ खेलने वाली टोलियाँ पीढ़ियों से इस कला को अपनाए हुए हैं। इन टोलियों के कुछ बाँड केवल ‘सुरनय’ या ढोल बजाते हैं, कुछ केवल मसखरे की भूमिका निभाते हैं और कुछ अन्य भूमिकाएँ। ‘अकिन गाम’, ‘वाहथोर’ और ‘बुमय’ की खानदानी बाँड टोलियाँ विशेष प्रसिद्ध हैं। बाँडों का मुख्य पेशा ‘पाऽथर’ खेलना होता है। इसके अलावा सामाजिक, धार्मिक या व्यक्तिगत उत्सवों जैसे शादी – व्याह, ईद, शिवरात्रि, यज्ञोपवीत या किसी पीर-फ़कीर के उर्स पर बाँड गा-बजा कर, नाचकर या स्वांग रचा कर लोगों का मनोरंजन करते हैं। शरद ऋतु में जब धान कटता है तो गाँवों के दूसरे पेशेवरों जैसे नाई, बढ़ई, राज मिस्तरी आदि की तरह बाँड भी गृहस्थों से धन-धान्य बटोरते हैं। राजा महाराजाओं के शासन काल में दूसरे पेशेवरों की तरह बाँडों पर भी कर लगता था।

शब्दार्थ-
पीढ़ियों से– कई नस्लों से, वर्षों से
सुरनय- शहनाई जैसा वाद्य यंत्र
अकिन गाम, वाहथोर, बुमय- कश्मीर के गाँव जिनकी बाँड टोलियाँ प्रसिद्ध हैं
पेशा- जीविका या व्यवसाय
सामाजिक उत्सव– समाज से जुड़े त्योहार या समारोह
धार्मिक उत्सव- धर्म से जुड़े पर्व जैसे ईद, शिवरात्रि
व्यक्तिगत उत्सव- किसी व्यक्ति के घर का निजी आयोजन जैसे शादी, यज्ञोपवीत आदि
पीर-फ़कीर- मुस्लिम संत या साधु
यज्ञोपवीत- जनेऊ, उपवीत
उर्स- किसी सूफी की पुण्यतिथि का कार्यक्रम
स्वांग- अभिनय या नाटक
शरद ऋतु– साल का वह समय जब धान कटता है (अक्टूबर–नवंबर)
पेशेवर- किसी काम को पेशे के रूप में करने वाला व्यक्ति
गृहस्थ- घर परिवार वाला व्यक्ति
धन-धान्य- पैसा और अन्न
कर– टैक्स, शुल्क
शासन काल– किसी राजा या शासक के समय का दौर

व्याख्या- प्रस्तुत अंश में बताया गया है कि कश्मीर के कुछ गाँवों में ‘बाँड पाऽथर’ नाट्यकला एक पारिवारिक परंपरा के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। इन गाँवों में ऐसी टोलियाँ (दल) हैं, जो लोकनाट्य ‘बाँड पाऽथर’ को पेश करती हैं। हर टोली में बाँड (कलाकार) की अलग-अलग भूमिकाएँ होती हैं। कुछ ढोल या सुरनय (शहनाई जैसा वाद्य) बजाते हैं, कुछ मसखरे (हास्य कलाकार) बनते हैं और कुछ अन्य पात्र निभाते हैं।
कश्मीर के ‘अकिन गाम’, ‘वाहथोर’ और ‘बुमय’ नामक गाँवों की खानदानी बाँड टोलियाँ इस कला में बहुत प्रसिद्ध हैं। इन बाँडों का मुख्य पेशा ‘पाऽथर’ खेलना, यानी लोकनाटक करना ही होता है।
इसके अलावा ये बाँड लोग शादी, ईद, शिवरात्रि, यज्ञोपवीत, या उर्स जैसे धार्मिक, सामाजिक और व्यक्तिगत अवसरों पर भी गीत-संगीत, नाच और स्वांग के माध्यम से लोगों का मनोरंजन करते हैं।
जब शरद ऋतु में खेतों से धान की कटाई होती है, तब गाँव में काम करने वाले अन्य पेशेवरों जैसे- नाई, बढ़ई, राजमिस्त्री आदि की तरह बाँड भी अपने काम के बदले में घर-घर से धन या अनाज लेते हैं।
पुराने समय में, जब राजा-महाराजाओं का शासन था, तब बाँडों पर भी कर (टैक्स) लगता था, जैसे दूसरे काम करने वालों पर लगता था। इससे यह स्पष्ट होता है कि बाँड समाज के स्थायी और जरूरी हिस्से रहे हैं, और उनके योगदान को उसी समय से मान्यता मिलती रही है।

 

पाठ: जम्मू-कश्मीर के महाराजा प्रताप सिंह ने पहली बार घोड़ा-कर, मवेशी-कर, सड़क-कर आदि माफ़ कर दिए। बाँडों को अनिवार्य बेगार से छूट दी गई। उन्हें सरकारी अन्न-भंडार से राशन दिया जाने लगा, जिसके बदले गाँव-गाँव जाकर लोगों का मनोरंजन करना उनके लिए अनिवार्य कर दिया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब जम्मू-कश्मीर में ज़मीनदारी प्रथा समाप्त कर दी गई और किसान जमीन का मालिक हो गया तो बाँड भी खेतीबाड़ी करने लगे। ‘बाँड पाथर’ की नाटक कला को सुरक्षित तथा विकसित करने के लिए बाँडों को बहुत सरकारी प्रोत्साहन दिया जाने लगा है। नाटकों का प्रदर्शन करने के लिए इन्हें देश के दूर-दूर के क्षेत्रों के अतिरिक्त विदेशों में भी भेजा जाता है। इससे हमारी लोकसंस्कृति की रक्षा करने में बड़ी मदद मिलती है। आज देश में कश्मीर के ‘बाँड पाऽथर’ का वही महत्त्व है जो गुजरात के ‘भवई’, महाराष्ट्र के ‘तमाशा’, बंगाल के ‘जात्रा’, उत्तरप्रदेश के ‘नौटंकी’ आदि का है।

शब्दार्थ-
महाराजा- राजा, राजशाही का प्रमुख व्यक्ति
घोड़ा-कर- घोड़ों पर लगाया जाने वाला टैक्स या शुल्क
मवेशी-कर– मवेशियों पर लगने वाला कर या टैक्स
सड़क-कर- सड़कों के उपयोग या निर्माण पर लगाया गया कर
अनिवार्य- परमावश्यक, बहुत जरुरी
अन्न-भंडार- अनाज का भंडार
राशन- नियत मात्रा में वितरित खाद्य सामग्री
स्वतंत्रता प्राप्ति- आज़ादी मिलने का समय (1947 में भारत की आज़ादी)
ज़मीनदारी प्रथा– जमीन पर मालिकाना हक रखने वाली पुरानी व्यवस्था
खेतीबाड़ी– कृषि कार्य, खेती करना
सुरक्षित– रक्षा की गई, संरक्षित
विकसित- आगे बढ़ाना, उन्नत बनाना
प्रोत्साहन- प्रेरणा, सहयोग
प्रदर्शन– मंच पर प्रस्तुत करना
लोकसंस्कृति- आम जनता की पारंपरिक सांस्कृतिक धरोहर
भवई– गुजरात का एक लोकनाट्य
तमाशा- महाराष्ट्र का पारंपरिक लोकनाट्य
जात्रा– बंगाल का प्रसिद्ध लोकनाटक
नौटंकी- उत्तर प्रदेश का लोकप्रिय लोकनाट्य

व्याख्याप्रस्तुत अंश में बताया गया है कि महाराजा प्रताप सिंह ने जम्मू-कश्मीर में बाँड समुदाय के जीवन को आसान बनाने के लिए कुछ खास कदम उठाए। उन्होंने घोड़ा-कर, मवेशी-कर और सड़क-कर जैसे टैक्स माफ़ कर दिए, जो पहले ग्रामीणों पर लगाए जाते थे। इसके साथ ही बाँडों को जो ‘बेगार’ यानी ज़बरदस्ती का मुफ्त काम करना पड़ता था, उससे भी मुक्त कर दिया गया।
राजा ने बाँडों को सरकारी अन्न-भंडार से राशन देना शुरू किया, लेकिन बदले में उन्हें यह ज़रूरी कर दिया गया कि वे गाँव-गाँव जाकर लोगों का मनोरंजन करें। यानी अब यह नाटक करना उनकी जिम्मेदारी और रोज़गार बन गया।
आज़ादी के बाद, जब जम्मू-कश्मीर में ज़मींदारी प्रथा खत्म हो गई और किसान ज़मीन के मालिक बन गए, तब बाँडों ने भी खेती करना शुरू कर दिया। इसके बावजूद उनकी पारंपरिक नाट्यकला ‘बाँड पाथर’ को बचाने और आगे बढ़ाने के लिए सरकार ने उनका समर्थन और प्रोत्साहन देना शुरू किया।
सरकार ने इन्हें सिर्फ देश के ही नहीं बल्कि विदेशों में भी नाटक प्रस्तुत करने के मौके दिए, जिससे हमारी लोकसंस्कृति को बचाने और फैलाने में मदद मिली।
अंत में, यह स्पष्ट किया गया है कि कश्मीर की यह ‘बाँड पाऽथर’ परंपरा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि गुजरात की ‘भवई’, महाराष्ट्र की ‘तमाशा’, बंगाल की ‘जात्रा’ और उत्तर प्रदेश की ‘नौटंकी’ जैसी प्रसिद्ध लोकनाट्य परंपराएँ। यह नाटक न केवल मनोरंजन का माध्यम हैं, बल्कि हमारे समाज और संस्कृति की जीवंत पहचान भी हैं।

 

Conclusion

दिए गए पोस्ट में हमने ‘कश्मीर का लोकनाटक “बाँड – पाऽथर’ पाठ का साराँश, पाठ व्याख्या और शब्दार्थ को जाना। यह पाठ कक्षा 10 हिंदी पाठ्यक्रम के भास्कर भाग 2 पुस्तक में है। इस पाठ में कश्मीर की समृद्ध लोकनाट्य परंपरा “बाँड-पाऽथर” का परिचय कराया है।
यह पोस्ट विद्यार्थियों को पाठ को गहराई से समझने में मदद करेगा और परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने में भी सहायक सिद्ध होगा।