जम्मू-कश्मीर व लद्दाख में हिंदी पाठ सार
JKBOSE Class 10 Hindi Chapter 3 “Jammu-Kashmir va Ladakh Mein Hindi”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Bhaskar Bhag 2 Book
जम्मू-कश्मीर व लद्दाख में हिंदी सार – Here is the JKBOSE Class 10 Hindi Bhaskar Bhag 2 Book Chapter 3 Jammu-Kashmir va Ladakh Mein Hindi Summary with detailed explanation of the lesson ‘Jammu-Kashmir va Ladakh Mein Hindi’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary
इस पोस्ट में हम आपके लिए जम्मू और कश्मीर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड कक्षा 10 हिंदी भास्कर भाग 2 के पाठ 3 जम्मू-कश्मीर व लद्दाख में हिंदी पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 जम्मू-कश्मीर व लद्दाख में हिंदी पाठ के बारे में जानते हैं।
Jammu-Kashmir va Ladakh Mein Hindi (जम्मू-कश्मीर व लद्दाख में हिंदी)
यह अध्याय जम्मू-कश्मीर में हिंदी का विकास और प्रभाव विषय पर केंद्रित है। इसमें विस्तार से बताया गया है कि कैसे यह अहिंदीभाषी प्रदेश होने के बावजूद हिंदी भाषा ने यहाँ अपने अस्तित्व को स्थापित किया और समय के साथ लोकप्रिय होती गई। जम्मू और कश्मीर दो मुख्य क्षेत्रों में बँटे इस राज्य में डोगरी और कश्मीरी प्रमुख भाषाएँ हैं, परंतु हिंदी ने सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और शैक्षिक माध्यमों से अपनी गहरी पकड़ बनाई है। इस पाठ में ऐतिहासिक, साहित्यिक, राजनीतिक और शैक्षिक दृष्टि से हिंदी के प्रचार-प्रसार की प्रक्रिया को समझाया गया है। भक्ति आंदोलन, संत साहित्य, राजा-महाराजाओं का संरक्षण, शिक्षण संस्थाओं की भूमिका, और आधुनिक माध्यम जैसे रेडियो, टेलीविज़न, सिनेमा, समाचार पत्र आदि ने हिंदी को इस क्षेत्र में लोकप्रिय बनाया। अंततः यह अध्याय यह संदेश देता है कि जम्मू-कश्मीर में हिंदी का भविष्य न केवल सुरक्षित है, बल्कि उज्ज्वल और संभावनाओं से भरपूर है।
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जम्मू-कश्मीर व लद्दाख में हिंदी- पाठ सार (Jammu-Kashmir va Ladakh Mein Hindi Summary)
जम्मू-कश्मीर भारत का एक प्रमुख राज्य है जो उत्तर में स्थित है। यह मूलतः अहिंदीभाषी प्रदेश है, अर्थात यहाँ की मातृभाषाएँ हिंदी नहीं हैं, फिर भी हिंदी का प्रचार-प्रसार यहाँ लंबे समय से होता रहा है। राज्य के दो प्रमुख क्षेत्र – जम्मू और कश्मीर हैं। जम्मू में मुख्यतः डोगरी और कश्मीर में कश्मीरी भाषा बोली जाती है। इन भाषाओं के अलावा कई स्थानीय बोलियाँ भी यहाँ बोली जाती हैं।
फिर भी, जम्मू-कश्मीर में हिंदी बोलने-समझने वालों की संख्या पर्याप्त है। यहाँ के पढ़े-लिखे लोग हिंदी के साहित्यिक और व्यावहारिक दोनों रूपों से परिचित हैं। हिंदी का विकास यहाँ प्राचीन काल से ही देखने को मिलता है। कश्मीर संस्कृत भाषा और संस्कृति का बड़ा केंद्र रहा है। संस्कृत और वैदिक शब्द कश्मीरी भाषा में आज भी पाए जाते हैं। यही विशेषता हिंदी में भी देखी जाती है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि हिंदी और कश्मीरी भाषाओं का संबंध गहरा है।
हिंदी का प्रचार साधु-संतों, पर्यटकों और तीर्थयात्रियों के माध्यम से भी हुआ। अमरनाथ और वैष्णो देवी जैसे तीर्थ स्थलों पर देशभर से हिंदी भाषी यात्री आते हैं, जिससे हिंदी का प्रभाव बढ़ा। इसके अलावा भक्तिकाल के कवियों जैसे तुलसीदास, मीरा, सूरदास और कबीर के दोहे और पद भी यहाँ लोकप्रिय हुए। जम्मू-कश्मीर के कई लोग रोजगार की तलाश में हिंदी भाषी राज्यों में गए और वहाँ से हिंदी बोलना सीखकर लौटे, जिससे हिंदी का प्रचार और गहरा हुआ।
भाषाई दृष्टि से देखा जाए तो जम्मू-कश्मीर की अधिकांश भाषाएँ भारतीय आर्य भाषा-परिवार की सदस्य हैं, जैसे हिंदी भी है। इसलिए कई शब्दों और ध्वनियों में समानता मिलती है। लद्दाखी भाषा तिब्बती-बर्मी भाषा समूह से है, फिर भी वहाँ भी अब हिंदी का प्रचार बढ़ने लगा है।
मध्यकालीन भक्ति आंदोलन ने भी हिंदी को लोकप्रिय बनाने में योगदान दिया। संत कवयित्री रूपभवानी और भक्तकवि परमानंद जैसे स्थानीय रचनाकारों ने हिंदी में काव्य-रचना की। अठारहवीं सदी में जम्मू के कवि दत्तू ने ‘वीरविलास’ और ‘ब्रजराज पंचाशिका’ जैसे ग्रंथ लिखे। उनके बाद भी कई रचनाकारों ने हिंदी में भक्ति और नीति विषयक कविताएँ लिखीं।
राजा रणवीर सिंह के समय में हिंदी को राजकीय संरक्षण मिला। हिंदी अख़बार ‘रणवीर समाचार’ निकाला गया और हिंदी ग्रंथ भी लिखे गए। स्कूलों में हिंदी पढ़ाई जाने लगी। बाद में राजा प्रताप सिंह ने उर्दू को सरकारी भाषा बना दिया, लेकिन हिंदी की शिक्षा चलती रही। बीसवीं सदी में हिंदी लेखन और प्रकाशन में भी तेजी आई।
हिंदी प्रचार के लिए कई संस्थाएँ बनीं जैसे – आर्य समाज, हिंदी साहित्य मंडल, और हिंदी परिषद। इन संस्थानों ने विद्यार्थियों को हिंदी सिखाई और परीक्षाएँ करवाईं। हिंदी की पत्रिकाएँ और अख़बार निकाले गए, जैसे – ‘महावीर’, ‘कश्यप’, ‘घोषवती’, ‘प्रताप’, आदि। स्वतंत्रता के बाद संविधान में हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया जिससे जम्मू-कश्मीर में भी हिंदी का प्रचार और तेज हुआ।
आज हिंदी यहाँ स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है। एम.ए., एम.फिल. और पीएच.डी. तक की पढ़ाई होती है। साहित्य की सभी विधाओं – कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, आलोचना आदि में कई स्थानीय लेखक हिंदी में लिख रहे हैं। सिनेमा, रेडियो, और टीवी ने भी हिंदी को लोकप्रिय बनाने में मदद की है।
जम्मू-कश्मीर में हिंदी केवल एक बाहरी भाषा नहीं है, बल्कि यह अब यहाँ की सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन चुकी है। इसका भविष्य उज्ज्वल और समृद्ध है।
जम्मू-कश्मीर व लद्दाख में हिंदी पाठ व्याख्या (Jammu-Kashmir va Ladakh Mein Hindi Lesson Explanation)
पाठ – भारत के उत्तर में स्थित जम्मू-कश्मीर मूलतः अहिंदीतर प्रदेश है। अहिंदीतर प्रदेश से हमारा अभिप्राय ऐसे क्षेत्र से है, जहाँ हिंदी मातृभाषा के रूप में न बोलकर अन्य भाषा के रूप में प्रयोग में लाई जाती है। जम्मू-कश्मीर के दो मुख्य क्षेत्र हैं- जम्मू व कश्मीर। डोगरी जम्मू क्षेत्र की प्रमुख भाषा है। कश्मीर घाटी में कश्मीरी प्रमुख रूप से व्यवहार में लाई जाती है। इन भाषाओं के अतिरिक्त जम्मू-कश्मीर में कई बोलियां भी बोली जाती हैं।
जम्मू-कश्मीर में हिंदी बोलने वालों की संख्या पर्याप्त है। यहां शिक्षित जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग हिंदी के व्यावहारिक तथा साहित्यिक रूपों से परिचित है। प्रायः सभी लोग हिंदी समझ-बोल सकते हैं।
जम्मू-कश्मीर और हिंदी क्षेत्र के बीच प्राचीन काल से ही सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक संबंध रहे हैं। कश्मीर अपने पर्यटन महत्त्व के अतिरिक्त विश्व-प्रसिद्ध संस्कृत भाषा का शिक्षा केंद्र रहा है। प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेने के अतिरिक्त बौद्धिक एवं सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए भी लोगों का प्रवाह यहाँ आता रहा है। इस्लाम के आगमन से पूर्व बोली जाने वाली कश्मीरी में वैदिक तथा संस्कृत के तत्सम तथा तद्भव दोनों प्रकार के शब्द पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। आजकल भी ये दोनों प्रकार के शब्द कश्मीरी भाषा में पाए जाते हैं । यहाँ यह कहना असंगत न होगा कि हिंदी में भी संस्कृत के ऐसे शब्दों की बहुत बड़ी संख्या पाई जाती है।
शब्दार्थ-
मूलतः- मूल रूप से, प्रारंभ से
अहिंदीतर प्रदेश- ऐसा क्षेत्र जहाँ हिंदी मातृभाषा नहीं है
अभिप्राय – अर्थ, मतलब
मातृभाषा- जन्म से बोली जाने वाली भाषा
प्रयोग- इस्तेमाल
व्यवहार में लाना– उपयोग करना
बोलियाँ- किसी भाषा की उपशाखाएँ, क्षेत्रीय भाषाएँ
पर्याप्त – जितना चाहिए उतना
व्यावहारिक– व्यवहार से संबंधित, रोज़मर्रा में उपयोगी
साहित्यिक- साहित्य से संबंधित
प्रायः- अधिकतर
परिचित– जानकार
प्राचीन काल- बहुत पुराना समय
सामाजिक– समाज से संबंधित
आर्थिक– धन और व्यापार से संबंधित
सांस्कृतिक– संस्कृति से संबंधित
पर्यटन – भ्रमण, सैर-सपाटा
बौद्धिक- ज्ञान और सोच से संबंधित
आदान-प्रदान– एक-दूसरे से लेना और देना
प्रवाह- आना-जाना, आवागमन
आगमन– प्रवेश, आना
वैदिक– वेदों से संबंधित
तत्सम शब्द– संस्कृत से सीधे लिए गए शब्द
तद्भव शब्द- संस्कृत से विकसित हुए सरल शब्द
व्याख्या– प्रस्तुत गद्याँश भारत के उत्तर में स्थित राज्य जम्मू-कश्मीर और उसकी भाषायी तथा सांस्कृतिक स्थिति को स्पष्ट करता है। इसमें बताया गया है कि जम्मू-कश्मीर अहिंदीतर प्रदेश है, अर्थात ऐसा क्षेत्र जहाँ हिंदी को मातृभाषा के रूप में नहीं, बल्कि दूसरी भाषा के रूप में उपयोग किया जाता है। राज्य को दो मुख्य भागों—जम्मू और कश्मीर- में बाँटा गया है। जम्मू में प्रमुख भाषा डोगरी है जबकि कश्मीर घाटी में कश्मीरी भाषा प्रमुख रूप से बोली जाती है। इसके अलावा कई अन्य स्थानीय बोलियाँ भी वहाँ प्रचलित हैं।
हालांकि हिंदी वहाँ की मातृभाषा नहीं है, फिर भी हिंदी बोलने और समझने वालों की संख्या पर्याप्त है, विशेष रूप से शिक्षित वर्ग हिंदी के साहित्यिक और व्यावहारिक दोनों रूपों से परिचित है।
इतिहास की दृष्टि से देखा जाए तो हिंदी भाषी क्षेत्रों और जम्मू-कश्मीर के बीच सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संबंध प्राचीन काल से रहे हैं। कश्मीर न केवल एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल रहा है, बल्कि यह संस्कृत भाषा का शिक्षा केंद्र भी रहा है। लोग यहाँ केवल प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेने ही नहीं आते थे, बल्कि बौद्धिक और सांस्कृतिक संवाद के लिए भी यहाँ आते थे।
इस्लाम धर्म के आगमन से पहले जो पुरानी कश्मीरी भाषा बोली जाती थी, उसमें वैदिक संस्कृत के शब्दों का बहुतायत में प्रयोग होता था। आज भी कश्मीरी भाषा में तत्सम (जैसे के तैसे संस्कृत शब्द) और तद्भव (बदले हुए रूप) दोनों प्रकार के शब्द मिलते हैं। इसी प्रकार, हिंदी भाषा में भी संस्कृत से लिए गए शब्दों की बड़ी संख्या पाई जाती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि हिंदी और कश्मीरी भाषाओं में एक गहरा भाषायी और सांस्कृतिक संबंध रहा है।
जम्मू-कश्मीर भले ही हिंदी-प्रमुख क्षेत्र न हो, लेकिन हिंदी का वहाँ गहरा प्रभाव है और ऐतिहासिक रूप से यह क्षेत्र हिंदी से जुड़ा रहा है, विशेषकर संस्कृत और वैदिक परंपरा के माध्यम से।
पाठ – जम्मू-कश्मीर देश-विदेश के तीर्थ यात्रियों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। इनमें से मुख्य आकर्षण अमरनाथ जी की पवित्र गुफा तथा वैष्णो देवी की यात्राएँ हैं। जो यात्री यहाँ आते हैं उनमें हिंदी भाषी क्षेत्रों के यात्री भी होते हैं । आदान-प्रदान की प्रक्रिया में यहां धीरे-धीरे हिंदी जड़ें पकड़ती गई। कश्मीर में ज़ैन-उल-आबदीन (बडशाह) के समय ई० था। बडशाह के पूर्वज सिंकदर तथा अलीशाह के शासनकाल में जो कश्मीरी पंडित कश्मीर छोड़कर पंजाब तथा उत्तर प्रदेश में बस गए थे, उनमें से बहुत से लोग बडशाह के समय में पुनः कश्मीर लौटे। तीस-बत्तीस वर्षों के हिंदी प्रदेश के प्रवास में वे ब्रजभाषा और हिंदी की अन्य बोलियों से अवश्य प्रभावित हुए होंगे ।
जम्मू-कश्मीर में हिंदी भाषा का प्रचार जहां एक ओर साधुओं, पर्यटकों आदि के द्वारा हुआ, वहीं दूसरी ओर भक्त-कवियों जैसे सूर, तुलसी, मीरा, कबीर आदि के दोहों तथा पदों ने इसमें योगदान दिया। इन कवियों के कई दोहे व पद सुगम तथा गेय होने के कारण धीरे-धीरे लोकप्रिय हुए तथा हिंदी का संस्कार जड़ पकड़ता गया। आजकल भी ये दोहे तथा पद साधु-संतों तथा सज्जनों की ज़बानी सुने-सुनाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त व्यावसायिक रुचि में पंजाब, उत्तर प्रदेश जैसे क्षेत्रों के हज़ारों लोगों को जम्मू-कश्मीर में बसने के लिए प्रेरित किया । इसी प्रकार जम्मू-कश्मीर के हज़ारों लोग रोज़ी-रोटी के लिए शीतकाल में राज्य से बाहर काम की खोज में जाते रहे हैं। इन लोगों की वहाँ के लोगों के साथ बोलचाल तथा सहयोग की भाषा हिंदी रही है। इससे स्पष्ट होता है कि जम्मू-कश्मीर के लोगों ने शताब्दियों पूर्व ही हिंदी के संस्कार को समझा और पहचाना था।
शब्दार्थ-
तीर्थ यात्री– धार्मिक यात्रा करने वाले लोग
आकर्षण का केंद्र– ध्यान आकर्षित करने वाली जगह
आदान-प्रदान– एक-दूसरे से लेना-देना
जड़ें पकड़ना- स्थायी रूप से स्थापित हो जाना
प्रवास– दूसरे देश में रहना
ब्रजभाषा- हिंदी की एक प्राचीन क्षेत्रीय बोली
भक्त-कवि– भक्ति भाव से लिखने वाले कवि
दोहा– भक्ति या कविता का विशेष छंद
पर्यटक – यात्री, भ्रमण करने वाला
योगदान– सहयोग
सुगम- सरल, आसानी से समझ में आने वाला
गेय– गाया जा सकने योग्य
लोकप्रिय- जिसे लोग पसंद करें
संस्कार– परंपरा
सज्जन– भले, अच्छे, शिष्ट व्यक्ति
प्रेरित करना- उत्साहित या उत्सुक करना
रोज़ी-रोटी– जीविका, आजीविका का साधन
शीतकाल- सर्दियों का मौसम
शताब्दियों पूर्व- कई सौ वर्षों पहले
व्याख्या– यह अंश जम्मू-कश्मीर में हिंदी भाषा के प्रचार और प्रभाव को ऐतिहासिक और सामाजिक तरीके से समझाने का कार्य करता है। इसमें बताया गया है कि जम्मू-कश्मीर देश-विदेश के तीर्थ यात्रियों के लिए एक महत्त्वपूर्ण आकर्षण केंद्र रहा है। विशेष रूप से अमरनाथ की पवित्र गुफा और वैष्णो देवी जैसे तीर्थ स्थानों के कारण यहाँ हर वर्ष बड़ी संख्या में हिंदी भाषी तीर्थयात्री आते हैं। इन यात्राओं के दौरान स्थानीय लोगों और तीर्थयात्रियों के बीच जो संपर्क और संवाद हुआ, उसी से हिंदी ने यहाँ धीरे-धीरे अपनी जड़ें जमाईं।
इतिहास में ज़िक्र है कि कश्मीर के शासक ज़ैन-उल-आबदीन (बडशाह) के शासनकाल (15वीं शताब्दी) में बहुत-से कश्मीरी पंडित, जो पूर्व में सिंकदर और अलीशाह के शासनकाल में कश्मीर छोड़कर हिंदी भाषी क्षेत्रों (जैसे पंजाब और उत्तर प्रदेश) में चले गए थे, वे फिरसे कश्मीर लौटे। ये प्रवासी ब्रजभाषा और अन्य हिंदी बोलियों का प्रभाव अपने साथ लाए, जो कश्मीर की भाषा-संस्कृति में भी प्रवेश करने लगा।
हिंदी भाषा का प्रसार न केवल तीर्थयात्रियों और प्रवासियों के कारण हुआ, बल्कि भक्तिकालीन कवियों जैसे सूरदास, तुलसीदास, मीरा बाई, कबीर आदि के भावपूर्ण, सरल और गेय भजनों व दोहों के माध्यम से भी हुआ। इनके पद इतने लोकप्रिय हुए कि साधु-संतों और आम जनों द्वारा ये मौखिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुनाए जाते रहे। इस प्रकार हिंदी का धार्मिक और सांस्कृतिक संस्कार यहाँ गहराता गया।
इसके अलावा, व्यापारिक और आर्थिक कारणों से पंजाब, उत्तर प्रदेश आदि हिंदी क्षेत्र के हजारों लोग जम्मू-कश्मीर में आकर बस गए, वहीं कश्मीर के लोग भी शीतकाल में अन्य राज्यों में रोज़गार की तलाश में जाते थे। इन दोनों परिस्थितियों में संवाद की भाषा हिंदी ही रही, जिससे हिंदी के प्रयोग और समझ को और बल मिला।
जम्मू-कश्मीर के लोगों ने सदियों पहले ही हिंदी के प्रभाव को स्वीकार कर लिया था और यह प्रभाव धार्मिक, सामाजिक, भाषिक और सांस्कृतिक स्तर पर गहराता चला गया।
पाठ – संसार की भाषाओं को हम कई परिवारों में बाँटते हैं, जैसे भारोपीय परिवार, कन्नड परिवार, चीनी परिवार आदि । जम्मू-कश्मीर में बोली जाने वाली भाषाओं तथा बोलियों का संबंध मुख्य रूप से भारोपीय परिवार की एक शाखा से है। यह शाखा “भारतीय आर्य शाखा” नाम से जानी जाती है। परिवारगत समीपता के कारण हिंदी तथा जम्मू-कश्मीर में बोली जाने वाली भाषाओं में कहीं-कहीं एक जैसी ध्वनियाँ तथा शब्द देखने को मिलते हैं। कहने का भाव यह है कि जम्मू-कश्मीर के लिए हिंदी कोई पराई भाषा नहीं है।
शब्दार्थ-
भारोपीय – भारतीय और यूरोपीय भाषाओं का समूह
कन्नड परिवार– द्रविड़ भाषाओं से संबंधित भाषा समूह
चीनी परिवार– चीन और आसपास के देशों की भाषाओं का समूह [लद्दाख में बोली जाने वाली मुख्य भाषा लद्दाखी का संबंध भाषाओं के एक अन्य परिवार से है। इसे चीनी परिवार कहते हैं। इसकी एक शाखा तिब्बती-बर्मी है। लद्दाखी इसी शाखा के अंतर्गत आती है।]
भारतीय आर्य शाखा- भारोपीय भाषा परिवार की वह शाखा जिसमें हिंदी, संस्कृत, कश्मीरी आदि भाषाएँ आती हैं
परिवारगत समीपता– एक ही भाषा परिवार से होने के कारण समानता
ध्वनि– आवाज़
पराई भाषा- जो अपनी न होकर दूसरी हो
व्याख्या- इस अंश में जम्मू-कश्मीर की भाषाओं और हिंदी भाषा के बीच पारिवारिक और भाषायी संबंध को स्पष्ट किया गया है। इसमें बताया गया है कि विश्व की सभी भाषाओं को हम कुछ भाषा-परिवारों में बाँटते हैं — जैसे भारोपीय, कन्नड़ या द्रविड़, और चीनी-तिब्बती भाषा-परिवार।
जम्मू-कश्मीर में जो भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं, वे भारोपीय भाषा-परिवार की एक विशेष शाखा — भारतीय आर्य शाखा — से संबंधित हैं। यही शाखा हिंदी, संस्कृत, पंजाबी, बंगाली आदि भाषाओं की भी मूल है।
इस भाषागत नज़दीकी के कारण हिंदी और जम्मू-कश्मीर की भाषाओं में कई समानताएँ पाई जाती हैं — जैसे कुछ ध्वनियाँ और शब्द एक जैसे होते हैं या मिलते-जुलते होते हैं। इससे यह साबित होता है कि हिंदी जम्मू-कश्मीर के लिए कोई विदेशी या पराई भाषा नहीं है, बल्कि उसकी अपनी भाषाओं की तरह ही एक सांस्कृतिक और भाषिक रूप से जुड़ी भाषा है।
यह कहा जा सकता है कि हिंदी और जम्मू-कश्मीर की भाषाएँ एक ही भाषायी परिवार से होने के कारण आपस में घनिष्ठ संबंध रखती हैं, और इसीलिए वहाँ हिंदी को सहजता से अपनाया और समझा जाता है।
पाठ – हिंदी जम्मू-कश्मीर में कई शताब्दियों से है, यद्यपि सही तिथि बताना कठिन है। मध्यकालीन भक्ति-आंदोलन ने संपूर्ण भारत को प्रभावित किया था । उसका प्रभाव जम्मू-कश्मीर पर पड़ना स्वाभाविक था । इस प्रभाव के फलस्वरूप जम्मू-कश्मीर के कई कवियों ने भक्तिपरक कविताएँ मातृभाषा हिंदी में भी रचीं । इस प्रसंग में कश्मीर की संत कवयित्री रूपभवानी का नाम लिया जा सकता है। कश्मीर के एक और भक्तकवि परमानंद ने अपनी कई कश्मीरी रचनाओं में हिंदी के कुछ अंश जोड़ दिए। उनकी भाषा में ब्रज, खड़ीबोली, पंजाबी तथा कश्मीरी का विचित्र मिश्रण है। यह ‘भाखा’ नाम से जानी जाती है। अठारहवीं शती में लक्ष्मण जू ‘बुलबुल’ ने कुछ कविताएँ लिखीं, जिनमें हिंदी तथा कश्मीरी दोनों भाषाओं का योग है। इधर जम्मू के (दत्तू) नाम से ही चर्चित हुए । इनका समय अठारहवीं शताब्दी था ये जम्मू के प्रथम हिंदी कवि माने जाते हैं। ‘वीरविलास’ तथा ‘ब्रजराज पंचाशिका’ इनके द्वारा रचित प्रबंध ग्रंथ हैं। वीरविलास नामक ग्रंथ का आधार संस्कृत भाषा में लिखित ‘महाभारत’ काव्य है। ‘महाभारत’ में एक पर्व विशेष का वर्णन हुआ है, जिसे द्रोणपर्व कहते हैं। ‘वीरविलास’ का आधार वस्तुतः यही द्रोणपर्व है। कमलनेत्र स्तोत्र भी इन्हीं की रचना है, जिसे उत्तर भारत के लोग बड़ी श्रद्धा से गाते हैं। उनके काव्य की कोई विशेष परंपरा देखने को नहीं मिलती है। विद्वानों का विचार है कि उनके एक वंशज कृष्णलाल नामक किसी व्यक्ति ने ‘महाभारत’ के कई पदों का अनुवाद हिंदी में किया है। कश्मीर के भक्ति-काव्य की तरह जम्मू में भक्ति – काव्य की कोई ठोस परंपरा दिखाई नहीं देती है।
शब्दार्थ-
शताब्दी – सदी, सौ वर्षों का समय
यद्यपि- हालाँकि, भले ही
मध्यकालीन- बीच का समय (लगभग 8वीं से 18वीं सदी तक का समय) से संबंधित
भक्ति-आंदोलन- ईश्वर की भक्ति पर आधारित साहित्यिक और धार्मिक आंदोलन
प्रभावित– असर डालना
स्वाभाविक– जो सहज रूप से हो
भक्तिपरक– भक्ति से संबंधित
कवयित्री- स्त्री कवि
अंश- भाग, हिस्सा
विचित्र मिश्रण- अनोखा या अलग-अलग चीज़ों का मेल
भाखा- मिलीजुली भाषा (ब्रज, खड़ीबोली, पंजाबी, कश्मीरी आदि का मिश्रण)
योग- मेल, जोड़
प्रबंध ग्रंथ- कथा-काव्य पर आधारित विस्तृत साहित्यिक रचना
आधार- मूल विषय
पर्व- महाकाव्य में विशेष अध्याय या खंड
स्तोत्र- ईश्वर की प्रशंसा में लिखा गया गीत या पाठ
वंशज- वंश में आगे जन्मा व्यक्ति, संतान
अनुवाद- एक भाषा से दूसरी भाषा में परिवर्तन
व्याख्या- यह गद्याँश जम्मू-कश्मीर में हिंदी भाषा की ऐतिहासिक उपस्थिति और उसके काव्यात्मक विकास को रेखांकित करता है। इसमें बताया गया है कि यद्यपि यह कहना कठिन है कि हिंदी जम्मू-कश्मीर में कब आई, लेकिन यह स्पष्ट है कि यह कई शताब्दियों से वहाँ मौजूद है। विशेष रूप से मध्यकालीन भक्ति आंदोलन, जिसने पूरे भारत को गहराई से प्रभावित किया, उसका प्रभाव जम्मू-कश्मीर पर भी पड़ा।
इस आंदोलन के प्रभावस्वरूप कई स्थानीय कवियों ने भक्तिपरक रचनाएँ हिंदी में भी लिखीं। इस संदर्भ में कश्मीर की संत कवयित्री ‘रूपभवानी’ का नाम उल्लेखनीय है। इसी प्रकार भक्तकवि परमानंद ने अपनी कश्मीरी कविताओं में हिंदी के अंश जोड़े। उनकी भाषा में ब्रज, खड़ी बोली, पंजाबी और कश्मीरी का अनोखा मिश्रण है, जिसे ‘भाखा’ नाम दिया गया।
इसके बाद अठारहवीं शताब्दी में लक्ष्मण जू ‘बुलबुल’ ने हिंदी और कश्मीरी मिश्रित कविताएँ लिखीं। वहीं जम्मू के दत्तू को प्रथम हिंदी कवि माना जाता है। उनके द्वारा रचित ग्रंथ- ‘वीरविलास’ और ‘ब्रजराज पंचाशिका’ — उल्लेखनीय हैं। ‘वीरविलास’ ग्रंथ का आधार संस्कृत महाभारत का द्रोणपर्व है, जिसमें महाभारत की युद्ध-कथाओं का वर्णन है। इसी के आधार पर उन्होंने हिंदी में ग्रंथ की रचना की। उनका एक और प्रसिद्ध स्तोत्र ‘कमलनेत्र स्तोत्र’ है, जिसे आज भी उत्तर भारत के लोग भक्ति भाव से गाते हैं।
हालाँकि, दत्तू के काव्य की कोई स्थायी या प्रभावशाली परंपरा आगे नहीं देखी जाती। विद्वानों के अनुसार, उनके एक वंशज कृष्णलाल ने महाभारत के कई पदों का हिंदी में अनुवाद भी किया।
यह कहा जा सकता है कि भले ही जम्मू-कश्मीर में भक्ति-काव्य की ठोस परंपरा न रही हो, फिर भी हिंदी काव्य-संस्कृति और भक्ति आंदोलन ने यहाँ गहरा प्रभाव छोड़ा और हिंदी भाषा को रचनात्मक और धार्मिक माध्यम के रूप में अपनाया गया। इससे यह स्पष्ट होता है कि हिंदी जम्मू-कश्मीर में केवल संवाद की नहीं, बल्कि साहित्यिक सृजन की भाषा भी रही है।
पाठ – उन्नीसवीं शताब्दी में कश्मीर के लालजी जाडू ने हिंदी से परिपूर्ण महाकाव्य लिखा, जो पर्याप्त साहित्यिक योग्यता का प्रमाण देता है। इसमें कई प्रकार के छंदों का प्रयोग किया गया है, जैसे दोहा, चौपाई, सोरठा आदि। कालांतर में कृष्ण जू राज़दान ठाकुर जू मनवटी, हलधर जू ककरू, पंडित नीलंकठ शर्मा जैसे कवियों ने कश्मीरी कविताओं के साथ-साथ बहुत-सी हिंदी कविताएँ भी रचीं, जो भक्ति, धर्म और नीति की भावनाओं से ओतप्रोत हैं। ये कवि आर्थिक लाभ अथवा किसी अन्य लोभ के कारण हिंदी में नहीं लिखते थे । अपितु भक्ति उद्गारों को वाणी देने के लिए वे हिंदी में रचना करते थे ।
महाराजा रणवीर सिंह (सन् 1857 – 1865 ई०) के समय में हिंदी को सरकारी संरक्षण मिला । ‘रणवीर समाचार’ पाक्षिक हिंदी समाचार-पत्र निकालने का श्रेय उन्हीं को है। रणवीर सिंह के दरबारी लेखक नीलकंठ ने ‘रणवीर प्रकाश’ नामक हिंदी पद्य में ग्रंथ लिखा । यह सात सौ पृष्ठों पर आधारित था । इसी काल में ‘रणवीर रत्नमाला’ एक और ग्रंथ हिंदी में लिखा गया, जिसमें हीरे-जवाहरातों, मोतियों आदि के विषय में वर्णन है। रणवीर सिंह के निधन पर हिंदी में शोकगीत (मरसिया) रचा गया । इसी काल में जम्मू में संस्कृत पाठशाला की स्थापना भी की गई। जहाँ संस्कृत के साथ-साथ हिंदी पढ़ाने की भी व्यवस्था की गई।
महाराजा रणवीर सिंह के उत्तराधिकारी महाराजा प्रताप सिंह ने उर्दू को सरकारी भाषा और फ़ारसी को न्यायालय की भाषा बना दिया । फिर भी हिंदी शिक्षासंस्थानों के पाठ्यक्रम की सूची में एक विषय के रूप में स्वीकार की जाती रही । इसमें हिंदी ने जम्मू-कश्मीर में जड़ें जमानी आरंभ कर दीं।
शब्दार्थ-
उन्नीसवीं शताब्दी- सन् 1801 से 1900 तक का समय
महाकाव्य- बहुत बड़ा काव्य ग्रंथ जिसमें किसी महान कथा का वर्णन हो, विशाल काव्य
साहित्यिक योग्यता- साहित्य सृजन की क्षमता और गुणवत्ता
छंद– कविता में प्रयुक्त लयबद्ध रचनात्मक संरचना
दोहा, चौपाई, सोरठा– हिंदी कविता के पारंपरिक छंद
कालांतर में– कुछ समय बाद, आगे चलकर
ओतप्रोत- पूरी तरह से भरा हुआ, सराबोर
भक्ति उद्गार– भक्ति भावना से उत्पन्न विचार या भावनाएँ
वाणी देना- शब्दों में व्यक्त करना
संरक्षण – देखरेख
पाक्षिक– हर पंद्रह दिन में एक बार प्रकाशित होने वाला
पद्य- छंदबद्ध कविता
आधारित– जिस पर किसी बात का आधार हो
शोकगीत (मरसिया)- किसी की मृत्यु पर दुःख प्रकट करने वाला गीत
संस्थापना– स्थापना, आरंभ करना
पाठ्यक्रम– शिक्षा की निर्धारित विषय-सूची
उत्तराधिकारी- वारिस, जो किसी के मरने के बाद उसकी सम्पत्ति का मालिक हो
न्यायालय– अदालत, कोर्ट
जड़ें जमाना– स्थायी रूप से स्थापित हो जाना
व्याख्या– इस गद्याँश में उन्नीसवीं शताब्दी में जम्मू-कश्मीर में हिंदी भाषा और साहित्य के विकास को बताया गया है। इसमें बताया गया है कि उस समय के स्थानीय कवियों ने न केवल कश्मीरी, बल्कि हिंदी में भी उत्कृष्ट रचनाएँ कीं।
कश्मीर के लालजी जाडू ने हिंदी में एक महाकाव्य की रचना की, जो उच्च साहित्यिक स्तर को दर्शाता है। इस महाकाव्य में दोहा, चौपाई, सोरठा जैसे पारंपरिक हिंदी छंदों का सुंदर प्रयोग किया गया है। उनके बाद कृष्ण जू राजदान, ठाकुर जू मनवटी, हलधर जू ककरू, और पंडित नीलकंठ शर्मा जैसे कवियों ने भक्ति, धर्म और नीति से जुड़ी हिंदी कविताएँ रचीं। ये कवि आर्थिक लाभ या लोभ के कारण नहीं, बल्कि अपने भक्ति भावों को व्यक्त करने के लिए हिंदी को माध्यम बनाते थे, जो हिंदी के प्रति उनके भावात्मक जुड़ाव को बताता है।
हिंदी को संस्थागत स्तर पर बढ़ावा देने में महाराजा रणवीर सिंह (1857–1865 ई.) की भूमिका विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उनके समय में हिंदी को राजकीय संरक्षण मिला। उन्होंने ‘रणवीर समाचार’ नाम से एक हिंदी पाक्षिक समाचार पत्र प्रकाशित कराया, जो उस समय की बड़ी उपलब्धि थी।
उनके दरबारी लेखक नीलकंठ ने ‘रणवीर प्रकाश’ नामक हिंदी काव्य ग्रंथ की रचना की, जो लगभग 700 पृष्ठों का था। इसी काल में ‘रणवीर रत्नमाला’ नामक एक अन्य ग्रंथ भी लिखा गया, जिसमें हीरे-जवाहरातों और रत्नों का वर्णन किया गया है। रणवीर सिंह की मृत्यु पर भी हिंदी में शोकगीत (मरसिया) लिखा गया, जो उस समय हिंदी के प्रति सम्मान और संवेदना को बताता है।
संस्कृत और हिंदी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए इस काल में संस्कृत पाठशाला की स्थापना भी की गई, जहाँ दोनों भाषाएँ पढ़ाई जाती थीं।
हालाँकि रणवीर सिंह के उत्तराधिकारी महाराजा प्रताप सिंह ने प्रशासनिक दृष्टि से उर्दू को सरकारी भाषा और फ़ारसी को न्यायालय की भाषा बना दिया, फिर भी हिंदी को शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ाया जाता रहा। इससे यह सिद्ध होता है कि हिंदी ने इस काल में जम्मू-कश्मीर में अपनी जड़ें जमानी शुरू कर दी थीं, चाहे वह साहित्य, शिक्षा या संस्कृति के स्तर पर हो।
उन्नीसवीं शताब्दी में कवियों, शासकों और संस्थानों के योगदान से हिंदी भाषा ने जम्मू-कश्मीर में सशक्त आधार बनाना शुरू किया, जो आगे चलकर इसके विकास की नींव बना।
पाठ – बीसवीं शताब्दी के तीसरे-चौथे दशक तक कश्मीर में भक्तिपूर्ण हिंदी कविता का यह प्रवाह चलता रहा । प्रसिद्ध कश्मीरी रहस्यवादी संत कवि पंडित जिंदा कौल ‘मास्टर जी’ ने सन् 1941 में ‘पत्रपुष्प’ नामक पुस्तक में पाँच हिंदी कविताएँ प्रकाशित कराईं। ये रचनाएँ मानव-मूल्यों में कवि के गहरे विश्वास को कट करती हैं। इधर जम्मू में हिंदी लेखन का विधिवत आरंभ बीसवीं शती के दूसरे-तीसरे दशक में हुआ । इस काल में हरदत्त शर्मा नामक एक कवित ने ‘भगवद्पदी’ ग्रंथ लिखा जिसमें भक्तिरस के गीत हैं। कालांतर में ‘डोगरी भजनमाला’ नामक एक और पुस्तक प्रकाश में आई, जिसमें डोगरी तथा पंजाबी के अतिरिक्त हिंदी के भजन तथा गीत सम्मिलित किए गए ।
महाराजा हरि सिंह के समय में तत्कालीन शिक्षा निदेशक श्री के.जी. सैयदैन ने सरल उर्दू को फ़ारसी और देवनागरी लिपियों में शिक्षा देने के माध्यम के रूप में घोषित कर दिया । इससे हिंदी को जम्मू-कश्मीर में फैलने में सहायता मिली।
शब्दार्थ-
बीसवीं शताब्दी- सन् 1901 से 2000 तक का समय
दशक– दस वर्षों की अवधि
भक्तिपूर्ण– भक्ति से भरा हुआ
प्रवाह- निरंतरता, क्रम
रहस्यवादी संत कवि– अध्यात्म और रहस्य पर आधारित भावों को व्यक्त करने वाला संत और कवि
प्रकाशित कराईं– छपवाया, सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत किया
मानव-मूल्य- इंसानियत से जुड़े सिद्धांत जैसे – सच्चाई, करुणा, नैतिकता आदि
गहरा विश्वास– दृढ़ आस्था, पूरी तरह से मानना
विधिवत– औपचारिक रूप से, क्रमबद्ध रूप से
भक्तिरस- भक्ति से ओतप्रोत भावना या रस
प्रकाश में आई– प्रकाशित हुई, सामने आई
सम्मिलित- शामिल,जोड़ा गया
तत्कालीन- उस समय का, उस समय के अनुसार
शिक्षा निदेशक– शिक्षा विभाग का उच्च अधिकारी
सरल उर्दू- आम बोलचाल की उर्दू
फ़ारसी लिपि- फारसी भाषा में लिखने की पद्धति
देवनागरी लिपि– हिंदी, संस्कृत आदि की लेखन पद्धति
शिक्षा का माध्यम- पढ़ाई-लिखाई की भाषा या तरीका
घोषित कर दिया- आधिकारिक रूप से घोषित किया
व्याख्या- यह गद्याँश बीसवीं शताब्दी में जम्मू-कश्मीर में हिंदी कविता और लेखन के प्रसार पर प्रकाश डालता है। इसमें बताया गया है कि बीसवीं शताब्दी के तीसरे और चौथे दशक तक कश्मीर में भक्तिपरक हिंदी कविता की परंपरा जारी रही।
इस काल के एक प्रमुख कवि थे पंडित जिंदा कौल ‘मास्टर जी’, जो कश्मीर के रहस्यवादी संत कवि माने जाते हैं। उन्होंने सन् 1941 में ‘पत्रपुष्प’ नामक पुस्तक में पाँच हिंदी कविताएँ प्रकाशित कीं। इन कविताओं में मानव-मूल्यों, जैसे– प्रेम, सहिष्णुता, सेवा और भक्ति में उनके गहरे विश्वास की अभिव्यक्ति मिलती है।
वहीं दूसरी ओर, जम्मू में भी बीसवीं शती के दूसरे और तीसरे दशक में हिंदी लेखन का संगठित रूप में आरंभ हुआ। इस दौर में हरदत्त शर्मा नामक कवि ने ‘भगवद्पदी’ नामक एक भक्तिरस से परिपूर्ण ग्रंथ की रचना की। इसके पश्चात ‘डोगरी भजनमाला’ नामक एक और पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसमें डोगरी और पंजाबी के साथ-साथ हिंदी भजन और गीत भी सम्मिलित किए गए। इससे यह सिद्ध होता है कि हिंदी का प्रचार स्थानीय भाषाओं के साथ-साथ धार्मिक संगीत और भजन साहित्य के माध्यम से भी हुआ।
महाराजा हरि सिंह के शासनकाल में शिक्षा के क्षेत्र में भी ऐसा निर्णय लिया गया जिससे हिंदी को बढ़ावा मिला। उस समय के शिक्षा निदेशक श्री के.जी. सैयदैन ने सरल उर्दू को शिक्षा का माध्यम बनाने की घोषणा की, जिसे दोनों लिपियों – फ़ारसी और देवनागरी में पढ़ाया जाना था। चूँकि देवनागरी लिपि हिंदी की भी लिपि है, इस निर्णय से हिंदी को व्यवहारिक और शैक्षणिक स्तर पर फैलने का अवसर मिला।
बीसवीं शताब्दी में कवियों, लेखकों और शासन के प्रयासों से हिंदी कविता और भाषा ने जम्मू-कश्मीर में धार्मिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक आधार पर अपनी स्थिति सशक्त रूप से स्थापित की।
पाठ – जम्मू-कश्मीर में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए कई स्वतंत्र संगठनों ने भी काम किया है। स्वतंत्रता से पहले कश्मीर में आर्यसमाज, सनातन धर्म सभा, महावीर दल, श्रीराम त्रिक आश्रम, श्री अलकेश्वरी सभा ट्रस्ट, हिंदी परिषद, हिंदी संस्कृत साहित्य मंडल, हिंदी साहित्य सम्मेलन जैसे सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक संगठनों ने हिंदी की विभिन्न परीक्षाओं के लिए छात्रों व छात्राओं को तैयार कराया, हिंदी माध्यम के कई शिक्षा संस्थान खोले और हिंदी की कई पत्रिकाएँ प्रकाशित कीं । इसी समय मास्टर दयाराम नामक एक हिंदी प्रेमी ने जम्मू में एक विद्यापीठ खोला । जहाँ हिंदी के छात्रों को विभिन्न परीक्षाओं के लिए तैयार किया जाता था । पीठ ने जम्मू में हिंदी के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसी प्रकार ‘हिंदी साहित्य मण्डल’ नामक एक संस्थान ने जम्मू में हिंदी लेखन तथा इसके प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
“साप्ताहिक महावीर” और “चंद्रोदय” जैसे हिंदी की प्रारंभिक पत्रिकाओं ने कश्मीर में हिंदी के प्रचार-प्रसार की दिशा में प्रशंसनीय कार्य किया तथा इनके द्वारा कई साहित्यकारों को उभरने का समय मिला। कालांतर में ‘कश्यप’ नामक पत्रिका ने कश्मीर में हिंदी के विकास में बड़ा योगदान दिया तथा हिंदी के कई साहित्यकारों को प्रकाश में लाया । इसी प्रकार भारती, उद्भावना तथा घोषवती जैसी पत्रिकाओं ने जम्मू में हिंदी के विकास तथा विस्तार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। आजकल युवा हिंदी लेखक संघ (युहिले) हिंदी के विकास में अपना विशेष योगदान दे रहा है।
शब्दार्थ-
प्रचार-प्रसार- फैलाव, विस्तार
स्वतंत्र संगठन– निजी या गैर-सरकारी संस्था
स्वतंत्रता से पहले– भारत की आज़ादी (1947) से पहले
आर्यसमाज, सनातन धर्म सभा– धार्मिक-सामाजिक सुधार संगठन
हिंदी परिषद, हिंदी साहित्य सम्मेलन– हिंदी भाषा व साहित्य को बढ़ावा देने वाले संगठन
माध्यम- माध्यम, ज़रिया
शिक्षा संस्थान– विद्यालय, कॉलेज आदि
पत्रिकाएँ– नियमित रूप से प्रकाशित साहित्यिक या समाचार पत्र
विद्यापीठ– शिक्षा केंद्र, शिक्षण संस्थान
प्रारंभिक- शुरुआती
प्रशंसनीय- सराहनीय, तारीफ़ के योग्य
साहित्यकार- लेखक, कवि, साहित्य रचने वाला व्यक्ति
प्रकाश में लाना– सामने लाना, उजागर करना
विकास व विस्तार- उन्नति और फैलाव
युवा हिंदी लेखक संघ (युहिले)– हिंदी लेखन को बढ़ावा देने वाला युवा संगठन
व्याख्या- इस गद्याँश में जम्मू-कश्मीर में हिंदी के प्रचार-प्रसार में सामाजिक, साहित्यिक और शैक्षिक संगठनों की भूमिका को विस्तार से बताया गया है। इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि स्वतंत्रता से पहले और बाद में अनेक संस्थाओं और संगठनों ने हिंदी भाषा के विकास और प्रसार के लिए निरंतर कार्य किया।
स्वतंत्रता से पूर्व, कश्मीर में आर्य समाज, सनातन धर्म सभा, महावीर दल, श्रीराम त्रिक आश्रम, श्री अलकेश्वरी सभा ट्रस्ट, हिंदी परिषद, हिंदी संस्कृत साहित्य मंडल और हिंदी साहित्य सम्मेलन जैसे संगठनों ने न केवल हिंदी की परीक्षाओं के लिए छात्रों को तैयार किया, बल्कि हिंदी माध्यम के विद्यालय भी स्थापित किए और हिंदी पत्रिकाओं का प्रकाशन भी किया। यह कार्य शिक्षा, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में हिंदी के प्रति गहरे समर्पण को बताता है।
इसी काल में मास्टर दयाराम नामक हिंदी प्रेमी ने जम्मू में एक विद्यापीठ की स्थापना की, जहाँ हिंदी छात्रों को विभिन्न परीक्षाओं की तैयारी कराई जाती थी। यह विद्यापीठ हिंदी शिक्षा के विस्तार में महत्वपूर्ण योगदान के लिए जाना गया।
‘हिंदी साहित्य मंडल’ नामक संस्था ने भी जम्मू में हिंदी लेखन को बढ़ावा देने और इसके प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हिंदी पत्रिकाओं की भी इसमें विशेष भूमिका रही। ‘साप्ताहिक महावीर’ और ‘चंद्रोदय’ जैसी प्रारंभिक हिंदी पत्रिकाओं ने कश्मीर में हिंदी प्रचार के क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया और स्थानीय हिंदी लेखकों को मंच प्रदान किया। बाद में ‘कश्यप’ नामक पत्रिका ने हिंदी के प्रचार और अनेक हिंदी साहित्यकारों को पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसी प्रकार ‘भारती’, ‘उद्भावना’, और ‘घोषवती’ जैसी पत्रिकाओं ने जम्मू में हिंदी साहित्य के विकास और विस्तार को बढ़ावा दिया।
वर्तमान समय में ‘युवा हिंदी लेखक संघ (युहिले)’ जैसे संगठन नई पीढ़ी के लेखकों को मंच देने का कार्य कर रहे हैं और हिंदी के विकास में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं।
स्पष्ट है कि जम्मू-कश्मीर में हिंदी के प्रचार-प्रसार में केवल शासन नहीं, बल्कि अनेक स्वतंत्र संगठनों, शिक्षाविदों और साहित्यिक संस्थानों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है, जिससे हिंदी भाषा यहाँ गहराई से स्थापित हुई।
पाठ – स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जम्मू-कश्मीर में प्रचार-प्रसार तथा विकास द्रुतगति से होने लगा। भारतीय संविधान के अनुसार हिंदी हमारी राजकीय भाषा है तथा इसे सरकारी संरक्षण प्राप्त है। अपनी लोकप्रियता के कारण यह हमारी राष्ट्रभाषा बन गई है। यह सही है कि जम्मू-कश्मीर की सरकारी भाषा उर्दू है फिर भी स्कूलों के पाठ्यक्रम में हिंदी एक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है। राज्य के विद्यालयों में हिंदी पढ़ाने की व्यवस्था है । महाविद्यालयों में भी हिंदी पढ़ाई जाती है। कई महाविद्यालयों में पत्रिकाएँ निकाली जाती हैं। इनके हिंदी अनुभागों में छात्रों को अपनी रचनाएँ प्रकाशित कराने का अवसर मिलता है। इन पत्रिकाओं में ‘प्रताप’ तथा ‘तवी’ जैसे पत्रिकाएँ उल्लेखनीय हैं। जम्मू-कश्मीर के विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में प्रति वर्ष सैंकड़ों छात्र प्रवेश लेते हैं। हिंदी में एम० ए० पढ़ाने के अतिरिक्त यहां एम० फिल० तथा पी० एच० डी० करने की भी व्यवस्था है। इन विश्वविद्यालयों में अभी तक सैंकड़ों शोधप्रबंध लिखे जा चुके हैं। जम्मू-कश्मीर में स्थापित केंद्रीय कार्यालयों ने भी यहां हिंदी को लोकप्रिय बनाने में सहायता दी है। इन कार्यालयों में आंशिक रूप से सरकारी काम-काज हिंदी में होता है। जम्मू-कश्मीर में जो सैनिक भाई देश के विभिन्न क्षेत्रों से आते हैं, वे आमतौर पर हिंदी में बातचीत करते हैं। इससे जम्मू-कश्मीर में हिंदी का वातावरण बन रहा है। अब लद्दाख में भी हिंदी का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा है। कई एक लेखक हिंदी साहित्य सृजन में अपना योगदान दे रहे हैं। थुपसन च्वांग की हिंदी कहानियाँ इस बात का प्रमाण हैं। देश के अन्य क्षेत्रों की तरह यहाँ भी छात्र-छात्राएँ हिंदी में पर्याप्त रुचि ले रहे हैं।
शब्दार्थ-
द्रुतगति– तेज़ गति से
राजकीय भाषा– सरकार द्वारा स्वीकृत भाषा
संरक्षण– देखरेख
राष्ट्रभाषा– पूरे देश में लोकप्रिय और सामान्यत: बोली जाने वाली भाषा
पाठ्यक्रम- शिक्षा में पढ़ाए जाने वाले विषयों की सूची
महाविद्यालय– कॉलेज
अनुभाग- वर्ग, उप विभाग
रचनाएँ- साहित्यिक लेखन (कविता, कहानी, लेख आदि)
विशेष रूप से उल्लेखनीय– ख़ास तौर पर ध्यान देने योग्य
प्रवेश- दाखिला/एडमिशन लेना
एम.ए., एम.फिल., पी.एच.डी.- उच्च शिक्षा की डिग्रियाँ
शोधप्रबंध– खोज ग्रंथ
केंद्रीय कार्यालय– भारत सरकार के विभाग
आंशिक रूप से– कुछ हद तक / पूरी तरह नहीं
काम-काज– सरकारी कार्य
हिंदी का वातावरण– हिंदी के उपयोग और रुचि का माहौल
सृजन – रचना, बनाना
प्रमाण- सबूत
व्याख्या- प्रस्तुत गद्याँश स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जम्मू-कश्मीर में हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार और विकास की स्थिति को बताता है। स्वतंत्र भारत के संविधान में हिंदी को राजकीय भाषा का दर्जा प्राप्त है और इसे सरकारी संरक्षण भी प्राप्त है। इस लोकप्रियता और व्यापक प्रयोग के कारण हिंदी को राष्ट्रभाषा की प्रतिष्ठा मिली है।
हालाँकि जम्मू-कश्मीर की सरकारी भाषा उर्दू है, फिर भी हिंदी को शिक्षा व्यवस्था में विशेष स्थान प्राप्त है। राज्य के विद्यालयों में हिंदी एक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है, और महाविद्यालयों में भी हिंदी शिक्षण की सुविधा उपलब्ध है। कई कॉलेजों में हिंदी पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं, जिनमें छात्रों को अपनी रचनाएँ प्रकाशित करने का अवसर मिलता है। इन पत्रिकाओं में ‘प्रताप’ और ‘तवी’ जैसे नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
जम्मू-कश्मीर के विश्वविद्यालयों में भी हिंदी विभाग सक्रिय हैं, जिनमें सैकड़ों छात्र एम.ए., एम.फिल. और पी.एच.डी. की पढ़ाई कर रहे हैं। अब तक सैकड़ों शोध प्रबंध हिंदी विषय पर लिखे जा चुके हैं, जो हिंदी के शैक्षणिक विकास को बताते हैं।
राज्य में स्थित केंद्रीय कार्यालयों ने भी हिंदी को लोकप्रिय बनाने में सहायता की है। इनमें कुछ हद तक सरकारी काम-काज हिंदी में किया जाता है, जिससे हिंदी का प्रयोग बढ़ा है। इसके अलावा, देश के अन्य भागों से जो सैनिक जम्मू-कश्मीर में तैनात होते हैं, वे सामान्यतः हिंदी में संवाद करते हैं, जिससे स्थानीय वातावरण में हिंदी का प्रभाव बढ़ता जा रहा है।
अब लद्दाख जैसे क्षेत्र में भी हिंदी का प्रचार-प्रसार तेजी से हो रहा है। वहाँ के स्थानीय लेखक, जैसे थुपसन च्वांग, हिंदी में कहानियाँ लिख रहे हैं, जो यह बताता है कि हिंदी स्थानीय साहित्यिक सृजन का माध्यम भी बन रही है।
देश के अन्य भागों की तरह जम्मू-कश्मीर के छात्र-छात्राएँ भी हिंदी में गहरी रुचि ले रहे हैं, जिससे यह साबित होता है कि हिंदी एक जीवंत और सक्रिय भाषा के रूप में यहाँ निरंतर विकसित हो रही है।
स्वतंत्रता के बाद से जम्मू-कश्मीर में शिक्षा, प्रशासन, साहित्य और सामाजिक संवाद के स्तर पर हिंदी का प्रसार तेज़ी से हुआ है और यह अब राज्य के सांस्कृतिक और शैक्षणिक जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है।
पाठ – पिछले कुछ वर्षों से जम्मू-कश्मीर में साहित्यकारों का एक बड़ा वर्ग उभरकर सामने आया, जिसने हिंदी में अपनी रचनाएँ लिखीं। इस लेखन के फलस्वरूप राज्य में हिंदी कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना, नाटक जैसी विधाएँ उभर कर सामने आई हैं। ये साहित्यकार आधुनिक संवेदना से प्रभावित हैं तथा इनका लेखन-कार्य जारी है।
यहाँ यह कहना असंगत न होगा कि सिनेमा, दूरदर्शन, रेडियो आदि के द्वारा राज्य में हिंदी का प्रचार-प्रसार तेज़ गति से हुआ | हिंदी चलचित्र लोग चाव से देखते हैं। ‘शीराज़ा’, ‘योजना’, ‘वितस्ता’, ‘नीलजा’, ‘हिमानी’ जैसी पत्रिकाएँ यहाँ हिंदी लेखन को प्रकाशित कराने में आजकल सक्रिय हैं। ‘कश्मीर टाइम्स’, ‘जम्मू समाचार’, ‘इवनिंग न्यूज़’ आदि हिंदी में समाचार पत्र छपते हैं।
कुल मिलाकर जम्मू-कश्मीर में हिंदी का भविष्य उज्जवल है।
शब्दार्थ-
साहित्यकार- लेखक, कवि, रचनाकार
वर्ग- समूह
रचनाएँ- साहित्यिक लेखन (जैसे – कविता, कहानी, उपन्यास आदि)
लेखन के फलस्वरूप– लेखन के परिणामस्वरूप
विधाएँ- प्रकार, श्रेणियाँ (जैसे कविता, नाटक, उपन्यास आदि)
आलोचना– समीक्षा करना, रचनात्मक विवेचना
संवेदना- भावना, संवेदनशील सोच
प्रभावित- असर में आना, प्रेरित होना
असंगत – बेमेल
तेज़ गति से- बहुत तेजी से, जल्दी-जल्दी
चलचित्र- फिल्म, सिनेमा
चाव से- रुचि के साथ, उत्साहपूर्वक
सक्रिय- काम में लगे हुए, कार्यशील
समाचार पत्र– अख़बार
उज्ज्वल भविष्य– अच्छा और आशावादी आने वाला समय
व्याख्या- प्रस्तुत गद्याँश में वर्तमान समय में जम्मू-कश्मीर में हिंदी साहित्य के विकास और हिंदी भाषा के उज्जवल भविष्य की चर्चा की गई है। इसमें बताया गया है कि पिछले कुछ वर्षों में राज्य में हिंदी में सृजन करने वाले साहित्यकारों का एक बड़ा वर्ग उभरकर सामने आया है। इन साहित्यकारों की रचनाओं से हिंदी कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना और नाटक जैसी साहित्यिक विधाएँ जम्मू-कश्मीर में सशक्त रूप से स्थापित हुई हैं।
इन लेखकों की रचनाओं में आधुनिक युग की संवेदनाएँ, जैसे – सामाजिक बदलाव, राजनीतिक चेतना, आंतरिक संघर्ष, सांस्कृतिक पहचान आदि की अभिव्यक्ति मिलती है। ये रचनाकार आज भी सक्रिय हैं और हिंदी में लगातार साहित्य सृजन कर रहे हैं।
इसके अतिरिक्त, सिनेमा, दूरदर्शन और रेडियो जैसे जनमाध्यमों के कारण भी हिंदी का प्रचार-प्रसार तेज़ गति से हुआ है। लोग हिंदी चलचित्रों (फिल्मों) को बड़े चाव से देखते हैं, जिससे हिंदी के प्रति उनकी रुचि और समझ बढ़ी है।
वर्तमान में कई हिंदी पत्रिकाएँ जैसे – ‘शीराज़ा’, ‘योजना’, ‘वितस्ता’, ‘नीलजा’, ‘हिमानी’ — जम्मू-कश्मीर में हिंदी लेखन को मंच प्रदान कर रही हैं। ये पत्रिकाएँ नए और स्थापित लेखकों की रचनाओं का प्रकाशन कर हिंदी साहित्य के विकास में सहयोग कर रही हैं।
साथ ही ‘कश्मीर टाइम्स’, ‘जम्मू समाचार’, और ‘इवनिंग न्यूज़’ जैसे हिंदी समाचार पत्र यहाँ नियमित रूप से प्रकाशित होते हैं, जो न केवल सूचना का माध्यम हैं, बल्कि हिंदी भाषा के प्रचार का सशक्त साधन भी बन चुके हैं।
यह कहा जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर में हिंदी भाषा का वर्तमान आधार मजबूत है, और साहित्यिक, सांस्कृतिक व संचार माध्यमों के सहयोग से इसका भविष्य अत्यंत उज्ज्वल प्रतीत होता है।
Conclusion
दिए गए पोस्ट में हमने ‘जम्मू-कश्मीर व लद्दाख में हिंदी’ पाठ का साराँश, पाठ व्याख्या और शब्दार्थ को जाना। यह पाठ कक्षा 10 हिंदी के पाठ्यक्रम से लिया गया है।
इस पाठ में जम्मू-कश्मीर में हिंदी के विकास और प्रभाव को बताया गया है। इसमें विस्तार से बताया गया है कि कैसे यह अहिंदीभाषी प्रदेश होने के बावजूद हिंदी भाषा ने यहाँ अपने अस्तित्व को स्थापित किया और समय के साथ लोकप्रिय होती गई।
यह पोस्ट विद्यार्थियों को पाठ को गहराई से समझने में मदद करेगा और परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने में भी सहायक सिद्ध होगा।