मेरी माँ पाठ सार
CBSE Class 6 Hindi Chapter 6 “Meri Maa”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Malhar Book
मेरी माँ सार – Here is the CBSE Class 6 Hindi Malhar Chapter 6 Meri Maa Summary with detailed explanation of the lesson ‘Meri Maa’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary
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Meri Maa (मेरी माँ)
– रामप्रसाद ‘बिस्मिल’
“मेरी माँ” रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ की आत्मकथा है, जिसमें वे अपनी माता के प्रति अपनी गहरी श्रद्धा और कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। इस रचना में बिस्मिल ने अपनी माँ के स्नेह, त्याग और समर्थन को बड़े ही भाव के साथ प्रस्तुत किया है। उनकी माँ ने न केवल उनके शिक्षित होने में योगदान दिया, बल्कि उनके क्रांतिकारी विचारों को भी बढ़ावा दिया। उन्होंने हर संकट में अपने पुत्र को धैर्य और साहस दिया। बिस्मिल अपनी माँ को केवल जन्मदात्री ही नहीं, बल्कि आत्मिक, धार्मिक और सामाजिक उन्नति में सहायक मार्गदर्शक के रूप में भी देखते हैं। यह पाठ माता के प्रति प्रेम और देशभक्ति की अनूठी भावना को बताता है।
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मेरी माँ पाठ का सार Meri Maa Summary
रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ की आत्मकथा “मेरी माँ” भावों से भरी हुई और प्रेरणा देनी वाली रचना है, जिसमें उन्होंने अपनी माँ के लिए बहुत श्रद्धा और प्रेम दिखाया है। इस पाठ में बिस्मिल अपने बचपन और युवा अवस्था की घटनाओं को बताते हैं, जहाँ उनकी माँ का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव रहा।
बिस्मिल बताते हैं कि उनके पिता और दादी उनके स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने से मना कर रहे थे, लेकिन उनकी माँ ने हमेशा उनका साथ दिया। उन्होंने अपने बेटे को शिक्षा पूरी करने और अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहने के लिए प्रेरित किया। माताजी का साथ मिलने से ही बिस्मिल ने जीवन में कठिनाइयों का सामना करते हुए भी अपने संकल्प को नहीं छोड़ा।
अपनी माँ की संघर्षशीलता का उल्लेख करते हुए बिस्मिल बताते हैं कि वे एक ग्रामीण, अशिक्षित कन्या के रूप में शाहजहाँपुर आईं, लेकिन उन्होंने खुद ही पढ़ने की रुचि दिखाई और शिक्षा प्राप्त की। वे न केवल एक अच्छी गृहिणी बनीं, बल्कि अपने बच्चों को भी शिक्षा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाईं। माताजी के विचार भी आर्य समाज के प्रभाव से उदार हुए, जिससे बिस्मिल को अपने क्रांतिकारी विचारों को आगे बढ़ाने में सहायता मिली।
बिस्मिल अपनी माँ को केवल जन्मदात्री ही नहीं, बल्कि उनकी आत्मिक, धार्मिक और सामाजिक उन्नति की मार्गदर्शक भी मानते हैं। उनकी माँ ने उन्हें सत्य और नैतिकता का पालन करने की शिक्षा दी। उन्होंने बिस्मिल को यह उपदेश दिया कि किसी भी परिस्थिति में निर्दोष व्यक्ति की प्राण-हानि नहीं होनी चाहिए।
अंत में, बिस्मिल अपनी माँ से माँफी माँगते हुए कहते हैं कि वे कभी उनका क़र्ज़ नहीं चुका पाएंगे। वे चाहते थे कि अपने अंतिम समय में माँ के चरणों की सेवा करें, लेकिन उन्हें यह अवसर नहीं मिला। वे माँ से प्रार्थना करते हैं कि जब भारत स्वतंत्र होगा, तो इतिहास में उनके बलिदान के साथ उनकी माँ का नाम भी स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। इस मन को छूने वाली बात से उनकी मातृभक्ति, त्याग और देशप्रेम की भावना उजागर होती है।
मेरी माँ पाठ व्याख्या Meri Maa Explanation
पाठ
लखनऊ कांग्रेस में जाने के लिए मेरी बड़ी इच्छा थी। दादीजी और पिताजी तो विरोध करते रहे, किंतु माताजी ने मुझे खर्च दे ही दिया। उसी समय शाहजहाँपुर में सेवा-समिति का आरंभ हुआ था। मैं बड़े उत्साह के साथ सेवा समिति में सहयोग देता था। पिताजी और दादीजी को मेरे इस प्रकार के कार्य अच्छे न लगते थे, किंतु माताजी मेरा उत्साह भंग न होने देती थीं, जिसके कारण उन्हें अक्सर पिताजी की डाँट-फटकार तथा दंड सहन करना पड़ता था। वास्तव में, मेरी माताजी देवी हैं। मुझमें जो कुछ जीवन तथा साहस आया, वह मेरी माताजी तथा गुरुदेव श्री सोमदेव जी की कृपाओं का ही परिणाम है।
शब्दार्थ-
कांग्रेस – एक राजनीतिक संगठन
विरोध – असहमति
सेवा-समिति – समाज सेवा के लिए बनाई गई संस्था।
उत्साह – जोश
सहयोग – मदद
उत्साह भंग होना – हिम्मत टूट जाना
डाँट-फटकार – कठोर शब्दों में डाँटना।
दंड – सज़ा
परिणाम – फल
कृपा – दया
व्याख्या- प्रस्तुत अंश में रामप्रसाद बिस्मिल बताते हैं कि उन्हें लखनऊ कांग्रेस में जाने की बहुत इच्छा थी, लेकिन उनके पिता और दादी इसका विरोध करते थे। इसके विपरीत, उनकी माँ ने उनका समर्थन किया और यात्रा के लिए पैसे भी दिए। इसी दौरान शाहजहाँपुर में एक सेवा-समिति बनी, जिसमें बिस्मिल ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। उनके इस कार्य से पिताजी और दादी नाखुश रहते थे, लेकिन उनकी माँ हमेशा उनका हौसला बढ़ाती थीं। इसके कारण उन्हें कई बार पिताजी की डाँट और दंड भी सहन करना पड़ता था। बिस्मिल मानते हैं कि उनकी माँ एक देवी के समान थीं और उनके जीवन में जो भी साहस और दृढ़ता आई, वह उनकी माँ और गुरुदेव सोमदेव जी की कृपा से ही संभव हुआ।
पाठ
दादीजी और पिताजी मेरे विवाह के लिए बहुत अनुरोध करते, किंतु माताजी यही कहतीं कि शिक्षा पा चुकने के बाद ही विवाह करना उचित होगा। माताजी के प्रोत्साहन तथा सद्व्यवहार ने मेरे जीवन में वह दृढ़ता उत्पन्न की कि किसी आपत्ति तथा संकट के आने पर भी मैंने अपने संकल्प को न त्यागा।
शब्दार्थ-
अनुरोध – विनती
उचित – सही
प्रोत्साहन – हिम्मत देना
सद्व्यवहार – अच्छा व्यवहार।
दृढ़ता – मजबूती
आपत्ति – परेशानी
संकट – मुश्किल
संकल्प – पक्का इरादा।
त्यागना – छोड़ना
व्याख्या- बिस्मिल जी बताते हैं कि उनकी दादीजी और पिताजी चाहते थे कि उनकी शादी जल्दी हो जाए, लेकिन उनकी माँ का मानना था कि पहले पढ़ाई पूरी करना जरूरी है। माँ हमेशा उनका मनोबल बढ़ती थीं और प्यार से समझाती थीं। उनकी माँ के अच्छे व्यवहार और साथ मिलने से ही बिस्मिल जी के अंदर विश्वास और हिम्मत आई। इसी कारण, जब भी उनके जीवन में कोई मुश्किल या परेशानी आई, तो उन्होंने कभी हार नहीं मानी और अपने संकल्प पर डटे रहे।
पाठ
एक समय मेरे पिताजी दीवानी मुकदमे में किसी पर दावा करके वकील से कह गए थे कि जो काम हो वह मुझसे करा लें। कुछ आवश्यकता पड़ने पर वकील साहब ने मुझे बुला भेजा और कहा कि मैं पिताजी के हस्ताक्षर वकालतनामे पर कर दूँ। मैंने तुरंत उत्तर दिया कि यह तो धर्म विरुद्ध होगा, इस प्रकार का पाप मैं कदापि नहीं कर सकता। वकील साहब ने बहुत समझाया कि मुकदमा खारिज हो जाएगा। किंतु मुझ पर कुछ भी प्रभाव न हुआ, न मैंने हस्ताक्षर किए। अपने जीवन में हमेशा सत्य का आचरण करता था, चाहे कुछ हो जाए, सत्य बात कह देता था।
शब्दार्थ-
दीवानी मुकदमा – संपत्ति या धन संबंधी कानूनी मामला।
दावा – कानूनी अधिकार जताना
वकील – न्यायालय में मुकदमा लड़ने वाला व्यक्ति
वकालतनामा – किसी वकील को मुकदमा लड़ने की अनुमति देने वाला कागज़
धर्म विरुद्ध – धार्मिक सिद्धांतों के खिलाफ
पाप – बुरा कार्य
कदापि – कभी भी नहीं
खारिज होना – अस्वीकृत होना
प्रभाव – असर
आचरण – व्यवहार, जीवन में अपनाई जाने वाली नीति।
सत्य – सच्चाई
व्याख्या- एक बार लेखक के पिताजी ने एक मुकदमा दायर किया और वकील से कहा कि जरूरत पड़ने पर उनका बेटा मदद कर देगा। जब वकील ने बिस्मिल जी को बुलाकर उनके पिताजी के दस्तखत करने के लिए कहा, तो उन्होंने साफ मना कर दिया। उन्होंने कहा कि यह धर्म के खिलाफ होगा और वे ऐसा गलत काम नहीं कर सकते। वकील ने उन्हें बहुत समझाने की कोशिश की कि अगर वे दस्तखत नहीं करेंगे तो मुकदमा अस्वीकार कर दिया जाएगा, लेकिन बिस्मिल जी अपने फैसले पर अड़े रहे। उन्होंने हमेशा सच का साथ दिया और चाहे कोई भी स्थिति हो, वे कभी झूठ बोलने या गलत काम करने के लिए तैयार नहीं हुए।
पाठ
ग्यारह वर्ष की उम्र में माताजी विवाह कर शाहजहाँपुर आई थीं। उस समय वह नितांत अशिक्षित एक ग्रामीण कन्या के समान थीं। शाहजहाँपुर आने के थोड़े दिनों बाद दादीजी ने अपनी छोटी बहन को बुला लिया। उन्होंने माताजी को गृहकार्य की शिक्षा दी। थोड़े दिनों में माताजी ने घर के सब काम-काज को समझ लिया और भोजनादि का ठीक-ठीक प्रबंध करने लगीं। मेरे जन्म होने के पाँच या सात वर्ष बाद उन्होंने हिंदी पढ़ना आरंभ किया। पढ़ने का शौक उन्हें खुद ही पैदा हुआ था। मुहल्ले की सखी-सहेली जो घर पर आया करती थीं, उन्हीं में जो शिक्षित थीं, माताजी उनसे अक्षर-बोध करतीं। इस प्रकार घर का सब काम कर चुकने के बाद जो कुछ समय मिल जाता, उसमें पढ़ना-लिखना करती। परिश्रम के फल से थोड़े दिनों में ही वह देवनागरी पुस्तकों का अध्ययन करने लगीं। मेरी बहनों को छोटी आयु में माताजी ही शिक्षा दिया करती थीं।

शब्दार्थ-
नितांत – पूरी तरह
अशिक्षित – जिसे शिक्षा न मिली हो
ग्रामीण कन्या – गाँव की लड़की
गृहकार्य – घर के कामकाज
भोजनादि – भोजन और उससे संबंधित
शौक – रुचि
अक्षर-बोध – पढ़ने-लिखने की शुरुआती समझ
परिश्रम – मेहनत
देवनागरी – हिंदी, संस्कृत आदि भाषाओं की लिखने की लिपि
अध्ययन – पढ़ाई
सखी-सहेली – दोस्त, महिला मित्र।
व्याख्या- जब बिस्मिल जी की माताजी की शादी हुई, तब उनकी उम्र केवल ग्यारह साल थी। शादी के बाद जब वे शाहजहाँपुर आईं, तब वे बिल्कुल अनपढ़ थीं और एक गाँव की साधारण लड़की की तरह थीं। शादी के कुछ समय बाद, बिस्मिल जी की दादी ने अपनी छोटी बहन को बुलाया, जिन्होंने उनकी माताजी को घर के काम-काज सिखाए। धीरे-धीरे, उन्होंने सारे घरेलू काम सीख लिए और घर की अच्छी देखभाल करने लगीं।
बिस्मिल जी के जन्म के पाँच से सात साल बाद, उनकी माताजी ने खुद ही हिंदी पढ़ना शुरू किया। उन्हें पढ़ाई का बहुत शौक था। मोहल्ले में जो महिलाएँ शिक्षित थीं, उनसे वे अक्षर पहचानना सीखती थीं। दिनभर घर का काम करने के बाद जो भी समय बचता, उसमें वे पढ़ाई करती थीं। उनकी मेहनत और लगन से वे जल्द ही देवनागरी लिपि में लिखी किताबें पढ़ने लगीं। इसके बाद, उन्होंने अपनी छोटी बेटियों को भी पढ़ाना शुरू कर दिया, जिससे यह साबित हुआ कि वे न केवल एक अच्छी गृहिणी थीं, बल्कि शिक्षा को भी महत्व देती थीं।
पाठ
जब से मैंने आर्यसमाज में प्रवेश किया, माताजी से खूब वार्तालाप होता। उस समय की अपेक्षा अब उनके विचार भी कुछ उदार हो गए हैं। यदि मुझे ऐसी माता न मिलतीं तो मैं भी अति साधारण मनुष्यों की भाँति संसार-चक्र में फँसकर जीवन निर्वाह करता। शिक्षादि के अतिरिक्त क्रांतिकारी जीवन में भी उन्होंने मेरी वैसी ही सहायता की है, जैसी मेजिनी को उनकी माता ने की थी। माताजी का सबसे बड़ा आदेश मेरे लिए यही था कि किसी की प्राणहानि न हो। उनका कहना था कि अपने शत्रु को भी कभी प्राणदंड न देना। उनके इस आदेश की पूर्ति करने के लिए मुझे मजबूरन दो-एक बार अपनी प्रतिज्ञा भंग करनी पड़ी थी।
शब्दार्थ-
आर्यसमाज – स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित एक धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलन
वार्तालाप – बातचीत
अपेक्षा – तुलना में
उदार – खुले विचारों वाला
संसार-चक्र – जीवन की सामान्य दिनचर्या
जीवन निर्वाह – जीने का तरीका
क्रांतिकारी जीवन – स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा जीवन
मेजिनी – इटली के क्रांतिकारी नेता ग्यूसेपे मेजिनी, जिन्होंने इटली की आज़ादी में योगदान दिया
प्राणहानि – किसी की जान लेना
प्राणदंड – किसी को मार डालने की सजा
आदेश की पूर्ति – आज्ञा का पालन करना
मजबूरन – मजबूरी में
प्रतिज्ञा भंग – अपनी कसम तोड़ना
व्याख्या- जब बिस्मिल जी आर्य समाज में शामिल हुए, तब उनकी माताजी से उनकी बातचीत और भी अधिक होने लगी। समय के साथ उनकी माताजी के विचार पहले की तुलना में अधिक खुले और उदार हो गए। बिस्मिल जी कहते हैं कि यदि उन्हें ऐसी माँ न मिली होती, तो वे भी आम लोगों की तरह साधारण जीवन जीते और किसी बड़ी उपलब्धि की ओर नहीं बढ़ते।
उनकी माताजी ने न केवल उनकी शिक्षा में, बल्कि उनके क्रांतिकारी जीवन में भी बहुत सहयोग दिया, ठीक वैसे ही जैसे मेजिनी की माँ ने अपने बेटे का समर्थन किया था। उनकी माताजी का सबसे महत्वपूर्ण आदेश यह था कि किसी की जान न ली जाए। वे हमेशा कहती थीं कि अपने दुश्मन को भी कभी प्राणदंड मत देना। बिस्मिल जी ने इस आदेश का पालन करने की पूरी कोशिश की, लेकिन समय के बदलाव के कारण उन्हें कभी-कभी अपनी प्रतिज्ञा तोड़नी पड़ी।
पाठ
जन्मदात्री जननी! इस जीवन में तो तुम्हारा ऋण उतारने का प्रयत्न करने का भी अवसर न मिला। इस जन्म में तो क्या यदि मैं अनेक जन्मों में भी सारे जीवन प्रयत्न करूँ तो भी तुमसे
उऋण नहीं हो सकता। जिस प्रेम तथा दृढ़ता के साथ तुमने इस तुच्छ जीवन का सुधार किया है, वह अवर्णनीय है। मुझे जीवन की प्रत्येक घटना का स्मरण है कि तुमने जिस प्रकार अपनी देववाणी का उपदेश करके मेरा सुधार किया है।
शब्दार्थ-
जन्मदात्री – जन्म देने वाली
जननी – माता, माँ
ऋण – कर्ज, उपकार
उतारने – चुकाने, समाप्त करने।
उऋण – कर्जमुक्त, किसी के उपकार से मुक्त होना
प्रयत्न – कोशिश
तुच्छ – छोटा
अवर्णनीय – जिसे शब्दों में बताया न जा सके
जीवन की प्रत्येक घटना – जीवन की हर घटना, हर अनुभव
स्मरण – याद
देववाणी – ज्ञान से भरपूर शब्द
उपदेश – सीख, शिक्षा
व्याख्या- प्रस्तुत गद्यांश में लेखक अपनी माताजी के प्रति गहरा सम्मान जताते हुए कहते हैं कि वे अपने जीवन में कभी भी अपनी माँ का ऋण नहीं उतार सकते। वे यह मानते हैं कि न केवल इस जन्म में, बल्कि अगर उन्हें कई जन्म भी मिल जाएँ, तब भी वे अपनी माँ के उपकारों का बदला नहीं चुका सकते।
उनकी माँ ने जिस प्रेम और दृढ़ता से उनके जीवन को सँवारा, वह शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। वे अपने जीवन की हर घटना को याद करते हैं और महसूस करते हैं कि उनकी माँ के प्रेरणादायक उपदेशों ने ही उन्हें एक सशक्त और ईमानदार व्यक्ति बनाया।
पाठ
तुम्हारी दया से ही मैं देश-सेवा में संलग्न हो सका। धार्मिक जीवन में भी तुम्हारे ही प्रोत्साहन ने सहायता दी। जो कुछ शिक्षा मैंने ग्रहण की उसका भी श्रेय तुम्हीं को है। जिस मनोहर रूप से तुम मुझे उपदेश करती थीं, उसका स्मरण कर तुम्हारी मंगलमयी मूर्ति का ध्यान आ जाता है और मस्तक झुक जाता है। तुम्हें यदि मुझे ताड़ना भी देनी हुई, तो बड़े स्नेह से हर बात को समझा दिया। यदि मैंने धृष्टतापूर्ण उत्तर दिया तब तुमने प्रेम भरे शब्दों में यही कहा कि तुम्हें जो अच्छा लगे, वह करो, किंतु ऐसा करना ठीक नहीं, इसका परिणाम अच्छा न होगा। जीवनदात्री! तुमने इस शरीर को जन्म देकर केवल पालन-पोषण ही नहीं किया बल्कि आत्मिक, धार्मिक तथा सामाजिक उन्नति में तुम्हीं मेरी सदैव सहायक रहीं। जन्म-जन्मांतर परमात्मा ऐसी ही माता दें।
शब्दार्थ-
दया – कृपा
संलग्न – जुड़ा हुआ
प्रोत्साहन – हौसला देना
ग्रहण – प्राप्त करना
श्रेय – सम्मान
मनोहर – सुंदर
स्मरण – याद
मंगलमयी – शुभ, पवित्र
मूर्ति – रूप, छवि
मस्तक झुकाना – सिर झुकाना, सम्मान देना
ताड़ना – डाँटना
धृष्टतापूर्ण – अभिमान से भरा, असभ्य
परिणाम – नतीजा, असर
पालन-पोषण – देखभाल, परवरिश
आत्मिक – आत्मा से संबंधित
धार्मिक – धर्म से जुड़ा हुआ
सामाजिक – समाज से संबंधित
उन्नति – विकास, प्रगति
सदैव – हमेशा
जन्म-जन्मांतर – हर जन्म में
व्याख्या- बिस्मिल जी अपनी माँ के प्रति अत्यंत श्रद्धा प्रकट करते हुए कहते हैं कि उनकी माँ की दया और समर्थन के कारण ही वे देश सेवा में लग पाए। न केवल देशभक्ति, बल्कि धार्मिक जीवन में भी उनकी माँ ने उन्हें हमेशा प्रेरित किया। जो भी शिक्षा उन्होंने ग्रहण की, उसका पूरा श्रेय अपनी माँ को देते हैं।
वे याद करते हैं कि उनकी माँ हमेशा उन्हें प्रेम से समझाती थीं। अगर कभी वे गलत रास्ते पर जाने लगते या कोई अनुचित उत्तर देते, तो उनकी माँ उन्हें डांटने या दंड देने के बजाय शांत और प्रेमपूर्ण शब्दों में समझाती थीं कि क्या सही है और क्या गलत। बिस्मिल जी कहते हैं कि उनकी माँ ने केवल उनका पालन-पोषण ही नहीं किया, बल्कि उनके चरित्र, विचार और आचरण को भी संवारने का कार्य किया। उन्होंने उन्हें सिखाया कि सच्ची शक्ति दयालुता और प्रेम में होती है।
अंत में, वे भावुक होकर कहते हैं कि वे अपनी माँ के ऋण को कभी चुका नहीं सकते। एक नहीं, अनेक जन्मों में भी अगर वे प्रयास करें, तो भी वे अपनी माँ की महानता और त्याग का बदला नहीं चुका पाएंगे। वे प्रार्थना करते हैं कि हर जन्म में उन्हें ऐसी ही माँ मिले, जो अपने प्रेम और शिक्षा से उन्हें सही राह दिखाए।
पाठ
महान से महान संकट में भी तुमने मुझे अधीर नहीं होने दिया। सदैव अपनी प्रेम भरी वाणी को सुनाते हुए मुझे सांत्वना देती रहीं। तुम्हारी दया की छाया में मैंने अपने जीवन भर में कोई कष्ट अनुभव न किया। इस संसार में मेरी किसी भी भोग-विलास तथा ऐश्वर्य की इच्छा नहीं। केवल एक इच्छा है, वह यह कि एक बार श्रद्धापूर्वक तुम्हारे चरणों की सेवा करके अपने जीवन को सफल बना लेता। किंतु यह इच्छा पूर्ण होती नहीं दिखाई देती और तुम्हें मेरी मृत्यु की दुखभरी खबर सुनाई जाएगी। माँ! मुझे विश्वास है कि तुम यह समझ कर धैर्य धारण करोगी कि तुम्हारा पुत्र माताओं की माता या भारत माता की सेवा में अपने जीवन को बलि-देवी की भेंट कर गया और उसने तुम्हारी कोख कलंकित न की, अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहा।
शब्दार्थ-
महान – बहुत बड़ा
संकट – कठिनाई
अधीर – धैर्यहीन
सदैव – हमेशा
प्रेम भरी वाणी – प्यार से कही गई बातें
सांत्वना – दिलासा
दया की छाया – कृपा और संरक्षण
कष्ट – दुख, परेशानी
भोग-विलास – ऐशो-आराम, सुख-सुविधा
ऐश्वर्य – धन-वैभव, संपत्ति
श्रद्धापूर्वक – सम्मान और आदर के साथ
चरणों की सेवा – माँ की सेवा करना, आदरपूर्वक देखभाल करना
सफल – सार्थक
इच्छा – चाह, अभिलाषा
पूर्ण – पूरा होना
दुखभरी खबर – शोकपूर्ण समाचार
धैर्य धारण करना – हिम्मत रखना
माताओं की माता – भारत माता, देश
बलि-देवी – बलिदान की देवी
कोख कलंकित करना – परिवार या माँ का नाम बदनाम करना
प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहना – अपने वचन या संकल्प को निभाना
व्याख्या- बिस्मिल जी कहते हैं कि उनकी माँ ने उन्हें हर बड़े से बड़े संकट में भी कभी धैर्य नहीं खोने दिया। जब भी वे किसी कठिनाई में पड़े, उनकी माँ ने अपनी प्रेम भरी वाणी से उन्हें तसल्ली दी और हिम्मत बढ़ाई। माँ की दया और आशीर्वाद के कारण ही उन्होंने अपने जीवन में कभी कोई कष्ट महसूस नहीं किया।
वे कहते हैं कि इस संसार में उन्हें कभी भी आरामदायक या ऐश्वर्य की कोई इच्छा नहीं रही। उनकी केवल एक ही इच्छा थी कि वे एक बार श्रद्धापूर्वक अपनी माँ के चरणों की सेवा करके अपने जीवन को सफल बना सकें। लेकिन उन्हें लगता है कि यह इच्छा कभी पूरी नहीं होगी, क्योंकि जल्द ही उनकी मृत्यु की दुखभरी खबर माँ को सुनाई जाएगी।
बिस्मिल जी अपनी माँ से विनती करते हैं कि जब यह खबर आए, तो वे धीरज रखें। उन्हें विश्वास है कि उनकी माँ यह समझेंगी कि उनका पुत्र माताओं की माता, अर्थात भारत माता की सेवा में अपना जीवन बलिदान कर गया। उन्होंने अपनी माँ की कोख को कभी कलंकित नहीं किया और अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे। उनका बलिदान देश की स्वतंत्रता और सेवा के लिए होगा, और यह उनका सबसे बड़ा कर्तव्य है।
पाठ
जब स्वाधीन भारत का इतिहास लिखा जाएगा तो उसके किसी पृष्ठ पर उज्ज्वल अक्षरों में तुम्हारा भी नाम लिखा जाएगा। गुरु गोबिंद सिंह जी की धर्मपत्नी ने जब अपने पुत्रों की मृत्यु की खबर सुनी तो बहुत प्रसन्न हुई थीं और गुरु के नाम पर धर्म-रक्षार्थ अपने पुत्रों के बलिदान पर मिठाई बाँटीं थी। जन्मदात्री! वर दो कि अंतिम समय भी मेरा हृदय किसी प्रकार विचलित न हो और तुम्हारे चरण कमलों को प्रणाम कर मैं परमात्मा का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करूँ।
शब्दार्थ-
स्वाधीन – आज़ाद
इतिहास – बीते हुए समय की घटनाओं की बात
पृष्ठ – पन्ना
उज्ज्वल अक्षर – चमकते हुए शब्द
गुरु गोबिंद सिंह जी – सिखों के दसवें गुरु
धर्मपत्नी – पत्नी, जीवन संगिनी
धर्म-रक्षार्थ – धर्म की रक्षा के लिए
बलिदान – त्याग, समर्पण
मिठाई बाँटना – खुशी प्रकट करने का तरीका
वर दो – आशीर्वाद दो
अंतिम समय – जीवन का अंतिम पल, मृत्यु-समय
हृदय विचलित होना – मन डगमगाना, डरना
चरण कमल – पूजनीय चरण, सम्माननीय पैर
प्रणाम – नमस्कार, श्रद्धा प्रकट करना
परमात्मा – ईश्वर, भगवान
स्मरण – याद करना, ध्यान करना
शरीर त्यागना – मृत्यु को प्राप्त होना
व्याख्या- लेखक अपनी माँ को संबोधित करते हुए कहते हैं कि जब स्वतंत्र भारत का इतिहास लिखा जाएगा, तो उसमें उनकी माँ का नाम भी उज्ज्वल अक्षरों में लिखा जाएगा।
वे गुरु गोबिंद सिंह जी की धर्मपत्नी का उदाहरण देते हैं, जिन्होंने अपने पुत्रों की मृत्यु की खबर सुनकर दुखी होने के बजाय प्रसन्नता व्यक्त की थी और धर्म की रक्षा के लिए अपने पुत्रों के बलिदान पर मिठाई बाँटी थी। उसी तरह, वे अपनी माँ से आशीर्वाद मांगते हैं कि जब उनका अंतिम समय आए, तो उनका हृदय किसी भी प्रकार से दुःखी न हो।
बिस्मिल जी प्रार्थना करते हैं कि वे अपने अंतिम क्षणों में अपनी माँ के चरणों को प्रणाम कर सकें और परमात्मा का स्मरण करते हुए शांत माँ से अपने प्राण त्याग सकें। उनका संकल्प अटूट है, और वे अपने जीवन के अंतिम पल तक अपने कर्तव्य पर अड़े रहने की इच्छा रखते हैं।
Conclusion
इस पोस्ट में हमने ‘मेरी माँ’ नामक पाठ का सारांश, पाठ व्याख्या और शब्दार्थ को विस्तार से समझा। यह पाठ मल्हार पुस्तक में शामिल है और कक्षा 6 हिंदी के पाठ्यक्रम का एक महत्वपूर्ण भाग है।
रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ द्वारा रचित इस पाठ में उनकी माता के प्रति प्रेम, श्रद्धा और सम्मान को दिखाया गया है।
इस पोस्ट को पढ़कर विद्यार्थी न केवल पाठ को बेहतर समझ सकेंगे, बल्कि इससे उन्हें परीक्षा में सटीक उत्तर लिखने और महत्वपूर्ण बिंदुओं को याद रखने में भी सहायता मिलेगी।
Mere ko bahut achcha Laga
Lovely 😍 I really don’t love Hindi but by this I understood everything