जम्मू की चित्रकला पाठ सार

 

JKBOSE Class 10 Hindi Chapter 12 “Jammu ki Chitrakala”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Bhaskar Bhag 2 Book

 

जम्मू की चित्रकला सार – Here is the JKBOSE Class 10 Hindi Bhaskar Bhag 2 Book Chapter 12 Jammu ki Chitrakala Summary with detailed explanation of the lesson “Jammu ki Chitrakala” along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary

 

इस पोस्ट में हम आपके लिए जम्मू और कश्मीर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड  कक्षा 10 हिंदी भास्कर भाग 2 के पाठ 12 जम्मू की चित्रकला पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप  इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 जम्मू की चित्रकला पाठ के बारे में जानते हैं।

 

Jammu ki Chitrakala (जम्मू की चित्रकला)

 

 

‘जम्मू की चित्रकला’ शीर्षक पाठ में जम्मू प्रदेश की चित्रकला का उल्लेख किया गया है। पाठ में बताया गया है कि जो व्यक्ति साहित्य, संगीत, नृत्यादि कलाओं को नहीं जानता वह मनुष्य साक्षात बिना पूंछ वाले पशु के समान होता है। अर्थात बिना साहित्य, संगीत, नृत्यादि कलाओं के मनुष्य का जीवन अधूरा है। कला जानने वाला ही मनुष्य कहलाने का अधिकारी होता है। पाठ में चित्रकला को एक श्रेष्ठ एवं अनूठी कला बताया गया है। जम्मू उत्तर भारत में चित्रकला का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र रहा है और पाठ इसी केंद्र के इर्द-गिर्द घूमता है।

 

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जम्मू की चित्रकला पाठ सार  Jammu ki Chitrakala Summary

 

प्रस्तुत पाठ में बताया गया है कि मनुष्य अपने विचारों को प्रस्तुत करने का कोई-न-कोई ढंग खोज ही लेता है। जिन ललित कलाओं को मनुष्य माध्यम बनाता है उन्हें पाँच प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है – साहित्यकला, संगीतकला, चित्रकला, मूर्तिकला तथा नृत्यकला। महामुनि कपिल के अनुसार वह व्यक्ति जो साहित्य, संगीत, नृत्यादि कलाओं को नहीं जानता वह बिना सींगों तथा पूँछ के पशु के सामान है। महामुनि कपिल के इस वाक्य से स्पष्ट है कि कला जानने वाला ही मनुष्य कहलाने का अधिकारी है। सभी कलाओं में चित्रकला एक उत्तम कला माना जा सकता है। क्योंकि चित्र देखने में सरल होता है और मुख्यतः हर व्यक्ति चित्र देखकर किसी सीमा तक व्यक्ति की बात को समझ सकता है। उदाहरण के तौर पर पक्षी को विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग कहा जाता है, जो सभी के लिए समझना कठिन है, परंतु इन सबके स्थान पर यदि एक पक्षी का चित्र बना दिया जाए, तो सभी समझ सकते हैं कि पक्षी की बात की जा रही है। इसी कारण चित्रकला को विश्व – व्यापी अर्थात सम्पूर्ण संसार की भाषा भी कहा जाता है। मनुष्य की सबसे प्राचीनतम लिपि को चित्र – लिपि कहते हैं। उत्तर भारत में चित्रकला का एक केंद्र जम्मू भी रहा है। जम्मू की कला को ‘जम्मू–कलम’ अथवा ‘जम्मू-पहाड़ी कला’ के नाम से जाना जाता है। जम्मू चित्रकला का जन्म लगभग अठारहवीं शताब्दी में माना जाता है। बसोहली के सतरहवीं शताब्दी के राजा कृपाल पाल को कला से प्रेम था और उसके प्रसिद्ध दरबारी देवदास ने बहुत से अनोखे व् अद्धभुत चित्र बनाए थे। जम्मू के राजा रंजीत देव के समय के पहाड़ी चित्र प्राप्त हुए हैं। अठारहवीं शताब्दी के बाद का आधा भाग को जम्मू-कलम का स्वर्णिम काल अर्थात सुनहरा युग माना जाता है। उन्हें चित्र बनाने की प्रेरणा देने वाला जम्मू के सुप्रसिद्ध राजा रंजीत देव का छोटा भाई बलवंत देव था। बलवंत देव के समय के चित्रों में से एक चित्र बहुत प्रसिद्ध है, उस चित्र में बलवंत देव को शिकार खेलते हुए दिखाया गया है। इन चित्रों में मुगल – रीतियों या तरीकों का प्रभाव दिखाई देता है। नैनसुख जम्मू चित्रकला के सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण चित्रकार थे। नैनसुख राजा बलवंत देव के आश्रय में रहकर अपनी कला की रचना किया करते थे। उनके द्वारा बनाए गए चित्रों में एक ऐसा भी चित्र मिला है जिसमें नैनसुख स्वयं एक चित्र राजा बलवंत देव को उपहार स्वरूप दे रहे हैं।  नैनसुख के अलावा वाजनशाह और दोद्दी को भी बलवंत देव का आश्रय प्रदान था। सही मायने में चित्रकला के वास्तविक विकास का समय राजा बलवंत देव का ही समय रहा। महाराजा रंजीत देव के बाद उनके पुत्र ब्रजराज के समय चित्रकारों ने प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद भी किसी प्रकार अपनी कला के कठिन परिश्रम को जारी रखी और चित्रों की रचना करते रहे। एक कुशल व् निपुण चित्रकार नंदलाल कांगड़ा से जम्मू आए और यहीं बस गए। चित्रकार जगतराम छुनिया महाराजा प्रताप सिंह के दरबार का महत्त्वपूर्ण चित्रकार था। उनके बनाए कुछ चित्र आज भी जम्मू आर्ट म्यूज़ियम में सुरक्षित रखे गए हैं। पंडित संसार चंद, जगतराम छुनिया के शिष्य थे। एक ओर जहाँ उन्होंने जम्मू कलम अथवा पहाड़ी कलम के ढंग को जीवित रखा था, वहीं दूसरी ओर वे पुराने और नए तरीकों को मिलाकर के चित्र बनाया करते थे। उनके द्वारा किए गए इन प्रयोगों की देश में ही नहीं, विदेश में भी प्रशंसा की जाती है। प्रकृति का चित्रण करने में पंडित संसार चंद अत्यंत निपुण थे। पहाड़ी चित्रकला (कलम) की कई विशेषताएँ बताते हैं। सभी विशेषताओं में सबसे बड़ी विशेषता यह है कि डेढ़ सौ साल बीत जाने पर भी इन चित्रों के रंग इतने ताज़ा लगते हैं जैसे अभी-अभी उनको चित्रों में लगाया गया हैं। इनमें प्रयोग किए गए रंग आमतौर पर या ज्यादातर मिट्टी से और कुछ वनस्पति और फूलों से और स्वर्ण-रंगों को पवित्र सोने से तैयार किया जाता था। इन चित्रों की दूसरी विशेषता इनमें प्रयोग की गई रेखाओं और पैर के नख से सिर तक के सभी अंगों को बनाने की है। चित्रों में रेखाएँ पूरी तरह से स्पष्ट रूप में प्रयोग की गई है और पैर के नख से सिर तक के सभी अंगों को बहुत ही सूक्ष्म और महीन रेखाओं से बनाया गया हैं। चित्रों में वस्त्रों को पारदर्शी तथा मोहक बनाया गया है। चित्रों में महलों, खेत के चारों ओर सीमा पर अथवा क्यारियों के उभरे हुए भाग, द्वार के ऊपर का अर्धमंडलाकार बनाया हुआ भाग तथा द्वारों पर बेल-बूटों का महीन कार्य देखते ही बनता है। इन्हीं गुणों के कारण इन चित्रों ने देश में ही नहीं बल्कि विदेश में भी प्रसिद्धि हासिल की है और भारत का नाम सम्पूर्ण संसार भर में प्रकाशित या रोशन किया है। परन्तु अब वर्तमान में इन तरीकों के द्वारा चित्रों को बनाना लगभग समाप्त हो चुका है।

 

जम्मू की चित्रकला पाठ व्याख्या Jammu ki Chitrakala Lesson Explanation

 

पाठ – विश्व में मनुष्य जहाँ भी रहता है, वहाँ अपनी भावनाओं और विचारों को व्यक्त करने के लिए विभिन्न ललित – कलाओं को माध्यम बनाता है। ललित कलाएँ पाँच हैं – साहित्यकला, संगीतकला, चित्रकला, मूर्तिकला तथा नृत्यकला । महामुनि कपिल कहते हैं :-
साहित्य संगीत कला विहीन :
साक्षात पशु-पुच्छ-विषाण हीनः
अर्थात् वह व्यक्ति जो साहित्य, संगीत, नृत्यादि कलाओं को नहीं जानता वह बिना सींगों तथा पूँछ के पशु है । इससे स्पष्ट है कि कला जानने वाला ही मनुष्य कहलाने का अधिकारी है । चित्रकला एक श्रेष्ठ कला है । उसको देखकर परखा जा सकता है, जब कि कुछ कलाओं को सुनने या महसूस करने से ही समझा जा सकता है | चित्र देखने में सरल होता है और सामान्यता हर व्यक्ति देखकर किसी सीमा तक समझ सकता है। उदाहरण के तौर पर विविध भाषाओं में पक्षी’, ‘तामर’, ‘परिंदा’ लिख दिया जाए, तो ये नाम वही आदमी पढ़ सकता है, जो वह भाषा जानता हो । परंतु इन सबके स्थान पर यदि एक पक्षी का चित्र बना दिया जाए, तो सभी समझ सकते हैं कि पक्षी ना है। इसी कारण चित्रकला को विश्व – व्यापी भाषा भी कहा जाता है। मानव की प्राचीनतम लिपि चित्रों की लिपि है, जिसे चित्र – लिपि कहते हैं।

शब्दार्थ –
विश्व – संसार
ललित – सुन्दर
विहीन –  रहित
साक्षात – आँखों के सामने, प्रत्यक्ष
पुच्छ – पूँछ
विषाण – सींग
हीन – बिना
श्रेष्ठ – उत्तम, अच्छा
परखा – जाँचना
विविध – विभिन्न
व्यापी – व्याप्त
लिपि – लिखावट, किसी भी भाषा को लिखने का ढंग

व्याख्या –  उपरोक्त गद्यांश में लेखक बताते हैं कि मनुष्य संसार में जहाँ कहीं भी रहता है, वहाँ अपनी भावनाओं और विचारों को दूसरों के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए अलग-अलग तरह की सुन्दर – कलाओं को माध्यम बनाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य अपने विचारों को प्रस्तुत करने का कोई-न-कोई ढंग खोज ही लेता है। जिन ललित कलाओं को मनुष्य माध्यम बनाता है उन्हें पाँच प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है – साहित्यकला, संगीतकला, चित्रकला, मूर्तिकला तथा नृत्यकला। महामुनि कपिल कहते हैं :-
साहित्य संगीत कला विहीन :
साक्षात पशु-पुच्छ-विषाण हीनः
अर्थात् वह व्यक्ति जो साहित्य, संगीत, नृत्यादि कलाओं को नहीं जानता वह बिना सींगों तथा पूँछ के पशु के सामान है। महामुनि कपिल के इस वाक्य से स्पष्ट है कि कला जानने वाला ही मनुष्य कहलाने का अधिकारी है। सभी कलाओं में चित्रकला एक उत्तम कला माना जा सकता है। क्योंकि चित्र को देखकर जाँचा जा सकता है, जब कि कुछ कलाओं को केवल सुनने या महसूस करने से ही समझा जा सकता है। चित्र देखने में सरल होता है और मुख्यतः हर व्यक्ति चित्र देखकर किसी सीमा तक व्यक्ति की बात को समझ सकता है। उदाहरण के तौर पर विभिन्न भाषाओं में पक्षी को ‘तामर’, ‘परिंदा’,’खग’ लिख दिया जाए, तो ये नाम वही आदमी पढ़ सकता है, जो उस शब्द में प्रयोग की जाने वाली भाषा को जानता हो। परंतु इन सबके स्थान पर यदि एक पक्षी का चित्र बना दिया जाए, तो सभी समझ सकते हैं कि पक्षी की बात की जा रही है। इसी कारण चित्रकला को विश्व – व्यापी अर्थात सम्पूर्ण संसार की भाषा भी कहा जाता है। मनुष्य की सबसे प्राचीनतम लिपि भी चित्रों की लिपि ही है, जिसे चित्र – लिपि कहते हैं।

 

पाठ – उत्तर भारत में चित्रकला का एक केंद्र जम्मू भी रहा है। जम्मू की कला ‘जम्मू–कलम’ अथवा ‘जम्मू-पहाड़ी कला’ के नाम से जानी जाती है। जम्मू चित्रकला का भारतीय कला के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान है। इस कला का जन्म लगभग अठारहवीं शताब्दी में हुआ।
सतरहवीं शताब्दी में बसोहली पर राजा कृपाल पाल का राज्य था । वह कला-प्रेमी तथा कला का संरक्षक था उसके प्रसिद्ध दरबारी चित्रकार देवदास ने बहुत से अनुपम चित्र बनाए। उसने ‘रसमंजरी’ नामक विश्वविख्यात चित्रावली चित्रित करके राजा कृपालपाल को भेंट की थी । यह काल बसोहली चित्रकला का स्वर्णिम काल था ।

शब्दार्थ –
केंद्र –  किसी कार्य या गतिविधि (शिक्षा, व्यापार, कला, लेखन, शोध आदि) का स्थान, (सेंटर)
विशिष्ट – विशेष, असाधारण, अद्भुत, प्रसिद्ध
संरक्षक – वह जो भरण-पोषण, देख-रेख आदि करता हो
दरबारी – दरबार में अधिकृत रूप से बैठने वाला आदमी, राजा या बादशाह का सभासद
अनुपम – अनोखा, अनूठा
विश्वविख्यात – विश्व में जाना जाने वाला
चित्रावली – चित्रों के संग्रह की पंजिका, (ऐलबम)
चित्रित – जिसे चित्र के माध्यम से दिखाया गया हो, चित्रयुक्त
भेंट – उपहार, तौफा
स्वर्णिम काल – सुनहरा युग

व्याख्या लेखक बताते हैं कि उत्तर भारत में चित्रकला का एक केंद्र अर्थात सेंटर जम्मू भी रहा है। जम्मू की कला को ‘जम्मू–कलम’ अथवा ‘जम्मू-पहाड़ी कला’ के नाम से जाना जाता है। भारतीय कला के क्षेत्र में जम्मू चित्रकला का अपना एक विशेष व् प्रसिद्ध स्थान है। जम्मू चित्रकला का जन्म लगभग अठारहवीं शताब्दी में माना जाता है। बसोहली पर सतरहवीं शताब्दी में राजा कृपाल पाल का राज्य था। राजा कृपाल पाल एक कला से प्रेम करने वाला तथा कला की देख-रेख अथवा कला को सुरक्षित करने वाला राजा था। उसके प्रसिद्ध दरबारी देवदास जो की एक चित्रकार था, उसने बहुत से अनोखे व् अद्धभुत चित्र बनाए थे। उसने विश्व प्रसिद्ध  चित्रावली ‘रसमंजरी’ चित्रित करके राजा कृपालपाल को उपहार स्वरूप दी थी। यह काल बसोहली चित्रकला का स्वर्णिम काल अर्थात सुनहरा युग माना जाता है।

 

पाठ – राजा ध्रुवदेव, जिसका राज्यकाल 1702 ई० से 1730 ई० रहा, अपने समय का शक्तिशाली शासक था। उसके उपरांत जम्मू के शासक रंजीत देव के समय के पहाड़ी चित्र उपलब्ध हुए । अठारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध जम्मू-कलम का स्वर्णिम काल माना जाता है। उस काल में बहुत से चित्रकार हुए और उनके सृजन का स्तर भी ऊँचा रहा । उनका प्रेरणा-स्रोत जम्मू के सुप्रसिद्ध राजा रंजीत देव का छोटा भाई बलवंत देव था । बलवंत देव ने सरूईंसर में ही रहकर चित्र बनाए। उस काल के चित्रों मैं एक प्रसिद्ध चित्र है, जिसमें बलवंत देव को शिकार खेलते हुए दर्शाया गया है। चित्र में पानी में मुरगाबियाँ तैरती हुई दिखाई गई हैं। इन चित्रों से प्रमाणित होता है कि जम्मू चित्रकला अथवा जम्मू-कलम का वास्तविक विकास इसी युग में हुआ। इन चित्रों में मुगल – शैली का प्रभाव दिखाई देता है ।
प्रसिद्ध चित्रकार नैनसुख के पिता, जो उनके गुरु भी थे, मुग़ल दरबार के चित्रकार रह चुके थे । वह जसरोटा आ बसे थे । नैनसुख जम्मू चित्रकला के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण चित्रकार थे उन्होंने राजा बलवंत देव के संरक्षण में रहकर अपनी कला का सृजन किया | उनके चित्रित चित्रों में एक ऐसा भी चित्र उपलब्ध है जिसमें नैनसुख एक चित्र राजा बलवंत देव को भेंट कर रहे हैं। नैनसुख के अतिरिक्त वाजनशाह और दोद्दी बलवंत देव के संरक्षित चित्रकार थे।

शब्दार्थ –
शासक – राजा, शासन करने वाला
उपरांत – बाद में
उपलब्ध – प्राप्त होना, मिलना
उत्तरार्द्ध –  पिछला आधा, बाद का अर्ध भाग
सृजन – रचना
स्तर – परत, तह
प्रेरणा- स्रोत – प्रेरणा देने वाला
मुरगाबी – मुरगे की जाति का एक पक्षी, जलकुक्कुट, जलमुरगा, यह जल में तैरता और मछलियाँ पकड़कर खाता है
प्रमाणित – सिद्ध
वास्तविक –  यथार्थ, ठीक, जो अस्तित्व में हो, (रीअल)
शैली – ढंग, तरीका, रीति
सर्वाधिक – सबसे अधिक
अतिरिक्त – अलावा
संरक्षित – अच्छी तरह बचाया हुआ

व्याख्या लेखक बताते हैं कि राजा ध्रुवदेव, जिसका राज्यकाल 1702 ई० से 1730 ई० तक रहा, वह भी अपने समय का अत्यधिक शक्तिशाली राजा रहा था। उसके बाद जम्मू के राजा रंजीत देव के समय के पहाड़ी चित्र प्राप्त हुए हैं। अठारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध अर्थात अठारहवीं शताब्दी के बाद का आधा भाग को जम्मू-कलम का स्वर्णिम काल अर्थात सुनहरा युग माना जाता है। उस काल में बहुत से चित्रकार हुए और उनकी रचना का स्तर भी ऊँचा रहा। कहने; का अभिप्राय यह है कि उस काल के चित्रकार अत्यधिक सुंदर व् अद्धभुत चित्र बनाते थे। उन्हें चित्र बनाने की प्रेरणा देने वाला जम्मू के सुप्रसिद्ध राजा रंजीत देव का छोटा भाई बलवंत देव था। बलवंत देव ने सरूईंसर में ही रहकर चित्र बनाए। बलवंत देव के समय के चित्रों में से एक चित्र बहुत प्रसिद्ध है, उस चित्र में बलवंत देव को शिकार खेलते हुए दिखाया गया है। चित्र की बारीकियों का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि उस चित्र में पानी में मुरगाबियाँ (मुरगे की जाति का एक पक्षी, जो जल में तैरता और मछलियाँ पकड़कर खाता हैं) तैरती हुई दिखाई गई हैं। ये चित्र प्रमाणित करते हैं कि जम्मू चित्रकला अथवा जम्मू-कलम का यथार्थ अथवा रियल विकास इसी युग में हुआ था। इन चित्रों में मुगल – रीतियों या तरीकों का प्रभाव दिखाई देता है ।

प्रसिद्ध चित्रकार नैनसुख के पिता, जो उनके गुरु भी थे, मुग़ल दरबार के चित्रकार रह चुके थे। वे जसरोटा में आ कर बस गए थे। नैनसुख जम्मू चित्रकला के सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण चित्रकार थे, उन्होंने राजा बलवंत देव की छत्रछाया में रहकर अपनी कला का सृजन किया। अर्थात नैनसुख राजा बलवंत देव के आश्रय में रहकर अपनी कला की रचना किया करते थे। उनके द्वारा बनाए गए चित्रों में एक ऐसा भी चित्र मिला है जिसमें नैनसुख स्वयं एक चित्र राजा बलवंत देव को उपहार स्वरूप दे रहे हैं। नैनसुख के अलावा वाजनशाह और दोद्दी बलवंत देव के द्वारा बचाए गए चित्रकार थे। अर्थात नैनसुख के अलावा वाजनशाह और दोद्दी को भी बलवंत देव का आश्रय प्रदान था।

 

पाठ – महाराजा रंजीत देव ने लगभव 1735 ई० से 1781 ई० तक (45 वर्ष) राज किया। चित्रकला के वास्तविक विकास का समय राजा बलवंत देव का ही समय रहा | महाराजा रंजीत देव के पश्चात् उनका पुत्र ब्रजराज गद्दी पर बैठा परंतु उसके राज्य में बाह्य आक्रमणों के फलस्वरूप जम्मू में अशांति फेली रही । फिर भी उपलब्ध चित्रों के आधार पर कहा जा सकता है कि उस समय के चित्रकारों ने किसी भी प्रकार कला साधना जारी रखी और चित्रों का सृजन करते रहे ।
चित्रकला नैनसुख के चार पुत्र थे । रामसहाय, गुरुसहाय, कामा और निक्का | वे चारों महत्त्वपूर्ण चित्रकार थे । गुरुसहाय और निक्का अपने ताऊ मानक (जो स्वयं अच्छे चित्रकार थे) के पास गुलेर चले गए और 1780 ई० तक चित्रकार मानक की छत्रछाया में चित्र – रचना करते रहे ।
गुलाब सिंह के महाराजा बन जाने पर जम्मू क्षेत्र में शांति स्थापित हुई और चित्रकला को पनपने का अवसर प्राप्त हुआ । एक सिद्धहस्त चित्रकार नंदलाल कांगड़ा से जम्मू आए और यहीं बस गए। चित्रकार नंदलाल के दो पुत्र चाननू और रुलदू थे। वे महाराजा गुलाब सिंह के पुत्र रंजीत सिंह के दरबारी चित्रकार रहे। चाननू का पुत्र हरिचंद जम्मू दरबार का चित्रकार रहा। महाराजा प्रताप सिंह के दरबार का महत्त्वपूर्ण चित्रकार जगतराम छुनिया था । उसने बड़े ही अनुपम चित्र बनाए। उसकी मृत्यु 1926 ई० में हुई । जगतराम छुनिया के बनाए कुछ चित्र जम्मू आर्ट म्यूज़ियम में आज भी सुरक्षित हैं।

शब्दार्थ –
पश्चात् – बाद
बाह्य – बाहरी
आक्रमण – युद्ध
फलस्वरूप – परिणाम के रूप में
साधना – कठिन परिश्रम, सिद्धि, आराधना, उपासना
छत्रछाया – पनाह, शरण, रक्षा, आश्रय
पनपने – फलने-फूलने, विकसित होने
अवसर – मौका
सिद्धहस्त –  कुशल, प्रवीण, निपुण, जिसका हाथ किसी काम में मँजा हो
अनुपम – अद्धभुत

व्याख्या – महाराजा रंजीत देव ने लगभग 1735 ई० से 1781 ई० तक राज किया। अर्थात उनका राज काल लगभग 45 वर्ष रहा। सही मायने में चित्रकला के वास्तविक विकास का समय राजा बलवंत देव का ही समय रहा। महाराजा रंजीत देव के बाद उनके पुत्र ब्रजराज ने राज्य का भार संभाला परंतु उसके राज्य में बाहरी युद्धों के परिणाम स्वरूप जम्मू में अशांति फैली रही। इन सबके बावजूद उस समय के मिले चित्रों के आधार पर कहा जा सकता है कि उस समय के चित्रकारों ने उन प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद भी किसी प्रकार अपनी कला के कठिन परिश्रम को जारी रखी और चित्रों की रचना करते रहे।
चित्रकार नैनसुख के चार पुत्र थे – रामसहाय, गुरुसहाय, कामा और निक्का। अपने-अपने समय में ये चारों प्रसिद्ध चित्रकार हुए। गुरुसहाय और निक्का अपने पिता के बड़े भाई मानक के पास गुलेर चले गए। वे स्वयं बहुत अच्छे चित्रकार थे। और 1780 ई० तक चित्रकार मानक की शरण में रह कर ही गुरुसहाय और निक्का चित्र – रचना करते रहे।
ब्रजराज के बाद गुलाब सिंह के महाराजा बन जाने पर जम्मू क्षेत्र में शांति स्थापित हुई और चित्रकला को फलने-फूलने व् विकसित होने का पूरा मौका मिला। एक कुशल व् निपुण चित्रकार नंदलाल कांगड़ा से जम्मू आए और यहीं बस गए। चित्रकार नंदलाल के दो पुत्र थे – चाननू और रुलदू। चित्रकार नंदलाल के पुत्र महाराजा गुलाब सिंह के पुत्र रंजीत सिंह के दरबारी चित्रकार रहे। चाननू का पुत्र हरिचंद भी जम्मू दरबार का चित्रकार रहा। चित्रकार जगतराम छुनिया महाराजा प्रताप सिंह के दरबार का महत्त्वपूर्ण चित्रकार था। उसने बड़े ही अद्धभुत व् अनूठे चित्र बनाए। उसकी मृत्यु 1926 ई० में हुई। जगतराम छुनिया के बनाए कुछ चित्र आज भी जम्मू आर्ट म्यूज़ियम में सुरक्षित रखे गए हैं।

 

पाठ – जगतराम छुनिया के शिष्य पंडित संसार चंद थे। पंडित संसार चंद बहुत ही प्रतिभा संपन्न थे। उन्होंने एक और जम्मू कलम अथवा पहाड़ी कलम की शैली को जीवित रखा, तो दूसरी ओर पुरानी और नई शैली के मिश्रण के चित्र बनाए हैं । आपके इन प्रयोगों की बड़ी प्रशंसा हुई है और देश-विदेश में ये चित्र देखे, खरीदे व सराहे गए हैं। प्रकृति-चित्रण में आप सिद्धहस्त थे । आप ‘डोगरा आर्ट गैलरी’ के निर्माताओं में से थे तथा गैलरी के प्रथम संग्रहपाल (क्यूरेटर) भी रहे थे ।
पंडित संसार चंद की कला – परम्परा को आगे बढ़ाने में उनके तीन शिष्य ओ. पी. शर्मा ‘सारथी’, देवदास तथा गिरधारी लाल कार्यरत हैं। ये सभी चित्रकार समकालीन हैं तथा वर्तमान में कला का निखार कर रहे हैं। पंडित जी के तीन और शिष्यों जिनका देहांत हो चुका है, वे थे – विद्यारत्न खजूरिया, हेमराज रैना तथा चंदूलाल | उन्होंने भी अपने समय में कला क्षेत्र में प्रसिद्धि अर्जित की थी ।
पहाड़ी चित्रकला (कलम) की कई विशेषताएँ हैं। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि डेढ़ सौ साल बीत जाने पर भी इनके रंग ऐसे ताज़ा हैं कि जान पड़ता है कि अभी लगाए गए हैं। इनमें प्रयुक्त रंग बहुधा मिट्टी से बनाए जाते थे । कुछ एक वनस्पति और पुष्पों से भी निर्मित करते थे । कुछ चित्रों के हाशियों और आभूषणों में स्वर्ण-रंग भी प्रयुक्त किया गया है जो कि विशुद्ध स्वर्ण ही में तैयार किया जाता था । दूसरी विशेषता रेखा और नखशिख चित्रण की है। रेखाएँ पूर्ण रूप से सधी हुई हैं और नखशिख बहुत ही सूक्ष्म और बारीक रेखाओं से बनाए गए हैं। किसी चित्र को सामान्यतः देखने से लगता है कि सिर में केवल रंग पोत दिया गया है, परंतु ध्यान—पूर्वक देखने पर एक-एक बाल खिंचा हुआ दिखाई दे जाता है। सारे चित्र भावना और कला के अच्छे नमूने हैं। इनमें वनस्पति, फूल, पत्ते और वृक्षों का चित्रण बहुत बारीकी और कलात्मकता से किया गया है । वस्त्रों का चित्रण पारदर्शी तथा मोहक है । महलों, मुँडेरों, मेहराबों तथा द्वारों पर बेल-बूटों का बारीक कार्य देखते ही बनता है। इन्हीं गुणों के कारण इन चित्रों ने देश-विदेश में ख्याति अर्जित की और भार का नाम संसार भर में उजागर किया । अब इस शैली के चित्रों का निर्माण लगभग समाप्त हो चुका है।

शब्दार्थ –
शिष्य – विद्यार्थी
प्रतिभा संपन्न – जिसमें प्रतिभा हो, प्रतिभाशाली, प्रतिभावान
शैली – रीति, ढंग
मिश्रण – चीज़ों या तत्वों को आपस में मिलाना, मिलावट, मिश्रित करना
सराहे – तारीफ़ करना, प्रशंसा करना, बखानना, बड़ाई करना
परम्परा – रीति
कार्यरत – काम में लगा हुआ, जुटा हुआ
समकालीन – एक ही समय के
निखार –  सुंदरता, चमक, सजावट
अर्जित – कमाया हुआ
जान पड़ता है – ज्ञात होता है
प्रयुक्त – प्रयोग
बहुधा – हमेशा, अक्सर, ज़्यादातर
निर्मित –  बनाया या रचा हुआ, रचित
हाशियों – पृष्ठ या सतह के चारों ओर छोड़ी हुई सादा जगह
विशुद्ध – पवित्र
नखशिख – पैर के नख से सिर तक के सभी अंग, ऊपर से नीचे तक
सधी हुई – स्पष्ट रूप से
बारीक – झीना, महीन
नमूने – उदाहरण, मिसाल
कलात्मकता – कलापूर्णता
पारदर्शी – आर-पार देखने वाला
मुँडेर – खेत के चारों ओर सीमा पर अथवा क्यारियों में का उभरा हुआ भाग, मेंड़
मेहराब –  द्वार के ऊपर का अर्धमंडलाकार बनाया हुआ भाग, डाट वाला गोल दरवाज़ा
ख्याति – प्रसिद्धि, लोकप्रियता
उजागर – प्रकट करना, सामने लाना 

व्याख्या – लेखक बताते हैं कि पंडित संसार चंद, जगतराम छुनिया के शिष्य थे। पंडित संसार चंद बहुत ही प्रतिभाशाली थे। एक ओर जहाँ उन्होंने जम्मू कलम अथवा पहाड़ी कलम के ढंग को जीवित रखा था, वहीं दूसरी ओर वे पुराने और नए तरीकों को मिलाकर के चित्र बनाया करते थे। उनके द्वारा किए गए इन प्रयोगों की हर जगह बड़ी प्रशंसा हुई है और देश में ही नहीं, विदेश में भी ये चित्र देखे जाते है, खरीदे जाते हैं और इनकी प्रशंसा की जाती है। प्रकृति का चित्रण करने में पंडित संसार चंद अत्यंत निपुण थे। वे ‘डोगरा आर्ट गैलरी’ के निर्माताओं में से एक थे तथा वे गैलरी के प्रथम संग्रहपाल (क्यूरेटर) भी रहे थे। पंडित संसार चंद के द्वारा प्रतिष्ठित कला – परम्परा को आगे बढ़ाने में उनके तीन शिष्य ओ. पी. शर्मा ‘सारथी’, देवदास तथा गिरधारी लाल जुटे हुए हैं। अर्थात पंडित संसार चंद के तीन शिष्य उनके कला के ढंग को बरकरार रखने का प्रयास कर रहे हैं। ये सभी चित्रकार एक ही समय के हैं तथा वर्तमान में कला को और अधिक सुंदर बनाने का प्रयास कर रहे हैं। पंडित जी के तीन और शिष्य थे परन्तु उनका देहांत हो चुका है, वे शिष्य थे – विद्यारत्न खजूरिया, हेमराज रैना तथा चंदूलाल। उन्होंने भी अपने समय में कला क्षेत्र में अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त की थी। लेखक पहाड़ी चित्रकला (कलम) की कई विशेषताएँ बताते हैं। सभी विशेषताओं में सबसे बड़ी विशेषता यह है कि डेढ़ सौ साल बीत जाने पर भी इन चित्रों के रंग इतने ताज़ा लगते हैं जैसे अभी-अभी उनको चित्रों में लगाया गया हैं। इनमें प्रयोग किए गए रंग आमतौर पर या ज्यादातर मिट्टी से बनाए जाते थे। कुछ रंगों को वनस्पति और फूलों से भी बनाया जाता था। कुछ चित्रों के सतह के चारों ओर छोड़ी हुई सादा जगह और आभूषणों में स्वर्ण-रंगों का भी प्रयोग किया जाता था जो कि पवित्र सोने से ही तैयार किया जाता था। इन चित्रों की दूसरी विशेषता इनमें प्रयोग की गई रेखाओं और पैर के नख से सिर तक के सभी अंगों को बनाने की है। चित्रों में रेखाएँ पूरी तरह से स्पष्ट रूप में प्रयोग की गई है और पैर के नख से सिर तक के सभी अंगों को बहुत ही सूक्ष्म और महीन रेखाओं से बनाया गया हैं। सामान्यतः किसी चित्र को देखने पर लगता है जैसे उस चित्र में सिर में केवल रंग पोत दिया गया है, परंतु जब ध्यान-पूर्वक देखा जाता है, तब ज्ञात होता है कि सिर पर एक-एक बाल रेखाएँ खिंच कर बनाया हुआ है। सभी चित्र भावना और कला के अच्छे उदाहरण अथवा मिसाल हैं। इनमें वनस्पति, फूल, पत्ते और वृक्षों का चित्रण बहुत महीन और कला का पूर्ण रूप से प्रयोग करके किया गया है। चित्रों में वस्त्रों को पारदर्शी तथा मोहक बनाया गया है। चित्रों में महलों, खेत के चारों ओर सीमा पर अथवा क्यारियों के उभरे हुए भाग, द्वार के ऊपर का अर्धमंडलाकार बनाया हुआ भाग तथा द्वारों पर बेल-बूटों का महीन कार्य देखते ही बनता है। इन्हीं गुणों के कारण इन चित्रों ने देश में ही नहीं बल्कि विदेश में भी प्रसिद्धि हासिल की है और भारत का नाम सम्पूर्ण संसार भर में प्रकाशित या रोशन किया है। परन्तु अब वर्तमान में इन तरीकों के द्वारा चित्रों को बनाना लगभग समाप्त हो चुका है।

 

Conclusion 

‘जम्मू की चित्रकला’ शीर्षक पाठ में जम्मू प्रदेश की चित्रकला का उल्लेख किया गया है। पाठ में बताया गया है कि जो व्यक्ति साहित्य, संगीत, नृत्यादि कलाओं को नहीं जानता वह मनुष्य साक्षात बिना पूंछ वाले पशु के समान होता है। पाठ में चित्रकला को एक श्रेष्ठ एवं अनूठी कला बताया गया है। जम्मू उत्तर भारत में चित्रकला का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र रहा है और पाठ इसी केंद्र के इर्द-गिर्द घूमता है। प्रस्तुत लेख में पाठ प्रवेश, पाठ सार, शब्दार्थसहित व्याख्या दिए गए हैं जो विद्यार्थियों की परीक्षा में सहायक सिद्ध होंगें।