ठेले पर हिमालय पाठ सार

 

PSEB Class 10 Hindi Book Chapter 16 “Thele Par Himalaya” Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings

 

ठेले पर हिमालय सार – Here is the PSEB Class 10 Hindi Book Chapter 16 Thele Par Himalaya Summary with detailed explanation of the lesson “Thele Par Himalaya” along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary

इस पोस्ट में हम आपके लिए पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड  कक्षा 10 हिंदी पुस्तक के पाठ 16 ठेले पर हिमालय  पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप  इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 ठेले पर हिमालय पाठ के बारे में जानते हैं।

 

Thele Par Himalaya (ठेले पर हिमालय ) 

By डॉ. धर्मवीर भारती (सन् 1926-1997)

 

‘ठेले पर हिमालय’ नामक यात्रा-वृत्तांत में लेखक हमें पर्वत सम्राट, हिम सम्राट हिमालय के करीब ले जाता है, जहां बादल नीचे उतर रहे थे और एक-एक कर नए शिखरों की हिम रेखाएँ स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही थी। लेखक ने हिम दर्शन का वर्णन इस प्रकार किया है जैसे हिमालय को हम अपने सामने चित्र के रूप में देख रहे हो और लेखक के द्वारा हिमालय का वर्णन अत्याधिक सुन्दर तरीके से किया गया है। लेखक ने प्राकृतिक सौंदर्य के एक अद्भुत रूप की ओर हमारा ध्यान खींचते हुए पर्वतीय स्थानों के प्रति हमारा आकर्षण जगाने का भी सफल प्रयास किया है।

 

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ठेले पर हिमालय पाठ सार Thele Par Himalaya Summary

 

‘ठेले पर हिमालय’ डॉ० धर्मवीर भारती का एक प्रमुख यात्रा वृत्तांत है। जिसमें लेखक ने पर्वतराज, हिम सम्राट हिमालय का अद्धभुत वर्णन किया है। लेखक इस पाठ के माध्यम से हम सभी को उस हिमालय पर्वत के समीप ले जाता है जहां बादल ऊपर से नीचे उतर रहे थे और एक-एक कर नए शिखरों की हिम रेखाएं सामने दिखाई दे रही थीं। पाठ से ज्ञात होता है कि लेखक अपने मित्रों के साथ अलमोड़ा की यात्रा पर गए थे। वे वहाँ से केवल बर्फ़ को नजदीक से देखने के लिए ही कौसानी गए थे। वे नैनीताल से रानीखेत और रानीखेत से मझकाली के भयानक मोड़ों को पार करते हुए कोसी पहुँचे। वह रास्ता भले ही सूखा और कुरूप था परन्तु कोसी से आगे का दृश्य बिल्कुल अलग था। सुन्दर आकृति वाले पत्थरों पर कलकल करती हुई कोसी, किनारे पर छोटे-छोटे सुंदर गाँव और हरे मखमली खेत थे, जिससे सोमेश्वर की घाटी बहुत सुंदर लग रही थी। उस घाटी के उत्तर की पर्वतमाला ऊँची है और उसके शिखर पर कौसानी बसा हुआ है। कौसानी के बस अड्डे पर जब लेखक और उनके साथी बस से उतरे तो बहुत अधिक सौन्दर्य को देखकर वे पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ा रह गया। पर्वतमाला ने अपने आंचल में कत्यूर की रंग-बिरंगी घाटी को छिपा रखा था। चारों तरफ अद्भुत सौंदर्य था। लेखक को इसी घाटी के पार पर्वतराज हिमालय दिखाई पड़ा, जिसे बादलों ने छिपा कर रखा था। सभी ने उस दृश्य को देखा पर अचानक वह गायब हो गया। उस हिम दर्शन ने लेखक तथा उसके मित्रों पर एक जादू-सा कर दिया। उसे देख कर सारा दुःख, निराशा और थकावट मानो गायब हो गई। लेखक और उनके साथियों को डाक बंगले के खानसामे ने बताया कि वे खुशकिस्मत है जो उन्हें अचानक ही हिमालय के दर्शन हो गए थे। इससे पहले चौदह पर्यटक हफ्ते भर इंतज़ार करते रहे थे लेकिन उन्हें हिमालय के दर्शन नहीं हुए थे। लेखक अपने मित्रों के साथ बरामदे में बैठकर बिना पलक झपकाए एकटक दृष्टि से हिमालय के दर्शन का इंतज़ार करता रहा। सूर्य डूबने लगा और धीरे-धीरे ग्लेशियरों में पिघला पानी केसर की तरह दिखने लगा। शाम की सुनहरी धूप के कारण बर्फ कमल के लाल फूलों की तरह दिखने लगी तथा घाटियां गहरी पीली हो गईं। अंधेरा होने लगा तो लेखक अपने मित्रों के साथ वहाँ से उठ के चाय आदि पिने गया। परन्तु ऐसा दृश्य देखने के बाद वे सभी मानो आत्मलीन हो गए। दूसरे दिन वे घाटी में उतरकर मीलों दूर बैजनाथ पहुँच गए। वहाँ गोमती की उज्ज्वल जलराशि में हिमालय की बर्फीली चोटियों की छाया तैरती हुई दिखाई दे रही थी। लेखक को हमेशा लगता है जैसे वे बरफ की ऊँचाइयां लेखक को बार-बार बुलाती हैं, और लेखक हैं कि चौराहों पर खड़े, ठेले पर लदकर निकलने वाली बरफ़ को देखकर ही अपना मन बहला लेता है। 

 

ठेले पर हिमालय पाठ व्याख्या Thele Par Himalaya Lesson Explanation

 

पाठ –  ठेले पर हिमालय! खासा दिलचस्प शीर्षक है न! और यकीन कीजिए, इसे बिलकुल ढूँढना नहीं पड़ा। बैठे-बिठाए मिल गया। अभी कल की बात है, मैं एक पान की दुकान पर अपने अल्मोड़ावासी मित्र के साथ खड़ा था कि तभी ठेले पर बरफ की सिलें लादे हुए बरफ वाला आया। ठंडी, चिकनी, चमकती बरफ़ से भाप उड़ रही थी। वे क्षणभर उस बरफ़ को देखते रहे, उठती हुई भाप में खोए रहे और खोए-खोए से ही बोले, “यही बरफ़ तो हिमालय की शोभा है।” और तत्काल शीर्षक मेरे मन में कौंध गया – ठेले पर हिमालय।
सच तो यह है कि सिर्फ़ बरफ को बहुत निकट से देख पाने के लिए ही हम लोग कौसानी गए थे। नैनीताल से रानीखेत और रानीखेत से मझकाली के भयानक मोड़ों को पार करते हुए कोसी । कोसी से एक सड़क अल्मोड़ा चली जाती है, दूसरी कौसानी।
कितना कष्टप्रद, कितना सूखा और कितना कुरूप है वह रास्ता! पानी का कहीं नाम निशान नहीं, सूखे-भूरे पहाड़, हरियाली का नाम नहीं ढालों को काटकर बनाए हुए टेढ़े-मेढ़े रास्ते। कोसी पहुंचे तो सभी के चेहरे पीले पड़ चुके थे।

शब्दार्थ –
खासा – बहुत अधिक
दिलचस्प – दिल को अच्छा लगने वाला
शीर्षक – वह शब्द जो विषय का परिचय कराने के लिए लेख के ऊपर उसके नाम के रूप में रहता है (हैडिंग)
यकीन – विश्वास
सिल – छोटा चोकौर टुकड़ा
तत्काल – तुरंत, अचानक
कौंधना – चमकना
कष्टप्रद – दुख देने वाला
कुरूप – बेकार, जो दिखने में अच्छा न हो 

व्याख्यालेखक स्पष्ट करता है कि उसने ‘ठेले पर हिमालय’ शीर्षक क्यों रखा। लेखक बताता है कि ठेले पर हिमालय बहुत अधिक दिलचस्प शीर्षक है। और वह हमें विश्वास करने को कहता है कि इस शीषक को उसे बिलकुल ढूँढना नहीं पड़ा था। उन्हें यह शीर्षक बैठे-बिठाए ही मिल गया। लेखक पिछले कल की बात बताते हैं कि वे एक पान की दुकान पर अपने अल्मोड़ा में रहने वाले मित्र के साथ खड़े थे कि तभी उनके सामने ठेले पर बरफ के चोकौर टुकड़े को लादे हुए बरफ वाला आया। वह बरफ का चोकौर टुकड़ा ठंडा, चिकना, और चमक रहा था, उस बरफ़ से भाप उड़ रही थी। लेखक और लेखक का मित्र क्षणभर उस बरफ़ को देखते रहे, उससे उठती हुई भाप में मानो वे खो गए थे और उस उठती हुई भाप में खोए-खोए से ही एक दूसरे से बोले कि यही बरफ़ तो हिमालय की शोभा है। और उसी समय अचानक इस पाठ का शीर्षक लेखक के मन में मानो चमक गया – ‘ठेले पर हिमालय’। कहने का अभिप्राय यह है कि लेखक को ठेले पर बर्फ देख कर हिमालय की याद आ गई जिस वजह से इन्होने अपनी यात्रा वृत्तांत का शीर्षक ‘ठेले पर हिमालय’ रख दिया।
लेखक बताते हैं कि सच तो यह था कि वे लोग सिर्फ़ बरफ को बहुत नजदीक से देख पाने के लिए ही कौसानी गए थे। वे नैनीताल से रानीखेत और रानीखेत से मझकाली के भयानक मोड़ों को पार करते हुए कोसी पहुंचे थे। कोसी से एक सड़क अल्मोड़ा जाती है, और दूसरी सड़क कौसानी की ओर मुड़ जाती है। कोसी के रास्तों के बारे में लेखक बताते हैं कि कोसी का रास्ता बहुत दुःख देने वाला था, बहुत सूखा और बहुत ही गन्दा या बेकार दिखने वाला था। उस रास्ते पर पानी का कहीं नाम निशान नहीं था, पहाड़ भी सूखे-भूरे दिखाई दे रहे थे, हरियाली का तो कोई नाम भी नहीं था। खड़ी चट्टानों को काटकर टेढ़े-मेढ़े रास्ते बनाए हुए थे। जब लेखक और उनके साथी कोसी पहुंचे तो सभी के चेहरे पीले पड़ चुके थे। अर्थात कोसी पहुँचते-पहुँचते लेखक और उनके साथियों ने जो सोचा था उसके विपरीत ही सब कुछ पाया था जिस वजह से वे बहुत दुखी थे और थकान के कारण उनका सारा उत्साह ख़त्म हो गया था। 

 

पाठ –  कोसी से बस चली तो रास्ते का सारा दृश्य बदल गया। सुडौल पत्थरों पर कल-कल करती हुई कोसी, किनारे के छोटे-छोटे सुंदर गाँव और हरे मखमली खेत। कितनी सुंदर है सोमेश्वर की घाटी! हरी-भरी ! एक के बाद एक बस स्टैंड पड़ते थे, छोटे-छोटे पहाड़ी डाकखाने, चाय की दुकाने और कभी-कभी कोसी या उसमें गिरने वाले नदी-नालों पर बने हुए पुल। कहीं-कहीं सड़क निर्जन चीड़ के जंगलों से गुजरती थी।
सोमेश्वर की घाटी के उत्तर में जो ऊँची पर्वतमाला है, उस पर, बिलकुल शिखर पर, कौसानी बसा हुआ है। कौसानी से दूसरी ओर फिर ढाल शुरू हो जाती है। कौसानी के अड्डे पर जाकर बस रुकी। छोटा-सा, बिल्कुल उजड़ा-सा गाँव और बरफ़ का तो कहीं नाम-निशान नहीं। ऐसा लगा जैसे हम ठगे गए। बस से उतरते समय मैं बहुत खिन्न था।
बस से उतरा ही था कि जहां का तहाँ पत्थर की मूर्ति-सा स्तब्ध खड़ा रह गया। कितना अपार सौंदर्य बिखरा था सामने के घाटी में पर्वतमाला ने अपने अंचल में यह जो कत्यूर की रंग-बिरंगी घाटी छिपा रखी है, इसमें किन्नर और यक्ष ही तो बास करते होंगे। पचासों मील चौड़ी यह घाटी, हरे मखमली कालीनों जैसे खेत, सुंदर गेरू की शिलाएँ काटकर बने हुए लाल-लाल रास्ते, जिनके किनारे सफ़ेद-सफ़ेद पत्थरों की कतार और इधर-उधर से आकर आपस में उलझ जाने वाली बेलों की लड़ियों-सी नदियाँ। मन में बेसाख्ता यही आया कि इन बैलों की लड़ियों को उठाकर कलाई में लपेट लूँ आँखों से लगा लूँ।

शब्दार्थ –
सुडौल – सुंदर बनावट वाला
निर्जन – जहां कोई न हो, एकांत
उजड़ा-सा – बर्बाद, वीरान, बदहाल, बुरे हाल में
खिन्न – दुःखी, उदास
स्तब्ध – दृढ़, स्थिर
अपार –  अथाह, बहुत अधिक
बेसाख्ता – अपने आप, सहसा, एकाएक 

व्याख्यालेखक बताते हैं कि जब कोसी से उनकी बस चली तो रास्ते का सारा दृश्य ही बदल गया। सुन्दर बनावट वाले पत्थरों पर कल-कल करती हुई कोसी, उसके किनारे के छोटे-छोटे सुंदर गाँव और हरे मखमली खेत। सोमेश्वर की घाटी अत्यधिक सुंदर लग रही थी। अत्यधिक हरी-भरी। रास्ते में एक के बाद एक बस स्टैंड आ रहे थे, छोटे-छोटे पहाड़ी डाकखाने दिखाई पड़ रहे थे, बीच-बीच में चाय की दुकाने और कभी-कभी कोसी या उसमें गिरने वाले नदी-नालों पर बने हुए पुल भी दिख जाते थे। कहीं-कहीं सड़क सुनसान चीड़ के जंगलों से गुजरती थी। लेखक बताते हैं कि सोमेश्वर की घाटी के उत्तर में एक ऊँची पर्वतमाला है, उसी पर, उसके बिलकुल शिखर पर, कौसानी बसा हुआ है। कौसानी से दूसरी ओर फिर से ढलान शुरू हो जाती है। लेखक की बस कौसानी के अड्डे पर जाकर रुकी। कौसानी बहुत छोटा-सा गाँव है, जो बिल्कुल बर्बाद-सा या वीरान सा है और बरफ़ का तो वहाँ कहीं नाम-निशान नहीं था। लेखक और उनके साथियों को वहाँ पहुँच कर ऐसा लगा जैसे उन लोगों के साथ धोखा हुआ हो। क्योंकि वे तो बर्फ को नजदीक से देखने ही आए थे। बस से उतरते समय लेखक बहुत उदास था। लेखक अभी बस से उतरा ही था कि वह जैसा था वैसा ही पत्थर की मूर्ति की तरह बिलकुल स्थिर खड़ा रह गया। क्योंकि उसके सामने बहुत अधिक सुन्दर दृश्य बिखरा था। उसके सामने के घाटी में जो पर्वतमाला थी, ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उसने अपने आँचल में कत्यूर की रंग-बिरंगी घाटी को  छिपा रखा है, और वह कत्यूर की रंग-बिरंगी घाटी ऐसी लग रही थी जैसे इसमें किन्नर और यक्ष ही बास करते होंगे। अर्थात वह घाटी अत्यधिक आकर्षक व् सुंदर लग रही थी। वह घाटी पचासों मील चौड़ी थी, हरे मखमली कालीनों जैसे खेत थे, सुंदर गेरू की शिलाओं को काटकर लाल-लाल रास्ते बने हुए थे, और उन रास्तों के किनारे सफ़ेद-सफ़ेद पत्थरों की पंक्तियाँ थी और इधर-उधर से आकर आपस में उलझ जाने वाली बेलों की लड़ियों के समान नदियाँ थी। लेखक के मन में अपने आप एकाएक यही आया कि इन बेलों की लड़ियों को उठाकर या तो अपनी कलाई में लपेट के या आँखों से लगा ले। कहने का तात्पर्य यह है कि कोसी तक लेखक और उनके साथियों का मन उदास हो गया था क्योंकि वे जो सोच कर आए थे वैसा उन्हें कोई दृश्य नहीं दिख रहा था, परन्तु कौसानी पहुँच कर जो दृश्य उन्होंने देखा उसे देखकर वे अचंभित व् प्रसन्न हो गए थे। 

 

पाठ – अकस्मात हम एक दूसरे ही लोक में चले आए थे। इतना सुकुमार, इतना सुंदर, इतना सजा हुआ और निष्कलंक कि लगा इस धरती पर तो जूते उतारकर, पाँव पोंछकर आगे बढ़ना चाहिए।
धीरे-धीरे मेरी निगाह ने इस घाटी को पार किया और जहां ये हरे खेत, नदियाँ और वन, क्षितिज के धुंधलेपन में, नीले कोहरे में घुल जाते थे, वहां पर कुछ छोटे पर्वतों का आभास अनुभव किया। इसके बाद बादल थे और फिर कुछ नहीं। कुछ देर उन बादलों में निगाह भटकती रही कि अकस्मात फिर एक हलका सा विस्मय का धक्का मन को लगा ।
इन धीरे-धीरे खिसकते हुए बादलों में यह कौन चीज़ है जो अटल है। यह छोटा-सा बादल के टुकड़े सा, और कैसा अजब रंग है इसका। न सफ़ेद, न रुपहला, न हलका नीला… पर तीनों का आभास देता हुआ। यह है क्या? बरफ़ तो नहीं है। हाँ जी बरफ़ नहीं है तो क्या है? और बिजली-सा यह विचार मन में कौंधा कि इसी घाटी के पार वह नगाधिराज, पर्वत सम्राट हिमालय है। इन बादलों ने उसे ढाँप रखा है, वैसे वह जो सामने हैं, इसका एक कोई छोटा-सा बाल स्वभाव वाला शिखर बादलों की खिड़की से झाँक रहा है। मैं हर्षातिरेक से चीख उठा, “बरफ़! वह देखो!”
शुक्ल जी, सेन और अन्य सभी ने देखा, पर अचानक वह फिर लुप्त हो गया। लगा, उसे झील – शिखर जान किसी ने अंदर खींच लिया। खिड़की से झाँक रहा है, कहीं गिर न पड़े।
पर उस एक क्षण के हिम-दर्शन ने हममें जाने क्या भर दिया था। सारी खिन्नता, निराशा और थकावट, सब छूमंतर हो गई। हम सब व्याकुल हो उठे। अभी ये बादल छंट जाएँगे और फिर हिमालय हमारे सामने खड़ा होगा – निरावृत। असीम सौंदर्यराशि हमारे सामने अभी-अभी अपना घूँघट धीरे से खिसका देगी और… और तब….? और तब…? सचमुच मेरा दिल बुरी तरह धड़क रहा था।
डाक बंगले के खानसामे ने बताया कि आप लोग खुशकिस्मत हैं साहब! आपसे पहले 14 टूरिस्ट आए थे। हफ्ते भर पड़े रहे, बरफ नहीं दिखी। आज तो आपके आते ही आसार खुलने के हो रहे हैं।

शब्दार्थ –
अकस्मात – अचानक
लोक – दुनिया
आभास – संकेत
विस्मय – आश्चर्य, ताज़्ज़ुब, अचंभा
रुपहला – चाँदी के रंग का, चाँदी-सा
नगाधिराज – हिमालय
सम्राट – राजा
ढाँप – छिपा
हर्षातिरेक – अत्यधिक प्रसन्नता
लुप्त – छिपा हुआ, गायब
छूमंतर – गायब
व्याकुल – बेचैन, उत्सुक, आतुर
निरावृत – बिना ढका हुआ
आसार – लक्षण चिह्न

व्याख्यालेखक और उनके साथियों को ऐसा लग रहा था जैसे वे अचानक ही एक दूसरे ही संसार में चले आए थे। वह दृश्य इतना आकर्षक, इतना सुंदर, इतना सजा हुआ और निष्कलंक लग रहा था कि लेखक और उनके साथियों को लगा जैसे इस धरती पर तो जूते उतारकर, पाँव पोंछकर आगे बढ़ना चाहिए। धीरे-धीरे  लेखक की नजरों ने उस घाटी को पार किया अर्थात लेखक घाटी को उसके अंत तक देख रहे थे और जहां घाटी के हरे खेत, नदियाँ और जंगल, क्षितिज के धुंधलेपन में, नीले कोहरे में सब कुछ घुल जाते थे, वहां पर कुछ छोटे पर्वतों का संकेत लेखक ने अनुभव किया। उसके बाद केवल बादल थे और फिर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। कुछ देर तक उन बादलों में लेखक की नजरें भटकती रही कि अचानक फिर एक हलका सा आश्चर्य का धक्का लेखक के मन को लगा ।
जब धीरे-धीरे बादल हट रहे थे तब लेखक को समझ नहीं आ रहा था कि वह बादलों के पीछे कौन सी चीज़ है जो स्थिर है। अर्थात जो अपनी जगह से नहीं हट रही थी। वह छोटा-सा बादल के टुकड़े जैसा प्रतीत हो रहा था, और उसका रंग भी लेखक को कुछ अजब ही लग रहा था। उसका रंग न सफ़ेद था, न चाँदी के समान था, न हलका नीला था, परन्तु फिर भी उसमें इन तीनों रंगों का आभास हो रहा था। वह क्या था लेखक को समझ नहीं आ रहा था? लेखक के मन में आया कि कहीं यह बरफ़ तो नहीं है। फिर अपने आप को सही ठहराते हुए उन्हें आभास हुआ कि वह बरफ़ ही है। और बिजली की तरह उनके मन में यह विचार प्रकट हुआ कि इसी घाटी के पार वह नगाधिराज, पर्वत सम्राट हिमालय है। इन बादलों ने उसे छिपा कर रखा है, और वह जो सामने लेखक को दिखाई दे रहा था, वह हिमालय का एक कोई छोटा-सा बाल स्वभाव वाला शिखर बादलों की खिड़की से झाँक रहा था। अर्थात बादलों के बीच से हिमालय का कोई छोटा सा शिखर लेखक को दिखाई पड़ रहा था। लेखक बहुत अधिक खुश हो कर चीख उठा और अपने साथियों को बरफ़ दिखाने लगा। लेखक के साथ आए शुक्ल जी, सेन और अन्य सभी ने बर्फ को देखा, परन्तु अचानक वह फिर से गायब हो गया। अर्थात फिर से हिमालय बादल के पीछे छिप गया। ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी ने, उसे झील – शिखर जान कर अंदर खींच लिया। जैसे वह खिड़की से झाँक रहा हो, और कहीं गिर न पड़े, इसलिए किसी ने खिंच लिया। परन्तु उस एक ही क्षण के हिम-दर्शन ने लेखक और उनके साथियों में मानो एक नई उम्मीद भर दी थी। सारी उदासी, सारी निराशा और सारी थकावट, सब मानो कहीं गायब हो गई। वे सभी बैचेन या उत्सुक हो उठे। कि अभी ये बादल हट जाएँगे और फिर हिमालय उन सभी के सामने बिना किसी आवरण के खड़ा होगा। वे यही सोच रहे थे कि अत्यधिक सौंदर्यराशि उनके सामने अभी कुछ समय में अपना घूँघट धीरे से हटा देगी और तब उन्हें बर्फ के दर्शन होंगें। यही सोच-सोच कर सचमुच लेखक का दिल बुरी तरह से धड़क रहा था। डाक बंगले के खानसामे ने लेखक और उनके साथियों को बताया कि वे सभी लोग खुशकिस्मत हैं! क्योंकि उनसे पहले 14 टूरिस्ट आए थे। हफ्ते भर वहीं घाटी में पड़े रहे, परन्तु उन्हें बरफ नहीं दिखी। परन्तु आज तो लेखक और उनके साथियों के आते ही मौसम के लक्षण खुलने के हो रहे हैं। अर्थात मौसम को देखकर लग रहा था जैसे बादल हट जाएंगे और लेखक और उनके साथियों को हिमालय और बर्फ के दर्शन हो जाएंगे। 

Thele Par Himalaya Summary img1

पाठ –  सामान रख दिया गया। पर सभी बिना चाय पिए सामने के बरामदे में बैठे रहे और अपलक सामने देखते रहे। बादल धीरे-धीरे नीचे उतर रहे थे और एक-एक कर नए-नए शिखरों की हिम-रेखाएँ अनावृत हो रही थीं।
और फिर सब खुल गया। बाई ओर से शुरू होकर दाई ओर गहरे शून्य में धँसती जाती हुई ‘हिम शिखरों की ऊबड़-खाबड़, रहस्यमयी, रोमांचक श्रृंखला। हमारे मन में उस समय क्या भावनाएँ उठ रही थीं, अगर बता पाता तो यह खरोंच, यह पीर ही क्यों रह गई होती ? सिर्फ़ एक धुँधला-सा संवेदन इसका अवश्य था कि जैसे बरफ की सिल के सामने खड़े होने पर मुँह पर ठंडी-ठंडी भाप लगती है, वैसे ही हिमालय की शीतलता माथे को छू रही है।
सूरज डूबने लगा और धीरे-धीरे ग्लेशियरों में पिघला केसर बहने लगा। बरफ कमल के लाल फूलों में बदलने लगी। घाटियाँ गहरी पीली हो गई। अँधेरा होने लगा तो हम उठे। मुँह-हाथ धोने और चाय पीने लगे। पर सब चुपचाप थे, गुमसुम, जैसे सबका कुछ छिन गया हो, या शायद सबको कुछ ऐसा मिल गया हो जिसे अंदर ही अंदर सहेजने में सब आत्मलीन हों या अपने में डूब गए हों।
दूसरे दिन घाटी में उतरकर मीलों चलकर हम बैजनाथ पहुंचे, जहां गोमती बहती है। गोमती की उज्ज्वल जलराशि में हिमालय की बर्फीली चोटियों की छाया तैर रही थी। पता नहीं, उन शिखरों पर कब पहुँचूं, इसीलिए उस जल में तैरते हुए हिमालय से जी भर कर भेंटा, उसमें डूबा रहा।
आज भी उसकी याद आती है तो मन पिरा उठता है। कल ठेले पर बरफ़ को देखकर अल्मोड़े के मेरे मित्र जिस तरह स्मृतियों में डूब गए, उस दर्द को समझता हूँ। इसीलिए जब ठेले पर हिमालय की बात कह कर हँसता हूँ तो वह उस दर्द को भुलाने का ही बहाना है। वे बरफ की ऊँचाइयां बार-बार बुलाती हैं, और हम हैं कि चौराहों पर खड़े, ठेले पर लदकर निकलने वाली बरफ़ को ही देखकर मन बहला लेते हैं।

शब्दार्थ-
अपलक – लगातार, एकटक
अनावृत – खुला हुआ
रोमांचक – आश्चर्यजनक
श्रृंखला – वस्तुओं की क्रमानुसार माला
संवेदन – अनुभूति
उज्ज्वल – साफ़, स्वच्छ, निर्मल
पिराना – पीड़ा होना, दुख अनुभव करना

व्याख्यालेखक और उनके साथियों का सामान रखवा दिया गया था। परन्तु सभी बिना चाय पिए सामने के बरामदे में बैठे रहे और एकटक दृष्टि से सामने देखते रहे। बादल धीरे-धीरे नीचे उतर रहे थे और एक-एक कर नए-नए शिखरों की हिम-रेखाएँ दिखती जा रही थीं। और फिर सब खुल गया। बाई ओर से शुरू होकर दाई ओर गहरे शून्य में धँसती जाती हुई ‘हिम शिखरों की ऊबड़-खाबड़, रहस्यमयी, रोमांचक श्रृंखला। अर्थात बादलों के हट जाने के बाद पूरा हिमालय अच्छे से दिख रहा था। लेखक और उनके साथियों के मन में उस समय क्या भावनाएँ उठ रही थीं, अगर लेखक हमें बता पाता तो जो ठेस, या दुःख का अनुभव लेखक कर रहा है वह न होता। केवल एक धुँधली- सी अनुभूति अवश्य थी कि जैसे बरफ की सिल के सामने खड़े होने पर मुँह पर ठंडी-ठंडी भाप लगती है, वैसे ही हिमालय की शीतलता माथे को छू रही थी। जब सूरज डूबने लगा तो धीरे-धीरे ग्लेशियरों में से मानो पिघला केसर बहने लगा हो। शाम की धूप के कारण बरफ कमल के लाल फूलों में बदलने लगी थी। घाटियाँ गहरी पीली हो गई थी। अँधेरा होने लगा तो लेखक और उनके साथी बरामदे से उठे और फिर मुँह-हाथ धोने और चाय पीने लगे। परन्तु सब चुपचाप और गुमसुम थे, मानो सबका कुछ छिन गया हो, या शायद सबको कुछ ऐसा मिल गया हो जिसे वे अपने अंदर ही अंदर सहेजने में आत्मलीन हों या अपने में डूब गए हों। अर्थात हिमालय और बर्फ के दर्शन के बाद सभी उस दृश्य में मानो खो से गए थे। दूसरे दिन घाटी में उतरकर मीलों चलकर वे सभी बैजनाथ पहुंचे, जहां पर गोमती बहती है। गोमती की साफ, स्वच्छ व् निर्मल जलराशि में हिमालय की बर्फीली चोटियों की छाया तैर रही थी। अर्थात गोमती में हिमालय की बर्फ का पिघला पानी बह रहा था। लेखक को लगा कि पता नहीं वह उन हिमालय के शिखरों पर कब पहुंचेगा, इसीलिए उस जल में तैरते हुए हिमालय के पानी से जी भर कर भेंट कर ली अर्थात वह उसमें डूबा रहा।
लेखक को आज भी उसकी याद आती है तो मन में दुःख का अनुभव हो उठता है। पिछले कल ठेले पर बरफ़ को देखकर अल्मोड़े के लेखक का मित्र जिस तरह यादों में डूब गया था, उस दर्द को लेखक समझता था। इसीलिए जब लेखक ठेले पर हिमालय की बात कह कर हँसता है तो वह उस दर्द को भुलाने का ही बहाना होता है। वे बरफ की ऊँचाइयां लेखक को बार-बार बुलाती हैं, और लेखक हैं कि चौराहों पर खड़े, ठेले पर लदकर निकलने वाली बरफ़ को ही देखकर ही अपना मन बहला लेता है। 

 

Conclusion

‘ठेले पर हिमालय’ नामक यात्रा-वृत्तांत में लेखक हमें पर्वत सम्राट, हिम सम्राट हिमालय के करीब ले जाता है, लेखक के द्वारा हिमालय का वर्णन अत्याधिक सुन्दर तरीके से किया गया है। लेखक ने प्राकृतिक सौंदर्य के एक अद्भुत रूप की ओर हमारा ध्यान खींचते हुए पर्वतीय स्थानों के प्रति हमारा आकर्षण जगाने का भी सफल प्रयास किया है। PSEB Class 10 Hindi – 16 – ‘ठेले पर हिमालय’ की इस पोस्ट में सार, व्याख्या और शब्दार्थ दिए गए हैं। छात्र इसकी मदद से पाठ को तैयार करके परीक्षा में पूर्ण अंक प्राप्त कर सकते हैं।