सूखी डाली पाठ सार

 

PSEB Class 10 Hindi Book Chapter 18 “Sukhi Dali” Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings

 

सूखी डाली सार – Here is the PSEB Class 10 Hindi Book Chapter 18 Sukhi Dali Summary with detailed explanation of the lesson “Sukhi Dali” along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary

इस पोस्ट में हम आपके लिए पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड  कक्षा 10 हिंदी पुस्तक के पाठ 18 सूखी डाली पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप  इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 सूखी डाली पाठ के बारे में जानते हैं।

 

Sukhi Dali (सूखी डाली) 

उपेन्द्रनाथ अश्क (सन् 1910-1996)

 

‘सूखी डाली’ प्रसिद्ध नाटककार उपेंद्रनाथ अश्क द्वारा लिखित एक सामाजिक पारिवारिक एकांकी है, जिसमें संयुक्त परिवार की जटिलताओं, पुरानी और नई पीढ़ी के टकराव, तथा परंपरा और आधुनिकता के संघर्ष को अत्यंत सजीव रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह नाटक केवल एक परिवार की कहानी नहीं है, बल्कि उस परिवर्तनशील भारतीय समाज का प्रतीक है जहाँ आधुनिक शिक्षा और पश्चिमी प्रभाव से नई पीढ़ी के विचार बदल रहे हैं, जबकि पुरानी पीढ़ी अब भी परंपरा और संस्कारों से बंधी हुई है।

 

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सूखी डाली पाठ सार Sukhi Dali Summary

‘सूखी डाली’ एक अत्यंत मार्मिक पारिवारिक एकांकी है, जिसमें उपेंद्रनाथ अश्क जी ने संयुक्त परिवार के अंदरूनी जीवन, उसके सुख-दुख, आपसी संबंधों और पीढ़ियों के टकराव को बहुत गहराई से दिखाया है। इस एकांकी में पारंपरिक और आधुनिक विचारों के बीच संघर्ष दिखाई देता है, विशेषकर नई शिक्षित पीढ़ी और पुरानी परंपरागत सोच के बीच। कहानी का केंद्रबिंदु है दादा मूलराज का परिवार, जो बरगद के विशाल पेड़ की तरह फैला हुआ है। उनके तीन बेटे और पोते-बहुएँ उसी आँगन में रहते हैं। यह परिवार बाहरी तौर पर बहुत मजबूत दिखता है, लेकिन भीतर से धीरे-धीरे बिखराव की ओर बढ़ रहा है।

दादा मूलराज का सबसे छोटा पोता परेश हाल ही में नायब तहसीलदार बना है और उसकी शादी एक शिक्षित, आधुनिक सोच वाली लड़की बेला से हुई है। बेला के घर आने से परिवार में हलचल मच जाती है, क्योंकि वह पुरानी बहुओं की तरह केवल रसोई और घर के कामों में समय नहीं बिताना चाहती। वह साफ-सफाई, सजावट और रहन-सहन में नयापन चाहती है, लेकिन बाकी घरवाले इसे उसका अभिमान समझ लेते हैं। उसकी हर बात चाहे कपड़े धोने का तरीका हो, कमरे की सजावट हो या नौकरों से व्यवहार सबको गलत लगने लगता है। उसकी तुलना हर समय पुरानी बहुओं से की जाती है, जो सरल, आज्ञाकारी और परंपरागत हैं।

बेला के आधुनिक विचारों और उसके ‘मायके’ के उदाहरणों से घर की औरतें चिढ़ जाती हैं। इंदु, जो दादा की पोती है, और बाकी भाभियाँ बड़ी, मँझली और छोटी भाभी सबको लगता है कि बेला अपने मायके का बखान करके उन्हें नीचा दिखाना चाहती है। जब बेला घर की पुरानी नौकरानी मिश्रानी को काम से हटा देती है, तो घर की महिलाओं को यह बहुत बुरा लगता है। वे सोचती हैं कि वह खुद को उनसे ऊँचा समझती है और घर के नियम-कायदे नहीं मानती। बेला के आधुनिक तौर-तरीकों, अंग्रेज़ी बोलने के ढंग और अपने कमरे को नया रूप देने की इच्छा को भी सब उसका ‘घमंड’ मानते हैं।

दूसरी ओर, परेश अपने दादा का बहुत आदर करने वाला और विनम्र युवक है। वह अपनी पत्नी के विचारों को लेकर असमंजस में है। जब बेला पुराने फर्नीचर को निकाल बाहर करती है, यह कहकर कि ‘मेरे मायके में ऐसे टूटी-फूटी चीजें नहीं रखी जातीं’, तो परेश बहुत दुखी होता है। उसे डर है कि उसके दादा इसे अपमान समझेंगे। बेचारा परेश अपनी बात कहने की हिम्मत नहीं कर पाता और अंततः दादा के पास चला जाता है। 

दादा समझ जाते हैं कि समस्या बहू बेला में नहीं, बल्कि परिवार के दूसरे सदस्यों के दृष्टिकोण में है। 

दादा जी परिवार के सभी सदस्यों को बुलाकर समझाते हैं कि बेला अभी नई है, अपने बड़े मायके से आई है, उसे समय दो। उसका मन अभी इस भीड़-भाड़ वाले परिवार में नहीं लगता, क्योंकि वहाँ वह अकेली बेटी थी और यहाँ इतने लोग हैं। वह कहते हैं कि मन लगता नहीं, लगाया जाता है। इस बात से स्पष्ट होता है कि किसी भी रिश्ते को मजबूत करने के लिए स्नेह, सहनशीलता और समझ जरूरी है। दादा सबको सिखाते हैं कि एकता और प्रेम से ही परिवार जीवित रहता है। 

दादा बहुत समझदार व्यक्ति हैं। उन्होंने समय के उतार-चढ़ाव देखे हैं। वे परिवार को एक पेड़ की तरह मानते हैं और कहते हैं कि एक बार पेड़ से जो डाली टूट जाती है, वह लाख पानी देने पर भी फिर नहीं पनपती। यह संवाद एकांकी का मूल संदेश है। परिवार में अगर एक सदस्य अलग हो जाए, तो पूरा परिवार अपनी एकता और स्नेह खो देता है।

वह कहते हैं कि घृणा को घृणा से नहीं, बल्कि स्नेह से मिटाया जा सकता है। वह कहते हैं कि यदि नई बहू के मन में अहंकार या असंतोष है, तो उसे और अधिक प्रेम से जीतना चाहिए, ताकि उसका मन परिवार में लग सके। दादा यह भी समझाते हैं कि महानता किसी से मनवायी नहीं जाती, बल्कि अपने व्यवहार से अनुभव कराई जाती है। उनके इन शब्दों में एक गहरी जीवन-दृष्टि छिपी है। परिवार के अन्य सदस्य बेला के साथ अच्छा व्यवहार करने लगते हैं और बेला को भी अंत में समझ आता है कि परिवार के सभी सदस्य अच्छे हैं। बेला भी अब घर के कामों में हाथ बटाना शुरू कर देती है। जिससे छोटी बहु और अन्य सदस्यों के बीच सामंजस्य बन जाता है। 

इस एकांकी में अश्क जी ने बहुत सरल, स्वाभाविक और भावनात्मक भाषा का प्रयोग किया है। संवाद छोटे-छोटे हैं, पर उनमें गहरा अर्थ छिपा है। हास्य और व्यंग्य के माध्यम से उन्होंने घर-घर में होने वाले झगड़ों को बहुत सहजता से दिखाया है। अंत में दादा का दृष्टिकोण ही इस नाटक का निष्कर्ष बनता है सुखी वही परिवार है, जिसमें हर सदस्य सुखी हो।

इस प्रकार, ‘सूखी डाली’ केवल एक बहू की कहानी नहीं है, बल्कि यह एक प्रतीक है उस टूटते हुए संयुक्त परिवार का, जहाँ नई पीढ़ी अपने विचारों के साथ जीना चाहती है और पुरानी पीढ़ी परंपराओं को छोड़ने को तैयार नहीं। अश्क जी ने यह सन्देश दिया है कि यदि दोनों पीढ़ियाँ एक-दूसरे को समझने और स्वीकार करने का प्रयास करें, तो परिवार की ‘सूखी डाली’ फिर से हरी हो सकती है। प्रेम, संवाद और सहिष्णुता से हर विवाद सुलझ सकता है।

 

सूखी डाली पाठ व्याख्या Sukhi Dali Lesson Explanation

 

पुरुष पात्र 
दादा (मूलराज)
कर्मचन्द
परेश
भाषी

स्त्री पात्र
बेला (छोटी बहू)
छोटी भाभी (बेला की सास, इन्दु की माँ)
मँझली भाभी
बड़ी भाभी
मँझली बहू
बड़ी बहू
रजवा (मिश्रानी)
पारो

पाठ
पहला दृश्य
[मानव प्रगति के इस युग में, जब व्यक्तिगत स्वतंत्रता को अराजकता की हद तक महत्त्व दिया जाता है और तानाशाही को ‘सभ्य समाज में अत्यंत निंदनीय माना जाता है, दादा मूलराज अपने समस्त कुटुंब को एक यूनिट (unit) बनाये, उस पर पूर्ण रूप से अपना प्रभुत्व जमाये, उस महान वट की भांति अटल जड़े हैं, जिसकी लंबी-लंबी डालियाँ उनके आँगन में एक बड़े छाते की भाँति धरती को आच्छादित किये हुए, अगणित घोंसलों को अपने पत्तों में छिपाये वर्षों से तूफानों और आँधियों का सामना किये जा रही हैं।
वर्षों इस वट की संगति में रहने के कारण दादा वट ही की भांति महान दिखाई देते हैं। आयु की ७२ सदियाँ देख लेने पर भी उनका शरीर अभी तक नहीं झुका और उनकी सफेद दाढ़ी बट की लंबी-लंबी दाड़ियों की भाँति उनकी नाभि को छूती हुई मानो धरती को छूने का प्रण किये हुए हैं।

शब्दार्थ-
मानव प्रगति मनुष्य का विकास या उन्नति
युग- समय या काल
व्यक्तिगत स्वतंत्रता– व्यक्ति की अपनी इच्छा से सोचने और कार्य करने की आज़ादी
अराजकता अव्यवस्था
तानाशाही निरंकुश शासन
सभ्य शिष्ट
निंदनीय- निंदा के योग्य
कुटुंब- परिवार
यूनिट (unit)- एक इकाई, एक समूह
प्रभुत्व- स्वामित्व, दबदवा
वट- बरगद का पेड़
अटल- अडिग, जो हिलता न हो
आच्छादित- ढका हुआ
अगणित- असंख्य, बहुत अधिक
महान- ऊँचा, श्रेष्ठ, बड़ा
सदियाँ- सौ-सौ वर्षों का समूह
नाभि- पेट का मध्य भाग
प्रण- व्रत, दृढ़ निश्चय

व्याख्या- प्रस्तुत गद्याँश में लेखक कहते हैं कि यह मानव प्रगति का युग है, जहाँ हर व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बहुत अधिक महत्त्व देता है, यहाँ तक कि यह स्वतंत्रता कभी-कभी अव्यवस्था की सीमा तक पहुँच जाती है। आज के सभ्य समाज में तानाशाही या किसी एक व्यक्ति का पूर्ण नियंत्रण बहुत बुरा माना जाता है। फिर भी दादा मूलराज अपने पूरे परिवार को एक इकाई के रूप में जोड़कर रखते हैं और उस पर अपना पूरा नियंत्रण बनाए हुए हैं। लेखक उन्हें एक महान बड़ के पेड़ के समान बताता है, जिसकी गहरी जड़ें अटल हैं और जिसकी लंबी डालियाँ पूरे आँगन को एक बड़े छाते की तरह ढँक लेती हैं। उस वटवृक्ष के पत्तों में जैसे अनगिनत घोंसले छिपे रहते हैं, वैसे ही दादा मूलराज के साए में परिवार के सब सदस्य सुरक्षित हैं। वे वर्षों से जीवन की तूफानों और आँधियों जैसी कठिनाइयों का सामना करते आ रहे हैं, पर कभी डगमगाए नहीं। इतने लंबे समय तक इस वातावरण में रहने के कारण दादा स्वयं भी वटवृक्ष जैसे महान, स्थिर और मजबूत दिखाई देते हैं। उनकी उम्र ७२ वर्ष हो चुकी है, फिर भी उनका शरीर अब तक सीधा और सशक्त है। उनकी सफेद लंबी दाढ़ी वटवृक्ष की लटकती जटाओं जैसी लगती है, जो मानो धरती को छूने का संकल्प लिए हुए है। 

 

पाठ – दादा का बड़ा लड़का 1914 के महायुद्ध में सरकार की ओर से लड़ते-लड़ते काम आया था। इसके बदले में सरकार ने दादा को एक मुरब्बा जमीन दी थी किंतु दादा सरकार की इस कृपा ही पर संतुष्ट नहीं रहे। अपने साहस, परिश्रम, निष्ठा, दूरदर्शिता और सुख से उन्होंने एक के दस मुरब्बे बनाये। उनके दो बेटे और पोते, जमीन, फ़ार्म, डेयरी और चीनी के उस कारखाने के काम की देखभाल करते हैं, जो उन्होंने हाल ही में अपनी जमीन में लगाया है। सबसे छोटा पोता अभी-अभी नायब तहसीलदार होकर इसी कस्बे में लगा है और कुछ ही दिन हुए उसका विवाह लाहौर के एक प्रतिष्ठित तथा संपंन कुल की सुशिक्षित लड़की से हुआ है।
उनके छोटे पोते परेश का नायब तहसीलदार और उनकी छोटी पतोहू का सुशिक्षित होना, अपने में दो महत्त्वपूर्ण बातें हैं। पहली से सरकारी हलकों में उनकी प्रतिष्ठा और भी बढ़ जाने की संभावना है; गाँव में उनका और भी आदर होने लगा है, किन्तु साथ ही दूसरी से उनके परिवार के लिए संकट भी उपस्थित हो गया है। उनकी तीनों बहुऐं (जो घर में बड़ी भाभी, मँझली भाभी और छोटी भाभी के नाम से पुकारी जाती हैं, सीधी-साधी महिलाएँ हैं। उन सब में उनकी पोती इन्दु ही (जिसने प्राइमरी स्कूल तक बड़ी सफलतापूर्वक शिक्षा पायी है) सबसे अधिक पढ़ी-लिखी समझी जाती है। घर में उसकी चलती भी खूब है और दादा अपनी इस पोती से प्यार भी बहुत करते हैं, किंतु इस ग्रेजुएट छोटी पतोहू के आने से (जो घर में छोटी बहू के नाम से पुकारी जाती है) कुटुंब के इस तालाब में इस प्रकार लहरें-सी उठने लगी है जैसे स्थिर पानी में बड़ी-सी ईंट गिरने से पैदा हो जाती हैं।

शब्दार्थ-
महायुद्ध- बहुत बड़ा युद्ध (यहाँ प्रथम विश्व युद्ध 1914 का संदर्भ)
मुरब्बा- पच्चीस एकड़ भूमि का वर्ग टुकड़ा;
कृपा- दया
संतुष्ट- संतोष मानना
साहस- हिम्मत
परिश्रम- मेहनत
निष्ठा- श्रद्धापूर्ण विश्वास
दूरदर्शिता- आगे की सोचने की समझ, सूझबूझ
फ़ार्म- खेत या कृषि
डेयरी- दूध और उससे बनने वाले पदार्थों का कारखाना
कस्बा- छोटा शहर
तहसीलदार-   तहसील का प्रधान अधिकारी
प्रतिष्ठित- सम्मानित
संपन्न- धनवान
कुल- वंश, परिवार
सुशिक्षित- अच्छे से शिक्षित
पतोहू- पोते की बहू
प्रतिष्ठा- मान-सम्मान, आदर
संभावना- उम्मीद
आदर- सम्मान, सत्कार
संकट- परेशानी, कठिनाई
उपस्थित सामने आना
ग्रेजुएट स्नातक
स्थिर- बिना हिले हुए 

व्याख्या- पाठ के इस अंश में लेखक ने दादा मूलराज के परिवार की स्थिति और उसमें आई नई हलचल का वर्णन किया है। दादा का बड़ा बेटा सन् 1914 के प्रथम विश्वयुद्ध में सरकार की ओर से लड़ते हुए शहीद हो गया था। उसके बदले में सरकार ने दादा को एक मुरब्बा जमीन इनाम में दी थी, लेकिन दादा ने सिर्फ उसी से संतोष नहीं किया। उन्होंने अपने साहस, मेहनत, ईमानदारी, दूरदर्शिता और लगन के बल पर उस एक मुरब्बे से दस मुरब्बे बना लिए। अब उनके दो बेटे और पोते मिलकर उनकी जमीन, फ़ार्म, डेयरी और चीनी के कारखाने का काम संभालते हैं। उनका सबसे छोटा पोता परेश हाल ही में नायब तहसीलदार बना है और उसी कस्बे में नौकरी पर है। कुछ ही समय पहले उसका विवाह लाहौर के एक संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार की पढ़ी-लिखी लड़की से हुआ है।
लेखक कहता है कि परेश का नायब तहसीलदार बनना और छोटी बहू का सुशिक्षित होना परिवार के लिए दो महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं। पहली घटना से दादा के परिवार की सरकारी और सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ गई, गाँव में उनका सम्मान और आदर और भी बढ़ गया। लेकिन दूसरी घटना, यानी पढ़ी-लिखी छोटी बहू के आने से, घर के अंदर संकट और हलचल पैदा हो गई। दादा की तीनों बहुएँ बड़ी, मँझली और छोटी सीधी-सादी घरेलू महिलाएँ हैं। उन सबमें उनकी पोती इंदु, जिसने केवल प्राइमरी स्कूल तक शिक्षा प्राप्त की है, अब तक सबसे अधिक पढ़ी-लिखी और समझदार मानी जाती थी। घर में उसकी काफी चलती थी और दादा भी उसे बहुत प्यार करते थे। लेकिन अब जब घर में एक ग्रेजुएट छोटी बहू आ गई है, तो यह स्थिर परिवार जैसे एक तालाब की तरह था, जिसमें अचानक एक बड़ी ईंट गिरने से लहरें उठने लगी हैं। यानी इस नई बहू के आने से परिवार के संतुलन और व्यवस्था में परिवर्तन आने लगा है।

 

पाठ – पर्दा इमारत के बरामदे में खुलता है। वास्तव में यह बरामदा घर की स्त्रियों का रांदेवू (Rendezvous) सम्मिलन-स्थल है। दिन भर इसमें कोलाहल मचा रहता है। कभी घर की स्त्रियाँ यहाँ धूप लेती हैं; कभी चरखे करती हैं; कभी गप्पें उड़ाती हैं; कभी लड़ती-झगड़ती हैं और कुछ न हो तो स्नानागार में पड़े कपड़े ही धोया करती हैं। यह स्नानागार बाहर के अहाते में है – दायीं दीवार के कोनों में जो दरवाता है, उसके साथ ही बाहर को। रसोई आदि से निबट कर दोपहर के बाद, घर की दो-चार स्त्रियाँ प्रायः रोज़ वहाँ कपड़े धोया करती हैं और निरंतर ‘धप-धप’ की ध्वनि इस बरामदे में गूँजा करती हैं।
सामने दीवार के बायें कोने में एक छोटी-सी गैलरी है, जिसमें (दोनों ओर आमने-सामने) पहले मंझली बहू और बड़ी बहू के कमरे हैं (जिनकी खिड़कियाँ बरामदे में खुलती हैं) फिर मैंझली भाभी और बड़ी भाभी के छोटी भाभी का कमरा (जो इन्दु की माँ और छोटी बहू बेला की सास है) दायीं ओर है। छोटी बहू का कमरा ऊपर की छत पर है और बाय दीवार में सीढ़ियाँ बनी हैं, जो ऊपर को जाती हैं।
सामने की दीवार के साथ गैलरी के इधर को दो तख्त बिछे हैं। दो-एक चारपाइयों दीवार के साथ खड़ी हैं। एक पुराने फैशन की बड़ी आराम-कुर्सी भी सामने की दीवार के साथ लगी हुई है।
दोपहर होने में अभी काफी देर है अतः बरामदे में अपेक्षाकृत निस्तब्धता है केवल गैलरी से स्त्रियों के जल्दी-जल्दी बातें करने की आवाज आ रही है पर्दा उठाने के कुछ क्षण पश्चात इन्दु तेज-तेज गैलरी से निकलती है और बिफरी हुई – सी दायीं तरफ के तख्त पर बैठ जाती है। उसके पीछे-पीछे बड़ी बहू शांत स्वभाव से चलती हुई आती है। इन्दु की भृकुटी चढ़ी है और बड़ी बहू शांत और गंभीर है।)

शब्दार्थ-
इमारत- भवन, मकान
बरामदा घर का खुला भाग
रांदेवू (Rendezvous)– मिलने-जुलने का स्थान, सम्मिलन-स्थल
सम्मिलन-स्थल- एक साथ मिलने का स्थान
कोलाहल- शोर
चरखा करना सूत कातना या कपड़ा बनाने का कार्य करना
गप्पें उड़ाना बातें करना, हँसी-मजाक करना
स्नानागार- स्नान करने का स्थान, बाथरूम
अहाता आँगन
रसोई- खाना बनाने की जगह
निबटना- काम समाप्त करना
ध्वनि- आवाज़, स्वर
गैलरी- संकरा गलियारा, जिसमें कमरे होते हैं
मंझली बहू- बीच की बहू
निस्तब्धता चुप्पी
भृकुटी- भौंहें
बिफरी हुई गुस्से से भरी हुई, तमतमाई हुई

व्याख्या- गद्याँश में लेखक ने नाटक के दृश्य की शुरुआत और घर के वातावरण का बहुत जीवंत चित्रण किया है। पर्दा उठते ही दृश्य घर के बरामदे में खुलता है, जो घर की स्त्रियों का मिलने-जुलने का स्थान है। इसे लेखक ने रांदेवू यानी स्त्रियों के मिलन-स्थल के रूप में बताया है। दिनभर यह बरामदा चहल-पहल और शोर-गुल से भरा रहता है, कभी घर की महिलाएँ यहाँ धूप सेकती हैं, कभी चरखा कातती हैं, कभी बातें और गप्पें करती हैं, तो कभी आपस में झगड़ती भी हैं। अगर कुछ काम न हो तो वे पास बने स्नानागार में कपड़े धोने चली जाती हैं। यह स्नानागार अहाते (आँगन) के बाहर की ओर है और वहाँ से आती ‘धप-धप’ की आवाज़ें पूरे बरामदे में गूंजती रहती हैं।
बरामदे के सामने की दीवार के बाएँ कोने में एक छोटी-सी गैलरी है, जिसमें दोनों ओर मंझली और बड़ी बहू के कमरे बने हैं, जिनकी खिड़कियाँ बरामदे की ओर खुलती हैं। दाईं ओर छोटी भाभी का कमरा है, वही इंदु की माँ और छोटी बहू बेला की सास है। छोटी बहू बेला का कमरा ऊपर की मंज़िल पर है, जहाँ तक पहुँचने के लिए बाईं दीवार में सीढ़ियाँ बनी हैं। सामने की दीवार के पास दो तख्त बिछे हैं, कुछ चारपाइयाँ दीवार के साथ टिकाई हुई हैं, और एक पुराने ढंग की बड़ी आराम-कुर्सी भी वहीं रखी है।
दोपहर होने में अभी कुछ समय बाकी है, इसलिए बरामदा अपेक्षाकृत शांत है। केवल गैलरी से स्त्रियों की तेज़-तेज़ बातचीत की आवाज़ें सुनाई दे रही हैं। तभी पर्दा उठते ही इंदु गुस्से और झुंझलाहट में तेजी से गैलरी से निकलती है और बरामदे के तख्त पर बैठ जाती है। उसके पीछे-पीछे बड़ी बहू आती है, जो शांत और गंभीर स्वभाव की है। इस समय इंदु का भौंएं गुस्से से तनी हुईं हैं, जबकि बड़ी बहू शांत और संयमित है।

 

पाठ
बड़ी बहू – (इन्दु के कन्धों पर अपने दोनों हाथ रखते हुए) आखिर कुछ कहो भी क्या कह दिया छोटी बहू ने?
इन्दु – (चुप)
बड़ी बहू – क्या कह दिया उसने जो इतनी बिफरी हुई हो?
इन्दु – (क्रोध से और क्या ईंट मारती।
बड़ी बहू – कुछ कहो भी …..
इन्दु – मेरे मायके में यह होता है, मेरे मायके में यह नहीं होता (हाथ मटका कर) अपने और अपने मायके के सामने तो वह किसी को कुछ गिनती ही नहीं। हम तो उसके लिए मूर्ख, गंवारऔर असभ्य हैं।
बड़ी बहू – (आश्चर्य से) क्या ……
इन्दु – बैठक के बाहर मिश्रानी खड़ी रो रही थी। मैंने पूछा तो पता चला कि बहू रानी ने उसे काम से हटा दिया है।
बड़ी बहू – (उसी आश्चर्य से) काम से हटा दिया है। भला क्या दोष था उसका?
इन्दु दोष – यह था कि उसे काम करना नहीं आता।
बड़ी बहू – (स्तंभित) काम करना नहीं आता?
इन्दु – उस बेचारी ने कहा भी कि मैं दस-पाँच दिन में सब कुछ सीख जाऊँगी भला कै दिन हुए हैं। मुझे आपका काम करते? फिर बहू रानी न मानी झाड़न उन्होंने उसके हाथ से छीन लिया और कहा कि हट तू, मैं सब कुछ स्वयं कर लूंगी। अभी तक इतना ही सलीका नहीं कि बैठक कैसे साफ़ की जाती है, पाँच-दस दिन में तू क्या सीख जाएगी!

शब्दार्थ-
मायका- स्त्री का जन्मस्थान, जहाँ उसके माता-पिता रहते हैं
असभ्य- जिसे शालीनता का ज्ञान न हो, अनादरपूर्ण व्यवहार करने वाला
आश्चर्य से हैरानी या चकित होकर
बैठक- घर का वह कमरा जहाँ मेहमानों को बैठाया जाता है
दोष गलती, कमी
मिश्रानी- मिश्र (विशिष्ट वर्गीय ब्राह्मण) की स्त्री
स्तंभित अचंभित
झाड़न- सफाई करने का कपड़ा या झाड़ू जैसी चीज़
सलीका- ढंग, तरीका

व्याख्या- इस अंश में लेखक ने घर के भीतर दो पीढ़ियों की सोच और स्वभाव का टकराव दिखाया है। दृश्य में बड़ी बहू और इंदु के बीच बातचीत हो रही है। बड़ी बहू ने इंदु के कंधों पर हाथ रखकर यह जानने की कोशिश की थी कि छोटी बहू ने ऐसा क्या कहा, जिससे वह इतनी नाराज़ हो गई थी। इंदु पहले चुप रही, फिर क्रोध में उसने यह कहा कि छोटी बहू का व्यवहार ऐसा था मानो किसी ने उस पर ईंट फेंक दी हो। बड़ी बहू ने उसे शांत करने की कोशिश की, पर इंदु ने बताया कि छोटी बहू हर बात में अपने मायके की तुलना करती रहती है और यह जताती है कि वहाँ सब कुछ बेहतर होता है। इंदु के अनुसार, छोटी बहू अपने मायके और खुद को श्रेष्ठ समझती है, जबकि घर की बाकी महिलाओं को वह मूर्ख, गंवार और असभ्य मानती है। यह सुनकर बड़ी बहू आश्चर्य में पड़ गई थी और उसने यह जानना चाहा कि वास्तव में ऐसा क्या हुआ था। तब इंदु ने बताया कि बैठक के बाहर मिश्रानी रो रही थी, और पूछने पर पता चला कि छोटी बहू ने उसे काम से हटा दिया था। बड़ी बहू यह सुनकर स्तब्ध रह गई थी और उसने यह समझना चाहा कि उस गरीब और सीधी-सादी औरत की गलती क्या थी। इंदु ने बताया कि छोटी बहू का कहना था कि उसे काम करना नहीं आता। मिश्रानी ने यह कहा था कि वह कुछ दिनों में सब सीख जाएगी, लेकिन छोटी बहू ने उसकी बात नहीं मानी। उसने उसके हाथ से झाड़ू छीन ली थी और यह कहकर उसे हटा दिया था कि जिसे अब तक बैठक साफ करना नहीं आता, वह कुछ ही दिनों में कुछ नहीं सीख सकती।

 

पाठ
बड़ी बहू – सलीका नहीं…?
इन्दु – मैंने जाकर समझाया कि भाभी दस साल से यही मिश्रानी घर का काम कर रही है। घर भर को सफ़ाई करती है, बर्तन मलती है, कपड़े धोती है। जाने तुम्हारा कौन-सा ऐसा काम है जो इससे नहीं होता और फिर मैंने समझाया कि भाभी नौकर से काम लेने की भी तमीज होनी चाहिए।
बड़ी बहू – हाँ और क्या …..
इन्दु – झट से बोली, ‘वह तीन तो बस आप लोगों को है,’ मैंने कहा, ‘तुम तो लड़ती हो। मैं तो सिर्फ यह कहना चाहती थी कि नौकर से काम लेने का भी ढंग होता है।’ इस पर तुनक कर बोलीं, और वह ढंग मुझे नहीं आता, मैंने नौकर जो यहीं आकर देखे हैं।’ फिर कहने लगी, ‘काम लेने का ढंग उसे आता है, जिसे काम की परख हो। सुबह-शाम झाडू देने मात्र से कमरा साफ़ नहीं ही जाता। उसकी बनावट-सजावट भी कोई चीज़ है। न जाने तुम लोग किस तरह हन फूहड़ नौकरों से गुज़ारा कर लेती हो। मेरे मायके में तो ऐसी गँवार मिश्रानी दो दिन छोड़, दो घड़ी भी न टिकती।’
बड़ी बहू – कहीं उसने ये सब बातें?
इन्दु – और कैसे कही जाती हैं जब से आयी है यही तो सुन रहे हैं – नौकर अच्छे हैं तो उसके मायके में खाना-पीना अच्छा है तो उसके मायके में कपड़े पहनने का ढंग आता है तो उसके मायके वालों को, हम तो न जाने कैसे जी रहे हैं।
(नाक-भौं चढ़ा कर) यहाँ के लोगों को खाना पीना पहनना-ओढ़ना कुछ नहीं आता हमारे नौकर गंवार, हमारे पड़ोसी गंवार, हम स्वयं गंवार …..
बड़ी बहू – (चकित विस्मित सिर्फ सुनती है।)
इन्दु – मैंने भी कह दिया, ‘क्या बात है भाभी तुम्हारे मायके की? एक नमूना तुम्हीं जो हो। एक मिश्रानी और ले आती तो हम गँवार भी उससे कुछ सीख लेते।’

शब्दार्थ-
तुनक कर गुस्से में आकर, चिड़चिड़ेपन से
काम की परख- काम को समझने और जाँचने की योग्यता
फूहड़- गँवार
गुज़ारा कर लेना– किसी तरह काम चला लेना
विस्मित- आश्चर्यचकित, हैरान
नाक-भौं चढ़ाना– नापसंदगी दिखाना
नमूना उदाहरण, मिसाल
भाभी- भाई की पत्नी, यहाँ
विस्मित- चकित होकर सोच में पड़ जाना।
परख- समझ या पहचान की क्षमता

व्याख्या- इस अंश में लेखक ने घर की छोटी बहू की अभिमानी प्रवृत्ति और इंदु के आक्रोश को विस्तार से दिखाया है। बड़ी बहू ने आश्चर्य से पूछा कि क्या सच में छोटी बहू ने यह कहा कि मिश्रानी को सलीका नहीं है। तब इंदु ने बताया कि उसने जाकर छोटी बहू को समझाया था कि वह मिश्रानी पिछले दस साल से घर में काम कर रही है, पूरे घर की सफाई करती है, बर्तन माँजती है और कपड़े धोती है। उसने यह भी कहा कि कौन-सा ऐसा काम है जो वह नहीं करती, और साथ ही यह भी समझाया कि नौकर से काम लेने की भी एक शिष्ट तरीका होता है। बड़ी बहू ने उसकी बात से सहमति जताई, लेकिन इंदु ने आगे बताया कि छोटी बहू ने तुरंत तीखे स्वर में जवाब दिया कि यह तमीज़ जैसी बातें तो केवल उन लोगों को सूझती हैं जो पुराने ढंग के हैं। इंदु ने बताया कि उसने फिर भी शांत भाव से कहा कि नौकर से काम लेने का ढंग होना चाहिए, पर छोटी बहू तुनक गई और उसने कहा कि उसे किसी से सीखने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि उसने अपने मायके में बहुत अच्छे नौकर देखे हैं।
छोटी बहू का यह भी कहना था कि काम लेने का ढंग उसी को आता है जिसे काम की सही परख हो। वह कहती थी कि सिर्फ झाड़ू-पोंछा करने से कमरा साफ नहीं होता, बल्कि उसकी सजावट और बनावट का भी ध्यान रखना चाहिए। उसने यह भी टिप्पणी की कि इंदु और घर की अन्य महिलाएँ बहुत साधारण और असभ्य नौकरों से काम चलाती हैं, जबकि उसके मायके में तो ऐसी गंवार नौकरानियाँ एक पल भी नहीं टिकतीं। बड़ी बहू यह सुनकर चकित रह गई थी।
इंदु ने आगे कहा कि छोटी बहू के आने के बाद से घर में लगातार ऐसी ही बातें सुनने को मिल रही हैं। वह हर बात में अपने मायके की तुलना करती है, चाहे बात नौकरों की हो, खाने-पीने की या कपड़ों की। उसका मानना है कि उसका मायका हर बात में श्रेष्ठ है और यहाँ के लोग गंवार, असभ्य और बेढंगे हैं। इंदु ने व्यंग्य करते हुए कहा कि यदि छोटी बहू के मायके का नमूना वही है, तो काश वह अपने साथ एक नौकरानी भी ले आती, ताकि घर के बाकी लोग भी उससे कुछ सलीका सीख लेते।

 

पाठ
[दायीं दीवार के कमरे से छोटी भाभी (इन्दु की माँ और छोटी बहू बेला की सास) प्रवेश करती हैं। उनके पीछे-पीछे रजवा है।]
छोटी भाभी – क्यों इन्दु बेटी, क्या बात हुई – यह रजवा रो रही है, कोई कड़वी बात कह दी छोटी बहू ने इसे?
इन्दु – मीठी वे कब कहती हैं जो आज कड़वी कहँगी?
छोटी भाभी – क्या आज तुम कैसी जली-कटी बातें कर रही हो छोटी बहू से झगड़ा हो गया है क्या?
रजवा – (भरे हुए गले से) माँ जी, आज उन्होंने बरबस मुझे काम से हटा दिया…… इतने बरस हो गये आपकी सेवा करते, कभी किसी ने इस प्रकार अनादर न किया था। मुझे तो माँ जी आप अपने पास ही रखिए। मैं आज से उनका काम न करने जाऊँगी।
छोटी भाभी – वह तो बच्ची है मिश्रानी, तू भी उसके साथ बच्ची हो गयी।
इन्दु – (मुँह विचका कर) – जी हाँ, बच्ची है रोटी को चोची कहती है। उसे तो बात ही करनी नहीं आती (क्रोध से) अपने मायके के सामने तो वह किसी को कुछ समझती ही नहीं और गज भर की जवान …..
बड़ी बहू – बात यह है छोटी माँ कि छोटी बहू को हमारा खाना पीना पहनना-ओढ़ना कुछ भी पसंद नहीं उसे हमसे हमारे पड़ोस से हमारी हर बात से घृणा है।
छोटी भाभी – (चिंता से) फिर कैसे चलेगा? हमारे घर में तो मिल कर रहना, बड़ों का आदर करना, अपने घर की रूखी-सूखी को दूसरों की चुपड़ी से अच्छा समझना, नौकरों पर दया और छोटों पर……..

शब्दार्थ-
प्रवेश करती हैं- भीतर आती हैं
जली-कटी बातें- व्यंग्यपूर्ण या ताने मारने वाले शब्द
बरबस- ज़बरदस्ती, बिना कारण या इच्छा के
अनादर अपमान
मुँह विचका कर- तिरस्कार या नाखुशी दिखाते हुए मुँह बनाना
गज भर की जवान- बहुत बातूनी, ज्यादा बोलने वाली
घृणा- नफरत, तिरस्कार की भावना
रूखी-सूखी- सादा भोजन
चुपड़ी- घी लगी हुई 

व्याख्या- पाठ के इस भाग में दृश्य यह है कि इन्दु की माँ और छोटी बहू (बेला) की सास कमरे में प्रवेश करती हैं। उनके साथ रजवा भी आती है, जो घर की पुरानी नौकरानी है। छोटी भाभी यह देखकर चिंतित हो उठती हैं कि रजवा रो रही है। उन्होंने इन्दु से पूछा कि क्या बात हुई, क्या छोटी बहू ने उसे कुछ कठोर या कड़वी बात कह दी। इस पर इन्दु तंज भरे लहजे में कहती है कि छोटी बहू ने कभी मीठा बोला ही नहीं, जो आज मीठा बोलती। छोटी भाभी यह सुनकर समझाती हैं कि इन्दु को ऐसी जली-कटी बातें नहीं करनी चाहिए और पूछती हैं कि क्या उसका छोटी बहू से झगड़ा हुआ है।
रजवा गले में आँसू भरे हुए स्वर में कहती है कि आज छोटी बहू ने उसे बिना कारण काम से हटा दिया। वह कहती है कि इतने वर्षों से वह इस घर की सेवा कर रही है, लेकिन कभी किसी ने उसका ऐसा अपमान नहीं किया। वह दुखी होकर विनती करती है कि अब वह छोटी बहू के यहाँ काम नहीं करेगी और माँ जी उसे अपने पास ही रख लें।
छोटी भाभी प्यार से समझाती हैं कि छोटी बहू अभी बच्ची है, इसलिए रजवा को भी उसके साथ झगड़ा नहीं करना चाहिए। इस पर इन्दु व्यंग्य से कहती है कि हाँ, वह सचमुच बच्ची है, रोटी को “चोची” कहती है और बात करने का भी सलीका नहीं रखती। वह यह भी कहती है कि छोटी बहू अपने मायके के सामने सबको तुच्छ समझती है और बहुत घमंडी है।
बड़ी बहू स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहती है कि असली बात यह है कि छोटी बहू को उनके घर का रहन-सहन, खाना-पीना, पहनावा, यहाँ तक कि पड़ोसी भी पसंद नहीं हैं। उसे घर की हर चीज़ से घृणा है। यह सुनकर छोटी भाभी चिंता में पड़ जाती हैं और कहती हैं कि अगर घर में कोई ऐसे व्यवहार करेगा, तो घर कैसे चलेगा क्योंकि इस घर की परंपरा तो मिल-जुलकर रहने, बड़ों का आदर करने, और अपने सादे जीवन को दूसरों के ऐशोआराम से बेहतर मानने की रही है।

 

पाठ
(मँझली बहू बाहर से हँसती हुई प्रवेश करती है।)
मँझली बहू – खहि…..खहि…..खहि…..हा-हा-हा……
इन्दु – क्या बात है भाभी, जो हँसी के मारे लोट-पोट हुई जा रही हो।
मँझली बहू – खिहि….. खिहि….. (हाथ-पर-हाथ मारती है) ………हा-हा-हा-हा-हा…..
(गैलरी से मँझली भाभी और बड़ी भाभी प्रवेश करती हैं।)
दोनों – क्या बात है जो आज इतनी ‘हा-हा, ही-ही’ हो रही है?
इन्दु – यह भाभी हैं कि बस हँसे जा रही हैं, कुछ बताती ही नहीं।
मँझली बहू – मैं कहती हूँ……
(फिर हँस पड़ती है।)
बड़ी बहू – आखिर कुछ कहो भी।
मँझली बहू – आज भाई परेश की वह गत बनी कि बेचारा अपना-सा मुँह ले कर रह गया…. खिहि… खिहि…हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा……
छोटी भाभी – ओ हो, तुम्हारी हँसी भी बहू…..
मँझली बहू – मैं क्या करूँ, मैं हँसी के मारे मर जाऊँगी, छोटी माँ! अभी-अभी छोटी बहू ने परेश की वह गत बनायी। बेचारा अपना-सा मुँह ले कर दादा जी के पास भाग गया।
बड़ी बहू इन्दु – (बात क्या हुई?)
मँझली बहू – मैं तो उधर ऊपर सामान रखने गयी थी। बहुत-सी बातें तो मैंने सुनी नहीं, बहुत सी समझ भी नहीं पायी। अंग्रेजी में गिटपिट कर रहे थे छोटी बहू का पारा कुछ-चढ़ा हुआ था। इतना मालूम हुआ कि परेश स्नान कर कमरे में गया तो बहू रानी ने सारा फर्नीचर निकाल कर बाहर रख दिया था। परेश ने कारण पूछा। छोटी बहू ने कहा, ‘मैं इन टूटी-फूटी कुर्सियों और गले सड़े फर्नीचर को अपने कमरे में न रहने दूंगी। परेश कहने लगा, हमारे बुजुर्ग ….बात काट कर छोटी बहू ने कहा हमारे बुजुर्ग तो नंगे-बुच्चे जंगलों में घूमा करते थे तो क्या हम भी उनका अनुकरण करें (हँसती है) और जो सामान पड़ा था वह भी उठा कर बाहर फेंक दिया।

शब्दार्थ-
अपना-सा मुँह लेकर रह जाना शर्मिंदा होना, कुछ न कह पाना
गत बनाना- किसी को असहज स्थिति में डालना
बुजुर्ग- वृद्ध, पूर्वज
नंगे-बुच्चे जंगलों में घूमना- बिना सभ्यता के रहना
अनुकरण करना नकल करना, किसी की तरह आचरण करना
पारा चढ़ना- गुस्से में होना, क्रोध में आना
गिटपिट करना अंग्रेजी या किसी दूसरी भाषा में जल्दी-जल्दी बोलना

व्याख्या- इस अंश में मँझली बहू बाहर से ज़ोर-ज़ोर से हँसती हुई घर में प्रवेश करती है। उसकी हँसी इतनी अधिक होती है कि इन्दु उससे पूछती है कि आखिर बात क्या है, जो वह हँसी के मारे लोटपोट हो रही है। लेकिन मँझली बहू बार-बार हँसने लगती है और कुछ बताने की बजाय ठहाके मारती रहती है। इतने में गैलरी से बड़ी भाभी और छोटी भाभी भी वहाँ पहुँचती हैं और दोनों उत्सुकता से पूछती हैं कि आखिर ऐसी कौन-सी बात हो गई जो इतनी हँसी आ रही है। इन्दु बताती है कि मँझली भाभी कुछ बताती ही नहीं, बस हँसे जा रही हैं।
थोड़ी देर बाद मँझली बहू हँसी के बीच कहती है कि आज भाई परेश की ऐसी हालत हुई कि बेचारा शर्म से मुँह लटकाकर रह गया। यह सुनकर सब और भी उत्सुक हो जाती हैं। छोटी भाभी मुस्कराते हुए कहती हैं कि मँझली बहू की हँसी की भी हद है। इस पर मँझली बहू हँसते-हँसते कहती है कि वह क्या करे छोटी बहू ने अभी-अभी परेश की ऐसी दुर्गति की कि बेचारा सीधे दादा जी के पास जाकर शिकायत करने लगा।
जब बड़ी बहू और इन्दु उससे पूछती हैं कि असल में हुआ क्या, तो मँझली बहू बताती है कि वह ऊपर कुछ सामान रखने गई थी, और बहुत सी बातें तो उसने ठीक से सुनी भी नहीं, क्योंकि छोटी बहू और परेश अंग्रेज़ी में बातचीत कर रहे थे। उसने इतना देखा कि छोटी बहू बहुत ग़ुस्से में थी। परेश स्नान करके कमरे में लौटा तो उसने देखा कि छोटी बहू ने कमरे का सारा फर्नीचर बाहर निकलवा दिया था। जब परेश ने उससे कारण पूछा, तो छोटी बहू ने कहा कि वह इन पुरानी, टूटी-फूटी कुर्सियों और सड़े हुए फर्नीचर को अपने कमरे में नहीं रखेगी। परेश ने अपने बुज़ुर्गों की बात शुरू ही की थी कि छोटी बहू ने उसकी बात बीच में काट दी और ताने भरे स्वर में कहा कि अगर उनके बुज़ुर्ग जंगलों में नंगे घूमते थे, तो क्या वे भी वही करें! इतना कहकर उसने बाकी सामान भी उठा कर बाहर फेंक दिया।

 

पाठ
इन्दु – फिर…. फिर…..
मँझली भाभी – छोटी बहू….
छोटी भाभी – यह तो …..
मँझली बहू – परेश ने कहा, ‘इस फ़र्नीचर पर हमारे दादा बैठते थे, पिता बैठते थे, चाचा बैठते थे। उन लोगों को कभी शर्म नहीं आयी, उन्होंने कभी फर्नीचर के गले-सड़े होने की शिकायत नहीं की। अब यदि मैं जा कर इसे रखने पर आपत्ति करूँगा तो दादा कहेंगे, तहसीलदार होते ही लड़के का सिर फिर गया है। (हाथ मटका कर) न भाई? …..
मँझली और बड़ी भाभी हाँ ठीक ही तो कहा परेश ने।
छोटी भाभी – परेश….. मेरा बेटा भला…..
मँझली भाभी – तब बहू ने कहा, ‘तो न कहो मैं तो इस गले-सड़े सामान को कमरे के पास तक न फटकने दूँगी। इस बेडौल फ़र्नीचर से तो नीचे धरती पर चटाई बिछा कर बैठना-लेटना अच्छा है मेरे मायके में …..’
इन्दु – (क्रोध से) बस उसे तो अपने मायके की पड़ी रहती है चौबीसों घड़ी।
मँझली बहू – और छोटी बहू ने अपने मायके के बड़े-बड़े कमरों और उनके बहुमूल्य फ़र्नीचर का बखान किया (हँसती है) और महाशय परेश की एक भी न चलने दी बेचारे भीगी बिल्ली बने दादा जी के पास चले गये – खि-हि-हि….. खि-हि-हि…..
(हँसती है। दूसरी भी उसके साथ हँसती हैं।)

शब्दार्थ-
आपत्ति करना- विरोध या असहमति जताना
तहसीलदार- सरकारी राजस्व अधिकारी का पद
सिर फिर गया- घमंडी या अपने आप को ऊँचा समझने लगना
बेडौल- जिसका आकार सुंदर न हो
चटाई- बांस या पत्तों से बनी बिछाने की वस्तु
चौबीसों घड़ी हर समय
बखान किया प्रशंसा या बड़ाई करना
बहुमूल्य- कीमती
भीगी बिल्ली बने- डर के मारे या शर्म से चुप हो जाना
महाशय- आदरपूर्वक संबोधन (यहाँ परेश के लिए प्रयोग हुआ है)

व्याख्या- प्रस्तुत गद्याँश में लेखिक ने फर्नीचर पर हुई बहस का वर्णन किया है। इन्दु ने आगे जानने की उत्सुकता दिखाई, तब मँझली भाभी नेआगे बताया कि परेश ने कहा कि उस फर्नीचर पर उनके दादा, पिता और चाचा बैठते रहे हैं और उन लोगों ने कभी फर्नीचर के टूट-फूट होने पर शर्म या शिकायत नहीं की। परेश का विचार यह था कि अब अचानक इस सब को हटाने पर लोग कहेंगे कि तहसीलदार बनते ही विचार बदल गए हैं। दूसरे भी इस बात से सहमत दिखे। पर छोटी बहू ने जो कहा वह कड़ा था। उसने कहा कि वह उन गले-सड़े फर्नीचरों को अपने कमरे के आस-पास भी बर्दाश्त नहीं करेगी और कहा कि इससे अच्छा तो फर्नीचर की जगह पर धरती पर चटाई बिछाकर बैठना अधिक ठीक रहेगा। इन्दु ने क्रोध व्यक्त करते हुए कहा कि छोटी बहू तो हर वक़्त अपने मायके की ही बात करती रहती है। मँझली भाभी ने हँसी-मज़ाक के साथ बताया कि छोटी बहू ने अपने मायके के भव्य कमरों और उन के बहुमूल्य फर्नीचर की खूब तारीफ़ की और परेश की एक भी बात नहीं सुनी। अंततः परेश, दुखी और असहाय महसूस कर दादा के पास चला गया और बाकियों ने इस पूरे दृश्य का हल्के-फुल्के ठहाकों के साथ आनंद लिया।

 

पाठ
मँझली बहू – में तो चुपके से चली आयी। (मुँह बिचका कर) ज़बान है छोटी बहू की या कतरनी… और फिर जब अंग्रेज़ी बोलने लगती है तो कुछ समझ में ही नहीं आता। परेश बेचारा तो अपना-सा मुँह लेकर रह जाता है। जाने तहसीलदार कैसे बन गया।
इन्दु – बस ज़बान-ही-ज़बान है। बात तो जब है, जब काम भी हो। एक काम को कहो तो सौ नाक-भौंह चढ़ाती है। दादा जी ने चार कपड़े धोने को कहा था, ये तो पड़े गुसलखाने में गल रहे हैं।
छोटी भाभी – गुसलखाने में गा रहे हैं! तू उठा क्यों न लायी उन्हें, जा भाग कर उठा ला और फटक कर आँगन में डाल दे। मैं बहू को समझा दूँगी – इस तरह कैसे चलेगा…. (और भी चिंता
से)
…. परेश ने समझाया नहीं उसे?
इन्दु – परेश की तो जैसे वहाँ बड़ी सुनवाई होती है।
मँझली बहू – वह मलमल के थान और अबरों की बात याद है न-अभी तक पड़े हुए हैं। कह-कह कर हार गये परेश महाशय। बहूरानी ने हाथ तक न लगाया उन्हें और वे  शर्म के मारे ले जाते नहीं दादा जी के पास। कचहरी में होंगे तहसीलदार, घर में तो अपराधियों से भी गये – बीते हो जाते हैं।
(हँसती है, इन्दु और बड़ी बहू भी हँसती हैं।)
छोटी भाभी – पर दादा जी के कपड़े …
बड़ी भाभी – तुम भी बहन बस… क्या इतना पढ़-लिख कर छोटी बहू कपड़े धोयेगी!
इन्दु – क्यों! उसके हाथ नमक-मिट्टी के हैं जो गल जायँगे?
(बाहर से दादा के हुक्का गुड़गुड़ाने की आवाज़ आती है)
छोटी भाभी – तुम चलो इन्दु-कपड़े फटक कर अहाते में डाल दो। शायद उन्हें जरूरत हो। माँगेंगे तों…..मैं बहू को समझा दूँगी।
(पर्दा गिरता है।)

शब्दार्थ-
मुँह बिचका कर नाराज़गी या नापसंदगी दिखाना
कतरनी- चीज़ काटने का औज़ार; यहाँ व्यंग्य में तीखी ज़बान के लिए कहा गया है
अपना-सा मुँह लेकर रह जाना– निराश या शर्मिंदा हो जाना।
फटकना- कपड़ों को झाड़ना या झटकना
मलमल बारीक कपड़ा
अबरा- लिहाफ़ के ऊपर का कपड़ा
गुड़गुड़ाना–  हुक्के से निकलने वाली आवाज़
अहाता- घर का बड़ा खुला आंगन या चबूतरा

व्याख्या- इस भाग में मँझली भाभी बताती हैं कि उसने चुपके से सब हाल देखा है और छोटी बहू की बातों पर हँसती हैं; वह कहती है कि छोटी बहू की जुबान तेज़ है, कभी-कभी वह अंग्रेज़ी बोलती है जिससे बाकी लोग समझ ही नहीं पाते और परेश उस सब हालात में शर्म से चुप-सा रह जाता है। उन्हें हैरानी है कि वह तहसीलदार कैसे बना। इन्दु ने कहा कि छोटी बहू बस शब्दों के खेल में लगी रहती है, बात करने में तेज़ है पर असल काम आते ही नाक-भौंह चढ़ा लेती है; दादा ने तो कपड़े धोने को कहा था पर वे गुसलखाने में रखे कपड़े सड़ते जा रहे हैं। छोटी भाभी चिंता व्यक्त करती है कि कोई निकालकर कपड़े आँगन में डाल दे, वह छोटी बहू को समझा देगी कि ऐसे नहीं चलेगा। इन्दु बताती है कि परेश के समझाने पर भी वहाँ सुनवाई कम ही होती है। मँझली भाभी ने फिर हँसकर याद दिलाया कि मलमल और रजाई के खोल अभी भी पड़े हैं और परेश बार-बार कहकर थक गया, पर बहूरानी ने हाथ तक नहीं लगाया और बेचारा शर्म से दादा के पास जाते भी नहीं। कचहरी में तो वह तहसीलदार होंगे पर घर में बेबस है। बाकी बहुएँ हँस पड़ती हैं, छोटी भाभी दादा जी के कपड़ों की चिंता जताती है और बड़ी भाभी तंज करती है कि इतनी पढ़ी-लिखी होने के बाद भी छोटी बहू खुद से कपड़े धोएगी क्या। इन्दु झट से कहती है कि उसके हाथ नमक-मिट्टी के हैं, कैसे गलेंगे, और छोटी भाभी इन्दु से कहटी है कि कपड़े फटककर अहाते में डाल दे, शायद दादा को काम पड़ जाएँ तो वह दे देगी। इसके बाद पर्दा गिर जाता है। 

 

पाठ
दूसरा दृश्य
[वही बरामदा। दायीं ओर के तख्त पर बिस्तर बिछा हुआ है। दीवार के साथ तकिया लगा है। दादा आराम से तकिये के सहारे बैठे हुक्का पी रहे हैं। उनका मँझला लड़का कर्मचन्द पास बैठा उनके पाँव दाब रहा है। हुक्का पीते-पीते दादा बच्चों को बाहर अहाते में खेलते हुए देख रहे हैं। स्नान-गृह से नल के जल्दी-जल्दी चलने की आवाज़ आ रही है। शायद कोई बच्चा उसे चला रहा है, क्योंकि कर्मचन्द की भृकुटी तन गयी है।
[पर्दा उठने के कुछ क्षण बाद तक नल के चलाये जाने और हुक्के के गुड़गुड़ाने की आवाज़ आती है। फिर…….]

शब्दार्थ-
बिस्तर- सोने या बैठने के लिए बिछाई जाने वाली चादर, गद्दा आदि
हुक्का- तंबाकू पीने का पारंपरिक साधन
भृकुटी तनना माथे पर बल पड़ना, गुस्सा या चिंता प्रकट करना
आदरपूर्वक- सम्मान और विनम्रता से
दिनचर्या- रोज़मर्रा के काम-काज का क्रम
जीवंत- जिसमें जीवन या सजीवता महसूस हो
पारंपरिक- पुराने रीति-रिवाज़ों या परंपराओं से जुड़ा हुआ
माहौल माहौल
केंद्र बिंदु- मुख्य व्यक्ति या ध्यान का विषय

व्याख्या- प्रस्तुत गद्याँश में दिखाया गया है कि दूसरा दृश्य भी उसी बरामदे में घटित होता है जहाँ पहले दृश्य में घर की स्त्रियाँ दिखाई दी थीं। अब दृश्य का केंद्र दादा मूलराज हैं, जो दाहिनी ओर के तख्त पर बिस्तर लगाकर आराम से बैठे हैं और तकिये का सहारा लेकर हुक्का पी रहे हैं। उनके पास उनका मँझला बेटा कर्मचंद बैठा है और आदरपूर्वक उनके पाँव दबा रहा है। दादा हुक्का पीते हुए बाहर अहाते में खेलते बच्चों को ध्यान से देख रहे हैं। इस बीच स्नानघर से नल के चलने की तेज़ आवाज़ आ रही है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि कोई बच्चा पानी से खेल रहा है। यह देखकर कर्मचंद की भृकुटियाँ तन जाती हैं, यानी वह परेशान हो उठता है। पूरे वातावरण में शांति और घरेलू दिनचर्या की झलक मिलती है, हुक्के की गुड़गुड़ाहट और नल की आवाज़ों से दृश्य जीवंत हो उठता है, जो यह बताता है कि यह परिवार पारंपरिक माहौल में जी रहा है और घर के बड़े, दादा मूलराज, अब भी केंद्र बिंदु बने हुए हैं।

 

पाठ
कर्मचन्द – (क्रोध से) बस करो जगदीश क्या खट-खट लगा रखी है? ज़रा आराम करने दो। अभी-अभी खाना खा कर बैठे हैं कि तुम…….
दादा – (हुक्के की नली को हटा कर उधर देखते हुए) नहीं, नहीं, खेलने दो बच्चों को। (फिर हुक्का गुड़गुड़ाते हैं) बच्चे… (हंसते हैं) बरगद की पूरी डाल लाकर आँगन में लगा दी और उसे पानी दे रहे हैं। … हँसते हैं) …. नहीं जानते कि पेड़ से टूटी डाली जल देने से नहीं पनपती। हुक्का गुड़गुड़ाते हैं, फिर नली छोड़कर कर्मचन्द से मैं कहा करता हूँ न बेटा, कि एक बार पेड़ से जो डाली टूट गयी, उसे लाख पानी दो, उसमें वह सरसता न आयेगी और हमारा यह परिवार बरगद के इस महान पेड़ ही की भाँति है……
कर्मचन्द – लेकिन शायद अब इस पेड़ से एक डाली टूट कर अलग हो जाये।
दादा – (चिंता से) क्या कहते हो? कौन अलग हो रहा है?
कर्मचन्द – शायद छोटा अलग हो जाये।
दादा – परेश? पर क्यों – उसे क्या कष्ट है?
कर्मचन्द – कष्ट उसे तो नहीं, छोटी बहू को है।
दादा – मुझे किसी ने बताया तक नहीं। यदि कोई शिकायत थी तो उसे वहीं मिटा देना चाहिए था। हल्की-सी खरोंच भी, यदि उस पर तत्काल दवाई न लगा दी जाय, बढ़ कर एक बड़ा भाव बन जाती है और वही घाव नासूर हो जाता है, फिर लाख मरहम लगाओ, ठीक नहीं होता।
कर्मचन्द – मैं अच्छी तरह तो नहीं जानता, पर जहाँ तक मेरा विचार है, छोटी बहू के मन में दर्प की मात्रा ज़रूरत से कुछ ज़्यादा है। मैंने वह मलमल के थान और रज़ाई के अबरे ला कर दिये थे न? और सबने तो रख लिये, पर सुना है कि छोटी बहू को पसंद नहीं आये। अपने मायके के घराने को शायद वह इस घराने से बड़ा समझती है और इस घर को घृणा की दृष्टि से देखती है।

शब्दार्थ-
पनपना- बढ़ना, विकसित होना
सरसता मधुरता
महान- बड़ा, सम्माननीय, ऊँचा
कष्ट- दुख, तकलीफ़
शिकायत- नाराज़गी या असंतोष की बात
खरोंच- हल्की चोट या घाव
नासूर- नाड़ी व्रण, ऐसा घाव जिसमें से बराबर मवाद निकलता हो
मरहम दवा जो घाव या सूजन पर लगाई जाती है
दर्प- घमंड
मात्रा- सीमा, परिमाण
थान- कपड़े का रोल या गट्ठर
रज़ाई- ओढ़ने का गद्देदार बिस्तर
अबरे- रज़ाई के लिए इस्तेमाल होने वाला मुलायम कपड़ा
विचार सोच, मत, राय

व्याख्या- इस अंश में घर के पुरुष पात्रों के बीच बातचीत के माध्यम से पारिवारिक तनाव और पीढ़ियों के विचारों में भिन्नता दिखाई देती है। कर्मचंद गुस्से में अपने बेटे जगदीश को नल चलाने से रोकता है, क्योंकि वह आराम करना चाहता है। दादा मूलराज उसे रोकते हुए कहते हैं कि बच्चों को खेलने दो। वे हुक्का पीते हुए मुस्कराते हैं और बताते हैं कि बच्चे आँगन में बरगद की टूटी हुई डाल लगाकर उसे पानी दे रहे हैं। वह कहते हैं कि जैसे पेड़ से टूटी डाल को कितना भी पानी दो, वह कभी नहीं पनपती, वैसे ही परिवार भी तभी फलता-फूलता है जब सब एक साथ रहें। वह इस परिवार को बरगद के वृक्ष की तरह स्थायी बताते हैं।
इस पर कर्मचंद गंभीर होकर कहता है कि अब लगता है इस पेड़ की एक डाल टूटने वाली है यानी परिवार में बिखराव की आशंका है। दादा चिंतित होकर पूछते हैं कि कौन अलग होना चाहता है, तो कर्मचंद बताता है कि शायद छोटा बेटा परेश अलग होने की सोच रहा है। दादा को यह सुनकर आश्चर्य होता है, वह पूछते हैं कि आखिर परेश को शिकायत क्यों है। कर्मचंद बताता है कि परेश को नहीं, बल्कि उसकी पत्नी, छोटी बहू को शिकायतें हैं। दादा कहते हैं कि यदि कोई छोटी सी खरोंच भी हो, तो उसे समय पर मिटाना जरूरी होता है, नहीं तो वह बढ़कर बड़ा घाव बन जाती है। कर्मचंद बताता है कि छोटी बहू के मन में घमंड कुछ अधिक है, उसे यह घर और इसका साधारण रहन-सहन अपने मायके की तुलना में छोटा लगता है। उसने मलमल और रजाई के अबरे तक पसंद नहीं किए और अपने मायके के वैभव को इस घर से श्रेष्ठ समझती है। 

 

पाठ
दादा – बेटा, बड़प्पन बाहर की वस्तु नहीं – बड़प्पन तो मन का होना चाहिए। और फिर बेटा, घृणा को घृणा से नहीं मिटाया जा सकता। बहू तभी पृथक होना चाहेगी जब उसे घृणा के बदले घृणा दी जायगी। लेकिन यदि उसे घृणा के बदले स्नेह मिले तो उसकी सारी घृणा धुँधली पड़ कर लुप्त हो जायगी। हुक्का गुड़गुड़ाते हैं और महानता भी बेटा, किसी से मनवायी नहीं जा सकती, अपने व्यवहार से अनुभव करायी जा सकती है। ठूँठ वृक्ष आकाश को छूने पर भी अपनी महानता का सिक्का हमारे दिलों पर उस समय तक नहीं बैठा सकता, जब तक अपनी शाखाओं में वह ऐसे पत्ते नहीं लाता, जिनकी शीतल-सुखद छाया मन के सारे ताप को हर लें और जिसके फूलों की भीनी-भीनी सुगंध हमारे प्राणों में पुलक भर दे।
भाषी – (बाहर से) दादा जी, मल्लू और जगदीश ने मेरा वट का पेड़ उखाड़ दिया (मल्लू से लड़ते हुए चीख-चीख कर) क्यों उखाड़ा तूने मेरा पेड़-क्यों उखाड़ा…..?
दादा – पेड़? …(हँसते हैं।) बच्चे!! (हँसते हैं) ठहरो भाषी, लड़ो मत बेटा। जाना कर्मचन्द ज़रा हटाना दोनों को ….
दादा – आओ बेटा परेश, वह मैंने एक दो कपड़े भेजे थे न, तनिक देखना बहू ने उन्हें धो डाला है या नहीं। धो डालें हों तो ले आओ जरा। फिर मैं तुम से बात करूँगा।
परेश – मैं लज्जित ……
दादा – नहीं धुले तो फिर धुल जायँगे बेटा? आओ, इधर बैठो मेरे पास। मैं तो तुम्हें बुलाने ही वाला था। आओ, आओ, इधर आकर बैठो!
[फिर हुक्का गुड़गुड़ाने लगते हैं परेश चुपचाप आकर दादा के पास बैठ जाता है।]

शब्दार्थ-
बड़प्पन श्रेष्ठता, महानता, ऊँचा चरित्र या स्वभाव
पृथक होना अलग होना, दूरी बना लेना
शाखा- टहनी
स्नेह प्रेम, ममता, सच्ची भावना
धुँधली पड़ना कमज़ोर या अस्पष्ट हो जाना
लुप्त हो जाना- समाप्त हो जाना, खो जाना
महानता- ऊँचाई, श्रेष्ठता, बड़प्पन
व्यवहार चाल-चलन, आचरण
अनुभव कराना- महसूस कराना
ठूँठ वृक्ष- सूखा या बिना पत्तों-शाखाओं वाला पेड़
सिक्का बैठना- प्रभाव जमना, मान्यता पाना
शीतल-सुखद छाया– ठंडी और सुख देने वाली छाया
मन का ताप- मन की बेचैनी या दुःख
हर लेना दूर कर देना, समाप्त कर देना
भीनी-भीनी सुगंध– हल्की और मनमोहक खुशबू
पुलक भरना हर्ष या आनंद से भर जाना, रोमांचित होना
तनिक ज़रा, थोड़ा
लज्जित शर्मिंदा, संकोच में

व्याख्या- इस अंश में दादा जी बड़प्पन और मानवता का अर्थ समझा रहे हैं। दादा जी कहते हैं कि बड़प्पन बाहर की वस्तु नहीं होती, बल्कि यह मन का गुण होता है। वह समझाते हैं कि घृणा को घृणा से नहीं मिटाया जा सकता, बल्कि स्नेह और प्रेम से ही मनुष्य के मन की कठोरता को दूर किया जा सकता है। उनका विचार था कि यदि बहू को घृणा के बदले स्नेह मिलेगा, तो उसका सारा क्रोध और कटुता स्वयं ही समाप्त हो जाएगी। उन्होंने यह भी कहा कि महानता कभी किसी से जबरदस्ती मनवाई नहीं जा सकती, बल्कि उसे अपने व्यवहार और आचरण से अनुभव करायी जाती है। वह यह उदाहरण देते हैं कि जैसे एक ठूँठ वृक्ष चाहे कितना भी ऊँचा क्यों न हो, वह तब तक महान नहीं कहलाता जब तक उसकी शाखाएँ छाया न दें और उसके फूलों की सुगंध मन को आनंदित न करे।
तभी बाहर से भाषी नाम का बच्चा चिल्लाता है कि मल्लू और जगदीश ने उसका वट का पेड़ उखाड़ दिया है। वह गुस्से में मल्लू से झगड़ रहा था। दादा जी यह सुनकर हँसते हुए कहते हैं कि यह तो बच्चे हैं, इन्हें लड़ना नहीं चाहिए। वह कर्मचन्द से कहते हैं कि जाकर दोनों बच्चों को अलग कर दें। इसके बाद दादा जी फिर से हुक्का मुँह से लगाते है और परेश के आने पर उससे कहते हैं कि वह बहू से पूछे कि कपड़े धुल गए हैं या नहीं। जब परेश लज्जित होकर चुप खड़ा रहा, तो दादा जी स्नेहपूर्वक कहते हैं कि अगर कपड़े नहीं धुलते हैं, तो बाद में धुल जाएँगे। वह उसे अपने पास बैठने को कहते हैं। परेश चुपचाप आकर उनके पास बैठ जाता है और दादा जी फिर हुक्का पीना शुरू कर देते हैं।

 

पाठ
दादा – (हुक्का गुड़गुड़ाना छोड़कर) मुझे कर्मचन्द्र से अभी पता चला है कि तुम्हारी बहू को रज़ाई के अबरे और मलमल का थान पसंद नहीं आया। तुम्हारे ताऊ ठहरे पुराने समय के आदमी, वे नये फ़ैशन की चीज़ें खरीदना क्या जानें? तभी तो मैं कहता हूँ कि छोटी बहू को बाज़ार ले जाओ। वह स्वयं अपनी पसंद की चीज़ें ले आयेगी।
परेश – जी…..
दादा – (हुक्के का कश लगा कर) और मैं सोचता था कि अब बहू आ गयी है तो इन्दु का दहेज तैयार करने में भी सहायता देगी।
परेश – जी में इसलिए आया था ….
दादा – हाँ, हाँ कहो, झिझकते क्यों हो!
परेश – जी बात यह है कि इस घर में बेला का मन नहीं लगता।
दादा – इतनी जल्दी उसका मन कैसे लग सकता है बेटा। अभी कै दिन हुए हैं उसे आये? और फिर बेटा मन लगता नहीं, लगाया जाता है।
परेश – वह मन लगाती ही नहीं।
दादा – तो हमें उसका मन लगाना चाहिए। वह एक बड़े भर से आयी है। अपने पिता की इकलौती बेटी है। कभी नाते-रिश्तेदारों में रही नहीं। इस भीड़-भाड़ से वह घबराती होगी। इतने कोलाहल से वह ऊब जाती होगी। हम सब मिल कर इस घर में उसका मन लगायेंगे।
परेश – उसे कोई भी पसंद नहीं करता। सब उसकी निंदा करते हैं। अभी मेरे पास माँ, बड़ी ताई, मँझली ताई, बड़ी भाभी, मँझली भाभी, इन्दु, रजवा-सब आयी थीं। सब उसकी शिकायत करती थीं – ताने देती थीं कि तू उसके हाथ बिक गया है, तू उसे कुछ नहीं समझाना और इधर वह उन सब से दुखी है, कहती है – सब मेरा अपमान करती हैं, सब मेरी हँसी उड़ाती हैं। मेरा समय नष्ट करती हैं। मैं ऐसा महसूस करती हूँ, जैसे मैं परायों में आ गयी हूँ। अपना एक भी मुझे दिखायी नहीं देता…. आप मेरी मानें तो …..
दादा – हाँ, हाँ, कहो ……

शब्दार्थ-
दहेज- विवाह के समय लड़की के साथ दिया जाने वाला सामान या उपहार
जी में आया- मन में विचार आया, सोचा
झिझकते क्यों हो– संकोच क्यों कर रहे हो
कै दिन हुए हैं- कितने ही दिन हुए हैं
इकलौती बेटी अकेली संतान, जिसका कोई भाई या बहन न हो
नाते-रिश्तेदारों- सम्बन्धी
भीड़-भाड़- अधिक लोगों का समूह, घर में हलचल वाला वातावरण
कोलाहल- शोरगुल, चहल-पहल
ऊब जाती होगी- थकान या अरुचि महसूस करती होगी
निंदा करना- बुराई करना, आलोचना करना
ताने देना- व्यंग्य या चुभती हुई बात कहना
हाथ बिक जाना– किसी के प्रभाव या वश में हो जाना
अपमान- तिरस्कार
परायों में आ जाना- अपने लोगों से दूर होना

व्याख्या- इस अंश में लेखक दादा जी और परेश के बीच हुए संवाद के माध्यम से परिवारिक समझदारी, सहानुभूति और संबंधों में सामंजस्य का सुंदर चित्र प्रस्तुत करते हैं। दादा जी बताते हैं कि उन्हें कर्मचन्द से यह समाचार मिला कि परेश की बहू को रज़ाई के अबरे और मलमल का कपड़ा पसंद नहीं आया। वह कहते हैं कि परेश के ताऊ पुराने समय के व्यक्ति हैं, इसलिए वह नए फैशन की चीज़ें खरीदना नहीं जानते। इसी कारण दादा जी सुझाव देते हैं कि छोटी बहू को स्वयं बाज़ार ले जाकर उसकी पसंद की वस्तुएँ चुनने देना चाहिए। इसके बाद दादा जी कहते हैं कि वह सोचते थे कि अब जब बहू घर में आ गई है, तो वह इंदु के दहेज की तैयारी में भी सहायता करेगी।
जब परेश झिझकते हुए बोलता है कि उसकी पत्नी बेला का मन इस घर में नहीं लगता, तो दादा जी शांत भाव से कहते हैं कि इतनी जल्दी किसी का मन लग भी कैसे सकता है, क्योंकि उसे आए अभी कुछ ही दिन हुए हैं। वह समझाते हैं कि मन अपने आप नहीं लगता, बल्कि उसे लगाना पड़ता है। परेश कहता है कि उसकी पत्नी मन लगाना चाहती ही नहीं, तब दादा जी समझाते हैं कि अगर वह मन नहीं लगा रही है, तो परिवार के लोगों को मिलकर उसका मन लगाना चाहिए। वह यह भी बताते हैं कि वह एक बड़े घर से आई है, अपने पिता की इकलौती बेटी है, और शायद इतने बड़े परिवार व भीड़भाड़ से घबराती होगी। इसलिए सभी को मिलकर उसे अपनापन महसूस कराना चाहिए।
परेश दुखी स्वर में बताता है कि उसकी पत्नी को घर में कोई भी पसंद नहीं करता, सभी उसकी शिकायतें करते हैं और उसकी निंदा करते हैं। वह यह भी कहता है कि उसकी माँ, ताई, भाभियाँ और इंदु सब बेला पर ताने कसती हैं कि वह उसके अधीन हो गया है और उसे कुछ नहीं समझाता। उधर बेला भी दुखी रहती है और कहती है कि सब उसका अपमान करते हैं, उसकी हँसी उड़ाते हैं और उसे लगता है जैसे वह परायों में आ गई हो। वह कहती है कि इस घर में उसे कोई अपना नहीं दिखता। परेश दादा जी से कहता है कि वह उसकी बात मानें तो वह कुछ सुझाव देना चाहता है। इस पर दादा जी स्नेहपूर्वक कहते हैं कि वह बिना झिझक अपनी बात रखे।

 

पाठ
परेश – बात यह है कि वह आज़ादी चाहती है। दूसरों का हस्तक्षेप, दूसरों की आलोचना उसे पसंद नहीं…….!
(दादा सिर्फ हुक्का गुड़गुड़ाते हैं)
– वह समझती है कि यह छोटी बहू है, इसलिए सब उसकी आलोचना करना, उसे आदेश देना अपना कर्तव्य समझते हैं। (दादा सिर्फ हुक्का गुड़गुड़ाते हैं)
– और वह अपनी अलग गृहस्थी बसाना चाहती है। जहाँ उसे कोई रोकने वाला न हो। जहाँ वह स्वेच्छापूर्वक अपना जीवन बिता सके। वह चाहती है कि यदि बाग वाला मकान उसे मिल जाय तो वह सुख और शांति से रहे। मैं तो सदैव यहाँ बना न रहूंगा, कुछ ही दिनों की बात है मेरी तबदीली हो जायगी। उतने दिन को यदि आप बाग़ वाले मकान का प्रबंध कर दें! ….उसकी सारी उद्विग्नता, अन्यमनस्कता और तिलमिलाहट में उसकी यही इच्छा काम करती है। अब मैं उसे कैसे समझाऊँ।…..

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दादा – (कुछ क्षण चुपचाप हुक्का गुड़गुड़ाते हैं फिर) हूँ (खाँसते हैं)
यों तो इस झंझट से छुटकारा पाने का सरल उपाय यही है कि तुम्हें बाग़ वाला मकान दे दिया जाय – वह पड़ा भी बेकार है और अभी मैं उससे किसी तरह का काम लेने का भी इरादा नहीं रखता, पर तुम जानते हो बेटा, मेरे जीते जी यह असंभव है। (हुक्का गुड़गुड़ाते हैं) मैं जब अपने परिवार का ध्यान करता हूँ तो मेरे सामने वट का महान पेड़ घूम जाता है (खाँस कर) शाखाओं पत्तों, फलों, फूलों से भरा-पूरा (हुक्के से एक-दो कश लगाते हैं) और फिर मेरी आँखों के सामने इस महान वृक्ष की डालियाँ टूटने लगती है और वह केवल ठूँठ रह जाता है। (स्वर धीमा, जैसे अपने-आप से कह रहे हैं) और मैं सिहर उठता हूँ। न बेटा, मैं अपने जीते जी यह सब न होने दूँगा। तुम चिंता न करो। मैं सबको समझा दूँगा – घर में किसी को तुम्हारी पत्नी का तिरस्कार करने का साहस न होगा। कोई उसका समय नष्ट न करेगा। ईश्वर की अपार कृपा से हमारे घर सुशिक्षित, सुसंस्कृत बहू आयी है तो क्या हम अपनी मूर्खता से उसे परेशान कर देंगे? तुम जाओ बेटा, किसी प्रकार की चिंता को मन में स्थान न दो मैं कोई-न-कोई उपाय निकालूँगा तुम विश्वास रखो, वह अपने आपको परायों से घिरी अनुभव न करेगी। उसे वही आदर-सत्कार मिलेगा, जो उसे अपने घर में प्राप्त था।
परेश – जैसा आप उचित समझें।
दादा – और देखो, तुम स्वयं भी इस बात का ध्यान रखना, तुम्हारी किसी बात से उसका मन न दुखे। कोई भी ऐसी बात न करो जिसे वह अपना अपमान समझे।
(परेश चलने को होता है।)
– और तुम उसे साथ ले जाकर नगर से सब चीज़ें खरीद लाओ। शेष की चिंता तुम न करो, मैं कोई-न-कोई रास्ता अवश्य निकाल लूँगा।
परेश – जैसी आपकी इच्छा!
[चला जाता है। (दादा फिर हुक्का गुड़गुड़ाने लगते हैं, हुक्के के कश लम्बे हैं जो इस बात के साक्षी हैं कि दादा पीने के साथ-साथ सोच भी रहे हैं।]

शब्दार्थ-
आज़ादी- स्वतन्त्रता
हस्तक्षेप- दखल
आलोचना- निंदा या बुराई
गृहस्थी बसाना घर बसाना
स्वेच्छापूर्वक- अपनी इच्छा के
तबदीली- नौकरी या पद से दूसरे स्थान पर जाना
प्रबंध इंतज़ाम
उद्विग्नता- परेशानी
अन्यमनस्कता- अनमनापन, उचाटता
तिलमिलाहट- बेचैनी
असंभव- मुमकिन नहीं
ठूँठ- वृक्ष का बचा हुआ धड़।
सिहर- काँप
सुशिक्षित पढ़ी-लिखी
सुसंस्कृत- अच्छे संस्कारों वाली
तिरस्कार अपमान, उपेक्षा
अपार कृपा- बड़ी या असीम कृपा
आदर-सत्कार सम्मान और प्रेमपूर्वक व्यवहार
उचित- ठीक
शेष- बाकी
कश- खींचना, फूँक
साक्षी- प्रमाण 

व्याख्या- इस अंश में लेखक परिवार के भीतर उत्पन्न तनाव और पीढ़ियों के विचारों के टकराव को प्रस्तुत करते हैं। परेश दादा जी से यह कहता है कि उसकी पत्नी स्वतंत्र जीवन जीना चाहती है। उसे दूसरों का हस्तक्षेप या आलोचना पसंद नहीं है। परेश बताता है कि उसकी पत्नी को यह महसूस होता है कि केवल इसलिए कि वह घर की छोटी बहू है, सब लोग उसकी आलोचना करना और उसे आदेश देना अपना कर्तव्य समझते हैं। परेश कहता है कि उसकी पत्नी चाहती है कि उसकी अपनी गृहस्थी हो, ऐसा घर जहाँ कोई उसे टोकने या रोकने वाला न हो, और वह अपनी इच्छा से जीवन बिता सके। वह कहता है कि यदि बाग़ वाला मकान उसे मिल जाए तो वह वहाँ सुख और शांति से रह सकती है। परेश बताता है कि वह स्वयं जल्द ही बदली पर चला जाएगा, इसलिए यदि थोड़े दिनों के लिए वह मकान मिल जाए तो उसकी पत्नी की बेचैनी और उद्विग्नता समाप्त हो जाएगी। वह दुख के साथ कहता है कि वह उसे समझाने की बहुत कोशिश करता है, पर वह किसी भी बात को मानने के लिए तैयार नहीं होती।
दादा जी यह सब ध्यान से सुनते है और कुछ समय तक चुप रहकर गहराई से सोचते है। फिर वह कहते हैं कि यदि इस समस्या से छुटकारा पाना है तो सबसे आसान उपाय यही है कि परेश को बाग़ वाला मकान दे दिया जाए। वह मकान वैसे भी खाली पड़ा है और उसका कोई उपयोग नहीं हो रहा। लेकिन वह स्पष्ट कहते हैं कि यह उनके जीते जी संभव नहीं है। वह कहते हैं कि जब वह अपने परिवार के बारे में सोचते हैं, तो उन्हें परिवार एक विशाल वटवृक्ष जैसा दिखाई देता है, फल, फूल और पत्तों से भरा-पूरा। पर जब वह कल्पना करते हैं कि उस वृक्ष की डालियाँ टूटकर अलग हो रही हैं, तो वे भीतर तक काँप उठते हैं। वह दृढ़ स्वर में कहते हैं कि अपने जीते जी वह इस परिवार को टूटने नहीं देंगे।
दादा जी परेश को समझाते हुए कहते हैं कि उसे चिंता नहीं करनी चाहिए। वह स्वयं परिवार के सभी सदस्यों को समझा देंगे ताकि कोई भी उसकी पत्नी का अपमान करने या उसका समय व्यर्थ करने का साहस न करे। वह कहते हैं कि ईश्वर की कृपा से उनके घर में एक शिक्षित और सुसंस्कृत बहू आई है, इसलिए उसे दुखी करना शर्म की बात होगी। वह विश्वास दिलाते हैं कि बेला को अपने घर जैसा ही स्नेह और सम्मान इस परिवार में मिलेगा और उसे कभी यह महसूस नहीं होगा कि वह परायों के बीच है।
दादा जी परेश को यह भी सलाह देते हैं कि वह स्वयं भी अपनी पत्नी के साथ अच्छा व्यवहार करे। उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि उसकी किसी बात से उसका मन न दुखे और न ही वह किसी प्रकार का अपमान महसूस करे। जाते समय दादा जी परेश से कहते हैं कि वह अपनी पत्नी को साथ लेकर नगर जाए और उसकी पसंद की सारी वस्तुएँ स्वयं खरीद लाए। बाकी की चिंता वह न करे क्योंकि वह स्वयं कोई समाधान निकाल लेंगे। परेश दादा जी की बातों पर सहमति जताता है और चला जाता है।
अंत में, दादा जी हुक्का गुड़गुड़ाते हुए गहरी सोच में डूब जाते हैं। उनके लम्बे कश यह बता रहे हैं कि वह केवल हुक्का नहीं पी रहे हैं, बल्कि परिवार की एकता और भविष्य के बारे में गंभीरता से चिंतन कर रहे हैं।

 

पाठ
(जैसे अचानक उन्हें कुछ सूझ गया हो) रजवा ….रजवा …. (फिर हुक्का गुड़गुड़ाते हैं), रजबा नहीं आती, फिर आवाज़ देते हैं। रजवा….. रजवा……
रजवा – (दूर से) जी आयी।
(भागती हुई-सी प्रवेश करती है।)
दादा – छोटी बहू के अतिरिक्त सबको यहाँ भेज दो। कहो कि सब काम छोड़कर मेरे पास आयें  (रजवा जाने लगती है) और सुनो, कोई न रहे – सब से कहना, कुछ क्षण के लिए अवश्य यहाँ आ जायें।
रजवा – जी मैं अभी जा कर सब से कहे देती हूँ।
[चली जाती है (दादा फिर हुक्का गुड़गुड़ाने लगते हैं) नल से किसी के कपड़े धोने की आवाज़ आने लगती है। दादा और भी लंबे-लंबे कश लेते हैं। धीरे-धीरे कुटुंब के प्राणी आने लगते हैं। बालक और युवक तख्त और चारपाइयों पर बैठते हैं और स्त्रियाँ बरामदे के फर्श पर। रजवा उनके बैठने के लिए मोढ़े और चटाइयाँ ला कर बिछा देती हैं।
दादा – (हुक्का पीना छोड़कर) इन्दु कहाँ है, वह नहीं दिखती?
[वे एक नज़र सबको देखते हैं। रजवा स्नान-गृह को जाने वाले दरवा़जे में जा कर इन्दु को आवाज़ देती है। कपड़े धोने का स्वर, जो इस बीच निरंतर आता रहा है, सहसा बंद हो जाता है।]
इन्दु – (बाहर से) जी आयी (अंदर आ कर) मैं नल पर थी, कपड़े धो रही थी।
दादा – (एक कश खींच कर) बैठो बेटा, (एक दो क्षण तक हुक्का गुड़गुड़ाते हैं) मैनें आज तुम सब को एक विशेष अभिप्राय से बुलाया है। मुझे यह सुन कर बड़ा दुःख हुआ कि छोटी बहू का मन यहाँ नहीं लगा।
इन्दु – दादा जी……
दादा – इन्दु बेटा, मुझे अपनी बात कह लेने दो। मुझे यह जान कर बड़ा दुःख हुआ कि छोटी बहू का मन यहाँ नहीं लगा। दोष उसका नहीं, दोष हमारा है। वह एक बड़े घर की बेटी है, अत्यधिक पढ़ी-लिखी है। सबसे आदर पाती और राज करती आयी है। यहाँ वह केवल छोटी बहू है। यहाँ उसे हर एक का आदर करना पड़ता है; हर एक से दबना पड़ता है; हर एक का आदेश मानना पड़ता है – यहाँ उसका व्यक्तित्व दब कर रह गया है। मुझे यह बात पसंद नहीं (कुछ क्षण हुक्का गुड़गुड़ाते हैं, फिर) बेटा, बड़ा वास्तव में कोई उमर से या दर्जे से नहीं होता। बड़ा तो बुद्धि से होता है, योग्यता से होता है। छोटी बहू उम्र में न सही, अक्ल में हम सब से निश्चय ही बड़ी है। हमें चाहिए कि उसकी बुद्धि से, उसको योग्यता से लाभ उठायें मेरी इच्छा है कि उसे यहाँ वही आदर-सत्कार मिले, जो उसे अपने घर में प्राप्त था। सब उसका कहना मानें, उससे परामर्श लें और मैं प्रसंन हूँगा, यदि उसका काम भी तुम लोग आपस में बाँट लो और उसे पढ़ने-लिखने का अधिक अवसर दो। उसे अनुभव ही न हो कि वह किसी दूसरे घर में, किसी दूसरे वातावरण में आ गयी है।

शब्दार्थ-
अतिरिक्त-  छोटी बहू को छोड़कर
कुछ क्षण- कुछ समय
कुटुंब के प्राणी– परिवार के सदस्य
सहसा- अचानक
विशेष अभिप्राय– खास उद्देश्य
दोष- गलती
अत्यधिक- ज्यादा
आदेश- आज्ञा, हुक्म।
व्यक्तित्व व्यक्ति की विशेषता या गुण
वास्तव- यथार्थ, सत्य
दर्जे से- पद से
परामर्श- सलाह
वातावरण- आस-पास 

व्याख्या- इस अंश में दादा जी पारिवारिक एकता की बात करते हैं। जब परेश चला जाता है, तो दादा जी कुछ देर तक सोच में डूबे रहते हैं और फिर जैसे उन्हें अचानक कोई उपाय सूझ जाता है,  वह रजवा को बुलाते हैं। पहले एक-दो बार पुकारने पर जब रजवा नहीं आती, तो वे फिर आवाज़ लगाते हैं। थोड़ी देर में रजवा भागती हुई उनके पास आती है। दादा जी उसे आदेश देते हैं कि छोटी बहू के सिवा घर के सभी लोगों को उनके पास बुला लाए। वह कहते हैं कि सभी अपना-अपना काम छोड़कर तुरंत यहाँ आएँ। रजवा आदरपूर्वक कहती है कि वह अभी जाकर सबको बुला देती है और चली जाती है।
रजवा के जाते ही दादा जी फिर से हुक्का पीने लगते हैं। बाहर से कपड़े धोने की आवाज़ आने लगती है। इस बीच परिवार के सदस्य धीरे-धीरे बरामदे में आने लगते हैं। बच्चे और युवा तख्तों व चारपाइयों पर बैठते हैं जबकि महिलाएँ फर्श पर बैठती हैं। रजवा सबके लिए मोढ़े और चटाइयाँ बिछा देती है ताकि सब आराम से बैठ सकें। दादा जी इधर-उधर नज़र दौड़ाते हैं और पूछते हैं कि इन्दु कहाँ है, वह उन्हें दिखाई नहीं दे रही। रजवा जाकर स्नानघर की ओर इन्दु को पुकारती है। तभी कपड़े धोने की आवाज़, जो लगातार आ रही थी, अचानक बंद हो जाती है। इन्दु बाहर से जवाब देती है कि वह आ रही है और अंदर आकर आदर से कहती है कि वह नल पर कपड़े धो रही थी।
दादा जी हुक्के का एक गहरा कश लगाकर उसे नीचे रखते हैं और प्यार से इन्दु को बैठने को कहते हैं। कुछ क्षण तक वे शांत होकर सोचते हैं, फिर गंभीर स्वर में कहते हैं कि उन्होंने आज सभी को एक विशेष उद्देश्य से बुलाया है। वह बताते हैं कि उन्हें यह सुनकर बहुत दुख हुआ कि छोटी बहू का मन इस घर में नहीं लग रहा है।
जब इन्दु कुछ कहने लगती है, तो दादा जी उसे रोक देते हैं और कहते हैं कि पहले वह अपनी बात पूरी कर लें। वह कहते हैं कि इस बात का दोष छोटी बहू का नहीं, बल्कि उनका है। वह समझाते हैं कि छोटी बहू एक बड़े घराने की बेटी है, अत्यधिक शिक्षित है और हमेशा आदर-सत्कार पाती रही है। अपने घर में वह सम्मान और अधिकार से रही थी, लेकिन यहाँ आकर वह केवल “छोटी बहू” बनकर रह गई है। अब उसे हर किसी का आदर करना पड़ता है, सबकी बात माननी पड़ती है, और हर किसी के आगे झुकना पड़ता है। यही कारण है कि उसका व्यक्तित्व दबकर रह गया है। दादा जी स्वीकार करते हैं कि यह स्थिति उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं।
वह समझदारी भरे शब्दों में परिवार को बताते हैं कि कोई व्यक्ति उम्र या पद से नहीं, बल्कि अपनी बुद्धि और योग्यता से बड़ा होता है। वह कहते हैं कि भले ही छोटी बहू उम्र में सबसे छोटी है, परंतु समझ और ज्ञान में वह सबसे बड़ी है। इसलिए परिवार के सभी सदस्यों को चाहिए कि वे उसकी योग्यता और समझदारी का लाभ उठाएँ।
दादा जी यह भी इच्छा प्रकट करते हैं कि छोटी बहू को घर में वही सम्मान और आदर मिले जो उसे अपने पिता के घर में मिला करता था। वह कहते हैं कि परिवार के सदस्य उसकी बातों को मानें, उससे सलाह लें, और यदि संभव हो तो घर के कुछ कार्य बाँट लें ताकि उसे पढ़ने-लिखने का अधिक समय और स्वतंत्रता मिल सके। वह चाहते हैं कि छोटी बहू को कभी यह अनुभव न हो कि वह किसी दूसरे घर या वातावरण में आ गई है।

 

पाठ
(फिर कुछ क्षण हुक्का गुड़गुड़ाते हैं, फिर)
बेटा यह कुटुंब एक महान वृक्ष है। हम सब इसकी डालियाँ हैं। डालियों से ही पेड़ पेड़ है और डालियाँ छोटी हो चाहे बड़ी, सब उसकी छाया को बढ़ाती हैं। मैं नहीं चाहता, कोई डाली इससे टूट कर पृथक हो जाय। तुम सदैव मेरा कहा मानते रहे हो। बस यही बात मैं कहना चाहता हूं……. यदि मैंने सुन लिया—– किसी ने छोटी बहू का निरादर किया है, उसकी हँसी उड़ायी है या उसका समय नष्ट किया है तो इस घर से मेरा नाता सदा के लिए टूट जायेगा………… अब तुम सब जा सकते हो।
(फिर हुक्का गुड़गुड़ाते हैं सब धीरे-धीरे जाने लगते हैं।)
दादा – इन्दु बेटा और मँझली बहू, तुम ज़रा बैठो।
(दोनों के अतिरिक्त शेष सब चले जाते हैं।)
– मँझली बहू, तुम अपनी हँसी को उन लोगों तक ही सीमित रखो बेटा, जो उसे सहन कर सकते हैं। बाहर के लोगों पर घर में बैठ कर हँसा जा सकता है, किंतु घर के लोगों को तब तक हँसी का निशाना बनाना ठीक नहीं, जब तक वे पूर्णतया घर का अंग न बन जायें और इन्दु बेटी, तेरी छोटी भाभी बड़ी बुद्धिमती, सुशिक्षित और सुसंस्कृत है; तुझे उसकी हँसी उड़ाने, उससे लड़ने-झगड़ने के बदले उसका आदर करना चाहिए, उससे ज्ञानार्जन करना चाहिए। तुम दोनों को मैं इस विषय में विशेष कर सावधान रहने का आदेश करता हूँ।
(फिर हुक्का गुड़गुड़ाने लगते हैं, फिर क्षण भर बाद)
– अब तुम जाओ और देखो फिर मुझे शिकायत का अवसर न मिले (गला भर आता है।) यहीं मेरी आकांक्षा है कि सब डालियाँ साथ-साथ बढ़ें, फलें-फूलें, जीवन की सुखद, शीतल वायु के परस से झूमें और सरसायें! पेड़ से अलग होने वाली डाली की कल्पना ही मुझे सिहरा देती है।
(फिर हुक्का गुड़गुड़ाने लगते हैं)
इन्दु – हमें क्षमा कीजिए दादा जी, हमारी ओर से आपको कभी शिकायत का अवसर न मिलेगा।
(दोनों चली जाती हैं। दादा कुछ देर हुक्का गुड़गुड़ाते हैं, फिर बाहर खेलते हुए बच्चों को आवाज़ देते हैं:)

शब्दार्थ-
क्षण- पल, समय
पृथक- अलग
नाता- संबंध, जुड़ाव
निरादर- अपमान, अनादर
समय नष्ट करना- वक्त खराब करना।
सीमित रखना- नियंत्रित रखना, मर्यादा में रखना
पूर्णतया- पूरी तरह से
अंग- हिस्सा, भाग
बुद्धिमती- समझदार, विवेकी
ज्ञानार्जन- ज्ञान प्राप्त करना, सीखना
आकांक्षा- इच्छा
फलें-फूलें- उन्नति करें, सुखी रहें
शीतल वायु के परस से झूमें– ठंडी हवा के स्पर्श से झूम उठना
सिहरा देना डर या दुःख से कांप उठना
गला भर आता है– भावुक हो जाना, आँसू आने लगना
क्षमा- माफ

व्याख्या- प्रस्तुत गद्याँश में लेखक ने दादा जी के गंभीर, अनुभवशील और परिवार-प्रिय स्वभाव को बड़ी गहराई से दिखाया है। दादा जी कुछ देर तक हुक्का गुड़गुड़ाने के बाद सबको संबोधित करते हुए कहते हैं कि परिवार एक महान वृक्ष के समान है और उसमें रहने वाले सभी सदस्य उसकी शाखाएँ हैं। उनका मानना है कि छोटी या बड़ी कोई भी डाली उस पेड़ की शोभा और छाया को बढ़ाती है। वह नहीं चाहते कि कोई भी शाखा अर्थात् परिवार का कोई भी सदस्य इस वृक्ष से टूटकर अलग हो जाए। उन्होंने सभी को समझाते हुए कहा कि यदि कभी उन्हें यह सुनने को मिला कि किसी ने छोटी बहू का अनादर किया है, उसकी हँसी उड़ाई है या उसका समय नष्ट किया है, तो वह स्वयं इस घर से अपना संबंध सदा के लिए तोड़ लेंगे।
सबको विदा करते समय उन्होंने इन्दु और मँझली बहू को वहीं रुकने के लिए कहा। उन्होंने मँझली बहू को समझाया कि उसकी हँसी उन तक ही सीमित रहनी चाहिए जो उसे सहन कर सकते हैं, क्योंकि परायों या नए लोगों का मज़ाक उड़ाना अनुचित है। इसके बाद उन्होंने इन्दु को भी सलाह दी कि छोटी भाभी बुद्धिमान, शिक्षित और सुसंस्कृत हैं, इसलिए उसे हँसी का विषय या झगड़े का कारण बनाने की बजाय, उससे सीखने और उसका आदर करने का प्रयास करना चाहिए।
अंत में दादा जी ने दोनों को आदेश दिया कि आगे से कोई शिकायत का अवसर न मिले, क्योंकि उनकी यही आकांक्षा है कि परिवार की सभी शाखाएँ एक साथ रहें, बढ़ें, फूलें-फलें और जीवन की शीतलता का आनंद लें। उन्होंने यह भी कहा कि किसी शाखा का अलग होना उन्हें भीतर तक कंपा देता है। इन्दु ने उनसे क्षमा माँगी और आश्वासन दिया कि आगे से कोई शिकायत का अवसर नहीं मिलेगा। वे दोनों चली जाती हैं। दादा जी फिर हुक्का गुड़गुड़ाते हैं और बच्चों को आवाज़ लगाते हुए बुलाते हैं। 

 

पाठ
– भाषी, मल्लू, जगदीश, आओ आज तुम्हें एक कहानी सुनायें….. बरगद के पेड़ और उसके बच्चों की।
भाषी – (दरवाज़े से झाँक कर) हम सुन चुके हैं। हम नहीं आते। हर बार वही कहानी…
मल्लू – चाँद राजा, तारा राजा की सुनाओ तो आयें। हर बार वहीं कहानी (नकल उतार कर) एक था बरगद का पेड़ …..
(हँसते हुए अदृश्य हो जाते हैं)
दादा – (हँसते हैं) यही कहानी – यही कहानी तो कुटुंब का, समाज का, राष्ट्र का निर्माण करती है। यही तो जीवन की सुदृढ़ विशाल और महान बनाती है!
(हुक्का गुड़गुड़ाने लगते हैं)
[पर्दा गिरता है]

शब्दार्थ-
अदृश्य हो जाते हैं- दिखना बंद हो जाना
समाज- समुदाय
राष्ट्र- देश
सुदृढ़- मजबूत
विशाल विस्तृत 

व्याख्या- इस अंश में दादा जी अपने पोतों भाषी, मल्लू और जगदीश को प्रेमपूर्वक बुलाते हुए कहते हैं कि वह उन्हें आज एक कहानी सुनाना चाहते हैं, बरगद के पेड़ और उसके बच्चों की। लेकिन भाषी दरवाज़े से झाँकते हुए उत्तर देता है कि वे यह कहानी पहले ही कई बार सुन चुके हैं, इसलिए अब नहीं आएंगे। मल्लू भी हँसते हुए कहता है कि अगर दादा जी “चाँद राजा” या “तारा राजा” जैसी नई कहानी सुनाएँ तो वे आएँगे, पर “बरगद के पेड़” वाली कहानी तो वे बार-बार सुन चुके हैं। दोनों ने मज़ाक करते हुए कहते हैं कि  एक था बरगद का पेड़ और हँसते हुए वहाँ से भाग जाते हैं।
दादा जी उनकी इस प्रतिक्रिया पर मुस्कराते हुए कहते हैं कि यही “बरगद के पेड़” की कहानी वास्तव में परिवार, समाज और राष्ट्र की नींव है। उनके अनुसार, यह कथा केवल बच्चों की कहानी नहीं, बल्कि जीवन के उस मूल सिद्धांत का प्रतीक है जो सबको एक साथ जोड़कर मजबूत और महान बनाती है।
इसके बाद वे हुक्का गुड़गुड़ाने लगते हैं और दृश्य के अंत में पर्दा गिर जाता है।

 

पाठ
तीसरा दृश्य
[वही बरामदा – दोनों तख्त पूर्ववत खिड़कियों के बराबर रखे हुए हैं और चारपाइयाँ वैसे ही दीवार के साथ लगी खड़ी हैं। हाँ, कुर्सी मध्य में आ गयी है – लगता है कि इस पर छोटी बहू-बेला-बैठी धूप ले रही थी – किन्तु पर्दा उठने पर वह आकुलता से बरामदे में घूमती हुई दिखायी देती है – एक हाथ में पुस्तक है, मानो पढ़ते-पढ़ते कोई विचार आ जाने से उठकर घूमने लगी हो।]
बेला – (अपने आप से) मैं किन लोगों में आ गयी हूँ? ये कैसे लोग हैं …. कुछ भी समझ नहीं पाती….. आज कुछ हैं कल कुछ… पल में तोला, पल में माशा… इनका कुछ भी तो पता नहीं चलता।
(फिर सोचती हुई धीरे-धीरे घूमती है।)
– गर्म होते हैं तो आग बन जाते हैं और नर्म होते हैं तो मोम से भी कोमल दिखायी देते हैं। आज जिस बात को बुरा कहते हैं, कल उसी की प्रशंसा करते हैं – मैं तो तंग आ गयी इन लोगों से।
[जा कर फिर कुर्सी पर बैठ जाती है और पुस्तक खोल लेती है। अन्दर गैलरी से उसकी सास, छोटी भाभी आती है।]
छोटी भाभी – तुम ठीक कहती थी बेटी, इस रद्दी सामान से बैठक-बैठक नहीं, कबाड़ी का गोदाम दिखायी देती थी! सोचती थी कि यह सामान इतने दिनों से इस कमरे में पड़ा है, कुछ ऐसा बुरा भी नहीं और इस पर इतनी देर से सब बैठते आ रहे हैं, कहीं दादा जी बुरा न मानें; पर अच्छा किया तुमने जो वह सब उठा दिया। मैंने परेश से कह दिया है – तुन उसके साथ जा कर अपनी रुचि का सामान खरीद लाओ। यह सब मैं रजवा से कह कर सुरेश के कमरे में भिजवा देती हूँ। कई बार निगोड़ी इन्हीं कुर्सियों के लिए मुझसे रूठ चुका है।
बेला – आप बैठिए माँ जी ….
छोटी भाभी – बस तुम बैठो। बेटी में तो यों ही तुम्हें इधर बैठे देख कर चली आयी। अनाज पड़ा है, उसे फटकना है; मिर्चें पड़ी हैं, उन्हें कूटना है; मक्खन कई दिनों का इकट्ठा हो गया है, उसका घी बनाना है – बीसों दूसरे काम हैं और दिन ढल रहा है। मैं सोचती थी, तुमने मेरी बात का बुरा न माना हो। वास्तव में बेटी, रजवा मेरे पास आ कर फूट-फूटकर रो दी । नौकरानी समझदार, विश्वसनीय और आज्ञाकारी है, किन्तु जो काम उसने कभी किया न हो, वह उससे किस प्रकार हो सकता है?
बेला – (उठती हई) आप बैठिए तो ….
छोटी भाभी – (उसके कंधों पर हाथ रख कर उसे बैठाते हुए) बैठो-बैठो बेटा, कष्ट न करो। मैं तुम्हारा अधिक समय नष्ट न करूँगी। मैं तो केवल तुमसे उसकी सिफ़ारिश करने आयी थी। भावुक स्त्री है, जल्दी ही बात का बुरा मान जाती है। तुम यों करना कि ज्यों ही नया फर्नीचर आ जाये, अपने सामने लगवा कर रजवा को एक बार झाड़ना-बुहारना सिखा देना। फिर वह गलती नहीं करेगी, न हो तो कभी मुझे बता देना। मैं उसे समझा दूँगी।
बेला – नहीं, नहीं, आप …..

शब्दार्थ-
तीसरा दृश्य नाटक का तीसरा भाग
तख्त- लकड़ी से बनी बड़ी चौकी
आकुलता बेचैनी, उदासी या व्याकुल भाव
विचार सोच
रद्दी सामान बेकार या पुराने और घटिया सामान
कबाड़ी का गोदाम– कबाड़ बेचने वाले के घर जैसा गंदा-भरा स्थान
रुठ जाना- नाराज़ हो जाना
निगोड़ी- अकेली, निराश्रित
फूट-फूटकर रोना- बहुत ज़ोर से और लगातार रोना
विश्वसनीय भरोसेमंद, जिस पर भरोसा किया जा सके
आज्ञाकारी- आज्ञा मानने वाली, जो कहे वही करे
सिफ़ारिश करना– किसी के लिए अनुशंसा करना, समर्थन देना
भावुक स्त्री- जिसमें भावना हो 

व्याख्या- इस अंश में लेखक ने तीसरे दृश्य की पृष्ठभूमि और बेला की मानसिक स्थिति दोनों को बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है। बरामदे का दृश्य पहले जैसा ही है। तख्त खिड़कियों के पास रखे हुए हैं और चारपाइयाँ दीवार के साथ लगी हैं। केवल एक परिवर्तन यह है कि अब कुर्सी बीच में आ गई है, जिससे यह प्रतीत होता है कि छोटी बहू, अर्थात बेला, कुछ देर पहले वहीं धूप सेंक रही थी। परंतु जब पर्दा उठता है, तो वह शांति से बैठी नहीं, बल्कि व्याकुल होकर बरामदे में टहलती दिखाई देती है। उसके हाथ में एक पुस्तक है, जिससे लगता है कि वह पढ़ते-पढ़ते किसी गहरी सोच या चिंता में पड़ गई और अचानक उठकर टहलने लगती है।
वह एक किताब के साथ पढ़ते-पढ़ते उठकर इधर-उधर घूमते हुए सोच रही थी कि वह किस तरह के लोगों के बीच आ गई है, ये लोग बदलते मन वाले हैं। आज किसी चीज़ की निंदा करते हैं तो कल उसकी ही प्रशंसा कर देते हैं और यह सब देखकर वह बहुत तंग आ चुकी थी। फिर वह धीरे-धीरे कुर्सी पर बैठती और पढ़ने लगती है। थोड़ी देर बाद उसकी सास यानी छोटी भाभी अंदर आती हैं और कहती हैं कि वह सही थी कि वह पुराना फर्नीचर बैठक पर ठीक नहीं लगता था; उन्होंने माना कि इतने दिनों से वही सामान पड़ा रहने से कमरा कबाड़ी का गोदाम जैसा दिखता था और अच्छा हुआ कि बेला ने उसे हटवा दिया। छोटी भाभी बताती हैं कि उसने परेश से कहा है कि वह बाजार जाकर अपनी पत्नी के लिए उसकी पसंद का सामान ले आए और वह पुराना सामान रजवा से कहकर सुरेश के कमरे में भेजवा दे। वह कहती है कि कई बार इसी पुराने फर्नीचर के कारण लोग उससे रुखा हो चुके हैं। फिर छोटी भाभी ने बताया कि रजवा बहुत भावुक हो कर उनके पास आकर रोई थी, क्योंकि रजवा दुनिया-भर की समझदार और भरोसेमंद नौकरानी है, पर कुछ काम उसके बस के बाहर हैं इसलिए वह बेला से विनती करती है कि जब नया फर्नीचर आये तो उसे अपने सामने लगवाकर रजवा को एक बार झाड़ना-पोंछना सिखा दें। इससे वह भविष्य में ऐसी गलती नहीं करेगी। यदि फिर भी परेशानी हुई तो वह स्वयं रजवा को समझा देंगी। बेला नम्रता से उनसे बैठने के लिए कहती है। 

 

पाठ
छोटी भाभी – तुम पड़ी-लिखी समझदार हो बेटी, इसलिए तुमसे इतना कह दिया है। यों तुम न चाहो तो कोई दूसरा प्रबंध हो जायगा। तुम इस बात की तनिक भी चिंता न करो।
(चलने को उद्यत होती हैं।)
बेला – आप बैठिए तो सही …..
छोटी भाभी – नहीं, नहीं तुम अपना पढ़ो। में बेकार तुम्हारा समय नष्ट न करूँगी।
(चली जाती है।)
बेला – (पुस्तक बंद करके लंबी साँस लेती हुई जैसे अपने-आप) इन लोगों की कुछ भी तो समझ में नहीं आती। ये माँ जो एकदम कैसे बदल गयीं? अभी परसों मुझे इसी रजवा के लिए डाँट रही थीं। इनका कुछ भी तो पता नहीं चलता।
[फिर पढ़ने लगती है। बड़ी बहू और मँझली भाभी बाहर के दरवाज़े से प्रवेश करती हैं]
मँझली भाभी – क्यों बेटी, अब रजवा कुछ काम सीख गयी है या नहीं? (जरा हँसती है।) बुढ़िया है तो सयानी ….
बड़ी बहू – आपने इन्दु से ठीक ही कहा था। हमें वास्तव में काम की परख नहीं, पर अब …..
बेला – आइए इधर बैठिए, चारपाई सरका लीजिए।
मँझली भाभी – (वैसे ही खड़े-खड़े) मैंने एक अनुभवी नौकरानी खोज लाने के लिए कह दिया है, जो नये फैशन के बड़े घरों में काम कर चुकी हो। वास्तव में बहू, दादा जी पुराने नौकरों के हक में हैं – दयानतदार होते हैं और विश्वसनीय। हमारे पास पीढ़ी-दर-पीढ़ी काम करते आ रहे हैं। इस रजवा की सास भी यहाँ काम करती थी, अब रजवा की बहू भी यहीं काम करती हैं, ……
बड़ी बहू – में कहती हूँ बहन जी, आप रजवा की बहू को ही अपने पास क्यों नहीं रख लेतीं …..उसकी उमर भी कम है और काम भी वह जल्दी सीख जायेगी।
बेला – (अन्यमनस्क-सी) नहीं, नये नौकर को आवश्यकता नहीं। रजवा काम सीख जाएगी। (कुछ चिढ़ कर) पर आप खड़ी क्यों हैं?
मँझली भाभी – हम तुम्हारा हर्ज न करेंगी।
बेला – (और भी चिढ़ कर) मेरा कुछ हर्ज नहीं होता।
बड़ी बहू – हम आप से छोटी हैं, वर्ग में भी और बुद्धि में भी ….
बेला – (रुआँसी आवाज़ में) आप मुझे क्यों काँटों में घसीटती है …… आप मेरे साथ क्यों परायों का-सा व्यवहार करती हैं …….
(उठ खड़ी होती है।)
बड़ी बहू – बैठिए-बैठिए, मँझली भाभी, आप भी बैठिए …..
बेला – मैं चलती हूँ …….

शब्दार्थ-
तनिक- थोड़ा सा, ज़रा सा
उद्यत तैयार, चलने की मुद्रा में
नष्ट- बर्बाद करना
अनुभवी- अनुभव वाली, जानकार
दयानतदार ईमानदार, नेक और भरोसेमंद व्यक्ति
पीढ़ी-दर-पीढ़ी- एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक लगातार
अन्यमनस्क- ध्यान कहीं और होना, मन न लगना
चिढ़ कर झुंझलाहट या खीझ के साथ
हर्ज- नुकसान, हानि
रुआँसी आवाज़– रोने जैसी धीमी और भर्राई हुई आवाज़
काँटों में घसीटना– कठिन या दुखद स्थिति में डालना
परायों का-सा व्यवहार- अपनापन न दिखाना, दूर का या अजनबी जैसा व्यवहार करना

व्याख्या- इस दृश्य की शुरुआत में छोटी भाभी बेला से नम्रता से कहती हैं कि वह पढ़ी-लिखी और समझदार है, इसलिए ये सब बातें उससे कह रही हैं। वह यह भी स्पष्ट करती हैं कि यदि बेला को किसी बात में असुविधा हो, तो दूसरा प्रबंध कर लिया जाएगा और उसे चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह कहकर वे जाने लगती हैं, पर बेला उन्हें रोकने का प्रयास करती है। छोटी भाभी मुस्कराते हुए कहती हैं कि वह उसका समय व्यर्थ नहीं करना चाहतीं और चली जाती हैं। छोटी भाभी के जाने के बाद बेला अकेली रह जाती है। वह गहरी साँस लेकर अपने आप से कहती है कि इन लोगों की प्रवृत्ति उसे समझ में नहीं आती। कभी कुछ कहती हैं, कभी कुछ और। उसे लगता है कि उसकी सास (छोटी भाभी) का स्वभाव एकदम बदल जाता है। अभी दो दिन पहले वही रजवा के लिए उसे डाँट रही थीं, और अब उसी के पक्ष में बोल रही हैं। इस परिवर्तनशीलता से बेला उलझन और मानसिक थकान महसूस करती है। तभी बड़ी बहू और मँझली भाभी वहाँ आती हैं। वे रजवा के कामकाज पर चर्चा करती हैं और हल्की-सी हँसी में ताना भी देती हैं। मँझली भाभी कहती हैं कि उन्होंने एक अनुभवी नौकरानी खोजने के लिए कह दिया है, जबकि बड़ी बहू सुझाव देती हैं कि रजवा की बहू को ही काम पर रख लिया जाए। बेला, जो पहले से ही खिन्न है, अनमने ढंग से जवाब देती है कि रजवा काम सीख जाएगी, नए नौकर की आवश्यकता नहीं है।
जब भाभियाँ खड़ी-खड़ी बात करती हैं, तो बेला उन्हें बैठने को कहती है, पर वे विनम्रता से मना कर देती हैं। बार-बार के उनके शिष्टाचार और “हम आपसे छोटी हैं” जैसे शब्दों से बेला का मन और अधिक आहत हो जाता है। उसे लगता है कि ये आदर के बहाने उसे दूर धकेल रही हैं। अंततः भावनाओं से भरी बेला कह उठती है कि वे लोग उसके साथ परायों जैसा व्यवहार करती हैं और वह अपने को अपमानित महसूस करती है। वह रुआँसी होकर वहाँ से जाने लगती है।

 

पाठ
[रुलाई को रोक कर आँखों पर रूमाल रखे जल्दी-जल्दी चली जाती है।]
मँझली भाभी – (जैसे अपने-आप से) परायों का-सा…….
[बाहर से मँझली बहू के कहकहे की आवाज़ आती है – दूसरे क्षण वह इन्दु और पारो के कन्धे पर झूलती हुई बाहर के दरवाज़े से आती है।]
इन्दु – सच…….?
मँझली बहू – (हँसी रोक कर) और क्या मैं झूठ कह रही हूँ? मैंने अपनी इन दो आँखों से देखा (हँसती है) मलावी ने सारी-की-सारी छत फावड़े से खोद डाली और बंसीलाल महाशय मुँह देखते रह गये।
(सब ठहाका मार कर हंस पड़ती हैं।)
बड़ी बहू – भाई मुझे भी बताना…… क्या किया मलावी ने ……. सच!
[मँझली बहू चारपाई बिछा कर उसमें धँस जाती है। उसकी एक ओर इन्दु और दूसरी ओर पारो बैठ जाती है। मँझली भाभी कुर्सी पर बैठती है और बड़ी बहू खड़ी रहती है।]
मँझली भाभी – (कुर्सी को ज़रा खिसका कर समीप होते हुए) बंसीसाल के सामने उखाड़ कर फेंक दी छत मलावी ने?
मँझली बहू – मैं कहती हूँ…. मुँह देखते रह गये बंसीलाल महाशय, ताका किये मुटर-मुटर……
(सब ठहाका लगाती हैं।)
बड़ी बहू – अरे, कौन-सी छत खोद डाली यह तो बताओ…….?
मँझली बहू – रसोई की और कौन-सी अभी दो घंटे भी नहीं हुए कि राज-मजदूर छत डाल कर गये थे और बंसीलाल कारीगरों और मजदूरों से निबट कर अभी दुकान को गया था कि आ गयी उधर से मलावी मारोमार करती। जाने किसने उसे जा कर बताया कि तुम्हारे देवर ने अपनी रसोई पर छत डाल ली है। ले के फावड़ा बस सारी-की-सारी उसने खोद डाली। बंसीलाल सब पहुँचे जब अन्तिम ईटे भी उखड़ चुकी थी। तब क्या – बस ताका किये मुटर-मुटर …..
(मँझली भाभी को छोड़ कर सब हँसती हैं।)
मँझली भाभी – पर बंसीलाल का लड़का ……
मँझली बहू – गली के सिरे पर खम ठोंक रहा है।
(जंघा पर हाथ मार कर बताती है कि कैसे खम ठोंक रहा है।)
इन्दु – खम ठोंक रहा है?
मँझली बहू – (कहकहा लगाती है) सच, खम ठोक रहा है और हवा ही में ललकार रहा है कि मैं डूयोढ़ी  की छत खोद डालूँगा; मैं मकान को खंडहर बना दूंगा; मैं यह कर दूंगा; मैं वह कर दूंगा, और इधर मलावी कमर कसे खड़ी है कि आये जो माई का लाल है, रक्खे पाँव घर के भीतर……
(सब हँसती हैं।)
इन्दु – (अँगुली ओठों पर रख कर) शश……..श….श भाभी आ रही हैं।
[हँसी एकदम बंद हो जाती है सन्नाटा छा जाता है। बेला एक हाथ में बंद किताब थामे धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरती है।]
बेला – क्यों जीजी, आप चुप हो गयीं (जरा हँसकर) किस बात पर कहकहे लगाये जा रहे हैं?
मँझली भाभी – (कुर्सी से उठ कर) योंही हँस रही थीं। आओ इधर कुर्सी पर बैठो।
बेला – नहीं-नहीं आप बैठिए। मैं इधर तख्त पर बैठ जाती हूँ।
मँझली बहू – (जल्दी से उठ कर) आइए-आइए, आप इधर बैठिए।
इन्दु और पारो – (दोनों चारपाई से उठ जाती हैं) आइए, आइए, आप इधर बैठिए।
[फिर नीरवता छा जाती है, जिसमें एक प्रकार की घुटन है। बेला बाहर की ओर चल पड़ती है।]
इन्दु – बैठिए भाभी जी, आप चली क्यों?
बेला – (मुड़कर क्लांत तथा भारी स्वर में) मैं तो उधर ही जा रही थी। यों ही जाते-जाते खड़ी हो गयी। मैं आपकी हँसी में बाधा नहीं डालना चाहती। (खिन्न स्वर में हँसी के साथ) आप हँसिए, ठहाके मारिए।
(चुपचाप अहाते के दरवाजे से निकल जाती है।)

शब्दार्थ-
रुलाई को रोक कर रोना बंद करना, आंसू थाम लेना
कहकहे- जोर-जोर से हँसी, ठहाका
फावड़े- मिट्टी हटाने का औज़ार
ताका किये मुटर-मुटर ताका लगाकर मुँह बनाये रहना, हैरान होकर बुदबुदाना
खम ठोंक रहा है- जोश/गर्व से कदम पटकना या ढिंढोरा पीटना, दिखावा करना
नीरवता- शान्ति
क्लांत- थका हुआ, ऊब-सा हुआ
खिन्न उदास

व्याख्या- इस अंश में बेला अपने आँसुओं को रोकते हुए, रूमाल से आँखें पोंछकर जल्दी-जल्दी वहाँ से चली जाती है। उसके इस व्यवहार से यह स्पष्ट होता है कि वह भीतर से बहुत आहत और दुखी है, परंतु अपने दर्द को सबके सामने प्रकट नहीं करना चाहती। उसके जाने के बाद मँझली भाभी अपने आप से कहती हैं कि परायों जैसा व्यवहार करते हैं हम बेला के साथ।
तभी बाहर से मँझली बहू के ठहाकों की आवाज़ सुनाई देती है और थोड़ी देर में वह इन्दु और पारो के कंधों पर झूलती हुई हँसते हुए प्रवेश करती है, जिससे वातावरण में अचानक हल्कापन और जीवंतता आ जाती है। इन्दु आश्चर्य से पूछती है कि क्या बात सच है, जिस पर मँझली बहू मुस्कुराते हुए बताती है कि उसने अपनी आँखों से देखा कि मलावी ने पूरी छत फावड़े से खोद डाली और बंसीलाल महाशय केवल मुँह देखते रह गए। यह सुनकर सब ज़ोर से ठहाका लगाकर हँस पड़ती हैं, जिससे वातावरण में हँसी और चहल-पहल भर जाती है। बड़ी बहू भी उत्सुक होकर पूरी बात जानना चाहती है। मँझली बहू चारपाई पर बैठ जाती है, उसके दोनों ओर इन्दु और पारो बैठती हैं, मँझली भाभी कुर्सी खिसका कर पास बैठती हैं और बड़ी बहू खड़ी रहती है। मँझली भाभी जिज्ञासा से पूछती हैं कि क्या सचमुच मलावी ने बंसीलाल के सामने छत उखाड़ फेंकी, जिस पर मँझली बहू हँसते हुए बताती है कि बंसीलाल बस अवाक होकर देखते रह गए। सब फिर से हँसी में फूट पड़ती हैं। बड़ी बहू पूछती है कि आखिर किस छत की बात हो रही है, तब मँझली बहू विस्तार से बताती है कि यह रसोई की छत थी, जो अभी-अभी बनी थी। मजदूर छत डालकर गए ही थे और बंसीलाल दुकान गए थे कि तभी किसी ने मलावी को जाकर कहा कि तुम्हारे देवर ने अपनी रसोई पर छत डाल ली है। यह सुनते ही मलावी ग़ुस्से में फावड़ा लेकर पहुँची और पूरी छत उखाड़ डाली। जब तक बंसीलाल पहुँचे, अंतिम ईंट तक उखड़ चुकी थी और वे बस मुँह ताकते रह गए।
मँझली भाभी को छोड़कर सब स्त्रियाँ उस मज़ाकिया किस्से पर हँस पड़ती हैं, फिर मँझली भाभी ने बीच में यह जोड़कर कहा कि बंसीलाल का लड़का गली के सिरे पर बड़ा ‘खम ठोंक’ रहा था, यानी वह हवा में दम्भ भरकर कह रहा था कि वह छत ही खोद डालेगा और घर को खंडहर बना देगा, मँझली बहू ने जाँघ पर हाथ मारकर इसका नाटकीय भाव भी दिखाया। इन्दु ने आश्चर्य से पूछा कि क्या सच में वह ऐसा कर रहा था, तब मँझली बहू हँसी रोकते हुए बताती है कि लड़का हवा में ही दहाड़ रहा था। वह तमाशा दिखा रहा था और वहीं मलावी सटकर खड़ी थी, चुनौती देने के लिये तैयार। सभी इस स्थिति पर हँस पड़ते हैं, परन्तु जैसे ही बेला के आने का संकेत मिला तो हँसी एकदम रुक गई और सन्नाटा छा गया। तभी बेला धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरकर आई और मासूम अंदाज में पूछ बैठती है कि किस बात पर हँसी हो रही थी। भाभियाँ उसे बैठने को कहने लगीं, पर बेला ने थकान और कष्ट से भरे स्वर में कह दिया कि वह बस वहाँ से जा रही थी ताकि उनकी हँसी में बाधा न बने। फिर वह कहती है कि आप लोग हँसिए और चुपचाप अहाते से निकल जाती है। 

 

पाठ
मँझली बहू – मैं कहती थी न कि इस ओर न आओ? मेरी मुई आदत हुई हँसने की।
इन्दु – अब एक ही जगह थी बैठने को …..
मँझली बहू – हम हँसती हैं तो हँसती हैं दिल से और छोटी बहू के पढ़ने-लिखने में बाधा पड़ती हैं।
मैं कहती हूँ, दादा जी को यदि पता चल गया कि हमारे यहाँ बैठने से छोटी बहू के पढ़ने में खलल आता है तो वे …..
इन्दु – किंतु यही एक जगह थी पर्दे वाली ……
मँझली बहू – तुम भूल गयीं, हमें ही तो दादा जी ने खास तौर पर सतर्क रहने को कहा था (कहकहा लगा कर हँस पड़ती है।) मैं कहती हूँ, चलो मेरे कमरे में।
इन्दु – मुझे तो दादा जी के कपड़े धोने हैं, मैं चली।
(जल्दी-जल्दी बाहर की ओर चली जाती है।)
मँझली भाभी – ठीक है। तुम लोग अब यहाँ इतना न बैठा करो (बड़ी बहू से) हम तो बहू गोदाम में जा रही थीं, चलो गेहूँ छँटवा लें। छोटी बहन तो कब की गयी हुई है। फिर तो अस्त हो जायेगा दिन और महरियाँ चली जायेंगी।
बडी बहू – मैं तो फँस गयी मँझली की बातों में …..चलो….चलो।
(दोनों चली जाती हैं)
मँझली भाभी – मैं कहती हूँ पारो, चल मेरे कमरे में। वहाँ चल कर बैठें।
पारो – (चलते हुए) मुझे तो जाना है भाभी। लल्ला आ गया होगा, न मिली तो चिल्लायेगा।
मँझली बहू … (अपने-आप से) यह छोटी बहू तो उकाब-सी आ कर सबको डरा गयी!
[पारो चली जाती है। बाहर से बड़ी भाभी आती हुई दिखायी देती है। मँझली बहू भाग कर उसके पास जाती है।]
– बड़ी भाभी, सुनी तुमने मलावी की बात, खोद डाली उसने सारी-की-सारी छत।
(कहकहा लगाती है।)
बड़ी भाभी – मलावी ने छत खोद डाली? ………
मँझली बहू – (उसे अपने साथ लेकर कमरे की ओर जाती हुई) हाँ, हाँ, अभी राज-मजदूर छत बना कर गये थे कि आ गयी मलावी मारोमार करती ……
बड़ी भाभी – पर …..
मँझली बहू – चलो मेरे कमरे में। वहाँ चल कर सब बताती हूँ। यहाँ तो छोटी बहू की पढ़ाई में बाधा पड़ती है।
[उसे साथ ले कर अपने कमरे की ओर जाती है। बाहर से परेश और बेला बातें करते प्रवेश करते हैं।]
बेला – (आर्द्र कंठ से) आप मुझे मेरे मायके भेज दीजिए। मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं अपरिचितों में आ गयी हूँ। कोई मुझे नहीं समझता, किसी को मैं नहीं समझती।
परेश – आखिर बात क्या है! कुछ कहो भी।
बेला – मैं जाती हूँ तो सब खड़ी हो जाती हैं। बड़ी भाभी, मँझली भाभी और माँ जी तक! मेरे सामने कोई हँसता नहीं, कोई मुझसे अधिक समय तक बात नहीं करना चाहता। सब मुझसे ऐसे डरती हैं जैसे मुर्गी के बच्चे बाज़ से। अभी-अभी सब हँस रही थीं, ठहाके-पर ठहाके मार रही थीं, मैं गयी तो सब ऐसे सन्न रह गयीं, जैसे भरी सभा में किसी ने चुप की सीटी बजा दी हो।
परेश – पर इसमें …..
बेला – और कोई मुझे काम को हाथ नहीं लगाने देती। तनिक सा भी काम करने लगूँ तो सब भागी आती हैं। सब मेरा इस प्रकार आदर करती हैं, मानो में ही इस घर में सब से बड़ी हूँ।
परेश – मैं नहीं समझता तुम क्या चाहती हो? तुम्हें शिकायत थी, कोई तुम्हारा आदर नहीं करता? अब सब तुम्हारा आदर करते हैं हूँ। तुम्हें शिकायत थी, तुम्हें सब से दबना पड़ता है; अब सब तुम से दबते हैं। तुम्हें शिकायत थी, तुम सब का काम करती हो; अब सब तुम्हारा काम करते हैं। आदर, सत्कार, आराम-न जाने तुम और क्या चाहती हो?
(तेज़ी से सीढ़ियाँ चढ़ जाता है।)

शब्दार्थ-
मुई आदत- (लोक-भाषा) बुरी या अजीब आदत; यहाँ ‘हँसने की आदत’ के लिए कहा गया है
खलल- बाधा
सतर्क- सावधान
कहकहा लगाना– ज़ोर से हँसना, ठहाका लगाना
गोदाम- भंडारघर, जहाँ अनाज या अन्य सामान रखा जाता है
गेहूँ छँटवाना- गेहूँ साफ़ करवाना
अस्त- डूबना
महरियाँ- नौकरानियाँ, कामकाज करने वाली महिलाएँ
उकाब-  गरुड़, एक बड़ी जाति का गिद्ध
उकाब-सी- बाज़ जैसी; तेज़, चौकन्नी और डराने वाली
मारोमार करती– गुस्से में प्रहार करने जैसी हरकत करना या हंगामा मचाना
आर्द्र- नम, द्रवित
अपरिचितों में आना– अनजान या अजनबी लोगों के बीच आ जाना
सन्न रह जाना- एकदम चुप या स्तब्ध हो जाना
तनिक सा- थोड़ा सा, ज़रा सा

व्याख्या-  इस अंश में लेखक ने घर के वातावरण, छोटी बहू बेला के अकेलेपन और उसके भीतर चल रहे मानसिक द्वंद्व को प्रस्तुत किया है। छोटी बहू के आने से घर की अन्य स्त्रियों का स्वाभाविक वातावरण बदल जाता है। मँझली बहू हँसी-मज़ाक करते हुए कहती है कि उसने पहले ही कहा था कि इस ओर न आओ, क्योंकि उसकी हँसने की आदत के कारण परेशानी होती है। इन्दु यह कहती है कि बैठने के लिए तो बस यही जगह थी। मँझली बहू व्यंग्यपूर्वक कहती है कि वे लोग दिल से हँसती हैं, लेकिन छोटी बहू के पढ़ने में बाधा पहुँचती है, और यदि दादा जी को पता चल गया तो वे नाराज़ होंगे। इन्दु यह तर्क देती है कि यह जगह पर्दे वाली थी, पर मँझली बहू उसे याद दिलाती है कि दादा जी ने स्वयं उन्हें सावधान रहने को कहा था और फिर कहकहा लगाकर हँस पड़ती है। अंत में वह कहती है कि चलो, अपने कमरे में बैठते हैं।
इन्दु बहाना बनाकर वहाँ से चली जाती है कि उसे दादा जी के कपड़े धोने हैं। मँझली भाभी बड़ी बहू से कहती है कि अब यहाँ ज़्यादा न बैठा करें और दोनों गोदाम की ओर गेहूँ छँटवाने चली जाती हैं। पारो भी कहती है कि उसे अपने बच्चे के पास जाना है। मँझली बहू अकेली रह जाती है और अपने आप से कहती है कि यह छोटी बहू तो उकाब की तरह सबको डरा देती है। तभी बड़ी भाभी आती है और मँझली बहू उत्साह से उसे मलावी और बंसीलाल की छत वाले किस्से की बात बताने ले जाती है, यह कहते हुए कि यहाँ छोटी बहू की पढ़ाई में बाधा पड़ेगी।
इसी बीच परेश और बेला प्रवेश करते हैं। बेला बहुत भावुक होकर कहती है कि उसे अपने मायके भेज दिया जाए क्योंकि उसे लगता है कि वह अपरिचितों के बीच आ गई है। वह शिकायत करती है कि घर में कोई उसे समझता नहीं और वह किसी को समझ नहीं पाती। जब वह कहीं जाती है तो सब खड़े हो जाते हैं, कोई उसके सामने हँसता नहीं, कोई उससे खुलकर बात नहीं करता। अभी कुछ देर पहले सभी स्त्रियाँ हँस रही थीं, पर जैसे ही वह वहाँ पहुँचीं, एकदम सन्नाटा छा गया। वह बताती है कि उसे किसी काम को छूने नहीं दिया जाता, सब उसके प्रति अत्यधिक आदर दिखाते हैं जैसे वह घर की सबसे बड़ी हो।
परेश उसकी बातों से खीजकर कहता है कि उसे कभी शिकायत थी कि कोई आदर नहीं करता, अब सब करते हैं; पहले वह सबका काम करती थी, अब सब उसका करते हैं, पहले वह दबती थी, अब सब उससे डरते हैं। फिर भी वह संतुष्ट नहीं है। यह कहकर वह गुस्से में सीढ़ियाँ चढ़ जाता है।

 

पाठ
बेला – (निढाल हो कर कुर्सी में धँस जाती है) न जाने में क्या चाहती हूँ? (सिसकने लगती हैं) न जाने मैं क्या चाहती हूँ? पर मैं इतना जानती हूँ कि मैं यह सब आदर, सत्कार, सुख, आराम नहीं चाहती।
[बाहों में मुँह छिपा कर सिसकती है। इन्दु हाथ में कुछ मैले कपड़े लिए हुए बाहर के दरवाज़े से प्रवेश करती है।]
इन्दु – भाभी जी…..
बेला – (उसी प्रकार चुप बैठी रहती है।)
इन्दु – (बेला के कंधे को हिला कर) भाभी जी….भाभी जी….
(बेला मुँह ऊपर उठाती है।)
इन्दु – हैं, भाभी जी, आप तो रो रही हैं?
बेला – (आँखें पोंछ कर) नहीं, मैं रो नहीं रहीं, पर इन्दु परमात्मा के लिए मुझे ‘जी’ ‘जी’ करके न बुलाया करो।
इन्दु – लो भला, यह कैसे हो सकता है। आप मुझसे बड़ी हैं और फिर आप मुझसे कहीं अधिक पढ़ी-लिखी हैं।
बेला – पहले तो तू मुझे यों ‘जी’ ‘जी’ करके नहीं बुलाती थी?
इन्दु – मैं तो मूर्ख ठहरी भाभी जी। दादा जी ने कहा था ….
बेला – (सहसा चौंक कर) दादा जी ने क्या कहा था?
इन्दु – उन्होंने सब को समझाया था कि घर में सबको आपका आदर करना चाहिए।
बेला – किंतु उन्होंने यह सब क्यों कहा? मैंने तो कभी उनसे इस बात की शिकायत नहीं की?
इन्दु – शायद छोटे भैया ने उनसे यह कहा था कि आपका मन यहाँ नहीं लगता, आप बाग वाले…..
बेला – ओह! यह बात है।
इन्दु – दादा जी और सब कुछ सह सकते हैं, किसी का अलग होना नहीं सह सकते – ‘हम सब एक महान पेड़ की डालियाँ हैं’, वे कहा करते हैं, ‘और इससे पहले कि कोई डाली टूट कर अलग हो, मैं ही इस घर से अलग हो जाऊँगा’ और उन्होंने हम सबको समझाया कि हम आपका आदर करें, काम करें और आपको पढ़ने-पढ़ाने का समय दें।
बेला – पर मैं तो आदर नहीं चाहती और मैं तो तुम सब के साथ मिल कर काम करना चाहती हूँ।
इन्दु – यह कैसे हो सकता है भाभी जी………
बेला – (दीर्घ विश्वास छोड़ती हुई) आप लोगों ने मुझे कितना गलत समझा और मैंने आप लोगों को कितना…..

शब्दार्थ-
निढाल होकर बहुत थकी या कमजोर अवस्था में, बिना शक्ति के
सिसकना- रोते समय धीरे-धीरे आवाज़ निकलना
परमात्मा के लिए– भगवान के नाम पर, ईश्वर की कसम से
सहसा- अचानक 

व्याख्या- इस अंश में बेला के मन की गहराई और उसकी आंतरिक पीड़ा को दिखाया गया है। वह कुर्सी पर निढाल होकर बैठ जाती है और रोते हुए यह सोचती है कि उसे खुद भी नहीं पता कि वह क्या चाहती है, पर इतना जरूर जानती है कि उसे यह सम्मान, आदर और आराम नहीं चाहिए। वह इंसानी अपनापन चाहती है, जो उससे दूर हो गया है। तभी इन्दु कुछ मैले कपड़े लेकर आती है और बेला को ‘भाभी जी’ कहकर पुकारती है, लेकिन बेला उत्तर नहीं देती। जब इन्दु उसके कंधे को हिलाती है, तो बेला मुँह उठाती है। इन्दु उसके आँसू देखकर आश्चर्य से पूछती है कि वह रो रही है क्या। बेला अपने आँसू पोंछते हुए कहती है कि वह नहीं रो रही, पर विनम्रता से अनुरोध करती है कि उसे ‘जी’ लगाकर न पुकारा जाए। वह चाहती है कि घर के लोग उसे अपने जैसा समझें, दूरी न बनाएं। इन्दु बताती है कि दादा जी ने सभी को निर्देश दिया है कि वे बेला का आदर करें क्योंकि वह पढ़ी-लिखी और उनसे बड़ी हैं। यह सुनकर बेला चौंक जाती है और पूछती है कि दादा जी ने ऐसा क्यों कहा। इन्दु बताती है कि शायद छोटे भैया (परेश) ने दादा जी से कहा था कि बेला का मन इस घर में नहीं लगता। यह सुनकर बेला को सब समझ में आ जाता है। इन्दु आगे कहती है कि दादा जी कहते हैं कि हम सब एक ही पेड़ की डालियाँ हैं, और किसी एक डाली के टूटकर अलग हो जाने से पहले मैं ही इस घर से अलग हो जाऊँगा। इसलिए उन्होंने सबको समझाया कि वे बेला का आदर करें और उसे समय दें। लेकिन बेला कहती है कि वह यह आदर नहीं चाहती। वह तो सबके साथ मिलकर काम करना चाहती है, एक परिवार की तरह रहना चाहती है। इन्दु कहती है कि अब यह संभव नहीं है, क्योंकि सबको दूरी बनाए रखने को कहा गया है। इस पर बेला गहरी साँस लेकर कहती है कि सबने उसे गलत समझा और उसने भी सबको गलत समझ लिया।

 

पाठ
इन्दु – आप कैसी बातें करती हैं। लाइए, कपड़े लाइए। मैं दादा जी के कपड़े धोने जा रही हूँ, साथ ही आपके भी फटक लाऊँ।
बेला – (चुप सोचती हैं।)
इन्दु – भाभी जी …..
बेला – (जैसे मन-ही-मन उसने किसी बात का निश्चय कर लिया हो) मैं भी तुम्हारे साथ जाऊँगी, मैं भी तुम्हारे साथ कपड़े धोऊँगी!
इन्दु – दादा जी नाराज़ न होंगे ….
बेला – मैं दादा जी से कह दूंगी।
इन्दु – भाभी जी …..
बेला – मुझे केवल भाभी कहा कर, मेरी प्यारी इन्दु।
इन्दु – (प्यार से भरे हुए गले के साथ) भाभी …..
बेला – चल कपड़े धोयें। धूप निकली जा रही है!
इन्दु – पर आपके कपड़े …..
बेला – मेरे कपड़े आज रजवा ने धो दिये थे, सलवार कमीज़ ही तो थी। चल मैं तेरी सहायता करूँगी।
[दोनों चली जाती हैं, कुछ क्षण बाद बरामदे में कपड़े धोने का शब्द आने लगता है। दादा गैलरी की ओर से हुक्का गुड़गुड़ा-गुड़गुड़ाते मल्लू की अँगुली थामे प्रवेश करते हैं।]
दादा – हाँ बेटा, मेले में चलेंगे। जो तू कहेगा, यही खिलौना ले देंगे।
(सहसा बाहर के दरवाज़े के पास जा कर ठिठक जाते हैं।)
दादा (आश्चर्य से) हैं! छोटी बहू …..
इन्दु – (बाहर से) मैंने तो बहुतेरा कहा पर भाभी मानी नहीं।
दादा – छोटी बहू, इधर आ बेटी!
(शरमाई हुई बेला दरवाज़े के पास जा खड़ी होती है।)
– बेटा कपड़े धोना तुम्हारा काम नहीं, पढ़-लिखकर ……
इन्दु – (जो अपनी भाभी के साथ ही आ खड़ी हुई है) मैंने बहुतेरा कहा पर भाभी नहीं मानी …..
दादा – (जिन्हें इन्दु के स्वर का अनादर अच्छा नहीं लगा) इन्दु, तुझे इतनी बार कहा है कि आदर से ….
बेला – (भावावेश के कारण रुँधे हुए कंठ से) (दादा जी, आप पेड़ से किसी डाली का टूट कर अलग होना पसंद नहीं करते, पर क्या आप यह चाहेंगे कि पेड़ से लगी-लगी वह डाल सूख कर मुरझा जाय ….)
(सिसक उठती है, हुक्के की गुड़गुड़ाहट बन्द हो जाती है)
[पर्दा सहसा गिर पड़ता है।]

शब्दार्थ-
ठिठक जाना अचानक रुक जाना, हैरानी से ठहर जाना
आश्चर्य से हैरानी की भावना में
मैंने तो बहुतेरा कहा– मैंने बहुत बार/काफी समझाने की कोशिश की
स्वर का अनादर- बोलने के तरीके में असम्मान या अनादर दिखना
भावावेश- गहरे भाव से बोलना
रुँधा हुआ कंठ- भावुक होने पर आवाज़ रुक जाना
सिसक उठना अचानक रो पड़ना
सहसा- अचानक 

व्याख्या- इस अंश में नाटक का अत्यंत भावनात्मक क्षण दिखाया गया है। जहाँ बेला अंततः अपने मन की बात व्यवहार और कर्म से व्यक्त करती है। इन्दु जब दादा जी के कपड़े धोने की बात करती है, तो सहजता से कहती है कि वह बेला के कपड़े भी साथ ही धो देगी। बेला पहले तो चुपचाप सोच में डूब जाती है, पर कुछ देर बाद जैसे कोई निर्णय लेकर दृढ़ स्वर में कहती है कि वह भी इन्दु के साथ कपड़े धोने जाएगी। वह दूसरों के समान रहना चाहती है, उनके बीच की बराबरी और अपनापन चाहती है, न कि अलग-थलग सम्मान का बंधन।
इन्दु को आशंका होती है कि दादा जी को यह अच्छा नहीं लगेगा, लेकिन बेला कहती है कि वह खुद दादा जी से कह देगी। फिर वह इन्दु से अनुरोध करती है कि उसे ‘भाभी जी’ नहीं बल्कि केवल ‘भाभी’ कहे, यह संबोधन में समानता और आत्मीयता का आग्रह है। इन्दु भावुक होकर उसे ‘भाभी’ कहती है और दोनों साथ में कपड़े धोने चली जाती हैं। कुछ देर बाद कपड़े धोने की आवाज़ आती है।
इसी बीच दादा मल्लू का हाथ पकड़े हुक्का गुड़गुड़ाते हुए आते हैं, और जब वे दरवाज़े के पास पहुँचते हैं तो आश्चर्य से देखते हैं कि छोटी बहू (बेला) कपड़े धो रही है। वे ठिठक जाते हैं और कहते हैं कि बेटा, कपड़े धोना तुम्हारा काम नहीं, तुम्हें पढ़ना-लिखना चाहिए। इन्दु समझाने की कोशिश करती है कि उसने बहुत मना किया था पर भाभी नहीं मानी। दादा को इन्दु का यह स्वर अनुचित लगता है, इसलिए वे उसे आदर से बोलने को कहते हैं।
तभी बेला का मनोभाव उमड़ पड़ता है। रुँधे गले से वह कहती है कि दादा जी, आप तो कहते हैं कि पेड़ से कोई डाली अलग न हो, पर क्या यह अच्छा होगा कि वह डाली पेड़ से जुड़ी रहते हुए सूखकर मुरझा जाए। इस वाक्य में बेला का पूरा दर्द और सत्य छिपा है। वह कहना चाहती है कि यदि उसे बाकी परिवार से अलग कर दिया जाएगा, केवल ‘आदर’ के नाम पर दूरी बनाई जाएगी, तो वह जीते-जी सूख जाएगी।
यह सुनकर वातावरण में गहरा मौन छा जाता है, हुक्के की गुड़गुड़ाहट तक रुक जाती है। यह मौन दादा के भीतर की जागृति और बेला के दर्द की गूंज का प्रतीक है। अंत में पर्दा गिर जाता है।

 

Conclusion

इस पोस्ट में ‘सूखी डाली’ पाठ का सारांश, व्याख्या और शब्दार्थ दिए गए हैं। यह पाठ PSEB कक्षा 10 के पाठ्यक्रम में हिंदी की पाठ्यपुस्तक से लिया गया है। उपेंद्रनाथ अश्क द्वारा लिखित यह पाठ एक सामाजिक पारिवारिक एकांकी है, जिसमें संयुक्त परिवार की जटिलताओं, पुरानी और नई पीढ़ी के टकराव, तथा परंपरा और आधुनिकता के संघर्ष को अत्यंत सजीव रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह पोस्ट विद्यार्थियों को पाठ को सरलता से समझने, उसके मुख्य संदेश को ग्रहण करने और परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने में सहायक सिद्ध होगा।