कैकेयी का अनुताप पाठ सार

 

JKBOSE Class 10 Hindi Chapter 6 “Kaikeyi ka Anutap”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Bhaskar Bhag 2 Book

 

कैकेयी का अनुताप सार – Here is the JKBOSE Class 10 Hindi Bhaskar Bhag 2 Book Chapter 6 Kaikeyi ka Anutap Summary with detailed explanation of the lesson ‘Kaikeyi ka Anutap’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary

इस पोस्ट में हम आपके लिए जम्मू और कश्मीर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड  कक्षा 10 हिंदी भास्कर भाग 2 के पाठ 6 कैकेयी का अनुताप पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप  इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 कैकेयी का अनुताप पाठ के बारे में जानते हैं।

 

Kaikeyi ka Anutap (कैकेयी का अनुताप)

 

‘कैकेयी का अनुताप’ मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित एक अत्यंत मार्मिक महाकाव्य है, जो उनके प्रसिद्ध काव्यग्रंथ ‘साकेत’ से लिया गया है। इस रचना में कवि ने रामायण की एक प्रमुख पात्र रानी कैकेयी के हृदय-परिवर्तन और आत्मग्लानि को अत्यंत संवेदनशीलता से प्रस्तुत किया है। सामान्यतः रामायण में कैकेयी को राम के वनवास की जिम्मेदार, स्वार्थी और कठोर हृदय वाली रानी के रूप में देखा जाता है, किंतु मैथिलीशरण गुप्त ने इस काव्य में उनके भीतर छिपी मानवीय दुर्बलताओं, भावनात्मक संघर्षों और अंततः गहरे पश्चाताप को बताया है। 

 

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कैकेयी का अनुताप- सार  Kaikeyi ka Anutap Summary

 

इस काव्यांश में मैथिलीशरण गुप्त ने ‘कैकेयी का अनुताप’ के माध्यम से एक ऐसी नारी का चित्र प्रस्तुत किया है, जो अपने ही कर्मों की आग में जल रही है और अपने मन की पीड़ा राम के सामने प्रकट कर रही है। कैकेयी अब यह भली-भाँति समझ चुकी है कि जो अपराध उसने किया, उसका मूल कारण मंथरा नहीं बल्कि उसका अपना अस्थिर, अविश्वासी और स्वार्थ से भरा हुआ मन था। वह मंथरा को दोष देने से इनकार करती है और स्पष्ट करती है कि मंथरा तो मात्र एक दासी थी, किंतु उसका अपना मन ही उस क्षण दुर्बल और असत्य के पक्ष में झुक गया था।

कैकेयी स्वीकार करती हैं कि जो जलते हुए भाव उनके मन में जागे थे, वे उनके भीतर ही थे, किसी और ने नहीं जगाए। अब वह आत्मचिंतन करती है कि क्या उसके भीतर केवल द्वेष, ईर्ष्या और कठोरता थी? क्या उसमें मातृत्व, करुणा और वात्सल्य के भाव बिल्कुल समाप्त हो चुके थे? कैकेयी का हृदय इस बात से छलनी हो उठा है कि जिन भावनाओं के वशीभूत होकर उसने निर्णय लिया, वही पुत्र भरत अब उसे पराया समझ रहा है।

वह रोते हुए सभा से कहती है कि लोग उसे धिक्कारें, अपमानित करें, उस पर थूकें, वह सब सह लेगी, लेकिन वह राम से यह विनती करती है कि भरत को पुत्र कहने का उसका अधिकार उससे न छीना जाए। यह उसका मातृत्व है जिसे वह बचाना चाहती है।

यह काव्यांश अत्यंत करुण और मार्मिक है। इसमें एक माँ के हृदय की व्यथा, उसका पश्चाताप और अपने मातृत्व के अधिकार को खोने का डर अत्यंत संवेदनशीलता से चित्रित किया गया है। यह केवल एक अपराधिनी रानी की आत्मस्वीकृति नहीं, बल्कि एक माँ की करुण पुकार है, जो अपने पुत्र के स्नेह से वंचित होने के भय में डूबी हुई है। सभा में मौन छाया है, प्रकृति भी मानो शोकमग्न है, और रानी कैकेयी की आँखों में पश्चाताप की गहरी आँच स्पष्ट झलक रही है।

कैकेयी का अनुताप पाठ व्याख्या Kaikeyi ka Anutap Explanation

 

1
“यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को”
चौंके सब सुनकर अटल कैकेयी – स्वर को।
सबने रानी की ओर अचानक देखा,
वैधव्य – तुषारावृता यथा विधु – लेखा|
बैठी थी अचल तथापि असंख्य तरंगा,
वह सिंही अब थी हहा गोमुखी गंगा-
“हा, जनकर भी मैंने नहीं भरत को जाना,
सब सुन लें, तुमने स्वयं अभी यह माना।
यह सच है तो फिर लौट चलो घर भैया,
अपराधिन मैं हूँ तात. तुम्हारी मैया,
शब्दार्थ-
अटल – दृढ़, अडिग
स्वर – आवाज़
वैधव्य – विधवा होने की स्थिति
तुषारावृता – बर्फ से ढकी
विधु-लेखा – चाँद की किरण
अचल – स्थिर
असंख्य – अनेक
तरंगा – लहरें
सिंही – शेरनी
हहा – दुखी स्वर, करुण पुकार
गोमुखी – गंगा का उद्गम स्थल
भरत – राम के भाई
अपराधिन – अपराध करने वाली
तात – पिता
मैया – माँ
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक भास्कर भाग 2 के ‘कैकेयी का अनुताप’ कविता से ली गयीं हैं। ये पंक्तियाँ राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त द्वारा रचित महाकाव्य ‘साकेत’ से उद्धृत हैं।
सन्दर्भ– प्रस्तुत कवितांश में उस समय का वर्णन है, जब कैकेयी वनवासी राम को घर वापिस जाने के लिए अनुरोध करती हैं।
व्याख्या- प्रस्तुत पंक्तियों में उस समय की घटना है जब श्री राम कहते हैं कि भरत को उसकी माता भी पहचान नहीं पायी। यह सुनकर कैकेयी कहती हैं कि अगर यह सच है तो मेरी इस अज्ञानता को भूल जाईए और घर वापस लौट चलिए। कैकेयी के ऐसा कहने पर सभी अचानक चौंककर उसकी तरफ देखने लगे। उन्होंने विधवा होने के कारण सफ़ेद वस्त्र धारण किये थे। वह इस समय ऐसी लग रही थी मानो कि कोहरे ने चाँदनी को ढक लिया हो। कैकेयी के एक जगह पर बैठे होने पर भी अनेक अनगिनत विचारों की तरंगे उनके मन में उठ रहीं थी। सिहंनी सी लगने वाली कैकेयी आज दीनता के भावों से भरी हुईं थीं। आज वह गोमुखी गंगा की भाँति शांत, शीतल और पावन लग रहीं थीं। कैकेयी आगे कहती हैं कि आप सभी मेरी बात को ध्यान से सुने, भरत को जन्म देने के बाद में मैं उसे पहचान न पाई। राम ने भी इस बात को अभी-अभी मान लिया है। कैकेयी राम से विनती करती हैं कि यदि आपका कहना सही है तो अयोध्या वापस लौट चलिए। अपराध तो मैंने किया है, मैं अपराधिनी हूँ, भरत नहीं। मैं ही हूँ जिसने आपको वन भेजने का अपराध किया है। आप जो भी दंड दें मुझे स्वीकार है। आप घर लौट चलिए अन्यथा लोग भरत को दोषी मानेंगे। 
2
दुर्बलता का ही चिह्न विशेष शपथ है,
पर, अबलाजन के लिए कौन-सा पथ है ?
यदि मैं उकसाई गई भरत से होऊँ,
तो पति समान ही स्वयं पुत्र भी खोऊँ।
ठहरो, मत रोको मुझे कहूँ सो सुन लो,
पाओ यदि उसमें सार उसे सब चुन लो,
करके पहाड़ सा पाप मौन रह जाऊँ,
राई-भर भी अनुताप न करने पाऊँ?”
थी सनक्षत्र शशि – निशा ओस टपकाती,
रोती थी नीरव सभा हृदय थपकाती ।
उल्का – सी रानी दिशा दीप्त करती थी,
सबमें भय, विस्मय और खेद भरती थी।
शब्दार्थ-
दुर्बलता – कमजोरी
चिह्न – निशान, संकेत
विशेष – खास
शपथ – सौगंध
अबलाजन – स्त्रियाँ
पथ – मार्ग, रास्ता
उकसाई – प्रेरित की गई, बहकाई गई
स्वयं – खुद
सार – मूल्य, अर्थ, महत्व
मौन – चुप
राई – एक सूक्ष्म वस्तु, बहुत ही कम मात्रा
अनुताप – पछतावा, पश्चाताप
सनक्षत्र – तारों से भरी
शशि – चंद्रमा
निशा – रात
ओस – नमी की बूंदें
नीरव – चुप
उल्का – मशाल, प्रकाश, आकाश से गिरी हुई अग्नि, टूटता तारा
दीप्त – चमकती हुई
विस्मय – आश्चर्य
खेद – दुख, पछतावा
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक भास्कर भाग 2 के ‘कैकेयी का अनुताप’ कविता से ली गयीं हैं। ये पंक्तियाँ राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त द्वारा रचित महाकाव्य ‘साकेत’ से उद्धृत हैं।
सन्दर्भ- प्रस्तुत कवितांश में उस समय का वर्णन है, जब कैकेयी वनवासी राम को घर वापिस जाने के लिए अनुरोध करती हैं।
व्याख्या- प्रस्तुत काव्यांश में रानी कैकेयी अपनी भूल का गहन पश्चाताप करती हुई राम से विनम्रता के साथ कह रही हैं कि विशेष शपथ लेना व्यक्ति की दुर्बलता का संकेत होता है, किंतु एक विवश नारी के लिए अपनी बात को सिद्ध करने का और कोई उपाय नहीं बचता। वह राम को आश्वस्त करती हैं कि भरत ने उन्हें राम के वनवास के लिए नहीं उकसाया था। यदि ऐसा हुआ हो, तो वह अपने पुत्र को भी उसी प्रकार खोने को तैयार हैं जैसे पति को खो चुकी हैं।
कैकेयी सभा में विनम्रतापूर्वक आग्रह करती हैं कि उसे बोलने से कोई न रोके—वह जो कह रही है, सब सुनें। यदि उसके शब्दों में कोई सच्चाई हो तो उसे स्वीकार करें। वह कहती है कि उसने इतना बड़ा अपराध किया है, क्या वह चुप रहकर उसका कोई पश्चाताप भी न करे? क्या उसे इतना भी अधिकार नहीं कि वह अपने अपराध को स्वीकार कर आत्मग्लानि प्रकट कर सके?
उस समय का दृश्य अत्यंत मार्मिक था। तारों से भरी चाँदनी रात ओस की बूंदों के रूप में मानो स्वयं आँसू बहा रही थी। सभा मौन होकर कैकेयी की वेदना से व्यथित थी, जैसे सबका हृदय सिसक रहा हो। रानी कैकेयी की भावनाएँ उल्का के समान प्रकाशमान होकर चारों दिशाओं को आलोकित कर रही थीं। वहाँ उपस्थित सभी लोग भय, विस्मय और खेद से भर उठे।
3
“क्या कर सकती थी मरी मंथरा दासी,
मेरा ही मन रह सका न निज विश्वासी।
जल पंजर – गत अब अरे अधीरे, अभागे,
वेज्वलित भाव थे स्वयं तुझी में जागे।
पर था केवल क्या ज्वलित भाव ही मन में?
कुछ शेष बचा था कुछ न और इस जन में?
कुछ मूल्य नहीं वात्सल्य – मात्र,
क्या तेरा ? पर आज अन्य-सा हुआ वत्स भी मेरा।
थूके, मुझ पर त्रैलोक्य भले ही थूके,
जो कोई जो कह सके, कहे, क्यों चूके?
छीने न मातृपद किंतु भरत का मुझसे,
हे राम, दुहाई करूँ और क्या तुझसे?
शब्दार्थ-
मंथरा – कैकेयी की दासी
दासी – सेविका
निज – अपना
विश्वासी – विश्वास रखने वाला
पंजर गत – हड्डियों के ढांचे (पंजर) में बैठे हुए या बंद
अधीरे – व्याकुल, बेचैन
अभागे – दुर्भाग्यशाली
ज्वलित – जले हुए
भाव – भावना
शेष – बचा हुआ
वात्सल्य – स्नेह
वत्स – बेटा
अन्य-सा – पराया, अजनबी जैसा
त्रैलोक्य – तीनों लोक
मातृपद – माँ का अधिकार, मातृत्व
दुहाई – दीनतापूर्ण की गई याचना।
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक भास्कर भाग 2 के ‘कैकेयी का अनुताप’ कविता से ली गयीं हैं। ये पंक्तियाँ राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त द्वारा रचित महाकाव्य ‘साकेत’ से उद्धृत हैं।
सन्दर्भ- प्रस्तुत कवितांश में उस समय का वर्णन है, जब कैकेयी वनवासी राम को घर वापिस जाने के लिए अनुरोध करती हैं।
व्याख्या- प्रस्तुत काव्यांश में रानी कैकेयी गहन पश्चाताप की अवस्था में स्वयं को दोषी ठहराते हुए मंथरा को निर्दोष बताती हैं। वह कहती हैं कि मंथरा तो केवल एक दासी थी, उसकी कोई विशेष शक्ति नहीं थी कि जो उनके भावों को नियंत्रित कर सके। असल दोष तो उनके मन का था, जो उस समय उनका विश्वासी नहीं रह पाया।
कैकेयी स्वयं को अधीर और अभागी मानती हैं और कहती हैं कि जिन उग्र, ईर्ष्या और द्वेष से भरे भावों ने राम को वनवास भेजने का निर्णय करवाया, वे उसके ही भीतर जागृत हुए थे। लेकिन क्या उनका मन केवल उन कठोर भावनाओं से भरा था। क्या उसमें स्नेह, ममता, वात्सल्य जैसी भावनाओं का कोई स्थान नहीं था। क्या उनके मातृत्व का कोई मूल्य नहीं रहा। 
वह करुण स्वर में कहती हैं कि जिस पुत्रमोह ने उन्हें अपराध के पथ पर धकेला, वही पुत्र आज उनसे अजनबी की भांति व्यवहार कर रहा है। अपनी आत्मग्लानि और व्यथा में डूबी कैकेयी कहती हैं कि चाहे तीनों लोक (स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल) उसे धिक्कारें, लोग जो चाहे कहें, वह राम को सम्बोधित करती हुई प्रार्थना करती हैं कि उनसे उनका मातृत्व न छीना जाए। भरत को पुत्र कहने का अधिकार उनसे न छीने, यही उनकी अंतिम विनती है। 
4
कहते आते थे यही अभी नरदेही :-
‘माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही’
अब कहें सभी यह हाय! विरुद्ध विधाता : —
“है पुत्र सुपुत्र ही रहे कुमाता माता।‘
बस मैंने इसका बाह्य- मात्र ही देखा।
दृढ़ हृदय न देखा, मृदुल मात्र ही देखा
परमार्थ न देखा, पूर्ण स्वार्थ ही साधा,
इस कारण ही तो हाय आज यह बाधा।
युग-युग तक चलती रहे कठोर कहानी-
रघुकुल में भी थी एक अभागिन रानी।
शब्दार्थ-
नरदेही – मनुष्य का शरीर धारण करने वाला
कुमाता – बुरी माँ
कुपुत्र – बुरा पुत्र
हाय – दुःख की अभिव्यक्ति
विरुद्ध – उलटे, खिलाफ़
विधाता – भगवान, नियति
सुपुत्र – उत्तम पुत्र
बाह्य – बाहरी रूप
मात्र – केवल
दृढ़ – मजबूत
हृदय – दिल, मन
मृदुल – कोमल / मीठा
परमार्थ – परोपकार, दूसरों का हित
स्वार्थ – अपना हित, खुद का लाभ
साधा – पूरा किया, अपनाया
बाधा – संकट, रुकावट
युग-युग तक – पीढ़ी दर पीढ़ी, बहुत लंबे समय तक
रघुकुल – राजा रघु का वंश, राम का वंश
अभागिन – दुर्भाग्यशाली
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक भास्कर भाग 2 के ‘कैकेयी का अनुताप’ कविता से ली गयीं हैं। ये पंक्तियाँ राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त द्वारा रचित महाकाव्य ‘साकेत’ से उद्धृत हैं।
सन्दर्भ- प्रस्तुत कवितांश में उस समय का वर्णन है, जब कैकेयी वनवासी राम को घर वापिस जाने के लिए अनुरोध करती हैं।
व्याख्या- प्रस्तुत पंक्तियों में रानी कैकेयी समाज की उस प्राचीन कहावत को स्मरण करती हैं; माता कभी कुमाता नहीं होती, चाहे पुत्र कुपुत्र हो। लेकिन अब, अपने कृत्य के कारण वह व्यथित होकर कहती हैं कि विधाता ने जैसे यह नियम ही बदल दिया है। अब लोग कहेंगे कि पुत्र तो सदैव सुपुत्र होता है, लेकिन माता कुमाता हो सकती है।
कैकेयी आत्मस्वीकृति करती हैं कि उन्होंने अपने पुत्र भरत के व्यक्तित्व की गहराई को नहीं समझा। वे केवल उसके कोमल, बाह्य स्वरूप को देखती रहीं, पर उसके दृढ़, त्यागमयी और परमार्थी स्वभाव को पहचानने में असफल रहीं। उनका दृष्टिकोण केवल स्वार्थ से प्रेरित था, इसलिए वे अपने कर्तव्यों से विचलित हो गईं और आज इस घोर पीड़ा का सामना कर रही हैं।
कैकेयी दुखी मन से कहती हैं कि अब उनका नाम युगों तक एक कलंकिनी माँ के रूप में लिया जाएगा। आने वाली पीढ़ियाँ कहेंगी कि रघुकुल जैसे महिमामय वंश में भी एक ऐसी अभागिनी रानी थी, जिसने अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं के कारण पूरे वंश को संकट में डाल दिया।
5
निज जन्म-जन्म में सुने जीव यह मेरा –
धिक्कार ! उसे था महास्वार्थ ने घेरा ।”
“सौ बार धन्य वह एक लाल की माई,
जिस जननी ने है जना भरत-सा भाई।”
पागल सी प्रभु के साथ सभा चिल्लाई
“सौ बार धन्य वह एक लाल की माई । “
शब्दार्थ-
निज – अपना
जन्म-जन्म में – हर जन्म में, जन्म-जन्मांतरों तक
जीव – प्राणी, व्यक्ति
धिक्कार – निंदा, तिरस्कार
महास्वार्थ – अत्यधिक स्वार्थ
धन्य – पूजनीय, प्रशंसनीय
लाल – पुत्र, बेटा
माई – माँ
जननी – जन्म देने वाली, माँ
जना – जन्म दिया
भरत-सा – भरत जैसा (सद्गुणी)
पागल सी – विक्षिप्त-सी, उन्मादी-सी
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक भास्कर भाग 2 के ‘कैकेयी का अनुताप’ कविता से ली गयीं हैं। ये पंक्तियाँ राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त द्वारा रचित महाकाव्य ‘साकेत’ से उद्धृत हैं।
सन्दर्भ- प्रस्तुत कवितांश में उस समय का वर्णन है, जब कैकेयी वनवासी राम को घर वापिस जाने के लिए अनुरोध करती हैं।
व्याख्या- प्रस्तुत काव्यांश में रानी कैकेयी अपने किए गए कर्मों पर गहरा खेद व्यक्त करते हुए कहती हैं कि अब उनकी आत्मा जन्म-जन्मांतर तक इस धिक्कार के साथ जीवित रहेगी कि उन्हें महान स्वार्थ ने घेर लिया था। उन्होंने मोहवश धर्म का त्याग किया और अधर्म के मार्ग पर चलीं, जिसके कारण समूचे रघुकुल को पीड़ा सहनी पड़ी।
कैकेयी की पश्चातापपूर्ण स्वीकार की बात सुनकर वहाँ उपस्थित सभा और राम अत्यंत भावुक हो उठते हैं। सभी एक स्वर में भरत की प्रशंसा करते हुए कह उठते हैं कि सौ बार धन्य है वह माँ जिसने भरत जैसे महान और धर्मनिष्ठ पुत्र को जन्म दिया। यह घोषणा पूरी सभा में गूंज उठती है।

Conclusion

दिए गए पोस्ट में हमने ‘कैकेयी का अनुताप’ नामक कविता का साराँश, पाठ व्याख्या और शब्दार्थ को जाना। यह पाठ कक्षा 10 हिंदी के पाठ्यक्रम में भास्कर भाग 2 पुस्तक से लिया गया है।
यह कविता मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित एक अत्यंत मार्मिक महाकाव्य है, जो उनके प्रसिद्ध काव्यग्रंथ ‘साकेत’ से लिया गया है। इस कविता में कैकेयी के पश्चाताप को प्रस्तुत किया गया है। इस पोस्ट के माध्यम से विद्यार्थी कविता को गहराई से समझ पाएंगे और परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने में भी सक्षम होंगे।