हरिद्वार पाठ सार

CBSE Class 8 Hindi Chapter 4 “Haridwar”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Malhar Book

 

हरिद्वार सार – Here is the CBSE Class 8 Hindi Malhar Chapter 4 Haridwar with detailed explanation of the lesson ‘Haridwar’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary

इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 8 हिंदी मल्हार के पाठ 4 हरिद्वार पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप  इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 8 हरिद्वार पाठ के बारे में जानते हैं।

 

Haridwar (हरिद्वार)

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यह पाठ प्रसिद्ध हिंदी लेखक भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा लिखा गया है। वे सन् 1871 में हरिद्वार की यात्रा पर गए थे। उन्होंने अपनी इस यात्रा का सुंदर वर्णन एक पत्र के रूप में ‘कविवचन सुधा’ पत्रिका के संपादक को लिखा। इस पत्र में उन्होंने हरिद्वार की सुंदरता, गंगा नदी की पवित्रता, वहाँ की शांति, पर्वतों, वृक्षों, पक्षियों और तीर्थ स्थलों का बहुत ही भावपूर्ण वर्णन किया है।

लेखक बताते हैं कि हरिद्वार जाकर उनका मन बहुत प्रसन्न और शांत हो गया। उन्होंने वहाँ स्नान, पूजा-पाठ, गंगा किनारे भोजन, और प्राकृतिक सौंदर्य का खूब आनंद लिया। उनके अनुसार हरिद्वार एक पवित्र और शांत जगह है, जो भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के लिए बहुत उपयुक्त है। यह पाठ हमें प्रकृति, धार्मिकता और भारतीय संस्कृति की सुंदर झलक देता है।

 

 

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हरिद्वार  पाठ सार Haridwar Summary

यह पाठ प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा लिखा गया यात्रा-वृत्तांत है, जिसमें उन्होंने सन् 1871 में की गई अपनी हरिद्वार यात्रा का विस्तृत और भावनात्मक वर्णन किया है। यह यात्रा उनके लिए केवल एक धार्मिक तीर्थ यात्रा नहीं थी, बल्कि एक गहरी आत्मिक और सांस्कृतिक अनुभूति भी थी। उन्होंने इस अनुभव को पत्र के रूप में ‘कविवचन सुधा’ पत्रिका के संपादक को लिखा, जिसमें वे हरिद्वार की प्राकृतिक सुंदरता, धार्मिक पवित्रता और सामाजिक सरलता का चित्र खींचते हैं।

लेखक ने इसमें बताया है कि हरिद्वार पहुँचते ही उनका मन प्रसन्न और निर्मल हो गया। वे इस भूमि को “पुण्य भूमि” कहते हैं जहाँ केवल पहुँचने मात्र से मन शुद्ध हो जाता है। हरिद्वार चारों ओर से हरे-भरे पर्वतों से घिरा हुआ है, जिन पर लताएँ और बड़े-बड़े पेड़ ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे वे तपस्या कर रहे हों। वर्षा के कारण वहाँ हरियाली फैली हुई थी, जो लेखक को ऐसा प्रतीत हुई मानो तीर्थयात्रियों के लिए हरा गलीचा बिछा दिया गया हो।

गंगा नदी का वर्णन इस पाठ का विशेष आकर्षण है। लेखक गंगा को त्रिभुवन पावनी (तीनों लोकों को पवित्र करने वाली) कहते हैं। वे बताते हैं कि गंगा का जल अत्यंत ठंडा, मीठा और स्वच्छ है। जल की धारा इतनी तेज़ है कि उसका शब्द भी सुनाई देता है। ठंडी-ठंडी हवा जब गंगा के पवित्र कणों को साथ लेकर चलती है, तो उसका स्पर्श भी पावन लगता है। गंगा की दो धाराओं- नीलधारा और श्री गंगा का वर्णन करते हुए लेखक बताता है कि इन दोनों के बीच एक नीचा पहाड़ है, और नीलधारा के किनारे एक छोटी सी चोटी पर चण्डिका देवी का मंदिर स्थित है।

हरिद्वार में “हरि की पैड़ी” नामक पक्का घाट है, जहाँ लोग स्नान करते हैं। यहाँ देवताओं से अधिक गंगा माता को पूजा जाता है। लेखक आश्चर्य से कहता है कि यहाँ कोई अन्य देवता प्रमुख नहीं हैं, केवल गंगा जी की महिमा है। साधु-संतों ने यहाँ कई मठ और मंदिर बना लिए हैं, लेकिन वातावरण में कहीं भी दिखावा या आडंबर नहीं है।

हरिद्वार का वातावरण इतना शांत, निर्मल और पवित्र है कि वहाँ काम, क्रोध, लोभ जैसे अवगुणों वाले लोग टिक ही नहीं सकते। वहाँ के पंडे और दुकानदार बहुत संतोषी हैं, थोड़ा-सा दान या पैसे मिलने पर ही प्रसन्न हो जाते हैं। लेखक हरिद्वार के पाँच प्रमुख तीर्थ स्थानों का भी उल्लेख करते हैं—हरिद्वार, कुशावर्त्त, नीलधारा, विल्व पर्वत और कनखल। कनखल का विशेष ऐतिहासिक महत्व है क्योंकि यहीं राजा दक्ष ने यज्ञ किया था और सती ने शिव का अपमान सहन न करते हुए अपने प्राण त्याग दिए थे।

लेखक ने हरिद्वार में दीवान कृपा राम के मकान में ठहराव किया और वहाँ ठंडी हवा और शांत वातावरण का आनंद लिया। उस समय एक ग्रहण भी पड़ा, और उन्होंने उस अवसर पर गंगा स्नान और भागवत पाठ करके आत्मिक आनंद प्राप्त किया। उनके साथ उनके मित्र कल्लू जी भी इस यात्रा में थे।

सबसे सुंदर अनुभव लेखक के लिए वह था जब उन्होंने गंगा तट पर स्वयं रसोई बनाकर पत्थर पर बैठकर भोजन किया। उन्हें वह अनुभव किसी राजसी भोज से अधिक सुखद प्रतीत हुआ। उनका मन बार-बार ज्ञान, भक्ति और वैराग्य की भावना से भर जाता था। वे बताते हैं कि वहाँ झगड़े-फसाद का कोई नामोनिशान नहीं था, सब कुछ शांत और दिव्य था।

हरिद्वार की कुछ विशेष वस्तुओं का उल्लेख भी लेखक ने किया है, जैसे वहाँ का महीन जनेऊ और विशेष खुशबू वाली कुशा। यहाँ तक कि वहाँ की घास भी लेखक को सुगंधित प्रतीत हुई। अंत में लेखक कहते हैं कि उनका मन आज भी हरिद्वार में ही बसा हुआ है और वे इस पवित्र भूमि का विवरण पाठकों तक पहुँचाकर मौन हो जाना चाहते हैं।

इस प्रकार यह पाठ हरिद्वार की आध्यात्मिक, प्राकृतिक और सांस्कृतिक छवि को हमारे सामने प्रस्तुत करता है।

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हरिद्वार पाठ व्याख्या Haridwar Explanation

पाठ: श्रीमान कविवचन सुधा संपादक महामहिम मित्रवरेषु !

मुझे हरिद्वार का समाचार लिखने में बड़ा आनंद होता है कि मैं उस पुण्य भूमि का वर्णन करता हूँ जहाँ प्रवेश करने ही से मन शुद्ध हो जाता है। यह भूमि तीन ओर सुंदर हरेहरे पर्वतों से घिरी है जिन पर्वतों पर अनेक प्रकार की वल्ली हरीभरी सज्जनों के शुभ मनोरथों की भाँति फैलकर लहलहा रही है और बड़ेबड़े वृक्ष भी ऐसे खड़े हैं मानो एक पैर से खड़े तपस्या करते हैं और साधुओं की भाँति घाम, ओस और वर्षा अपने ऊपर सहते हैं। 

शब्दार्थ
पुण्य भूमि- पवित्र स्थान, धार्मिक स्थल
वर्णन- विवरण देना, किसी चीज़ के बारे में बताना
प्रवेश- अंदर जाना
वल्ली- बेलें, लताएँ
सज्जनों के शुभ मनोरथ- अच्छे लोगों की अच्छी इच्छाएँ
लहलहा रही है- हिल-हिल कर हरियाली दिखा रही हैं
तपस्या- ध्यान या साधना
घाम- धूप

व्याख्या- प्रस्तुत अंश में लेखक भारतेन्दु हरिश्चंद्र, कविवचन सुधा पत्रिका के संपादक के नाम पत्र लिखते हुए हरिद्वार की सुंदरता का वर्णन कर रहे हैं। लेखक को हरिद्वार के बारे में लिखकर बहुत आनंद मिल रहा है, क्योंकि यह एक ऐसी पवित्र जगह है जहाँ पहुँचते ही मन शुद्ध और शांत हो जाता है। यह जगह तीनों ओर से हरे-भरे पहाड़ों से घिरी हुई है। इन पहाड़ों पर तरह-तरह की हरी-भरी लताएँ ऐसे लहरा रही हैं जैसे सज्जन लोगों की शुभ इच्छाएँ। वहाँ के पेड़ इतने विशाल हैं कि वे ऐसे लगते हैं मानो एक पैर पर खड़े होकर तपस्या कर रहे हों, और जैसे साधु लोग धूप, ओस और बारिश सहन करते हैं, वैसे ही ये पेड़ भी मौसम की मार चुपचाप झेलते हैं।

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पाठ: अहा! इनके जन्म भी धन्य हैं जिनसे अर्थी विमुख जाते ही नहीं। फल, फूल, गंध, छाया, पत्ते, छाल, बीज, लकड़ी और जड़; यहाँ तक कि जले पर भी कोयले और राख से लोगों का मनोर्थ पूर्ण करते हैं।
सज्जन ऐसे कि पत्थर मारने से फल देते हैं। इन वृक्षों पर अनेक रंग के पक्षी चहचहाते हैं और नगर के दुष्ट बधिकों से निडर होकर कल्लोल करते हैं। वर्षा के कारण सब ओर हरियाली ही दिखाई पड़ती थी मानो हरे गलीचा की जात्रियों के विश्राम के हेतु बिछायत बिछी थी। एक ओर त्रिभुवन पावनी श्री गंगा जी की पवित्र धारा बहती है जो राजा भगीरथ के उज्ज्वल कीर्ति की लतासी दिखाई देती है। जल यहाँ का अत्यंत शीतल है और मिष्ट भी वैसा ही है मानो चीनी के पने को बरफ में जमाया है, रंग जल का स्वच्छ और श्वेत है और अनेक प्रकार के जलजंतु कल्लोल करते हुए। 

शब्दार्थ
अहा!- आश्चर्य और प्रशंसा का भाव
जन्म धन्य हैं- उनका जन्म पवित्र या सार्थक है
अर्थी- मृत शरीर
विमुख- चीज में रुचि न रखना, विरक्त
गंध- सुगंध
छाल- वृक्ष की बाहरी परत
मनोर्थ- मन की इच्छाएँ
सज्जन- भले, नेक लोग
दुष्ट बधिक- क्रूर शिकारी
कल्लोल करना- प्रसन्नता से चहचहाना या उछलना
हरियाली- हरे रंग की प्रकृति, पेड़-पौधे
गलीचा- कालीन
जात्रियों- तीर्थयात्रियों
बिछायत- बिछी हुई चीज़
त्रिभुवन पावनी- तीनों लोकों को पवित्र करने वाली (गंगा)
कीर्ति– यश
मिष्ट– मीठा
पना- मीठा शरबत
स्वच्छ– साफ
श्वेत- सफेद
जल-जंतु– जल में रहने वाले जीव

व्याख्या- लेखक कह रहे हैं कि इन पेड़ों का जन्म वास्तव में धन्य है क्योंकि ये मनुष्यों से कभी मुँह नहीं मोड़ते (अर्थी: मृत शरीर की ओर संकेत, यानी जीवन और मृत्यु दोनों में काम आते हैं)। वे अपने हर अंग — फल, फूल, पत्ते, छाल, लकड़ी, बीज, यहाँ तक कि जलने के बाद कोयले और राख से भी लोगों के काम आते हैं। लेखक उन्हें सज्जन बताते हैं क्योंकि वे पत्थर मारने पर भी बदला नहीं लेते, उल्टे फल दे देते हैं।
लेखक बताते हैं कि इन पेड़ों पर रंग-बिरंगे पक्षी बेखौफ होकर चहचहा रहे हैं, उन्हें शहर के किसी शिकारी या बुरे आदमी का डर नहीं है। वर्षा के कारण चारों ओर इतनी हरियाली है कि ऐसा लगता है जैसे हरियाले गलीचे (कालीन) को ज़मीन पर तीर्थयात्रियों के आराम के लिए बिछा दिया गया हो।
लेखक गंगा नदी की सुंदरता का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि गंगा की पवित्र धारा बह रही है, जो राजा भगीरथ की महानता की एक चमकदार लता जैसी प्रतीत होती है। यहाँ का पानी बहुत ठंडा और मीठा है, जैसे चीनी का टुकड़ा बर्फ में जमाया गया हो। गंगा का पानी बिलकुल साफ और सफेद दिखाई देता है, और इसमें तरह-तरह के जल-जीव  आनंद से उछल-कूद करते हैं।

 

पाठ: यहाँ श्री गंगा जी अपना नाम नदी सत्य करती हैं अर्थात् जल के वेग का शब्द बहुत होता है और शीतल वायु नदी के उन पवित्र छोटेछोटे कनों को लेकर स्पर्श ही से पावन करता हुआ संचार करता है। यहाँ पर श्री गंगा जी दो धारा हो गई हैंएक का नाम नील धारा, दूसरी श्री गंगा जी ही के नाम से, इन दोनों धारों के बीच में एक सुंदर नीचा पर्वत है और नील धारा के तट पर एक छोटासा सुंदर चुटीला पर्वत है और उसके शिषर पर चण्डिका देवी की मूर्ति है। यहाँ हरि की पैड़ी नामक एक पक्का घाट है और यहीं स्नान भी होता है। विशेष आश्चर्य का विषय यह है कि यहाँ केवल गंगा जी ही देवता हैं, दूसरा देवता नहीं। यों तो वैरागियों ने मठ मंदिर कई बना लिए हैं।
श्री गंगा जी का पाट भी बहुत छोटा है पर वेग बड़ा है, तट पर राजाओं की धर्मशाला यात्रियों के उतरने के हेतु बनी हैं और दुकानें भी बनी हैं पर रात को बंद रहती हैं। यह ऐसा निर्मल तीर्थ है कि इच्छा क्रोध की खानि जो मनुष्य हैं सो वहाँ रहते ही नहीं। 

शब्दार्थ-
वेग- प्रवाह
शीतल– ठंडा
कन– किसी चीज का बहुत छोटा अंश या टुकड़ा
स्पर्श– छूना
संचार– फैलना
चुटीला पर्वत– एक नुकीली और ऊँची चोटी वाली पहाड़ी
शिषर– शिखर
हरि की पैड़ी– गंगा नदी का एक प्रसिद्ध पक्का घाट जहाँ स्नान किया जाता है
वैरागी- विरक्त, त्याग करने वाला व्यक्ति
मठ– साधु संन्यासियों के रहने का स्थान।
पाट– यहाँ पाट का अर्थ है नदी की चौड़ाई या बहाव का फैलाव
धर्मशाला– यात्रियों के ठहरने के लिए बनाए गए विश्राम स्थल
निर्मल तीर्थ– एक ऐसा तीर्थस्थान जो शुद्ध और शांतिपूर्ण हो
इच्छा क्रोध की खानि- ऐसे लोग जिनके मन में बहुत लालच और गुस्सा भरा हो

व्याख्या- इस अंश में लेखक कहते हैं कि गंगा वाकई “नदी” नाम को सार्थक करती हैं, क्योंकि उनके जल का बहाव तेज़ है और उससे उठने वाली आवाज़ सुनाई देती है। ठंडी-ठंडी हवा गंगा जल की पवित्र बूँदों को अपने साथ लेकर बहती है और जहाँ भी उनका स्पर्श होता है, वह स्थान पवित्र हो जाता है।
लेखक बताते हैं कि यहाँ गंगा दो धाराओं में बँट जाती हैं- एक धारा को ‘नीलधारा’ कहा जाता है और दूसरी को उसी का नाम ‘ श्री गंगा’ कहा गया है। इन दोनों धाराओं के बीच में एक सुंदर, नीचा पहाड़ है। नीलधारा के किनारे एक और छोटा लेकिन नुकीला पहाड़ है, जिसकी चोटी पर चण्डिका देवी की मूर्ति स्थापित है।
लेखक बताते हैं कि हरिद्वार में “हरि की पैड़ी” नाम का एक पक्का घाट है जहाँ लोग स्नान करते हैं। यह बहुत खास जगह है। लेखक को आश्चर्य होता है कि यहाँ केवल गंगा जी को ही देवता माना गया है, और किसी अन्य देवता की पूजा नहीं होती। हालांकि यहाँ रहने वाले साधु-संतों ने अपने-अपने मठ और मंदिर ज़रूर बना लिए हैं।
गंगा जी की चौड़ाई (पाट) तो यहाँ कम है लेकिन पानी का बहाव बहुत तेज़ है। किनारों पर राजा-महाराजाओं द्वारा बनाई गई धर्मशालाएँ यात्रियों के ठहरने के लिए बनी हैं। कुछ दुकानें भी हैं, लेकिन वे रात को बंद रहती हैं। यह तीर्थ इतना पवित्र और शांत है कि जो लोग इच्छाएँ रखते हैं या क्रोधी स्वभाव के हैं, वे यहाँ रह ही नहीं सकते।

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पाठ: पंडे दुकानदार इत्यादि कनखल ज्वालापुर से आते हैं। पंडे भी यहाँ बड़े विलक्षण संतोषी हैं। एक पैसे को लाख करके मान लेते हैं। इस क्षेत्र में पाँच तीर्थ मुख्य हैं हरिद्वार, कुशावर्त्त, नीलधारा, विल्वपर्वत और कनखल। हरिद्वार तो हरि की पैंड़ी पर नहाते हैं, कुशावर्त्त भी उसी के पास है, नीलधारा वही दूसरी धारा, विल्व पर्वत भी पास ही एक सुहाना पर्वत है जिस पर विल्वेश्वर महादेव की मूर्ति है और कनखल तीर्थ इधर ही है, यह कनखल तीर्थ बड़ा उत्तम है। किसी काल में दक्ष ने यहीं यज्ञ किया था और यहीं सती ने शिव जी का अपमान सहकर अपना शरीर भस्म कर दिया। यहाँ कुछ छोटेछोटे घर भी बने हैं। और भारामल जैकृष्णदास खत्री यहाँ के प्रसिद्ध धनिक हैं। 

शब्दार्थ-
पंडे- तीर्थ यात्रियों के लिए धार्मिक अनुष्ठान कराने वाले ब्राह्मण
कनखल- हरिद्वार के पास स्थित एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान
ज्वालापुर- हरिद्वार के पास एक और क्षेत्र या कस्बा
विलक्षण– असाधारण, अलग तरह के
संतोषी- कम में खुश रहने वाले
कुशावर्त्त– हरिद्वार के पास स्थित एक छोटा तीर्थ कुंड
नीलधारा– गंगा नदी की धारा का नाम
विल्वपर्वत– बिल्व वृक्षों से युक्त एक सुंदर पहाड़ी
विल्वेश्वर महादेव– भगवान शिव का एक रूप, जो विल्वपर्वत पर विराजमान हैं
दक्ष- सती के पिता, जिन्होंने शिव का अपमान किया था
सती- भगवान शिव की पत्नी जिन्होंने अपमान सह न सकने पर आत्मदाह किया था
भस्म कर दिया- स्वयं को जला देना
धनिक- धनवान व्यक्ति

व्याख्या- इस अंश में लेखक बताते हैं कि यहाँ के पंडे और दुकानदार कनखल और ज्वालापुर जैसे आस-पास के स्थानों से आते हैं। वे बहुत ही संतोषी स्वभाव के होते हैं। थोड़ा-सा भी दान या पैसे मिलने पर बहुत प्रसन्न हो जाते हैं। लेखक हरिद्वार क्षेत्र के पाँच प्रमुख तीर्थ स्थानों का नाम भी बताते हैं- हरिद्वार, कुशावर्त्त, नीलधारा, विल्वपर्वत और कनखल।
लेखक हर एक तीर्थ का संक्षिप्त वर्णन देते हैं। हरिद्वार, जहाँ हरि की पैड़ी पर स्नान होता है। कुशावर्त्त, हरि की पैड़ी के पास ही स्थित है। नीलधारा, गंगा की दूसरी धारा का नाम है। विल्व पर्वत, पास का एक सुंदर पहाड़, जहाँ भगवान शिव की विल्वेश्वर महादेव के रूप में मूर्ति है। कनखल, बहुत ही पवित्र और प्रसिद्ध तीर्थ है, जिसे लेखक ‘बड़ा उत्तम’ कहते हैं जो यहीं स्थित है।
लेखक बताते हैं कि पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा दक्ष ने इसी कनखल स्थान पर एक यज्ञ का आयोजन किया था। लेकिन उन्होंने भगवान शिव का अपमान किया था, जिसे देखकर उनकी पुत्री सती (जो शिवजी की पत्नी थीं) ने दुखी होकर यहीं अपने आप को अग्नि में भस्म कर दिया था। अब यहाँ कुछ छोटे-छोटे मकान भी बने हुए हैं। लेखक बताते हैं कि भारामल जैकृष्णदास खत्री नामक व्यक्ति यहाँ के एक प्रसिद्ध और अमीर व्यक्ति हैं।

 

पाठ: हरिद्वार में यह बखेड़ा कुछ नहीं है और शुद्ध निर्मल साधुओं के सेवन योग्य तीर्थ है। मेरा तो चित्त वहाँ जाते ही ऐसा प्रसन्न और निर्मल हुआ कि वर्णन के बाहर है। मैं दीवान कृपा राम के घर के ऊपर के बंगले पर टिका था। यह स्थान भी उस क्षेत्र में टिकने योग्य ही है। चारों ओर से शीतल पवन आती थी। यहाँ रात्रि को ग्रहण हुआ और हम लोगों ने ग्रहण में बड़े आनंदपूर्वक स्नान किया और दिन में श्री भागवत का पारायण भी किया। वैसे ही मेरे संग कल्लू जी मित्र भी परमानंदी थे। निदान इस उत्तम क्षेत्र में जितना समय बीता, बड़े आनंद से बीता। एक दिन मैंने श्री गंगा जी के तट पर रसोई करके पत्थर ही पर जल के अत्यंत निकट परोसकर भोजन किया। जल के छलके पास ही ठंढेठंढे आते थे। उस समय के पत्थर पर का भोजन का सुख सोने की थाल के भोजन से कहीं बढ़ के था। 

शब्दार्थ-
बखेड़ा- झंझट, कठिनाई
निर्मल- शुद्ध, साफ, पवित्र
साधु– तपस्वी, संन्यासी, धार्मिक जीवन जीने वाला व्यक्ति
सेवन योग्य- उपयोग के लिए
चित्त- मन, हृदय
वर्णन के बाहर- जिसको शब्दों में व्यक्त न किया जा सके
बंगला- कोठी, मकान
ग्रहण– सूर्य या चंद्र ग्रहण
पारायण- धार्मिक ग्रंथ का निरंतर पाठ
परमानंदी- अत्यंत आनंदित, बहुत खुश
निदान- अंत में, परिणामस्वरूप
छलके- पानी का थोड़ा-थोड़ा गिरना 

व्याख्या- लेखक कहते हैं कि हरिद्वार में किसी तरह का कोई झगड़ा या अशांति नहीं है। यह एक शांत, पवित्र और साधुओं के रहने और तपस्या करने के योग्य तीर्थ है। वे कहते हैं कि हरिद्वार पहुँचते ही उनका मन अत्यंत प्रसन्न और शुद्ध हो गया, जिसका वर्णन कर पाना मुश्किल है।

लेखक बताते हैं कि वे हरिद्वार में दीवान कृपा राम के ऊपर वाले बंगले में ठहरे थे। वह जगह भी ठहरने के लिए बहुत सुंदर थी, चारों ओर से ठंडी और सुखद हवा आती थी। जिस रात वे वहाँ थे, उस समय ग्रहण लगा था, और उन्होंने उस अवसर पर गंगा में स्नान किया, जो धार्मिक दृष्टि से शुभ माना जाता है। दिन में उन्होंने श्रीमद्भागवत ग्रंथ का पाठ किया। उनके साथ उनके मित्र कल्लू जी भी बहुत आनंद में थे। लेखक कहते हैं कि जितना समय उन्होंने हरिद्वार में बिताया, वह बहुत ही सुखद और संतोषजनक रहा।

लेखक बताते हैं कि एक दिन उन्होंने गंगा नदी के किनारे रसोई बनाकर भोजन तैयार किया। उन्होंने नदी के बहुत पास पत्थर पर ही भोजन परोसा और वहीं बैठकर भोजन किया। नदी का ठंडा पानी बार-बार छलककर पास आ रहा था, जिससे वातावरण बहुत शीतल और शांत हो गया था। लेखक को उस समय का भोजन इतना आनंददायक लगा कि उन्हें लगा जैसे यह सोने की थाली में मिलने वाले भोजन से भी अधिक सुखद और स्वादिष्ट है।

 

पाठ: चित्त में बारंबार ज्ञान, वैराग्य और भक्ति का उदय होता था। झगड़ेलड़ाई का कहीं नाम भी नहीं था। यहाँ और भी कई वस्तु अच्छी बनती हैं, जनेऊ यहाँ का अच्छा महीन और उज्ज्वल बनता है। यहाँ की कुशा सबसे विलक्षण होती है जिसमें से दालचीनी, जावित्री इत्यादि की अच्छी सुगंध आती है। मानो यह प्रत्यक्ष प्रगट होता है कि यह ऐसी पुण्यभूमि है कि यहाँ की घास भी ऐसी सुगंधमय है। निदान यहाँ जो कुछ है, अपूर्व है और यह भूमि साक्षात विरागमय साधुओं और विरक्तों के सेवन योग्य है। और संपादक महाशय, मैं चित्त से तो अब तक वहीं निवास करता हूँ और अपने वर्णन द्वारा आपके पाठकों को इस पुण्यभूमि का वृत्तांत विदित करके मौनावलंबन करता हूँ। निश्चय है कि आप इस पत्र को स्थानदान दीजिएगा।

आपका मित्र
यात्री
भारतेंदु हरिश्चंद्र

शब्दार्थ-
चित्त– मन, हृदय
बारंबार- बार-बार, अनेक बार
ज्ञान- सही समझ, विवेक
वैराग्य- संसार से उदासीनता, मोह रहित स्थिति
भक्ति– ईश्वर के प्रति प्रेम और श्रद्धा
उदय– प्रकट होना
जनेऊ- यज्ञोपवीत (हिंदू धर्म में पहनने वाला पवित्र सूत की डोरी)
उज्ज्वल– चमकदार, स्वच्छ, शुद्ध
कुशा- एक प्रकार की पवित्र घास जो धार्मिक कार्यों में प्रयुक्त होती है
विलक्षण- विशेष, असाधारण, अद्वितीय
दालचीनी, जावित्री– सुगंधित मसाले
सुगंध– अच्छी खुशबू
पुण्यभूमि– पवित्र भूमि, धार्मिक महत्त्व वाली जगह
साक्षात प्रत्यक्ष रूप से
विरागमय– वैराग्य से भरी हुई
वृत्तांत- विवरण, घटनाओं का लेखा-जोखा
मौनावलंबन– मौन धारण करना, चुप हो जाना
स्थानदान-  स्थान देना, प्रकाशित करना

व्याख्या- प्रस्तुत अंश में लेखक कहते हैं कि हरिद्वार में रहते हुए उनके मन में बार-बार ज्ञान (बुद्धि), वैराग्य (दुनिया से हटकर भक्ति की भावना) और भक्ति (ईश्वर में श्रद्धा) के भाव जागृत होते रहे। वहाँ का वातावरण इतना शांत और पवित्र था कि कहीं कोई झगड़ा या कलह नहीं था। लेखक बताते हैं कि वहाँ कुछ खास चीजें भी बहुत उत्तम बनती हैं- जैसे वहाँ का जनेऊ (धागा) बहुत महीन और उज्ज्वल होता है, और वहाँ की कुशा (एक धार्मिक घास) अत्यंत विशिष्ट होती है, जिसमें दालचीनी और जावित्री जैसी सुगंध आती है।
लेखक कहते हैं कि ऐसा लगता है जैसे हरिद्वार की पवित्रता इतनी अधिक है कि यहाँ की साधारण घास भी खुशबूदार हो जाती है। अंत में वे कहते हैं कि हरिद्वार की हर वस्तु अद्वितीय और अद्भुत है। यह भूमि त्याग और वैराग्य से भरे हुए साधुओं और संन्यासियों के रहने और साधना करने के लिए सर्वोत्तम स्थान है।
लेखक अंत में संपादक से विनम्र अनुरोध करते हैं कि वे इस पत्र को पत्रिका में प्रकाशित करें ताकि पाठक हरिद्वार की इस पावन यात्रा का आनंद ले सकें। वे यह भी कहते हैं कि उनका मन अब तक हरिद्वार में ही बसा हुआ है। वे अब चुप रहना चाहते हैं क्योंकि उन्होंने अपने मन की सारी बातें इस पत्र में कह दी हैं।

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Conclusion

इस पोस्ट में हमने ‘हरिद्वार’ नामक पाठ का सारांश, पाठ व्याख्या और शब्दार्थ को विस्तार से समझा। यह पाठ मल्हार पुस्तक में शामिल है और कक्षा 8 हिंदी के पाठ्यक्रम का एक महत्वपूर्ण भाग है।
इस पाठ में भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने अपनी हरिद्वार यात्रा का सुंदर वर्णन एक पत्र के रूप में किया है।
इस पोस्ट को पढ़कर विद्यार्थी न केवल पाठ को बेहतर समझ सकेंगे, बल्कि इससे उन्हें परीक्षा में सटीक उत्तर लिखने और महत्वपूर्ण बिंदुओं को याद रखने में भी सहायता मिलेगी।