वीर कुँवर सिंह पाठ के पाठ सार, पाठ-व्याख्या, कठिन शब्दों के अर्थ और NCERT की पुस्तक के अनुसार प्रश्नों के उत्तर

 
Veer Kunwar Singh Summary NCERT Class 7 Hindi Vasant Bhag 2 book Chapter 17 Summary of Veer Kunwar Singh   and detailed explanation of lesson along with meanings of difficult words. Here is the complete explanation of the lesson, along with all the exercises, Questions and Answers are given at the back of the lesson. Take Free Online MCQs Test for Class 7.

 इस लेख में हम हिंदी कक्षा 7 ” वसंत भाग – 2 ” के पाठ – 17 ” वीर कुँवर सिंह ” पाठ के पाठ – प्रवेश , पाठ – सार , पाठ – व्याख्या , कठिन – शब्दों के अर्थ और NCERT की पुस्तक के अनुसार प्रश्नों के उत्तर , इन सभी के बारे में चर्चा करेंगे –
 

“वीर कुँवर सिंह”

 

वीर कुँवर सिंहपाठ प्रवेश –

लॉर्ड कैनिंग के गवर्नर – जनरल के रूप में शासन करने के दौरान ही 1857 ई. की महान क्रान्ति हुई। 1857 की क्रांति की शुरुआत 10 मई , 1857 ई. को मेरठ से हुई थी , जो धीरे – धीरे कानपुर , बरेली , झांसी , दिल्ली , अवध आदि स्थानों पर फैल गया। इस क्रान्ति की शुरुआत तो एक सैन्य विद्रोह के रूप में हुई , परन्तु कालान्तर में उसका स्वरूप बदल कर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध एक जनव्यापी विद्रोह के रूप में हो गया , जिसे भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा गया। 1857 की क्रांति के प्रमुख नेताओं व नायकों में बहादुर शाह जफ़र , बख्त खां , नाना साहब , तांत्या टोपे , बेगम हजरत महल , बिरजिस कादिर , रानी लक्ष्मीबाई , कुँवर सिंह , अमर सिंह , मौलवी अहमदुल्ला , लियाकत अली , खान बहादुर आदि के नाम प्रमुख हैं।

प्रस्तुत पाठ में इन्हीं वीर सैनानियों में से एक वीर सिपाही वीर कुँवर सिंह के बारे में बताया गया है। वीर कुँवर सिंह ने किस तरह 1857 की क्रांति में अपना योगदान दिया , किस तरह अंग्रेजों की नाक में दम किया था , किस तरह के सामाजिक कार्य किए थे और उनका व्यक्तित्व कैसा था , इन सभी की जानकारी इस पाठ के जरिए हम तक पहुँचाने की कोशिश की गई है। ताकि हम और हमारी आने वाली पीढ़ियाँ इन महान सैनानियों के बलिदानों को याद रखे और इनके जीवन से कुछ प्रेरणा लें।
 

 

वीर कुँवर सिंह पाठ सार (Summary)

प्रस्तुत पाठ में स्वतंत्रता संग्राम के एक वीर सिपाही वीर कुँवर सिंह के बारे में बताया गया है। वीर कुँवर सिंह ने किस तरह 1857 की क्रांति में अपना योगदान दिया था। सुभद्रा कुमारी जी की कविता ‘ झाँसी की रानी ‘ में जिस वीर योद्धा ठाकुर कुँवर सिंह का वर्णन किया गया है , इस पाठ में स्वतंत्रता संग्राम के उसी वीर कुँवर सिंह के बारे में जानकारी दी जा रही है। 1857 की बगावत ब्रिटिश शासन को भारत से खदेड़ने का पहला कदम कहा जा सकता है। असल में 1857 में लोगों के द्वारा उस दमन नीति के  विरुद्ध विद्रोह शुरू हुआ था। इसी दमन नीति को न मानने के कारण मार्च 1857 में बैरकपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत करने पर मंगल पांडे को 8 अप्रैल 1857 को फाँसी दे दी गई। मंगल पांडे को फाँसी देने के बाद इस आंदोलन ने गति पकड़ी और 10 मई 1857 को मेरठ में भारतीय सैनिकों ने ब्रिटिश अधिकारियों के विरुद्ध आंदोलन किया और आंदोलन को सीधे दिल्ली की ओर बढ़ाते चले गए। दिल्ली पहुँचते ही उन्होंने वहाँ में नियुक्त किए गए सैनिकों के अपने साथ मिला दिया और 11 मई को उन्होंने दिल्ली पर कब्जा कर लिया अर्थात दिल्ली को अंग्रेजों से मुक्त कर दिया और अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह ज़फ़र को भारत का शासक घोषित कर दिया। यह विद्रोह इस तरह दूर – दूर तक फैल गया जिस तरह जंगल की आग कुछ ही समय में दूर – दूर तक फैल जाती है। इस विद्रोह के मुख्य नेताओं में नाना साहेब , ताँत्या टोपे , बख्त खान , अशीमुल्ला खान , रानी लक्ष्मीबाई , बेगम हशरत महल , कुँवर सिंह , मौलवी अहमदुल्लाह , बहादुर खान और राव तुलाराम थे। कहा जा सकता है कि लोगों को स्वतंत्रता के लिए जागरूक करने के लिए 1857 के आंदोलन का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 1857 के आंदोलन में कई बहादुर वीर सिपाहियों ने अपना सर्वस्व त्याग दिया , उन्हीं वीर योद्धाओं में वीर कुँवर सिंह का नाम कई दृष्टियों से उल्लेखनीय है। वीर कुँवर सिंह के बचपन के बारे में कहीं पर भी बहुत अधिक जानकारी नहीं मिलती। जितनी जानकारी मिल सकी है उसके अनुसार कहा जाता है कि कुँवर सिंह का जन्म बिहार में शाहाबाद जिले के जगदीशपुर में सन् 1782 ई॰ में हुआ था। उनके पिता का नाम साहबज़ादा सिंह बताया जाता है और माता का नाम पंचरतन कुँवर कहा जाता था। यह भी जानकारी मिलती है कि उनके पिता साहबज़ादा सिंह जगदीशपुर रियासत के ज़मींदार थे , परंतु उनको यह ज़मींदारी विरासत में नहीं मिली थी बल्कि उनको अपनी ज़मींदारी हासिल करने में बहुत संघर्ष करना पड़ा था। कुँवर सिंह कभी विद्यालय नहीं गए बल्कि उनकी शिक्षा – दीक्षा की व्यवस्था उनके पिता ने घर पर ही की थी, घर पर ही उन्होंने हिंदी , संस्कृत और फ़ारसी सीखी थी। परंतु जानकारी के अनुसार कुँवर सिंह का पढ़ने – लिखने में उतना मन नहीं लगता था , जितना मन घुड़सवारी , तलवारबाज़ी और कुश्ती लड़ने में लगता था। वीर कुँवर सिंह के पिता का जब निधन हो गया तब उन्होंने अपने पिता की के बाद सन् 1827 में अपनी रियासत की जिम्मेदारी सँभाली। उस समय ब्रिटिश शासन का अत्याचार भारतीयों के प्रति बहुत अधिक बढ़ गया था , कहा जा सकता है कि ब्रिटिश सरकार का अत्याचार अपनी सारी हदें पार कर चूका था। इस बढ़ते हुए अत्याचार के कारण ही लोगों में ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ बहुत अधिक नाराज़गी पैदा हो रही थी। ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को अपने ही देश में महत्त्वपूर्ण और ऊँची नौकरियों से विमुख कर दिया गया था। इन सभी से भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक ऐसे संघर्ष की स्थिति बन गई थी जो पुरे देश में फैलता जा रहा था। ऐसी स्थिति को देखते हुए कुँवर सिंह ने ब्रिटिश शासन से मुकाबला करने का इरादा कर लिया था। जानकारी मिलती है कि जगदीशपुर के जंगलों में एक महात्मा ज्ञानी रहते थे , जिन्हे सभी ‘ बसुरिया बाबा ’ के नाम से जानते थे। उन्हीं बाबा ने ही कुँवर सिंह में देशभक्ति एवं स्वाधीनता की भावना उत्पन्न की थी। वे 1845 से 1846 तक बहुत अधिक क्रियाशील रहे और छुपते – छुपाते ही ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ विद्रोह की योजना बनाते रहे। उन्होंने अपनी गुप्त बैठकों की योजना के लिए बिहार के प्रसिद्ध सोनपुर मेले को चुना क्योंकि उस भीड़ भड़ाके में किसी का ध्यान उनकी और जाना स्वाभाविक नहीं था। इन्ही योजनाओं के तहत 25 जुलाई 1857 को दानापुर की सैनिक टुकड़ी ने आंदोलन  कर दिया और सभी सैनिक आंदोलन करते हुए सोन नदी पार कर आरा की ओर चल पड़े। इन सभी योजनाओं से कुँवर सिंह पहले से ही परिचित होते थे जिस वजह से जब वे सैनिक सोन नदी पार कर आरा पहुंचे तो वीर कुँवर सिंह से उनका संपर्क पहले से ही था। 27 जुलाई 1857 को कुँवर सिंह ने आरा पर अपना अधिकार स्थापित कर दिया। वीर कुँवर सिंह को सिपाहियों ने फौजी सलामी दी। वीर कुँवर सिंह भले ही वृद्धावस्था की ओर थे परन्तु उनके जोश में कोई कमी नहीं थी।आजादी की लड़ाई के आंदोलन की लपटें दानापुर और आरा की इस लड़ाई से बिहार में सब स्थानों पर फैल गई थी। इस आंदोलन को इतनी सफलता मिल जाने के बाद भी कई कारणों से असफल हो गया। इन कारणों में मुख्य कारण थे , देसी सैनिकों में अनुशासन की कमी का होना , स्थानीय ज़मींदारों का बगावत करने वाले सैनिकों का साथ न दे कर अंग्रेजों के साथ सहयोग करना तथा उस समय के जो समकालीन युद्ध के समय लड़ाई के उपकरण थे , बगावत करने वाले सैनिकों  के पास उनकी कमी थी जिसके कारण जगदीशपुर का संहार नहीं रोका जा सका अर्थात आंदोलन अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सका और 13 अगस्त को जगदीशपुर में कुँवर सिंह की सेना को अंग्रेज़ो से हार का सामना करना पड़ा। परन्तु इससे वीरवर कुँवर सिंह का आत्म विश्वास टूटा नहीं और वे भविष्य में होने वाले स्वतंत्रता प्राप्ति के युद्ध की योजना बनाने में लगन और निष्ठा के साथ तैयारियाँ करने में लग गए। वीर कुँवर सिंह इतने बहादुर थे कि उनकी वीरता की प्रसिद्धि पूरे उत्तर भारत में फैल गई। वीर कुँवर सिंह आजादी की लड़ाई की इस विजय यात्रा में सभी को इस तरह जोड़े जा रहे थे की उनके इस कदम से अंग्रेज़ों के होश उड़ गए थे। कई स्थानों के सैनिक एवं राजा कुँवर सिंह के नेतृत्व में स्वतंत्रता की लड़ाई लड़े। स्वतंत्रता की इस लड़ाई में अंग्रेज़ों और कुँवर सिंह की सेना के बीच भयानक युद्ध हुआ। इस लड़ाई में कुँवर सिंह की सेना ने अंग्रेजों को हरा कर , 22 मार्च 1858 को आज़मगढ़ पर कब्ज़ा कर लिया। 23 अप्रैल 1858 को ही अपनी जीत का उत्सव मनाते हुए लोगों ने यूनियन जैक यानि ( अंग्रेजों का झंडा ) उतारकर अपना झंडा फहराया। परन्तु इसके तीन दिन बाद ही 26 अप्रैल 1858 को यह वीर इस संसार से विदा होकर अपनी अमर कहानी छोड़ गया अर्थात वीर कुँवर सिंह का निधन हो गया और अपने पीछे वे अपनी बहादुरी के किस्से छोड़ गए जिन्हे आज भी गर्व के साथ याद किया जाता है। स्वतंत्रता की लड़ाई के वीर सेनापति वीर कुँवर सिंह हर तरह की युद्ध – कला में पूरी तरह से प्रशिक्षित थे। अचानक या एकाएक किसी पर आक्रमण करने की युद्ध कला में वीर कुँवर सिंह बहुत ही योग्य थे। उनकी योजनाएँ इतनी कारगर थी कि उनके दुश्मन को उनके सामने से या तो भागना पड़ता था या अपनी मौत को गले लगाना पड़ता था। कहा जाता है एक बार वीर कुँवर सिंह को अपनी सेना के साथ गंगा पार करनी थी। अंग्रेजी सेना से अपनी सेना को बचाने के लिए उन्होंने अंग्रेजी सेना को गलत ख़बर पहुँचा दी कि वे अपनी सेना को बलिया के पास हाथियों पर चढ़ाकर पार कराएँगे। परन्तु इसके विपरीत कुँवर सिंह ने बलिया से सात मील दूर शिवराजपुर नामक स्थान पर अपनी सेना को नावों से गंगा पार करा दिया। जब डगलस को इस घटना की सूचना मिली तो वह बलिया के निकट गंगा तट से भागते हुए शिवराजपुर पहुँचा , परन्तु तब तक तो कुँवर सिंह की तो पूरी सेना गंगा पार कर चुकी थी। केवल एक अंतिम नाव ही रह गई थी और कुँवर सिंह उसी नाव पर सवार हो कर गंगा नदी पार कर रहे थे। अंग्रेज़ सेनापति डगलस को वीर कुँवर सिंह पर हमला करने का यह अच्छा मौका मिल गया था । जैसे ही सेनापति डगलस ने वीर कुँवर सिंह को जाते हुए देखा उसने गोलियाँ बरसानी शुरू कर दीं , उसकी गोलियों में से एक गोली कुँवर सिंह के बाएँ हाथ की कलाई को भेदती हुई निकल गई। वीर कुँवर सिंह अपने से अधिक अपने साथियों की सुरक्षा के लिए तत्पर रहते थे तभी वे सबसे अंत में सब को सुरक्षित भेजने के बाद गंगा पार कर रहे थे और वे अत्यधिक बहादुर थे क्योंकि जब उन्हें गोली लगी तो पुरे शरीर के अस्वस्थ हो जाने के डर से उन्होंने तुरंत अपना हाथ काट दिया। वीर कुँवर सिंह ने केवल ब्रिटिश शासन के साथ मुकाबला ही नहीं किया था बल्कि उन्होंने समाज की भलाई के लिए अनेक सामाजिक कार्य भी किए थे। उन्होनें आरा जिला स्कूल के लिए अपनी ज़मीन दान में दी थी , जिस पर स्कूल के भवन का निर्माण किया गया। यह भी कहा जाता है कि उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी , परन्तु फिर भी वे अपने सामर्थ्य के अनुसार गरीब व्यक्तियों की सहायता किया करते थे। उन्होंने अपने इलाके में लोगों के सुख के लिए अनेक सुविधाएँ प्रदान की थीं। उनमें से एक है – आरा – जगदीशपुर सड़क और आरा – बलिया सड़क का निर्माण। उस समय पानी की अपनी आवश्यकता को पूरा करने के  लिए लोग कुएँ खुदवाते थे और तालाब बनवाते थे। वीर कुँवर सिंह ने भी उस समय अनेक कुएँ खुदवाए और तालाब भी बनवाए थे। कुँवर सिंह बहुत ही बड़े दिल के एवं बहुत ही अधिक भावुक प्रवृति के व्यक्ति थे। अर्थात वे किसी भी व्यक्ति को दुःख में नहीं देख सकते थे। इब्राहीम खाँ और किफ़ायत हुसैन उनकी सेना में ऊँचे पदों पर आसीन थे , इससे पता चलता है कि वीर कुँवर सिंह हिन्दुओं और मुसलमानों में कोई भेद नहीं करते थे। उनके यहाँ हिन्दुओं और मुसलमानों के सभी त्योहार एक साथ मिलकर मनाए जाते थे। उन्होंने पाठशालाएँ तो बनवाई ही थी साथ ही साथ उन्होंने इस्लाम धर्म की शिक्षा – दीक्षा की पाठशालाओं को भी बनवाया था। वीर कुँवर सिंह ने आजादी की लड़ाई में शहीद होने वाले एक बहुत ही बहादुर सिपाही थे , जिन्हें आज भी उनकी वीरता के लिए याद किया जाता है और उनका गुणगान आज भी गीतों के माध्यम से होता है।

 

 

वीर कुँवर सिंह पाठ व्याख्या (Explanation)

आपने सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ‘ झाँसी की रानी ’ छठी कक्षा में पढ़ी होगी। इस कविता में ठाकुर कुँवर सिंह का नाम भी आया है। आपको कविता की पंक्तियाँ याद आ रही होंगी। एक बार फिर से इन पंक्तियों को पढ़िए –

इस स्वतंत्रता – महायज्ञ में कई वीरवर आए काम ,

नाना धुंधूपंत , ताँतिया , चतुर अशीमुल्ला सरनाम।

अहमद शाह मौलवी , ठाकुर कुँवर सिंह सैनिक अभिराम ,

भारत के इतिहास – गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम ।।

शब्दार्थ –

वीरवर – वीर योद्धा

नोट – इस गद्यांश में दी गई पंक्तियों को इस पाठ में लिखने का आश्य हमें ठाकुर कुँवर सिंह की याद दिलाना है।

व्याख्या – छठी कक्षा में आपने ‘ झाँसी की रानी ’ नामक कविता पढ़ी होगी , जिसकी कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान जी हैं। अगर आपको ‘ झाँसी की रानी ’ कविता याद है तो आपको यह भी याद होगा कि उसमें ठाकुर कुँवर सिंह का नाम भी आया है। इस समय भी आपको कविता की वे पंक्तियाँ याद आ रही होंगी। यदि नहीं तो एक बार फिर से इन पंक्तियों को पढ़िए आपको सब याद आ जाएगा –

इस स्वतंत्रता – महायज्ञ में कई वीरवर आए काम ,

नाना धुंधूपंत , ताँतिया , चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम।

अहमद शाह मौलवी , ठाकुर कुँवर सिंह सैनिक अभिराम ,

भारत के इतिहास – गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम ।।

इस पद में हमारे स्वतंत्रता संग्राम में लड़ने और शहीद होने वाले कई बड़े वीरों का उल्लेख किया गया है। नाना धुंधूपंत , ताँतिया , चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम , अहमद शाह मौलवी , ठाकुर कुँवर सिंह तथा सैनिक अभिराम आदि ऐसे ही वीर और साहसी क्रांतिकारी थे , जिन्होंने युद्ध में दुश्मनों से जमकर संघर्ष किया था और इन वीर योद्धाओं के नाम भारत के इतिहास में हमेशा अमर रहने वाले हैं।

यहाँ स्वतंत्रता संग्राम के उसी वीर कुँवर सिंह के बारे में जानकारी दी जा रही है। सन् 1857 के व्यापक सशस्त्र – विद्रोह ने भारत में ब्रिटिश शासन की जड़ों को हिला दिया। भारत में ब्रिटिश शासन ने जिस दमन नीति को आरंभ किया उसके विरुद्ध विद्रोह शुरू हो गया था। मार्च 1857 में बैरकपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत करने पर मंगल पांडे को 8 अप्रैल 1857 को फाँसी दे दी गई। 10 मई 1857 को मेरठ में भारतीय सैनिकों ने ब्रिटिश अधिकारियों के विरुद्ध आंदोलन किया और सीधे दिल्ली की ओर कूच कर गए। दिल्ली में तैनात सैनिकों के साथ मिलकर 11 मई को उन्होंने दिल्ली पर कब्जा कर लिया और अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह ज़फ़र को भारत का शासक घोषित कर दिया। यह विद्रोह जंगल की आग की भाँति दूर – दूर तक फैल गया। कई महीनों तक उत्तरी और मध्य भारत के विस्तृत भूभाग पर विद्रोहियों का कब्जा रहा।

शब्दार्थ –

व्यापक – विस्तृत , चारों ओर फैला हुआ , छाया हुआ , घेरने या ढकने वाला , विशद , समावेशी

सशस्त्र – शस्त्रों के साथ

विद्रोह – बगावत , राजद्रोह , ख़िलाफ़त , क्रांति

दमन  – शमन , दबाव , अवरोध , निरोध , नियंत्रण

कूच – किसी स्थान के लिए किया जाने वाला प्रस्थान , रवानगी , यात्रा की शुरुआत

तैनात – किसी काम पर लगाया या नियत किया हुआ , मुकर्रर , नियत , नियुक्त

घोषित – जिसकी घोषणा की गई हो , जो जानकारी में हो

विस्तृत – फैला हुआ , विशाल , लंबा – चौड़ा , खुला हुआ

नोट – इस गद्यांश में 1857 के विद्रोह की एक झलक दिखाई गई है।

व्याख्या – सुभद्रा कुमारी जी की कविता ‘ झाँसी की रानी ‘ में जिस वीर योद्धा ठाकुर कुँवर सिंह का वर्णन किया गया है , इस पाठ में स्वतंत्रता संग्राम के उसी वीर कुँवर सिंह के बारे में जानकारी दी जा रही है। सन् 1857 में चारों ओर फैली हुई शस्त्रों के साथ बगावत ने भारत में ब्रिटिश शासन की जड़ों को हिला दिया।  अर्थात 1857 की बगावत ब्रिटिश शासन को भारत से खदेड़ने का पहला कदम कहा जा सकता है। असल में 1857 में लोगों के द्वारा उस दमन नीति के  विरुद्ध विद्रोह शुरू हुआ था जिसे भारत में ब्रिटिश शासन ने लोगों को जबरन अपना गुलाम बनाने तथा भारत को अपने अधीन करने के लिए शुरू किया था। इसी दमन नीति को न मानने के कारण मार्च 1857 में बैरकपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत करने पर मंगल पांडे को 8 अप्रैल 1857 को फाँसी दे दी गई। मंगल पांडे को फाँसी देने के बाद इस आंदोलन ने गति पकड़ी और 10 मई 1857 को मेरठ में भारतीय सैनिकों ने ब्रिटिश अधिकारियों के विरुद्ध आंदोलन किया और आंदोलन को सीधे दिल्ली की ओर बढ़ाते चले गए। दिल्ली पहुँचते ही उन्होंने वहाँ में नियुक्त किए गए सैनिकों के अपने साथ मिला दिया और 11 मई को उन्होंने दिल्ली पर कब्जा कर लिया अर्थात दिल्ली को अंग्रेजों से मुक्त कर दिया और अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह ज़फ़र को भारत का शासक घोषित कर दिया। यह विद्रोह इस तरह दूर – दूर तक फैल गया जिस तरह जंगल की आग कुछ ही समय में दूर – दूर तक फैल जाती है। इस बगावत के परिणामस्वरूप कई महीनों तक उत्तरी और मध्य भारत के विशाल फैले हुए भूभाग पर इन विद्रोहियों का कब्जा रहा। अर्थात बहुत लम्बे समय तक ये विद्रोही अंग्रेजों की नाक में दम करने में सफल रहे।

दिल्ली के अतिरिक्त जहाँ अत्यधिक भीषण युद्ध हुआ , वे केंद्र थे – कानपुर , लखनऊ , बरेली , बुंदेलखंड और आरा। इसके साथ ही देश के अन्य कई भागों में भी स्थानीय विद्रोह हुए। विद्रोह के मुख्य नेताओं में नाना साहेब , ताँत्या टोपे , बख्त खान , अशीमुल्ला खान , रानी लक्ष्मीबाई , बेगम हशरत महल , कुँवर सिंह , मौलवी अहमदुल्लाह , बहादुर खान और राव तुलाराम थे। 1857 का आंदोलन स्वतंत्रता प्राप्ति की दिशा में एक दृढ़ कदम था। आगे चलकर जिस राष्ट्रीय एकता और आंदोलन की नींव पड़ी , उसकी आधारभूमि को निखमत करने का काम 1857 के आंदोलन ने किया। भारत में सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ाने की दिशा में भी इस आंदोलन का विशेष महत्त्व है।

1857 के आंदोलन में वीर कुँवर सिंह का नाम कई दृष्टियों से उल्लेखनीय है। कुँवर सिंह जैसे वयोवृद्ध व्यक्ति ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ बहादुरी के साथ युद्ध  किया।

वीर कुँवर सिंह के बचपन के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं मिलती। कहा जाता है कि कुँवर सिंह का जन्म बिहार में शाहाबाद शिले के जगदीशपुर में सन् 1782 ई॰ में हुआ था। उनके पिता का नाम साहबज़ादा सिंह और माता का नाम पंचरतन कुँवर था। उनके पिता साहबज़ादा सिंह जगदीशपुर रियासत के ज़मींदार थे , परंतु उनको अपनी ज़मींदारी हासिल करने में बहुत संघर्ष करना पड़ा। पारिवारिक उलझनों के कारण कुँवर सिंह के पिता बचपन में उनकी ठीक से देखभाल नहीं कर सके। जगदीशपुर लौटने के बाद ही वे कुँवर सिंह की पढ़ाई – लिखाई की ठीक से व्यवस्था कर पाए।

शब्दार्थ –

अत्यधिक –  प्रचुर , ज़रूरत से ज़्यादा , बहुत ही अधिक

भीषण – डरावना , भयानक , बहुत बुरा , विकट , उग्र व दुष्ट स्वभाव वाला

दृढ़ –  पुष्ट , सबल , मज़बूत , पक्का , प्रगाढ़ , अटूट , अडिग , स्थायी

नींव – किसी भवन की दीवार का वह निचला हिस्सा जो ज़मीन के नीचे रहता है , मूल , जड़ , आधार , किसी रचनात्मक कार्य का आरंभ

सांप्रदायिक – संप्रदाय संबंधी ( कम्यूनल ) , किसी संप्रदाय का , दूसरे संप्रदाय के प्रति असहिष्णु

सद्भाव  – शुभ और अच्छा भाव , हित की भावना , दो पक्षों में मैत्रीपूर्ण स्थिति , मेल – जोल , द्वेष आदि से रहित भाव या विचार

वयोवृद्ध – अत्यधिक उम्रवाला , बूढ़ा

नोट – इस गद्यांश में 1857 के आंदोलन की प्रमुखता और वीर कुँवर सिंह के बचपन के बारे में बताया गया है।

व्याख्या – 1857 के विद्रोह में दिल्ली में तो विद्रोह अपनी चर्म सीमा पर था ही उसके साथ ही साथ बहुत से शहरों में भी विद्रोह बहुत ही अधिक भयानक युद्ध हुआ था , वे केंद्र थे – कानपुर , लखनऊ , बरेली , बुंदेलखंड और आरा। ये केंद्र तो बड़े शहर थे, इसके अलावा देश के अन्य कई छोटे बड़े भागों में भी स्थानीय विद्रोह हुए। कहने का तात्पर्य यह है कि 1857 के विद्रोह ने देश के कई भागों में जोर पकड़ लिया था। इस विद्रोह के मुख्य नेताओं में नाना साहेब , ताँत्या टोपे , बख्त खान , अशीमुल्ला खान , रानी लक्ष्मीबाई , बेगम हशरत महल , कुँवर सिंह , मौलवी अहमदुल्लाह , बहादुर खान और राव तुलाराम थे। 1857 के इस आंदोलन ने जिस तरह देश को प्रभावित किया था उसे देख कर कहा जा सकता है कि 1857 का आंदोलन स्वतंत्रता प्राप्ति की दिशा में एक बहुत ही मज़बूत कदम था। स्वतंत्रता प्राप्ति  दिशा में आगे चलकर जिस राष्ट्रीय एकता और आंदोलन का आरम्भ हुआ , उसकी आधार शिला को मज़बूत तथा एक तरह से पुष्ट  करने का काम 1857 के आंदोलन ने किया अर्थात कहा जा सकता है कि लोगों को स्वतंत्रता के लिए जागरूक करने के लिए 1857 के आंदोलन का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 1857 का आंदोलन उस समय भारत में एक दूसरे के संप्रदाय के प्रति द्वेष आदि से रहित भाव या विचार को बढ़ाने की दिशा में भी बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया। 1857 के आंदोलन में कई बहादुर वीर सिपाहियों ने अपना सर्वस्व त्याग दिया , उन्हीं वीर योद्धाओं में वीर कुँवर सिंह का नाम कई दृष्टियों से उल्लेखनीय है अर्थात 1857 के आंदोलन में वीर कुँवर सिंह ने भी कई महत्पूर्ण कार्यों को अंजाम दिया था। वीर कुँवर सिंह का नाम इसलिए भी महत्पूर्ण माना जाता है क्योंकि कुँवर सिंह की आयु कभी अधिक हो चुकी थी किन्तु अपनी आयु की परवाह न करते हुए उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ बहादुरी के साथ युद्ध  किया था। वीर कुँवर सिंह के बचपन के बारे में कहीं पर भी बहुत अधिक जानकारी नहीं मिलती। जितनी जानकारी मिल सकी है उसके अनुसार कहा जाता है कि कुँवर सिंह का जन्म बिहार में शाहाबाद जिले के जगदीशपुर में सन् 1782 ई॰ में हुआ था। उनके पिता का नाम साहबज़ादा सिंह बताया जाता है और माता का नाम पंचरतन कुँवर कहा जाता था। यह भी जानकारी मिलती है कि उनके पिता साहबज़ादा सिंह जगदीशपुर रियासत के ज़मींदार थे , परंतु उनको यह ज़मींदारी विरासत में नहीं मिली थी बल्कि उनको अपनी ज़मींदारी हासिल करने में बहुत संघर्ष करना पड़ा था। वीर कुँवर सिंह के परिवार में काफ़ी उलझने होने के कारण कुँवर सिंह के पिता बचपन में उनकी ठीक से देखभाल नहीं कर सके थे , वे अपनी पारिवारिक उलझनों में ही व्यस्त रहते थे और अक्सर परिवार से दूर रहते थे। जब वे पारिवारिक उलझनों से कुछ आजाद हुए और जगदीशपुर लौटे तो उसी के बाद से ही वे कुँवर सिंह की पढ़ाई – लिखाई की ठीक से व्यवस्था कर पाए थे।

कुँवर सिंह के पिता वीर होने के साथ – साथ स्वाभिमानी एवं उदार स्वभाव के व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व का प्रभाव कुँवर सिंह पर भी पड़ा। कुँवर सिंह की शिक्षा – दीक्षा की व्यवस्था उनके पिता ने घर पर ही की , वहीं उन्होंने हिंदी , संस्कृत और फ़ारसी सीखी। परंतु पढ़ने – लिखने से अधिक उनका मन घुड़सवारी , तलवारबाज़ी और कुश्ती लड़ने में लगता था।

बाबू कुँवर सिंह ने अपने पिता की मृत्यु के बाद सन् 1827 में अपनी रियासत की जिम्मेदारी सँभाली। उन दिनों ब्रिटिश हुकूमत का अत्याचार चरम सीमा पर था।इससे लोगों में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ भयंकर असंतोष उत्पन्न हो रहा था। कृषि , उद्योग और व्यापार का तो बहुत ही बुरा हाल था। रजवाड़ों के राजदरबार भी समाप्त हो गए थे। भारतीयों को अपने ही देश में महत्त्वपूर्ण और ऊँची नौकरियों से वंचित कर दिया गया था। इससे ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध देशव्यापी संघर्ष की स्थिति बन गई थी। ऐसी स्थिति में कुँवर सिंह ने ब्रिटिश हुकूमत से लोहा लेने का संकल्प लिया।

शब्दार्थ –

स्वाभिमानी – वह व्यक्ति जिसे अपनी प्रतिष्ठा का गौरव या अभिमान हो , ख़ुद्दार , अपनी इज़्ज़त का ख़याल रखने वाला , स्वाभिमानवाला

उदार –  विशाल हृदयवाला , दयालु , दानशील , भला , दूसरों में गुण देखने वाला

व्यक्तित्व –  अलग सत्ता , पृथक अस्तित्व , निजी विशेषता , वैशिष्ट्य

चरम सीमा – किसी बात या कार्य की अंतिम अवस्था , चरम अवस्था , पराकाष्ठा , हद

असंतोष – नाख़ुशी , नाराज़गी , अप्रसन्नता , अतृप्ति

रजवाड़ा – देसी रियासत , राजाओं के रहने का स्थान , रियासत का मालिक , राजा

राजदरबार –  राजा का दरबार , राजओं का सभागृह

वंचित –  जिसे वांछित वस्तु प्राप्त न हुई हो या प्राप्त करने से रोका गया हो , महरूम , हीन , रहित , विमुख

देशव्यापी – पूरे देश में व्याप्त , सारे देश में फैला हुआ , जो देश भर में मिलता हो , बहुत विस्तृत

लोहा लेना – मुकाबला करना

संकल्प – दृढ़ निश्चय , प्रतिज्ञा , इरादा , विचार , कोई कार्य करने की दृढ इच्छा या निश्चय

नोट – इस गद्यांश में वीर कुँवर सिंह के पिता और उनके ब्रिटिश शासन को देश से बाहर खदेड़ने के इरादे का वर्णन किया गया है।

व्याख्या – कुँवर सिंह के पिता के बारे में जानकारी मिलती है कि वे वीर अर्थात बहादुर होने के साथ – साथ अपनी इज़्ज़त का ख़याल रखने वाले एवं बहुत ही विशाल हृदय वाले व्यक्ति थे। उनकी इसी निजी विशेषता का प्रभाव कुँवर सिंह पर भी पड़ा अर्थात वीर कुँवर सिंह भी अपने पिता की ही तरह बहादुर और दयालु व्यक्ति थे। कुँवर सिंह कभी विद्यालय नहीं गए बल्कि उनकी शिक्षा – दीक्षा की व्यवस्था उनके पिता ने घर पर ही की थी, घर पर ही उन्होंने हिंदी , संस्कृत और फ़ारसी सीखी थी। परंतु जानकारी के अनुसार कुँवर सिंह का पढ़ने – लिखने में उतना मन नहीं लगता था , जितना मन घुड़सवारी , तलवारबाज़ी और कुश्ती लड़ने में लगता था। कहने का तात्पर्य यह है कि वीर कुँवर सिंह को पढ़ने – लिखने से अधिक खेलने – कूदने तथा घुड़सवारी , तलवारबाज़ी और कुश्ती अच्छी लगती थी। वीर कुँवर सिंह के पिता का जब निधन हो गया तब उन्होंने अपने पिता की के बाद सन् 1827 में अपनी रियासत की जिम्मेदारी सँभाली। उस समय ब्रिटिश शासन का अत्याचार भारतीयों के प्रति बहुत अधिक बढ़ गया था , कहा जा सकता है कि ब्रिटिश सरकार का अत्याचार अपनी सारी हदें पार कर चूका था। इस बढ़ते हुए अत्याचार के कारण ही लोगों में ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ बहुत अधिक नाराज़गी पैदा हो रही थी। उस समय कृषि , उद्योग और व्यापार का तो बहुत ही बुरा हाल था ही साथ ही साथ देसी रियासतों तथा राजा का दरबार आदि को भी अंग्रेजों ने समाप्त कर दिया था ताकि वे सम्पूर्ण भारत पर अपना अधिकार कर सकें।  ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को अपने ही देश में महत्त्वपूर्ण और ऊँची नौकरियों से विमुख कर दिया गया था अर्थात भारतीयों को अपने ही देश में किसी भी बड़े पद पर नौकरी नहीं दी जाती थी ऊँचे पदों पर केवल अंग्रेज अधिकारी ही हुआ करते थे। इन सभी से भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक ऐसे संघर्ष की स्थिति बन गई थी जो पुरे देश में फैलता जा रहा था। ऐसी स्थिति को देखते हुए कुँवर सिंह ने ब्रिटिश शासन से मुकाबला करने का इरादा कर लिया था। कहने का तात्पर्य यह है कि जब वीर कुँवर सिंह ने देश को खोखला होते हुए देखा तो उन्होंने ब्रिटिश शासन को देश से खदेड़ने का मन बना दिया था।

जगदीशपुर के जंगलों में ‘ बसुरिया बाबा ’ नाम के एक सिद्ध संत रहते थे। उन्होंने ही कुँवर सिंह में देशभक्ति एवं स्वाधीनता की भावना उत्पन्न की थी। उन्होंने बनारस , मथुरा , कानपुर , लखनऊ आदि स्थानों पर जाकर विद्रोह की सक्रिय योजनाएँ बनाईं। वे 1845 से 1846 तक काफ़ी सक्रिय रहे और गुप्त ढंग से ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ विद्रोह की योजना बनाते रहे। उन्होंने बिहार के प्रसिद्ध सोनपुर मेले को अपनी गुप्त बैठकों की योजना के लिए चुना। सोनपुर के मेले को एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला माना जाता है। यह मेला कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर लगता है। यह हाथियों के क्रय – विक्रय के लिए भी विख्यात है। इसी ऐतिहासिक मेले में उन दिनों स्वाधीनता के लिए लोग एकत्र होकर क्रांति के बारे में योजना बनाते थे।

25 जुलाई 1857 को दानापुर की सैनिक टुकड़ी ने विद्रोह कर दिया और सैनिक सोन नदी पार कर आरा की ओर चल पड़े। कुँवर सिंह से उनका संपर्क पहले से ही था। इस मुक्तिवाहिनी के सभी बागी सैनिकों ने कुँवर सिंह का जयघोष करते हुए आरा पहुँचकर जेल की सलाखें तोड़ दीं और कैदियों को आज़ाद कर दिया। 27 जुलाई 1857 को कुँवर सिंह ने आरा पर विजय प्राप्त की।

सिपाहियों ने उन्हें फौजी सलामी दी। यद्यपि कुँवर सिंह बूढ़े हो चले थे परंतु वह बूढ़ा शूरवीर इस अवस्था में भी युद्ध के लिए तत्पर हो गया और आरा क्रांति का महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गया।

शब्दार्थ –

सिद्ध – जिसकी साधना पूरी हो चुकी हो , संपन्न ,,ज्ञानी , पूर्ण योगी , संत , महात्मा

सक्रिय – जो कोई क्रिया कर रहा हो , क्रियाशील , कर्मठ

गुप्त –  छिपा या छिपाया हुआ , अदृश्य , जिसके संबंध में लोग परिचित न हों

विख्यात – जिसकी बहुत ख्याति हो , प्रसिद्ध , मशहूर

ऐतिहासिक – इतिहास में उल्लिखित , इतिहास संबंधी , कोई बहुत महत्वपूर्ण तथा स्मरणीय घटना

स्वाधीनता –  स्वतंत्रता , आज़ादी

एकत्र – एक स्थान पर जमा , इकट्ठा , एक जगह संगृहीत

संपर्क –  मिलावट , संयोग , मेल , वास्ता , संगति

मुक्तिवाहिनी – गुलामी की बेड़ियों से मुक्त होने के लिए किए गए आंदोलन का नाम

बागी – . बगावत करने वाला , विद्रोही , न दबने वाला , अवज्ञाकारी , उपेक्षाकारी

जयघोष –  ज़ोर से कही जाने वाली किसी की जय , जय ध्वनि , विजय का ढिंढोरा

सलाखें – जेल में लोहे के डंडे

तत्पर – किसी कार्य को लगन और निष्ठा के साथ करने वाला , तल्लीन , उद्यत , आज्ञाकारी , आतुर , उत्साही , इच्छुक

नोट – इस गद्यांश में ‘ बसुरिया बाबा ’ और वीर कुँवर सिंह के द्वारा आजादी के लिए किए गए प्रयासों का वर्णन किया गया है।

व्याख्या – जानकारी मिलती है कि जगदीशपुर के जंगलों में एक महात्मा ज्ञानी रहते थे , जिन्हे सभी ‘ बसुरिया बाबा ’ के नाम से जानते थे। उन्हीं बाबा ने ही कुँवर सिंह में देशभक्ति एवं स्वाधीनता की भावना उत्पन्न की थी अर्थात उन्ही बाबा ने वीर कुँवर सिंह को देश के प्रति प्रेम और देश की स्वतंत्रता के लिए जान न्योछावर करने के लिए प्रेरित किया था। उन्ही बाबा ने बनारस , मथुरा , कानपुर , लखनऊ आदि स्थानों पर जाकर अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन की सक्रिय योजनाएँ बनाईं थी। वे 1845 से 1846 तक बहुत अधिक क्रियाशील रहे और छुपते – छुपाते ही ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ विद्रोह की योजना बनाते रहे। उन्होंने अपनी गुप्त बैठकों की योजना के लिए बिहार के प्रसिद्ध सोनपुर मेले को चुना क्योंकि उस भीड़ भड़ाके में किसी का ध्यान उनकी और जाना स्वाभाविक नहीं था। सोनपुर का मेला इसलिए भी महत्वपूर्ण मन जाता है क्योंकि इस मेले को एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला माना जाता है। यह मेला कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर लगता है। यह मेला मुख्यतः हाथियों को खरीदने और बेचने के लिए भी प्रसिद्ध है। इसी इतिहास में उल्लिखित मेले में उन दिनों देश तथा अपनी स्वतंत्रता के लिए लोग इकट्ठा होकर क्रांति के बारे में योजना बनाते थे। इन्ही योजनाओं के तहत 25 जुलाई 1857 को दानापुर की सैनिक टुकड़ी ने आंदोलन  कर दिया और सभी सैनिक आंदोलन करते हुए सोन नदी पार कर आरा की ओर चल पड़े। इन सभी योजनाओं से कुँवर सिंह पहले से ही परिचित होते थे जिस वजह से जब वे सैनिक सोन नदी पार कर आरा पहुंचे तो वीर कुँवर सिंह से उनका संपर्क पहले से ही था। गुलामी की बेड़ियों से मुक्त होने के लिए किए गए इस आंदोलन के सभी बगावत करने वाले सैनिकों ने कुँवर सिंह के विजय का ढिंढोरा पीटते हुए आरा पहुँचकर जेल की सलाखें तोड़ दीं और वहाँ कैद कैदियों को आज़ाद कर दिया। दो दिन बाद 27 जुलाई 1857 को कुँवर सिंह ने आरा पर अपना अधिकार स्थापित कर दिया। वीर कुँवर सिंह को सिपाहियों ने फौजी सलामी दी। यद्यपि कुँवर सिंह उस समय बूढ़े हो चले थे परंतु वह बूढ़ा शूरवीर अपनी उम्र की इस अवस्था में भी युद्ध के लिए लगन और निष्ठा के साथ तैयार हो गया और आरा क्रांति का महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गया। कहने का तात्पर्य यह है कि वीर कुँवर सिंह भले ही वृद्धावस्था की ओर थे परन्तु उनके जोश में कोई कमी नहीं थी।

दानापुर और आरा की इस लड़ाई की ज्वाला बिहार में सर्वत्र व्याप्त हो गई थी। लेकिन देशी सैनिकों में अनुशासन की कमी , स्थानीय ज़मींदारों का अंग्रेजों के साथ सहयोग करना एवं आधुनिकतम शस्त्रों की कमी के कारण जगदीशपुर का पतन रोका न जा सका। 13 अगस्त को जगदीशपुर में कुँवर सिंह की सेना अंग्रेज़ो से परास्त हो गई। किन्तु इससे वीरवर कुँवर सिंह का आत्मबल टूटा नहीं और वे भावी संग्राम की योजना बनाने में तत्पर हो गए। वे क्रांति के अन्य संचालक नेताओं से मिलकर इस आज़ादी की लड़ाई को आगे बढ़ाना चाहते थे। कुँवर सिंह सासाराम से मिर्ज़ापुर होते हुए रीवा , कालपी , कानपुर एवं लखनऊ तक गए। लखनऊ में शांति नहीं थी इसलिए बाबू कुँवर सिंह ने आज़मगढ़ की ओर प्रस्थान किया। उन्होंने आज़ादी की इस आग को बराबर जलाए रखा। उनकी वीरता की कीर्ति पूरे उत्तर भारत में फैल गई। कुँवर सिंह की इस विजय यात्रा से अंग्रेज़ों के होश उड़ गए। कई स्थानों के सैनिक एवं राजा कुँवर सिंह की अधीनता में लड़े। उनकी यह आज़ादी की यात्रा आगे बढ़ती रही , लोग शामिल होते गए और उनकी अगुवाई में लड़ते रहे। इस प्रकार ग्वालियर , जबलपुर के  सैनिकों के सहयोग से सफल सैन्य रणनीति का प्रदर्शन करते हुए वे लखनऊ पहुँचे।

आज़मगढ़ की ओर जाने का उनका उद्देश्य था – इलाहाबाद एवं बनारस पर आक्रमण कर शत्रुओं को पराजित करना और अंततः जगदीशपुर पर अधिकार करना। अंग्रेज़ों और कुँवर सिंह की सेना के बीच घमासान युद्ध हुआ। उन्होंने 22 मार्च 1858 को आज़मगढ़ पर कब्ज़ा कर लिया। अंग्रेज़ों ने दोबारा आज़मगढ़ पर आक्रमण किया। कुँवर सिंह ने एक बार फिर आज़मगढ़ में अंग्रेज़ों को हराया। इस प्रकार अंग्रेजी सेना को परास्त कर वीर कुँवर सिंह 23 अप्रैल 1858 को स्वाधीनता की विजय पताका फहराते हुए जगदीशपुर पहुँच गए। किन्तु इस बूढ़े शेर को बहुत अधिक दिनों तक इस विजय का आनंद लेने का सौभाग्य न मिला। इसी दिन विजय उत्सव मनाते हुए लोगों ने यूनियन जैक ( अंग्रेजों का झंडा ) उतारकर अपना झंडा फहराया। इसके तीन दिन बाद ही 26 अप्रैल 1858 को यह वीर इस संसार से विदा होकर अपनी अमर कहानी छोड़ गया।

शब्दार्थ –

ज्वाला – आग की लपट या लौ , अग्निशिखा , दुख आदि से होने वाली मानसिक पीड़ा , संताप

सर्वत्र – सब स्थानों पर , सब जगह , हर तरफ़ , पूर्ण रूप से

व्याप्त –  फैला हुआ , समाया हुआ , सब ओर से आच्छादित या ढका हुआ

आधुनिक – वर्तमान समय या युग का , समकालीन

शस्त्र – हथियार , आयुध , औज़ार , युद्ध के समय लड़ाई का उपकरण

पतन – ऊपर से नीचे आने या गिरने का भाव या क्रिया , मरण , संहार , नाश , घटाव

परास्त – पराजित , हारा हुआ या हराया हुआ , दबा हुआ , झुका हुआ , विनष्ट , ध्वस्त

आत्मबल – आत्मा या मन का बल , आत्मिक शक्ति

भावी – भविष्य में होने वाली बात , भविष्यत , आगामी , भविष्यकालीन

संग्राम –  घमासान , युद्ध , लड़ाई , रण

तत्पर – किसी कार्य को लगन और निष्ठा के साथ करने वाला , आतुर , उत्साही , इच्छुक , तैयार

संचालक – किसी बड़े कार्य ( कार्यालय , संस्था , कारख़ाने आदि ) के सभी काम देखने , करने या कराने वाला व्यक्ति , ( डाइरेक्टर )

प्रस्थान – किसी स्थान से दूसरे स्थान को जाना , चलना , गमन , सेना का युद्धक्षेत्र की ओर जाना , कूच , मार्ग , रास्ता

कीर्ति –  ख्याति , बड़ाई , यश , प्रसिद्धि , नेकनामी , शोहरत

अधीनता – मातहती , परवशता , विवशता , दीनता , लाचारी , आश्रय , नेतृत्व

सैन्य –  सेना का , सेना से संबंधित

रणनीति –  युद्ध संबंधी नीति नियम , युद्ध कौशल , योजना , कूटनीति , उपाय , युक्ति

विजय पताका  – जीत का परचम

नोट – इस गद्यांश में वीर कुँवर सिंह की सूझ – बूझ और सफलता का वर्णन किया गया है और साथ ही साथ उनकी मृत्यु का भी वर्णन किया गया है।

व्याख्या – आजादी की लड़ाई के आंदोलन की लपटें दानापुर और आरा की इस लड़ाई से बिहार में सब स्थानों पर फैल गई थी। इस आंदोलन को इतनी सफलता मिल जाने के बाद भी कई कारणों से असफल हो गया। इन कारणों में मुख्य कारण थे , देसी सैनिकों में अनुशासन की कमी का होना , स्थानीय ज़मींदारों का बगावत करने वाले सैनिकों का साथ न दे कर अंग्रेजों के साथ सहयोग करना तथा उस समय के जो समकालीन युद्ध के समय लड़ाई के उपकरण थे , बगावत करने वाले सैनिकों  के पास उनकी कमी थी जिसके कारण जगदीशपुर का संहार नहीं रोका जा सका अर्थात आंदोलन अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सका और 13 अगस्त को जगदीशपुर में कुँवर सिंह की सेना को अंग्रेज़ो से हार का सामना करना पड़ा। परन्तु इससे वीरवर कुँवर सिंह का आत्म विश्वास टूटा नहीं और वे भविष्य में होने वाले स्वतंत्रता प्राप्ति के युद्ध की योजना बनाने में लगन और निष्ठा के साथ तैयारियाँ करने में लग गए अर्थात एक बार असफल हो जाने के कारण उन्होंने पीछे हटने के बजाए अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तैयारियाँ करना सही समझा। वे बगावत करने वाले लोगों के अपनी तरह दूसरे सक्रीय नेताओं से मिलकर इस आज़ादी की लड़ाई को आगे बढ़ाना चाहते थे। इन्हीं नेताओं से बातचीत करने और अपनी योजनाओं को सफल बनाने के लिए कुँवर सिंह सासाराम से मिर्ज़ापुर होते हुए रीवा , कालपी , कानपुर एवं लखनऊ तक गए। लखनऊ में उन्हें वो शांति नहीं मिली जो उनकी योजनाओं के लिए सहायक हो , इसलिए बाबू कुँवर सिंह ने आज़मगढ़ की ओर चल पड़े। उन्होंने आज़ादी की इस आग को न तो अपने अंदर भुजने दिया और न ही दूसरों को ढ़ीला पड़ने दिया। वीर कुँवर सिंह इतने बहादुर थे कि उनकी वीरता की प्रसिद्धि पूरे उत्तर भारत में फैल गई। वीर कुँवर सिंह आजादी की लड़ाई की इस विजय यात्रा में सभी को इस तरह जोड़े जा रहे थे की उनके इस कदम से अंग्रेज़ों के होश उड़ गए थे। कई स्थानों के सैनिक एवं राजा कुँवर सिंह के नेतृत्व में स्वतंत्रता की लड़ाई लड़े। उनकी इस आज़ादी की यात्रा में लोग जुड़ते चले गए और वे अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ते चले गए , लोग शामिल होते गए और उनके नेतृत्व  में स्वतंत्रता के लिए लड़ते रहे। इस प्रकार ग्वालियर , जबलपुर के सैनिकों के सहयोग से सेना के युद्ध सम्बन्धी कौशल का सफलता पूर्वक उपयोग करके और सैनिकों का अच्छा प्रदर्शन करते हुए वे लखनऊ पहुँचे। उनका उद्देश्य लखनऊ से आज़मगढ़ की ओर जाने का था – इलाहाबाद एवं बनारस पर आक्रमण कर शत्रुओं को हरा कर और अंत में  जगदीशपुर पर अधिकार करना उनकी योजना का अगला कदम था। स्वतंत्रता की इस लड़ाई में अंग्रेज़ों और कुँवर सिंह की सेना के बीच भयानक युद्ध हुआ। इस लड़ाई में कुँवर सिंह की सेना ने अंग्रेजों को हरा कर , 22 मार्च 1858 को आज़मगढ़ पर कब्ज़ा कर लिया। उसके बाद अंग्रेज़ों ने दोबारा आज़मगढ़ पर हमला कर दिया। लेकिन इस बार भी वे सफल नहीं हो पाए और कुँवर सिंह ने एक बार फिर आज़मगढ़ में अंग्रेज़ों को हराया दिया। दूसरी बार अंग्रेजी सेना को हरा कर वीर कुँवर सिंह 23 अप्रैल 1858 को स्वाधीनता के सफर में अपनी सफलता का परचम फहराते हुए जगदीशपुर पहुँच गए। किन्तु अब वीर कुँवर सिंह बूढ़े हो चले थे और अपनी जीत की ख़ुशी इस बूढ़े शेर को बहुत अधिक दिनों तक आनंदित नहीं कर पाई अर्थात उनके भाग्य में इस सफलता की खुशी ज्यादा दिन तक नहीं लिखी थी। 23 अप्रैल 1858 को ही अपनी जीत का उत्सव मनाते हुए लोगों ने यूनियन जैक यानि ( अंग्रेजों का झंडा ) उतारकर अपना झंडा फहराया। परन्तु इसके तीन दिन बाद ही 26 अप्रैल 1858 को यह वीर इस संसार से विदा होकर अपनी अमर कहानी छोड़ गया अर्थात वीर कुँवर सिंह का निधन हो गया और अपने पीछे वे अपनी बहादुरी के किस्से छोड़ गए जिन्हे आज भी गर्व के साथ याद किया जाता है।

स्वाधीनता सेनानी वीर कुँवर सिंह युद्ध – कला में पूरी तरह कुशल थे। छापामार युद्ध करने में उन्हें महारत हासिल थी। कुँवर सिंह के रणकौशल को अंग्रेज़ी सेनानायक समझने में पूर्णतः असमर्थ थे। दुश्मन को उनके सामने से या तो भागना पड़ता था या कट मरना पड़ता था। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में इन्होंने तलवार की जिस धार से अंग्रेज़ी सेना को मौत के घाट उतारा उसकी चमक आज भी भारतीय इतिहास के पृष्ठों पर अंकित है। उनकी बहादुरी के बारे में अनेक किस्से प्रचलित हैं।

कहा जाता है एक बार वीर कुँवर सिंह को अपनी सेना के साथ गंगा पार करनी थी। अंग्रेज़ी सेना निरंतर उनका पीछा कर रही थी , पर कुँवर सिंह भी कम चतुर नहीं थे। उन्होंने अफवाह फैला दी कि वे अपनी सेना को बलिया के पास हाथियों पर चढ़ाकर पार कराएँगे। फिर क्या था , अंग्रेज़ सेनापति डगलस बहुत बड़ी सेना लेकर बलिया के निकट गंगा तट पर पहुँचा और कुँवर सिंह की प्रतीक्षा करने लगा। कुँवर सिंह ने बलिया से सात मील दूर शिवराजपुर नामक स्थान पर अपनी सेना को नावों से गंगा पार करा दिया। जब डगलस को इस घटना की सूचना मिली तो वह भागते हुए शिवराजपुर पहुँचा , पर कुँवर सिंह की तो पूरी सेना गंगा पार कर चुकी थी। एक अंतिम नाव रह गई थी और कुँवर सिंह उसी पर सवार थे। अंग्रेज़ सेनापति डगलस को अच्छा मौका मिल गया। उसने गोलियाँ बरसानी आरंभ कर दीं , तब कुँवर सिंह के बाएँ हाथ की कलाई को भेदती हुई एक गोली निकल गई। कुँवर सिंह को लगा कि अब हाथ तो बेकार हो ही गया और गोली का शहर भी फैलेगा , उसी क्षण उन्होंने गंगा मैया की ओर भावपूर्ण नेत्रों से देखा और अपने बाएँ हाथ को काटकर गंगा मैया को अर्पित कर दिया। कुँवर सिंह ने अपने ओजस्वी स्वर में कहा , ” हे गंगा मैया ! अपने प्यारे की यह अकिंचन भेंट स्वीकार करो। ”

शब्दार्थ –

सेनानी – सेनापति , सिपहसलार , सेना का नायक

कुशल – जो किसी काम को करने में दक्ष हो , जो किसी काम को श्रेष्ठ तरीके से करता हो , प्रशिक्षित , योग्य

छापामार – अचानक या एकाएक किसी पर आक्रमण करना

महारत –  निपुणता , दक्षता , योग्यता , अभ्यास , हस्तकौशल

पूर्णतः –  पूर्ण रूप से , अच्छी तरह , सम्यक

असमर्थ –  अक्षम , अशक्त , दुर्बल , अपेक्षित शक्ति या योग्यता न रखने वाला

अंकित – चिह्नित , लिखित , चित्रित , मुद्रित , उत्कीर्ण , खुदा हुआ

प्रचलित – जिसका प्रचलन हो , जो उपयोग या व्यवहार में आ रहा हो

निरंतर – सदा , हमेशा , लगातार , बिना किसी अंतराल के

अफवाह – गलत ख़बर

भावपूर्ण – भावों से युक्त भावनात्मक , भावनापूर्ण , भावनामय , भावप्रधान

ओजस्वी – जिसमें ओज हो , शक्तिशाली , तेजस्वी , प्रभावशाली , जोश पैदा करने वाला

अकिंचन – अतिनिर्धन , दरिद्र , कंगाल , मामूली , महत्वहीन

नोट – इस गद्यांश में वीर कुँवर सिंह की वीरता के किस्सों का वर्णन किया गया है।

व्याख्या – स्वतंत्रता की लड़ाई के वीर सेनापति वीर कुँवर सिंह हर तरह की युद्ध – कला में पूरी तरह से प्रशिक्षित थे। अचानक या एकाएक किसी पर आक्रमण करने की युद्ध कला में वीर कुँवर सिंह बहुत ही योग्य थे। कुँवर सिंह युद्ध करने और युद्ध की योजना बनाने में इतने निपुण थे कि अंग्रेज़ी सेनापति उनकी योजनाओं को समझने में पूरी तरह से अक्षम थे अर्थात अंग्रेज़ी सेनापति वीर कुँवर सिंह की योजनाओं का अंदाजा नहीं लगा पाते थे। उनकी योजनाएँ इतनी कारगर थी कि उनके दुश्मन को उनके सामने से या तो भागना पड़ता था या अपनी मौत को गले लगाना पड़ता था। 1857 के स्वतंत्रता प्राप्ति के युद्ध में वीर कुँवर सिंह ने तलवार की जिस धार से अंग्रेज़ी सेना को मौत के घाट उतारा था उसकी चमक आज भी भारतीय इतिहास के पृष्ठों पर चिह्नित है अर्थात भारतीय इतिहास में वीर कुँवर सिंह के द्वारा किए गए युद्धों का वर्णन किया गया है। उनकी बहादुरी के बारे में अनेक किस्से प्रचलित हैं। कहा जाता है एक बार वीर कुँवर सिंह को अपनी सेना के साथ गंगा पार करनी थी। अंग्रेज़ी सेना उन्हें पकड़ने के लिए लगातार उनका पीछा कर रही थी , पर कुँवर सिंह भी कम चतुर नहीं थे। अंग्रेजी सेना से अपनी सेना को बचाने के लिए उन्होंने अंग्रेजी सेना को गलत ख़बर पहुँचा दी कि वे अपनी सेना को बलिया के पास हाथियों पर चढ़ाकर पार कराएँगे। फिर क्या था , उनकी यह ख़बर मिलते ही अंग्रेज़ सेनापति डगलस बहुत बड़ी सेना लेकर बलिया के निकट गंगा तट पर उन्हें पकड़ने के लिए पहुँचा और कुँवर सिंह का इंतजार करने लगा। परन्तु इसके विपरीत कुँवर सिंह ने बलिया से सात मील दूर शिवराजपुर नामक स्थान पर अपनी सेना को नावों से गंगा पार करा दिया। जब डगलस को इस घटना की सूचना मिली तो वह बलिया के निकट गंगा तट से भागते हुए शिवराजपुर पहुँचा , परन्तु तब तक तो कुँवर सिंह की तो पूरी सेना गंगा पार कर चुकी थी। केवल एक अंतिम नाव ही रह गई थी और कुँवर सिंह उसी नाव पर सवार हो कर गंगा नदी पार कर रहे थे। अंग्रेज़ सेनापति डगलस को वीर कुँवर सिंह पर हमला करने का यह अच्छा मौका मिल गया था । जैसे ही सेनापति डगलस ने वीर कुँवर सिंह को जाते हुए देखा उसने गोलियाँ बरसानी शुरू कर दीं , उसकी गोलियों में से एक गोली कुँवर सिंह के बाएँ हाथ की कलाई को भेदती हुई निकल गई। गोली लगने के कारण कुँवर सिंह को लगा कि अब उनका वह हाथ तो बेकार हो ही गया है और गोली लगने के कारण गोली का ज़हर भी शरीर में फैलेगा , यही सोच कर उसी पल बिना कुछ ज्यादा सोचे उन्होंने गंगा मैया की ओर भावना पूर्ण नेत्रों से देखा और अपने बाएँ हाथ को काटकर गंगा मैया को अर्पित कर दिया और कुँवर सिंह ने अपने जोश भर देने वाले स्वर में कहा कि हे गंगा मैया ! अपने इस प्यारे का यह महत्वहीन उपहार स्वीकार करो। कहने का तात्पर्य यह है कि वीर कुँवर सिंह अपने से अधिक अपने साथियों की सुरक्षा के लिए तत्पर रहते थे तभी वे सबसे अंत में सब को सुरक्षित भेजने के बाद गंगा पार कर रहे थे और वे अत्यधिक बहादुर थे क्योंकि जब उन्हें गोली लगी तो पुरे शरीर के अस्वस्थ हो जाने के डर से उन्होंने तुरंत अपना हाथ काट दिया।

वीर कुँवर सिंह ने ब्रिटिश हुकूमत के साथ लोहा तो लिया ही उन्होंने अनेक सामाजिक कार्य भी किए। आरा जिला स्कूल के लिए ज़मीन दान में दी जिस पर स्कूल के भवन का निर्माण किया गया। कहा जाता है कि उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी , फिर भी वे निर्धन व्यक्तियों की सहायता करते थे। उन्होंने अपने इलाके में अनेक सुविधाएँ प्रदान की थीं। उनमें से एक है – आरा – जगदीशपुर सड़क और आरा – बलिया सड़क का निर्माण। उस समय जल की पूर्ति के  लिए लोग कुएँ खुदवाते थे और तालाब बनवाते थे। वीर कुँवर सिंह ने अनेक कुएँ खुदवाए और जलाशय भी बनवाए।

कुँवर सिंह उदार एवं अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति थे। इब्राहीम खाँ और किफ़ायत हुसैन उनकी सेना में उच्च पदों पर आसीन थे। उनके यहाँ हिन्दुओं और मुसलमानों के सभी त्योहार एक साथ मिलकर मनाए जाते थे। उन्होंने पाठशालाएँ और मकतब भी बनवाए। बाबू कुँवर सिंह की लोकप्रियता इतनी थी कि बिहार की कई लोकभाषाओं में उनकी प्रशस्ति लोकगीतों के रूप में आज भी गाई जाती है। बिहार के प्रसिद्ध कवि मनोरंजन प्रसाद सिंह ने उनकी वीरता और शौर्य का वर्णन करते हुए लिखा है –

चला गया यों कुँवर अमरपुर , साहस से सब अरिदल जीत ,

उसका चित्र देखकर अब भी , दुश्मन होते हैं भयभीत।

वीर – प्रसविनी – भूमि धन्य वह , धन्य वीर वह धन्य अतीत ,

गाते थे और गावेंगे हम , हरदम उसकी जय का गीत।

स्वतंत्रता का सैनिक था , आज़ादी का दीवाना था ,

सब कहते हैं कुँवर सिंह भी , बड़ा वीर मरदाना था।।

शब्दार्थ –

पूर्ति –  पूरा करने की क्रिया , पूर्णता , तृप्ति , संतुष्टि , आवश्यकता को पूर्ण करने का भाव , कमी पूरा करना

जलाशय – वह स्थान जहां बहुत सारा पानी एकत्र हो , तालाब , झील , वर्षा जल को संरक्षित करने के लिए बनाया गया बड़ा गड्ढा

संवेदनशील – संवेदना से युक्त , भावुक , सहृदय , भावप्रधान

मकतब –  इस्लाम धर्म की शिक्षा – दीक्षा की पाठशाला , छोटे बच्चों का मदरसा या पाठशाला

लोकप्रियता – लोगो में प्रिय

लोकभाषा – बोली , लोगो की आम बोलचाल की भाषा

प्रशस्ति – प्रशंसा , तारीफ़ , बड़ाई , किसी की प्रशंसा में लिखी गई कविता आदि

नोट – इस गद्यांश में वीर कुँवर सिंह की वीरता का वर्णन किया गया है।

व्याख्या – वीर कुँवर सिंह ने केवल ब्रिटिश शासन के साथ मुकाबला ही नहीं किया था बल्कि उन्होंने समाज की भलाई के लिए अनेक सामाजिक कार्य भी किए थे। उन्होनें आरा जिला स्कूल के लिए अपनी ज़मीन दान में दी थी , जिस पर स्कूल के भवन का निर्माण किया गया। यह भी कहा जाता है कि उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी , परन्तु फिर भी वे अपने सामर्थ्य के अनुसार गरीब व्यक्तियों की सहायता किया करते थे। उन्होंने अपने इलाके में लोगों के सुख के लिए अनेक सुविधाएँ प्रदान की थीं। उनमें से एक है – आरा – जगदीशपुर सड़क और आरा – बलिया सड़क का निर्माण। उस समय पानी की अपनी आवश्यकता को पूरा करने के  लिए लोग कुएँ खुदवाते थे और तालाब बनवाते थे। वीर कुँवर सिंह ने भी उस समय अनेक कुएँ खुदवाए और तालाब भी बनवाए थे। कुँवर सिंह बहुत ही बड़े दिल के एवं बहुत ही अधिक भावुक प्रवृति के व्यक्ति थे। अर्थात वे किसी भी व्यक्ति को दुःख में नहीं देख सकते थे। इब्राहीम खाँ और किफ़ायत हुसैन उनकी सेना में ऊँचे पदों पर आसीन थे , इससे पता चलता है कि वीर कुँवर सिंह हिन्दुओं और मुसलमानों में कोई भेद नहीं करते थे। उनके यहाँ हिन्दुओं और मुसलमानों के सभी त्योहार एक साथ मिलकर मनाए जाते थे। उन्होंने पाठशालाएँ तो बनवाई ही थी साथ ही साथ उन्होंने इस्लाम धर्म की शिक्षा – दीक्षा की पाठशालाओं को भी बनवाया था। बाबू कुँवर सिंह लोगों के बीच इतने अधिक प्रसिद्ध हैं कि बिहार की कई आम बोलचाल की भाषाओं में उनकी प्रशंसा में लिखी गई कविता आदि लोकगीतों के रूप में आज भी गाई जाती है। बिहार के प्रसिद्ध कवि मनोरंजन प्रसाद सिंह ने उनकी वीरता और शौर्य का वर्णन करते हुए लिखा है –

चला गया यों कुँवर अमरपुर , साहस से सब अरिदल जीत ,

उसका चित्र देखकर अब भी , दुश्मन होते हैं भयभीत।

वीर – प्रसविनी – भूमि धन्य वह , धन्य वीर वह धन्य अतीत ,

गाते थे और गावेंगे हम , हरदम उसकी जय का गीत।

स्वतंत्रता का सैनिक था , आज़ादी का दीवाना था ,

सब कहते हैं कुँवर सिंह भी , बड़ा वीर मरदाना था।।

अर्थात जो वीर कुँवर सिंह सब का दिल अपने साहस से जीत कर , अमर हो कर चला गया है। उसका मात्र चित्र देख कर आज भी दुश्मन डर जाते हैं। वह भूमि धन्य है , वह माता धन्य है जिसने उस वीर को जन्म दिया। वह अतीत का वीर योद्धा धन्य है। उसकी वीरता के जय गीत अतीत में भी गए जाते थे ,आज भी गए जाते हैं और भविष्य में भी गए जाएंगे। वह स्वतंत्रता प्राप्ति की लड़ाई का एक वीर सैनिक था और वह आजादी का दीवाना था और सब यही कहते हैं कि वीर कुँवर सिंह बहुत ही बहादुर व्यक्ति था।

कहने का तात्पर्य यह है कि वीर कुँवर सिंह ने आजादी की लड़ाई में शहीद होने वाले एक बहुत ही बहादुर सिपाही थे , जिन्हें आज भी उनकी वीरता के लिए याद किया जाता है और उनका गुणगान आज भी गीतों के माध्यम से होता है।
 

 

Veer Kunwar Singh Question Answer (वीर कुँवर सिंह प्रश्न अभ्यास)

प्रश्न 1 – वीर कुँवर सिंह के व्यक्तित्व की कौन – कौन सी विशेषताओं ने आपको प्रभावित किया ?  

उत्तर – वीर कुँवर सिंह के व्यक्तित्व की निनलिखित विशेषताओं ने हमें प्रभावित किया हैं –

वीर सेनानी – वीर कुँवर सिंह एक महान वीर सेनानी थे। 1857 के विद्रोह में उन्होंने अपना पूर्ण योगदान दिया था। उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति की लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया व अंग्रेजों को कदम – कदम पर परास्त किया। कुँवर सिंह की वीरता पूरे उत्तर भारत द्वारा भुलाई नहीं जा सकती। आरा पर विजय प्राप्त करने पर इन्हें फौजी सलामी भी दी गई।

स्वाभिमानी – वीर कुँवर सिंह वीर होने के साथ – साथ स्वाभिमानी भी थे। जब वे शिवराजपुर से गंगा पार करते हुए जा रहे थे तो डगलस की गोली का निशाना बन गए। उनके हाथ पर गोली लगी। उस समय वे न तो वहाँ से भागे और न ही उपचार की चिंता की , बल्कि हाथ ही काटकर गंगा में बहा दिया।

उदार स्वभाव – वीर कुँवर सिंह का स्वाभाव अत्यधिक उदार था। वे किसी भी व्यक्ति से जातिगत भेदभाव नहीं करते थे। यहाँ तक कि उनकी सेना में इब्राहिम खाँ और किफायत हुसैन मुसलमान होते हुए भी उच्च पदों पर आसीन थे। वे हिंदू – मुसलमान दोनों के त्योहार सबके साथ मिलकर मनाते थे।

दृढ़निश्चयी – वीर कुँवर सिंह ने अपना पूरा जीवन देश की रक्षा हेतु समर्पित किया। जीवन के अंतिम पलों में इतने वृद्ध हो जाने पर भी सदैव युद्ध हेतु तत्पर रहते थे। यहाँ तक कि मरने से तीन दिन पूर्व ही उन्होंने जगदीशपुर में विजय पताका फहराई थी।

समाज सेवक – एक वीर सिपाही होने के साथ – साथ वे समाज सेवक भी थे। उन्होंने अपने इलाके में कई पाठशालाओं – मदरसों , कुओं व तालाबों का निर्माण करवाया था। अपनी आर्थिक स्थिति सही न होने पर भी वे निर्धनों की सदा सहायता करते थे।

साहसी – वीर कुँवर सिंह के साहस की तुलना किसी से नहीं की जा सकती। 13 अगस्त, 1857 को जब कुँवर सिंह की सेना जगदीशपुर में अंग्रेजों से परास्त हो गई तो उन्होंने साहस नहीं छोड़ा, परन्तु इससे वीरवर कुँवर सिंह का आत्म विश्वास टूटा नहीं और वे भविष्य में होने वाले स्वतंत्रता प्राप्ति के युद्ध की योजना बनाने में लगन और निष्ठा के साथ तैयारियाँ करने में लग गए अर्थात एक बार असफल हो जाने के कारण उन्होंने पीछे हटने के बजाए अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तैयारियाँ करना सही समझा। सासाराम से मिर्जापुर होते हुए रीवा, कालपी, कानपुर, लखनऊ से आजमगढ़ की ओर बढ़ते हुए उन्होंने आजादी की आग को जलाए रखा। पूरे उत्तर भारत में उनके साहस की चर्चा थी। अंत में 23 अप्रैल, 1858 को आजमगढ़ में अंग्रेजों को हराते हुए उन्होंने जगदीशपुर में स्वाधीनता की विजय पताका फहरा कर ही दम लिया।

 

प्रश्न 2 – कुँवर सिंह को बचपन में किन कामों में मज़ा आता था ? क्या उन्हें उन कामों से स्वतंत्रता सेनानी बनने में कुछ मदद मिली ?

उत्तर – वीर कुँवर सिंह को बचपन में पढ़ने – लिखने में उतना मन नहीं लगता था , जितना मन घुड़सवारी , तलवारबाज़ी और कुश्ती लड़ने में लगता था। जब बड़े होकर स्वतंत्रता सेनानी बने तो इन कार्यों से उन्हें बहुत सहायता मिली। तलवार चलाने व तेज़ घुड़सवारी से तो वे कदम – कदम पर अंग्रेजों को मात देते रहे।

 

प्रश्न 3 – सांप्रदायिक सद्भाव में कुँवर सिंह की गहरी आस्था थी। पाठ के आधार पर कथन की पुष्टि कीजिए।

उत्तर – कुँवर सिंह की सांप्रदायिक सद्भाव में गहरी आस्था थी। उनकी सेना में मुसलमान भी उच्च पदों पर थे। थे। इब्राहीम खाँ और किफ़ायत हुसैन उनकी सेना में ऊँचे पदों पर आसीन थे , इससे पता चलता है कि वीर कुँवर सिंह हिन्दुओं और मुसलमानों में कोई भेद नहीं करते थे। उनके यहाँ हिन्दुओं और मुसलमानों के सभी त्योहार एक साथ मिलकर मनाए जाते थे। उन्होंने पाठशालाएँ तो बनवाई ही थी साथ ही साथ उन्होंने इस्लाम धर्म की शिक्षा – दीक्षा की पाठशालाओं को भी बनवाया था।

 

प्रश्न 4 – पाठ के किन प्रसंगों से आपको पता चलता है कि कुँवर सिंह साहसी , उदार एवं स्वाभिमानी व्यक्ति थे ?

उत्तर – वीर कुँवर सिंह के साहस की तुलना किसी से नहीं की जा सकती। 13 अगस्त, 1857 को जब कुँवर सिंह की सेना जगदीशपुर में अंग्रेजों से परास्त हो गई तो उन्होंने साहस नहीं छोड़ा, परन्तु इससे वीरवर कुँवर सिंह का आत्म विश्वास टूटा नहीं और वे भविष्य में होने वाले स्वतंत्रता प्राप्ति के युद्ध की योजना बनाने में लगन और निष्ठा के साथ तैयारियाँ करने में लग गए अर्थात एक बार असफल हो जाने के कारण उन्होंने पीछे हटने के बजाए अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तैयारियाँ करना सही समझा। वीर कुँवर सिंह वीर होने के साथ – साथ स्वाभिमानी भी थे। जब वे शिवराजपुर से गंगा पार करते हुए जा रहे थे तो डगलस की गोली का निशाना बन गए। उनके हाथ पर गोली लगी। उस समय वे न तो वहाँ से भागे और न ही उपचार की चिंता की , बल्कि हाथ ही काटकर गंगा में बहा दिया। वीर कुँवर सिंह का स्वाभाव अत्यधिक उदार था। वे किसी भी व्यक्ति से जातिगत भेदभाव नहीं करते थे। यहाँ तक कि उनकी सेना में इब्राहिम खाँ और किफायत हुसैन मुसलमान होते हुए भी उच्च पदों पर आसीन थे। वे हिंदू – मुसलमान दोनों के त्योहार सबके साथ मिलकर मनाते थे। उन्होंने पाठशालाएँ तो बनवाई ही थी साथ ही साथ उन्होंने इस्लाम धर्म की शिक्षा – दीक्षा की पाठशालाओं को भी बनवाया था।

 

प्रश्न 5 – आमतौर पर मेले मनोरंजन , खरीद – फरोख्त एवं मेलजोल के लिए होते हैं। वीर कुँवर सिंह ने मेले का उपयोग किस रूप में किया ?

उत्तर – प्रायः मेले का उपयोग लोगों के मनोरंजन , खरीद – फरोख्त तथा मेलजोल के लिए किया जाता है , लेकिन कुँवर सिंह ने सोनपुर के मेले का उपयोग स्वाधीनता संग्राम की योजना बनाने के लिए किया। उन्होंने यहाँ सोनपुर के मेले का उपयोग अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी बैठकों एवं योजनाओं के लिए किया। यहाँ लोग गुप्त रूप से इकट्ठे होकर क्रांति के बारे में योजनाएँ बनाते थे। सोनपुर में एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला लगता है। इसका आयोजन कार्तिक पूर्णिमा पर होता है। इस मेले में हाथियों की खरीद-बिक्री होती है। इस मेले की आड़ में कुँवर सिंह अंग्रेजों को चकमा देने में सफल रहे।

 

 
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