राजेंद्र बाबू पाठ सार

 

PSEB Class 10 Hindi Book Chapter 14 “Rajendra Babu” Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings

 

राजेंद्र बाबू सार – Here is the PSEB Class 10 Hindi Book Chapter 14 Rajendra Babu Summary with detailed explanation of the lesson “Rajendra Babu” along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary

इस पोस्ट में हम आपके लिए पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड  कक्षा 10 हिंदी पुस्तक के पाठ 14 राजेंद्र बाबू पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप  इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 10 राजेंद्र बाबू पाठ के बारे में जानते हैं।

 

Rajendra Babu (राजेंद्र बाबू) 

By महादेवी वर्मा

 

‘राजेंद्र बाबू’ श्रीमती महादेवी वर्मा द्वारा लिखित एक जीवंत संस्मरण है। यह संस्मरण महादेवी वर्मा द्वारा लिखित ‘पथ के साथी’ संस्मरण में से लिया गया है। इस संस्मरण में लेखिका ने भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू के व्यक्तित्व की विशेषताओं को प्रदर्शित किया है। उनके शरीर की बनावट, वेशभूषा की सादगी, उनका देहातीपन और अस्त-व्यस्तता से लेकर उनकी प्रतिभा और बुद्धि की विशिष्टता, उनके स्वभाव की कोमलता कठोरता तथा उनकी गंभीर संवेदना का चित्रण लेखिका ने बड़ी भावुकता के साथ किया है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि महादेवी वर्मा ने राजेंद्र बाबू के सम्पूर्ण जीवन को सभी के समक्ष रखने का प्रयत्न किया है। राजेंद्र बाबू की पत्नी के स्वभाव की विशेषताओं और उनके निजी सचिव श्री चक्रधर की सादगी और निष्ठा का भी उत्कृष्ट वर्णन किया गया है। यह संस्मरण महादेवी वर्मा के चिंतन, अनुभूति और दृष्टिकोण की व्यापक विशेषताओं को प्रदर्शित करता है।

 

 

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राजेंद्र बाबू पाठ सार  Rajendra Babu Summary

लेखिका श्रीमती महादेवी वर्मा ने राजेंद्र बाबू को पहली बार पटना स्टेशन पर देखा था। उन्हें देखते ही सभी को ऐसा प्रतीत होता था जैसे उनके जैसे आकृति वाले व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा हो। क्योंकि उनकी आकृति व् व्यक्तित्व अत्यधिक सामान्य था। प्रथम दृष्टि में उनकी जो आकृति लेखिका की स्मृति पर चिह्नित हुई, वह वर्षों के पश्चात् भी वैसे ही बनी हुई थी। काले घने कटे हुए बाल, चौड़ा मुख, बड़ी-बड़ी आँखें, गेहुँआ वर्ण, बड़ी-बड़ी ग्रामीणों जैसी मूछे, लंबा कदकाठ ग्रामीणों की-सी वेश-भूषा, सिर पर गाँधी टोपी पहने हुए राजेंद्र बाबू का व्यक्तित्व हर व्यक्ति को अपनी ओर सरलता से आकर्षित कर लेता था। उनकी न केवल आकृति में, शारीरिक बनावट में और वेश-भूषा में ही सामान्यता नहीं थी, बल्कि अपने स्वभाव और रहन-सहन में भी वे एक सामान्य भारतीय किसान का प्रतिनिधित्व करते थे। प्रतिभा और बुद्धि की विशेषता के साथ उनकी संवेदनशीलता भी उनके सामान्य व्यक्तित्व को गौरव से भर देती थी।

लेखिका को राजेंद्र बाबू के संपर्क में आने का अवसर सन् 1937 में मिला, जब कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में  महिला विद्यापीठ के महाविद्यालय के भवन की नींव डालने प्रयाग आए थे। तभी उन्होंने अपनी पोतियों की शिक्षा-व्यवस्था के लिए महादेवी से आग्रह किया था और उन्हें विद्यापीठ के छात्रावास में भर्ती करवा दिया था। इसी बीच लेखिका का परिचय राजेंद्र बाबू की धर्मपत्नी से भी हुआ। वह स्वभाव की बहुत सरल, सीधी-सादी, क्षमाशील और ममत्व की मूर्ति थीं। उनमें एक ज़मींदार परिवार की वधू और महान् स्वतंत्रता सेनानी की धर्मपत्नी होने पर भी कोई अहंकार नहीं था। छात्रावास की बालिकाओं तथा नौकर-चाकरों के साथ वह समान रूप से व्यवहार करती थीं। वह चाहे एक दिन के लिए आती या कुछ घंटों के लिए आती, वह सभी से उनका और उनके परिवार का कुशल-मंगल पूछती थी। 

राजेंद्र बाबू भी सभी छात्राओं को एक ही दृष्टि से देखते थे। उन्होंने अपनी पोतियों को भी सामान्य बालिकाओं के साथ सादगी एवं संयम से रहने का आदेश दिया था। वे उनमें अहंकार की भावना न देखना चाहते थे। इसलिए भारत के राष्ट्रपति बनने पर भी उन्होंने लेखिका से आग्रह किया था कि अपनी पोतियों को पहले की तरह ही सादगीपूर्ण रहते हुए कर्तव्य का पालन करते रहने की शिक्षा दी जाए। राजेंद्र बाबू की पत्नी में भी कोई परिवर्तन नहीं आया था। राष्ट्रपति भवन में रहते हुए भी वह एक सामान्य भारतीय नारी की तरह सभी को भोजन करवाने के बाद ही भोजन करती थीं।

एक दिन जब महादेवी को राजेंद्र बाबू की धर्मपत्नी ने दिल्ली आने का विशेष निमंत्रण दिया तो लेखिका राष्ट्रपति-भवन पहुँची, वहाँ उनका खूब अतिथिसत्कार हुआ। परन्तु लेखिका उनके उपवास के दिन राष्ट्रपति-भवन पहुंची। इसलिए भोजन के लिए पूछने पर लेखिका को भोजन के समय राजेंद्र बाबू और उनकी पत्नी का उपवास होने के कारण, उनके साथ फलाहार लेना उचित लगा। उस दिन भारत के प्रथम राष्ट्रपति को सामान्य आसन पर बैठ कर दिन भर के उपवास के बाद भी कुछ उबले हुए आलू खाकर पेट भरते देखकर लेखिका को आश्चर्य हुआ और लेखिका को भी वही खाते देखकर, उनके चेहरे पर लेखिका ने संतोष की एक झलक महसूस की। वास्तव में जीवन मूल्य की सच्ची पहचान रखने वाले वे एक महान् व्यक्ति थे, जिन्हें ‘देशरत्न’ (भारत रत्न) की उपाधि दी गई। स्वभाव की इसी सरलता से उनके जीवन में कोई शत्रु नहीं था। लेखिका के मन में अक्सर प्रश्न उठता था कि अब उनकी तरह व्यक्तित्व व् स्वभाव वाले व्यक्ति क्यों नहीं मिलते। अर्थात आज के समय में राजेंद्र बाबू जैसा व्यक्ति मिलना असंभव है। 

 

राजेंद्र बाबू पाठ व्याख्या Rajendra Babu Lesson Explanation

 

पाठ – राजेंद्र बाबू को मैंने पहले-पहले एक सर्वथा गद्यात्मक वातावरण में ही देखा था, परन्तु उस गद्य ने कितने भावात्मक क्षणों की अटूट माला गूँथी है, यहाँ बताना कठिन है।
मैं प्रयाग में बी. ए. की विद्यार्थी थी और शीतावकाश में अपने घर भागलपुर जा रही थी। पटना में भाई से मिलने की बात थी, अतः स्टेशन पर ही प्रतीक्षा के कुछ घंटे व्यतीत करने पड़े।
स्टेशन के एक ओर तीन पैर वाली बेंच पर देहातियों की वेशभूषा में परन्तु कुछ नागरिक जनों से घिरे सज्जन जो विराजमान थे, उनकी ओर मेरी विहंगम दृष्टि जाकर लौट आई। वास्तव में भाई से यह जानने के उपरांत कि उक्त सज्जन ही राजेंद्र बाबू हैं, मुझे अभिवादन का ध्यान आया।
पहली दृष्टि में ही जो आकृति स्मृति में अंकित हो गई थी, उसमें इतने वर्षों ने न कोई नई रेखा जोड़ी है और न कोई नया रंग भरा है।
सत्य में से जैसे कुछ घटाना या जोड़ना संभव नहीं रहता, वैसे ही सच्चे व्यक्तित्व में भी कुछ जोड़ना घटाना संभव नहीं है।

शब्दार्थ 
सर्वथा – सब प्रकार से, सरासर, पूरा
गद्यात्मक – सादा, सामान्य
भावात्मक – भावपूर्ण, भावयुक्त
शीतावकाश – सर्दियों की छुट्टियाँ
देहाती – गाँव में होने वाला
वेशभूषा – पहनावा
घिरे – चारों तरफ़ से घेर लेना
विराजमान – विद्यमान, मौजूद बैठा हुआ, आसीन
विहंगम –  पक्षी, सूर्य
उक्त – पहले कही गई, कथित, उल्लिखित
अभिवादन – आदरपूर्वक किसी को किया जाने वाला प्रणाम या नमस्कार
स्मृति – स्मरणशक्ति, याददाश्त, अनुस्मरण, (मेमोरी)
अंकित –  चिह्नित, लिखित 

व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि उन्होंने राजेंद्र बाबू को सबसे पहले एक पूरी तरह से सादे व् सामान्य वातावरण में ही देखा था, परन्तु उस सामान्य वातावरण ने लेखिका के जीवन में कितने भावात्मक क्षणों की न टूटने वाली माला को गूंथा है, यहाँ बताना लेखिका के लिए कठिन है। अर्थात जिस क्षण लेखिका राजेंद्र बाबू से मिली वह क्षण लेखिका जीवन भर नहीं भूल सकती। लेखिका प्रयाग में बी. ए. की विद्यार्थी थी और सर्दियों की छुट्टियों में अपने घर भागलपुर जा रही थी। लेखिका को पटना में भाई से मिलना था, इसलिए उन्हें स्टेशन पर ही कुछ घंटे इंतजार करना पड़ा। वहाँ स्टेशन के एक ओर तीन पैर वाली बेंच पर गाँव वालों के तरह पहनावा पहने कोई सज्जन बैठे थे। उन्हें कुछ नागरिक जनों ने घेरा हुआ था, उनकी ओर लेखिका की दृष्टि ऐसे जाकर लौट आई, जैसे किसी पक्षी की दृष्टि होती है। वास्तव में लेखिका ने अपने भाई से यह जानने के बाद कि वह सज्जन व्यक्ति ही राजेंद्र बाबू हैं, उन्हें आदर पूर्वक प्रणाम करने का ध्यान आया। लेखिका की पहली दृष्टि में ही राजेंद्र बाबू की जो आकृति यादाश्त में चिन्हित हो गई थी, इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी उस आकृति में न कोई नई रेखा जोड़ी थी और न कोई नया रंग भरा था। कहने का अभिप्राय यह है कि लेखिका ने पहली बार राजेंद्र बाबू को जिस तरह देखा था, वर्षों बाद भी वे उसी तरह दिखाई पड़ते थे। लेखिका कहती हैं कि सत्य में से जैसे कुछ घटाना या जोड़ना संभव नहीं होता, वैसे ही सच्चे व्यक्तित्व में भी कुछ जोड़ना घटाना संभव नहीं होता। अर्थात सच्चा व्यक्तित्व हमेशा एक सामान रहता है उसमें कोई बदलाव नहीं होता। 

 

पाठ – काले घने पर छोटे कटे हुए बाल, चौड़ा मुख, चौड़ा माथा, घनी भृकुटियों के नीचे बड़ी आँखें, मुख के अनुपात में कुछ भारी नाक, कुछ गोलाई लिए चौड़ी ठुड्डी, कुछ मोटे पर सुडौल होंठ, श्यामल झाँई देता हुआ गेहुआ वर्ण, ग्रामीणों जैसी बड़ी-बड़ी मूँछें जो ऊपर के होंठ पर ही नहीं नीचे के होंठ पर भी रोमिल बालों का आवरण डाले हुए थीं। हाथ, पैर, शरीर सबमें लंबाई की ऐसी विशेषता थी, जो दृष्टि को अनायास आकर्षित कर लेती थी।
उनकी वेशभूषा की ग्रामीणता तो दृष्टि को और भी उलझा लेती थी। खादी की मोटी धोती ऐसा फेंटा देकर बाँधी गई थी कि एक ओर दाहिने पैर पर घुटना छूती थी और दूसरी ओर बाएँ पैर की पिंडली। मोटे, खुरदरे, काले बंद गले के कोट के ऊपर का भाग बटन टूट जाने के कारण खुला था और घुटने के नीचे का बटनों से बंद था, सरदी के कारण पैरों में मोज़े जूते तो थे, परन्तु कोट और धोती के समान उनमें भी विचित्र स्वच्छंदतावाद था। एक मोज़ा जूते पर उतर आया था और दूसरा टखने पर घेरा बना रहा था। मिट्टी की पर्त से न जूतों के रंग का पता चलता था, न रूप का। गांधी टोपी की स्थिति तो और भी विचित्र थी। उसकी आगे की नोक बाय भौंह पर खिसक आई थी और टोपी की कोर माथे पर पट्टी की तरह लिपटी हुई थी। देखकर लगता था मानो वे किसी हड़बड़ी में चलते-चलते कपड़े पहनते आए हैं, अतः जो जहाँ स्थिति में अटक गया, वह वहीं उसी स्थिति में अटका रह गया।
उनकी मुखाकृति देखकर अनुभव होता था मानो इन्हें पहले कहीं देखा है। अनेक व्यक्तियों ने उन्हें प्रथम बार देखकर भी ऐसा ही अनुभव किया होगा।
बहुत सोचने के उपरांत उस प्रकार की अनुभूति का कारण समझ में आ सका।

शब्दार्थ –
भृकुटी – भौंह
ठुड्डी – होठों के नीचे का भाग, ठोड़ी
सुडौल – सुंदर डील-डौल या आकारवाला
श्यामल – साँवला, श्याम रंग वाला
झाँई – काली छाया, परछाईं, झलक, आभा
गेहुआ – गेहूँ के रंग जैसा, गोरे और साँवले के बीच का (शरीर का रंग)
रोमिल – रोएँदार, त्वचा पर बालोंवाला
आवरण –  परदा, घेरा
अनायास – आसानी से, स्वतः
फेंटा – कमर का घेरा, धोती का वह भाग जो कमर के चारों ओर लपेटकर बाँधा जाता है
पिंडली – टाँग का ऊपरी पिछला भाग जो मांसल होता है
हड़बड़ी –  जल्दी, शीघ्रता
उपरांत –  बाद, अनंतर
अनुभूति –  अहसास, अनुभव 

व्याख्या लेखिका राजेंद्र बाबू के बारे में बताती हुई कहती हैं कि राजेंद्र बाबू के काले घने बाल थे जो छोटे कटे हुए थे, उनका चौड़ा मुख व् चौड़ा माथा था, घनी भौहों के नीचे उनकी बड़ी आँखें थी, उनके मुख के अनुपात में उनकी नाक कुछ भारी थी, उनकी चौड़ी ठुड्डी कुछ गोलाई लिए हुए थी, उनके होंठ कुछ मोटे परन्तु सुडौल थे, उनका गेहुआ वर्ण श्याम रंग की झलक देता था, गाँव के लोगों की तरह बड़ी-बड़ी मूँछें थी, जो ऊपर के होंठ पर ही नहीं बल्कि नीचे के होंठ पर भी रोएँदार बालों का मानो पर्दा डाले हुए थीं। हाथ, पैर, शरीर सबकी लंबाई में कुछ ऐसी विशेषता थी, जो किसी की भी दृष्टि को आसानी से अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी। गाँव के लोगों की तरह उनकी वेशभूषा तो दूसरों की दृष्टि को और भी उलझा लेती थी। अर्थात राजेंद्र बाबू की वेशभूषा उनके व्यक्तित्व से बिलकुल भी मेल नहीं खाती थी। वे खादी की मोटी धोती पहनते थे जिसका एक भाग कमर से ऐसा बाँधा होता था कि उनकी धोती एक ओर दाहिने पैर पर घुटना छूती थी और दूसरी ओर बाएँ पैर की पिंडली को। उनका काले रंग का बंद गले का कोट मोटा और खुरदरा था, जिसके ऊपर के भाग का बटन टूट जाने के कारण ऊपरी भाग खुला था और घुटने के नीचे का बटनों से बंद था, सरदी के कारण उनके पैरों में मोज़े जूते तो थे, परन्तु कोट और धोती के समान ही मोज़े और जूते में भी अलग ही स्वतंत्रता थी। एक मोज़ा जूते पर उतर आया था और दूसरा टखने पर घेरा बना रहा था। जूते पर मिट्टी की पर्त होने के कारण न जूतों के रंग का पता चलता था, न ही उसके रूप का। उनकी गांधी टोपी की स्थिति तो इन सबसे अनोखी थी। उसकी आगे की नोक उनके बाय भौंह पर खिसक आई थी और टोपी की कोर माथे पर पट्टी की तरह लिपटी हुई थी। जिसे देखकर ऐसा लगता था मानो वे किसी जल्दबाजी के कारण चलते-चलते कपड़े पहनते आए हैं, जिस कारण जो कपड़ा जहाँ जैसी स्थिति में अटक गया, वह वहीं उसी स्थिति में अटका रह गया। उनकी मुख की आकृति को देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो उन्हें पहले भी कहीं देखा है। लेखिका के अनुसार अनेक व्यक्तियों ने उन्हें पहली बार देखकर कुछ ऐसा ही अनुभव किया होगा। ऐसा किस कारण से था, यह बहुत सोचने के बाद लेखिका को समझ में आ पाया था।

 

पाठ – राजेंद्र बाबू की मुखाकृति ही नहीं, उनके शरीर के संपूर्ण गठन में एक सामान्य भारतीय जन की आकृति और गठन की छाया थी, अतः उन्हें देखने वाले को कोई-न-कोई आकृति या व्यक्ति स्मरण हो आता था और वह अनुभव करने लगता था कि इस प्रकार के व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है। आकृति तथा वेशभूषा के समान ही वे अपने स्वभाव और रहन-सहन में सामान्य भारतीय या भारतीय कृषक का ही प्रतिनिधित्व करते थे। प्रतिभा और बुद्धि की विशिष्टता के साथ-साथ उन्हें जो गंभीर संवेदना प्राप्त हुई थी, वही उनकी सामान्यता को गरिमा प्रदान करती थी ।
भाई जवाहरलाल जी की अस्त-व्यस्तता भी व्यवस्था से निर्मित होती थी, किंतु राजेंद्र बाबू की सारी व्यवस्था ही अस्त-व्यस्तता का पर्याय थी। दूसरे यदि जवाहरलाल जी की अस्त-व्यस्तता को देख लें तो उन्हें बुरा नहीं लगता था, परंतु अपनी अस्त-व्यस्तता के प्रकट होने पर राजेंद्र बाबू भूल करने वाले बालक के समान संकुचित हो जाते थे। एक दिन यदि दोनों पैरों में दो भिन्न रंग के मोज़े पहने किसी ने उन्हें देख लिया तो उनका संकुचित हो उठना अनिवार्य था। परन्तु दूसरे दिन जब वे स्वयं सावधानी से रंग का मिलान करके पहनते तो पहले से भी अधिक अनमिल रंगों के पहन लेते।
उनकी वेशभूषा की अस्त-व्यस्तता के साथ उनके निजी सचिव और सहचर भाई चक्रधर जी का स्मरण अनायास हो आता है। अब मोजों में से पाँचों उँगलियाँ बाहर निकलने लगतीं, जब जूते के तले पैर के तलवों के गवाक्ष बनने लगते, जब धोती, कुरते कोट आदि का खद्दर अपने मूल ताने- बाने में बदलने लगता, तब चक्रधर इस पुरातन सज्जा को अपने लिए सहेज लेते। उन्होंने वर्षों तक इसी प्रकार राजेंद्र बाबू के पुराने परिधान से अपने-आपको प्रसाधित कर कृतार्थता का अनुभव किया था। मैंने ऐसे गुरु-शिष्य या स्वामी सेवक फिर अब तक नहीं देखे।

शब्दार्थ –
संपूर्ण – पूरा |
गठन –  रचना, बनावट
प्रतिभा –  विलक्षण बौद्धिक शक्ति, समझ|
विशिष्टता –  विशेषता
गरिमा – महत्व, गौरव
संकुचित – संकीर्ण, तंग
अनमिल – बेमेल, जो घुला-मिला न हो
गवाक्ष – छोटी खिड़की, झरोखा
परिधान – शरीर पर पहना जाने वाला आवरण या पोशाक
प्रसाधित – सँवारा हुआ, सजाया हुआ
कृतार्थता – जिसका कार्य सिद्ध हो गया हो, जो उद्देश्य सिद्धि के कारण संतुष्ट या प्रसन्न हो, सफल, कृतज्ञ 

 

व्याख्या  – लेखिका बताती हैं कि राजेंद्र बाबू की मुख की आकृति ही नहीं, बल्कि उनके शरीर की पूरी बनावट में एक सामान्य भारतीय जन की आकृति और बनावट की छाया थी, अतः उन्हें देखने पर हर किसी को अपना कोई-न-कोई जान-पहचान वाला व्यक्ति या कोई आकृति याद आ जाती थी और वह अनुभव करने लगता था कि इस प्रकार के व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है। अर्थात राजेंद्र बाबू का व्यक्तित्व इतना साधारण था कि हर किसी को उनमें अपना कोई न कोई दिखाई पड़ जाता था। आकृति तथा वेशभूषा की तरह ही वे अपने स्वभाव और रहन-सहन में सामान्य भारतीय या भारतीय किसान का ही प्रतिनिधित्व करते थे। अर्थात उन्हें देखकर कोई कह ही नहीं सकता था कि वे राष्टपति हैं। उनकी विलक्षण बौद्धिक शक्ति और बुद्धि व् समझ की विशेषताओं के साथ-साथ उन्हें जो गंभीर संवेदना प्राप्त हुई थी, वही उनके सामान्य व्यक्तित्व को गौरव प्रदान करती थी। लेखिका जवाहरलाल जी को भाई के रूप में सम्बोधित करती हुई कहती हैं कि जवाहरलाल जी की अस्त-व्यस्तता भी व्यवस्था से निर्मित होती थी, किंतु राजेंद्र बाबू की सारी व्यवस्था ही अस्त-व्यस्तता का दूसरा रूप थी। यदि कोई दूसरा व्यक्ति जवाहरलाल जी की अस्त-व्यस्तता को देख लें तो राजेंद्र बाबू को बुरा नहीं लगता था, परंतु यदि उनकी अस्त-व्यस्तता किसी दूसरे के सम्मुख प्रकट हो जाए तो राजेंद्र बाबू ऐसे संकुचित या तंग हो जाते थे जैसे कोई भूल करने वाला बालक अपनी भूल के उजागर होने पर हो जाता है। एक दिन यदि दोनों पैरों में दो अलग-अलग रंग के मोज़े पहने हुए किसी ने उन्हें देख लिया तो उनका संकुचित या तंग हो उठना स्वभाविक था। परन्तु दूसरे दिन जब वे खुद से सावधानी रखते हुए रंग का मिलान करके मोज़े पहनते तो पहले से भी अधिक बिना मेल के रंगों के पहन लेते। उनकी वेशभूषा की अस्त-व्यस्तता के साथ उनके निजी सचिव और सहचर भाई चक्रधर जी का स्मरण हो आना कोई बड़ी बात नहीं है। क्योंकि जब राजेंद्र बाबू के मोजों में से पाँचों उँगलियाँ बाहर निकलने लगतीं, या जब जूते के तले से पैर के तलवों के लिए छोटी खिड़कियाँ बनने लगते, जब धोती, कुरते कोट आदि का खद्दर अपने मूल ताने- बाने में बदलने लगता, तब चक्रधर राजेंद्र बाबू की उन पुरातन सज्जा को अपने लिए सहेज लेते। अर्थात राजेंद्र बाबू की सभी पुरानी वेशभूषा को चक्रधर अपने लिए रख लेते थे। उन्होंने वर्षों तक इसी प्रकार राजेंद्र बाबू के पुराने कपड़ों से अपने-आपको सजा कर रखा और इसमें वे संतुष्टि का अनुभव किया करते थे। अर्थात चक्रधर जी, राजेंद्र बाबू की पुरानी फटी पोशाक धारण करना अपना सौभाग्य मानते थे। लेखिका बताती हैं कि उन्होंने ऐसे गुरु-शिष्य या स्वामी सेवक अपनी जिंदगी में फिर दुबारा अब तक नहीं देखे।

 

पाठ – राजेंद्र बाबू के निकट संपर्क में आने का अवसर मुझे सन् 1937 में मिला जब वे कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में महिला विद्यापीठ महाविद्यालय के भवन का शिलान्यास करने प्रयाग आए। उनसे ज्ञात हुआ कि उनकी 15-16 पौत्रियाँ हैं, जिनकी पढ़ाई की व्यवस्था नहीं हो पाई है। मैं यदि अपने छात्रावास में रखकर उन्हें विद्यापीठ की परीक्षाओं में बैठा सकूँ तो उन्हें शीघ्र कुछ विद्या प्राप्त हो सकेगी।
पहले बड़ी, फिर छोटी, फिर उनसे छोटी के क्रम से बालिकाएँ मेरे संरक्षण में आ गई और उन्हें देखने प्रायः उनकी दादी और कभी-कभी दादा भी प्रयाग आते रहे। तभी राजेंद्र बाबू की सहधर्मिणी के निकट संपर्क में आने का अवसर मिला। वे सच्चे अर्थ में धरती की पुत्री थीं- साध्वी, सरल, क्षमामयी, सबके प्रति ममतालु और असंख्य संबंधों की सूत्रधारिणी। ससुराल में उन्होंने बालिका-वधू रूप में पदार्पण किया था। संभ्रांत जमींदार परिवार की परंपरा के अनुसार उन्हें घंटों सिर नीचा करके एकासन बैठना पड़ता था, परिणामतः उनकी रीढ़ की हड्डी इस प्रकार झुक गई कि युवती होकर वे सीधी खड़ी नहीं हो पाईं।
बिहार के जमींदार परिवार की वधू और स्वातंत्र्य युद्ध के अपराजेय सेनानी की पत्नी होने का न उन्हें कभी अहंकार हुआ और न उनमें कोई मानसिक ग्रंथि ही बनी। छात्रावास की सभी बालिकाओं तथा नौकर-चाकरों का उन्हें समान रूप से ध्यान रहता था। एक दिन या कुछ घंटों ठहरने पर भी वे सबको बुला-बुलाकर उनका तथा उनके परिवार का कुशल-मंगल पूछना न भूलती थीं। घर से अपनी पौत्रियों के लिए लाए मिष्ठान्न में से प्रायः सभी बँट जाता था। देखने वाला यह जान ही नहीं सकता था कि वह सबकी इया, अश्या अर्थात दादी नहीं हैं।
गंगा-स्नान के लिए तो मुझे उनके साथ प्रायः जाना पड़ता था। उस दिन संगम पर जितना दूध मिलता, जितने फूल दिखाई देते सब उनकी ओर से ही गंगा-यमुना की भेंट हो जाते। कोलाहल करते हुए पंडों की पूरी पलटन उन्हें घेर लेती थी, पर वे बिना विचलित हुए शांत भाव से प्रत्येक को उसका प्राप्य देती चलती थीं।
बालिकाओं के संबंध में राजेंद्र बाबू का स्पष्ट निर्देश था कि वे सामान्य बालिकाओं के साथ बहुत सादगी और संयम से रहें। वे खादी के कपड़े पहनती थीं, जिन्हें वे स्वयं ही धो लेती थीं। उनके साबुन, तेल आदि का व्यय भी सीमित था। कमरे की सफाई, झाड़-पोंछ, गुरुजनों की सेवा आदि भी उनके अध्ययन के आवश्यक अंग थे।

शब्दार्थ –
शिलान्यास – भवन, इमारत आदि बनाने से पहले उसकी नींव में पहला पत्थर, ईंट इत्यादि रखे जाने की क्रिया, आरंभ, संस्थापना
पौत्रियाँ – पोतियाँ
संरक्षण –  पूरी देख-रेख, अधिकार, अपने आश्रय में रखकर पालन-पोषण करने की क्रिया
पदार्पण – किसी स्थान या क्षेत्र में होने वाला प्रवेश या आगमन
संभ्रांत –  प्रतिष्ठित, सम्मानित
स्वातंत्र्य –  स्वतंत्रता, स्वाधीनता
अपराजेय – जिसकी पराजय न हो, अजेय
मिष्ठान्न – मिठाई, मीठा अन्न
कोलाहल – शोर
पंडों – नपुंसक, हिंजड़ा, किन्नर
पलटन –  समुदाय, झुंड
प्राप्य – प्राप्त करने के योग्य

व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि राजेंद्र बाबू के निकट संपर्क में आने का अवसर उन्हें सन् 1937 में मिला। जब वे कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में महिला विद्यापीठ महाविद्यालय के भवन का संस्थापन करने प्रयाग आए थे। राजेंद्र बाबू से लेखिका को ज्ञात हुआ कि उनकी 15-16 पोतियाँ हैं, जिनकी पढ़ाई की व्यवस्था नहीं हो पाई है। लेखिका यदि अपने छात्रावास में उन्हें रखकर विद्यापीठ की परीक्षाओं में बैठा सकें, तो उन्हें जल्दी ही कुछ विद्या प्राप्त हो सकेगी। राजेंद्र बाबू के कहने पर पहले बड़ी, फिर छोटी, फिर उनसे छोटी पोती क्रम से लेखिका के संरक्षण में आ गई और उन्हें देखने या उनसे मिलने प्रायः उनकी दादी और कभी-कभी दादा भी प्रयाग आते रहते थे। वहीं से लेखिका को राजेंद्र बाबू की धर्मपत्नी के निकट संपर्क में आने का अवसर मिला। लेखिका को वे सच्चे अर्थ में धरती की पुत्री लगीं – क्योंकि वे साध्वी, सरल, क्षमामयी, सबके प्रति ममतालु और असंख्य संबंधों की सूत्रधारिणी थी। ससुराल में जब उनका प्रवेश हुआ तो वे बालिका-वधू थी। अर्थात उनका विवाह छोटी उम्र में हो गया था। प्रतिष्ठित या सम्मानित जमींदार परिवार की परंपरा के अनुसार उन्हें घंटों सिर नीचा करके एक ही आसान में बैठना पड़ता था, जिसके परिणाम स्वरूप उनकी रीढ़ की हड्डी इस प्रकार झुक गई कि युवती होकर वे सीधी खड़ी नहीं हो पाईं। बिहार के जमींदार परिवार की वधू और स्वतंत्रता के युद्ध के ऐसे सेनानी जिनको कभी हराया न जा सका हो, उनकी पत्नी होने का न उन्हें कभी अहंकार हुआ और न उनमें कभी ऐसी कोई मानसिक स्थिति भी बनी। छात्रावास की सभी बालिकाओं तथा नौकर-चाकरों का उन्हें एक समान रूप से ध्यान रहता था। अर्थात वे किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करती थी। वे चाहे एक दिन के लिए छात्रावास आती थी या कुछ घंटों के लिए ही ठहरती थी , वे सबको बुला-बुलाकर उनका तथा उनके परिवार का कुशल-मंगल पूछना न भूलती थीं। घर से अपनी पोतियों के लिए लाए मिठे पकवानों में से प्रायः सभी छात्रावास की छात्राओं और व्यक्तियों में बँट जाता था। उन्हें देखने वाला कभी यह जान ही नहीं सकता था कि छात्रावास में रहने वालों में से वह सबकी इया, अश्या अर्थात दादी नहीं हैं। अर्थात वह सभी के साथ बहुत ही अपनेपन से रहती थी।
गंगा-स्नान के लिए तो लेखिका को उनके साथ प्रायः जाना पड़ता था। गंगा-स्नान जाते हुए संगम पर जितना दूध मिलता, जितने फूल दिखाई देते सब उनकी ओर से ही गंगा-यमुना की भेंट हो जाते। शोर करते हुए किन्नरों का पूरा समूह उन्हें घेर लेता था, परन्तु वे बिना परेशान हुए शांत भाव से उन सभी को उसके प्राप्त करने योग्य वस्तुएं देती चलती थीं।
लेखिका बताती हैं कि बालिकाओं के संबंध में राजेंद्र बाबू का स्पष्ट निर्देश था कि उनकी धर्मपति सामान्य बालिकाओं के साथ बहुत सादगी और संयम से रहें। वे खादी के कपड़े पहनती थीं, जिन्हें वे स्वयं ही धो लेती थीं। उनके साबुन, तेल आदि का खर्च भी सीमित था। कमरे की सफाई, झाड़-पोंछ, गुरुजनों की सेवा आदि भी उनके अध्ययन के आवश्यक अंग थे।

 

पाठ – उस समय संघर्ष के सैनिकों का गंतव्य जेल ही रहता था, अतः प्रायः किसी की पत्नी, किसी की बहन, किसी की बेटी विद्यापीठ के छात्रावास से अनुपस्थित होती थी। स्वतंत्रता के उपरांत उनमें से कुछ दिल्ली चली गयी और कुछ विशेष योग्यता प्राप्त करने के लिए अंग्रेज़ी के विद्यालयों में भर्ती हो गईं। केवल राजेंद्र बाबू की पौत्रियाँ अपवाद रहीं। राजेंद्र बाबू के भारत के प्रथम राष्ट्रपति हो जाने के उपरांत मुझे स्वयं उनकी पौत्रियों के संबंध में चिंता हुई। उनका स्पष्ट उत्तर मिला, “महादेवी बहन, दिल्ली मेरा नहीं है, राष्ट्रपति-भवन मेरा नहीं है। अहंकार से मेरी पोतियों का दिमाग खराब न हो जाए, तुम केवल इसकी चिंता करो। वे जैसे रहती आई हैं, उसी प्रकार रहेंगी। कर्त्तव्य विलास नहीं, कर्मनिष्ठा है।”
उनकी सहधर्मिणी में भी किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ। जब राष्ट्रपति-भवन में उनके कमरे से संलग्न रसोईघर बन गया तब वे दिल्ली गयीं और अंत तक स्वयं भोजन बनाकर सामान्य भारतीय गृहिणी के समान पति, परिवार तथा परिजनों को खिलाने के उपरांत स्वयं अन्न ग्रहण करती थीं।
उस विशाल भवन में यदि अपने अद्भुत आतिथ्य की बात न कहूँ, तो कथा अधूरी रह जाएगी। बालिकाओं की दादी ने मुझे दिल्ली आने का विशेष निमंत्रण तो दिया ही, साथ ही, प्रयाग से सिरकी के बने एक दर्जन सूप लाने का भी आदेश दिया। उन्होंने बार-बार आग्रह किया कि मैं उनके लिए इतना कष्ट अवश्य उठाऊँ, क्योंकि फटकने-पछोरने के लिए सिरकी के सूप बहुत अच्छे होते हैं, पर कोई उन्हें लाने वाला ही नहीं मिलता।
प्रथम श्रेणी के डिब्बे में बारह सूपों के टाँगने पर जो दृश्य उपस्थित हुआ, उससे भी अधिक विचित्र दृश्य तब प्रत्यक्ष हुआ, जब राष्ट्रपति-भवन से आई बड़ी कार पर यह उपहार लादा गया। राष्ट्रपति-भवन के हर द्वार पर सलाम ठोंकने वाले सिपाहियों की आँखें विस्मय से खुली रह गई। ऐसी भेंट लेकर कोई अतिथि न कभी वहाँ पहुँचा था, न पहुँचेगा। पर भवन की तत्कालीन स्वामिनी ने मुझे अंक में भर लिया।

शब्दार्थ –
गंतव्य – ठिकाना, घर
अपवाद –  असामान्यता, छूट
विलास – आनंद, प्रसन्नता
कर्मनिष्ठा – कर्तव्य का पालन करने वाला
अंक – गोद 

व्याख्या  – लेखिका बताती हैं कि जिस समय की वो बात बता रही हैं उस समय संघर्ष के सैनिकों का ठिकाना या घर जेल ही रहता था, अतः प्रायः किसी की पत्नी, किसी की बहन, किसी की बेटी विद्यापीठ के छात्रावास से अनुपस्थित होती थी। स्वतंत्रता मिलने के बाद उनमें से कुछ दिल्ली चली गयी और कुछ विशेष योग्यता प्राप्त करने के लिए अंग्रेज़ी विद्यालयों में भर्ती हो गईं। केवल राजेंद्र बाबू की पोतियां उन सभी से अलग थी। राजेंद्र बाबू के भारत के प्रथम राष्ट्रपति बन जाने के बाद लेखिका को स्वयं उनकी पोतियों के संबंध में चिंता हुई। राजेंद्र बाबू का लेखिका को स्पष्ट उत्तर मिला था कि दिल्ली उनका नहीं है, राष्ट्रपति-भवन उनका नहीं है। अहंकार से उनकी पोतियों का दिमाग खराब न हो जाए, लेखिका केवल इस विषय की चिंता करे। उनकी पोतियाँ जैसे अब तक रहती आई हैं, उसी प्रकार रहेंगी। क्योंकि कर्त्तव्य कोई आनंद की वस्तु नहीं है, बल्कि कर्त्तव्य पालन करने के लिए है। कहने का अभिप्राय यह है कि राजेंद्र बाबू नहीं चाहते थे कि उनकी पोतियाँ उनके पद का गलत इस्तेमाल करे, इसलिए वे अपनी पोतियों को छात्रावास में रहने देना चाहते थे व् कर्तव्य का पालन करना सिखाना चाहते थे। उनके राष्ट्रपति बनाने पर भी उनकी धर्मपत्नी में भी किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ। जब राष्ट्रपति-भवन में उनके कमरे के साथ में ही रसोईघर बन गया तब वे दिल्ली गयीं और वहाँ वे अंत तक स्वयं भोजन बनाकर सामान्य भारतीय गृहिणी की तरह पहले पति, परिवार तथा परिजनों को खाना खिलाती थी और उसके बाद स्वयं अन्न ग्रहण करती थीं।
लेखिका बताती हैं कि यदि वह उस विशाल भवन में उनके अद्भुत आतिथ्य की बात न करे, तो लेखिका की कथा अधूरी रह जाएगी। लेखिका को बालिकाओं की दादी अर्थात राजेंद्र बाबू की धर्मपत्नी ने दिल्ली आने का विशेष निमंत्रण तो दिया ही, साथ ही, प्रयाग से सिरकी के बने एक दर्जन सूप लाने का भी आदेश दिया था। उन्होंने लेखिका से बार-बार यह प्रार्थना की थी कि लेखिका उनके लिए इतना कष्ट अवश्य उठाएँ, क्योंकि फटकने-पछोरने के लिए सिरकी के सूप बहुत अच्छे होते हैं, परन्तु कोई उन्हें प्रयाग से दिल्ली लाने वाला ही नहीं मिलता।
लेखिका बताती हैं कि जब उन्होंने बारह सूपों को दिल्ली ले जाने के लिए प्रथम श्रेणी के डिब्बे में टाँगा तब जो दृश्य उपस्थित हुआ था, उससे भी अधिक विचित्र दृश्य तब सामने आया, जब राष्ट्रपति-भवन से आई बड़ी कार पर यह उपहार लादा गया। राष्ट्रपति-भवन के हर द्वार पर सलाम ठोंकने वाले सिपाहियों की आँखें आश्चर्य से खुली रह गई। क्योंकि उन्होंने ऐसी भेंट लेकर न तो किसी अतिथि को आते देखा था और न ही शायद वे आगे देखने वाले थे। पर भवन की तत्कालीन स्वामिनी अर्थात राजेंद्र बाबू की धर्मपत्नी ने लेखिका को अपनी गोद में भर लिया था। अर्थात उन्होंने लेखिका को गले लगा लिया था। 

 

पाठ –  राजेंद्र बाबू तथा उनकी सहधर्मिणी सप्ताह में एक दिन अन्न नहीं ग्रहण करते थे। संयोग से मैं उनके उपवास के दिन ही पहुँची, अत: उनकी यह जिज्ञासा स्वाभाविक थी कि मैं कैसा भोजन पसंद करूँगी। उपवास में भी आतिथेय का साथ देना उचित समझकर मैंने निरन्न भोजन की ही इच्छा प्रकट की। फलाहार के साथ उत्तम खाद्य पदार्थों की कल्पना स्वाभाविक रहती है। सामान्यतः हमारा उपवास अन्य दिनों के भोजन की अपेक्षा अधिक व्ययसाध्य हो जाता है, क्योंकि उस दिन हम भाँति- भाँति के फल, मेवे, मिष्ठान्न आदि एकत्र कर लेते हैं।
मुझे आज भी वह संध्या नहीं भूलती, जब भारत के प्रथम राष्ट्रपति को मैंने सामान्य आसन पर बैठ कर दिन भर के उपवास के उपरांत केवल कुछ उबले आलू खाकर पारायण करते देखा। मुझे भी वही खाते देखकर उनकी दृष्टि में संतोष और होठों पर बालकों जैसी सरल हँसी छलक उठी।
जीवन मूल्यों की परख करने वाली दृष्टि के कारण उन्हें देशरत्न की उपाधि मिली और मन की सरल स्वच्छता ने उन्हें अजातशत्रु बना दिया। अनेक बार प्रश्न उठता है, क्या वह साँचा टूट गया जिसमें ऐसे कठिन कोमल चरित्र ढलते थे।

शब्दार्थ
आतिथेय – वह व्यक्ति जिसके यहाँ अतिथि ठहरा हो, मेज़बान
निरन्न –  बिना अन्न का, अन्न-रहित
व्ययसाध्य – जिसका मूल्य अधिक हो, महँगा, कीमती|
पारायण – किए जाने वाले किसी कार्य की समाप्ति
अजातशत्रु – जिसका कोई शत्रु या दुश्मन पैदा न हुआ हो

व्याख्या लेखिका बताती हैं कि राजेंद्र बाबू तथा उनकी धर्मपत्नी सप्ताह में एक दिन अन्न ग्रहण नहीं करते थे। और संयोग से लेखिका उनके उपवास के दिन ही राष्ट्रपति-भवन पहुँची थी, अत: उनकी यह जिज्ञासा स्वाभाविक थी कि लेखिका कैसा भोजन पसंद करेगी। उपवास में भी मेज़बान का साथ देना सही समझकर लेखिका ने अन्न-रहित भोजन की ही इच्छा प्रकट की। अर्थात लेखिका ने राजेंद्र बाबू तथा उनकी धर्मपत्नी के उपवास का आदर करते हुए स्वयं भी केवल फलाहार की ही इच्छा की। लेखिका के अनुसार फलाहार के साथ उत्तम खाद्य पदार्थों की कल्पना स्वाभाविक रहती है। क्योंकि सामान्यतः हमारा उपवास अन्य दिनों के भोजन की अपेक्षा अधिक खर्चीला हो जाता है, क्योंकि उस दिन हम अलग-अलग तरह के फल, मेवे, मीठे व्यंजन आदि इकठ्ठे कर लेते हैं। परन्तु लेखिका बताती है कि वे आज भी वह संध्या नहीं भूली हैं, जब भारत के प्रथम राष्ट्रपति को उन्होंने सामान्य आसन पर बैठ कर दिन भर के उपवास के बाद भी केवल कुछ उबले आलू खाकर उपवास को समाप्त करते देखा। जब उन्होंने लेखिका को भी वही खाते देखा तो उनकी दृष्टि में संतोष और होठों पर बालकों जैसी सरल हँसी छलक उठी थी।
जीवन मूल्यों की परख करने वाली दृष्टि के कारण उन्हें देशरत्न की उपाधि मिली और मन की सरल स्वच्छता के कारण वे सदा शत्रुओं से दूर रहे। अनेक बार लेखिका के मन में प्रश्न उठता है, कि क्या वह साँचा टूट गया होगा जिसमें राजेंद्र बाबू जैसे कठिन कोमल चरित्र ढलते व् बनते थे। अर्थात अब राजेंद्र बाबू के व्यक्तित्व जैसे किसी और को ढूँढ पाना संभव ही नहीं है। 

 

Conclusion

प्रस्तुत पाठ ‘राजेंद्र बाबू’ श्रीमती महादेवी वर्मा द्वारा लिखित एक जीवंत संस्मरण है। यह संस्मरण महादेवी वर्मा द्वारा लिखित ‘पथ के साथी’ संस्मरण में से लिया गया है। इस संस्मरण में लेखिका ने भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू के व्यक्तित्व की विशेषताओं को प्रदर्शित किया है। PSEB Class 10 Hindi – 14 (राजेंद्र बाबू)’ की इस पोस्ट में सार, व्याख्या और शब्दार्थ दिए गए हैं। छात्र इसकी मदद से पाठ को तैयार करके परीक्षा में पूर्ण अंक प्राप्त कर सकते हैं।