नए मेहमान पाठ सार
CBSE Class 8 Hindi Chapter 8 “Naye Mehman”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Malhar Book
नए मेहमान सार – Here is the CBSE Class 8 Hindi Malhar Chapter 8 Naye Mehman with detailed explanation of the lesson ‘Naye Mehman’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary
इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 8 हिंदी मल्हार के पाठ 8 नए मेहमान पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 8 नए मेहमान पाठ के बारे में जानते हैं।
Naye Mehman (नए मेहमान)
– उदयशंकर भट्ट
‘नए मेहमान’ एक यथार्थवादी एकांकी है, जिसमें उदयशंकर भट्ट ने शहरी जीवन की समस्याओं और भारतीय सामाजिक जीवन की एक परंपरा ‘अतिथि देवो भव’ के बीच का संघर्ष दिखाया है। लेखक बताते हैं कि साधारण मध्यवर्गीय परिवार पहले से ही भीषण गर्मी, असुविधाओं और छोटे मकान में जूझ रहा है। ऐसे में यदि अचानक मेहमान आ जाएँ, तो स्थिति और भी कठिन हो जाती है। परिवार संकोचवश उनका स्वागत करता है, लेकिन अंदर ही अंदर परेशानियों से टूट जाता है।
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नए मेहमान पाठ सार Naye Mehman Summary
‘नए मेहमान’ एक एकांकी है, जिसके रचनाकार उदयशंकर भट्ट हैं। इस एकांकी में आधुनिक शहरी मध्यवर्गीय जीवन की परेशानियों और उसकी विडंबनाओं का हास्यपूर्ण चित्रण किया गया है। इस एकांकी की घटना एक किराए के छोटे से मकान में घटित होती है। घर के सदस्य विश्वनाथ, उसकी पत्नी रेवती और बच्चे रात में सोने की तैयारी कर रहे हैं। दिनभर की भागदौड़ और थकान के बाद वे शांति और आराम चाहते हैं। मकान छोटा है, गर्मी अधिक है और जगह-जगह असुविधाएँ हैं। इस कारण परिवार पहले ही व्याकुल और असंतुष्ट है।
इसी समय अचानक दरवाजे पर खटखटाहट होती है और दो अपरिचित मेहमान अंदर आ जाते हैं। अजीब बात यह है कि परिवार का कोई भी सदस्य उन्हें पहचानता नहीं है। फिर भी वे बड़े अधिकारपूर्ण ढंग से घर में प्रवेश करते हैं और बिना औपचारिक अनुमति के वहीं ठहर जाते हैं। यह स्थिति कहावत “मान न मान, मैं तेरा मेहमान” जैसी है, जहाँ बिना बुलाए लोग अपने को ‘अतिथि’ घोषित करके सबको परेशानी में डाल देते हैं।
घर के लोग पहले तो चौंक जाते हैं, लेकिन भारतीय संस्कृति और परंपरा में ‘अतिथि देवो भव’ की भावना इतनी गहरी बैठी है कि वे उन्हें मना नहीं कर पाते। संकोचवश उनकी खातिरदारी करने लगते हैं। मगर असली परेशानी यहीं से शुरू होती है। मकान पहले ही छोटा है, गर्मी और असुविधाएँ हैं, ऊपर से इन दो अज्ञात मेहमानों नन्हेमल और बाबूलाल का आगमन परिवार के लिए और भी मुसीबत खड़ी कर देता है। मेहमान कुछ ऐसा करते हैं कि विश्वनाथ और रेवती को परेशानियों का सामना करना पड़ जाता है, जैसे- मेहमान बगल वाले घर की छत पर हाथ धोते हैं जिससे वहाँ पानी फ़ैल जाता है, दूसरी तरफ प्रमोद बर्फ और ठन्डे पानी का इंतज़ाम करने लगता है और रेवती को भोजन की तैयारी करनी पड़ जाती है।
मेहमान पूरे आत्मविश्वास और अधिकार के साथ घर में डेरा जमा लेते हैं। वे इस तरह व्यवहार करते हैं मानो यह उनका ही घर हो। घर के लोग चाहकर भी उन्हें रोक नहीं पाते। व्यंग्य की गहराई यहीं है कि मेहमानों को पहचान न पाने पर भी उन्हें ठहराना पड़ता है, क्योंकि न ठहराने पर ‘असभ्यता’ का आरोप लग सकता है। परिवार के सदस्यों को अपने सोने-जागने, खाने-पीने और आराम करने की आदतों में जबरन बदलाव करना पड़ता है।
जैसे-जैसे रात बढ़ती है, परिवार की परेशानी और थकान भी बढ़ती जाती है। कोई चैन से सो नहीं पाता, कोई गर्मी और असुविधा के कारण तंग है, तो कोई मेहमानों के अनचाहे सवालों और व्यवहार से खीझ रहा है। छोटे-से मकान में सभी को समेटना और मेहमानों के लिए जगह निकालना किसी पहेली से कम नहीं लगता। बार-बार पूछने पर भी वे अपनी पहचान सही से बताते नहीं, जिससे विश्वनाथ आसंजस में है।
इस पूरी स्थिति के माध्यम से लेखक ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि भारतीय समाज में ‘अतिथि-सत्कार’ की परंपरा इतनी गहरी है कि कभी-कभी वह हास्यास्पद और बोझिल स्थिति भी पैदा कर देती है। बिना बुलाए मेहमान जब घर में अधिकारपूर्वक घुस आते हैं, तो उनकी खातिरदारी करना एक नैतिक दायित्व माना जाता है। चाहे परिवार खुद कितनी भी असुविधा क्यों न झेले, मेहमान को मना करना अपमानजनक समझा जाता है।
अंत में पता चलता है कि मेहमान को किसी दूसरी कृष्णा गली में जहाँ था जहाँ कविराज रामलाल वैद्य रहते हैं।
एकांकी के अंत तक पाठक समझ जाता है कि लेखक ने केवल एक हास्यप्रद घटना नहीं दिखाई, बल्कि समाज में मौजूद उस मानसिकता पर व्यंग्य किया है जो परंपरा के नाम पर हमें विवश कर देती है। ‘नए मेहमान’ वास्तव में उस शहरी मध्यवर्ग का प्रतीक हैं, जो पहले से परेशानियों से घिरा है, परंतु दूसरों को खुश करने और अपनी छवि बचाने के लिए और अधिक बोझ उठाने को मजबूर है।
इस प्रकार यह एकांकी केवल हास्य और मनोरंजन ही नहीं करता, बल्कि हमें सोचने पर भी विवश करता है कि क्या हर परंपरा का पालन आँख मूँदकर करना उचित है। आधुनिक जीवन की समस्याओं के बीच अतिथि-सत्कार की परंपरा का अनुकरण कभी-कभी घर के लोगों के लिए असहनीय बोझ बन जाता है।
नए मेहमान पाठ व्याख्या Naye Mehman Lesson Explanation
किराये के एक छोटे से मकान में अनेक असुविधाओं और गर्मी से परेशान घर के लोग रात में सोने की तैयारी कर रहे हैं। तभी अचानक दो ऐसे मेहमान आ जाते हैं जिन्हें घर का कोई व्यक्ति नहीं जानता है। ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ वाली स्थिति हो जाती है। संकोचवश उनकी खातिरदारी में जुटा एक आधुनिक शहरी मध्यवर्गीय परिवार किन परेशानियों से जूझता है, हम इसका जीवंत चित्रण उदयशंकर भट्ट के नए मेहमान’ एकांकी में देख सकते हैं।
पात्र – परिचय
विश्वनाथ – गृहपति
नन्हेमल, बाबूलाल – अतिथि
प्रमोद, किरण – विश्वनाथ के बच्चे
आगंतुक – रेवती का भाई
रेवती – विश्वनाथ की पत्नी
स्थान
भारत का कोई बड़ा नगर
(गरमी की ऋतु, रात के आठ बजे का समय। कमरे के पूर्व की ओर दो दरवाजे । दक्षिण का द्वार बाहर आने-जाने के लिए। पश्चिम का द्वार भीतर खुलता है। उत्तर की ओर एक मेज है, जिस पर कुछ किताबें और अखबार रखे हैं। पास ही दो कुर्सियाँ, पश्चिम द्वार के पास एक पलंग बिछा है। मेज पर रखा हुआ पुराना पंखा चल रहा है, जिससे बहुत कम हवा आ रही है। कमरा बेहद गरम है। मकान एक साधारण गृहस्थ का है। पलंग के ऊपर चार-पाँच साल का एक बच्चा सो रहा है। पंखे की हवा केवल उस बच्चे को लग रही है। फिर भी वह पसीने से तर है। इसलिए वह कभी-कभी बेचैन हो उठता है, फिर सो जाता है।
कुरता-धोती पहने एक व्यक्ति प्रवेश करता है। पसीने से उसके कपड़े तर हैं। कुरता उतार कर वह खूंटी पर टाँग देता है और हाथ के पंखे से बच्चे को हवा करता है। उसका नाम विश्वनाथ है। उम्र 45 वर्ष, गठा हुआ शरीर, गेहुँआ रंग, मुख पर गंभीरता का चिह्न)
शब्दार्थ-
स्थान– जगह
ऋतु- मौसम
द्वार- दरवाज़ा
भीतर– अंदर
साधारण गृहस्थ- सामान्य घर-परिवार का व्यक्ति
तर- भीगा हुआ, गीला
बेचैन- अस्थिर, चैन न होना
खूंटी- दीवार में लगी लकड़ी या लोहे की कील जिस पर कपड़े टाँगे जाते हैं
गठा हुआ शरीर– मज़बूत और स्वस्थ शरीर
गेहुँआ रंग– हल्का साँवला रंग
गंभीरता का चिह्न– सख़्त, सोच-विचार करने वाला भाव
व्याख्या- प्रस्तुत अंश में भारत के किसी बड़े शहर का दृश्य चित्रित किया गया है। समय गर्मियों की रात का है और घड़ी में लगभग आठ बजे हैं। जिस कमरे का वर्णन किया गया है, उसमें चारों दिशाओं में अलग-अलग चीज़ें दिखाई गई हैं, पूर्व दिशा में दो दरवाज़े हैं। दक्षिण दिशा का दरवाज़ा बाहर आने-जाने के लिए है। पश्चिम दिशा का दरवाज़ा घर के अंदर की ओर खुलता है। उत्तर दिशा में एक मेज़ रखी है, जिस पर किताबें और अख़बार रखे हुए हैं। मेज़ के पास दो कुर्सियाँ हैं और पश्चिम दरवाज़े के पास एक पलंग रखा हुआ है। मेज़ पर एक पुराना पंखा रखा है जो बहुत धीरे-धीरे हवा कर रहा है। कमरे में गर्मी इतनी ज्यादा है कि पंखे से भी राहत नहीं मिल रही।
यह घर एक सामान्य परिवार वाले आदमी का है। पलंग पर एक चार–पाँच साल का बच्चा सो रहा है। पंखे की हल्की हवा सिर्फ उसी तक पहुँच रही है, फिर भी बच्चा पसीने से भीग जाता है और बीच-बीच में परेशान होकर उठता है, फिर सो जाता है।
इसी समय एक आदमी कमरे में आता है। उसने कुरता-धोती पहनी है लेकिन गर्मी की वजह से उसके कपड़े पसीने से भीग चुके हैं। वह कुरता उतारकर खूंटी पर टाँग देता है और हाथ का पंखा लेकर बच्चे को हवा करता है। उसका नाम विश्वनाथ है। उसकी उम्र लगभग 45 साल है, शरीर गठीला है, रंग गेहुँआ है और चेहरे पर गंभीरता झलकती है।
पाठ
विश्वनाथ – ओफ, बड़ी गरमी है! (पंखा जोर-जोर से करने लगता है) इन बंद मकानों में रहना कितना भयंकर है! मकान है कि भट्टी!
(पश्चिम की ओर से एक स्त्री प्रवेश करती है)
रेवती – (आँचल से मुँह का पसीना पोंछती हुई) पत्ता तक नहीं हिल रहा है। जैसे साँस बंद हो जाएगी। सिर फटा जा रहा है। (सिर दबाती है)
विश्वनाथ – पानी पीते-पीते पेट फूला जा रहा है और प्यास है कि बुझने का नाम नहीं लेती। अभी चार गिलास पीकर आया हूँ, फिर भी होंठ सूख रहे हैं। एक गिलास पानी और पिला दो। ठण्डा तो क्या होगा!
रेवती – गरम है। आँगन में घड़े में भी तो पानी ठंडा नहीं होता-हवा लगे तब तो ठंडा कब तक इस जेलखाने में सड़ना होगा।
विश्वनाथ – मकान मिलता ही नहीं। आज दो साल से दिन-रात एक करके ढूँढ़ रहा हूँ। हाँ, पानी तो ले आओ, ज़रा गला ही तर कर लूँ।
रेवती – बरफ ले आते। पर बरफ भी कोई कहाँ तक पिए।
विश्वनाथ – बरफ! बरफ का पानी पीने से क्या फायदा? प्यास जैसी-की-तैसी, बल्कि दुगुनी लगती है। ओफ! लो, पंखा कर लो। बच्चे क्या ऊपर हैं?
रेवती – रहने दो, तुम्हीं करो। छत इतनी छोटी है कि पूरी खाटें भी तो नहीं आतीं। एक खाट पर दो-दो, तीन-तीन बच्चे सोते हैं, तब भी पूरा नहीं पड़ता।
विश्वनाथ – एक यह पड़ोसी हैं, निर्दयी, जो खाली छत पड़ी रहने पर भी बच्चों के लिए एक खाट नहीं बिछाने देंगे।
रेवती – वे तो हमको मुसीबत में देखकर प्रसन्न होते हैं। उस दिन मैंने कहा तो लाला की औरत बोली ‘क्या छत तुम्हारे लिए है? नकद पचास देते हैं, तब चार खाटों की जगह मिली है। न, बाबा, यह नहीं हो सकेगा। मैं खाट नहीं बिछाने दूंगी। सब हवा रुक जाएगी। उन्हें और किसी को सोता देखकर नींद नहीं आती।’
विश्वनाथ – पर बच्चों के सोने में क्या हर्ज है? ज़रा आराम से सो सकेंगे। कहो तो मैं कहूँ?
रेवती – क्या फायदा? अगर लाला मान भी लेगा तो वह नहीं मानेगी। वैसे भी मैं उसकी छत पर बच्चों का अकेला सोना पसन्द नहीं करूँगी।
शब्दार्थ-
ओफ– थकान या कष्ट का भाव व्यक्त करने वाला शब्द
भयंकर– डरावना
भट्टी– आग जलाने का स्थान
आँचल- औरत के साड़ी या दुपट्टे का सिर ढकने वाला भाग
आँगन- घर का खुला हिस्सा (घर के बीच का खुला स्थान)
खाट– लकड़ी या रस्सी की बनी हुई चारपाई
निर्दयी- दयाहीन
नकद- वह धन है जो सिक्कों या नोटों के रूप में हो
हर्ज- नुकसान, हानि
व्याख्या- प्रस्तुत अंश में लेखक ने गर्मी के दिनों में आम आदमी की दुर्दशा को दिखाया है। विश्वनाथ कमरे में आते ही कहता है कि गर्मी असहनीय हो गई है और यह मकान तो मानो भट्टी की तरह तप रहा है। उसी समय उसकी पत्नी रेवती आती है, वो भी पसीने से तर है और कहती है कि ज़रा-सा भी हवा का झोंका नहीं है, जिससे लगता है कि साँस रुक जाएगी और सिर दर्द से फटा जा रहा है।
विश्वनाथ बताता है कि वह लगातार पानी पी रहा है, पर फिर भी प्यास नहीं बुझती। वह और पानी माँगता है। रेवती कहती है कि घर में ठंडा पानी मिलना मुश्किल है क्योंकि घड़े में रखा पानी भी गर्म हो जाता है। वह शिकायत करती है कि इस बंद कमरे में रहना जेल जैसी सज़ा लगता है। विश्वनाथ जवाब देता है कि वह पिछले दो साल से बेहतर मकान ढूँढ़ रहा है पर कहीं किराये पर घर नहीं मिलता।
बरफ़ लाने की बात पर विश्वनाथ कहता है कि बरफ़ वाला पानी पीने से कोई राहत नहीं मिलती, उल्टा प्यास और बढ़ जाती है। वह रेवती से पंखा करने को कहता है और बच्चों का हाल पूछता है। रेवती बताती है कि छत बहुत छोटी है, वहाँ मुश्किल से खाटें समाती हैं और बच्चों को एक खाट पर दो-दो, तीन-तीन करके सुलाना पड़ता है।
बातों-बातों में वे अपने पड़ोसियों की शिकायत भी करते हैं। पड़ोसी की छत खाली पड़ी है लेकिन वे निर्दयता से वहाँ बच्चों को खाट डालकर सुलाने नहीं देते। रेवती बताती है कि पड़ोसी की पत्नी साफ़ कह देती है कि जब तक नकद पचास रुपये नहीं दो, तब तक उनकी छत पर जगह नहीं मिलेगी। वह यह भी कहती है कि अगर दूसरे उनकी छत पर सोएँगे तो उन्हें नींद नहीं आएगी।
विश्वनाथ कहता है कि बच्चों के सोने में तो कोई हानि नहीं है, वे आराम से सो सकेंगे, पर रेवती कहती है कि पड़ोसन की स्वीकृति मिलना मुश्किल है। और अगर मान भी ले, तो वह अपने बच्चों को पड़ोसियों की छत पर अकेले नहीं सुलाना चाहती।
पाठ
विश्वनाथ – फिर जाने दो। मैं नीचे आँगन में सो जाया करूँगा। कमरे में भला क्या सोया जाएगा? मैं कभी-कभी सोचता हूँ यदि कोई अतिथि आ जाए तो क्या होगा?
रेवती – ईश्वर करे इन दिनों कोई मेहमान न आए। मैं तो वैसे ही गरमी के मारे मर रही हूँ। पिछले पंद्रह दिन से दर्द के मारे सिर फट रहा है। मैं ही जानती हूँ जैसे रोटी बनाती हूँ।
विश्वनाथ – सारे शहर में जैसे आग बरस रही हो। यहाँ की गरमी से तो ईश्वर बचाए। इसीलिए यहाँ गर्मियों में सभी संपन्न लोग पहाड़ों पर चले जाते हैं।
रेवती – चले जाते होंगे। गरीबों की तो मौत है।
(रेवती जाती है। बच्चा गरमी से घबरा उठता है। विश्वनाथ जोर-जोर से पंखा करता है।)
विश्वनाथ – इन सुकुमार बालकों का क्या अपराध है? इन्होंने क्या बिगाड़ा है? तमाम शरीर मारे गरमी के उबल उठा है।
(रेवती पानी का गिलास लेकर आती है।)
रेवती – बड़े का तो अभी तक बुरा हाल है। अब भी कभी-कभी देह गरम हो जाती है।
विश्वनाथ – (पानी पीकर) उसने क्या कम बीमारी भोगी है— पूरे तीन महीने तो पड़ा रहा। वह तो कहो मैंने उसे शिमला भेज दिया। नहीं तो न जाने….
रेवती – भगवान ने रक्षा की। देखा नहीं, सामने वालों की लड़की को फिर से टाइफाइड हो गया और वह चल बसी । तुम कुछ दिनों की छुट्टी क्यों नहीं ले लेते। मुझे डर है, कहीं कोई बीमार न पड़ जाए।
शब्दार्थ-
अतिथि– मेहमान
संपन्न- धनी, अमीर
तमाम शरीर– पूरा शरीर
सुकुमार– नाजुक, कोमल
अपराध- गलती, दोष
देह– शरीर
भोगी– सही
टाइफाइड- बुखार की एक गंभीर बीमारी
व्याख्या- इस भाग में विश्वनाथ और रेवती की परेशानियों को आगे दिखाया गया है। विश्वनाथ कहता है कि वह अब कमरे की बजाय नीचे आँगन में सोया करेगा क्योंकि कमरे में इतनी गर्मी है कि नींद लेना मुश्किल है। वह यह भी सोचकर परेशान होता है कि यदि इस समय कोई अतिथि आ जाए तो वे कहाँ ठहरेंगे।
रेवती कहती है कि ईश्वर करे इन दिनों कोई मेहमान न आए क्योंकि वह खुद गर्मी और सिरदर्द से बहुत परेशान है। पंद्रह दिनों से उसे लगातार सिर दर्द हो रहा है, फिर भी वह किसी तरह रोटियाँ बना रही है।
विश्वनाथ को लगता है कि पूरे शहर पर जैसे आग बरस रही है। वह कहता है कि यहाँ की गर्मी से तो भगवान ही बचाए, इसी कारण संपन्न लोग गर्मियों में पहाड़ों पर चले जाते हैं। इस पर रेवती जवाब देती है कि अमीर लोग तो चले जाते हैं, लेकिन गरीबों के लिए तो यह गर्मी मौत जैसी है।
इसी बीच बच्चा गर्मी से बेचैन होकर उठता है। विश्वनाथ उसे जोर-जोर से पंखा करता है और दुख प्रकट करता है कि इन मासूम बच्चों का क्या दोष है, क्यों इन्हें इतनी कष्टदायक गर्मी झेलनी पड़ रही है। रेवती पानी लेकर आती है और बताती है कि बड़े बेटे का स्वास्थ्य अभी भी ठीक नहीं है, कभी-कभी उसका शरीर अभी भी गरम हो जाता है।
विश्वनाथ पानी पीते हुए कहता है कि बेटे ने बहुत बीमारियाँ सही हैं, पूरे तीन महीने वह बिस्तर पर पड़ा रहा। भगवान की दया से जब उसे शिमला भेजा गया, तभी उसकी जान बच पाई। वह यह भी याद दिलाता है कि पड़ोस में रहने वाली लड़की को फिर से टाइफाइड हुआ और वह बच नहीं सकी।
रेवती चिंता व्यक्त करती है कि कहीं उनके परिवार में फिर से कोई बीमार न पड़ जाए। वह चाहती है कि विश्वनाथ कुछ दिनों की छुट्टी ले ले ताकि वे सब आराम पा सकें।

पाठ
विश्वनाथ – छुट्टी कोई दे तब न। छुट्टी ले भी लूँ तो खर्च चाहिए। खैर, तुम आज जाकर ऊपर सो जाओ। मैं आँगन में खाट डालकर पड़ा रहूँगा। बच्चे को ले जाओ। यह गरमी में भुन रहा है।
रेवती – यह नहीं हो सकता। मैं नीचे सो जाऊँगी। तुम ऊपर छत पर जाकर सो जाओ। और ऊपर भी क्या हवा है! चारों तरफ दीवारें तप रही हैं। तुम्हीं जाओ ऊपर।
विश्वनाथ – यही तो तुम्हारी बुरी आदत है। किसी का कहना न मानोगी, बस अपनी ही हाँके जाओगी। पंद्रह दिन से सिर में दर्द हो रहा है। मैं कहता हूँ खुली हवा में सो जाओगी तो तबीयत ठीक हो जाएगी।
रेवती – तुम तो व्यर्थ की जिद करते हो। भला यहाँ आँगन में तुम्हें नींद आएगी? बंद मकान, हवा का नाम नहीं। रात भर नींद न आएगी। सबेरे काम पर जाना है। जाओ, मेरा क्या है, पड़ी रहूँगी।
विश्वनाथ – नहीं, यह नहीं हो सकता। आज तो तुम्हें ऊपर सोना पड़ेगा। वैसे भी मुझे कुछ काम करना है।
रेवती – ऐसी गरमी में क्या काम करोगे? तुम्हें भी न जाने क्या धुन सवार हो जाती है। जाओ, सो जाओ। मैं आँगन में खाट पर इसे लेकर जैसे-तैसे रात काट लूँगी, जाओ ।
विश्वनाथ – अच्छा तुम जानो। मैं तो तुम्हारी भलाई के लिए कह रहा था। मैं ही ऊपर जाता हूँ।
शब्दार्थ-
हाँके जाओगी- अपनी ही बात चलाओगी, जिद करोगी
खुली हवा- ताज़ी हवा, बाहर की हवा
व्यर्थ की ज़िद- बेकार की ज़िद्द
धुन सवार होना– किसी काम में अटक जाना
जैसे-तैसे- किसी तरह, बड़ी मुश्किल से
भलाई- अच्छा, हित
व्याख्या- इस अंश में विश्वनाथ और रेवती के बीच आपसी तकरार और चिंता दिखाई गई है। दोनों पति-पत्नी अपनी-अपनी तकलीफ़ और ज़िम्मेदारियों से जूझ रहे हैं। विश्वनाथ कहता है कि छुट्टी लेना आसान नहीं है क्योंकि छुट्टी मिले तो खर्च भी चाहिए। वह सुझाव देता है कि रेवती ऊपर छत पर जाकर सो जाए और बच्चा भी साथ ले जाए, क्योंकि कमरे और आँगन में भयंकर गर्मी है। लेकिन रेवती इनकार करती है और कहती है कि वह नीचे आँगन में सो जाएगी, विश्वनाथ ही ऊपर जाकर सोए। उसका तर्क है कि ऊपर भी चारों तरफ़ दीवारें तप रही हैं, वहाँ भी राहत नहीं मिलेगी।
विश्वनाथ को यह बात बुरी लगती है। वह कहता है कि रेवती हमेशा उसकी बात नहीं मानती। वह उसे समझाता है कि पंद्रह दिनों से उसका सिर दर्द कर रहा है और यदि वह खुली हवा में सोएगी तो तबीयत बेहतर हो जाएगी। लेकिन रेवती अड़ी रहती है और कहती है कि आँगन में भी तो बिल्कुल हवा नहीं है, रातभर नींद नहीं आएगी और सुबह विश्वनाथ को काम पर भी जाना है, इसलिए वह ऊपर जाकर सोए।
विश्वनाथ ज़िद करता है कि आज रेवती को ऊपर ही सोना पड़ेगा, क्योंकि उसे भी कुछ काम करना है। रेवती हैरानी जताती है कि इतनी गर्मी में विश्वनाथ कौन-सा काम करेगा और उसे सोने को कहती है। अंत में बहस से परेशान होकर विश्वनाथ मान जाता है और कहता है कि वह खुद ही ऊपर जाकर सोएगा, जबकि उसने यह सब रेवती की भलाई के लिए कहा था।
पाठ
(बाहर से कोई दरवाजा खटखटाता है।)
रेवती – कौन होगा?
विश्वनाथ – न जाने देखता हूँ।
रेवती – हे भगवान! कोई मुसीबत न आ जाए।
(बच्चे को पंखा करती है। बच्चा गरमी के मारे उठ बैठता है, पानी माँगता है। वह बच्चे को पानी पिलाती है, पंखा करती है। इसी समय दो व्यक्तियों के साथ विश्वनाथ प्रवेश करता है। रेवती बच्चे को लेकर आँगन में चली जाती है। आगंतुक एक साधारण बिस्तर तथा एक संदूक लेकर कमरे में प्रवेश करते हैं। विश्वनाथ भी पीछे-पीछे आता है। कमीजों के ऊपर काली बंडी, सिर पर सफेद पगड़ियाँ। बड़े की अवस्था पैंतीस और छोटे की चौबीस है बड़े की मूँछे मुँह को घेरे हुए, माथे पर सलवट। छोटे की अधकटी मूँछें, लंबा मुख । दोनों मैली धोतियाँ पहने हैं। बड़े का नाम नन्हेमल और छोटे का बाबूलाल है। इस हबड़-तबड़ में दोनों बच्चे ऊपर से उतरकर आते हैं और दरवाजे के पास खड़े होकर आगंतुकों को देखते हैं।)
विश्वनाथ – (बड़े लड़के से) प्रमोद, ज़रा कुर्सी इधर खिसका दो, (दूसरे अतिथि से) आप इधर खाट पर आ जाइए! ज़रा पंखा तेज कर देना, किरण ।
शब्दार्थ-
आगंतुक- अतिथि, मेहमान
साधारण- सामान्य, सरल
बिस्तर- सोने का सामान (चादर, गद्दा आदि)
संदूक– लकड़ी या लोहे का बड़ा डिब्बा, बक्सा
बंडी- कमीज के ऊपर पहना जाने वाला छोटा कोट (जैकेट जैसा)
पगड़ी– सिर पर बाँधा जाने वाला वस्त्र
अवस्था– उम्र, आयु
सलवट– झुर्रियाँ, सिकुड़न
अधकटी– आधी कटी हुई
हबड़-तबड़- घबराहट या उतावलेपन की स्थिति
व्याख्या- अचानक बाहर से कोई दरवाजा खटखटाता है। रेवती घबराकर कहती है कि कौन होगा और भगवान से प्रार्थना करती है कि कोई मुसीबत न हो। विश्वनाथ दरवाजा देखने जाता है। तभी बच्चा गर्मी से बेचैन होकर उठ बैठता है और पानी माँगता है। रेवती उसे पानी पिलाती है और पंखा करती रहती है।
इसी बीच विश्वनाथ दो व्यक्तियों के साथ कमरे में आता है। उनके साथ एक साधारण-सा बिस्तर और एक संदूक भी है, जिससे पता चलता है कि वे ठहरने आए हैं। रेवती बच्चे को लेकर आँगन में चली जाती है। दोनों आगंतुक साधारण कपड़ों में हैं, कमीज़ पर काली बंडी, सिर पर सफेद पगड़ी, और मैली धोती पहने। बड़ा व्यक्ति जिसका नाम नन्हेमल है जो लगभग पैंतीस साल का है, जिसकी मूँछें पूरे मुँह को घेरे हुए हैं और माथे पर सलवटें हैं। छोटा व्यक्ति जिसका नाम बाबूलाल है, जो लगभग चौबीस साल का है, जिसकी अधकटी मूँछें और लंबा चेहरा है।
इतने में दोनों बच्चे ऊपर से उतरकर आते हैं और दरवाजे के पास खड़े होकर मेहमानों को देखने लगते हैं। विश्वनाथ घर के बड़े बेटे प्रमोद से कहता है कि कुर्सी इधर खिसका दो और बेटी किरण से कहता है कि पंखा तेज चलाओ। वह आगंतुकों को बैठने के लिए खाट पर जगह देता है।
पाठ
(किरण पंखा तेज करती है, किंतु पंखा वैसे ही चलता है।)
नन्हेमल – (पगड़ी के पल्ले से मुँह का पसीना पोंछकर उसी से हवा करता हुआ।) बड़ी गरमी है। क्या कहें, पंडित जी, पैदल चले आ रहे हैं, कपड़े तो ऐसे हो गए कि निचोड़ लो।
विश्वनाथ – जी, आप लोग…..
बाबूलाल – चाचा, मेरे कपड़े निचोड़कर देख लो, एक लोटे से कम पसीना नहीं निकलेगा। धोती ऐसी चर्रा रही है, जैसे पुरानी हो । पिछले दिनों नकद नौ रुपये खर्च करके खरीदी थी।
नन्हेमल – मोतीराम की दुकान से ली होगी। बड़ा ठग है। मैंने भी कुरतों के लिए छह गज मलमल मोल ली थी, सवा रुपया गज दी जबकि नत्थामल के यहाँ साढ़े नौ आने गज बिक रही थी। पंडित जी, गला सूखा जा रहा है। स्टेशन पर पानी भी नहीं मिला, मन करता है लेमन की पाँच-छह बोतलें पी जाऊँ।
बाबूलाल – मुझे कोई पिलाकर देखे, दस से कम नहीं पीऊँगा, (बच्चों की ओर देखकर) क्या नाम है तुम्हारा भाई ?
प्रमोद – प्रमोद ।
किरण – किरण ।
बाबूलाल – ठंडा-ठंडा पानी पिलाओ दोस्त, प्राण सूखे जा रहे हैं।
विश्वनाथ – देखो प्रमोद, कहीं से बरफ मिले तो ले आओ, आप लोग …..
नन्हेमल – अपना लोटा कहाँ रखा है? थैले में ही है न?
बाबूलाल – बिस्तर में होगा चाचा, निकालूँ क्या? और तो और बिस्तर भी पसीने से भीग गया, चाचा मैं तो पहले नहाऊँगा, फिर जो होगा देखा जाएगा, हाँ नहीं तो! मुझे नहीं मालूम था यहाँ इतनी गरमी है।
नन्हेमल – देखते जाओ। हाँ साहब ।
शब्दार्थ-
पल्ला- कपड़े का सिरा (यहाँ पगड़ी का किनारा)
चर्रा रही है– फटने या चटकने की स्थिति में होना
मोल- कीमत, मूल्य
गज- लंबाई नापने की इकाई (कपड़े की माप)
ठग- धोखेबाज, बेईमान व्यापारी
लेमन की बोतलें– नींबू सोडा या शरबत की बोतलें
प्राण सूखना- बहुत प्यास लगना, गला सूख जाना
व्याख्या- इस अंश में लेखक ने नए मेहमानों की स्थिति और उनका व्यवहार दिखाया है। किरण पंखा तेज करने की कोशिश करती है, लेकिन पुराना पंखा वैसे ही धीमा चलता रहता है। नन्हेमल पगड़ी से मुँह का पसीना पोंछते हुए कहता है कि गर्मी असहनीय है और पैदल चलने से कपड़े भी पसीने से भीग गए हैं। बाबूलाल मजाकिया अंदाज़ में कहता है कि उसके कपड़े निचोड़कर देख लो, एक लोटा पसीना निकल जाएगा। वह अपनी धोती का भी जिक्र करता है कि अभी हाल ही में नौ रुपये खर्च करके खरीदी थी, लेकिन अब उसकी हालत खराब हो गई है।
इसके बाद नन्हेमल दुकानदारों के ठगने की बात करता है कि कैसे उससे कपड़े महँगे दामों पर बिके। वह प्यास की शिकायत करते हुए कहता है कि उसका गला सूख रहा है और मन करता है कि पाँच–छह लेमन की बोतलें पी जाए। बाबूलाल इससे भी आगे बढ़कर कहता है कि अगर कोई पिलाए तो वह दस बोतलें पी जाएगा। फिर वह बच्चों से उनके नाम पूछता है, बच्चे अपना नाम बताते हैं, प्रमोद और किरण।
बाबूलाल बच्चों से ठंडा पानी लाने को कहता है। विश्वनाथ भी प्रमोद से कहता है कि देखो, कहीं से बर्फ मिल सके तो ले आओ। इतने में नन्हेमल और बाबूलाल आपस में बिस्तर और लोटे की बात करने लगते हैं। बाबूलाल शिकायत करता है कि बिस्तर तक पसीने से भीग गया है, इसलिए पहले तो वह नहाएगा, फिर जो होगा देखा जाएगा। वह कहता है कि उसे पता नहीं था कि यहाँ इतनी भीषण गर्मी होगी। इसपे नन्हेमल कहता है कि हाँ साहब, देखते जाइए।
पाठ
विश्वनाथ – क्षमा कीजिएगा आप कहाँ से पधारे हैं?
नन्हेमल – अरे, आप नहीं जानते! वह लाला संपतराम हैं न गोटेवाले, वह मेरे चचेरे भाई हैं। क्या बताएँ साहब, उन बेचारों का कारोबार सब चौपट हो गया, हम लोगों के देखते-देखते वह लाखों के आदमी खाक में मिल गए। बाबू, यह लो मेरी बंडी संदूक में रख दो।
विश्वनाथ – कौन संपतराम ?
बाबूलाल – अरे वही गोटेवाले। लाओ न, चाचा (संदूक खोलकर बंडी रखते हुए) माल-मसाला तो अंटी में है न?
नन्हेमल – नहीं, जेब में है, बंडी की जेब में है। अब डर की क्या बात है! घर ही तो है।
विश्वनाथ – मैं संपतराम को नहीं जानता।
नन्हेमल – संपतराम को जानने की… क्यों, वह तो आपसे मिले हैं। आपकी तो वह….
बाबूलाल – हाँ, उन्होंने कई बार मुझसे कहा है। आपकी तो वह बहुत तारीफ करते हैं। पंडित जी, क्या मकान इतना ही बड़ा है?
नन्हेमल – देख नहीं रहे, इसके पीछे एक कमरा दिखाई देता है। पंडित जी, इसके पीछे आँगन होगा और ऊपर छत होगी? शहर में तो ऐसे ही मकान होते हैं।
किरण – (विश्वनाथ से) माँ पूछती है खाना….
नन्हेमल – क्यों बाबूलाल ? पंडित जी, कष्ट तो होगा, पर तुम जानो खाना तो….
बाबूलाल – बस एक साग और पूरी।
नन्हेमल – वैसे तो मैं पराँठे भी खा लेता हूँ।
बाबूलाल – अरे खाने की भली चलाई, पेट ही तो भरना है। शहर में आए हैं तो किसी को तकलीफ थोड़े ही देंगे, देखिए पंडित जी, जिसमें आपको आराम हो, हम तो रोटी भी खा लेंगे। कल फिर देखी जाएगी।
नन्हेमल – भूख कब तक नहीं लगेगी— सारा दिन तो गया ।
बाबूलाल – नहाने का प्रबंध तो होगा, पंडित जी ?
शब्दार्थ-
क्षमा कीजिएगा– माफ कीजिए
पधारे हैं- आए हैं
लाला– व्यापारी या सेठ जी को संबोधित करने का शब्द
गोटेवाले- गोटा या किनारी का व्यापार करने वाले व्यापारी
चचेरा भाई– पिता के भाई का बेटा
कारोबार– व्यापार
चौपट हो गया- पूरी तरह नष्ट हो जाना
खाक में मिल गए- बर्बाद हो गए
माल-मसाला- कीमती सामान
अंटी- कपड़े की तह, पोटली में रखा छोटा थैला
प्रबंध- व्यवस्था
कष्ट– तकलीफ़
साग– सब्ज़ी
खाने की भली चलाई- खाने की अधिक चिंता मत करो
व्याख्या- इस अंश में मेहमानों का असली रूप और उनका व्यवहार दिखाया गया है। विश्वनाथ बड़े सभ्य और शालीन ढंग से उनसे पूछता है कि वे कहाँ से आए हैं। इस पर नन्हेमल तुरंत अपने रिश्तेदार लाला संपतराम गोटेवाले का नाम लेता है और यह जताने की कोशिश करता है कि उनका परिवार बहुत बड़ा और प्रसिद्ध है। वह यह भी बताता है कि कभी वे लाखों के मालिक थे, पर अब उनका सारा कारोबार चौपट हो गया। बाबूलाल भी चाचा की बातों में हाँ मिलाता है और सामान खोलकर व्यवस्थित करने लगता है। बाबूलाल पूछता है कि मसाला अंटी में है। इस पर नन्हेमल कहता है कि वह बंडी की जेब में है। आगे
नन्हेमल बड़ी ढिठाई से कहता है कि अब डरने की कोई बात नहीं, क्योंकि वे अपने ही घर में आए हैं। यह सुनकर विश्वनाथ चौंक जाता है और साफ कहता है कि वह तो संपतराम को जानता ही नहीं। फिर भी दोनों मेहमान उस पर दबाव डालते हैं कि संपतराम उससे कई बार मिले हैं और उसकी बहुत प्रशंसा भी करते हैं।
इसके बाद वे घर की बनावट पर नज़र डालते हैं और अपनी राय भी जताने लगते हैं, जैसे मानो यह घर उनका ही हो। वे पूछते हैं कि मकान इतना ही बड़ा है। इसपर नन्हेमल कहता है कि पीछे एक कमरा है। वे आपस में बात करते हैं कि शहर में ऐसे ही मकान होते हैं। नन्हेमल कहता है कि पीछे एक आँगन और ऊपर एक छत होगी।
इस बीच किरण विश्वनाथ से पूछती है कि माँ भोजन के लिए पूछ रही है।
भोजन की बात आते ही दोनों कहते हैं कि उन्हें तो बस साग–पूरी जैसी साधारण चीज़ भी चल जाएगी, पर थोड़ी ही देर में पराँठों की इच्छा भी जता देते हैं। यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि वे साधारण हैं, लेकिन असल में उनकी माँगें लगातार बढ़ती जाती हैं। इस ढंग से वे अपनी झिझक कम करके मेज़बान पर दबाव डालते हैं। बाबूलाल कहता है कि खाने की कोई चिंता नहीं है, पेट भरना ही मकसद है, और वे शहर में किसी को तकलीफ़ नहीं देना चाहते। वे तो साधारण रोटी से भी संतुष्ट हो जाएंगे। नन्हेमल व्यावहारिक रूप से याद दिलाता है कि भूख देर-सबेर सबको लगती है और पूरा दिन बीत चुका है। अंत में बाबूलाल यह पूछकर और असुविधा बढ़ा देता है कि नहाने का प्रबंध है या नहीं।
पाठ
(प्रमोद बरफ का पानी लाता है)
नन्हेमल – हाँ भैया, ला तो ज़रा, मैं तो डेढ़ लोटा पानी पीऊँगा।
बाबूलाल – उतना ही मैं।
(दोनों गट-गट पानी पीते हैं।)
किरण – (विश्वनाथ से धीरे से) फिर खाना?
विश्वनाथ – (इशारे से) ठहर जा ज़रा ।
नन्हेमल – (पानी पीकर) आह! अब जान में जान आई। सचमुच गरमी में पानी ही तो जान है।
बाबूलाल – पानी भी खूब ठंडा है वाह भैया, खुश रहो।
नन्हेमल – कितने सीधे लड़के हैं।
बाबूलाल – शहर के हैं न!
विश्वनाथ – क्षमा कीजिए, मैंने आपको…..
दोनों – अरे पंडित जी, आप कैसी बातें करते हैं? हम तो आपके पास के हैं।
विश्वनाथ – आप कहाँ से आए हैं?
नन्हेमल – बिजनौर से |
विश्वनाथ – (आश्चर्य से ) बिजनौर से! बिजनौर में तो…। मैं बिजनौर गया हूँ, किंतु ….
नन्हेमल – मैं ज़रा नहाना चाहता हूँ।
विश्वनाथ – मैं भी स्नान करूँगा।
विश्वनाथ – पानी तो नल में शायद ही हो, फिर भी देख लो। प्रमोद, इन्हें नीचे नल पर ले जाओ।
बाबूलाल – तब तक खाना भी तैयार हो जाएगा।
(दोनों बाहर निकल जाते हैं, रेवती का प्रवेश)
शब्दार्थ-
डेढ़ लोटा– एक लोटा और आधा
गट-गट पीना– जल्दी-जल्दी बड़े घूँट लेकर पीना
धीरे से- धीरे आवाज़ में, कान में कहकर
ठहर जा ज़रा– थोड़ा रुक जाओ
आह!– संतोष या राहत की ध्वनि
जान में जान आना- थकान दूर होना, ताजगी मिलना
सीधे लड़के– सरल स्वभाव के, भोले बच्चे
क्षमा कीजिए- माफ कीजिए
आश्चर्य से– हैरानी के साथ
स्नान करना– नहाना
प्रवेश– अंदर आना
व्याख्या- एकांकी के इस अंक में मेहमानों के व्यवहार और उनकी मांगों का चित्रण है। प्रमोद जब बर्फ का ठंडा पानी लाता है तो नन्हेमल और बाबूलाल बहुत उत्साह से अधिक मात्रा में पानी पीते हैं, मानो उनकी जान लौट आई हो। वे बच्चों की सरलता और शहर की परवरिश की भी तारीफ करते हैं। इसी बीच किरण धीरे से विश्वनाथ से खाना परोसने की बात पूछती है, लेकिन विश्वनाथ अभी रुक जाने के लिए बोलता है। बातचीत में जब विश्वनाथ उनके ठिकाने के बारे में पूछता है तो वे बिजनौर से होने की बात बताते हैं, जिस पर विश्वनाथ को आश्चर्य होता है क्योंकि वह स्वयं भी बिजनौर जा चुका है। नन्हेमल फिर स्नान की इच्छा जताता है और विश्वनाथ भी स्नान की बात करता है, हालाँकि वह नल में पानी ना होने की आशंका जताता है। प्रमोद को उन्हें नल तक ले जाने का निर्देश दिया जाता है और बाबूलाल उम्मीद जताता है कि तब तक भोजन भी तैयार हो जाएगा। इसके बाद वे दोनों बाहर की ओर निकल जाते हैं फिर रेवती आती है।
पाठ
रेवती – ये लोग कौन हैं? जान-पहचान के तो मालूम नहीं पड़ते।
विश्वनाथ – न जाने कौन हैं।
रेवती – पूछ लो न?
विश्वनाथ – क्या पूछ लूँ? दो-तीन बार पूछा, ठीक-ठीक उत्तर ही नहीं देते।
रेवती – मेरा तो दर्द के मारे सिर फटा जा रहा है, इधर पिछली शिकायत फिर बढ़ती जा रही है। पहले सोते-सोते हाथ-पैर सुन्न हो जाते थे, अब बैठे-बैठे हो जाते हैं।
विश्वनाथ – क्या बताऊँ, जीवन में तुम्हें कोई सुख न दे सका। नौकर भी नहीं टिकता है।
रेवती – पानी जो तीन मंजिल पर चढ़ाना पड़ता है, इसीलिए भाग जाता है और गरमी क्या कम है ! किसी को क्या जरूरत पड़ी है जो गरमी में भुने। यह तो हमारा ही भाग्य है कि चने की तरह भाड़ में भुनते रहते हैं।
विश्वनाथ – क्या किया जाए?
रेवती – फिर क्या खाना बनाना ही होगा? पर ये हैं कौन?
विश्वनाथ – खाना तो बनाना ही पड़ेगा। कोई भी हों, जब आए हैं तो खाना जरूर खाएँगे, थोड़ा-सा बना लो।
रेवती – (तुनककर) खाना तो खिलाना ही होगा—तुम भी खूब हो! भला इस तरह कैसे काम चलेगा? दर्द के मारे सिर फटा जा रहा है, फिर खाना बनाना इनके लिए और इस समय ? आखिर ये आए कहाँ से हैं?
शब्दार्थ-
जान-पहचान- परिचय, पहचान होना
ठीक-ठीक- साफ़-साफ़, स्पष्ट
दर्द के मारे- दर्द की वजह से
सुन्न– संवेदनाहीन, जिसमें जान न रहना
मंज़िल- मकान की ऊँचाई की मंज़िल, फ़्लोर
भाड़ में भुनना– तंदूर में चने की तरह तड़पना, कठिनाई में रहना
तुनककर– नाराज़ होकर, चिड़चिड़ेपन से
व्याख्या- इस अंश में सबसे पहले रेवती हैरानी से पूछती है कि ये लोग कौन हैं, क्योंकि उन्हें किसी जान-पहचान के नहीं लगते। इस पर विश्वनाथ भी आश्चर्य जताता है और कहता है कि वे नहीं जानता।
रेवती चाहती है कि विश्वनाथ उनसे ठीक से पूछें, लेकिन विश्वनाथ बताता है कि उन्होंने कई बार पूछा, फिर भी सही जवाब नहीं मिला। इसके बाद रेवती अपने शारीरिक परेशानियों के बारे में बताती है कि सिर दर्द से फटा जा रहा है और पहले जो शिकायत सोते समय होती थी, अब बैठे-बैठे भी हाथ-पैर सुन्न हो जाते हैं। विश्वनाथ दुःख जताता है कि वे जीवन में कभी रेवती को सुख नहीं दे सका और बताता है कि उनके यहाँ नौकर भी ज्यादा समय तक नहीं टिकते। रेवती इसका कारण बताती है कि पानी तीन मंज़िल पर चढ़ाना पड़ता है और ऊपर से गरमी भी बहुत अधिक है, इसलिए कोई भी नौकर टिक नहीं पाता। वह स्थिति की तुलना चनों के भाड़ में भुनने से करती है, जिससे पता चलता है कि वे लोग परेशान हैं। इसके बाद विश्वनाथ निराश होकर पूछता है कि अब क्या किया जाए। रेवती झुंझलाकर कहती है कि फिर खाना तो बनाना ही पड़ेगा, लेकिन यह सवाल भी उठाती है कि आखिर ये लोग हैं कौन। विश्वनाथ कहता है कि जब मेहमान आए हैं तो उन्हें खाना तो खिलाना ही होगा, इसलिए थोड़ा-सा बना लिया जाए। अंत में रेवती नाराज़गी जताती है कि इतने दर्द और थकान में खाना बनाना उनके लिए कठिन है और साथ ही वह फिर से सवाल करती है कि आखिर ये लोग आए कहाँ से हैं।
पाठ
विश्वनाथ – कहते हैं बिजनौर से आए हैं।
रेवती – (आश्चर्य से) बिजनौर! क्या बिजनौर में तुम्हारी जान-पहचान है? अपनी रिश्तेदारी का तो कोई आदमी वहाँ रहता नहीं है?
विश्वनाथ – बहुत दिन हुए एक बार काम से बिजनौर गया था, पर तब से अब तो बीस साल हो गए हैं।
रेवती – सोच लो, शायद वहाँ कोई साहित्यिक मित्र हो, उसी ने इन्हें भेजा हो ।।
विश्वनाथ – ध्यान तो नहीं आता, फिर भी कदाचित कोई मुझे जानता हो और ने भेजा हो, किसी संपतराम का नाम बता रहे थे, मैं जानता भी नहीं।
रेवती – बड़ी मुश्किल है, मैं खाना नहीं बनाऊँगी, पहले आत्मा फिर परमात्मा, जब शरीर ही ठीक नहीं रहता तो फिर और क्या करूँ?
विश्वनाथ – क्या कहेंगे कि रातभर भूखा मारा, बाजार से कुछ मँगा दो न !
रेवती – बाजार से क्या मुफ्त में आ जाएगा? तीन-चार रुपये से कम में क्या इनका पेट भरेगा, पहले तुम पूछ लो, मैं बाद में खाना बनाऊँगी।
(बाबूलाल का प्रवेश, रेवती का दूसरी ओर से जाना)
शब्दार्थ-
रिश्तेदारी– संबंधी लोग, संबंध
कदाचित- शायद, संभव है
आत्मा फिर परमात्मा- पहले स्वास्थ्य फिर भगवान, पहले तन का ख्याल फिर बाकी सब
मुफ़्त– बिना पैसे के
व्याख्या- इस अंश में विश्वनाथ बताता है कि मेहमान कह रहे हैं वे बिजनौर से आए हैं। यह सुनकर रेवती आश्चर्य करती है और पूछती है कि क्या बिजनौर में उनकी कोई पहचान है, क्योंकि रिश्तेदारी में तो वहाँ कोई नहीं रहता। विश्वनाथ बताता है कि बहुत साल पहले वे काम से बिजनौर गए थे, पर तब से लगभग बीस साल बीत चुके हैं। रेवती सोचने को कहती है कि शायद कोई साहित्यिक मित्र हो, जिसने उन्हें भेजा हो। इस पर विश्वनाथ कहता है कि उन्हें याद नहीं आता, पर शायद कोई उन्हें जानता हो और भेज दिया हो। विश्वनाथ यह भी बताता है कि मेहमान किसी संपतराम का नाम ले रहे थे, पर वे उन्हें जानते भी नहीं। इसके बाद रेवती झुंझलाकर कहती है कि वह खाना नहीं बनाएगी, क्योंकि उसकी तबीयत ठीक नहीं है क्योंकि पहले आत्मा यानी शरीर ठीक होना ज़रूरी है, तभी अन्य कार्य हो सकते हैं। विश्वनाथ समाधान खोजते हुए कहता है कि क्या मेहमानों को यह कहा जाए कि रातभर भूखे रहना पड़ेगा। बेहतर है कि बाजार से कुछ मँगवा लिया जाए। लेकिन रेवती तुरंत तर्क देती है कि बाजार से खाना मुफ्त में तो नहीं आएगा, और तीन-चार रुपये से कम में उनका पेट भी नहीं भरेगा। अंत में वह शर्त रखती है कि पहले विश्वनाथ उनसे ठीक से पूछ लें, तभी वह बाद में खाना बनाने पर विचार करेगी। तभी बाबूलाल आता है और रेवती वहाँ से दूसरी ओर चली जाती है।
पाठ
बाबूलाल – तबीयत अब शांत हुई है, फिर भी पसीने से नहा गया हूँ, न जाने पंडित जी, आप यहाँ कैसे रहते हैं! (पंखा करता है)
विश्वनाथ – आठ-नौ लाख आदमी इस शहर में रहते हैं और उनमें से छह-सात लाख आदमी इसी तरह के मकानों में रहते हैं। (ऊपर छत पर शोर मचता है) क्या बात है? कैसा झगड़ा है, प्रमोद ?
प्रमोद – (आकर) उन्होंने दूसरी छत पर हाथ धो लिए, पानी फैल गया, इसीलिए वह पड़ोस की स्त्री चिल्ला रही है। मैंने कहा, सबेरे साफ कर देंगे, इन्हें मालूम नहीं था।
विश्वनाथ – तुमने क्यों नहीं बताया कि हाथ दूसरी जगह धोओ।
प्रमोद – मैं पानी पीने चला गया था। वहाँ उषा रोने लगी। उसे चुप कराया, पानी पिलाया और पंखा झलता रहा।
विश्वनाथ – चलो कोई बात नहीं, उनसे कह दो कि सबेरे साफ करा देंगे।
(नेपथ्य में— “अरे बाबू, मेरी धोती दे देना। मैं भी नहा लूँ।”)
बाबूलाल – लाया चाचा। (जाता है)
शब्दार्थ-
तबीयत- स्वास्थ्य, शरीर की स्थिति
शांत हुई- ठंडी पड़ी, आराम मिला
पसीने से नहा गया– बहुत पसीना आना
नेपथ्य- पर्दे के पीछे से आने वाली आवाज, मंच के बाहर से
व्याख्या- इस अंश में बाबूलाल कहता है कि अब थोड़ी तबीयत शांत हुई है, लेकिन वह पसीने से तर-बतर हो गया है और आश्चर्य प्रकट करता है कि पंडित जी ऐसे वातावरण में कैसे रहते हैं। इस पर विश्वनाथ बताता है कि इस शहर में आठ-नौ लाख लोग रहते हैं और उनमें से अधिकांश यानी छह-सात लाख लोग ऐसे ही छोटे और असुविधाजनक मकानों में जीवन बिताते हैं। तभी ऊपर से शोर सुनाई देता है और विश्वनाथ प्रमोद से पूछता है कि क्या बात है। प्रमोद बताता है कि मेहमानों ने दूसरी छत पर हाथ धो लिए जिससे पानी बह गया और पड़ोस की स्त्री गुस्से में चिल्लाने लगी। प्रमोद ने समझाने की कोशिश की कि सुबह सब साफ कर देंगे, क्योंकि मेहमानों को इसकी जानकारी नहीं थी। इस पर विश्वनाथ नाराज़ होकर कहता है कि उसने पहले से क्यों नहीं बताया कि हाथ दूसरी जगह धोएँ। प्रमोद सफाई देता है कि वह उस समय पानी पीने गया था और उषा रोने लगी थी, इसलिए उसे चुप कराता रहा और पंखा झलता रहा। तब विश्वनाथ स्थिति को शांत करते हुए कहता है कि कोई बात नहीं, जाकर कह दो कि सुबह साफ कर देंगे। इसी बीच नेपथ्य से नन्हेमल की आवाज़ आती है कि उसकी धोती दे दी जाए ताकि वह भी स्नान कर सके। बाबूलाल जवाब देता है कि वह धोती ला रहा है।
पाठ
(पड़ोसी का तेजी से प्रवेश)
पड़ोसी – देखिए साहब, मेहमान आपके होंगे, मेरे नहीं। मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि मेरी छत पर इस तरह गंदा पानी फैलाया जाए।
विश्वनाथ – वाकई गलती हो गई। कल सबेरे साफ करा दूँगा।
पड़ोसी – आपसे रोज ही गलती होती है।
विश्वनाथ – अनजान आदमी से गलती हो ही जाती है। उसे क्षमा कर देना चाहिए। कल से ऐसा नहीं होगा।
पड़ोसी – होगा क्यों नहीं, रोज होगा। रोज होता है। अभी उसी दिन आपके एक और मेहमान ने पानी फैला दिया था। फिर वह हमारी खाट बिछाकर लेट गया था।
विश्वनाथ – मैंने समझा तो दिया था। फिर तो वह आदमी खाट पर नहीं लेटा था।
पड़ोसी – तो आपके यहाँ इतने मेहमान आते ही क्यों हैं? यदि मेहमान बुलाने हों तो बड़ा-सा मकान लो।
विश्वनाथ – यह भी आपने खूब कहा कि इतने मेहमान क्यों आते हैं! अरे भाई मेहमानों को क्या बुलाता हूँ? खैर, आज क्षमा करें, अब आगे ऐसा नहीं होगा।
पड़ोसी – कहाँ तक कोई क्षमा करे। क्षमा, क्षमा! बस एक ही बात याद कर ली है— क्षमा!
(पड़ोसी चला जाता है। दोनों अतिथि आते हैं।)
शब्दार्थ-
तेजी से- जल्दी, शीघ्रता से
बर्दाश्त– सहन करना
वाकई– सचमुच, वास्तव में
अनजान- अपरिचित, जिसे जानकारी न हो
क्षमा– माफी
खैर- अच्छा, कोई बात नहीं
व्याख्या- इस अंश में पड़ोसी तेज़ी से प्रवेश करता है और गुस्से में कहता है कि मेहमान पंडित जी के हैं, उसके नहीं, इसलिए वह अपनी छत पर गंदा पानी फैलाना बर्दाश्त नहीं कर सकता। विश्वनाथ गलती मानते हुए वादा करता है कि कल सुबह सब साफ करा देगा। इस पर पड़ोसी नाराज़ होकर कहता है कि उनसे तो रोज़ ही गलती होती है। विश्वनाथ शांत स्वर में समझाता है कि अनजान आदमी से गलती हो जाती है और उसे क्षमा कर देना चाहिए, आगे से ऐसा नहीं होगा। लेकिन पड़ोसी ताने देते हुए कहता है कि यह रोज़ होगा क्योंकि पहले भी एक मेहमान ने उसकी छत पर पानी गिराया था और यहाँ तक कि उसकी खाट पर जाकर लेट गया था। विश्वनाथ जवाब देता है कि उसने उस व्यक्ति को समझा दिया था और वह फिर खाट पर नहीं लेटा। पड़ोसी क्रोधित होकर पूछता है कि आखिर इतने मेहमान आते ही क्यों हैं, अगर बुलाने ही हैं तो बड़ा मकान क्यों नहीं लेते। इस पर विश्वनाथ दुखी होकर कहता है कि क्या वह मेहमानों को बुलाता है, वे अपने-आप आ जाते हैं। फिर वह पड़ोसी से निवेदन करता है कि आज के लिए क्षमा कर दे, आगे से ऐसा नहीं होगा। लेकिन पड़ोसी व्यंग्य में कहता है कि आखिर कब तक क्षमा करता रहे, हर बार बस ‘क्षमा’ ही सुनने को मिलती है, और गुस्से में वहाँ से चला जाता है। उसके जाने के तुरंत बाद दोनों अतिथि नन्हेमल और बाबूलाल फिर से आ जाते हैं।
पाठ
दोनों – क्या बात है?
विश्वनाथ – कुछ नहीं, आप धोतियाँ छज्जे पर सुखा दें।
नन्हेमल – सचमुच हमारी वजह से आपको बड़ा कष्ट हुआ। भैया, ज़रा-सा पानी और पिला दो। उफ्फ, बड़ी गरमी है। हाँ साहब, खाने में क्या देर-दार है? बात यह है कि नींद बड़े जोर से आ रही है।
विश्वनाथ – देखिए, मैं आपसे एक-दो बात पूछना चाहता हूँ।
नन्हेमल – हाँ, हाँ पूछिए, मालूम होता है, आपने हमें पहचाना नहीं है।
विश्वनाथ – जी हाँ, बात यह है कि मैं बिजनौर गया तो अवश्य हूँ, पर बहुत दिन हो गए हैं।
नन्हेमल – तो क्या हर्ज है— कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है। हम तो आपको जानते हैं। कई बार आपको देखा भी है।
बाबूलाल – लाला भानामल की लड़की की शादी में आप नजीबाबाद गए थे?
नन्हेमल – अरे, दूर क्यों जाते हो। अभी पिछले साल आप मुरादाबाद गए थे?
विश्वनाथ – हाँ पिछले साल मैं लखनऊ जाते हुए दो दिन के लिए जगदीशप्रसाद के पास मुरादाबाद ठहरा था।
नन्हेमल – हाँ, सेठ जगदीशप्रसाद के यहाँ हमने आपको देखा था।
बाबूलाल – उनकी आटे की मिल है, क्या कहने हैं उनके बड़े आदमी हैं। हम उन्हीं के रिश्तेदार हैं।
विश्वनाथ – पर उनका तो प्रेस है।
नन्हेमल – प्रेस भी होगा। उनकी एक बड़ी मिल भी है। अब एक और गन्ने की मिल बिजनौर में खुल रही है।
बाबूलाल – अगले महीने तक खुल जाएगी। हाँ भैया, पानी ले आए, लो चाचा, पहले तुम पी लो।
शब्दार्थ-
छज्जा- घर की छत से निकला हुआ हिस्सा
उफ्फ– थकान या तकलीफ़ का भाव व्यक्त करने वाला शब्द
खाने में देर-दार- भोजन तैयार होने में देरी
सेठ- धनी व्यापारी
आटे की मिल- गेहूँ पीसने की फैक्ट्री
प्रेस– छपाई करने की जगह
गन्ने की मिल- चीनी निकालने की फैक्ट्री (शुगर मिल)
भैया- भाई, संबोधन
व्याख्या- प्रस्तुत भाग में दोनों मेहमान नन्हेमल और बाबूलाल शोर सुनकर पूछते हैं कि क्या बात है। तो विश्वनाथ उन्हें टालते हुए कहता है कि बस, अपनी धोतियाँ छज्जे पर सुखा दें। नन्हेमल क्षमा जताते हुए कहता है कि उनकी वजह से विश्वनाथ को कष्ट हुआ और साथ ही फिर से ठंडा पानी माँगता है। वह गरमी और नींद की शिकायत करते हुए पूछता है कि खाना कब मिलेगा। तब विश्वनाथ गंभीर होकर कहता है कि वह उनसे एक-दो बातें पूछना चाहता है। नन्हेमल आत्मविश्वास से कहता है कि जरूर पूछिए, लगता है आपने हमें पहचाना नहीं। विश्वनाथ कहता है कि वह बिजनौर तो गया है, लेकिन बहुत साल पहले। इस पर नन्हेमल बहाना बनाकर कहता है कि कभी-कभी ऐसा होता है, लेकिन वे तो विश्वनाथ को पहचानते हैं और कई बार देख भी चुके हैं। बाबूलाल कहता है कि विश्वनाथ लाला भानामल की बेटी की शादी में नजीबाबाद गए थे। नन्हेमल तुरन्त कहता है कि अरे, पिछले साल तो वह मुरादाबाद भी गए थे। विश्वनाथ मानता है कि हाँ, वह लखनऊ जाते समय दो दिन जगदीशप्रसाद के घर मुरादाबाद ठहरा था। इस पर नन्हेमल दावा करता है कि हाँ, उन्होंने वहीं विश्वनाथ को देखा था। बाबूलाल बताता है कि जगदीशप्रसाद की आटे की मिल है और वे बहुत बड़े आदमी हैं, और वे उनके रिश्तेदार हैं। लेकिन विश्वनाथ कहता है कि उनकी तो प्रेस है। नन्हेमल बात घुमाते हुए कहता है कि प्रेस भी होगा, उनके पास मिल भी है और अब बिजनौर में गन्ने की मिल भी खुल रही है। बाबूलाल आगे जोड़ता है कि अगले महीने वह मिल शुरू हो जाएगी। तभी वह पानी मँगवाकर चाचा नन्हेमल को पहले पीने को देता है।
पाठ
विश्वनाथ – तो आप कोई चिट्ठी-विट्ठी लाए हैं?
दोनों – (सकपकाकर) चिट्ठी, चिट्ठी तो नहीं लाए हैं।
नन्हेमल – संपतराम ने कहा था कि स्टेशन से उतर कर सीधे रेलवे रोड चले जाना। वहाँ कृष्णा गली में वह रहते हैं।
विश्वनाथ – पर कृष्णा गली तो यहाँ छह हैं। कौन-सी गली में बताया था ?
नन्हेमल – छह हैं। बहुत बड़ा शहर है साहब! हमें तो यह मालूम नहीं है, शायद बताया हो। याद ही नहीं रहा।
विश्वनाथ – (खीझकर ) जिसके यहाँ आपको जाना है, उसका नाम भी तो बताया होगा?
बाबूलाल – क्या नाम था चाचा?
नन्हेमल – नाम तो याद नहीं आता। ज़रा ठहरिए, सोच लूँ।
बाबूलाल – अरे चाचा, कविराज या कवि बताया था। मैं उस समय नहीं था। सामान लेने घर गया था। तुम्हीं ने रेल में बताया था।
नन्हेमल – हाँ, साहब, कविराज बताया था। आप तो बेकार शक में पड़े हैं! हम कोई चोर थोड़े ही हैं।
बाबूलाल – चोर छिपे थोड़े ही रहते हैं। पंडित जी, क्या बताएँ, हमारे घर चलकर देख लें तो पता लगेगा कि हम भी…..
विश्वनाथ – लेकिन मैं कविराज तो नहीं हूँ?
दोनों – (चिल्लाकर) तो कवि ही बताया होगा, साहब।
नन्हेमल – हमें याद नहीं आ रहा। हमें तो जो पता दिया था उसी के सहारे आ गए। नीचे आवाज लगाई और आप मिल गए, ऊपर चढ़ आए। पहले हमने सोचा होटल या धर्मशाला में ठहर जाएँ। फिर सोचा घर के ही तो हैं। चलो, घर ही चलें।
शब्दार्थ-
चिट्ठी-विट्ठी- पत्र, कोई लिखित सूचना
सकपकाकर– घबराकर
खीझकर– झुंझलाकर
शक- संदेह
धर्मशाला– यात्रियों के ठहरने का स्थान, सराय
व्याख्या- इस अंश में विश्वनाथ सीधा सवाल करता है कि क्या वे कोई चिट्ठी-विट्ठी लाए हैं। इस पर दोनों मेहमान सकपकाकर स्वीकारते हैं कि उनके पास कोई चिट्ठी नहीं है। नन्हेमल सफाई में कहता है कि संपतराम ने उन्हें रेलवे रोड पर भेजा था, लेकिन कृष्णा गली का सही पता नहीं बताया। विश्वनाथ आश्चर्य जताता है कि यहाँ तो कृष्णा गली नाम की छह गलियाँ हैं, वे किस गली की बात कर रहे हैं। नन्हेमल लापरवाही से कहता है कि इतने बड़े शहर में उन्हें सही गली याद नहीं रही। तब विश्वनाथ खीझकर पूछता है कि जिसके यहाँ जाना है, उसका नाम तो बताया होगा। बाबूलाल चाचा से पूछता है, पर नन्हेमल नाम याद नहीं कर पाता और सोचने का बहाना करता है। बाबूलाल याद दिलाता है कि शायद ‘कविराज’ या ‘कवि’ बताया गया था। नन्हेमल तुरंत कहता है कि हाँ, कविराज ही बताया था और खुद को चोर मानने की बात पर नाराज़ होकर कहता है कि वे कोई चोर-उचक्के नहीं हैं। बाबूलाल भी कहता है कि चोर तो छिपकर रहते हैं, वे तो साफ-साफ सामने आए हैं और चाहें तो विश्वनाथ उनके घर चलकर उनकी सच्चाई देख सकता है। इस पर विश्वनाथ कहता है कि वह तो कविराज है ही नहीं। दोनों मेहमान ज़ोर देकर कहते हैं कि शायद ‘कवि’ ही बताया होगा। अंत में नन्हेमल सफाई देता है कि उन्हें बस जो पता दिया गया था उसी सहारे यहाँ आए, नीचे आवाज़ लगाई तो विश्वनाथ मिल गए, और घर में ही चढ़ आए। वह यह भी जोड़ता है कि पहले वे होटल या धर्मशाला में ठहरने का सोच रहे थे, लेकिन फिर सोचा कि अपना ही घर है, यहीं आ जाएँ।
पाठ
विश्वनाथ – जिनके यहाँ आपको जाना था, वह काम क्या करते हैं?
नन्हेमल – काम? क्या काम बताया था बाबू?
बाबूलाल – मेरे सामने तो कोई बात ही नहीं हुई। मैं तो सामान लेने चला गया था। आप तो, पंडित जी, शायद वैद्य हैं?
नन्हेमल – हाँ, याद आया। बताया था वैद्य हैं।
विश्वनाथ – पर मैं तो वैद्य नहीं हूँ।
प्रमोद – पिछली गली में एक कविराज वैद्य रहते हैं।
विश्वनाथ – हाँ, हाँ, ठीक, कहीं आप कविराज रामलाल वैद्य के यहाँ तो नहीं आए हैं?
दोनों – (उछलकर) अरे हाँ, वही तो कविराज रामलाल ।
विश्वनाथ – शायद वह उधर के हैं भी।
नन्हेमल – ठीक है, साहब, ठीक है। वही हैं। मैं भी सोच रहा था कि आप न संपतराम को जानते हैं, न जगदीशप्रसाद को— (प्रमोद से) कहाँ है उन कविराज का घर ?
दोनों – चलो, जल्दी चलो भैया, अच्छा साहब, राम-राम।
विश्वनाथ – जाओ, इन्हें उनका मकान बता दो। मैं भीतर हो आऊँ।
विश्वनाथ – (भीतर से ही) राम-राम !
शब्दार्थ-
वैद्य- आयुर्वेदिक चिकित्सक
कविराज- वैद्य का आदरसूचक संबोधन
उछलकर- अचानक उत्साह से खड़े होना
व्याख्या- इस अंश में विश्वनाथ सीधा प्रश्न करता है कि जिनके यहाँ ये मेहमान जाने वाले थे, वे क्या काम करते हैं। इस पर नन्हेमल झिझकता है और बाबूलाल से पूछता है, लेकिन बाबूलाल कहता है कि उसके सामने तो ऐसी कोई बात नहीं हुई क्योंकि वह तो सामान लेने गया था। फिर वह अनुमान लगाकर कहता है कि शायद वैद्य हैं। नन्हेमल तुरंत हामी भर देता है कि हाँ, उन्हें वैद्य ही बताया गया था। विश्वनाथ साफ कह देता है कि वह वैद्य नहीं है। तब प्रमोद बीच में बोलता है कि पिछली गली में एक कविराज रामलाल वैद्य रहते हैं। यह सुनकर विश्वनाथ को भी ध्यान आता है और वह पूछता है कि कहीं ये कविराज रामलाल वैद्य के यहाँ तो नहीं आए हैं। दोनों मेहमान अचानक खुश होकर उछल पड़ते हैं और कहते हैं कि हाँ, वही हैं। विश्वनाथ भी मान लेता है कि हो सकता है वे वहीं के हों। नन्हेमल अपनी बात को सँभालते हुए कहता है कि उसे भी शुरू से यही शक था क्योंकि विश्वनाथ न संपतराम को जानते हैं न जगदीशप्रसाद को। वह प्रमोद से कविराज का घर दिखाने को कहता है। दोनों जल्दी-जल्दी रवाना होने की तैयारी करते हैं और विदा लेते हैं। विश्वनाथ भी भीतर जाते हुए राम-राम कहता है।
पाठ
रेवती – अब जान में जान आई। हाय, सिर फटा जा रहा है।
(नीचे से आवाज आती है)
(नेपथ्य में— भले आदमी, न जाने कहाँ मकान लिया है—— ढूँढ़ते-ढूँढ़ते आधी रात हो गई।)
रेवती – फिर, फिर, (प्रसन्न होकर) अरे अरे भैया हैं! आओ, आओ, तुमने तो खबर भी न दी।
आगंतुक – रेवती! (दोनों मिलते हैं। विश्वनाथ से ) पिछले चार घंटे से बराबर मकान खोज रहा हूँ। क्या मेरा तार नहीं मिला?
विश्वनाथ – नहीं तो, कब तार दिया था?
आगंतुक – कल ही तो झाँसी से दिया था। सोचा था कि ठीक समय पर मिल जाएगा। ओह! बड़ी परेशानी हुई।
रेवती – लो, कपड़े उतार डालो। पंखा करती हूँ। अरे प्रमोद, जा जल्दी से बरफ तो ला। मामा जी को ठंडा पानी पिला। और देख, नुक्कड़ पर हलवाई की दुकान खुली हो तो….
आगंतुक – भाई, बहुत बड़ा शहर है। वह तो कहो, मैं भी ढूँढ़कर ही रहा, नहीं तो न जाने कहाँ होटल या धर्मशाला में रहना पड़ता। बड़ी गरमी है। मैं ज़रा बाथरूम जाना चाहता हूँ।
विश्वनाथ – हाँ, हाँ, अवश्य। सामने चले जाइए।
आगंतुक – एक बार तो जी में आया कि सामने होटल में ठहर जाऊँ। शायद रात को आप लोगों को कोई कष्ट हो।
रेवती – ऐसा क्यों सोचते हो! कष्ट काहे का! यह तो हम लोगों का कर्तव्य था। अच्छा, तुम तैयार हो, मैं खाना बनाती हूँ।
आगंतुक – भई, देखो, इस समय खाना-वाना रहने दो। मैं पानी पीकर सो जाऊँगा। वैसे मुझे भूख भी नहीं है।
रेवती – (जाती हुई, लौटकर) कैसी बातें करते हो भैया! मैं अभी बनाती हूँ।
आगंतुक – इतनी गरमी में! रहने दो ना
विश्वनाथ – तुम नहाने तो जाओ। (आगंतुक जाता है। रेवती से) कहो, अब?
रेवती – अब क्या, मैं खाना बनाऊँगी। भैया भूखे नहीं सो सकते।
(यवनिका)
शब्दार्थ-
अब जान में जान आई– आराम मिला
सिर फटा जा रहा है– सिर दर्द से बहुत तकलीफ़ होना
नेपथ्य- मंच के पीछे से आने वाली आवाज़
भले आदमी– सज्जन व्यक्ति
आगंतुक- आने वाला व्यक्ति, मेहमान
तार- टेलीग्राम (संदेश भेजने का पुराना साधन)
नुक्कड़– गली का मोड़, चौराहा
हलवाई- मिठाई या नाश्ता बनाने-बेचने वाला दुकानदार
कर्तव्य- ज़िम्मेदारी, धर्म
खाना-वाना– भोजन
यवनिका– पर्दा गिरना
व्याख्या- सबसे पहले रेवती थोड़ी राहत महसूस करती है और कहती है कि अब जान में जान आई, लेकिन उसका सिर बहुत दुख रहा है। तभी नीचे से आवाज आती है कि कोई व्यक्ति शिकायत कर रहा है कि मकान ढूँढ़ते-ढूँढ़ते आधी रात हो गई। यह सुनकर रेवती अचानक पहचान लेती है कि यह उसका भाई है और प्रसन्न होकर उसका स्वागत करती है। आगंतुक (भाई) आता है और बताता है कि वे चार घंटे से मकान खोज रहा था और कल झाँसी से तार भी भेजा था, पर विश्वनाथ को वह तार नहीं मिला। आगंतुक यात्रा की कठिनाई और परेशानी व्यक्त करता है। रेवती तुरंत बहन के स्नेह से कहती है कि कपड़े उतारकर आराम करो, पंखा करती हूँ, और प्रमोद से बर्फ व ठंडा पानी लाने को कहती है। आगंतुक बताता है कि शहर बहुत बड़ा है, उन्हें मकान ढूँढ़ने में कठिनाई हुई और गरमी से व्याकुल है, इसलिए वे बाथरूम जाना चाहता है। विश्वनाथ आदरपूर्वक दिशा बताता है। आगंतुक यह भी कहता है कि एक समय तो उसे लगा होटल में ही ठहर जाएँ, कहीं घरवालों को कष्ट न हो। लेकिन रेवती आत्मीयता जताते हुए कहती है कि इसमें कष्ट कैसा, यह तो हमारा कर्तव्य है और वह खाना बनाने की तैयारी करती है। आगंतुक मना करता है कि उसे भूख नहीं है, केवल पानी चाहिए और नींद आ रही है, लेकिन रेवती उसकी बात नहीं मानती और आग्रह करती है कि वह तुरंत खाना बनाएगी, क्योंकि भाई को भूखा नहीं सुला सकती। आगंतुक संकोचवश कहता है कि इतनी गरमी में रहने दो, पर विश्वनाथ बीच में कहता है कि पहले नहा लो। आगंतुक नहाने चला जाता है और तब विश्वनाथ रेवती से पूछता है कि अब क्या करना है। रेवती दृढ़ निश्चय से उत्तर देती है कि अब क्या सोचना, मैं खाना बनाऊँगी, क्योंकि भाई को भूखा नहीं सुलाया जा सकता।
Conclusion
दिए गए पोस्ट में हमने ‘नए मेहमान’ पाठ का साराँश, व्याख्या और शब्दार्थ को जाना। यह पाठ कक्षा 8 हिंदी पाठ्यक्रम के मल्हार पुस्तक में है। प्रस्तुत पाठ के रचनाकार उदयशंकर भट्ट हैं। इस पाठ में एक आधुनिक शहरी मध्यवर्गीय परिवार की स्थिति को हास्य और व्यंग्य के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है।
यह पोस्ट विद्यार्थियों को पाठ को गहराई से समझने में मदद करेगा और परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने में भी सहायक सिद्ध होगा।