दो गौरैया पाठ सार

 

CBSE Class 8 Hindi Chapter 2 “Do Gauraiya”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Malhar Book

 

दो गौरैया सार – Here is the CBSE Class 8 Hindi Malhar Chapter 2 Do Gauraiya with detailed explanation of the lesson ‘Do Gauraiya’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary

इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 8 हिंदी मल्हार के पाठ 2 दो गौरैया पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप  इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 8 दो गौरैया पाठ के बारे में जानते हैं।

 

Do Gauraiya (दो गौरैया)

भीष्म साहनी

 

‘दो गौरैया’ पाठ में लेखक ने अपने बचपन में घटी एक घटना का वर्णन किया है। लेखक ने अपने घर में पशु-पक्षियों के बसेरा डालने और उस पर उनके माता-पिता की प्रतिक्रया को अत्यधिक सुंदर तरीके से प्रस्तुत  किया है। पाठक भी लेखक के साथ पाठ में बंधते चले जाते हैं और ऐसा प्रतीत होता है जैसे सम्पूर्ण घटना प्रत्यक्ष सामने घटित होते हुए देख रहे हों।

 

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दो गौरैया पाठ सार Do Gauraiya Summary

‘दो गौरैया’ पाठ में लेखक अपने घर का जिक्र करते हुए कहते हैं कि उनके घर में उनकी माँ, उनके पिताजी और स्वयं लेखक रहते थे। परन्तु लेखक के पिताजी घर को यात्रियों के ठहरने का स्थान मानते थे क्योंकि लेखक के घर के आँगन के आम के पेड़ में तरह-तरह के पक्षी अपना बसेरा डाले रहते थे। ऐसा लगता था जैसे वे लेखक के घर का पता कहीं से लिखवाकर लाते हो। उस आम के पेड़ पर कभी तोते, कभी कौवे और कभी तरह-तरह की गौरैयाँ अपना घर बना देती थी। जैसे घर के बाहर पक्षियों ने अपना बसेरा बनाया हुआ था वैसे ही लेखक के घर के अंदर का हाल था। उनके घर में बहुत अधिक चूहे रहते थे। उनमें से एक चूहा अँगीठी के पीछे बैठना पसंद करता था, उसे देखकर लेखक अंदाजा लगाते हैं कि शायद वह चूहा बूढ़ा था और उसे सर्दी बहुत लगती थी। एक दूसरा चूहा था जिसे बाथरूम की टंकी पर चढ़कर बैठना पसंद था। उसे शायद गरमी बहुत लगती थी। लेखक के घर में बिल्ली नहीं रहती थी मगर लेखक का घर उसे भी पसंद था क्योंकि वह कभी-कभी लेखक के घर में झाँक लेती थी। शाम होते ही दो-तीन चमगादड़ कमरों के आर-पार अपने पर फैलाकर मानो व्यायाम करते थे। घर में कबूतर भी “गुटर गू गुटर गूं’ का संगीत दिन-भर सुनाते थे। इतने पशु-पक्षी होने पर भी लेखक के घर में छिपकलियाँ और ततैया और चींटियों की फौज ने तो मानो डेरा ही डाल रखा था। एक दिन लेखक के घर में दो गौरैया सीधी अंदर घुस आईं और बिना पूछे इधर-उधर उड़-उड़कर मानो मकान देखने लगीं। लेखक के पिताजी कहने लगे कि वे मकान को गौर से देख रही है कि वह उनके रहने योग्य है भी कि नहीं। दो दिन बाद लेखक और उनके माता-पिता ने देखा कि उनकी बैठक की छत में लगे पंखे के गोले में उन गौरैयों ने अपना बिस्तर बिछा लिया था जब लेखक की माँ ने कहा कि अब गौरैयाँ ने घौंसला बना लिया है और अब वे नहीं जाएंगीं तो उनकी बात सुनकर लेखक के पिताजी को गुस्सा आ गया। वह उठ खड़े हुए और गौरयाँ को बाहर निकालने की कोशिश में लग गए।  वे तुरंत उठ खड़े हुए और पंखे के नीचे जाकर जोर से ताली बजाने लगे और मुँह से ‘श… शू’ की आवाज के साथ ही, बाँहें हिलाने लगे, फिर खड़े-खड़े कूदने लगे, कभी बाँहें हिलाते, कभी ‘श… शू’ करके गौरैयों को भगाने की कोशिश करने लगे। इस तरह के मौकों पर लेखक की माँ को हमेशा मजाक सूझता था। इसलिए वे हँसकर बोल पड़ी कि चिड़ियाँ एक-दूसरे से पूछ रही हैं कि यह आदमी कौन है और नाच क्यों रहा है? जब लेखक के पिता जी गौरैयाँ को भगाने की कोशिश कर रहे थे तब गौरैयाँ घोंसले में से निकलकर दूसरे पंखे के पंख पर जा बैठीं थी। लेखक के पिता जी गौरैयाँ को निकालने की ठान चुके थे इसलिए बाहर से बड़ा डंडा उठा लाए। गौरैयाँ उड़कर पर्दे के डंडे पर जा बैठीं। लेखक के पिताजी डंडे को उठाए पर्दे के डंडे की ओर जल्दी-जल्दी पैर उठाते हुए तेजी से आगे बढ़े। अब एक गौरैया उड़कर किचन के दरवाजे पर जा बैठी और दूसरी सीढ़ियों वाले दरवाजे पर। लेखक की माँ सुझाव देते हुए बोली एक दरवाजा खुला छोड़ो, बाकी दरवाजे बंद कर दो। तभी तो ये बाहर निकलेंगी। लेखक ने भी भागकर दोनों दरवाजे बंद कर दिए केवल किचन वाला दरवाजा खुला रहा। लेखक के पिताजी ने फिर डंडा उठाया और गौरैयों पर हमला बोल दिया। आखिर में दोनों किचन की ओर खुलने वाले दरवाजे में से बाहर निकल गई। लेखक के पिता जी ने आदेश दिया कि आज दरवाजे बंद रखो। एक दिन चिड़ियाँ अंदर नहीं घुस पाएँगी, तो फिर घर छोड़ देंगी। तभी पंखे के ऊपर से फिर से चीं-चीं की आवाज सुनाई पड़ी। सिर उठाकर ऊपर की ओर देखा, तो पाया कि दोनों गौरैयाँ फिर से अपने घोंसले में मौजूद थीं। उन्हें देखकर लेखक की माँ ने कहा कि वे दरवाजे के नीचे से आ गई हैं। लेखक के पिताजी ने दरवाजों के नीचे कपड़े घुसा दिए ताकि कहीं कोई छेद न बचा रह जाए और फिर लाठी झुलाते हुए गौरैयों पर टूट पड़े। चिड़ियाँ भी चीं-चीं करती फिर बाहर निकल गई। पर थोड़ी ही देर बाद वे फिर से कमरे में मौजूद थीं। इस बार वे रोशनदान में से आ गई थीं क्योंकि उसका एक शीशा टूटा हुआ था। जिसमें से चिड़ियाँ आराम से निकलकर अंदर आ सकती थी। जब लेखक के पिता जी गौरैयों को भगाने की कोशिश कर रहे थे तो लेखक की माँ, लेखक के पिता जी से चिड़ियों को न भगाने का आग्रह कर रही थी और अबकी बार लेखक की माँ ने लेखक के पिता से गंभीरता से कहा, कि अब तो गौरैयों ने अंडे भी दे दिए होंगे। अब ये घर से नहीं जाएँगी। परन्तु लेखक के पिता जी भी मानने वाले नहीं थे। लेखक के पिता जी ने गलीचे के तबाह होने को कारण बताया , और  कुर्सी पर चढ़ गए और रोशनदान में टूटे काँच से बनी जगह पर कपड़ा ठूंस दिया और फिर डंडा झुलाकर एक बार फिर चिड़ियों को बाहर भगा दिया। लेखक और उनके माता-पिता खाना खाकर सो गए। सोने जाने से पहले लेखक ने आँगन में झाँककर देखा तो, चिड़ियाँ वहाँ पर नहीं थीं। लेखक ने समझ लिया कि चिड़ियों को अक्ल आ गई होगी। वे अपनी हार मानकर किसी दूसरी जगह चली गई होंगी। अगले दिन देखा कि वे चिड़ियाँ फिर से कमरे में मौजूद थीं। लेखक के पिताजी ने फिर से डंडा उठा लिया। उस दिन लेखक के पिता जी को गौरैयों को बाहर निकालने में बहुत देर नहीं लगी। क्योंकि पिछले दिन उन्होंने गौरैयों को भगाने का अनुभव ले लिया था। इसके बाद हर रोज यही कुछ होने लगा था। आखिर जब उनका सब्र समाप्त हो गया तो वे कहने लगे कि वे अब गौरैयों का घोंसला ही नोचकर निकाल देंगे। पिता जी के लिए घोंसला तोड़ना कोई कठिन काम नहीं था। उन्होंने पंखे के नीचे फर्श पर स्टूल रखा और डंडा लेकर स्टूल पर चढ़ गए। लेखक के पिताजी ने लाठी का ऊपरी हिस्सा सूखी घास के तिनकों पर जमाया और दाई ओर को खींच दिया। इससे दो तिनके घोंसले में से अलग हो गए और लहराते हुए नीचे गिरने लगे। लेखक ने बाहर आँगन की ओर देखा और वहाँ लेखक को दोनों गौरैयाँ नजर आईं। वे दोनों चुपचाप दीवार पर बैठी हुई थीं। जब लेखक के पिता जी ने घौंसला तोड़ते हुए ची-ची की आवाज सुनी तो उनके हाथ अचानक से रुक गए। वे सोचने लगे कि क्या गौरैयाँ फिर से लौट आई। लेखक ने भी जल्दी से बाहर की ओर देखा, वहाँ दोनों गौरैयाँ बाहर दीवार पर दुखी सी चुपचाप बैठी हुई थीं। पंखे के गोले के ऊपर से नन्हीं-नन्हीं गौरैयाँ सिर निकाले नीचे की ओर देख रही थीं और चीं-चीं किए जा रही थीं। लेखक ने देखा, कि उनके पिताजी स्टूल पर से नीचे उतर आए थे। और घोंसले के तिनकों में से लाठी निकालकर लाठी को एक ओर रख दिया था और चुपचाप कुर्सी पर आकर बैठ गए थे। लेखक की माँ कुर्सी पर से उठीं और सभी दरवाजे खोल दिए। नन्हीं चिड़ियाँ के माँ-बाप जल्दी से उड़कर अंदर आ गए और चीं-चीं करते अपने बच्चों से जा मिले और उनकी नन्हीं-नन्हीं चोंचों में दाना डालने लगे। माँ पिताजी और लेखक उनकी ओर देखते रह गए। अब फिर से कमरे में शोर होने लगा था, पर अबकी बार लेखक के पिताजी उन गौरैयों की ओर देख-देखकर केवल मुसकराते जा रहे थे। मानो उन्हें ख़ुशी हो रही हो कि समय रहते घौंसला टूटने से बच गया और उन्होंने एक परिवार को बेघर नहीं किया।

 

 

दो गौरैया पाठ व्याख्या Do Gauraiya Explanation

Do Gauraiya Summary Img1

पाठ: घर में हम तीन ही व्यक्ति रहते हैं— माँ, पिताजी और मैं। पर पिताजी कहते हैं कि यह घर सराय बना हुआ है। हम तो जैसे यहाँ मेहमान हैं, घर के मालिक तो कोई दूसरे ही हैं।
आँगन में आम का पेड़ है। तरह-तरह के पक्षी उस पर डेरा डाले रहते हैं। जो भी पक्षी पहाड़ियों- घाटियों पर से उड़ता हुआ दिल्ली पहुँचता है, पिताजी कहते हैं वही सीधा हमारे घर पहुँच जाता है, जैसे हमारे घर का पता लिखवाकर लाया हो । यहाँ कभी तोते पहुँच जाते हैं, तो कभी कौवे और कभी तरह-तरह की गौरैयाँ। वह शोर मचता है कि कानों के पर्दे फट जाएँ, पर लोग कहते हैं कि पक्षी गा रहे हैं!
घर के अंदर भी यही हाल है। बीसियों तो चूहे बसते हैं। रात भर एक कमरे से दूसरे कमरे में भागते फिरते हैं। वह धमा चौकड़ी मचती है कि हम लोग ठीक तरह से सो भी नहीं पाते। बर्तन गिरते हैं, डिब्बे खुलते हैं, प्याले टूटते हैं। एक चूहा अँगीठी के पीछे बैठना पसंद करता है, शायद बूढ़ा है उसे सर्दी बहुत लगती है। एक दूसरा है जिसे बाथरूम की टंकी पर चढ़कर बैठना पसंद है। उसे शायद गरमी बहुत लगती है। बिल्ली हमारे घर में रहती तो नहीं मगर घर उसे भी पसंद है और वह कभी-कभी झाँक जाती है। 

शब्दार्थ
सराय – यात्रियों के ठहरने का स्थान
मेहमान – अतिथि
डेरा डालना – किसी स्थान विशेष पर अस्थायी निवास, जमकर बैठ जाना
बीसियों – अत्यधिक, बीस की संख्या के आस-पास
बसते – रहते
धमा चौकड़ी – उछल-कूद, हंगामा

व्याख्यालेखक अपने घर का जिक्र करते हुए कहते हैं कि उनके घर में तीन ही व्यक्ति रहते थे – उनकी माँ, उनके पिताजी और स्वयं लेखक। परन्तु लेखक के पिताजी कहते थे कि उनका घर यात्रियों के ठहरने का स्थान बना हुआ है। वे तो जैसे घर में मेहमान हैं और घर के मालिक तो कोई दूसरे ही हैं। लेखक के घर के आँगन में एक आम का पेड़ था। उस पर तरह-तरह के पक्षी अपना बसेरा डाले रहते थे। लेखक के पिताजी कहते थे कि जो भी पक्षी पहाड़ियों या घाटियों से उड़ता हुआ दिल्ली पहुँचता है, वह सीधा उनके घर ऐसे पहुँच जाता है, जैसे उनके घर का पता कहीं से लिखवाकर लाया हो। अर्थात लेखक के घर में पक्षियों ने अपना बसेरा बनाया हुआ था। उस आम के पेड़ पर कभी तोते पहुँच जाते थे, तो कभी कौवे और कभी तरह-तरह की गौरैयाँ वहाँ अपना घर बना देती थी। वे पक्षी ऐसा शोर मचाते थे कि लगता था कानों के पर्दे फट जाएंगे, परन्तु लोग कहते थे कि पक्षी गा रहे हैं!
लेखक बताते हैं कि जैसे घर के बाहर पक्षियों ने अपना बसेरा बनाया हुआ था वैसे ही लेखक के घर के अंदर का हाल था। उनके घर में बहुत अधिक चूहे रहते थे। रात भर वे चूहे एक कमरे से दूसरे कमरे में भाग-दौड़ करते रहते थे। वे सब ऐसी उछल-कूद करते थे कि लेखक और उनके माता-पिता ठीक तरह से सो भी नहीं पाते थे। कभी बर्तन गिरते थे, कभी डिब्बे खुलते थे और कभी प्याले टूटते थे। उनमें से एक चूहा अँगीठी के पीछे बैठना पसंद करता था, उसे देखकर लेखक अंदाजा लगाते हैं कि शायद वह चूहा बूढ़ा था और उसे सर्दी बहुत लगती थी। एक दूसरा चूहा था जिसे बाथरूम की टंकी पर चढ़कर बैठना पसंद था। उसे शायद गरमी बहुत लगती थी। लेखक के घर में बिल्ली नहीं रहती थी मगर लेखक का घर उसे भी पसंद था क्योंकि वह कभी-कभी लेखक के घर में झाँक लेती थी।

 

पाठ: मन आया तो अंदर आकर दूध पी गई, न मन आया तो बाहर से ही ‘फिर आऊँगी’ कहकर चली जाती है। शाम पड़ते ही दो-तीन चमगादड़ कमरों के आर-पार पर फैलाए कसरत करने लगते हैं। घर में कबूतर भी हैं। दिन-भर “गुटर गू गुटर गूं’ का संगीत सुनाई देता रहता है। इतने पर ही बस नहीं, घर में छिपकलियाँ भी हैं और बर्रे भी हैं और चींटियों की तो जैसे फीज ही छावनी डाले हुए है।Do Gauraiya Summary Img2
Do Gauraiya Summary Img3Do Gauraiya Summary Img4अब एक दिन दो गौरैया सीधी अंदर घुस आईं और बिना पूछे उड़-उड़कर मकान देखने लगीं। पिताजी कहने लगे कि मकान का निरीक्षण कर रही हैं कि उनके रहने योग्य है या नहीं। कभी वे किसी रोशनदान पर जा बैठतीं, तो कभी खिड़की पर फिर जैसे आई थीं वैसे ही उड़ भी गई। पर दो दिन बाद हमने क्या देखा कि बैठक की छत में लगे पंखे के गोले में उन्होंने अपना बिछावन बिछा लिया है और सामान भी ले आईं हैं और मजे से दोनों बैठी गाना गा रही हैं। जाहिर है, उन्हें घर पसंद आ गया था।
माँ और पिताजी दोनों सोफे पर बैठे उनकी ओर देखे जा रहे थे। थोड़ी देर बाद माँ सिर हिलाकर बोलीं, “अब तो ये नहीं उड़ेंगी। पहले इन्हें उड़ा देते, तो उड़ जातीं। अब तो इन्होंने यहाँ घोंसला बना लिया है।”

शब्दार्थ
कसरत – व्यायाम
बर्रे – ततैया
फीज – फौज
छावनी –  डेरा, पड़ाव
निरीक्षण –  गौर से देखना, जाँच, (इंस्पेक्शन)
बिछावन – बिछौना, बिस्तर

व्याख्या लेखक बताते हैं कि बिल्ली के अगर मन हो तो वह अंदर आकर दूध पी जाती थी, और अगर मन न होता तो बाहर से ही आवाज लगती मानो कह रही हो कि वह फिर आएगी और आवाज लगाकर चली जाती थी। शाम होते ही दो-तीन चमगादड़ कमरों के आर-पार अपने पर फैलाकर मानो व्यायाम करते थे। घर में कबूतर भी थे। Do Gauraiya Summary Img5जिनके “गुटर गू गुटर गूं’ का संगीत दिन-भर सुनाई देता रहता था। इतने पशु-पक्षी होने पर भी लेखक के घर में छिपकलियाँ भी थी और ततैया भी थे और चींटियों की फौज ने तो मानो लेखक के घर में डेरा ही डाल रखा था। एक दिन लेखक के घर में दो गौरैया सीधी अंदर घुस आईं और बिना पूछे इधर-उधर उड़-उड़कर मानो मकान देखने लगीं। लेखक के पिताजी कहने लगे कि वे मकान को गौर से देख रही है कि वह उनके रहने योग्य है भी कि नहीं। कभी वे किसी रोशनदान पर जा बैठतीं, तो कभी खिड़की पर और फिर जैसे आई थीं वैसे ही उड़ कर चली भी गई। परन्तु दो दिन बाद लेखक और उनके माता-पिता ने देखा कि उनकी बैठक की छत में लगे पंखे के गोले में उन गौरैयों ने अपना बिस्तर बिछा लिया था और वे अपना सामान भी ले आईं थी और मजे से दोनों बैठी गाना गा रही थी। उन्हें देखकर लगता था कि उन्हें घर पसंद आ गया था। लेखक के माँ और पिताजी दोनों सोफे पर बैठे उनकी ओर देखे जा रहे थे। थोड़ी देर बाद लेखक की माँ ने सिर हिलाकर कहा कि अब तो वे गौरैयाँ नहीं उड़ेंगी। यदि पहले उन्हें उड़ा देते, तो वे उड़ जातीं। अब तो उन्होंने छत के पंखें के गोले में अपना घोंसला बना लिया था। अर्थात यदि घौंसला बनाने से पहले उन्हें उड़ाते तो वे उड़ जाती परन्तु घौंसला बनाने के बाद उन्हें उड़ाना सही नहीं है।

 

पाठ: इस पर पिताजी को गुस्सा आ गया। वह उठ खड़े हुए और बोले, देखता हूँ ये कैसे यहाँ रहती हैं! गौरयाँ मेरे आगे क्या चीज हैं! मैं अभी निकाल बाहर करता हूँ।”
छोड़ो जी, चूहों को तो निकाल नहीं पाए, अब चिड़ियों को निकालेंगे!” माँ ने व्यंग्य से कहा।
माँ कोई बात व्यंग्य में कहें, तो पिताजी उबल पड़ते हैं, वह समझते हैं कि माँ उनका मजाक उड़ा रही हैं। वह फौरन उठ खड़े हुए और पंखे के नीचे जाकर जोर से ताली बजाई और मुँह से ‘श… शू’ कहा, बाँहें झुलाई, फिर खड़े-खड़े कूदने लगे, कभी बाँहें झुलाते, कभी ‘श… शू’ करते ।
गौरैयों ने घोंसले में से सिर निकालकर नीचे की ओर झाँककर देखा और दोनों एक साथ “चीं-चीं’ करने लगीं। और माँ खिलखिलाकर हँसने लगीं।
पिताजी को गुस्सा आ गया, “इसमें हँसने की क्या बात है?
माँ को ऐसे मौकों पर हमेशा मजाक सूझता है। हँसकर बोली, “चिड़ियाँ एक-दूसरे से पूछ रही हैं कि यह आदमी कौन है और नाच क्यों रहा है?”
तब पिताजी को और भी ज्यादा गुस्सा आ गया और वह पहले से भी ज्यादा ऊँचा कूदने लगे।

शब्दार्थ
व्यंग्य – मजाक
उबल पड़ना – गुस्सा होना, चिड़चिड़ा जाना
फौरन – तुरंत, शीघ्र, उसी क्षण, उसी समय
झुलाई – हिलाई

व्याख्या लेखक बताते हैं कि जब उनकी माँ ने कहा कि अब गौरैयाँ ने घौंसला बना लिया है और अब वे नहीं जाएंगीं तो उनकी बात सुनकर लेखक के पिताजी को गुस्सा आ गया। वह उठ खड़े हुए और बोले कि देखता हूँ ये कैसे यहाँ रहती हैं! उनके आगे गौरयाँ क्या चीज हैं! वे अभी गौरयाँ को बाहर निकाल देंगे।
उनकी बातों पर लेखक की माता जी मजाक करते हुए कहती हैं कि छोड़ो जी, आप चूहों को तो निकाल नहीं पाए, अब चिड़ियों को निकालेंगे!
जब कभी भी लेखक की माँ कोई बात मजाक में कहती थी, तो लेखक के पिताजी चीड़ जाते थे। उन्हें हमेशा लगता था कि लेखक की माँ उनका ही मजाक उड़ाती है। इसी कारण वे तुरंत उठ खड़े हुए और पंखे के नीचे जाकर जोर से ताली बजाने लगे और मुँह से ‘श… शू’ की आवाज के साथ ही, बाँहें हिलाने लगे, फिर खड़े-खड़े कूदने लगे, कभी बाँहें हिलाते, कभी ‘श… शू’ करके गौरैयों को भगाने की कोशिश करने लगे।
गौरैयों ने घोंसले में से सिर निकालकर नीचे की ओर झाँककर देखा और दोनों एक साथ “चीं-चीं’ करने लगीं। जिस पर लेखक की माँ खिलखिलाकर हँसने लगीं।
इस पर लेखक के पिताजी को गुस्सा आ गया, और वे बोल पड़े कि इसमें हँसने की क्या बात है?
लेखक बताते हैं कि इस तरह के मौकों पर उनकी माँ को  हमेशा मजाक सूझता है। इसलिए वे हँसकर बोल पड़ी कि चिड़ियाँ एक-दूसरे से पूछ रही हैं कि यह आदमी कौन है और नाच क्यों रहा है? इस पर लेखक के पिताजी को और भी ज्यादा गुस्सा आ गया और वह पहले से भी ज्यादा ऊँचा कूदने लगे। अर्थात लेखक के पिताजी गौरैयों को भगाने की कोशिश कर रहे थे परन्तु लेखक की माँ उनका मजाक उड़ा रही थी।

 

पाठ: गौरैयाँ घोंसले में से निकलकर दूसरे पंखे के डैने पर जा बैठीं। उन्हें पिताजी का नाचना जैसे बहुत पसंद आ रहा था। माँ फिर हँसने लगीं, “ये निकलेंगी नहीं, जी। अब इन्होंने अंडे दे दिए होंगे।”
“निकलेंगी कैसे नहीं? पिताजी बोले और बाहर से लाठी उठा लाए। इसी बीच गौरियाँ फिर घोंसले में जा बैठी थीं। उन्होंने लाठी ऊँची उठाकर पंखे के गोले को ठकोरा । ‘चीं-चीं करती गौरैयाँ उड़कर पर्दे के डंडे पर जा बैठीं।
“इतनी तकलीफ करने की क्या जरूरत थी। पंखा चला देते, तो ये उड़ जातीं।” माँ ने हँसकर कहा।
पिताजी लाठी उठाए पर्दे के डंडे की ओर लपके। एक गौरैया उड़कर किचन के दरवाजे पर जा बैठी। दूसरी सीढ़ियों वाले दरवाजे पर।
माँ फिर हँस दी। “तुम तो बड़े समझदार हो जी, सभी दरवाजे खुले हैं और तुम गौरैयों को बाहर निकाल रहे हो। एक दरवाजा खुला छोड़ो, बाकी दरवाजे बंद कर दो। तभी ये निकलेंगी।”
अब पिताजी ने मुझे झिड़ककर कहा, “तू खड़ा क्या देख रहा है? जा, दोनों दरवाजे बंद कर दे!”
मैंने भागकर दोनों दरवाजे बंद कर दिए केवल किचन वाला दरवाजा खुला रहा।

शब्दार्थ
डैने – पंख
लाठी – बड़ा डंडा
ठकोरा – आघात, चोट
तकलीफ – कष्ट, परेशानी
लपके – जल्दी जल्दी पैर उठाते हुए तेजी से आगे बढ़ना या चलना
झिड़ककर – डाँट, फटकार

व्याख्यालेखक बताते हैं कि जब उनके पिता जी गौरैयाँ को भगाने की कोशिश कर रहे थे तब गौरैयाँ घोंसले में से निकलकर दूसरे पंखे के पंख पर जा बैठीं थी। उन्हें देखकर लग रहा था जैसे उन्हें लेखक के पिताजी का नाचना[-कूदना बहुत पसंद आ रहा था। पिता जी की हरकतों को देखकर लेखक की माँ फिर हँसते हुए कहने लगी कि ये नहीं निकलेंगी क्योंकि अब इन्होंने घौंसले में अंडे दे दिए होंगे। परगटु लेखक के पिता जी गौरैयाँ को निकालने की ठान चुके थे इसलिए बाहर से बड़ा डंडा उठा लाए। इसी बीच गौरियाँ फिर से घोंसले में जा बैठी थीं। लेखक के पिता जी ने बड़े डंडे को ऊँचा उठाया और पंखे के गोले को चोट करने लगे। ‘चीं-चीं करती हुई गौरैयाँ उड़कर पर्दे के डंडे पर जा बैठीं। लेखक की माँ ने फिर हँसकर कहा कि लेखक के पिता जी को इतना कष्ट करने की क्या जरूरत थी। यदि वे पंखा चला देते, तो गौरैयाँ ऐसे ही उड़ जातीं।अर्थात लेखक की माँ, लेखक के पिता जी की हर हरकत का मजाक उड़ा रही थी। लेखक के पिताजी डंडे को उठाए पर्दे के डंडे की ओर जल्दी-जल्दी पैर उठाते हुए तेजी से आगे बढ़े। अब एक गौरैया उड़कर किचन के दरवाजे पर जा बैठी और दूसरी सीढ़ियों वाले दरवाजे पर। यह देखकर लेखक की माँ फिर हँसकर व्यंग्य करने लगी कि लेखक के पिता जी तो बड़े समझदार हैं, सभी दरवाजे खुले हैं और गौरैयों को बाहर निकाल रहे हैं। फिर माँ सुझाव देते हुए बोली एक दरवाजा खुला छोड़ो, बाकी दरवाजे बंद कर दो। तभी तो ये बाहर निकलेंगी। इस पर लेखक के पिताजी अब लेखक को फटकार लगाते हुए बोले कि वह खड़ा-खड़ा क्या देख रहा है? जाकर, दोनों दरवाजे बंद कर दे! लेखक ने भी भागकर दोनों दरवाजे बंद कर दिए केवल किचन वाला दरवाजा खुला रहा।

Do Gauraiya Summary Img6

पाठ: पिताजी ने फिर लाठी उठाई और गौरैयों पर हमला बोल दिया। एक बार तो झूलती लाठी माँ के सिर पर लगते लगते बची। चीं-चीं करती चिड़ियाँ कभी एक जगह तो कभी दूसरी जगह जा बैठतीं । आखिर दोनों किचन की ओर खुलने वाले दरवाजे में से बाहर निकल गई। माँ तालियाँ बजाने लगीं। पिताजी ने लाठी दीवार के साथ टिकाकर रख दी और छाती फैलाए कुर्सी पर आ बैठे।
“आज दरवाजे बंद रखो” उन्होंने हुक्म दिया। एक दिन अंदर नहीं घुस पाएँगी, तो घर छोड़ देंगी।”
तभी पंखे के ऊपर से चीं-चीं की आवाज सुनाई पड़ी। और माँ खिलखिलाकर हँस दी। मैंने सिर उठाकर ऊपर की ओर देखा, दोनों गौरैयाँ फिर से अपने घोंसले में मौजूद थीं।
दरवाजे के नीचे से आ गई हैं, ” माँ बोलीं।
मैंने दरवाजे के नीचे देखा । सचमुच दरवाजों के नीचे थोड़ी-थोड़ी जगह खाली थी।
पिताजी को फिर गुस्सा आ गया। माँ मदद तो करती नहीं थीं, बैठी हँसे जा रही थीं।
अब तो पिताजी गौरैयों पर पिल पड़े। उन्होंने दरवाजों के नीचे कपड़े ठूंस दिए ताकि कहीं कोई छेद बचा नहीं रह जाए और फिर लाठी झुलाते हुए उन पर टूट पड़े। चिड़ियाँ चीं-चीं करती फिर बाहर निकल गई। पर थोड़ी ही देर बाद वे फिर कमरे में मौजूद थीं। अबकी बार वे रोशनदान में से आ गई थीं जिसका एक शीशा टूटा हुआ था।

शब्दार्थ
हुक्म – आदेश
पिल पड़े – एक साथ पूरी ताकत और दृढ़ संकल्प के साथ किसी पर हमला करना, धावा बोल देना
ठूंसना  – घुसाना, डालना

व्याख्या लेखक बताते हैं कि उनके पिताजी ने फिर डंडा उठाया और गौरैयों पर हमला बोल दिया। एक बार तो झूलती हुई लाठी लेखक की माँ के सिर पर लगते लगते बची थी। पिता जी के हमलों से बचती हुई चीं-चीं करती चिड़ियाँ कभी एक जगह तो कभी दूसरी जगह जा बैठतीं। आखिर में दोनों किचन की ओर खुलने वाले दरवाजे में से बाहर निकल गई। उन्हें बाहर निकलते देख कर लेखक की माँ तालियाँ बजाने लगीं। लेखक के पिताजी ने भी लाठी दीवार के साथ टिकाकर रख दी और छाती फैलाए अर्थात थक कर कुर्सी पर आ बैठे। लेखक के पिता जी ने आदेश दिया कि आज दरवाजे बंद रखो। एक दिन चिड़ियाँ अंदर नहीं घुस पाएँगी, तो फिर घर छोड़ देंगी। तभी पंखे के ऊपर से फिर से चीं-चीं की आवाज सुनाई पड़ी। और लेखक की माँ खिलखिलाकर हँस पड़ी। लेखक ने भी सिर उठाकर ऊपर की ओर देखा, तो पाया कि दोनों गौरैयाँ फिर से अपने घोंसले में मौजूद थीं। उन्हें देखकर लेखक की माँ ने कहा कि वे दरवाजे के नीचे से आ गई हैं। लेखक ने दरवाजे के नीचे देखा। सचमुच दरवाजों के नीचे थोड़ी-थोड़ी जगह खाली थी। जिससे चिड़ियाँ आराम से अंदर आ सकती थी। लेखक के पिताजी को फिर गुस्सा आ गया। क्योंकि लेखक की माँ उनकी कोई मदद तो करती नहीं थीं, बस बैठी-बैठी हँसे जा रही थीं। अब की बार लेखक के पिताजी एक साथ पूरी ताकत और दृढ़ संकल्प के साथ गौरैयों पर हमला करने लगे। उन्होंने दरवाजों के नीचे कपड़े घुसा दिए ताकि कहीं कोई छेद न बचा रह जाए और फिर लाठी झुलाते हुए गौरैयों पर टूट पड़े। चिड़ियाँ भी चीं-चीं करती फिर बाहर निकल गई। पर थोड़ी ही देर बाद वे फिर से कमरे में मौजूद थीं। इस बार वे रोशनदान में से आ गई थीं क्योंकि उसका एक शीशा टूटा हुआ था। जिसमें से चिड़ियाँ आराम से निकलकर अंदर आ सकती थी।

 

पाठ: “देखो – जी, चिड़ियों को मत निकालो,” माँ ने अबकी बार गंभीरता से कहा, अब तो इन्होंने अंडे भी दे दिए होंगे। अब ये यहाँ से नहीं जाएँगी।
क्या मतलब? मैं कालीन बरबाद करवा लूँ?” पिताजी बोले और कुर्सी पर चढ़कर रोशनदान में कपड़ा ठूंस दिया और फिर लाठी झुलाकर एक बार फिर चिड़ियों को खदेड़ दिया। दोनों पिछले आँगन की दीवार पर जा बैठीं।
इतने में रात पड़ गई। हम खाना खाकर ऊपर जाकर सो गए। जाने से पहले मैंने आँगन में झाँककर देखा, चिड़ियाँ वहाँ पर नहीं थीं। मैंने समझ लिया कि उन्हें अक्ल आ गई होगी। अपनी हार मानकर किसी दूसरी जगह चली गई होंगी।
दूसरे दिन इतवार था। जब हम लोग नीचे उतरकर आए तो वे फिर से मौजूद थीं और मजे से बैठी मल्हार गा रही थीं। पिताजी ने फिर लाठी उठा ली। उस दिन उन्हें गोरियों को बाहर निकालने में बहुत देर नहीं लगी।
अब तो रोज यही कुछ होने लगा। दिन में तो वे बाहर निकाल दी जाती पर रात के वक्त जब हम सो रहे होते, तो न जाने किस रास्ते से वे अंदर घुस आतीं।
पिताजी परेशान हो उठे। आखिर कोई कहाँ तक लाठी झुला सकता है? पिताजी बार-बार कहें, “मैं हार मानने वाला आदमी नहीं हूँ।” पर आखिर वह भी तंग आ गए थे। आखिर जब उनकी सहनशीलता चुक गई तो वह कहने लगे कि वह गौरैयों का घोंसला नोचकर निकाल देंगे। और वह फौरन ही बाहर से एक स्टूल उठा लाए।

शब्दार्थ –
गंभीरता – गहराई, गहनता, चिंतनशीलता, सोच-विचार का भाव
कालीन – गलीचा
बरबाद – नष्ट, समाप्त, तबाह
खदेड़ – भगा
इतवार – रविवार
मल्हार – प्रसिद्ध राग जो वर्षा में गाया जाता है
सहनशीलता –  संतोष, सब्र
चुक गई – समाप्त होना
फौरन – तुरंत, शीघ्र 

व्याख्या लेखक बताते हैं कि जब उनके पिता जी गौरैयों को भगाने की कोशिश कर रहे थे तो लेखक की माँ, लेखक के पिता जी से चिड़ियों को न भगाने का आग्रह कर रही थी और अबकी बार लेखक की माँ ने लेखक के पिता से गंभीरता से कहा, कि अब तो गौरैयों ने अंडे भी दे दिए होंगे। अब ये घर से नहीं जाएँगी।
परन्तु लेखक के पिता जी भी मानने वाले नहीं थे। वे गलीचे के तबाह होने का कारण बता कर, कुर्सी पर चढ़ गए और रोशनदान में टूटे काँच से बनी जगह पर कपड़ा ठूंस दिया और फिर डंडा झुलाकर एक बार फिर चिड़ियों को बाहर भगा दिया। दोनों चिड़ियाँ पिछले आँगन की दीवार पर जा कर बैठ गई। इतना सब करते हुए रात हो गई थी। लेखक और उनके माता-पिता खाना खाकर ऊपर जाकर सो गए। सोने जाने से पहले लेखक ने आँगन में झाँककर देखा तो, चिड़ियाँ वहाँ पर नहीं थीं। लेखक ने समझ लिया कि चिड़ियों को अक्ल आ गई होगी। वे अपनी हार मानकर किसी दूसरी जगह चली गई होंगी। अगले दिन रविवार था। जब लेखक और उनके माता-पिता नीचे उतरकर आए तो देखा कि वे चिड़ियाँ फिर से कमरे में मौजूद थीं और मजे से बैठकर एक प्रसिद्ध राग, जो वर्षा में गाया जाता है, उसे गा रही थीं। लेखक के पिताजी ने फिर से डंडा उठा लिया। उस दिन लेखक के पिता जी को गौरैयों को बाहर निकालने में बहुत देर नहीं लगी। क्योंकि पिछले दिन उन्होंने गौरैयों को भगाने का अनुभव ले लिया था। इसके बाद हर रोज यही कुछ होने लगा था। दिन में तो गौरैयाँ बाहर निकाल दी जाती पर रात के समय जब सभी सो रहे होते, तो न जाने किस रास्ते से वे अंदर घुस आतीं थी। लेखक के पिताजी अब उनसे परेशान हो उठे थे। आखिर कोई कहाँ तक लाठी झुला सकता है? लेखक के पिताजी भले ही बार-बार यह कहते थे कि वे हार मानने वाला आदमी नहीं हैं। परन्तु आखिर वे भी हर दिन चिड़ियों को भगाते-भगाते तंग आ गए थे। आखिर जब उनका सब्र समाप्त हो गया तो वे कहने लगे कि वे अब गौरैयों का घोंसला ही नोचकर निकाल देंगे। इतना कहकर वे तुरंत ही बाहर से एक स्टूल उठा लाए। ताकि वे चिड़ियों का घौंसला ही नष्ट कर दें।

 

पाठ: घोंसला तोड़ना कठिन काम नहीं था। उन्होंने पंखे के नीचे फर्श पर स्टूल रखा और लाठी लेकर स्टूल पर चढ़ गए। किसी को सचमुच बाहर निकालना हो, तो उसका घर तोड़ देना चाहिए.” उन्होंने गुस्से से कहा।
घोंसले में से अनेक तिनके बाहर की ओर लटक रहे थे, गौरैयों ने सजावट के लिए मानो झालर टाँग रखी हो। पिताजी ने लाठी का सिरा सूखी घास के तिनकों पर जमाया और दाई ओर को खींचा। दो तिनके घोंसले में से अलग हो गए और फरफराते हुए नीचे उतरने लगे।
“चलो, दो तिनके तो निकल गए” माँ हँसकर बोलीं, “अब बाकी दो हजार भी निकल जाएँगे!”
तभी मैंने बाहर आँगन की ओर देखा और मुझे दोनों गौरैयाँ नजर आईं। दोनों चुपचाप दीवार पर बैठी थीं। इस बीच दोनों कुछ-कुछ दुबला गई थीं, कुछ-कुछ काली पड़ गई थीं। अब वे चहक भी नहीं रही थीं।
अब पिताजी लाठी का सिरा घास के तिनकों के ऊपर रखकर वहीं रखे रखे घुमाने लगे। इससे घोंसले के लंबे-लंबे तिनके लाठी के सिरे के साथ लिपटने लगे। वे लिपटते गए, लिपटते गए और घोंसला लाठी के इर्द-गिर्द खिंचता चला आने लगा। फिर वह खींच-खींचकर लाठी के सिरे के इर्द-गिर्द लपेटा जाने लगा। सूखी घास और रुई के फाहे और धागे और थिगलियाँ लाठी के सिरे पर लिपटने लगीं। तभी सहसा जोर की आवाज आई, ‘चीं-चीं चीं-चीं!!!”

शब्दार्थ –
झालर –  शोभा के लिए किसी वस्तु पर लगाया जाने वाला लहरदार किनारा या लटकन, छोर, किनारा
दुबला – कमजोर
चहक – चिड़ियों की आवाज
सिरा – ऊपरी हिस्सा
इर्द-गिर्द – इधर-उधर
फाहे – रुई का लच्छा
थिगलियाँ –  कपड़े या चमड़े का वह टुकड़ा जो किसी वस्त्र इत्यादि के फटे हुए भाग को बंद करने के लिए सिला या टाँका जाता है, पैबंद
सहसा – अचानक

व्याख्या लेखक बताते हैं कि उनके पिता जी के लिए घोंसला तोड़ना कोई कठिन काम नहीं था। उन्होंने पंखे के नीचे फर्श पर स्टूल रखा और डंडा लेकर स्टूल पर चढ़ गए। वे सुस्से में थे और कह रहे थे कि किसी को सचमुच बाहर निकालना हो, तो उसका घर तोड़ देना चाहिए। अर्थात चिड़ियों को बाहर निकालने का अब एक ही रास्ता था कि उनका घर तोड़ दिया जाए। चिड़ियों द्वारा बनाए गए घोंसले में से अनेक तिनके ऐसे बाहर की ओर लटक रहे थे, मानो गौरैयों ने घौंसले की शोभा बढ़ाने के लिए लहरदार किनारा या लटकन घौंसले पर टाँग रखी हो। लेखक के पिताजी ने लाठी का ऊपरी हिस्सा सूखी घास के तिनकों पर जमाया और दाई ओर को खींच दिया। इससे दो तिनके घोंसले में से अलग हो गए औरलहराते हुए नीचे गिरने लगे। यह देखकर लेखक की माँ फिर हँसकर कहने लगी कि चलो, दो तिनके तो निकल गए, अब बाकी दो हजार भी निकल जाएँगे! इसी बीच लेखक ने बाहर आँगन की ओर देखा और वहाँ लेखक को दोनों गौरैयाँ नजर आईं। वे दोनों चुपचाप दीवार पर बैठी हुई थीं। जब से उन्हें घर से निकालने का काम चल रहा था वे दोनों कुछ-कुछ कमजोर हो गई थीं, कुछ-कुछ काली पड़ गई थीं। और अब तो वे आवाज भी नहीं कर रही थीं। लेखक के पिताजी डंडे के सिरे को घास के तिनकों के ऊपर रखे रखे घुमाने लगे। इससे घोंसले के लंबे-लंबे तिनके लाठी के सिरे के साथ लिपटने लगे। वे लिपटते गए, लिपटते गए और घोंसला डंडे के चारों ओर खिंचता चला आने लगा। फिर वह खींच-खींचकर डंडे के सिरे के इधर-उधर लपेटा जाने लगा। सूखी घास और रुई के लच्छे और धागे और पैबंद आदि डंडे के सिरे पर लिपटने लगे। तभी अचानक फिर से जोर की आवाज आई, ‘चीं-चीं चीं-चीं!!!

 

पाठ: पिताजी के हाथ ठिठक गए। यह क्या? क्या गौरैयाँ लौट आई हैं? मैंने झट से बाहर की ओर देखा नहीं, दोनों गौरैयाँ बाहर दीवार पर गुमसुम बैठी थीं।Do Gauraiya Summary Img7
“चीं-चीं चीं-चीं!” फिर आवाज आई। मैंने ऊपर देखा। पंखे के गोले के ऊपर से नन्हीं-नन्हीं गौरैयाँ सिर निकाले नीचे की ओर देख रही थीं और चीं-चीं किए जा रही थीं। अभी भी पिताजी के हाथ में लाठी थी और उस पर लिपटा घोंसले का बहुत-सा हिस्सा था। नन्हीं-नन्हीं दो गौरैयाँ! वे अभी भी झाँके जा रही थीं और चीं-चीं करके मानो अपना परिचय दे रही थीं, हम आ गई हैं। हमारे माँ-बाप कहाँ है?
मैं अवाक् उनकी ओर देखता रहा। फिर मैंने देखा, पिताजी स्टूल पर से नीचे उतर आए हैं। और घोंसले के तिनकों में से लाठी निकालकर उन्होंने लाठी को एक ओर रख दिया है और चुपचाप कुर्सी पर आकर बैठ गए हैं। इस
बीच माँ कुर्सी पर से उठीं और सभी दरवाजे खोल दिए। नन्हीं चिड़ियाँ अभी भी हाँफ हाँफकर चिल्लाए जा रही थीं और अपने माँ-बाप को बुला रही थीं।
उनके माँ-बाप झट से उड़कर अंदर आ गए और चीं-चीं करते उनसे जा मिले और उनकी नन्हीं-नन्हीं चोंचों में चुग्गा डालने लगे। माँ पिताजी और में उनकी ओर देखते रह गए। कमरे में फिर से शोर होने लगा था, पर अबकी बार पिताजी उनकी ओर देख-देखकर केवल मुसकराते रहे।

शब्दार्थ
ठिठकना –  अचानक रुक जाना, स्थिर हो जाना
झट से – जल्दी से
गुमसुम – दुखी
अवाक् – स्तब्ध, चकित, हैरान, मौन, चुप
चुग्गा – पक्षियों को खिलाने हेतु अनाज का दाना, चुगा

व्याख्या लेखक बताते हैं कि जब उनके पिता जी ने घौंसला तोड़ते हुए ची-ची की आवाज सुनी तो उनके हाथ अचानक से रुक गए। वे सोचने लगे कि क्या गौरैयाँ फिर से लौट आई। लेखक ने भी जल्दी से बाहर की ओर देखा, वहाँ दोनों गौरैयाँ बाहर दीवार पर दुखी सी चुपचाप बैठी हुई थीं। “चीं-चीं चीं-चीं!” फिर आवाज आई। लेखक ने ऊपर की ओर देखा। तो पंखे के गोले के ऊपर से नन्हीं-नन्हीं गौरैयाँ सिर निकाले नीचे की ओर देख रही थीं और चीं-चीं किए जा रही थीं। अभी भी लेखक के पिताजी के हाथ में डंडा था और उस पर लिपटा हुआ घोंसले का बहुत-सा हिस्सा था। नन्हीं-नन्हीं दो गौरैयाँ! वे अभी भी झाँके जा रही थीं और चीं-चीं करके मानो अपने बारे में बता रही हो कि वे आ गई हैं अर्थात वे अण्डों से बाहर निकल आई है। ऐसा लग रहा था मानो वे आवाज करके अपने माँ-बाप के बारे में पूछ रही हो। लेखक हैरान हो कर उनकी ओर देखता रहा। फिर लेखक ने देखा, कि उनके पिताजी स्टूल पर से नीचे उतर आए थे। और घोंसले के तिनकों में से लाठी निकालकर लाठी को एक ओर रख दिया था और चुपचाप कुर्सी पर आकर बैठ गए थे। ऐसा लग रहा था जैसे उन्हें पछतावा हो रहा हो। इस बीच लेखक की माँ कुर्सी पर से उठीं और सभी दरवाजे खोल दिए। नन्हीं चिड़ियाँ अभी भी हाँफ हाँफकर चिल्लाए जा रही थीं और अपने माँ-बाप को बुला रही थीं। उनके माँ-बाप जल्दी से उड़कर अंदर आ गए और चीं-चीं करते अपने बच्चों से जा मिले और उनकी नन्हीं-नन्हीं चोंचों में दाना डालने लगे। माँ पिताजी और लेखक उनकी ओर देखते रह गए। अब फिर से कमरे में शोर होने लगा था, पर अबकी बार लेखक के पिताजी उन गौरैयों की ओर देख-देखकर केवल मुसकराते जा रहे थे। मानो उन्हें ख़ुशी हो रही हो कि समय रहते घौंसला टूटने से बच गया और उन्होंने एक परिवार को बेघर नहीं किया।

 

Conclusion

‘दो गौरैया’ पाठ में लेखक ने अपने बचपन में घटी एक घटना का वर्णन किया है। लेखक ने अपने घर में पशु-पक्षियों के बसेरा डालने और उस पर उनके माता-पिता की प्रतिक्रया को अत्यधिक सुंदर तरीके से प्रस्तुत  किया है। कक्षा 8 हिंदी की मल्हार पुस्तक के पाठ 2 दो गौरैया की इस पोस्ट में सार, व्याख्या और  शब्दार्थ दिए गए हैं। छात्र इसकी मदद से पाठ को तैयार करके परीक्षा में पूर्ण अंक प्राप्त कर सकते हैं।