बिरजू महाराज से साक्षात्कार पाठ सार
CBSE Class 7 Hindi Chapter 8 “Birju Maharaj Se Sakshatkar ”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Malhar Book
बिरजू महाराज से साक्षात्कार सार – Here is the CBSE Class 7 Hindi Malhar Chapter 8 Birju Maharaj Se Sakshatkar Summary with detailed explanation of the lesson ‘Birju Maharaj Se Sakshatkar ’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary
इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 7 हिंदी मल्हार के पाठ 8 बिरजू महाराज से साक्षात्कार पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 7 बिरजू महाराज से साक्षात्कार पाठ के बारे में जानते हैं।
Birju Maharaj Se Sakshatkar (बिरजू महाराज से साक्षात्कार)
यह पाठ ‘बिरजू महाराज से साक्षात्कार’ प्रसिद्ध कथक नर्तक बिरजू महाराज जी के जीवन और अनुभवों से जुड़ा है। इस पाठ में कुछ बच्चे उनसे मिलकर उनके बचपन, संघर्ष, कथक की शुरुआत, नृत्य का महत्व और उनके शौकों के बारे में सवाल करते हैं। बिरजू महाराज बहुत छोटी उम्र से नृत्य, गाना और बजाना सीखने लगे थे। उन्होंने अपने जीवन में बहुत मेहनत की और कथक को एक नई पहचान दी। वे यह मानते हैं कि नृत्य और संगीत से जीवन में अनुशासन, संतुलन और खुशी आती है। यह पाठ बच्चों को प्रेरणा देता है कि अगर मन में लगन हो तो हर सपना पूरा किया जा सकता है।
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बिरजू महाराज से साक्षात्कार पाठ सार Birju Maharaj Se Sakshatkar Summary
यह पाठ महान कथक नर्तक पद्मविभूषण बिरजू महाराज के जीवन और अनुभवों पर आधारित है। इसमें कुछ बच्चे उनसे बातचीत करते हैं और उनके जीवन से जुड़ी कई रोचक बातें जानने की कोशिश करते हैं। बिरजू महाराज का बचपन बहुत अच्छा था, लेकिन जब उनके पिताजी का देहांत हुआ, तब उनके परिवार को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। पहले उनका जीवन बहुत आरामदायक था, लेकिन समय के साथ हालत बदल गए और घर की स्थिति भी बिगड़ गई। इसके बावजूद उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी और नृत्य का अभ्यास जारी रखा।
बिरजू महाराज को कथक नृत्य बचपन से ही बहुत पसंद था। उनके घर में नृत्य की परंपरा थी। उनके पिता अच्छन महाराज, चाचा शंभू महाराज और लच्छू महाराज सभी प्रसिद्ध कथक नर्तक थे। बिरजू जी ने भी बचपन से ही कथक सीखना शुरू कर दिया था। उन्होंने बताया कि नृत्य केवल एक कला नहीं, बल्कि साधना है। नृत्य में लय, ताल और भाव-भंगिमा का विशेष महत्व होता है। वे कहते हैं कि पढ़ाई और नृत्य दोनों साथ किए जा सकते हैं, बस मन में सच्ची लगन होनी चाहिए। उन्होंने अपनी एक शिष्या शोभना नारायण का उदाहरण दिया, जो एक आई.ए.एस.अफसर भी हैं और कथक में भी निपुण हैं।
बिरजू महाराज बताते हैं कि कथक की परंपरा बहुत पुरानी है। पहले यह मंदिरों में किया जाता था, फिर यह राजदरबारों तक पहुँचा। उन्होंने कथक में कई बदलाव किए और उसे आधुनिक रूप दिया। आजकल मंच बड़े हो गए हैं और दर्शक भी ज़्यादा होते हैं, लेकिन पहले यह कला सीमित लोगों तक ही थी। वे मानते हैं कि कथक न केवल नृत्य है, बल्कि जीवन को सुंदर और लयबद्ध बनाने की एक कला है। जैसे हम रोजमर्रा के काम लय में करते हैं, वैसे ही नृत्य भी हमें अनुशासन और संतुलन सिखाता है।
बिरजू महाराज को नृत्य के अलावा चित्र बनाना, गाना-बजाना और मशीनों से काम करना भी अच्छा लगता है। उन्होंने बताया कि अगर वे नर्तक न होते, तो शायद इंजीनियर बनते। वे कहते हैं कि कला कोई छोटी चीज नहीं होती, यह इंसान को भीतर से निखारती है। बच्चों को कला सीखनी चाहिए, इससे वे अच्छे इंसान बनते हैं। वे यह भी कहते हैं कि बच्चों को अपनी रुचि के अनुसार कला का चुनाव करना चाहिए और पूरी मेहनत और लगन से उसे सीखना चाहिए।
इस अध्याय से हमें यह सिखने को मिलता है कि अगर मन में कुछ करने की सच्ची चाह हो तो कोई भी बाधाएं हमें रोक नहीं सकती। बिरजू महाराज का जीवन संघर्ष, साधना और सफलता का एक सुंदर उदाहरण है। उनका जीवन हमें यह प्रेरणा देता है कि अपने सपनों को पूरा करने के लिए मेहनत, लगन और अनुशासन सबसे ज़रूरी हैं।
बिरजू महाराज से साक्षात्कार पाठ व्याख्या Birju Maharaj Se Sakshatkar Explanation
कथक की जब भी बात होती है तो हमारे मस्तिष्क में एक नाम अवश्य आता है— बिरजू महाराज। कथक की कला उन्हें विरासत में मिली थी, भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी बिरजू महाराज का स्मरण उनकी मनमोहक प्रस्तुतियों के लिए किया जाता है। बिरजू महाराज का जीवन शास्त्रीय संगीत के रागों के समान ही उतार–चढ़ाव भरा था। अपने जीवन में प्राप्त सफलताओं के लिए उन्होंने कठिन साधना की थी। आइए, आज हम पद्मविभूषण श्री बिरजू महाराज से मिलें। इनसे हमारा परिचय करवा रहे हैं आपके जैसे ही कुछ बच्चे।

श्रेया – सुना है कि आपका बचपन संघर्षों से भरा हुआ था। अपने बचपन के बारे में कुछ बताएँगे?
बिरजू महाराज – एक जमाना था जब हमलोग छोटे नवाब कहलाते थे। हवेली के दरवाजे पर आठ–आठ सिपाहियों का पहरा होता था। मेरे बाबूजी के देहांत के बाद आर्थिक परेशानियाँ बढ़ने लगीं। जिन डिब्बों में कभी तीन–चार लाख की कीमत के हार हुआ करते थे वे अब खाली पड़े थे। जीवन में उतार–चढ़ाव तो होता ही है। सब समय का चक्र है। संघर्षों के दौर में मेरी सबसे बड़ी सहयोगी मेरी माँ थीं। कभी कर्ज लेते थे तो कभी पुरानी ज़री की साड़ियाँ जलाकर उनके सोने–चाँदी के तार बेचते थे और गुजारा करते थे। नृत्य के कार्यक्रमों से भी कभी–कभी पैसा आ जाता था। दिन में खाना खाते थे तो रात को कई बार नहीं भी खाते थे। अम्मा बार–बार यही कहा करती थीं, “खाने को भले ही चना मिले या कुछ भी न मिले पर अभ्यास जरूर करो।“
शब्दार्थ-
संघर्षों- कठिनाइयाँ, मुश्किलों से भरा समय
छोटे नवाब- किसी समय धनवान और रौबदार घर के छोटे सदस्य
हवेली- बहुत बड़ा और भव्य घर
पहरा- सुरक्षा के लिए नियुक्त किए गए सिपाही, निगरानी
देहांत- मृत्यु
कर्ज- उधार लिया गया पैसा
ज़री- सुनहरी या चाँदी की कढ़ाई वाली कपड़े की किनारी
गुजारा- जीवन यापन, ज़रूरतों को पूरा करना
अभ्यास- लगातार मेहनत या अभ्यास करना
व्याख्या- इस अंश में श्रेया बिरजू महाराज से बात-चीत करती है और उनके बचपन के बारे में पूछती हैं। वह उनके बचपन की संघर्ष से भरे समय के बारे में पूछती है। इस पर बिरजू महाराज बहुत सादगी से जवाब देते हैं।
वे कहते हैं कि एक समय था जब उनका परिवार बहुत अमीर था। उन्हें ‘छोटे नवाब’ कहा जाता था। उनके घर की बड़ी हवेली थी और दरवाज़े पर आठ सिपाही पहरा देते थे। उनके पास बहुत कीमती गहने थे। लेकिन जब उनके पिताजी का देहांत हो गया, तब सब कुछ बदल गया। पैसों की बहुत परेशानी हो गई। जिन डिब्बों में पहले लाखों के गहने होते थे, वे अब खाली रह गए थे।
बिरजू महाराज कहते हैं कि जीवन में सुख-दुख आते रहते हैं, यह सब समय का खेल होता है। जब उनके पास पैसे नहीं थे, तब उनकी माँ ने हमेशा उनका साथ दिया। कभी पैसे उधार लेते थे, तो कभी पुरानी ज़री वाली साड़ियाँ जलाकर उनमें से सोने-चाँदी के तार निकालते और बेचते थे ताकि घर का खर्च चल सके। कभी-कभी नाच के कार्यक्रमों से थोड़ा पैसा मिल जाता था।
वे कहते हैं कि कई बार ऐसा होता था कि दिन में खाना मिल जाता था, लेकिन रात में भूखे सोना पड़ता था। लेकिन उनकी माँ हमेशा उन्हें यही सिखाती थीं कि चाहे कुछ भी हो, चाहे खाना मिले या न मिले, पर नृत्य का अभ्यास जरूर करना चाहिए।
तनुश्री – आपने कथक किससे सीखा?
बिरजू महाराज – मेरे गुरु थे मेरे पिता अच्छन महाराज और चाचा शंभू महाराज और लच्छू महाराज । घर में चूँकि कथक का माहौल था, अत: औपचारिक प्रशिक्षण शुरू होने से पहले ही मैं देख–देखकर कथक सीख गया था और नवाब के दरबार में नाचने भी लगा था। कथक की तालीम शुरू करते समय गुरु शिष्यों को गंडा (ताबीज़) बाँधते हैं और शिष्य गुरु को भेंट देता है। जब मेरी तालीम शुरू होने की बात आई तो बाबूजी ने कहा, “भेंट मिलने पर ही गंडा बाँधूंगा।” इस पर अम्मा ने मेरे दो कार्यक्रमों की कमाई बाबूजी को भेंट के रूप में दे दी। ‘गंडा‘ गुरु और शिष्य के बीच पवित्र रिश्ता होता है। मैंने अब इस रस्म को उल्टा कर दिया है। कई वर्षों तक नृत्य सिखाने के बाद जब देखता हूँ कि शिष्य में सच्ची लगन है तभी गंडा बाँधता हूँ।
शब्दार्थ-
कथक- भारत का एक शास्त्रीय नृत्य
गुरु- शिक्षक, मार्गदर्शक
तालीम- प्रशिक्षण, शिक्षा
औपचारिक प्रशिक्षण– विधिवत रूप से सिखाया जाने वाला अभ्यास या शिक्षा
दरबार- राजा या नवाब का दरबार, जहाँ दरबारी और कलाकार मौजूद रहते हैं
गंडा (ताबीज़)– एक धार्मिक प्रतीक रूपी धागा या धातु, गुरु-शिष्य संबंध का प्रतीक
भेंट- उपहार, श्रद्धा या सम्मानपूर्वक दी गई वस्तु
रस्म- परंपरा, रीति-रिवाज
लगन- निष्ठा
व्याख्या- इस अंश की बातचीत में तनुश्री बिरजू महाराज से पूछती हैं कि उन्होंने कथक नृत्य किससे सीखा। इस पर बिरजू महाराज बड़े प्यार से बताते हैं कि उनके गुरु उनके पिताजी अच्छन महाराज थे और उनके चाचा शंभू महाराज और लच्छू महाराज भी उनके गुरु थे। उनका पूरा घर कथक नृत्य से जुड़ा हुआ था, इसलिए उन्होंने बहुत छोटी उम्र में ही घर के माहौल से नाचना सीख लिया था। जब वे बहुत छोटे थे, तब ही नवाबों के दरबार में नाचने लगे थे।
फिर वे बताते हैं कि जब कथक की औपचारिक तालीम यानी सही ढंग से सीखना शुरू होता है, तो एक रस्म होती है जिसमें गुरु अपने शिष्य को गंडा (एक ताबीज़) बाँधते हैं। यह गंडा गुरु और शिष्य के रिश्ते को पवित्र बनाता है। जब बिरजू महाराज की तालीम शुरू होने वाली थी, तब उनके बाबूजी ने कहा कि वे तब तक गंडा नहीं बाँधेंगे जब तक शिष्य की तरफ से भेंट (गुरु-दक्षिणा) नहीं मिलेगी। तब उनकी माँ ने बिरजू के दो नाच के कार्यक्रमों से कमाया हुआ पैसा उनके बाबूजी को भेंट के रूप में दे दिया।
बिरजू महाराज कहते हैं कि अब उन्होंने इस परंपरा को थोड़ा बदल दिया है। अब वे तभी किसी शिष्य को गंडा बाँधते हैं, जब वे सालों तक उसे सिखा चुके होते हैं और देख लेते हैं कि वह सच्चे मन से सीखना चाहता है।

तनुश्री – क्या पढ़ाई या दूसरे कामों के साथ-साथ संगीत और नृत्य जारी रखना संभव है?
बिरजू महाराज – यह तो अपने सामर्थ्य पर निर्भर करता है। मेरी शिष्या शोभना नारायण आई.ए.एस. अफसर हैं और अच्छी नर्तकी भी। मैं नृत्य के साथ-साथ बजाता और गाता भी हूँ। इसके अतिरिक्त नृत्य नाटिकाएँ और उनके लिए संगीत भी तैयार करता हूँ। मैंने जब नौकरी शुरू की तो मेरे चाचा ने कहा, “तुम नौकरी में बँट जाओगे। तुम्हारे अंदर का नर्तक पूरी तरह पनप नहीं पाएगा।” पर मैंने दृढ़ निश्चय किया था कि ‘महाराज’ बनना है तो उसके लिए मेहनत भी करनी होगी।
शब्दार्थ-
सामर्थ्य– योग्यता, क्षमता
शिष्या- महिला विद्यार्थी, जिसे कोई गुरु सिखा रहा हो
आई.ए.एस. अफसर- भारतीय प्रशासनिक सेवा की अधिकारी
नर्तकी- महिला नृत्यांगना, जो नृत्य करती है
नाटिकाएँ– लघु नाटक या छोटे मंचन
दृढ़ निश्चय- पक्का संकल्प, पक्का इरादा
पनपना- विकसित होना, पूरी तरह खिलना या उभरना
व्याख्या- इस अंश के साक्षात्कार में तनुश्री महाराज जी से पूछती है कि क्या पढ़ाई या किसी दूसरे कामों के साथ-साथ संगीत और नृत्य को जारी रखना संभव है? इस पर बिरजू महाराज बहुत अच्छी तरह से जवाब देते हैं।
वे कहते हैं कि यह हर व्यक्ति की अपनी सामर्थ्य यानी क्षमता पर निर्भर करता है। अगर मन में लगन हो और समय को ठीक से बाँटा जाए, तो सब कुछ मुमकिन है। वे उदाहरण देते हैं कि उनकी एक शिष्या शोभना नारायण, एक आई.ए.एस. अफसर हैं, लेकिन साथ ही वे बहुत अच्छी नर्तकी भी हैं। खुद बिरजू महाराज भी नृत्य के अलावा गाना-बजाना, नाटिकाएँ बनाना और संगीत तैयार करना जैसे कई काम एक साथ करते हैं।
फिर वे बताते हैं कि जब उन्होंने नौकरी शुरू की थी तो उनके चाचा ने चिंता जताई थी कि नौकरी करने से शायद वे नृत्य पर पूरा ध्यान न दे सकें। चाचा को डर था कि बिरजू महाराज का ‘नर्तक’ बनने का सपना अधूरा रह जाएगा। लेकिन बिरजू महाराज ने ठान लिया था कि उन्हें ‘महाराज’ बनना है यानी एक महान कलाकार बनना है तो उसके लिए पूरी मेहनत करनी पड़ेगी।
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माणिक – कथक की शुरुआत कब हुई ?
बिरजू महाराज – कथक की परंपरा बहुत पुरानी है। ‘महाभारत’ के आदिपर्व और ‘रामायण’ में इसकी चर्चा मिलती है। पहले कथक रोचक और अनौपचारिक रूप से कथा कहने का ढंग होता था । तब यह मंदिरों तक ही सीमित था। हमारे लखनऊ घराने के लोग मूलत: बनारस-इलाहाबाद के बीच हरिया गाँव के रहने वाले थे। वहाँ 989 कथिकों के घर हुआ करते थे। कथिकों का एक तालाब अभी भी है। गाँव में एक बैरगिया नाला है, जिसके साथ यह कहानी जुड़ी हुई है— एक बार नौ कथिक नाले के पास से गुजर रहे थे कि तीन डाकू वहाँ आ पहुँचे। कुछ कथिक डर गए, किंतु उन कथिकों की कला में इतना दम था कि डाकू सब कुछ भूलकर उन कथिकों के कथक में मग्न हो गए। तब से यह पद लोगों में प्रचलित हो गया-
बैरगिया नाला जुलुम जोर,
नौ कथिक नचावें तीन चोर।
जब तबला बोले धीन–धीन,
तब एक–एक पर तीन–तीन।
लखनऊ घराने के बाद जयपुर घराने और फिर बनारस घराने का विकास हुआ। इसके अलावा रायगढ़ के महाराज चक्रधर की भी अपनी अलग शैली थी।
शब्दार्थ-
परंपरा- पुरानी और चली आ रही रीति
आदिपर्व– महाभारत का पहला भाग
अनौपचारिक– बिना किसी नियम या औपचारिकता के, सहज
कथा कहने का ढंग– कहानी सुनाने की शैली
कथिक– कथक नृत्य करने वाले व्यक्ति
प्रचलित- जो आम लोगों में प्रसिद्ध हो गया हो
मग्न– पूरी तरह डूब जाना, ध्यान केंद्रित कर लेना
घराना- शास्त्रीय संगीत या नृत्य की विशिष्ट शैली या परंपरा, जिसे एक खास क्षेत्र या परिवार अपनाता है
शैली- ढंग या विशेष तरीका
व्याख्या- इस अंश में माणिक बिरजू महाराज से पूछते हैं कि कथक नृत्य की शुरुआत कब और कैसे हुई। बिरजू महाराज बहुत सरल और रोचक ढंग से इसका उत्तर देते हैं।
वे बताते हैं कि कथक की परंपरा बहुत ही पुरानी है। इसकी शुरुआत की बातें हमें ‘महाभारत’ के आदिपर्व और ‘रामायण’ जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी मिलती हैं। पहले कथक एक अनौपचारिक तरीका था — यानी लोग इसे सहजता से कहानी सुनाने के लिए इस्तेमाल करते थे। उस समय यह केवल मंदिरों तक सीमित था और धार्मिक कथाएँ सुनाने के लिए इसका उपयोग होता था।
फिर वे बताते हैं कि उनके लखनऊ घराने के पूर्वज बनारस और इलाहाबाद के बीच हरिया गाँव के रहने वाले थे। उस गाँव में पहले 989 कथक करने वाले परिवार (कथिक) रहते थे। वहाँ आज भी कथिकों का एक तालाब है। गाँव में एक बैरगिया नाला नाम की जगह है, जिससे जुड़ी हुई एक रोचक कहानी भी है।
एक बार ऐसा हुआ कि नौ कथिक (कथक करने वाले कलाकार) उस नाले के पास से जा रहे थे, तभी वहाँ तीन डाकू आ गए। कुछ कथिक डर गए, लेकिन कुछ ने इतनी सुंदर कथक प्रस्तुति दी कि डाकू अपनी डकैती भूलकर उनकी कला में मग्न हो गए। तब से एक लोकगीत बन गया-
बैरगिया नाला जुलुम जोर,
नौ कथिक नचावें तीन चोर।
जब तबला बोले धीन-धीन,
तब एक-एक पर तीन-तीन।
इसका मतलब है कि जब नौ कथिक नाचते थे तो तीन-तीन डाकू उनकी नृत्य कला में खो जाते थे।
बिरजू महाराज आगे बताते हैं कि सबसे पहले लखनऊ घराना, फिर जयपुर घराना और उसके बाद बनारस घराना बना। इसके अलावा रायगढ़ के महाराज चक्रधर सिंह ने भी कथक की एक अलग शैली को बढ़ावा दिया।
श्रेया – क्या नृत्य सीखने के लिए संगीत जानना जरूरी होता है?
बिरजू महाराज – गाना, बजाना और नाचना – ये तीनों संगीत का हिस्सा हैं। संगीत में लय होती है। उसका ज्ञान आवश्यक है। नृत्य में शरीर, ध्यान और तपस्या का साधन होता है। नृत्य करना एक तरह अदृश्य शक्ति को निमंत्रण देना है— , मेरे अंदर समाओ और नाचो। नृत्य ही नहीं, हमारी हर गतिविधि में लय होती है। घसियारा घास को हाथ से पकड़ कर उस पर हँसिया मारता है और फिर घास हटाता है। मारने और हटाने की इस लय में जरा भी गड़बड़ी हुई नहीं कि उसका हाथ गया। लय हर काम में, नृत्य में, जीवन में संतुलन बनाए रखती है। लय एक तरह का आवरण है, जो नृत्य को सुंदरता प्रदान करती है। अगर नर्तक को सुर–समझ है तो वह जान पाएगा कि यह लहरा ठीक नहीं है। इसके माध्यम से नृत्य अंगों में प्रवेश नहीं करेगा।
शब्दार्थ-
लय- गति और ताल का क्रम
अदृश्य– जो दिखाई न दे
निमंत्रण- बुलावा
तपस्या- कठिन अभ्यास और एकाग्र साधना
घसियारा– घास काटने वाला व्यक्ति
हँसिया– घास काटने का चंद्राकार औजार
संतुलन- बराबरी या तालमेल
आवरण- ढकने वाली परत या सजावट की परत
व्याख्या- इस अंश में बिरजू महाराज से श्रेया पूछती है कि – “क्या नृत्य सीखने के लिए संगीत जानना ज़रूरी होता है?”
इसका उत्तर देते हुए बिरजू महाराज बहुत सुंदर और सरल तरीके से समझाते हैं कि गाना (सुर), बजाना (वाद्य यंत्र) और नाचना – ये तीनों मिलकर संगीत बनाते हैं।
वे कहते हैं कि संगीत में लय होती है, और नृत्य में भी लय बहुत ज़रूरी होती है। अगर नर्तक को लय का ज्ञान नहीं है, तो उसका नृत्य सुंदर और प्रभावशाली नहीं हो सकता। नृत्य सिर्फ शरीर की गति नहीं है, यह ध्यान, तपस्या और एक अदृश्य शक्ति को अपने भीतर बुलाने जैसा होता है, जैसे हम कहते हैं कि मेरे अंदर समा जाओ और नाचो।
फिर वे एक उदाहरण देते हैं – जैसे एक घसियारा (घास काटने वाला) जब घास काटता है, तो वह घास को हाथ से पकड़ता है, उस पर हँसिया (काटने का औज़ार) मारता है और फिर घास हटाता है। यह काम वह एक निश्चित लय में करता है। अगर उस लय में थोड़ा भी बिगाड़ हुआ तो हाथ कट सकता है। इससे वे यह समझाना चाहते हैं कि लय हमारे हर काम में ज़रूरी है – चाहे वह नृत्य हो, काम हो या ज़िंदगी हो।
आख़िर में वे कहते हैं कि लय एक आवरण (कवर) की तरह होती है जो नृत्य को सुंदरता देती है। अगर नर्तक को सुर और लय का ज्ञान होगा, तो वह समझ जाएगा कि नृत्य कहाँ सही बह रहा है और कहाँ नहीं। और अगर यह समझ नहीं होगी, तो नृत्य दर्शकों तक भाव और ऊर्जा नहीं पहुँचा पाएगा।

तनुश्री – आपने कथक में कई नई चीजें भी जोड़ी हैं न?
बिरजू महाराज – कथक की पुरानी परंपरा को तो कायम रखा है। हाँ, उसके प्रस्तुतीकरण में बदलाव किए हैं। हमने गौर किया कि हमारे चाचा लोग और बाबूजी नाचते तो खूबसूरत थे ही, उनके खड़े होने का अंदाज भी निराला होता था। हमने उन भाव–भंगिमाओं को भी कथक में शामिल कर लिया। चाचा लोग और बाबूजी हमारे लिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश थे। हमने तीनों की शिक्षा को इकट्ठा करके एक नया रूप तैयार किया। इसी प्रकार टैगोर, त्यागराज आदि कई आधुनिक कवियों की रचनाओं को लेकर भी कथक रचनाएँ तैयार कीं।
शब्दार्थ-
परंपरा– किसी कार्य या विचार को लंबे समय तक अपनाए रखना, रिवाज़
प्रस्तुतीकरण– किसी चीज़ को प्रस्तुत करने का तरीका या शैली
गौर किया- ध्यान दिया
भाव-भंगिमा- शरीर और चेहरे के हाव-भाव से भावों की अभिव्यक्ति
निराला– अनोखा, अलग तरह का
ब्रह्मा, विष्णु, महेश– हिंदू धर्म के प्रमुख देवता, यहाँ आदर्श गुरु या मार्गदर्शक के रूप में संकेत
रचना- कुछ नया बनाना या सृजन करना
कायम रखना– बनाए रखना, जारी रखना
आधुनिक कवि- नए समय के कवि, जो वर्तमान युग में लिखते हैं
व्याख्या- इस अंश में बिरजू महाराज से तनुश्री पूछती हैं कि आपने कथक में कई नई चीजें भी जोड़ी हैं।
इसका उत्तर देते हुए बिरजू महाराज बताते हैं कि उन्होंने कथक की पुरानी परंपरा को हमेशा बनाए रखा है, लेकिन उसके प्रस्तुत करने के तरीके में बदलाव किए हैं। यानी कथक की आत्मा वही रही, लेकिन उसे दिखाने का तरीका थोड़ा नया किया गया।
वे बताते हैं कि उन्होंने अपने चाचाओं और बाबूजी को जब नाचते देखा, तो उन्हें लगा कि उनका खड़े होने का ढंग, उनके हाव-भाव, चेहरे के भाव बहुत खास और सुंदर होते थे। उन्होंने इस बात को समझा और उनके इन अंदाज़ों को भी कथक का हिस्सा बना दिया।
बिरजू महाराज कहते हैं कि उनके लिए उनके चाचा और पिता ब्रह्मा, विष्णु और महेश जैसे थे, यानी वे उनके लिए सबसे बड़े शिक्षक और आदर्श थे। उन्होंने तीनों से सीखी गई चीज़ों को मिलाकर कथक का एक नया रूप तैयार किया।
इसके अलावा, वे यह भी बताते हैं कि उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर, त्यागराज जैसे आधुनिक कवियों की रचनाओं पर भी कथक तैयार किया। यानी पुराने कथक को नई कविताओं और भावों से जोड़ा और एक नया अंदाज दिया।

तनुश्री – पर ये लोग तो अलग–अलग भाषाओं के कवि थे।
बिरजू महाराज – भाषाएँ अलग–अलग होती हैं पर इंसान तो सब जगह एक–से होते हैं। फ्रांस में एक दर्शक ने कहा, “मैं नहीं जानता कि यशोदा कौन है?” मैंने उन्हें बताया कि इस धरती पर सब माँएँ यशोदा हैं और सब नन्हें बच्चे कृष्ण। बच्चे की जिद, रोना, उठना, बैठना, सब जगह एक जैसा होता है। धीरे–धीरे हमें अलग–अलग भाषा, संस्कार और तौर–तरीके मिलते हैं। चाहे नृत्य हो या कुछ और, परंपरा एक वृक्ष के समान होती है, जो सबको एक जैसी छाया और आश्रय देती है। उसके नीचे बैठने वाले अलग–अलग स्वभाव के होते | वृक्ष से लिए बीज को बोएँ तो समय आने पर ही एक और वृक्ष फलेगा। वह नया वृक्ष कैसा होगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि उसे कैसी हवा, पानी और खाद मिला है।
शब्दार्थ-
दर्शक- देखने वाला व्यक्ति
संस्कार- परंपरा और व्यवहार की सीख जो परिवार और समाज से मिलती है
तौर-तरीके- व्यवहार या काम करने का तरीका
आश्रय- शरण, सहारा या सुरक्षा देने की जगह
स्वभाव– किसी व्यक्ति का स्वाभाविक व्यवहार या चरित्र
निर्भर– आश्रित
व्याख्या- प्रस्तुत अंश में तनुश्री कहती हैं कि ये लोग तो अलग-अलग भाषाओं के कवि थे। टैगोर, त्यागराज जैसे जिन कवियों की रचनाओं को आपने कथक में शामिल किया, वे तो अलग-अलग भाषा के थे।
इस पर बिरजू महाराज बहुत सुंदर उत्तर देते हैं। वे कहते हैं कि भाषाएँ भले ही अलग-अलग होती हैं, लेकिन इंसान तो सब एक जैसे ही होते हैं। वे एक उदाहरण देते हुए समझाते हैं कि एक बार फ्रांस में एक दर्शक ने उनसे कहा कि वह नहीं जानता ‘यशोदा’ कौन है? तो बिरजू महाराज ने उस व्यक्ति को समझाया कि इस धरती पर हर माँ यशोदा होती है और हर छोटा बच्चा कृष्ण क्योंकि हर जगह के बच्चे एक जैसे ही होते हैं, जिद करते हैं, रोते हैं, उठते-बैठते हैं। इन सबमें कोई भाषा का फर्क नहीं होता।
इसके बाद वे नृत्य और परंपरा की तुलना एक पेड़ से करते हैं। वे कहते हैं कि परंपरा एक पेड़ की तरह होती है, जो हर किसी को एक-सी छाया और सहारा देती है, भले ही उसके नीचे बैठने वाले लोगों के स्वभाव अलग-अलग हों।
वे कहते हैं कि अगर इस परंपरा रूपी पेड़ से एक बीज लेकर बोया जाए, तो समय आने पर वह एक नया पेड़ बनेगा। लेकिन वह कैसा पेड़ बनेगा, यह इस पर निर्भर करेगा कि उसे कैसी देखभाल (हवा, पानी, खाद) मिलती है।
माणिक – आपने जब सीखना शुरू किया था, तब से अब कथक की दुनिया में क्या–क्या बदलाव आए हैं?
बिरजू महाराज – पहले मंच नहीं होते थे। फर्श पर चाँदनी (बिछाने की बड़ी सफेद चादर) बिछी होती थी जिस पर कथक होता था और दर्शक चारों ओर बैठते थे। शृंगार के लिए चंदनलेप और होंठ रंगने के लिए पान होता था।
पहले नर्तक कथा के दृश्यों का ऐसा विस्तृत वर्णन करते थे कि दर्शक के सामने पूरा दृश्य खिंच जाता था– कि कैसे गोपियों ने घड़ा उठाया, धीमी चाल से पनघट की ओर चलीं, पीछे से कृष्ण चुपचाप आए, कंकड़ उठाया और दे मारा। अब सिर्फ ‘पनघटकीगत देखो‘ कहकर बाकी दर्शक की कल्पना पर छोड़ दिया जाता है।
शब्दार्थ-
मंच- वह ऊँचा स्थान या प्लेटफ़ॉर्म जहाँ कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं
फर्श- ज़मीन पर बिछा हुआ समतल भाग
चाँदनी- बिछाने की सफेद चादर, विशेष रूप से कार्यक्रमों के लिए प्रयोग में लाई जाती है
शृंगार- सजने-संवरने की प्रक्रिया
चंदनलेप- चंदन का लेप या पेस्ट, जिसे त्वचा पर सजावटी या ठंडक के लिए लगाया जाता है
पनघट– वह स्थान जहाँ से औरतें पानी भरने जाती हैं
कथा- कहानी या किस्सा
विस्तृत वर्णन- किसी चीज़ का विस्तार से बताया जाना
कल्पना- मन में किसी दृश्य या बात की तस्वीर बनाना
व्याख्या- प्रस्तुत अंश में माणिक ने बिरजू महाराज से पूछा कि जब आपने कथक सीखना शुरू किया था, तब से अब तक इसमें क्या-क्या बदलाव आए हैं।
इस पर बिरजू महाराज ने पुराने समय की कथक की दुनिया की झलक दी और बताया कि अब क्या-क्या बदल गया है। बिरजू महाराज कहते हैं कि पहले जब वे कथक करते थे, तो बड़े-बड़े स्टेज नहीं होते थे। उस समय जमीन पर एक बड़ी सफेद चादर (जिसे ‘चाँदनी’ कहते हैं) बिछाई जाती थी, और दर्शक उसी के चारों तरफ बैठकर कथक देखते थे। मतलब सब कुछ बहुत सादा और घरेलू तरीके से होता था।
सजने-संवरने के लिए चंदन का लेप लगाया जाता था और होंठों को रंगने के लिए पान खाया जाता था। कोई भारी मेकअप या कृत्रिम सजावट नहीं होती थी।
फिर वे बताते हैं कि पहले कथक में एक-एक दृश्य को बहुत अच्छे से, विस्तार से दिखाया जाता था। उदाहरण के लिए अगर गोपियाँ पनघट (घड़ा भरने की जगह) जा रही हैं और कृष्ण चुपके से उनके पीछे हैं, तो नर्तक हर एक क्रिया को धीरे-धीरे अभिनय से दर्शाते थे जैसे गोपियों का घड़ा उठाना, उनकी धीमी चाल, कृष्ण का कंकड़ उठाना और उसे मारना। दर्शक को ऐसा लगता था जैसे पूरी कहानी आँखों के सामने चल रही है। अब समय बदल गया है। अब नर्तक बस एक छोटा सा संकेत दे देते हैं, जैसे- पनघट की गत देखो और बाकी सब दर्शक की कल्पना पर छोड़ दिया जाता है।
श्रेया – आपने गाना, बजाना और नाचना कब शुरू किया?
बिरजू महाराज – बहुत छुटपन से ही तबला पीटना शुरू कर दिया था। चाचा ने कहा, “लड़के के हाथ में लय है।” पाँच साल का होते–होते हारमोनियम पर लहरा बजाने लगा। सबको खुश करने के लिए फिल्मी गाने भी खूब गाता था। एक बार सबकी फरमाइश पर सुरैया के एक गाने पर देर तक नाचा। बहनों ने बड़े शौक से बिंदी–चुन्नी से सजा दिया था। तब तक चाचा आ गए। बस डर के मारे तुरंत सब कुछ उतार फेंका और छिप गया।
शब्दार्थ-
छुटपन- बचपन, जब बच्चा बहुत छोटा होता है
तबला पीटना– तबले (वाद्य यंत्र) को बजाना
लय- ताल या संगीत की गति, सुर और ताल का संतुलन
हारमोनियम- एक प्रकार का वाद्य यंत्र जिसमें हवा और की-बोर्ड के माध्यम से ध्वनि निकलती है
लहरा- कोई खास धुन या सुर
फरमाइश– किसी चीज़ को करने या सुनने का अनुरोध या इच्छा
व्याख्या- इस अंश में श्रेया बिरजू महाराज के गाना गाने, बजाने और नाचने की शुरुआत के बारे में पूछती है। इस पर बिरजू महाराज ने अपने बचपन की प्यारी यादें बताईं, जिन्हें उन्होंने बहुत सरल और मज़ेदार तरीके से साझा किया है। बिरजू महाराज बताते हैं कि उन्होंने बहुत छोटी उम्र में ही संगीत से जुड़ाव शुरू कर दिया था। जब वे बहुत छोटे थे, तभी तबला बजाने लगे थे। उनके चाचा ने देखा कि उनके हाथ में लय बहुत अच्छी है, यानी वे बहुत सुंदर ढंग से ताल मिला सकते हैं। फिर पाँच साल की उम्र तक उन्होंने हारमोनियम पर भी ‘लहरा’ बजाना सीख लिया था। वे बताते हैं कि वे लोगों को खुश करने के लिए फिल्मी गाने भी गाते थे। एक बार सभी की ज़िद पर उन्होंने फिल्मी गायिका सुरैया का एक गाना गाया और उस पर देर तक नाचे भी। उनकी बहनों ने उन्हें बिंदी और चुन्नी से सजाया जैसे लड़कियाँ सजती हैं क्योंकि उस गाने की नायिका लड़की थी। लेकिन तभी उनके चाचा वहाँ आ गए, और डर के मारे उन्होंने जल्दी-जल्दी सारी सजावट हटा दी और कहीं छिप गए।
माणिक – शास्त्रीय नृत्य और लोक नृत्य में क्या अंतर है?
बिरजू महाराज – लोक नृत्य सामूहिक होता है। दिनभर की मेहनत के बाद लोग थकान दूर करने और मनोरंजन के लिए इकट्ठा मिलकर नाचते हैं। दूसरी ओर शास्त्रीय नृत्य में एक नर्तक अकेला ही काफ़ी होता है। लोक नृत्य नाचने वालों के अपने मन बहलाव और संतुष्टि के लिए होता है जबकि शास्त्रीय नृत्य दर्शकों के लिए होता है। शुरू में कथावाचक भी लोक नर्तक हुआ करता था। धीरे–धीरे जब उसकी खास शैली व रूप निश्चित होता गया तो वह शास्त्रीय नृत्य हो गया।
शब्दार्थ-
शास्त्रीय नृत्य- नियमों और परंपराओं पर आधारित नृत्य, जिसे गुरु से विधिवत सीखा जाता है
लोक नृत्य- किसी क्षेत्र विशेष की सांस्कृतिक नृत्य शैली, जो आम लोग सामूहिक रूप से करते हैं
सामूहिक– समूह में किया जाने वाला, एक साथ मिलकर किया गया
मनोरंजन- खुशी और आनंद के लिए किया गया कार्य
मन बहलाव– दिल लगाने या खुद को व्यस्त रखने का तरीका
संतुष्टि- संतोष या तृप्ति का अनुभव
दर्शक– देखने वाले लोग
कथावाचक- कहानी सुनाने वाला व्यक्ति
व्याख्या- इस अंश में माणिक ने बिरजू महाराज से एक बहुत ज़रूरी और दिलचस्प सवाल पूछा कि शास्त्रीय नृत्य और लोक नृत्य में क्या अंतर होता है। बिरजू महाराज इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि लोक नृत्य गांव-देहात का नृत्य होता है जो लोग मिलकर, समूह में करते हैं। जैसे कोई त्योहार हो, शादी हो, या फसल कटने की खुशी हो तब गांव के लोग मिलकर थकान मिटाने और खुशी मनाने के लिए नाचते हैं।
इसे मनोरंजन और आपसी मेलजोल के लिए किया जाता है। लेकिन शास्त्रीय नृत्य, जैसे कथक, यह थोड़ा अलग होता है। इसमें एक ही व्यक्ति अकेले मंच पर नाचता है, और यह नृत्य दर्शकों को दिखाने के लिए किया जाता है। इसमें अभ्यास, अनुशासन और कला की समझ की ज़रूरत होती है। बिरजू महाराज बताते हैं कि पहले लोक नृत्य करने वाले लोग ही धीरे-धीरे कथावाचन करते-करते शास्त्रीय नर्तक बन गए। जब नृत्य की शैली, मुद्रा और भाव नियमित और खास तरीके से तय हो गए, तो उसे शास्त्रीय नृत्य कहा जाने लगा।
श्रेया – इस समय भारत में शास्त्रीय नृत्य की क्या स्थिति है?
बिरजू महाराज – कुछ वर्ष पहले तक स्थिति दयनीय थी। अब इसकी लोकप्रियता बढ़ रही है पर शोर वाले संगीत–नृत्य का भी खूब प्रचलन है। मैं सबसे यही कहता हूँ, वह संगीत सुनो–देखो, लेकिन अपनी परंपरा की गहराई को भी समझो, अनुभव करो।
शब्दार्थ-
स्थिति- हालात
दयनीय- दुखद या खराब स्थिति
लोकप्रियता– पसंद किए जाने की स्थिति, लोगों में प्रसिद्धि
शोर वाला संगीत- तेज़ और ऊँचे स्वर वाला आधुनिक संगीत
प्रचलन- चलन में होना
व्याख्या- इस अंश की बातचीत में श्रेया बिरजू महाराज से पूछती है कि इस समय भारत में शास्त्रीय नृत्य की क्या स्थिति है। तब बिरजू महाराज बताते हैं कि कुछ साल पहले तक भारत में शास्त्रीय नृत्य की हालत अच्छी नहीं थी। लोग इसकी तरफ ज़्यादा ध्यान नहीं देते थे। लेकिन अब धीरे-धीरे शास्त्रीय नृत्य की लोकप्रियता बढ़ रही है। हालाँकि, आजकल जोर-जोर से बजने वाले गानों और तेज़ नाच का भी बहुत चलन है। बिरजू महाराज का कहना है कि ऐसा संगीत और नृत्य सुनो-देखो ज़रूर, लेकिन अपनी संस्कृति और परंपरा को भी समझो और उसे अनुभव भी करो। मतलब यह है कि मजे के लिए तेज़ संगीत अच्छा है, लेकिन शास्त्रीय नृत्य और संगीत में जो गहराई और भाव होते हैं, उन्हें भी समझना चाहिए क्योंकि वे हमारी भारतीय परंपरा का हिस्सा हैं।
तनुश्री – कर्नाटक और हिन्दुस्तानी शैली के संगीत की तरह क्या दक्षिण और उत्तर के नृत्य में भी अंतर है?
बिरजू महाराज – कथक, भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी, कथकली, मोहिनीअट्टम, ओडिसी, मणिपुरी – ये शास्त्रीय नृत्य की प्रमुख शैलियाँ हैं। संगीत और गाने के ढंग का अंतर तो है ही, इसके अतिरिक्त भी हर नृत्य की अपनी लय और भाव–भंगिमा है। कथक की भाव–भंगिमा दैनिक जीवन से ली गई होती है और भरतनाट्यम में मूर्तिकला से। में दोनों भावों का भरतनाट्यम इकट्ठा प्रयोग होता है और कथक में बारी–बारी से। ओडिसी और मणिपुरी में कोमलता है, कथकली में ओज है। कथक में दोनों हैं। कथक में गर्दन को हल्के से हिलाया जाता है, चिराग की लौ के समान। इसी प्रकार उँगलियाँ भी बहुत धीरे–से हिलाई जाती हैं, जैसे घूँघट पकड़ने में या घूँघट उठाने में। उँगलियाँ ज़रा जोर से हिलीं नहीं कि चाचा जी तुरंत टोकते थे, “घूँघट उठा रहे या तंबू?”
शब्दार्थ-
भाव-भंगिमा- चेहरे के भाव और शरीर की मुद्राएँ
दैनिक जीवन– रोजमर्रा की ज़िंदगी
मूर्तिकला- मूर्तियाँ बनाने की कला, जिसमें शरीर की मुद्राओं की सुंदरता होती है
कोमलता– नरमी, सौम्यता
ओज– शक्ति और तेज
चिराग की लौ– दीपक की नर्म, हिलती हुई लौ
घूँघट- सिर या चेहरे को ढकने वाला कपड़ा
तंबू- बड़ा कपड़ा या छावनी जो टेढ़ा-मेढ़ा और फैला हुआ होता है (यहाँ अतिशयोक्ति में प्रयोग)
व्याख्या- इस अंश में तनुश्री बिरजू महाराज से पूछती है कि कर्नाटक और हिन्दुस्तानी शैली के संगीत की तरह क्या दक्षिण और उत्तर के नृत्य में भी अंतर है। तब बिरजू महाराज शास्त्रीय नृत्य की विभिन्न शैलियों और उनके बीच के अंतर को बहुत सरल और सुंदर ढंग से समझाते हुए कहते हैं। वे बताते हैं कि भारत में कथक, भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी, कथकली, मोहिनीअट्टम, ओडिसी और मणिपुरी जैसी कई प्रमुख शास्त्रीय नृत्य शैलियाँ हैं। जैसे उत्तर और दक्षिण भारत के संगीत में फर्क होता है, वैसे ही नृत्य की इन शैलियों में भी अंतर होता है। हर नृत्य का अपना एक खास अंदाज होता है, उसकी लय, चाल और भाव-भंगिमाएँ अलग होती हैं। कथक के हाव-भाव आम लोगों के रोज़मर्रा के जीवन से लिए गए होते हैं, जैसे चलना, इशारा करना, शर्माना आदि, जबकि भरतनाट्यम में भाव-भंगिमाएँ मंदिरों की मूर्तियों की तरह होती हैं, जो बहुत ही सजीव और सुंदर होती हैं। ओडिसी और मणिपुरी नृत्य बहुत कोमल होते हैं, वहीं कथकली में शक्ति और तेज होता है। कथक नृत्य में दोनों ही गुण कोमलता और ओज मौजूद होते हैं। बिरजू महाराज बताते हैं कि कथक में गर्दन को बहुत हल्के से हिलाया जाता है, जैसे दीपक की लौ धीरे-धीरे हिलती है। इसी तरह उंगलियाँ भी बहुत कोमलता से हिलती हैं, जैसे कोई घूंघट पकड़ रहा हो या धीरे से उठा रहा हो। आगे बिरजू महाराज कहते हैं कि जब मैं उंगलियाँ जल्दी से हिलता था तो उनके चाचा मजाक में डांट देते थे और कहते थे कि घूंघट उठा रहे हो या तंबू। इसका मतलब है कि कथक में हर हरकत को बहुत नर्मी, संतुलन और सुंदरता के साथ करना पड़ता है।

माणिक – खाली समय में आप क्या करते हैं?
बिरजू महाराज – खाली तो होता ही नहीं हूँ। नींद में भी हाथ चलता रहता है। मशीनों में मन खूब लगता है। अगर मैं नर्तक न होता तो शायद इंजीनियर होता । कोई भी मशीन या यंत्र खोलकर उसके कल–पुर्जे देखने की जिज्ञासा होती है। तुम्हें जानकर हैरानी होगी कि मैं अपने ब्रीफकेस में हरदम पेचकस और दूसरे छोटे–मोटे औजार रखता हूँ। कभी अपना पंखा– फ्रिज ठीक किया तो कभी और मशीनें। बेटी–दामाद चित्रकार हैं, उन्हें देख–देखकर पेंटिंग बनाने का भी शौक हो गया है। प्राय: रात बारह बजे के बाद चित्र बनाने बैठता हूँ। जब नींद से आँखें बंद होने लगती हैं तो ब्रश एक तरफ रख देता हूँ और सो जाता हूँ। पिछले दो वर्षों में लगभग सत्तर चित्र बनाए हैं।
शब्दार्थ-
खाली समय- फुर्सत का समय, जब कोई ज़रूरी काम न हो
जिज्ञासा- जानने की इच्छा
कल-पुर्जे- मशीन के छोटे-छोटे भाग
पेचकस- स्क्रू खोलने और कसने का औजार
औजार– उपकरण, यंत्र
चित्रकार– पेंटिंग बनाने वाला व्यक्ति
शौक- रुचि, लगाव
प्रायः– अधिकतर, आमतौर पर
व्याख्या- इस अंश माणिक बिरजू महाराज जी से पूछता है कि आप खाली समय में क्या करते हैं। तब बिरजू महाराज अपने खाली समय की रुचियों के बारे में बताते हैं। वे कहते हैं कि असल में उनका समय कभी खाली होता ही नहीं है। यहाँ तक कि जब वे सो रहे होते हैं, तब भी उनका हाथ नृत्य की मुद्रा में चलता रहता है, यानी उनका मन हर समय नृत्य में लगा रहता है। नृत्य के अलावा उन्हें मशीनों से बहुत लगाव है। वे बताते हैं कि अगर वे नर्तक न होते, तो शायद इंजीनियर बनते। उन्हें हर मशीन को खोलकर उसके पुर्जे देखने और समझने की बड़ी जिज्ञासा होती है। इसलिए वे अपने ब्रीफकेस में हमेशा पेचकस और छोटे औजार रखते हैं ताकि जरूरत पड़ने पर कोई पंखा, फ्रिज या दूसरी चीज़ ठीक कर सकें।
इसके अलावा उन्हें पेंटिंग का भी शौक है, और यह शौक उन्हें अपनी बेटी और दामाद से मिला, जो दोनों चित्रकार हैं। वे अक्सर रात को बारह बजे के बाद चित्र बनाना शुरू करते हैं, और तब तक बनाते रहते हैं जब तक नींद उन्हें घेर न ले। जब आँखें खुद-ब-खुद बंद होने लगती हैं, तो वे ब्रश एक तरफ रखकर सो जाते हैं। उन्होंने पिछले दो साल में लगभग सत्तर पेंटिंग बना ली हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि बिरजू महाराज एक बहुत ही रचनात्मक और जिज्ञासु व्यक्ति हैं, जिन्हें हर चीज़ में कुछ नया जानने और करने का उत्साह है।
श्रेया – अगर कोई बच्चा गाना, बजाना या नृत्य सीखना चाहे पर घर के लोग न चाहते हों तो ऐसे में क्या करना चाहिए?
बिरजू महारा – आजकल के माँ–बाप से मेरी विनती है कि यदि बच्चे की रुचि है तो उसे लय के साथ खेलने दें। जैसे अन्य खेल हैं वैसे ही यह भी एक खेल है, जिसमें बहुत–कुछ सीखने को मिलता है। इस खेल की दुनिया में संतुलन, समय का अंदाजा व सदुपयोग बच्चे के बौद्धिक विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
शब्दार्थ-
विनती- निवेदन, अनुरोध
रुचि- दिलचस्पी, लगाव
समय का अंदाजा– समय का सही उपयोग समझ पाना
सदुपयोग– अच्छे तरीके से इस्तेमाल करना
बौद्धिक विकास- सोचने-समझने की शक्ति का बढ़ना, मानसिक प्रगति
महत्वपूर्ण– ज़रूरी, आवश्यक
व्याख्या- इस संवाद में बिरजू महाराज बच्चों की रुचियों के प्रति माता-पिता के रवैये पर बात करते हैं। जब श्रेया यह सवाल करती है कि अगर कोई बच्चा गाना, बजाना या नृत्य सीखना चाहता हो और घरवाले उसके पक्ष में न हों तो क्या करना चाहिए, इस पर बिरजू महाराज बहुत सरल, स्नेहभरी और सच्ची बात करते हैं।
वे माता-पिता से विनती करते हैं कि अगर बच्चे की रुचि गाने-बजाने या नृत्य में हो, तो उसे रोकें नहीं। जैसे बच्चे क्रिकेट, फुटबॉल या वीडियो गेम खेलते हैं, वैसे ही यह भी एक खेल है। लेकिन यह सिर्फ खेल नहीं, बल्कि ऐसा अभ्यास है जिसमें लय, अनुशासन, समय का बोध और संतुलन जैसे जीवन के जरूरी गुण सीखने को मिलते हैं।
बिरजू महाराज यह समझाना चाहते हैं कि संगीत और नृत्य जैसे कलात्मक अभ्यास बच्चों के बौद्धिक विकास में भी बहुत मदद करते हैं। इससे बच्चों में समझदारी, संवेदना और आत्म-अनुशासन विकसित होता है। इसलिए, वे सभी माता-पिता से कहते हैं कि वे अपने बच्चों की कला की तरफ़ झुकाव को समझें, उसे बढ़ावा दें और उन्हें लय की इस सुंदर दुनिया में खेलने का अवसर दें।

तनुश्री – क्या आपके परिवार में लड़कियों ने कथक नहीं सीखा?
बिरजू महाराज – मेरी बहनों को कथक नहीं सिखाया गया पर मैंने अपनी बेटियों को खूब सिखाया। लड़कियों के पास शिक्षा या कोई–न–कोई हुनर अवश्य होना चाहिए ताकि वे आत्मनिर्भर हो सकें। हुनर ऐसा खज़ाना है, जिसे कोई नहीं छीन सकता और वक्त पड़ने पर काम आता है। बच्चो, तुम लोग संगीत सीखते हो? यदि नहीं तो ज़रूर सीखो। मन की शांति के लिए यह बहुत जरूरी है। लय हमें अनुशासन सिखाती है, संतुलन सिखाती है। नाचने, गाने और बजाने वाले एक–दूसरे के साथ तालमेल बैठाकर एक नई रचना करते हैं। सुर और लय से हमें एक–दूसरे का सहयोगी बनकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा मिलती है।
शब्दार्थ-
हुनर- कौशल, विशेष कला या क्षमता
आत्मनिर्भर– जो अपने पैरों पर खड़ा हो सके, स्वावलंबी
खज़ाना– अमूल्य वस्तु
मन की शांति- मानसिक संतुलन और सुख
अनुशासन– नियमों के अनुसार रहना, व्यवस्थित जीवनशैली
संतुलन- तालमेल या बराबरी की स्थिति
तालमेल– एकसाथ सही तरह से काम करना
लक्ष्य– उद्देश्य
प्रेरणा- आगे बढ़ने की ऊर्जा या उत्साह
व्याख्या- इस बातचीत में बिरजू महाराज बहुत महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक बात करते हैं। जब तनुश्री उनसे पूछती हैं कि क्या उनके परिवार की लड़कियों ने भी कथक सीखा, तो वे बताते हैं कि उनकी बहनों को कथक नहीं सिखाया गया, लेकिन उन्होंने अपनी बेटियों को जरूर सिखाया। वे यह मानते हैं कि हर लड़की के पास शिक्षा या कोई न कोई हुनर (कला या कौशल) जरूर होना चाहिए, ताकि वह आत्मनिर्भर बन सके।
बिरजू महाराज यह भी कहते हैं कि हुनर एक ऐसा खज़ाना है, जिसे कोई भी चोरी नहीं कर सकता और यह मुश्किल समय में बहुत काम आता है। वे बच्चों को यह सलाह भी देते हैं कि यदि वे संगीत नहीं सीखते हैं तो जरूर सीखना चाहिए, क्योंकि संगीत मन को शांति देता है।
वह यह भी बताते हैं कि लय और ताल से हम अनुशासन और संतुलन सीखते हैं। जब लोग मिलकर नाचते, गाते और बजाते हैं तो वे आपसी सहयोग से एक नई रचना बनाते हैं। यह हमें सिखाता है कि मिल-जुलकर काम करना, तालमेल बनाना और लक्ष्य की ओर बढ़ना कितना ज़रूरी है।
Conclusion
दिए गए पोस्ट में हमने ‘बिरजू महाराज से साक्षात्कार’ पाठ का साराँश, पाठ व्याख्या और शब्दार्थ को जाना। यह पाठ कक्षा 7 हिंदी के पाठ्यक्रम में मल्हार पुस्तक से लिया गया है। इस पाठ में कथक सम्राट बिरजू महाराज के बचपन, उनके संघर्षों, कथक सीखने और सिखाने की प्रक्रिया, नृत्य और संगीत के प्रति उनकी गहरी समझ और समर्पण को बताया गया है।
यह पोस्ट विद्यार्थियों को पाठ को गहराई से समझने में मदद करेगा और परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने में भी सहायक सिद्ध होगा।