कबीर के दोहे पाठ सार

CBSE Class 8 Hindi Chapter 5 “Kabir Ke Dohe”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Malhar Book

 

कबीर के दोहे सार – Here is the CBSE Class 8 Hindi Malhar Chapter 5 Kabir Ke Dohe with detailed explanation of the lesson ‘Kabir Ke Dohe’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary

इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 8 हिंदी मल्हार के पाठ 5 कबीर के दोहे पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप  इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 8 कबीर के दोहे पाठ के बारे में जानते हैं।

 

Kabir Ke Dohe (कबीर के दोहे)

 

इस पाठ में कबीरदास जी के दोहे अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी द्वारा ‘कबीर वचनावली’ में सम्पादित किए गए हैं। 

‘कबीर के दोहे’ संत कबीरदास जी की अमूल्य शिक्षाओं का संग्रह है, जिसमें जीवन के व्यवहारिक सत्य, नैतिक मूल्यों और आध्यात्मिक विचारों को सरल, सहज और प्रभावशाली भाषा में व्यक्त किया गया है। 

 

 

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कबीर के दोहे पाठ सार Kabir Ke Dohe Summary

कबीरदास जी के इन दोहों में हमें अच्छे जीवन जीने की कई जरूरी बातें सिखाई गई हैं। वे कहते हैं कि सच्चाई सबसे बड़ी पूजा है और झूठ सबसे बड़ा पाप है। जो व्यक्ति हमेशा सच बोलता है, उसके दिल में भगवान या गुरु खुद बस जाते हैं। केवल ऊँचा पद, धन या ताकत होना कोई महानता नहीं, अगर हम दूसरों के काम नहीं आते तो यह बेकार है।

कबीरदास जी गुरु को भगवान से भी बड़ा मानते हैं, क्योंकि गुरु ही हमें भगवान का रास्ता दिखाते हैं, इसलिए पहले गुरु का सम्मान करना चाहिए। वे बताते हैं कि किसी भी चीज़ की अति अच्छी नहीं होती, चाहे वह बोलना हो, चुप रहना, बारिश या धूप। हर चीज़ में संतुलन जरूरी है।

कबीरदास जी बताते हैं कि बात करने में भी मधुरता होनी चाहिए। गुस्से और घमंड से बोली गई बात लोगों को दूर करती है, लेकिन प्यार और नम्रता से कही गई बात सबको सुख देती है और हमें भी शांति देती है। कबीरदास जी निंदक यानी आलोचक को पास रखने की सलाह देते हैं, क्योंकि वह हमारी कमियों को दिखाकर हमें बेहतर बनने में मदद करता है।

वे आदर्श साधु की पहचान बताते हैं कि वह सूप की तरह हो, जो अच्छे और काम की बातों को अपने पास रखे और बेकार बातों को छोड़ दे। आख़िर में वे बताते हैं कि हमारी संगति यानी हम किन लोगों के साथ रहते हैं, उसका असर हमारे विचारों और कर्मों पर पड़ता है। अच्छी संगति से अच्छे फल और बुरी संगति से बुरे फल मिलते हैं।

इन दोहों का मुख्य संदेश है कि हमें सच बोलना चाहिए, संतुलित रहना चाहिए, मधुर वाणी अपनानी चाहिए, आलोचना से सीखना चाहिए, अच्छे गुणों को अपनाकर बुराइयों को छोड़ना चाहिए और हमेशा अच्छी संगति में रहना चाहिए।

कबीर के दोहे पाठ व्याख्या Kabir Ke Dohe Explanation

1.
साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
जाके हिरदे साँच है, ता हिरदे गुरु आप।।

शब्दार्थ-
साँच- सच, सच्चाई
तप तपस्या
पाप- गलत काम
जाके जिसके
हिरदे- हृदय 

भावार्थ- सच बोलना सबसे बड़ा तप है और झूठ बोलना सबसे बड़ा पाप है। जिसके दिल में सच होता है, उसके दिल में खुद गुरु बसते हैं।

व्याख्या- कबीर दास जी कहते हैं सत्य बोलना तपस्या करने के बराबर है। अर्थात् सच्चाई से जीना पूजा-पाठ या तपस्या करने के समान है। झूठ बोलना बहुत बुरा होता है, यह पाप के समान है। जो इंसान सच्चा होता है, उसके मन में गुरु या भगवान खुद ही आकर बस जाते हैं। इसलिए हमें हमेशा सच बोलना और ईमानदारी से रहना चाहिए।

Kabir Ke Dohe Summary img 1

2.
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागै अति दूर।। 

शब्दार्थ-
खजूर एक प्रकार का ऊँचा पेड़
पंथी- यात्री, राहगीर
लागै- लगते हैं
अति बहुत

व्याख्या- कबीर दास जी कहते हैं कि अगर कोई व्यक्ति केवल पद, धन या शरीर से बड़ा है, लेकिन दूसरों के काम नहीं आता, तो उसका बड़ा होना किसी काम का नहीं। जैसे खजूर का पेड़ ऊँचा तो होता है, पर उसकी छाया में कोई बैठ नहीं सकता और उसके फल भी बहुत ऊपर लगे होते हैं, जो आसानी से मिलते नहीं। उसी तरह जो व्यक्ति दूसरों की मदद नहीं करता, उसका बड़ा होना व्यर्थ है। सच्ची महानता वही है जो दूसरों के लिए फायदेमंद हो।

3.
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागौं पाँय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।।

शब्दार्थ-
गुरु ज्ञान देने वाला
गोविंद भगवान (कृष्ण)
दोऊ दोनों
काके किसके
लागौं- लगाऊँ, छूऊँ
पाँय पैर
बलिहारी निछावर होना
बताय- बताया

भावार्थ- अगर गुरु और भगवान दोनों मेरे सामने खड़े हों, तो मैं पहले किसके पैर छूं? मैं तो अपने गुरु पर बलिहारी जाऊँगा, क्योंकि उन्होंने ही मुझे भगवान के बारे में बताया है।

व्याख्या- कबीर दास जी कहते हैं कि जीवन में गुरु का स्थान भगवान से भी ऊपर होता है। क्योंकि भगवान को हम तभी जान सकते हैं जब कोई अच्छा गुरु हमें उसका रास्ता दिखाए। अगर गुरु हमें भगवान का रास्ता नहीं दिखाते, तो हमें भगवान का ज्ञान नहीं हो पाता। इसलिए कबीरदास जी कहते हैं कि अगर भगवान और गुरु दोनों एक साथ खड़े हों, तो पहले गुरु के चरण छूने चाहिए क्योंकि वही हमें भगवान तक पहुँचाते हैं।

4.
अति का भला न बोलना, अति का भला न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप ।।

शब्दार्थ-
अति- बहुत ज़्यादा
भला अच्छा
चूप चुप रहना
बरसना– बारिश होना

भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि बहुत ज़्यादा बोलना भी अच्छा नहीं और बहुत ज़्यादा चुप रहना भी ठीक नहीं। ज़्यादा बारिश नुकसान करती है और बहुत तेज़ धूप भी कष्ट देती है। इसीलिए हर चीज़ में संतुलन होना जरूरी है।

व्याख्या- कबीर दास जी हमें सिखाते हैं कि किसी भी चीज़ का ज़्यादा होना हानिकारक होता है। अगर कोई बहुत ज़्यादा बोलता है, तो उसकी बातों का महत्व खत्म हो जाता है। अगर कोई हमेशा चुप रहता है, तो वह अपनी बात नहीं कह पाता। वैसे ही ज़्यादा बारिश बाढ़ लाती है और ज़्यादा धूप गर्मी और परेशानी देती है। इसलिए हमें हर काम में संतुलन रखना चाहिए, न ज़्यादा, न बहुत कम।

5.
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को सीतल करै, आपहुँ सीतल होय।।

शब्दार्थ-
ऐसी इस तरह की
बानी- वाणी, बोली
मन का आपा– मन का घमंड, अहंकार
खोय खो देना, समाप्त करना
औरन दूसरों
सीतल ठंडक, शांति
आपहुँ स्वयं, खुद

भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि हमें ऐसी मीठी और विनम्र वाणी बोलनी चाहिए जिससे हमारा अहंकार (घमंड) खत्म हो जाए। ऐसी वाणी दूसरों को शीतलता देती है, और बोलने वाले के मन को भी शीतलता और खुशी देती है।

व्याख्या- प्रस्तुत दोहे में कबीरदास जी बताते हैं कि शब्दों में बहुत ताकत होती है। अगर हम गुस्से और घमंड से बोलेंगे तो लोग हमसे दूर हो जाएंगे, लेकिन अगर हम प्यार, नम्रता और शांति से बात करेंगे तो लोग खुश होंगे। मीठी वाणी से हम दूसरों के दिल में जगह बना सकते हैं और खुद भी खुश रह सकते हैं। इसीलिए हमें हमेशा अच्छे और मीठे शब्द बोलने चाहिए।

6.
निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करै सुभाय।। 

शब्दार्थ-
निंदक बुराई करने वाला, आलोचक
नियरे पास
आँगन- घर का खुला भाग
कुटी- झोपड़ी
छवाय बनवाकर
बिन बिना
निर्मल- साफ, शुद्ध
सुभाय स्वभाव

भावार्थ- प्रस्तुत दोहे में कबीरदास जी ने बताया है कि हमें अपने आलोचक (निंदक) से घबराना नहीं चाहिए। बल्कि उसे अपने पास रखना चाहिए, क्योंकि उसकी बातें हमें अपनी गलतियाँ पहचानने और सुधारने में मदद करती हैं। 

व्याख्या- कबीर दास जी बताते हैं कि हमें अपने निंदक (आलोचक) को अपने पास रखना चाहिए, क्योंकि वह बिना पानी और साबुन के ही हमारे स्वभाव और चरित्र को सुधारने का काम करता है।
किसी भी व्यक्ति को अपनी कमियों का पता आसानी से नहीं चलता, लेकिन निंदक व्यक्ति हमारी कमजोरियों को बताकर हमें सुधारने का अवसर देता है।

7.Kabir Ke Dohe Image
साधू ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार सार को गहि रहै, थोथा देइ उड़ाय।। 

शब्दार्थ-
साधू- सज्जन
सूप- अनाज साफ करने का उपकरण
सुभाय- स्वभाव
सार- अच्छा, मूल्यवान
गहि रहै- पकड़कर रखना, संभालना
थोथा- बेकार, अनुपयोगी
उड़ाय- उड़ाना, अलग करना

भावार्थ- कबीरदास जी इस दोहे में कहते हैं कि एक सच्चा साधु ऐसा होना चाहिए, जो सूप की तरह अच्छे और उपयोगी गुणों को अपनाकर रखे और व्यर्थ या बुरे विचारों को त्याग दे। जैसे सूप अनाज से भूसी अलग कर देता है, वैसे ही साधु को अपने जीवन में सार्थक और मूल्यवान बातों को अपनाकर, नकारात्मकता और बुराई को छोड़ देना चाहिए।

व्याख्या- प्रस्तुत दोहे में कबीरदास जी ने एक आदर्श साधु या सच्चे व्यक्ति के गुण बताते हुए उसका स्वभाव “सूप” के समान होने की बात कही है। सूप का उपयोग अनाज को साफ करने के लिए किया जाता है। यह अनाज को झटककर केवल अच्छे और उपयोगी दानों को अपने पास रखता है तथा कचरा या भूसी को अलग कर देता है। कबीरदास जी का संदेश है कि जैसे सूप केवल सार्थक चीज़ों को संभालता है और व्यर्थ को छोड़ देता है, वैसे ही एक साधु या सच्चे इंसान को भी जीवन में केवल अच्छी और मूल्यवान बातों को अपनाना चाहिए तथा नकारात्मक, व्यर्थ या हानिकारक बातों को त्याग देना चाहिए।

8.
कबिरा मन पंछी भया, भावै तहवाँ जाय।
जो जैसी संगति करै, सो तैसा फल पाय।।

शब्दार्थ-
मन पंछी भया- मन पक्षी बन गया
भावै- पसंद आए, अच्छा लगे
तहवाँ- वहाँ
संगति साथ, संग
तैसा वैसा
फल पाय परिणाम पाता है

भावार्थ- मनुष्य का मन पंछी के समान चंचल होता है और वह मनमाने स्थान पर जा सकता है। मनुष्य का स्वभाव और आचरण उस संगति से प्रभावित होता है जिसमें वह रहता है। यदि संगति अच्छी होगी तो अच्छे फल मिलेंगे और बुरी संगति से बुरे फल प्राप्त होंगे। 

व्याख्या- कबीरदास जी मनुष्य के जीवन में संगति के प्रभाव को स्पष्ट करते हैं। वे बताते हैं कि मनुष्य का मन पंछी के जैसे होता है। जैसे पक्षी जहाँ चाहें उड़कर चले जाते हैं, वैसे ही मनुष्य का मन भी आकर्षण के अनुसार स्थानों और लोगों की ओर खिंचता है। यदि हम सज्जनों, विद्वानों और सदाचारियों की संगति करेंगे तो हमारे विचार, आचरण और जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आएगा। वहीं, दुष्ट और बुरे लोगों की संगति से हमारा चरित्र और कर्म नष्ट हो सकते हैं। 

 

 

Conclusion

इस पोस्ट में ‘कबीर के दोहे’ पाठ का साराँश, भावार्थ, व्याख्या और शब्दार्थ दिए गए हैं । यह कविता कक्षा 8 हिंदी के पाठ्यक्रम में मल्हार पाठ्य-पुस्तक से ली गयी है।
कबीरदास जी द्वारा रचित दोहे अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी ने कबीर वचनावली में सम्पादित किये हैं। ‘कबीर के दोहे’ संत कबीरदास जी की अमूल्य शिक्षाओं का संग्रह है।
यह पोस्ट विद्यार्थियों को दोहों को गहराई से समझने में मदद करेगा और परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने में भी सहायक सिद्ध होगा।
*संदर्भ – कबीर वचनावली, संपादक— अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’