ल्हासा की ओर पाठ सार
CBSE Class 9 Hindi Chapter 2 “Lhasa Ki Or”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kshitij Bhag 1 Book
ल्हासा की ओर सार – Here is the CBSE Class 9 Hindi Kshitij Bhag 1 Chapter 2 Lhasa Ki Or Summary with detailed explanation of the lesson ‘Lhasa Ki Or’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary
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Lhasa Ki Or (ल्हासा की ओर)
ल्हासा की ओर- पाठ परिचय (Lhasa Ki Or Introduction)
यात्रा साहित्य के प्रसिद्ध लेखक राहुल सांकृत्यायन इस पाठ के लेखक हैं। उन्हें ‘यात्रा साहित्य का पिता’ कहा जाता है। उनका जीवन घुमक्कड़ी और ज्ञान की खोज में लगा हुआ था। उन्होंने अपनी यात्राओं के दौरान अनेक भाषाओं, संस्कृतियों और परंपराओं का अध्ययन किया।
‘ल्हासा की ओर‘ राहुल सांकृत्यायन की यात्रा साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें उन्होंने अपनी तिब्बत यात्रा के अनुभवों के बारे में बताया है। यह पाठ उनकी घुमक्कड़ी स्वभाव और साहस से भरे जीवन को बताता है। इसमें उन्होंने तिब्बत की संस्कृति, भौगोलिक स्थिति, लोगों के जीवन जीने का तरीका, और बौद्ध धर्म के केंद्र ल्हासा की ओर अपने सफर का विस्तार से वर्णन किया है।
ल्हासा की ओर पाठ सार (Lhasa Ki Or Summary)
ल्हासा की ओर पाठ में राहुल सांकृत्यायन ने अपनी तिब्बत यात्रा के अनुभवों का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। यह यात्रा न केवल उनकी घुमक्कड़ी स्वाभाव को बताती है, बल्कि ज्ञान और संस्कृति की समझ की ओर उनकी जानने की इच्छा का भी परिचय देती है। लेखक ने अपनी यात्रा की शुरुआत तिब्बत की राजधानी ल्हासा की ओर की, जो बौद्ध धर्म और तिब्बती संस्कृति का प्रमुख केंद्र है। ल्हासा की ओर बढ़ते हुए उन्होंने तिब्बत के भूगोल, वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता और दुर्गम (जहाँ पहुँचना कठिन हो) पहाड़ियों का विस्तार से वर्णन किया। ऊँचाई पर स्थित इस क्षेत्र की बर्फ से ढकी पहाड़ियाँ और कठोर जलवायु न केवल इसे अद्वितीय बनाती हैं, बल्कि यात्रा को चुनौतीपूर्ण भी बनाती हैं।
इस यात्रा के दौरान लेखक ने तिब्बत के लोगों के जीने के तरीके को करीब से देखा। उन्होंने महसूस किया कि तिब्बती लोग साधारण और सादगी भरा जीवन जीते हैं। वहाँ के लोगों का मुख्य भोजन सत्तू, माँस और ‘थुक्पा’ नामक सूप है। ये लोग कठोर समय में भी मेहनत और धैर्य से अपना जीवन जीते हैं। लेखक ने तिब्बत की सांस्कृतिक विविधता और धार्मिक विश्वासों को भी समझने का प्रयास किया। तिब्बती जीवन में धर्म का गहरा प्रभाव है। बौद्ध मठ और वहाँ के लामा इस क्षेत्र के धार्मिक केंद्र हैं। लेखक ने देखा कि तिब्बती लोग अपनी आध्यात्मिकता और धार्मिक आस्थाओं के प्रति अधिक समर्पित हैं।
यात्रा के दौरान लेखक को कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। तिब्बत की ऊँचाई के कारण ऑक्सीजन की कमी, ठंड और दुर्गम रास्तों ने यात्रा को और अधिक चुनौतीपूर्ण बना दिया। लेकिन इन कठिनाईयों के बावजूद लेखक की जिज्ञासा (जानने की इच्छा) और साहस ने उन्हें निरंतर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। यात्रा के दौरान लेखक ने तिब्बत के कई गाँवों का निरीक्षण किया और वहाँ के लोगों के साथ बातचीत भी की। उन्होंने महसूस किया कि तिब्बत की संस्कृति न केवल अद्वितीय है, बल्कि उसकी गहराई और सरलता भी अद्भुत है।
ल्हासा पहुँचने पर लेखक ने इसे बौद्ध धर्म और तिब्बत के धार्मिक इतिहास का प्रतीक पाया। यहाँ स्थित पोताला महल बौद्ध धर्म का महत्वपूर्ण केंद्र है। इस यात्रा ने लेखक को न केवल तिब्बत की सांस्कृतिक और भौगोलिक विविधता को समझने का अवसर दिया, बल्कि उन्हें जीवन के गहरे अर्थों को भी जानने का मौका मिला।
यह पाठ यात्रा और घुमक्कड़ी के माध्यम से जीवन को बेहतर समझने का एक अद्भुत उदाहरण है। लेखक ने अपने अनुभवों से यह बताया कि यात्रा केवल भौतिक दूरी तय करने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आत्मनिरीक्षण (अपने आप को जानना), ज्ञान प्राप्ति और संस्कृतियों को समझने का अवसर भी देती है। “ल्हासा की ओर” पाठ साहस, जिज्ञासा (जानने की इच्छा) और मानवता के गहरे अर्थों को बताता है और यह प्रेरणा देता है कि चुनौतियों के बावजूद, यदि मन में दृढ़ निश्चय हो, तो हर कठिनाई को पार किया जा सकता है।
ल्हासा की ओर पाठ व्याख्या (Lhasa Ki Or Lesson Explanation)
पाठ- वह नेपाल से तिब्बत जाने का मुख्य रास्ता है। फरी-कलिङ्पोङ् का रास्ता जब नहीं खुला था, तो नेपाल ही नहीं हिंदुस्तान की भी चीजें इसी रास्ते तिब्बते जाया करती थीं। यह व्यापारिक ही नहीं सैनिक रास्ता भी था, इसीलिए जगह-जगह फ़ौजी चौकियाँ और किले बने हुए हैं, जिनमें कभी चीनी पलटन (चीन देश के लोग) रहा करती थी। आजकल बहुत से फ़ौजी मकान गिर चुके हैं। दुर्ग के किसी भाग में, जहाँ किसानों ने अपना बसेरा बना लिया है, वहाँ घर कुछ आबाद दिखाई पड़ते हैं। ऐसा ही परित्यक्त एक चीनी किला था। हम वहाँ चाय पीने के लिए ठहरे। तिब्बत में यात्रियों के लिए बहुत सी तकलीफ़ें भी हैं और कुछ आराम की बातें भी। वहाँ जाति-पाँति, छुआछूत का सवाल ही नहीं है और न औरतें परदा ही करती हैं।
व्याख्या- प्रस्तुत गद्याँश में नेपाल से तिब्बत जाने वाले मुख्य मार्ग का वर्णन किया गया है, जो न केवल व्यापार के उद्देश्य से, बल्कि सैनिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण था। जब फरी-कलिंगपोंग का रास्ता नहीं बना था, तब नेपाल और भारत की वस्तुएँ इसी रास्ते से तिब्बत पहुँचती थीं। इस रास्ते पर जगह-जगह सैनिक चौकियाँ और किले बने हुए थे, जहाँ कभी चीनी सेना (चीन देश की सेना) तैनात रहती थी। हालांकि, समय के साथ इन फौजी इमारतों में से कई नष्ट हो चुकी हैं। कुछ दुर्गों के हिस्सों में अब किसानों ने अपने घर बसा लिए हैं, जो थोड़े आबाद दिखाई देते हैं। लेखक ने ऐसे ही एक परित्यक्त (जिसे छोड़ दिया गया हो) चीनी किले के बारे बताया है, जहाँ वे चाय पीने के लिए रुके थे।
तिब्बत की यात्रा में यात्रियों को कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है, लेकिन इसके साथ ही वहाँ कुछ सुखद अनुभव भी हैं। तिब्बत में जाति-पाँति और छुआछूत जैसी सामाजिक समस्याएँ नहीं हैं। इसके अलावा, वहाँ की महिलाएँ पर्दा प्रथा का पालन नहीं करतीं, जिससे समाज में स्वतंत्रता और समानता देखने को मिलती है। लेखक ने तिब्बत के सामाजिक और साँस्कृतिक जीवन की इन विशेषताओं को सजीव रूप से बताया है।
पाठ- बहुत निम्नश्रेणी के भिखमंगों को लोग चोरी के डर से घर के भीतर नहीं आने देते; नहीं तो आप बिलकुल घर के भीतर चले जा सकते हैं। चाहे आप बिलकुल अपरिचित हों, तब भी घर की बहू या सासु को अपनी झोली में से चाय दे सकते हैं। वह आपके लिए उसे पका देगी। मक्खन और सोडा-नमक दे दीजिए, वह चाय चोङी में कूटकर उसे दूधवाली चाय के रंग की बना के मिट्टी के टोटीदार बरतन (खोटी) में रखके आपको दे देगी। यदि बैठक की जगह चूल्हे से दूर है और आपको डर है कि सारा मक्खन आपकी चाय में नहीं पड़ेगा, तो आप खुद जाकर चोङी में चाय मथकर ला सकते हैं। चाय का रंग तैयार हो जाने पर फिर नमक-मक्खन डालने की ज़रूरत होती है।
शब्दार्थ-
निम्नश्रेणी- नीचे स्तर का
टोटीदार बर्तन– नल के जैसा मुँह वाला बर्तन
मथना- किसी तरल पदार्थ को लकड़ी आदि से हिलाना या चलाना जिससे वह पूरी तरह घुल जाए
व्याख्या- लेखक ने तिब्बत की अतिथि-सत्कार (मेहमान का आदर-सम्मान) की परंपरा और चाय बनाने की अनोखी प्रक्रिया को बहुत ही सरल और दिलचस्प तरीके से बताया है। वहाँ की खासियत यह है कि अजनबी होने पर भी लोग मेहमान को अपने घर में आने से नहीं रोकते। बस बहुत गरीब या संदिग्ध (जिसपे शक हो) भिखारियों को लोग चोरी के डर से घर के भीतर नहीं आने देते।
यदि आप किसी के घर जाएँ, तो आप घर की महिला (सास या बहू) को अपनी झोली में से चायपत्ती, मक्खन और सोडा-नमक देकर चाय बनाने को कह सकते हैं। वह इन सामग्रियों को एक खास बर्तन, जिसे “चोङी” कहते हैं, में डालकर मथती हैं और इसे दूधवाली चाय जैसा गाढ़ा रंग देकर मिट्टी के टोटीदार बर्तन (खोटी) में आपके लिए तैयार कर देती है।
अगर आपको लगता है कि चूल्हे के पास बैठकर चाय मथना बेहतर होगा ताकि सारा मक्खन चाय में अच्छे से मिल जाए, तो आप खुद भी यह काम कर सकते हैं। चाय का रंग तैयार हो जाने के बाद, उसमें नमक और मक्खन डालने की जरूरत होती है। यह तरीका तिब्बती चाय बनाने की एक खास और अनोखी विधि को बताता है, जो वहाँ की संस्कृति का हिस्सा है।
पाठ- परित्यक्त चीनी किले से जब हम चलने लगे, तो एक आदमी राहदारी माँगने आया। हमने वह दोनों चिटें उसे दे दीं। शायद उसी दिन हम थोङ्ला के पहले के आखिरी गाँव में पहुँच गए। यहाँ भी सुमति के जान-पहचान के आदमी थे और भिखमंगे रहते भी ठहरने के लिए अच्छी जगह मिली। पाँच साल बाद हम इसी रास्ते लौटे थे और भिखमंगे नहीं, एक भद्र यात्री के वेश में घोड़ों पर सवार होकर आए थे; किंतु उस वक्त किसी ने हमें रहने के लिए जगह नहीं दी, और हम गाँव के एक सबसे गरीब झोपड़े में ठहरे थे। बहुत कुछ लोगों की उस वक्त की मनोवृत्ति पर ही निर्भर है, खासकर शाम के वक्त, छङ् पीकर बहुत कम होश-हवास को दुरुस्त रखते हैं।
शब्दार्थ-
परित्यक्त- जिसे छोड़ दिया गया हो
थोङ्ला – तिब्बती सीमा का एक स्थान
दोनों चिटें – जेनम् गाँव के पास पुल से नदी पार करने के लिए जोङ्पोन् (मजिस्ट्रेट) के हाथ की लिखी लमयिक् (राहदारी) जो लेखक ने अपने मंगोल दोस्त के माध्यम से प्राप्त की।
सुमति – लेखक को यात्रा के दौरान मिला मंगोल भिक्षु जिसका नाम लोब्ज़ङ् शेख था। इसका अर्थ है सुमति प्रज्ञ। अत: सुविधा के लिए लेखक ने उसे सुमति नाम से पुकारा है।
मनोवृत्ति- मन का सोचना
निर्भर- आश्रित
छङ्- एक तरह का नशीला पेय
परित्यक्त- जिसे छोड़ दिया गया हो
राहदारी- रास्ते में लिया जाने वाला कर, टैक्स, शुल्क
चिटें- यात्रा पास या अनुमति पत्र
व्याख्या- इस अंश में तिब्बत यात्रा के दौरान हुए अनुभवों का वर्णन किया गया है। लेखक बताते हैं कि जब वे एक परित्यक्त चीनी किले से चलने को तैयार हुए, तो एक व्यक्ति उनसे राहदारी माँगने आया। उन्होंने उसे अपने पास मौजूद दोनों चिटें दे दीं। उसी दिन वे थोङ्ला के पास एक आखिरी गाँव में पहुँचे। वहाँ सुमति के परिचित लोग थे, जिससे उन्हें भिखारियों के रहने वाले स्थान के बावजूद ठहरने के लिए एक अच्छी जगह मिल गई।
लेखक आगे पाँच साल बाद की अपनी यात्रा का जिक्र करते हैं, जब वे इसी रास्ते से लौटे। इस बार वे घोड़ों पर सवार होकर सभ्य यात्री के वेश में आए थे, लेकिन तब गाँव के किसी भी व्यक्ति ने उन्हें ठहरने के लिए जगह नहीं दी। मजबूर होकर उन्होंने गाँव के सबसे गरीब झोपड़े में शरण ली।
लेखक यह भी बताते हैं कि उस समय लोगों का सोचना बहुत मायने रखता था। खासकर शाम के समय, जब लोग तिब्बती पेय ‘छङ्’ (स्थानीय शराब) पी लेते थे, तो उनकी सोचने-समझने की क्षमता काफी हद तक जाग जाती थी। यह बात यात्रा के अनुभवों के साथ-साथ तिब्बती समाज और उनके जीने के तरीके को भी प्रस्तुत करती है।
पाठ- अब हमें सबसे विकट डाँड़ा थोङ्ला पार करना था। डाँड़े तिब्बत में सबसे खतरे की जगहें हैं। सोलह-सत्रह हज़ार फीट की ऊँचाई होने के कारण उनके दोनों तरफ़ मीलों तक कोई गाँव-गिराँव नहीं होते। नदियों के मोड़ और पहाड़ों के कोनों के कारण बहुत दूर तक आदमी को देखा नहीं जा सकता। डाकुओं के लिए यही सबसे अच्छी जगह है। तिब्बत में गाँव में आकर खून हो जाए, तब तो खूनी को सज़ा भी मिल सकती है, लेकिन इन निर्जन स्थानों में मरे हुए आदमियों के लिए कोई परवाह नहीं करता। सरकार खुफ़िया-विभाग और पुलिस पर उतना खर्च नहीं करती और वहाँ गवाह भी तो कोई नहीं मिल सकता। डकैत पहिले आदमी को मार डालते हैं, उसके बाद देखते हैं कि कुछ पैसा है कि नहीं।
शब्दार्थ-
डाँड़ा – ऊँची ज़मीन
थोङ्ला – तिब्बती सीमा का एक स्थान
खुफ़िया-विभाग- ऐसा छुपा हुआ विभाग जो जानकारी रखता हो
डकैत- डाकू, लुटेरा
निर्जन- एकांत जगह, जहाँ लोग न हों
गवाह- गवाह वह व्यक्ति होता है जो जानता है या जानने का दावा करता है।
व्याख्या- इस अंश में तिब्बत के खतरनाक पहाड़ी रास्तों का वर्णन किया गया है, जिनमें से एक ‘थोङ्ला’ नामक डाँडा पार करने की चुनौती को बताया गया है। तिब्बत में ये डाँडे, जो लगभग सोलह-सत्रह हज़ार फीट की ऊँचाई पर स्थित होते हैं, सबसे खतरनाक स्थान माने जाते हैं। इन इलाकों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यहाँ मीलों तक कोई गाँव या बस्ती नहीं होती। नदियों के मोड़ और पहाड़ों के कोनों के कारण यहाँ दूर तक कोई व्यक्ति नज़र नहीं आता, जिससे ये जगहें डाकुओं के छुपने के लिए सही होती हैं।
तिब्बत के गाँवों में अगर किसी की हत्या हो जाए, तो खूनी को सज़ा मिल सकती है, लेकिन इन निर्जन (जहाँ घर-वस्तियाँ नहीं हैं) इलाकों में मरे हुए लोगों की कोई परवाह नहीं करता। तिब्बत की सरकार इन स्थानों पर खुफिया विभाग और पुलिस पर ज्यादा खर्च नहीं करती, और वहाँ गवाह भी मिलना मुश्किल होता है। डाकू पहले व्यक्ति को मार डालते हैं और उसके बाद यह देखते हैं कि उसके पास पैसा है या नहीं। यह वर्णन तिब्बत के दुर्गम (जहाँ पहुँचना कठिन हो) और खतरनाक रास्तों की भयंकर परिस्थितियों और वहाँ के कानून-व्यवस्था की कमजोरियों को उजागर करता है।
पाठ- हथियार का कानून न रहने के कारण यहाँ लाठी की तरह लोग पिस्तौल, बंदूक लिए फिरते हैं। डाकू यदि जान से न मारे तो खुद उसे अपने प्राणों का ख़तरा है। गाँव में हमें मालूम हुआ कि पिछले ही साल थोङ्ला के पास खून हो गया। शायद खून की हम उतनी परवाह नहीं करते, क्योंकि हम भिखमंगे थे और जहाँ-कहीं वैसी सूरत देखते, टोपी उतार जीभ निकाल, “कुची-कुची (दया-दया) एक पैसा” कहते भीख माँगने लगते। लेकिन पहाड़ की ऊँची चढ़ाई थी, पीठ पर सामान लादकर केसे चलते? और अगला पड़ाव 16-17 मील से कम नहीं था। मैंने सुमति से कहा कि यहाँ से लङ्कोर तक के लिए दो घोड़े कर लो, सामान भी रख लेंगे और चढ़े चलेंगे।
शब्दार्थ-
थोङ्ला – तिब्बती सीमा का एक स्थान
व्याख्या- इस अंश में तिब्बत की अनोखी परिस्थितियों और यात्रा की कठिनाईयों का वर्णन किया गया है। तिब्बत में हथियार रखने पर कोई सख्त कानून न होने के कारण लोग पिस्तौल और बंदूक को ऐसे साथ रखते हैं जैसे यह कोई सामान्य चीज़ हो। यह उनके जीवन का हिस्सा है, क्योंकि डाकू अपनी सुरक्षा के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। यदि वे हमला करने में चूक जाएँ, तो खुद उनकी जान को ख़तरा होता है।
गाँव में लेखक को पता चला कि थोङ्ला के पास हाल ही में एक हत्या हुई थी। हालांकि, लेखक और उनके साथी इस तरह की घटनाओं की ज्यादा परवाह नहीं करते, क्योंकि वे स्वयं भिखारियों के वेश में यात्रा कर रहे थे। जहाँ भी उन्हें अवसर मिलता, वे टोपी उतारकर और जीभ निकालकर ‘कुची-कुची’ (जिसका अर्थ है दया-दया) कहते हुए भीख माँगते।
लेकिन इस यात्रा की सबसे बड़ी चुनौती पहाड़ की ऊँची चढ़ाई थी। पीठ पर सामान लादकर इतने कठिन रास्ते पर चलना आसान नहीं था, खासकर जब अगला पड़ाव 16-17 मील दूर था। इस समस्या को हल करने के लिए लेखक ने सुमति से दो घोड़े किराए पर लेने का सुझाव दिया, ताकि सामान भी रखा जा सके और यात्रा थोड़ी आसान हो जाए। यह वर्णन तिब्बत की कठिन यात्रा, सुरक्षा के अभाव, और जीवन की कठिन परिस्थितियों को दर्शाता है।
पाठ- दूसरे दिन हम घोड़ों पर सवार होकर ऊपर की ओर चले। डाँड़े से पहिले एक जगह चाय पी और दोपहर के वक्त डाँड़े के ऊपर जा पहुँचे। हम समुद्रतल से 17-18 हज़ार फीट ऊँचे खड़े थे। हमारी दक्खिन तरफ़ पूरब से पच्छिम की ओर हिमालय के हज़ारों श्वेत शिखर चले गए थे। भीटे की ओर दिखने वाले पहाड़ बिलकुल नंगे थे, न वहाँ बरफ़ की सफ़ेदी थी, न किसी तरह की हरियाली। उत्तर की तरफ़ बहुत कम बरफ़ वाली चोटियाँ दिखाई पड़ती थीं। सर्वोच्च स्थान पर डाँड़े के देवता का स्थान था, जो पत्थरों के ढेर, जानवरों की सींगों और रंग-बिरंगे कपड़े की झंडियों से सजाया गया था।
शब्दार्थ-
भीटे – टीले के आकार का-सा ऊँचा स्थान
व्याख्या- इस अंश में तिब्बत के कठिन पहाड़ी रास्तों की सुंदरता और वहाँ की संस्कृति का वर्णन किया गया है। दूसरे दिन लेखक और उनके साथी घोड़ों पर सवार होकर ऊपर की ओर बढ़े। रास्ते में डाँडे से पहले उन्होंने एक जगह रुककर चाय पी और दोपहर के समय डाँडे की चोटी पर पहुँच गए। वहाँ से समुद्रतल से 17-18 हजार फीट की ऊँचाई पर खड़े होकर उन्होंने बहुत ही सुन्दर दृश्य का आनंद लिया।
दक्षिण की ओर नजर डालने पर उन्हें पूरब से पश्चिम तक फैले हिमालय के हज़ारों बर्फीले शिखर दिखाई दिए, जो सफ़ेद रंग से दमक रहे थे। दूसरी ओर, भीटे (उत्तर) की ओर के पहाड़ बिल्कुल नंगे थे—न वहाँ बर्फ की सफेदी थी और न ही हरियाली का कोई चिन्ह। उत्तर दिशा में कुछ ऊँची चोटियाँ दिखीं, जिन पर बहुत कम बर्फ थी।
डाँडे के सबसे ऊँचे स्थान पर वहाँ के देवता का स्थान था। इसे पत्थरों के ढेर, जानवरों की सींगों और रंग-बिरंगे कपड़े की झंडियों से सजाया गया था। यह देवता का स्थान तिब्बती संस्कृति और उनकी धार्मिक परंपराओं की गहराई को बताता है, जो उनके कठिन जीवन और संकट के समय में भी विश्वास और भावना को बनाए रखता है।
पाठ- अब हमें बराबर उतराई पर चलना था। चढ़ाई तो कुछ दूर थोड़ी मुश्किल थी, लेकिन उतराई बिलकुल नहीं। शायद दो-एक और सवार साथी हमारे साथ चल रहे थे। मेरा घोड़ा कुछ धीमे चलने लगा। मैंने समझा कि चढ़ाई की थकावट के कारण ऐसा कर रहा है, और उसे मारना नहीं चाहता था। धीरे-धीरे वह बहुत पिछड़ गया और मैं दोन्क्विक्स्तो की तरह अपने घोड़े पर झूमता हुआ चला जा रहा था। जान नहीं पड़ता था कि घोड़ा आगे जा रहा है या पीछे। जब मैं ज़ोर देने लगता, तो वह और सुस्त पड़ जाता। एक जगह दो रास्ते फूट रहे थे, मैं बाएँ का रास्ता ले मील-डेढ़ मील चला गया। आगे एक घर में पूछने से पता लगा कि लङ्कोर का रास्ता दाहिने वाला था। फिर लौटकर उसी को पकड़ा।
शब्दार्थ-
पिछड़- जो पीछे रह गया हो
दोन्क्विक्स्तो – स्पेनिश उपन्यासकार सार्वेंतेज (17वीं शताब्दी) के उपन्यास ‘ डॉन क्विक्ज़ोट’ का नायक, जो घोड़े पर चलता था।
व्याख्या- इस भाग में पहाड़ी यात्रा के दौरान लेखक के अनुभव को बताया गया है। डाँडे से ऊपर चढ़ने के बाद अब उन्हें नीचे की ओर उतरना था। चढ़ाई थोड़ी कठिन थी, लेकिन उतरना आसान था। उनके साथ एक-दो अन्य घुड़सवार भी चल रहे थे।
लेखक का घोड़ा धीरे-धीरे चलने लगा। उन्होंने सोचा कि यह चढ़ाई की थकावट की वजह से हो रहा है, इसलिए घोड़े को मारने या ज़बरदस्ती चलाने की कोशिश नहीं की। लेकिन घोड़ा इतना सुस्त पड़ गया कि वह बाकियों से काफी पीछे रह गया। लेखक खुद को ‘दोन्क्विक्स्तो’ की तरह महसूस करने लगे—अपने घोड़े पर झूमते हुए, यह भी नहीं समझ पा रहे थे कि उनका घोड़ा आगे बढ़ रहा है या पीछे।
रास्ते में दो अलग-अलग दिशाओं में रास्ते दिखाई दे रहे थे। उन्होंने बाईं ओर का रास्ता चुना और लगभग मील-डेढ़ मील तक चल दिए। जब आगे एक घर में उन्होंने लङ्कोर का रास्ता पूछा, तो पता चला कि सही रास्ता दाहिनी ओर का था। इसके बाद वे लौटकर सही रास्ते पर आए।
पाठ- चार-पाँच बजे के करीब मैं गाँव से मील-भर पर था, तो सुमति इंतज़ार करते हुए मिले। मंगोलों का मुँह वेसे ही लाल होता है और अब तो वह पूरे गुस्से में थे। उन्होंने कहा-“मैंने दो टोकरी कंडे फूँ डाले, तीन-तीन बार चाय को गरम किया।” मैंने बहुत नरमी से जवाब दिया-“लेकिन मेरा कसूर नहीं है मित्र! देख नहीं रहे हो, कैसा घोड़ा मुझे मिला है! मैं तो रात तक पहुँचने की उम्मीद रखता था।” खेर, सुमति को जितनी जल्दी गुस्सा आता था, उतनी ही जल्दी वह ठंडा भी हो जाता था। लङ्कोर में वह एक अच्छी जगह पर ठहरे थे। यहाँ भी उनके अच्छे यजमान थे। पहिले चाय-सत्तू खाया गया, रात को गरमागरम थुक्पा मिला।
शब्दार्थ-
मंगोलों- मंगोल लोग जो मंगोलिया के रहने वाले हैं
कंडे – गाय-भैंस के गोबर से बने उपले जो ईंधन के काम में आते हैं।
सत्तू – भूने हुए अन्न (जौ, चना) का आटा
थुक्पा – सत्तू या चावल के साथ मूली, हड्डी और माँस के साथ पतली लेई की तरह पकाया गया खाद्य-पदार्थ
यजमान- परिचित
व्याख्या- इस गद्यांश में यात्रा के दौरान एक दिलचस्प घटना का वर्णन किया गया है, जो लेखक और उनके साथी सुमति के बीच हुई। जब लेखक शाम चार-पाँच बजे के करीब गाँव से एक मील दूर थे, तो सुमति उन्हें इंतजार करते हुए मिले। सुमति, जो मंगोल थे, गुस्से में थे, और उनका चेहरा लाल हो रहा था। गुस्से की वजह यह थी कि लेखक काफी देर से पहुँचे, जबकि सुमति उनके लिए तीन बार चाय गरम कर चुके थे और दो टोकरियाँ कंडे जला चुके थे।
लेखक ने बहुत नरमी से जवाब दिया और अपनी बात रखते हुए कहा कि इसमें उनकी कोई गलती नहीं है, क्योंकि उनका घोड़ा बहुत धीमा था। उन्होंने मजाकिया अंदाज में यह भी कहा कि उन्हें तो लगा था कि वे रात तक पहुँचेंगे। सुमति, जो जल्दी गुस्सा होते थे, उतनी ही जल्दी शांत भी हो गए।
लङ्कोर में सुमति ने एक अच्छी जगह पर ठहरने का इंतज़ाम किया था, क्योंकि उनके अच्छे मेहमान वहाँ थे। पहुँचने के बाद उन्होंने चाय और सत्तू खाया और रात के भोजन में गरमागरम थुक्पा का मज़ा लिया।
पाठ- अब हम तिङ्री के विशाल मैदान में थे, जो पहाड़ों से घिरा टापू-सा मालूम होता था, जिसमें दूर एक छोटी-सी पहाड़ी मैदान के भीतर दिखाई पड़ती है। उसी पहाड़ी का नाम है तिङ्री-समाधि-गिरि। आसपास के गाँव में भी सुमति के कितने ही यजमान थे, कपड़े की पतली-पतली चिरी बत्तियों के गंडे खतम नहीं हो सकते थे, क्योंकि बोधगया से लाए कपड़े के खतम हो जाने पर किसी कपड़े से बोधगया का गंडा बना लेते थे। वह अपने यजमानों के पास जाना चाहते थे। मैंने सोचा, यह तो हफ्ता-भर उधर ही लगा देंगे। मैंने उनसे कहा कि जिस गाँव में ठहरना हो, उसमें भले ही गंडे बाँट दो, मगर आसपास के गाँवों में मत जाओ; इसके लिए मैं तुम्हें ल्हासा पहुँचकर रुपये दे दूँगा। सुमति ने स्वीकार किया।
शब्दार्थ-
गंडा – मंत्र पढ़कर गाँठ लगाया हुआ धागा या कपड़ा
चिरी – फाड़ी हुई
व्याख्या- इस अंश में तिङ्री के बड़े मैदान और यात्रा के दौरान सुमति के कार्यों को बताया गया है। तिङ्री का मैदान चारों ओर से पहाड़ों से घिरा हुआ है और ऐसा लगता है जैसे यह एक टापू हो। इस मैदान के अंदर दूर एक छोटी-सी पहाड़ी दिखाई देती है, जिसे तिङ्री-समाधि-गिरि कहते हैं।
तिङ्री और उसके आसपास के गाँवों में सुमति के कई जान-पहचान के लोग थे। सुमति उन गाँवों में जाने और अपने लोगों को गंडे (धार्मिक प्रतीक) बाँटने के इच्छुक थे। वह बोधगया से लाए गए कपड़े की पतली चिरी हुई पट्टियों से गंडे बनाते थे। यदि बोधगया का कपड़ा खत्म हो जाता, तो वे किसी भी कपड़े को गंडा बनाकर अपने लोगों को देते थे।
लेखक को लगा कि यदि सुमति हर गाँव में जाने लगे, तो इसमें हफ्तों का समय लग सकता है। इसलिए, उन्होंने सुमति से कहा कि जिस गाँव में ठहरना है, वहीं गंडे बाँट लें और अन्य गाँवों में न जाएँ। इसके बदले लेखक ने सुमति को वादा किया कि वे ल्हासा पहुँचने पर उन्हें इसके लिए रुपये देंगे। सुमति ने इस बात को स्वीकार कर लिया।
पाठ- दूसरे दिन हमने भरिया ढूँढने की कोशिश की, लेकिन कोई न मिला । सवेरे ही चल दिए होते तो अच्छा था, लेकिन अब 10-11 बजे की तेज़ धूप में चलना पड़ रहा था। तिब्बत की धूप भी बहुत कड़ी मालूम होती है, यद्यपि थोड़े से भी मोटे कपड़े से सिर को ढाँक लें, तो गरमी खतम हो जाती है। आप 2 बजे सूरज की ओर मुँह करके चल रहे हैं, ललाट धूप से जल रहा है और पीछे का कंधा बरफ़ हो रहा है। फिर हमने पीठ पर अपनी-अपनी चीजें लादी, डंडा हाथ में लिया और चल पड़े। यद्यपि सुमति के परिचित तिङ्री में भी थे, लेकिन वह एक और यजमान से मिलना चाहते थे, इसलिए आदमी मिलने का बहाना कर शेकर विहार की ओर चलने के लिए कहा।
शब्दार्थ-
भरिया – भारवाहक
कड़ी- तेज
यजमान- यज्ञ करने वाला, यहाँ, बुद्ध धर्म को मानने वाले या अनुयायी
व्याख्या- इस अंश में यात्रा के दौरान लेखक और उनके साथी सुमति की संघर्ष से भरी स्थिति को बताया गया है। दूसरे दिन उन्होंने भरिया (भारवाहक) ढूँढने की कोशिश की, लेकिन उन्हें कोई नहीं मिला। यदि वे सवेरे जल्दी निकल जाते तो अच्छा होता, लेकिन अब उन्हें 10-11 बजे की तेज़ धूप में यात्रा करनी पड़ रही थी। तिब्बत की धूप बहुत तेज़ और कड़ी होती है, लेकिन लेखक ने यह भी बताया कि सिर को थोड़ा सा ढ़कने से उस गरमी को सहन किया जा सकता है।
लेखक ने बताया कि वे 2 बजे सूरज की ओर मुँह करके चल रहे थे, उनका माथा सूरज की धूप से जल रहा था, जबकि पीछे का कंधा बहुत ठंडा हो गया था। फिर, उन्होंने अपनी-अपनी चीज़ों को पीठ पर लादकर डंडा हाथ में लिया और यात्रा पर निकल पड़े।
सुमति के परिचित तिङ्री में थे, लेकिन सुमति एक अन्य व्यक्ति से मिलना चाहते थे। इसलिए, उन्होंने शेकर विहार की ओर चलने को कहा और इस बहाने अपने जान-पहचान के एक व्यक्ति से मिलने की कोशिश की।
पाठ- तिब्बत की ज़मीन बहुत अधिक छोटे-बड़े जागीरदारों में बँटी है। इन जागीरों का बहुत ज्यादा हिस्सा मठों (विहारों) के हाथ में है। अपनी-अपनी जागीर में हरेक जागीरदार कुछ खेती खुद भी कराता है, जिसके लिए मज़दूर बेगार में मिल जाते हैं। खेती का इंतज़ाम देखने के लिए वहाँ कोई भिक्षु भेजा जाता है, जो जागीर के आदमियों के लिए राजा से कम नहीं होता। शेकर की खेती के मुखिया भिक्षु (नम्से) बड़े भद्र पुरुष थे। वह बहुत प्रेम से मिले, हालाँकि उस वक्त मेरा भेष ऐसा नहीं था कि उन्हें कुछ भी खयाल करना चाहिए था।
शब्दार्थ-
भेष- दिखावट, रूप
व्याख्या- इस अंश में तिब्बत के उस समय की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को बताया गया है। तिब्बत की ज़मीन बहुत अधिक छोटे-बड़े जागीरदारों में बंटी हुई थी, और इन जागीरों का एक बड़ा हिस्सा मठों (विहारों) के पास होता था। इन मठों के पास अपने-अपने क्षेत्र होते थे, और यहाँ की जागीरदारी व्यवस्था में मठों का महत्वपूर्ण स्थान था।
हर जागीरदार अपनी जागीर में कुछ खेती भी कराता है, और इसके लिए स्थानीय मज़दूर बेगार (कभी-कभी मुफ्त में काम करने वाले) की तरह मिल जाते हैं। खेती की देखरेख के लिए जागीरदार भिक्षुओं को भेजते हैं, जो उनके लिए राजा से कम नहीं होते।
शेकर की खेती का मुखिया भिक्षु (नम्से) लेखक के अनुसार बड़े सभ्य और सम्माननीय व्यक्ति थे। वह लेखक से बहुत प्रेम से मिले, हालांकि लेखक का उस समय का भेष ऐसा नहीं था कि भिक्षु को उस पर कोई विशेष ध्यान देना चाहिए था। इससे यह भी पता चलता है कि तिब्बत में भिक्षु अपनी ज़मीनों और जागीरों के मामले में ऊँचें पद पर और सम्मानित होते थे।
पाठ- यहाँ एक अच्छा मंदिर था; जिसमें कन्जुर (बुद्धवचन-अनुवाद) की हस्तलिखित 103 पोथियाँ रखी हुई थीं, मेरा आसन भी वहीं लगा। वह बड़े मोटे कागज पर अच्छे अक्षरों में लिखी हुई थीं, एक-एक पोथी 15-15 सेर से कम नहीं रही होगी। सुमति ने फिर आसपास अपने यजमानों के पास जाने के बारे में पूछा, मैं अब पुस्तकों के भीतर था, इसलिए मैंने उन्हें जाने के लिए कह दिया। दूसरे दिन वह गए। मैंने समझा था 2-3 दिन लगेंगे, लेकिन वह उसी दिन दोपहर बाद चले आए। तिङ्री गाँव वहाँ से बहुत दूर नहीं था। हमने अपना-अपना सामान पीठ पर उठाया और भिक्षु नम्से से विदाई लेकर चल पड़े।
शब्दार्थ-
कन्जुर- भगवान बुद्ध के वचनों की हाथ से लिखी गयी और अनुवाद की गयीं पुस्तकें हैं।
पोथियाँ- छोटी पुस्तकें
सेर- सेर नापने की इकाई है, जिसका अर्थ 933 ग्राम के बराबर है, यानि एक किलोग्राम से थोड़ा कम।
व्याख्या- इस अंश में लेखक और सुमति की यात्रा और तिब्बत के धार्मिक स्थल की महत्ता को बताया गया है। लेखक एक मंदिर में ठहरे थे, जो कन्जुर (बुद्धवचन का अनुवाद) की हस्तलिखित 103 पोथियों से भरा हुआ था। ये पोथियाँ बहुत ही अच्छे और मोटे कागज पर लिखी हुई थीं, और हर पोथी का वजन कम से कम 15 सेर (लगभग 12 किलोग्राम) था। यह मंदिर धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण था, और लेखक ने वहीं अपना आसन लगाया था, अर्थात वह वहीं बैठकर इन पुस्तकों के बीच अपना समय बिता रहे थे।
सुमति ने पास के गाँवों में अपने लोगों से मिलने का विचार किया। लेखक, जो अब धार्मिक पुस्तकों में मग्न (डूबे हुए) थे, ने सुमति को जाने की अनुमति दी। लेखक ने अनुमान लगाया था कि सुमति को 2-3 दिन लगेंगे, लेकिन वह उसी दिन दोपहर बाद वापस लौट आए, क्योंकि तिङ्री गाँव वहाँ से बहुत दूर नहीं था।
फिर, दोनों ने अपने सामान को पीठ पर उठाया और भिक्षु नम्से से विदाई लेकर यात्रा पर निकल पड़े। यह अंश यह बताता है कि लेखक धार्मिक अध्ययन में गहरे रूप से जुड़े हुए थे, जबकि सुमति अपनी सामाजिक और धार्मिक जिम्मेदारियों को निभाने के लिए लोगों से मिलने गए थे।
Conclusion
दिए गए पोस्ट में हमने ‘ल्हासा की ओर’ नामक यात्रा वृतांत का सारांश, पाठ व्याख्या और शब्दार्थ को जाना। ये पाठ कक्षा 9 हिंदी अ के पाठ्यक्रम में क्षितिज पुस्तक से लिया गया है। राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी इस कहानी में तिब्बत की सांस्कृतिक धरोहर, बौद्ध धर्म की गहनता, प्राकृतिक सौंदर्य, और यात्रा की कठिनाईयों का जीवंत चित्रण देखने को मिलता है। इस पोस्ट की सहायता से विद्यार्थी पाठ को अच्छे से समझ सकते हैं और इम्तेहान में प्रश्नों के हल अच्छे से लिख सकने में सहायता भी मिलेगी।