उपभोक्तावाद की संस्कृति पाठ सार
CBSE Class 9 Hindi Chapter 3 “Upbhoktavad ki Sanskriti”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kshitij Bhag 1 Book
उपभोक्तावाद की संस्कृति सार– Here is the CBSE Class 9 Hindi Kshitij Bhag 1 Chapter 3 Upbhoktavad ki Sanskriti Summary with detailed explanation of the lesson ‘Upbhoktavad ki Sanskriti’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary
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Upbhoktavad ki Sanskriti (उपभोक्तावाद की संस्कृति)
उपभोक्तावाद की संस्कृति पाठ परिचय (Upbhoktavad ki Sanskriti Introduction)
उपभोक्तावाद की संस्कृति निबंध समाज की ऐसी वास्तविकता को प्रदर्शित करता है जो बाज़ार की गिरफ़्त में आ रहे हैं। लेखक यह मानता है कि हम विज्ञापनों की चमक – दमक के कारण केवल वस्तुओं के पीछे भाग रहे है, हम उन वस्तुओं की गुणवत्ता पर ध्यान ही नहीं देते। समाज के सम्पन्न लोगों और कुलीन या उच्चवर्गीय लोगों के द्वारा दिखावे से पूर्ण जीवन शैली अपनाई जा रही है, जिसे देख कर सामान्य जन भी ललचाई हुई निगाहों से उसका अनुसरण करते हुए दिखाई देते हैं। यह सभ्यता के विकास की चिंताजनक बात है, जिसे उपभोक्तावाद के द्वारा परोसा गया है। लेखक की यह बात महत्वपूर्ण है कि जैसे-जैसे यह दिखावे की संस्कृति समाज में फैलेगी, वैसे-वैसे सामाजिक अशांति और विकट स्थिति भी बढ़ती जाएगी।
उपभोक्तावाद की संस्कृति पाठ-सार (Upbhoktavad ki Sanskriti Summary)
लेखक का मानना है कि हमारे चारों ओर धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है। जीवन जीने के नए तरीके के साथ एक नया जीवन-दर्शन आ रहा है, जिसे उपभोक्तावाद का दर्शन कहा जाता है। इसमें चारों ओर केवल उत्पादन बढ़ाने पर ज़ोर दिया जाता है। उपभोक्तावाद के कारण ‘सुख’ की व्याख्या बदल गई है। नई स्थिति के अनुसार उत्पाद तो हमारे लिए हैं, परन्तु उत्पाद का भोग करते हुए हम यह भूल जाते हैं कि जाने-अनजाने में आज के माहौल में हमारा चरित्र भी बदल रहा है और हम अपने आप को उत्पाद के लिए समर्पित करते जा रहे हैं। बहुत महँगी या अधिक सुख-सुविधा की वस्तुओं की सामग्रियों से बाज़ार भरा पड़ा है, जो हमें अपनी ओर खींचने की जी तोड़ कोशिश में लगातार लगी रहती हैं। उदाहरण के लिए आप जीवन में हर रोज़ काम आने वाली वस्तुओं को ही लीजिए। जैसे हमें हर रोज टूथ-पेस्ट चाहिए? क्योंकि यह दाँतों को मोती जैसा चमकीला बनाने व् मुँह से आने वाली दुर्गध को हटाने तथा हमारे मसूड़ों को मज़बूत करने के साथ-साथ हमारे मुहँ को ‘पूर्ण सुरक्षा’ देता है। बाज़ार में कई तरह के पेस्ट अलग-अलग तरह से प्रस्तुत किए जाते हैं। अब यदि पेस्ट अच्छा है तो ब्रुश भी अच्छा होना चाहिए। बाज़ार में आकार, रंग, बनावट, पहुँच और सफ़ाई की क्षमता में अलग-अलग प्रकार के एक से बढ़कर एक ब्रुश उपलब्ध हैं। अब मुँह की दुर्गध से बचने के लिए माउथ वाश भी चाहिए। इस तरह की सूची और भी लंबी हो सकती है। सुंदरता बढ़ाने वाली सामग्री की भीड़ तो आश्चर्यचकित कर देने वाली है – क्योंकि हर महीने उसमें नए-नए उत्पाद जुड़ते जाते हैं। आप साबुन का ही उदाहरण देख सकते हैं। एक साबुन में हलकी खुशबू है तो दूसरे में तेज़। एक दिनभर आपके शरीर को तरोताज़ा रखने का दावा करता है, तो दूसरा पसीना रोकने का, तीसरा जर्म्स से आपकी रक्षा करने का दवा करता है। प्रतिष्ठित या सम्मानित महिलाओं की ड्रेसिंग टेबल पर तीस-तीस हज़ार की सौंदर्य सामग्री होना बहुत ही मामूली बात मानी जाती है। वे पेरिस से परफ़्यूम मँगवाती हैं, चाहे इसमें कितना ही अतिरिक्त खर्च हो जाए। क्योंकि इस तरह की सामग्री उनके प्रतिष्ठा-चिह्न (सम्मान का सूचक) हैं, जो समाज में उनकी हैसियत बताते हैं। अब पुरुष भी इस दौड़ में पीछे नहीं है। इन सभी सामग्रियों को छोड़कर अब वस्तु और वस्त्र की दुनिया को भी समझिए। जगह-जगह पर बुटीक (वस्त्रालय) खुल गए हैं, नए-नए डिज़ाइन के वस्त्र बाज़ार में आ गए हैं। पिछले वर्ष के फ़ैशन के मुताबिक़ बने कपड़ों को इस वर्ष पहनना शर्म की बात मानी जाती है। पहले समय में घड़ी का काम समय दिखाना होता था। यदि उससे केवल समय ही देखना हो तो उसे चार-पाँच सौ में खरीदा जा सकता है। हैसियत जताने के लिए आप पचास-साठ हज़ार से लाख-डेढ़ लाख की घड़ी भी ले सकते हैं। संगीत की समझ हो या नहीं, दिखावटी समाज में कीमती म्यूज़िक सिस्टम ज़रूरी है। कंप्यूटर काम के लिए तो खरीदे ही जाते हैं, परन्तु महज़ दिखावे के लिए उन्हें खरीदने वालों की संख्या भी कम नहीं है। खाना खाने के लिए पाँच सितारा होटल में जाते हैं। और अब तो वहाँ विवाह भी होने लगे हैं। हैसियत जताने के लिए बीमार पड़ने पर पाँच सितारा अस्पतालों में जाया जाता है। हैसियत जताने के लिए, पढ़ाई के लिए पाँच सितारा पब्लिक स्कूल तो हैं ही, शीघ्र ही शायद पाँच सितारा कॉलेज और पाँच सितारा यूनिवर्सिटी भी बन जाए। आप कुछ कीमत पर पहले से ही प्रबंध कर सकते हैं कि आपकी कब्र के आसपास सदा हरी घास होगी, और मनचाहे फूल, फव्वारे और मंद ध्वनि में निरंतर संगीत भी चलवा सकते हैं। अमरीका में आज जो हो रहा है, वह कल भारत में भी आ सकता है। यह तो उपभोक्तावादी समाज की एक छोटी-सी झलक ही है। यह विशिष्टजन का समाज है परन्तु सामान्यजन भी इसे ललचाई निगाहों से देखते है। लेखक के मन में एक प्रश्न अक्सर उठता है कि इस उपभोक्ता संस्कृति का विकास भारत में क्यों हो रहा है? इसके उत्तर को देते हुए लेखक कहते हैं कि सामंती संस्कृति भारत में पहले से ही मौजूद रही है केवल उपभोक्तावाद के कारण सामंती संस्कृति में कुछ बदलाव हुए हैं। हम चाहे सांस्कृतिक अस्तित्व की बात कितनी ही कर लें, इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि उपभोक्तावाद के कारण परंपराओं के मूल्य का खण्डन हुआ है और आस्थाओं का नाश भी हुआ है। लेखक इसे कड़वा सच मानते है कि हम अपनी संस्कृति को छोड़ कर पश्चिमी संस्कृति को अपना रहे हैं। हम केवल पश्चिमी संस्कृति का अनुसरण करते जा रहे हैं। संस्कृति की नियंत्रक शक्तियों के कारण ही हम अपनी परम्पराओं से जुड़े थे किन्तु इस शक्ति के कमज़ोर हो जाने के कारण हम सही रास्ते से भटकते जा रहे हैं। विज्ञापन और प्रसार में सम्मोहन की शक्ति है, जिसके कारण हम उनके वश में होते जा रहे हैं। अंत में यही प्रश्न आता है कि इस संस्कृति के फैलाव का परिणाम क्या होगा? इस पर लेखक कहते हैं कि यह विषय अत्यंत गंभीर चिंता का विषय है। हम जानते हैं कि हमारे पास संसाधन सिमित हैं। किन्तु उपभोक्तावाद के कारण हमारे सीमित संसाधनों की अत्यधिक फ़िजूलखर्ची हो रही है। पश्चिमी खाद्य व्यंजनों या पेय पदार्थों का चाहे जितना भी प्रचार प्रसार किया जाए उनसे हम अपने जीवन की गुणवत्ता को नहीं बड़ा सकते। जैसे-जैसे दिखावे की यह संस्कृति फैलेगी, सामाजिक अशांति भी बढ़ेगी। दिखावे की संस्कृति का अनुसरण करते हुए हम अपनी संस्कृति का अस्तित्व खतरे में डाल रहे हैं और अपने लक्ष्य से भी भटकते जा रहे हैं। उपभोक्तावाद के कारण जो हमने विकास के विशाल उद्देश्य रखे थे हम उनसे पीछे हट रहे हैं, हम झूठे संतोष के तात्कालिक लक्ष्यों का पीछा कर रहे हैं। हम अपनी मर्यादाओं को स्वयं तोड़ रहे हैं, हमारे नैतिक मापदंड ढीले पड़ रहे हैं। व्यक्ति-केंद्रकता बढ़ रही है, स्वार्थ परमार्थ पर हावी हो रहा है। गाँधी जी ने पहले से ही आगाह कर दिया था कि उपभोक्तावाद की संस्कृति को यदि हम अपनाएँगे तो हमारी अपनी स्वस्थ संस्कृति का नाश निश्चित है। अपनी बुनियाद पर कायम रहना भविष्य के लिए एक बड़ी चुनौती है।
उपभोक्तावाद की संस्कृति पाठ-व्याख्या (Upbhoktavad ki Sanskriti Lesson Explanation)
पाठ – धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है। एक नयी जीवन-शैली अपना वर्चस्व स्थापित कर रही है। उसके साथ आ रहा है एक नया जीवन-दर्शन-उपभोक्तावाद का दर्शन। उत्पादन बढ़ाने पर ज़ोर है चारों ओर। यह उत्पादन आपके लिए है; आपके भोग के लिए है, आपके सुख के लिए है। ‘सुख’ की व्याख्या बदल गई है। उपभोग-भोग ही सुख है। एक सूक्ष्म बदलाव आया है नई स्थिति में। उत्पाद तो आपके लिए हैं, पर आप यह भूल जाते हैं कि जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।
शब्दार्थ –
वर्चस्व – प्रधानता, श्रेष्ठ या मुख्य होने की अवस्था
उपभोक्तावाद – ऐसी सामाजिक व्यवस्था जिसमें उपभोग करने की वरीयता दी जाती है
शैली – ढंग, तरीका, रीति
व्याख्या – लेखक का मानना है कि हमारे चारों ओर धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है। जीवन जीने का एक नया तरीका अपनी प्रधानता सुनिश्चित कर रहा है। इस तरीके के साथ एक नया जीवन-दर्शन आ रहा है, जिसे उपभोक्तावाद का दर्शन कहा जाता है। अर्थात हमारे जीने के तरीके में अब उपभोक्तावाद जुड़ गया है। इसमें चारों ओर केवल उत्पादन बढ़ाने पर ज़ोर दिया जाता है। और यह कहा जाता है कि यह उत्पादन हमारे लिए है। हमारे उपभोग के लिए है। हमारे सुख के लिए है। उपभोक्तावाद के कारण ‘सुख’ की व्याख्या बदल गई है। उपभोक्तावाद के अनुसार उपभोग-भोग ही सुख है। नई स्थिति में एक छोटा सा बदलाव आया है। जिसके अनुसार उत्पाद तो हमारे लिए हैं, परन्तु उत्पाद का भोग करते हुए हम यह भूल जाते हैं कि जाने-अनजाने में आज के माहौल में हमारा चरित्र भी बदल रहा है और हम अपने आप को उत्पाद के लिए समर्पित करते जा रहे हैं।
पाठ – विलासिता की सामग्रियों से बाज़ार भरा पड़ा है, जो आपको लुभाने की जी तोड़ कोशिश में निरंतर लगी रहती हैं। दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं को ही लीजिए। टूथ-पेस्ट चाहिए? यह दाँतों को मोती जैसा चमकीला बनाता है, यह मुँह की दुर्गध हटाता है। यह मसूड़ों को मज़बूत करता है और यह ‘पूर्ण सुरक्षा’ देता है। वह सब करके जो तीन-चार पेस्ट अलग-अलग करते हैं, किसी पेस्ट का ‘मैजिक’ फ़ार्मूला है। कोई बबूल या नीम के गुणों से भरपूर है, कोई ऋषि-मुनियों द्वारा स्वीकृत तथा मान्य वनस्पति और खनिज तत्वों के मिश्रण से बना है। जो चाहे चुन लीजिए। यदि पेस्ट अच्छा है तो ब्रुश भी अच्छा होना चाहिए। आकार, रंग, बनावट, पहुँच और सफ़ाई की क्षमता में अलग-अलग, एक से बढ़कर एक। मुँह की दुर्गध से बचने के लिए माउथ वाश भी चाहिए। सूची और भी लंबी हो सकती है पर इतनी चीज़ों का ही बिल काफ़ी बड़ा हो जाएगा, क्योंकि आप शायद बहुविज्ञापित और कीमती ब्रांड खरीदना ही पसंद करें। सौंदर्य प्रसाधनों की भीड़ तो चमत्कृत कर देनेवाली है–हर माह उसमें नए-नए उत्पाद जुड़ते जाते हैं। साबुन ही देखिए। एक में हलकी खुशबू है, दूसरे में तेज़। एक दिनभर आपके शरीर को तरोताज़ा रखता है, दूसरा पसीना रोकता है, तीसरा जर्म्स से आपकी रक्षा करता है। यह लीजिए सिनेमा स्टार्स (अर्थात फिल्मों में काम करने वाले अभिनेता और अभिनेत्रियाँ) के सौंदर्य का रहस्य, उनका मनपसंद साबुन। सच्चाई का अर्थ समझना चाहते हैं, यह लीजिए। शरीर को पवित्र रखना चाहते हैं। यह लीजिए शुद्ध गंगाजल में बनी साबुन। चमड़ी को नर्म रखने के लिए यह लीजिए-महँगी है, पर आपके सौंदर्य में निखार ला देगी। संभ्रांत महिलाओं की ड्रेसिंग टेबल पर तीस-तीस हज़ार की सौंदर्य सामग्री होना तो मामूली बात है। पेरिस से परफ़्यूम मँगाइए, इतना ही और खर्च हो जाएगा ये प्रतिष्ठा-चिह्न हैं, समाज में आपकी हैसियत जताते हैं। पुरुष भी इस दौड़ में पीछे नहीं है। पहले उनका काम साबुन और तेल से चल जाता था। आफ़्टर शेव और कोलोन बाद में आए। अब तो इस सूची में दर्जन-दो दर्जन चीज़ें और जुड़ गई हैं।
शब्दार्थ –
निरंतर – लगातार
विज्ञापित – प्रचारित/सूचित
सौंदर्य प्रसाधन – सुंदरता बढ़ाने वाली सामग्री
चमत्कृत – आश्चर्यचकित
संभ्रांत – प्रतिष्ठित, सम्मानित
व्याख्या – बहुत महँगी या अधिक सुख-सुविधा की वस्तुओं की सामग्रियों से बाज़ार भरा पड़ा है, जो हमें अपनी ओर खींचने की जी तोड़ कोशिश में लगातार लगी रहती हैं। उदाहरण के लिए आप जीवन में हर रोज़ काम आने वाली वस्तुओं को ही लीजिए। जैसे हमें हर रोज टूथ-पेस्ट चाहिए? क्योंकि यह दाँतों को मोती जैसा चमकीला बनाता है, यह मुँह से आने वाली दुर्गध को हटाता है। यह हमारे मसूड़ों को मज़बूत करता है। एक तरह से यह हमारे मुहँ को ‘पूर्ण सुरक्षा’ देता है। अब बाज़ार में तीन-चार पेस्ट अलग-अलग तरह से प्रस्तुत किए जाते हैं, किसी पेस्ट का ‘मैजिक’ फ़ार्मूला है। कोई बबूल या नीम के गुणों से भरपूर है, कोई ऋषि-मुनियों द्वारा स्वीकार किया गया है तथा उनके द्वारा मानी गई वनस्पति और खनिज तत्वों के मिश्रण से बना है। अब आप पर निर्भर करता है आप इनमें से जो चाहे चुन लीजिए। अब यदि पेस्ट अच्छा है तो ब्रुश भी अच्छा होना चाहिए। बाज़ार में आकार, रंग, बनावट, पहुँच और सफ़ाई की क्षमता में अलग-अलग प्रकार के एक से बढ़कर एक ब्रुश उपलब्ध हैं। अब मुँह की दुर्गध से बचने के लिए माउथ वाश भी चाहिए। इस तरह की सूची और भी लंबी हो सकती है। परन्तु इतनी चीज़ों का ही बिल काफ़ी बड़ा हो जाएगा, क्योंकि आप शायद ऐसी चीज़ें खरीदने के शौक़ीन हैं जिनका अधिक विज्ञापन किया जाता है या जो कीमती ब्रांड की होती हैं। सुंदरता बढ़ाने वाली सामग्री की भीड़ तो आश्चर्यचकित कर देने वाली है – क्योंकि हर महीने उसमें नए-नए उत्पाद जुड़ते जाते हैं। आप साबुन का ही उदाहरण देख सकते हैं। एक साबुन में हलकी खुशबू है तो दूसरे में तेज़। एक दिनभर आपके शरीर को तरोताज़ा रखने का दावा करता है, तो दूसरा पसीना रोकने का, तीसरा जर्म्स से आपकी रक्षा करने का दवा करता है। किसी-किसी साबुन के विज्ञापन में उसे सिनेमा स्टार्स के सौंदर्य का रहस्य बतलाया जाता है और उनका मनपसंद साबुन कह कर उसका प्रचार किया जाता है। अगर आप सच्चाई जानना चाहते हैं, तो और भी उदहारण हैं। जैसे शरीर को पवित्र रखना चाहते हैं तो शुद्ध गंगाजल में बनी साबुन भी बाज़ार में है। चमड़ी को नर्म रखने के लिए भी साबुन है, वह महँगी बताई जाती है, पर दवा करती है कि आपके सौंदर्य में निखार ला देगी। प्रतिष्ठित या सम्मानित महिलाओं की ड्रेसिंग टेबल पर तीस-तीस हज़ार की सौंदर्य सामग्री होना बहुत ही मामूली बात मानी जाती है। वे पेरिस से परफ़्यूम मँगवाती हैं, चाहे इसमें उनके बजट से बढ़कर अतिरिक्त खर्च हो जाए। क्योंकि इस तरह की दिखावे से पूर्ण सामग्री उनके प्रतिष्ठा-चिह्न (सम्मान का सूचक) हैं, जो समाज में उनके अनुसार उनकी हैसियत बताते हैं। अब पुरुष भी इस दौड़ में पीछे नहीं है। पहले उनका काम साबुन और तेल से चल जाता था। आफ़्टर शेव और कोलोन उनकी सूची में बाद में आए। परन्तु अब तो इस सूची में अनगिनत चीज़ें और जुड़ गई हैं जैसे – बालों को सेट करने का जैल, स्प्रे और क्रीम, तरह-तरह के हेयर कट, फैशन के अनुसार कपड़े इत्यादि।
पाठ – छोड़िए इस सामग्री को। वस्तु और परिधान की दुनिया में आइए। जगह-जगह बुटीक खुल गए हैं, नए-नए डिज़ाइन के परिधान बाज़ार में आ गए हैं। ये ट्रेंडी हैं और महँगे भी। पिछले वर्ष के फ़ैशन इस वर्ष? शर्म की बात है। घड़ी पहले समय दिखाती थी। उससे यदि यही काम लेना हो तो चार-पाँच सौ में मिल जाएगी। हैसियत जताने के लिए आप पचास-साठ हज़ार से लाख-डेढ़ लाख की घड़ी भी ले सकते हैं। संगीत की समझ हो या नहीं, कीमती म्यूज़िक सिस्टम ज़रूरी है। कोई बात नहीं यदि आप उसे ठीक तरह चला भी न सकें। कंप्यूटर काम के लिए तो खरीदे ही जाते हैं, महज़ दिखावे के लिए उन्हें खरीदनेवालों की संख्या भी कम नहीं है। खाने के लिए पाँच सितारा होटल हैं। वहाँ तो अब विवाह भी होने लगे हैं। बीमार पड़ने पर पाँच सितारा अस्पतालों में आइए। सुख-सुविधाओं और अच्छे इलाज के अतिरिक्त यह अनुभव-काफ़ी समय तक चर्चा का विषय भी रहेगा, पढ़ाई के लिए पाँच सितारा पब्लिक स्कूल हैं, शीघ्र ही शायद कॉलेज और यूनिवर्सिटी भी बन जाए। भारत में तो यह स्थिति अभी नहीं आई पर अमरीका और यूरोप के कुछ देशों में आप मरने के पहले ही अपने अंतिम संस्कार और अनंत विश्राम का प्रबंध भी कर सकते हैं-एक कीमत पर। आपकी कब्र ( समाधि भवन) के आसपास सदा हरी घास होगी, मनचाहे फूल होंगे। चाहें तो वहाँ फव्वारे होंगे और हल्की आवाज में लगातार संगीत भी। कल भारत में भी यह संभव हो सकता है। अमरीका में आज जो हो रहा है, वह कल भारत में भी आ सकता है। सम्मान अथवा इज़्ज़त के अनेक रूप होते है। चाहे वे हँसी उत्पन्न करने वाला ही क्यों न हो। यह है एक छोटी-सी झलक उपभोक्तावादी समाज की । यह विशिष्टजन का समाज है पर सामान्यजन भी इसे ललचाई निगाहों से देखते है। उनकी दृष्टी में, एक विज्ञापन की भाषा में, यही है राइट च्वाइस बेबी।
शब्दार्थ –
परिधान – वस्त्र
अनंत – जिसका अंत न हो
व्याख्या – इन सभी सामग्रियों को छोड़कर अब वस्तु और वस्त्र की दुनिया को भी समझिए। जगह-जगह पर बुटीक (वस्त्रालय) खुल गए हैं, नए-नए डिज़ाइन के वस्त्र बाज़ार में आ गए हैं। जिन्हें ट्रेंडी कहकर महँगे दामों में बेचा जाता हैं। पिछले वर्ष के फ़ैशन को अगले वर्ष पहनना शर्म की बात मानी जाती है। पहले समय में घड़ी का काम समय दिखाना होता था। यदि उससे केवल समय ही देखना हो तो उसे चार-पाँच सौ में खरीदा जा सकता है। हैसियत जताने के लिए आप पचास-साठ हज़ार से लाख-डेढ़ लाख की घड़ी भी ले सकते हैं। संगीत की समझ हो या नहीं, दिखावटी समाज में कीमती म्यूज़िक सिस्टम ज़रूरी है। फिर भले ही उसे आप ठीक तरह से चला भी न सकें। कंप्यूटर काम के लिए तो खरीदे ही जाते हैं, परन्तु महज़ दिखावे के लिए उन्हें खरीदने वालों की संख्या भी कम नहीं है। खाना खाने के लिए पाँच सितारा होटल (होटलों में सबसे सर्वश्रेठ व् सुविधाजनक परन्तु अत्यधिक मँहगा) में जाते हैं। और अब तो वहाँ विवाह भी होने लगे हैं। हैसियत जताने के लिए बीमार पड़ने पर पाँच सितारा अस्पतालों में जाया जाता है। वहाँ सुख-सुविधाओं के साथ – साथ अच्छा इलाज तो होता ही है। इसके अलावा वहाँ किए गए अनुभव को वे काफ़ी लम्बे समय तक दूसरों के बीच अपनी हैसियत को बढ़ाने के लिए चर्चा का विषय भी बना कर रख सकते हैं। हैसियत जताने के लिए, पढ़ाई के लिए पाँच सितारा पब्लिक स्कूल तो हैं ही, शीघ्र ही शायद पाँच सितारा कॉलेज और पाँच सितारा यूनिवर्सिटी भी बन जाए। एक कीमत अदा करने पर अमरीका और यूरोप के कुछ देशों में आप मरने के पहले ही अपने दाह संस्कार का प्रबंध भी कर सकते हैं। फिलहाल अभी भारत में यह स्थिति नहीं आई है। आप कुछ कीमत पर पहले से ही प्रबंध कर सकते हैं कि आपकी कब्र के आसपास सदा हरी घास होगी, और मनचाहे फूल वहाँ होंगे। चाहें तो वहाँ फव्वारे भी लगवा सकते हैं औरधीमी आवाज़ में लगातार संगीत भी चलवा सकते हैं। आज यह सब विदेशों में हो रहा है परन्तु कल भारत में भी यह संभव हो सकता है। अमरीका में आज जो हो रहा है, वह कल भारत में भी आ सकता है। प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते है। चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हो। यह तो उपभोक्तावादी समाज की एक छोटी-सी झलक ही है। यह उच्च वर्ग का समाज है परन्तु आम लोग भी उनकी तरह जीवन जीने का सपना देखते है। एक विज्ञापन की भाषा में उनके अनुसार कहा जा सकता है कि उपभोक्तावादी समाज ही सही चुनाव है।
पाठ – अब विषय के गंभीर पक्ष की ओर आएँ। इस उपभोक्ता संस्कृति का विकास भारत में क्यों हो रहा है?
सामंती संस्कृति के तत्व भारत में पहले भी रहे हैं। उपभोक्तावाद इस संस्कृति से जुड़ा रहा है। आज सामंत बदल गए हैं, सामंती संस्कृति का मुहावरा बदल गया है।
हम सांस्कृतिक आस्मिता की बात कितनी ही करें; परंपराओं का अवमूल्यन हुआ है, आस्थाओं का क्षरण हुआ है। कड़वा सच तो यह है कि हम बौद्धिक दासता स्वीकार कर रहे हैं, पश्चिम के सांस्कृतिक उपनिवेश बन रहे हैं। हमारी नई संस्कृति अनुकरण की संस्कृति है। हम आधुनिकता के झूठे प्रतिमान अपनाते जा रहे हैं। प्रतिष्ठा की अंधी प्रतिस्पर्धा में जो अपना है उसे खोकर छद्म आधुनिकता की गिरफ़्त में आते जा रहे हैं। संस्कृति की नियंत्रक शक्तियों के क्षीण हो जाने के कारण हम दिग्भ्रमित हो रहे हैं। हमारा समाज ही अन्य-निर्देशित होता जा रहा है। विज्ञापन और प्रसार के सुक्ष्म तंत्र हमारी मानसिकता बदल रहे हैं। उनमें सम्मोहन की शक्ति है, वशीकरण की भी।
शब्दार्थ –
सामंती संस्कृति – विशिष्ठ जनों की जीवन-शैली
अस्मिता – अस्तित्व, पहचान
अवमूल्यन – मूल्य गिरा देना
क्षरण – नाश
दासता – गुलामी, बंधन
उपनिवेश – वह विजित देश जिसमें विजेता राष्ट्र के लोग आकर बस गए हों
प्रतिमान – मानदंड
प्रतिस्पर्धा – होड़
छ्द्म – बनावटी
दिग्भ्रमित – रास्ते से भटकना, दिशाहीन
वशीकरण – वश में करना
व्याख्या – लेखक कहते हैं कि अब उपभोक्तावाद जैसे विषय के गंभीर पक्ष को भी समझने का प्रयास करें। एक प्रश्न अक्सर उठता है कि इस उपभोक्ता संस्कृति का विकास भारत में क्यों हो रहा है? इसके उत्तर को देते हुए लेखक कहते हैं कि विशिष्ठ जनों की जीवन-शैली के तत्व भारत में पहले भी रहे हैं। और उपभोक्तावाद इस संस्कृति से जुड़ा रहा है। आज सामंत बदल गए हैं, सामंती संस्कृति का मुहावरा बदल गया है। कहने का अभिप्राय यह है कि सामंती संस्कृति भारत में पहले से ही मौजूद रही है केवल उपभोक्तावाद के कारण सामंती संस्कृति में कुछ बदलाव हुए हैं।
हम चाहे अपनी संस्कृति के अस्तित्व की कितनी ही बात कर लें, इस बात को नजरअंदाज नहीं जा सकता कि उपभोक्तावाद के कारण परंपराओं के मूल्य का खण्डन हुआ है और हमारी आस्थाओं का नाश भी हुआ है। लेखक इसे कड़वा सच मानते है कि हम दूसरों को श्रेष्ठ समझकर बिना कुछ सोचे समझे उसे स्वीकार करते हैं और हम अपनी संस्कृति को छोड़ कर पश्चिमी संस्कृति को अपना रहे हैं। हम जिस संस्कृति को अपना रहे हैं वह नई संस्कृति अनुकरण की संस्कृति है। अर्थात हम बिना रोक टोक के पश्चिमी संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं। हम आधुनिकता के झूठे मापदंडों अर्थात झूठे दिखावे को अपनाते जा रहे हैं। प्रतिष्ठा या मान-सम्मान की अंधी दौड़ में हम अपनों को पीछे छोड़कर बनावटी आधुनिकता की गिरफ़्त में आते जा रहे हैं। लेखक का मानना है कि हमारी संस्कृति की नियंत्रक शक्तियों अर्थात सही राह दिखाने के आदर्शों के कारण ही हम अपनी परम्पराओं से जुड़े थे किन्तु बनावटी आधुनिकता के कारण इस शक्ति के कमज़ोर हो जाने के कारण हम सही रास्ते से भटकते जा रहे हैं। हमारा समाज ही दूसरों के द्वारा दिखाए गए रास्ते पर चलता जा रहा है। विज्ञापन और प्रसार के सुक्ष्म तंत्र के कारण हमारी मानसिकता भी बदल रही है। विज्ञापन और प्रसार में एक तरह की सम्मोहन की शक्ति है, जिसके कारण हम उनके वश में होते जा रहे हैं। अर्थात विज्ञापनों और प्रसार के कारण हम बेवजह गलत चीजों को भी सही समझते हैं।
पाठ – अंतत: इस संस्कृति के फैलाव का परिणाम क्या होगा? यह गंभीर चिंता का विषय है। हमारे सीमित संसाधनों का घोर अपव्यय हो रहा है। जीवन की गुणवत्ता आलू के चिप्स से नहीं सुधरती। न बहुविज्ञापित शीतल पेयों से। भले ही वे अंतर्राष्ट्रीय हों। पीज़ा और बर्गर कितने ही आधुनिक हों, हैं वे कूड़ा खाद्य। समाज में वर्णों की दूरी बढ़ रही है, सामाजिक सरोकारों में कमी आ रही है। जीवन स्तर का यह बढ़ता अंतर आक्रोश और अशांति को जन्म दे रहा है। जैसे-जैसे दिखावे की यह संस्कृति फैलेगी, सामाजिक अशांति भी बढ़ेगी। हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का ह्रास तो हो ही रहा है, हम लक्ष्य-भ्रम से भी पीड़ित है। विकास के विराट उद्देश्य पीछे हट रहे हैं, हम झूठी तुष्टि के तात्कालिक लक्ष्यों का पीछा कर रहे हैं। मर्यादाएँ टूट रही हैं, नैतिक मापदंड ढीले पड़ रहे हैं। व्यक्ति-केंद्रकता बढ़ रही है, स्वार्थ परमार्थ पर हावी हो रहा है। भोग की आकांक्षाएँ आसमान को छू रही है। किस बिंदु पर रुकेगी यह दौड़?
गांधी जी ने कहा था कि हम स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभावों के लिए अपने दरवाज़े-खिड़की खुले रखें पर अपनी बुनियाद पर कायम रहें। उपभोक्ता संस्कृति हमारी सामाजिक नींव को हिला रही है। यह एक बड़ा खतरा है। भविष्य के लिए यह एक बड़ी चुनौती है।
शब्दार्थ –
संसाधन – भरण-पोषण, विकास आदि की सामग्री, साधन-सामग्री
बहुविज्ञापित – जिन वस्तुओं का विज्ञापनों के द्वारा अधिक प्रचार किया जाता है
शीतल पेयों – ठंडक देने वाली पीने की सामग्री जैसे – जूस इत्यादि
अपव्यय – फ़िजूलखर्ची
सरोकार – परस्पर व्यवहार का संबंध, लगाव
आक्रोश – क्रोध
अस्मिता – पहचान
ह्रास – पतन
लक्ष्य-भ्रम – अपने लक्ष्य या उद्देश्य से भटकना
तुष्टि – संतोष या तृप्ति
तात्कालिक – उसी समय का
मर्यादा – सीमा, हद
नैतिक – निति के अनुसार होने वाला (व्यवहार या आचरण)
मापदंड – मापने का पैमाना
परमार्थ – दूसरों की भलाई
नींव – मूल, जड़, आधार
व्याख्या – अंत में यही प्रश्न आता है कि इस संस्कृति के फैलाव का परिणाम क्या होगा? इस पर लेखक कहते हैं कि यह विषय अत्यंत गंभीर चिंता का विषय है। हम जानते हैं कि हमारे पास संसाधन अर्थात साधन-सामग्रियाँ सीमित है। किन्तु उपभोक्तावाद के कारण हम अपने सीमित संसाधनों को अत्यधिक मात्रा में फ़िजूलखर्च कर रहे हैं। उदाहरण के लिए हम अपने जीवन की गुणवत्ता को आलू के चिप्स से नहीं सुधार सकते और न ही बहुत अधिक प्रचारित या प्रसारित ठण्डे पेय पदार्थों से । भले ही वे आलू के चिप्स और ठण्डे पेय पदार्थ अंतर्राष्ट्रीय हों। कहने का तात्पर्य यह है कि पीज़ा और बर्गर को हम चाहे कितने ही आधुनिक मान लें परन्तु असल में तो वे कूड़ा खाद्य ही हैं। अर्थात पश्चिमी खाद्य व्यंजनों या पेय पदार्थों का चाहे जितना भी प्रचार प्रसार किया जाए उनसे हम अपने जीवन की गुणवत्ता को नहीं सुधार सकते। उपभोक्तावाद के कारण समाज में उच्च वर्णों और निम्न वर्णों की दूरी बढ़ रही है, पारस्परिक संबंधों या आपसी लगाव में कमी आ रही है। जीवन स्तर का यह बढ़ता अंतर क्रोध और अशांति को जन्म दे रहा है। जैसे-जैसे दिखावे की यह संस्कृति फैलेगी, समाज में लोगों के बीच अशांति भी बढ़ेगी। उपभोक्तावाद के कारण हमारी सांस्कृतिक पहचान का पतन तो हो ही रहा है, हम अपने लक्ष्य से भी भटकते जा रहे हैं। अर्थात दिखावे की संस्कृति का अनुसरण करते हुए हम अपनी संस्कृति का अस्तित्व खतरे में डाल रहें हैं और अपने लक्ष्य से भी भटकते जा रहे हैं। जो हमने अपने समाज के विकास के विशाल उद्देश्य रखे थे, उपभोक्तावाद के कारण हम उनसे पीछे हट रहे हैं, हम संतोष या तृप्ति के तुरंत मिलने वाले लक्ष्यों का पीछा कर रहे हैं, जो एक झूठ मात्र है। हम अपनी सीमाओं या हद को स्वयं तोड़ रहे हैं, हमारे व्यवहार और आचरण की सीख को हम भूलते जा रहे हैं। व्यक्ति केवल अपने बारे में सोच रहा है, दूसरों की भलाई की जगह व्यक्ति केवल अपनी सुविधा देख रहा है। भोग-विलास की इच्छाएँ बढ़ती जा रही है। यह दौड़ आख़िर कहाँ जा कर रुकेगी इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। गांधी जी ने कहा था कि हम स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभावों के लिए अपने दिमाग के दरवाज़े-खिड़की खुले रखें पर अपनी बुनियाद अर्थात अपने आदर्शों पर कायम रहें। उपभोक्ता संस्कृति हमारी सामाजिक आधारों को हिला रही है। यह एक बड़ा खतरा है। भविष्य के लिए यह एक बड़ी चुनौती है। कहने का अभिप्राय यह है कि गाँधी जी ने पहले से ही आगाह कर दिया था कि उपभोक्तावाद की संस्कृति को यदि हम अपनाएँगे को हमारी अपनी स्वस्थ संस्कृति का नाश निश्चित है। अपनी बुनियाद पर कायम रहना भविष्य के लिए यह एक बड़ी चुनौती है।
Conclusion
दिए गए पोस्ट में हमने ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ नामक निबंध का सारांश, पाठ व्याख्या और शब्दार्थ को जाना। यह पाठ कक्षा 9 हिंदी अ के पाठ्यक्रम में क्षितिज पुस्तक से लिया गया है। श्यामाचरण दुबे ने इस निबंध द्वारा समाज की ऐसी वास्तविकता को प्रदर्शित किया है, जहाँ उपभोक्तावाद के कारण हम अपने सांस्कृतिक आदर्शों को पीछे छोड़ कर पश्चिमी संस्कृति को अपनाए जा रहे हैं। इस पोस्ट की सहायता से विद्यार्थी पाठ को अच्छे से समझ सकते हैं और परीक्षा में प्रश्नों के हल अच्छे से लिख सकने में सहायता प्रदान होगी।