मेरे संग की औरतें सार
CBSE Class 9 Hindi Chapter 2 “Mere Sang ki Auraten”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kritika Book
इस जल प्रलय में सार – Here is the CBSE Class 9 Hindi Kritika Chapter 2 Mere Sang ki Auraten Summary with detailed explanation of the lesson ‘Is Jal Pralay Mein’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary
इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 9 हिंदी कृतिका के पाठ 2 मेरे संग की औरतें पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 9 मेरे संग की औरतें पाठ के बारे में जानते हैं।
Mere Sang ki Auraten (मेरे संग की औरतें)
लेखिका – मृदुला गर्ग
‘मेरे संग की औरतें’ रचना लेखिका मृदुला गर्ग द्वारा रचित एक ‘संस्मरणात्मक’ गद्य है। यह पाठ मुख्य रूप से औरतों पर केन्द्रित है कि किस तरह से लेखिका और उसके परिवार की औरतें परंपरागत रीतिरिवाजों और लम्बे समय से चले आ रहे तरीके से जीते हुए भी लीक से हटकर अपना जीवन जीती हैं। इस पाठ में एक ऐसे परिवार के बारे में बताया गया है जहाँ लड़का – लड़की में कोई भेदभाव नहीं किया जाता। कोई भी किसी के निजी जीवन में दखल नहीं देता। लेखिका के जीवन व् उनके लेखन पर उसकी माँ, दादी, नानी तथा उसकी बहनों का विशेष प्रभाव पड़ा।
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मेरे संग की औरतें पाठ सार Mere Sang ki Auraten Summary
‘मेरे संग की औरतें’, में लेखिका बताती हैं कि उनकी एक नानी थीं। स्पष्ट है कि सभी की नानी होती है परन्तु लेखिका ने उन्हें कभी नहीं देखा था। क्योंकि लेखिका की माँ की शादी होने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई थी। लेखिका को बचपन में नानी से कहानी सुन पाने का सौभाग्य नहीं मिल पाया जिसके कारण लेखिका मानती है कि शायद बाद में इसी वजह से लेखिका और उसकी बहिनों को खुद कहानियाँ कहनी पड़ीं अर्थात वे लेखिका बन गईं। लेखिका बताती हैं कि उनके घर में कुछ लोग अंग्रेजों का समर्थन करते थे तो कुछ लोग भारतीय नेताओं का पक्ष लेते थे। पर बहुमति होने के बाद भी घर में किसी तरह की संकीर्णता नहीं थी। सब लोग अपने निज विचारों को बनाये रख सकते थे। लेखिका के नाना अंग्रेजों के पक्ष में थे। परन्तु उनकी नानी जिनको लेखिका ने कभी नहीं देखा था अपने जीवन के अंतिम दिनों में प्रसिद्ध क्रांतिकारी प्यारेलाल शर्मा से मिली थीं। उसके उपरांत उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह किसी क्रांतिकारी से करने की इच्छा प्रकट करी थी। इस प्रकार लेखिका की नानी जो जीवन भर परदे में रहीं थीं, हिम्मत करके एक अनजान व्यक्ति से मिलीं। उन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए पवित्र भावना प्रकट करी। उनके साहसी व्यक्तित्व और स्वतंत्रता की भावना से लेखिका प्रभावित हुईं। लेखिका की दादी के मन में लड़का और लडकी में भेद नहीं था। उनके परिवार में कई पीढ़ियों से किसी भी बहु की पहली संतान के रूप में किसी कन्या का जन्म नहीं हुआ था। संभव है कि इसी कारण परदादी ने पतोहू के लिए पहले बच्चे के रूप में लडकी पैदा होने की मन्नत माँगी थी। लेखिका की माँ नाज़ुक और सुंदर थीं। वे स्वतंत्र विचारों की महिला थीं। ईमानदारी, निष्पक्षता और सचाई उनके गुण थे। उन्होंने अन्य माताओं के समान अपनी बेटी को अच्छे बुरे की सीख नहीं दी और न खाना पकाकर खिलाया और न ही किसी भारतीय माँ की तरह अपने बच्चों को प्यार किया। लेखिका के पिता ही घर में उनकी माँ की भूमिका भी निभाते थे। लेखिका की माँ अपना अधिकांश समय अध्यन और संगीत को समर्पित करती थीं। वे झूठ नहीं बोलती थीं और इधर की बात उधर नहीं करती थीं। जिस कारण उन्हें घर व् बाहर दोनों ही स्थान पर सम्मान मिला। लोग हर काम में उनकी राय लेते और उसका पालन करते थे। लेखिका और उनकी बहन एकांत प्रिय स्वभाव की थीं। वे जिद्दी थीं पर सही बात के लिए जिद करती थीं। उनकी जिद के फलस्वरूप लोगों को कर्नाटक में स्कूल खोलने की प्रेरणा मिली। सच के आगे सिर झुकाने की लेखिका की बचपन की आदत थी। इसलिए ने तय किया कि वे खुद, अंग्रेज़ी-हिंदी-कन्नड़, तीन भाषाएँ पढ़ाने वाला, प्राइमरी स्कूल वहाँ खोलेंगी और कर्नाटक सरकार से उसे मान्यता भी दिलवाऐंगी। लेखिका ने वहाँ के अनेक मेहनती और कुछ हट कर काम करने वाले लोगों की मदद से यह व्रत पूरा किया। लेखिका के बच्चे तथा अन्य अफ़सरों के बच्चे उसी स्कूल में पढ़े। प्राइमरी शिक्षा पूरी करने के बाद में अलग-अलग शहरों के अलग-अलग प्रसिद्ध स्कूलों में उन बच्चों को दाखिला भी मिल गया।
मेरे संग की औरतें पाठ व्याख्या Mere Sang ki Auraten Lesson Explanation
पाठ – मेरी एक नानी थीं। ज़ाहीर है। पर मैंने उन्हें कभी देखा नहीं। मेरी माँ की शादी होने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई थी। शायद नानी से कहानी न सुन पाने के कारण बाद में, हम तीन बहिनों को खुद कहानियाँ कहनी पड़ीं। नानी से कहानी भले न सुनी हो, नानी की कहानी ज़रूर सुनी और बहुत बाद में जाकर उसका असली मर्म समझ में आया। पहले इतना ही जाना कि मेरी नानी, पारंपरिक, अनपढ़, परदानशीं औरत थीं, जिनके पति शादी के तुरंत बाद उन्हें छोड़कर बैरिस्ट्री पढ़ने विलायत चले गए थे। कैंब्रिज विश्वविद्यालय से डिग्री लेकर जब वे लौटे और विलायती रीति रिवाज के संग ज़िंदगी बसर करने लगे तो, नानी के अपने रहन-सहन पर, उसका कोई असर नहीं पड़ा, न उन्होंने अपनी किसी इच्छा-आकांक्षा या पसंद-नापंसद का इज़हार पति पर कभी किया।
शब्दार्थ –
ज़ाहीर – स्पष्ट
मर्म – स्वरूप
परदानशीं – परदा करने वाली स्त्री
बैरिस्ट्री – वकालत की पढ़ाई
विलायत – विदेश
बसर – व्यतीत
इज़हार – व्यक्त करना
व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि उनकी एक नानी थीं। स्पष्ट है कि सभी की नानी होती है परन्तु लेखिका ने उन्हें कभी नहीं देखा था। क्योंकि लेखिका की माँ की शादी होने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई थी। लेखिका को बचपन में नानी से कहानी सुन पाने का सौभाग्य नहीं मिल पाया जिसके कारण लेखिका मानती है कि शायद बाद में इसी वजह से लेखिका और उसकी बहिनों को खुद कहानियाँ कहनी पड़ीं अर्थात वे लेखिका बन गईं। लेखिका ने नानी से कहानी भले ही न सुनी हो, परन्तु अपनी नानी के बारे में कहानी ज़रूर सुनी और बहुत बाद में जाकर उसका असली स्वरूप समझ में आया। पहले-पहले लेखिका ने अपनी नानी के बारे में इतना ही जाना कि वह पारंपरिक, अनपढ़ और परदा करने वाली औरत थीं, जिनके पति शादी के तुरंत बाद उन्हें छोड़कर वकालत की पढ़ाई के लिए विदेश चले गए थे। कैंब्रिज विश्वविद्यालय से डिग्री लेकर जब वे लौटे और विलायती रीति रिवाज के संग ज़िंदगी व्यतीत करने लगे तो, नानी के अपने रहन-सहन पर, उसका कोई असर नहीं पड़ने दिया। और न ही उन्होंने अपनी किसी इच्छा-आकांक्षा या पसंद-नापंसद को अपने पति के समक्ष कभी व्यक्त किया। अर्थात उन्होंने कभी अपनी किसी जरूरत या इच्छा को अपने पति को नहीं बताया।
पाठ – पर जब कम-उम्र में नानी ने खुद को मौत के करीब पाया तो, पंद्रह वर्षीय इकलौती बेटी ‘मेरी माँ’ की शादी की फ़िक्र ने इतना डराया कि वे एकदम मुँहज़ोर हो उठीं। नाना से उन्होंने कहा कि वे परदे का लिहाज़ छोड़कर उनके दोस्त स्वतंत्रता-सेनानी प्यारेलाल शर्मा से मिलना चाहती हैं। सब दंग-हैरान रह गए। जिस परदानशीं औरत ने पराए मर्द से क्या, खुद अपने मर्द से मुँह खोलकर बात नहीं की थी, आखिरी वक्त में अजनबी से क्या कहना चाह सकती है? पर नाना ने वक्त की कमी और मौके की नज़ाकत की लाज रखी! सवाल-जवाब में वक्त बरबाद करने के बजाए फ़ौरन जाकर दोस्त को लिवा लाए और बीबी के हुज़ूर में पेश कर दिया।
शब्दार्थ –
मुँहज़ोर – बहुत बोलने वाली
लिहाज़ – ख्याल
नज़ाकत – सूक्ष्मता
हुज़ूर – उपस्थिति
व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि भले ही उसकी नानी ने कभी अपने पति के सामने कोई इच्छा व्यक्त नहीं की थी परन्तु जब कम-उम्र में ही नानी ने खुद को मौत के करीब पाया तो, अपनी पंद्रह वर्षीय इकलौती बेटी अर्थात लेखिका की माँ की शादी की फ़िक्र ने उन्हें डरा दिया था कि वे एकदम बहुत बोलने वाली हो गई थी। उस आखरी वक्त में उन्होंने अपने पति अर्थात लेखिका के नाना से कहा कि वे परदे का ख्याल छोड़कर उनके दोस्त स्वतंत्रता-सेनानी प्यारेलाल शर्मा से मिलना चाहती हैं। यह सुनकर सभी दंग-हैरान रह गए थे। क्योंकि वे सब सोचने पर मज़बूर हो गए थे कि जिस परदा करने वाली औरत ने पराए मर्द से क्या, खुद अपने मर्द से मुँह खोलकर बात नहीं की थी, आखिरी वक्त में एक अजनबी मर्द से वह क्या कहना चाहती है? पर लेखिका के नाना ने वक्त की कमी और मौके की सूक्ष्मता को समझा और सवाल-जवाब में वक्त बरबाद करने के बजाए फ़ौरन जाकर दोस्त को ले लाए और अपनी पत्नी के समक्ष उपस्थित कर दिया। अर्थात लेखिका के नाना ने अपनी पत्नी की बात को समझते हुए अपने दोस्त प्यारेलाल शर्मा को बिना देर किए अपनी पत्नी के सामने ला कर खड़ा कर दिया।
पाठ – अब जो नानी ने कहा, वह और भी हैरतअंगेज़ था। उन्होंने कहा, “वचन दीजिए कि मेरी लड़की के लिए वर आप तय करेंगे। मेरे पति तो साहब हैं और मैं नहीं चाहती मेरी बेटी की शादी, साहबों के फ़रमाबरदार से हो। आप अपनी तरह आज़ादी का सिपाही ढूँढ़कर उसकी शादी करवा दीजिएगा।” कौन कह सकता था कि अपनी आज़ादी से पूरी तरह बेखबर उस औरत के मन में देश की आज़ादी के लिए ऐसा जुनून होगा। बाद में मेरी समझ में आया कि दरअसल वे निजी जीवन में भी काफ़ी आज़ाद-ख़्याल रही होंगी। ठीक है, उन्होंने नाना की ज़िंदगी में कोई दखल नहीं दिया, न उसमें साझेदारी की, पर अपनी ज़िंदगी को अपने ढंग से जीती ज़रूर रहीं। पारंपरिक, घरेलू, उबाऊ और खामोश ज़िंदगी जीने में, आज के हिसाब से, क्रांतिकारी चाहे कुछ न रहा हो दूसरे की तरह जीने के लिए मजबूर होने में असली आज़ादी कुछ ज़्यादा ही थी।
शब्दार्थ –
हैरतअंगेज़ – अचंभित कर देने वाला
फ़रमाबरदार – आज्ञाकारी
व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि जब उसके नाना अपने दोस्त को नानी के पास ले आए तो जो बात नानी ने उनसे कही वह और भी अचंभित कर देने वाली बात थी। नानी ने उनसे वचन माँगा कि उनकी लड़की अर्थात लेखिका की माँ के लिए वर वे ही तय करेंगे। क्योंकि नानी के अनुसार उनके पति तो साहब हैं और वे नहीं चाहती थी कि उनकी बेटी की शादी, साहबों के आज्ञानुसार हो। नानी चाहती थी कि वे अपनी तरह आज़ादी का सिपाही ढूँढ़कर लेखिका की माँ की शादी करवा दें। लेखिका बताती हैं कि कौन कह सकता था कि अपनी आज़ादी से पूरी तरह बेखबर उस औरत अर्थात लेखिका की नानी के मन में देश की आज़ादी के लिए ऐसा जुनून होगा। परन्तु बाद में लेखिका को समझ में आया कि दरअसल उसकी नानी अपने निजी जीवन में भी काफ़ी आज़ाद-ख़्याल रही होंगी। यह भी ठीक है कि उन्होंने कभी अपने पति की ज़िंदगी में कोई दखल नहीं दिया, न उसमें साझेदारी की, पर वे अपनी ज़िंदगी को अपने ढंग से जीती ज़रूर रहीं। आज के हिसाब से भले ही पारंपरिक, घरेलू, उबाऊ और खामोश ज़िंदगी जीने में क्रांतिकारी चाहे कुछ न रहा हो परन्तु उस समय के हिसाब से दूसरे की तरह जीने के लिए मजबूर होने में असली आज़ादी कुछ ज़्यादा ही थी।
पाठ – खैर, इस तरह मेरी माँ की शादी ऐसे पढ़े-लिखे होनहार लड़के से हुई, जिसे आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेने के अपराध में आई.सी.एस. के इम्तिहान में बैठने से रोक दिया गया था और जिसकी जेब में पुश्तैनी पैसा-धेला एक नहीं था। माँ, बेचारी, अपनी माँ और गांधी जी के सिद्धांतों के चक्कर में सादा जीवन जीने और ऊँचे खयाल रखने पर मजबूर हुईं। हाल उनका यह था कि खादी की साड़ी उन्हें इतनी भारी लगती थी कि कमर चनका खा जाती। रात-रात भर जागकर वे उसे पहनने का अभ्यास करतीं, जिससे दिन में शर्मिंदगी न उठानी पड़े। वे कुछ ऐसी नाज़ुक थीं कि उन्हें देखकर उनकी सास यानी मेरी दादी ने कहा था, “हमारी बहू तो ऐसी है कि धोई, पोंछी और छींके पर टाँग दी।” गनीमत यही थी कि किसी ने उन्हें छींके पर से उतारने की पेशकश नहीं की।
शब्दार्थ –
इम्तिहान – परीक्षा
पुश्तैनी – पैतृक
धेला – आधा पैसा, प्राचीन काल में प्रचलित एक प्रकार का सिक्का
चनका खाना – लचक जाना
छींका – रस्सियों या तारों का वह जाल जो खाने-पीने की चीज़ें आदि रखने के लिए छत या दीवार आदि से लटकाया जाता है
गनीमत – सौभाग्य
व्याख्या – लेखिका आगे बताती हैं कि इस तरह उसकी माँ की शादी ऐसे पढ़े-लिखे होनहार लड़के से हुई, जिसे आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेने का अपराधी मानने के कारण आई.सी.एस. की परीक्षा में बैठने से रोक दिया गया था और जिसकी जेब में उसकी पैतृक संपत्ति का आधा पैसा भी नहीं था। अर्थात लेखिका के पिता के पास कोई पैतृक संपत्ति नहीं थी। लेखिका अपनी माँ को बेचारी मानती है क्योंकि उन्हें अपनी माँ और गांधी जी के सिद्धांतों के चक्कर में सादा जीवन जीने और ऊँचे खयाल रखने पर मजबूर होना पड़ा था। उनका हाल यह था कि खादी की साड़ी उन्हें इतनी भारी लगती थी कि उनकी कमर ही लचक जाती थी। वे रात-रात भर जागकर उसे पहनने का अभ्यास करतीं थी, ताकि दिन में उन्हें साड़ी की वजह से शर्मिंदगी न उठानी पड़े। वे कुछ ऐसी नाज़ुक थीं कि उन्हें देखकर उनकी सास यानी लेखिका की दादी ने कहा करती थी कि उनकी बहू तो ऐसी है कि धोई, पोंछी और छींके पर टाँग दी। लेखिका इसे सौभाग्य की बात मानती है कि उसकी माँ को छींके पर से उतारने की पेशकश किसी ने नहीं की। कहने का अभिप्राय यह है कि लेखिका की माँ का यह सौभाग्य था कि सभी की आँखों में खटकने के बाद भी उन्हें किसी ने घर से निकालने की बात नहीं की।
पाठ – क्यों नहीं की, उसकी दो वजहें थीं। पहली यही कि हिंदुस्तान के तमाम वाशिंदों की तरह, उनके ससुरालवाले भी, साहबों से खासे अभिभूत थे और मेरे नाना पक्के साहब माने जाते थे। बस जात से वे हिंदुस्तानी थे, बाकी चेहरे-मोहरे, रंग-ढंग, पढ़ाई-लिखाई, सबमें अंग्रेज़-थे। मज़े की बात यह थी कि हमारे देश में आज़ादी की जंग लड़ने वाले ही अंग्रेजों के सबसे बड़े प्रशंसक थे, गांधी-नेहरू हों या मेरे पिता जी के घरवाले। भले लड़का, आज़ादी की लड़ाई लड़ते, जेब खाली और शोहरत सिर करता रहे, दबदबा उसके साहबी ससुर का ही था। एक आन-बान-शान वाले साहब ने उनके सिरफिरे लड़के को अपनी नाजुक जान लड़की सौंपी, उससे रोमांचक क्या कोई परिकथा होती! नानी की सनकभरी आखिरी ख्वाहिश और नाना की रज़ामंदी, वे रोमांचक उपकथाएँ थीं, जो कहानी के तिलिस्म को और गाढ़ा बना चुकी थीं। दूसरी वजह माँ की अपनी शख्सियत थी। उनमें खूबसूरती, नज़ाकत, गैर-दुनियादारी के साथ ईमानदारी और निष्पक्षता कुछ इस तरह घुली मिली थी कि वे परीजात से कम जादुई नहीं मालूम पड़ती थीं। उनसे ठोस काम करवाने की कोई सोच भी नहीं सकता था। हाँ, हर ठोस और हवाई काम के लिए उनकी ज़बानी राय ज़रूर माँगी जाती थी और पत्थर की लकीर की तरह निभाई भी जाती थी।
मैंने अपनी दादी को कई बार कहते सुना था, “हम हाथी पे हल ना जुतवाया करते, हम पे बैल हैं।” बचपन में ही मुझे इस जुमले का भावार्थ समझ में आ गया था, जब देखा था कि, हम बच्चों की ममतालू परवरिश के मामले में माँ के सिवा घर के सभी प्राणी मुस्तैद रहते थे। दादी और उनकी जिठानियाँ ही नहीं, खुद-मर्दजात, पिता जी भी।
शब्दार्थ –
वाशिंदें – नागरिक, वास करने वाला
अभिभूत – वशीभूत, जिस पर प्रभाव डाला गया हो
तिलिस्म – अद्भुत या अलौकिक, चमत्कार
सनक – किसी बात की धुन, मन की झोंक
शख्सियत – व्यक्तित्व
परीजात – उत्पन्न, जन्मा हुआ
मुस्तैद – तैयार, चुस्त, तत्पर
व्याख्या – लेखिका मानती है कि उसकी माँ को घर से न निकालने की दो वजहें थीं। पहली यही कि हिंदुस्तान के सभी नागरिकों की तरह, लेखिका की माँ के ससुरालवाले भी, साहबों से अर्थात अंग्रेजों से अच्छे खासे प्रभावित थे और लेखिका के नाना पक्के साहब माने जाते थे। वे सिर्फ नाम के हिंदुस्तानी रह गए थे, बाकी चेहरे-मोहरे, रंग-ढंग, पढ़ाई-लिखाई, सबमें वे किसी अंग्रेज़ से कम नहीं थे। लेखिका को सबसे मज़े की बात यह लगती थी कि हमारे देश में आज़ादी की जंग लड़ने वाले ही लोग अंग्रेजों के सबसे बड़े प्रशंसक थे, फिर चाहे आप गांधी-नेहरू की बात करें या लेखिका के पिता जी के घरवाले की। भले ही लड़का, आज़ादी की लड़ाई लड़ता रहे, भले ही उसकी जेब खाली रहे और भले ही वह आजादी के सिपाही के नाम पर शोहरत हासिल कर ले, परन्तु उससे अधिक रौब हमेशा उसके साहबी ससुर अर्थात लेखिका के नाना का ही था। लेखिका को यह एक रोमांचक परिकथा लगती थी कि एक आन-बान-शान वाले साहब ने उनके सिरफिरे लड़के को अपनी नाजुक जान लड़की सौंप दी थी। और इस परिकथा की रोमांचक उपकथाएँ में लेखिका की नानी की मन की आखिरी ख्वाहिश और नाना की रज़ामंदी, वो रोमांचक उत्पन्न कर रही थी जो कहानी के जादू भरे चमत्कार को और अधिक बढ़ावा दे रही थीं। लेखिका दूसरी वजह अपनी माँ के व्यक्तित्व को मानती है। लेखिका की माँ किसी परीजात से कम जादुई नहीं लगती थी क्योंकि उनमें खूबसूरती, नज़ाकत, गैर-दुनियादारी के साथ ईमानदारी और निष्पक्षता जैसे गुण भरपूर थे। वे इतनी नाजुक प्रतीत होती थी कि उनसे ठोस काम करवाने की कोई सोच भी नहीं सकता था। भले ही वे कोई ठोस या कठिन काम नहीं करती थी परन्तु हर ठोस और कठिन काम के लिए उनकी ज़बानी राय ज़रूर माँगी जाती थी और पत्थर की लकीर की तरह उनकी दी गई राय को मान भी लिया जाता था। लेखिका ने बचपन में अपनी दादी को कई बार कहते सुना था कि हम हाथी पे हल ना जुतवाया करते, हम पे बैल हैं। अर्थात हम हाथी से हल नहीं जुतवाते हमारे पास इस काम के लिए बैल हैं। इस जुमले का अर्थ यह था कि जो कार्य जिस व्यक्ति के लिए निश्चित है, उसी से वह कार्य करवाना चाहिए। किसी व्यक्ति के लिए हर कार्य किसी के लिए सही नहीं होता किसी के लिए कोई कार्य सही होता है। किसी के लिए कोई कार्य सही होता है। हर व्यक्ति की अपनी जिम्मेदारी होती है किसी एक व्यक्ति की जिम्मेदारी दूसरे व्यक्ति के सर पर नहीं डालनी चाहिए। बचपन में ही लेखिका को इस जुमले का भावार्थ समझ में आ गया था, जब लेखिका ने देखा था कि, लेखिका के घर के सभी बच्चों की ममता से परिपूर्ण परवरिश के मामले में माँ के सिवा घर के सभी प्राणी तैयार रहते थे। दादी और उनकी जिठानियाँ ही नहीं, घर के खुद-मर्दजात यहाँ तक की लेखिका के पिता जी भी।
पाठ – पर ठोस काम न करने का यह मतलब नहीं था कि माँ को आज़ादी का जुनून कम था। वह भरपूर था और अपने तरीके से वे उसे भरपूर निभाती रही थीं। ज़ाहिर है कि जब जुनून आज़ादी का हो तो, उसे निभाना भी आज़ादी से चाहिए। जिस-तिस से पूछकर, उसके तरीके से नहीं, खुद अपने तरीके से।
हमने अपनी माँ को कभी भारतीय माँ जैसा नहीं पाया। न उन्होंने कभी हमें लाड़ किया, न हमारे लिए खाना पकाया और न अच्छी पत्नी-बहू होने की सीख दी। कुछ अपनी बीमारी के चलते भी, वे घरबार नहीं सँभाल पाती थीं पर उसमें ज़्यादा हाथ उनकी अरुचि का था। उनका ज्यादा वक्त किताबें पढ़ने में बीतता था, बाकी वक्त साहित्य-चर्चा में या संगीत सुनने में और वे ये सब बिस्तर पर लेटे-लेटे किया करती थीं। फिर भी, जैसा मैंने पहले कहा था, हमारे परंपरागत दादा-दादी या उनकी ससुराल के अन्य सदस्य उन्हें न नाम धरते थे, न उनसे आम औरत की तरह होने की अपेक्षा रखते थे। उनमें सबकी इतनी श्रद्धा क्यों थी, जबकि वह पत्नी, माँ और बहू के किसी प्रचारित कर्तव्य का पालन नहीं करती थीं? साहबी खानदान के रोब के अलावा मेरी समझ में दो कारण आए हैं-(1) वे कभी झूठ नहीं बोलती थीं और (2) वे एक की गोपनीय बात को दूसरे पर ज़ाहिर नहीं होने देती थीं।
शब्दार्थ –
ज़ाहिर – साफ, स्पष्ट
लाड़ – प्यार
गोपनीय – राज, रहस्य
व्याख्या – लेखिका बताती है कि लेखिका की माँ भले ही कठिन काम नहीं करती थी, परन्तु इसका मतलब यह बिलकुल भी नहीं था कि लेखिका की माँ को आज़ादी का जुनून कम था। उनमें आजादी का जुनून भरपूर था और अपने तरीके से वे उसे भरपूर निभाती भी रही थीं। स्पष्ट है कि जब जुनून आज़ादी का हो तो, उसे आज़ादी से निभाना चाहिए। इधर-उधर किसी से पूछकर, या किसी दूसरे के तरीके से नहीं, बल्कि खुद अपने तरीके से आजादी के जुनून को निभाना चाहिए। लेखिका बताती हैं कि उन्होंने कभी अपनी माँ को भारतीय माँ जैसा नहीं देखा। उन्होंने कभी भी लेखिका और उनकी बहनों को प्यार नहीं किया, न उनके लिए कभी खाना पकाया और न भारतीय माँ की तरह अपनी बेटियों को अच्छी पत्नी-बहू होने की सीख दी। अपनी बीमारी के चलते भी वे घरबार नहीं सँभाल पाती थीं परन्तु बिमारी से ज़्यादा अरुचि के कारण वे कोई काम नहीं करती थी। उनका ज्यादा वक्त किताबें पढ़ने में बीतता था, बाकी वक्त साहित्य-चर्चा में या संगीत सुनने में गुजर जाता था और वे ये सब काम बिस्तर पर लेटे-लेटे ही किया करती थीं। जैसा लेखिका ने पहले ही बताया था कि लेखिका के परंपरागत दादा-दादी या लेखिका की माँ के ससुराल के अन्य सदस्य उन्हें कुछ भी करने पर नहीं डाँटते थे, और न उनसे आम औरत की तरह होने की अपेक्षा रखते थे। लेखिका को यह समझ में नहीं आता था कि उनकी माँ, न तो पत्नी, न माँ और न बहू के किसी प्रचारित कर्तव्य का पालन करती थीं। फिर भी सबकी उनमें इतनी श्रद्धा क्यों थी। अर्थात किसी भी कार्य में निपुण न होने पर भी सब उनके साथ क्यों अच्छे से पेश आते थे लेखिका इस बात को नहीं समझ पाती थी। लेखिका की माँ के साहबी खानदान के रोब के अलावा लेखिका को इस बात के दो कारण समझ में आए – पहला – वे कभी झूठ नहीं बोलती थीं और दूसरा – वे एक की रहस्य वाली बात को दूसरे को पता नहीं चलने देती थीं।
पाठ – पहले के कारण उन्हें घरवालों का आदर मिला हुआ था; दूसरे के कारण बाहरवालों की दोस्ती। दोस्त वे हमारी भी थीं, माँ की भूमिका हमारे पिता बखूबी निभा देते थे। मुझे याद है, बचपन में भी हमारे घर में किसी की चिट्ठी आने पर कोई उससे यह नहीं पूछता था कि उसमें क्या लिखा है। भले वह एक बहन की दूसरी के नाम क्यों न हो। और माँ यह जानने को बेहाल हों कि बीमारी से वह उबरी या नहीं। छोटे से घर में छह बच्चों के साथ, सास-ससुर आदि के रहते हुए भी, हर व्यक्ति को अपना निजत्व बनाए रखने की छूट थी। इसी निजत्व बनाए रखने की छूट का फ़ायदा उठाकर, हम तीन बहनें और छोटा भाई लेखन के हवाले हो गए।
लीक से खिसके, अपने पूर्वजों में, माँ और नानी ही रही होतीं तो गनीमत रहती, पर अपनी एक परदादी भी थीं, जिन्हें कतार से बाहर चलने का शौंक था। उन्होंने व्रत ले रखा था कि अगर खुदा के फ़ज़ल से, उनके पास कभी दो से ज़्यादा धोतियाँ हो जाएँगी तो वे तीसरी दान कर देंगी। जैन समाज में अपरिग्रह की सनक बिरादरी बाहर हरकत नहीं मानी जाती, इसलिए वहाँ तक तो ठीक था। पर उनका असली जलवा तब देखने को मिला, जब मेरी माँ पहली बार गर्भवती हुईं। मेरी परदादी ने मंदिर में जाकर मन्नत माँगी कि उनकी पतोहू का पहला बच्चा लड़की हो। यह गैर-रवायती मन्नत माँगकर ही उन्हें चैन नहीं पड़ा। उसे भगवान और अपने बीच पोशीदा रखने के बजाए सरेआम उसका ऐलान कर दिया। लोगों के मुँह खुले-के-खुले रह गए। उनके फ़ितूर की कोई वाजिब वजह ढूँढ़े न मिली। यह भी नहीं कह सकते थे कि खानदान में पुश्तों से कन्या पैदा नहीं हुई थी, इसलिए माँ जी बेचारी कन्यादान के पुण्य के अभाव को पूरा करने के चक्कर में थीं। क्योंकि पिताजी की ही नहीं, दादा जी की भी बहनें मौजूद थीं। हाँ, पहला बच्चा हर बहू का बेटा होता रहा था। खैर, माँ जी ने अपनी तरफ़ से कोई सफ़ाई नहीं दी, बल्कि बदस्तूर मंदिर जाकर मन्नत दुहराती रहीं। पूरा नकुड़ गाँव जानता था कि माँ जी का भगवान के साथ सीधा-सीधा तार जुड़ा हुआ है। बेतार का तार। इधर वह तार खींचती, उधर टन से तथास्तु बजता। मेरी दादी तो पहली मर्तबा में ही तैयार हो गई थीं कि गोद में खेलेगी, तो पोती। पर माँ जी की आरज़ू किस कदर रंग लाएगी, उसका उन्हें भी गुमान न रहा होगा।
शब्दार्थ –
बखूबी – अच्छे से
निजत्व – अपना होने की अवस्था
लीक – मर्यादा, दायरा
खिसकना – हटना
गनीमत – संतोष करने योग्य
फ़ज़ल – अनुग्रह, दया
अपरिग्रह – संग्रह न करना, किसी से कुछ ग्रहण न करना
पतोहू – बहू
गैर-रवायती – चली आ रही रीत के उलट
पोशीदा – चोरी-छिपे
वाजिब – उचित
बदस्तूर – नियम से
आरज़ू – इच्छा
व्याख्या – लेखिका बताती है कि उसकी माँ के इन दो गुणों में से पहले के कारण उन्हें घरवालों का आदर मिला हुआ था और दूसरे के कारण बाहरवालों से उनकी दोस्ती बनी हुई थी। लेखिका के जीवन में उनकी माँ उनकी भी दोस्त की ही तरह थीं, और उनके जीवन में माँ की भूमिका लेखिका के पिता अच्छे से निभा देते थे। लेखिका अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए बताती है कि यदि उनके घर में किसी की चिट्ठी आ जाती थी तो कोई किसी से कुछ नहीं पूछता था कि उसमें क्या लिखा है। फिर भले ही वह एक बहन की दूसरी बहन के नाम चिठ्ठी हो। या माँ का हाल जानने को कि बीमारी से वह उभरी या नहीं। छोटे से घर में छह बच्चों के साथ, सास-ससुर आदि के रहते हुए भी, हर व्यक्ति को अपना जीवन अपनी तरह से जीने की छूट थी। इसी छूट का फ़ायदा उठाकर, लेखिका और उनकी बहनें और छोटा भाई लेखन के हवाले हो गए। अर्थात लेखिका और लेखिका के भाई बहनों ने लेखन को ही अपना लक्ष्य बना लिया था।
मर्यादा से हटकर, लेखिका के पूर्वजों में, माँ और नानी ही होतीं तो संतोष किया जा सकता था, परन्तु इस सूची में लेखिका की एक परदादी भी थीं, जिन्हें कतार से बाहर चलने का शौंक था। अर्थात लेखिका की परदादी भी पारंपरिक रीतिरिवाजों से हटकर जीवन जीने वालों में से थी। उन्होंने व्रत ले रखा था कि अगर खुदा की रहमत या दया से, उनके पास कभी दो से ज़्यादा धोतियाँ हो जाएँगी तो वे तीसरी दान कर देंगी। जैन समाज में यह अपरिग्रह की सनक अर्थात किसी भी वस्तु को संचित न करना या किसी को दे देना बुरा नहीं मन जाता, इसलिए वहाँ तक तो ठीक था। परन्तु उनका असली जलवा तब देखने को मिला, जब लेखिका की माँ के पहली बार गर्भवती होने पर लेखिका की परदादी ने मंदिर में जाकर मन्नत माँगी कि उनकी पतोहू अर्थात बहु का पहला बच्चा लड़की हो। यह गैर-रवायती मन्नत माँगकर भी उन्हें चैन नहीं पड़ा। और इस मन्नत को भगवान और अपने बीच राज रखने के बजाए सरेआम उसका ऐलान कर दिया। जिससे लोगों के मुँह खुले-के-खुले रह गए। कहने का तात्पर्य यह है कि लोग जहाँ भगवान् से पुत्र प्राप्ति की मन्नत माँगते थे वहीँ लेखिका की परदादी ने पुत्री की मन्नत माँग कर सभी को चौंका दिया था। उनके इस पेचीदा काम की कोई उचित वजह ढूँढ़ कर भी नहीं मिल रही थी। यह भी नहीं कहा जा सकता था कि उनके खानदान में कई पीढ़ियों से कोई कन्या पैदा नहीं हुई थी, इसलिए माँ जी बेचारी कन्यादान के पुण्य के अभाव को पूरा करने के चक्कर में इस तरह की मन्नत माँग रही थीं। क्योंकि लेखिका के पिताजी की ही नहीं, बल्कि दादा जी की भी बहनें थीं। लेकिन यह अवश्य था कि हर बहू का पहला बच्चा बेटा ही होता रहा था। लोग चाहे जो भी कहते रहे हों लेखिका की परदादी ने अपनी तरफ़ से किसी को कोई सफ़ाई नहीं दी, बल्कि नियम से मंदिर जाकर मन्नत को दुहराती रहीं। पूरा नकुड़ गाँव जानता था कि लेखिका की परदादी का भगवान के साथ सीधा-सीधा तार जुड़ा हुआ है। ऐसा तार जो किसी की समझ में नहीं आता था। इधर लेखिका की परदादी तार खींचती, उधर टन से तथास्तु बजता। अर्थात जैसे ही लेखिका की परदादी भगवान् से कोई बात कहती ऐसा लगता जैसे भगवान भी बिना देरी किए उनकी सभी बातें मान जाते। लेखिका की दादी तो पहली बार में ही तैयार हो गई थीं कि गोद में पोती ही खेलेगी। अर्थात उन्हें पूरा विश्वास था कि उनके घर पोती ही जन्म लेने वाली है। पर माँ जी की इच्छा किस कदर रंग लाएगी, उसका उन्होंने भी अंदाजा नहीं लगाया होगा।
पाठ – लड़की की गैर-वाजिब जुस्तजू सुन, भगवान कुछ ऐसी अफ़रा-तफ़री में आ गए कि एक न दो, पूरी पाँच कन्याएँ, एक-के-बाद-एक धरती पर उतार दीं। भगवान को क्या कहें, माँ जी के सामने तो नामी चोर भी अफ़रा-तफ़री में आ जाते थे। माँ जी और नामी चोर का किस्सा होश सँभालने के बाद मैंने कई बार सुना था, चोर के दीदार की खुशनसीबी भी हाथ आई थी।
हुआ यूँ था कि किसी शादी के सिलसिले में नकुड़ की हवेली के तमाम मर्द बारात में दूसरे गाँव गए हुए थे। औरतें सज-धज कर रतजगा मना रही थीं। नाच-गाने और ढोलक की थाप के शोर में नामी चोर कब सेंध लगाकर हवेली में घुसा, किसी को खबर न हुई। पर चोर था बदकिस्मत, जिस कमरे में घुसा, उसमें माँ जी सोई हुई थीं। औरतों के शोर से बचने को, वे अपनी कमरा छोड़ दूसरे में जा सोई थीं। चोर बेचारा, तमाम जुगराफ़िया दिमाग में बिठलाकर उतरा था, उसे क्या पता था कि इतनी बड़ी-बूढ़ी पुरखिन जगह बदल लेगी। खैर, बुढ़ापे की नींद ठहरी, चोर के दबे पाँवों की आहट से ही खुल गई।
“कौन?” माँ जी ने इतमीनान से पूछा।
“जी, मैं”, चोर ने युगों से चला आ रहा, पारंपरिक, असंगत जवाब दिया।
“पानी पिला”, माँ जी ने कहा।
“जी मैं…?” चोर झिझककर रह गया।
शब्दार्थ –
गैर-वाजिब – अनुचित
जुस्तजू – खोज, तलाश, इच्छा
अफ़रा-तफ़री – हड़बड़ाहट
रतजगा – रात्रि-जागरण
सेंध – चोरी करने के उद्देश्य से दीवार में किया गया बड़ा छेद जिसमें से होकर चोर किसी कमरे या कोठरी में घुसता है, सुरंग
इतमीनान – शान्ति, संतोष, तसल्ली
व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि लड़की की अनुचित तलाश या इच्छा सुनकर भगवान कुछ ऐसी हड़बड़ाहट में आ गए कि एक-दो नहीं, पूरी पाँच कन्याएँ, एक-के-बाद-एक धरती पर उतार दीं। अर्थात दादी ने एक कन्या की मन्नत माँगी थी भगवान् ने पाँच का वरदान दे दिया। लेखिका बताती हैं कि भगवान को क्या कहें, माँ जी के सामने तो नामी चोर भी हड़बड़ा जाते थे। माँ जी और नामी चोर का किस्सा होश सँभालने के बाद लेखिका ने कई बार सुना था, चोर के दीदार की खुशनसीबी भी दादी के हाथ आई थी। घटना यह थी कि किसी शादी के सिलसिले में नकुड़ की हवेली के सभी मर्द बारात में दूसरे गाँव गए हुए थे। औरतें सज-धज कर रात्रि-जागरण मना रही थीं। नाच-गाने और ढोलक की थाप के शोर में नामी चोर कब चोरी करने के उद्देश्य से दीवार में बड़ा छेद बनाकर हवेली में घुसा, किसी को खबर न हुई। परन्तु चोर की किस्मत खराब थी क्योंकि जिस कमरे में वह घुसा, उसमें माँ जी सोई हुई थीं। रात्रि-जागरण के शोर से बचने के लिए वे अपना कमरा छोड़ दूसरे में जाकर सोई थीं। चोर बेचारा तो सारी तैयारियाँ करके और सब पता करके ही उस कमरे में उतरा था, परन्तु उसे क्या पता था कि इतनी बड़ी-बूढ़ी पुरखिन अपनी जगह बदल लेगी। और इस पर भी दादी के बुढ़ापे की नींद चोर के दबे पाँवों की आहट से ही खुल गई। दादी ने बड़ी तसल्ली से पूछा कि कौन है। चोर ने भी सदियों से आ रहे इस प्रश्न का पारंपरिक उत्तर देते हुए कहा कि जी मैं। माँ जी ने फिर बड़े संतोष से कहा कि पानी पिला। चोर जी हाँ कहता हुआ झिझककर रह गया। अर्थात चोर को समझ में नहीं आ रहा था कि वह इस समय क्या और कैसे कहे।
पाठ – तब तक माँ जी बिस्तर के बराबर में टटोलकर देख चुकी थीं, लोटा खाली था। “ऐसा कर”, उन्होंने कहा, “यह लोटा ले और कुएँ से पानी भर ला। पर देख, कपड़ा कसकर बाँधे रखियो और तरीके से छानियो।”
चोर घबरा गया, अँधेरे में इन्होंने कैसे जाना कि उसके मुँह पर कपड़ा बँधा है और कमर में भाँग। भगवान से उनका तार जुड़े होने की खबर उसे थी। पर बुढ़िया भाँग भी छानती होगी, एकदम यकीन न हुआ। इसी से कुछ हैरान-परेशान हो उठा।
“जल्दी कर भाई”, तभी माँ जी ने कहा, “बड़ी प्यास लगी है।”
“पर मैं तो चोर हूँ”, मारे घबराहट और धर्मसंकट के चोर सच कह गया।
“हुआ करे”, माँ जी ने कहा, “प्यासे को पानी तो पिला। पर देख, मेरा धरम न बिगाड़ियों, लोटे के मुँह से कपड़ा न हटाइयो, हाथ रगड़कर धो लीजो और पानी कपड़े से छानकर भरियो।”
“आप चोर के हाथ का पी लोगी?”
“कहा न, रगड़कर धो लीजो, सब नाच-गाने में लगे हैं, तेरे और भगवान के सिवा कौन धरा है, जो पिलाएगा।”
भगवान वहींं-कहीं उसके बराबर में धरे हैं, सुनकर चोर कुछ ऐसा अकबकाया कि लोटा उठाकर चल दिया। पूरी एहतियात के साथ पानी भरकर लौटा तो, पहरेदार ने धर-दबोचा। कुँए पर देख लिया गया था।
शब्दार्थ –
टटोलकर – छूँ कर
अकबकाया – घबराना
एहतियात – सावधानी
व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि तब तक माँ जी बिस्तर के बराबर में टटोलकर देख चुकी थीं, कि पानी का लोटा खाली था। उन्होंने चोर से कहा कि वह लोटा ले जा कर कुएँ से पानी भर कर ले लाए। और उन्होंने नसीयत भी दी कि वह अच्छे से कपड़ा कसकर बाँधे रखे और तरीके से छान कर पानी लाए। चोर यह सब जान कर घबरा गया, कि अँधेरे में इन्होंने कैसे जाना कि उसके मुँह पर कपड़ा बँधा है और कमर में भाँग। उसने माँ जी के भगवान से किसी प्रकार का संबंध होने की बात सुन रखी थी। पर उसे यकीन नहीं हुआ कि बुढ़िया भाँग भी छानती होगी। इसी से वह कुछ हैरान-परेशान हो उठा। माँ जी ने उसे जल्दी पानी लाने को कहा क्योंकि उन्हें बहुत प्यास लगी थी। घबराहट और धर्मसंकट के कारण चोर ने सच बता दिया कि वह तो एक चोर है। इस पर माँ जी ने कह दिया कि चोर होगा तो क्या प्यासे को पानी तो पिला। परन्तु ध्यान से पानी लाने को कहा जिससे उनका धर्म न बिगड़े। जैसे – लोटे के मुँह से कपड़ा न हटाना, हाथ रगड़कर धो कर और पानी कपड़े से छानकर ही भरने को कहा। चोर ने बड़े हिचकिचाहट से पूछा कि क्या वे एक चोर के हाथ का पी लोगी। माँ जी ने भी कहा कि उन्होंने कहा न की रगड़कर धो लेना, सब नाच-गाने में व्यस्त हैं, उसके और भगवान के अलाव और कौन मौजूद है, जो उन्हें पानी पिलाएगा। भगवान वहींं-कहीं उस चोर के बराबर में खड़े हैं, यह सुनकर चोर कुछ ऐसा घबराया कि लोटा उठाकर पानी लाने चल दिया। पूरी सावधानी के साथ पानी भरकर लौटा तो, पहरेदार ने उसे पकड़ लिया क्योंकि कुँए पर पानी भरते हुए उसे देख लिया गया था।
पाठ – तब माँ जी ने लोटे का आधा पानी खुद पीकर, बाकी चोर को पिला दिया और कहा, “एक लोटे से पानी पीकर हम माँ-बेटे हुए। अब बेटा, चाहे तो तू चोरी कर, चाहे खेती।”
बेटा बेचारा किस लायक रह गया होगा। सो रोमांचक धंधा छोड़ खेती से लगा। सालों-साल लगा रहा। जब मैंने उसे देखा तो बड़ा भलामानुस बूढ़ा लगा मुझे, डरा-डरा, हैरान-सा।
अब खानदानी विरासत कहिए या जीवाणुओं का प्रकोप, उन दो सनकी बुढ़ियों के बीच मैं अच्छी फँसी! एक तरफ़, माँ जी के चलते, अपने लड़की होने पर कोई हीन भावना मन में नहीं उपजी। दूसरी तरफ़ नानी के चलते, देश की आज़ादी को लेकर नाहक रोमानी ही रही।
15 अगस्त 1947 को, जब देश को आज़ादी मिली या कहना चाहिए, जब आज़ादी पाने का जश्न मनाया गया तो दुर्योग से मैं बीमार थी। उन दिनों, टाइफ़ाइड खासा जानलेवा रोग माना जाता था। इसलिए मेरे तमाम रोने-धोने के बावजूद डॉक्टर ने मुझे इंडिया गेट जाकर, जश्न में शिरकत करने की इजाज़त नहीं दी। चूँकि डॉक्टर अपने नाना के परम मित्र, उनसे ज़्यादा नाना थे इसलिए हमारे पिता जी, जो बात-बात पर सत्ताधारियों से लड़ते-भिड़ते फिरते थे, चुप्पी साध गए। मैं बदस्तूर रोती-कलपती रही, क्या कोई बच्चा इकलौती गुड़िया के टूट जाने पर रोया होगा! मेरी उम्र तब नौ बरस की थी। इतनी छोटी नहीं कि गुड़िया से बहलती और इतनी बड़ी नहीं कि डॉक्टरी तर्क समझती। तंग आकर पिता जी मुझे ‘ब्रदर्स कारामजोव’ उपन्यास पकड़ा गए। किताबें पढ़ने का मुझे मिराक था। सो, जब कुछ देर बाद मैंने देखा कि पिता जी को छोड़कर, घर के बाकी सब प्राणी पलायन कर चुके थे और पिता जी दूसरे कमरे में बैठे अपनी किताब पढ़ रहे थे तो, रोना-धोना छोड़कर मैंने भी किताब खोल ली। एक बार शुरू कर लेने पर, उसने मुझे इतनी मोहलत नहीं दी कि दोबारा रोना शुरू करूँ या कोई और काम पकड़ूँ। उस वक्त ‘ब्रदर्स कारामजोव’ मुझे देने में क्या तुक थी, तब मेरी समझ में नहीं आया। किताब कितनी समझ में आई, वह अब तक नहीं जानती, क्योंकि उसके बाद इतनी बार पढ़ी कि सारे पाठ आपस में गड्ड-मड्ड हो गए। कितना पहली बार में पल्ले पड़ा, कितना बाद में, कहना मुश्किल है। पर इतना विश्वास के साथ कह सकती हूँ कि उसका एक अध्याय, जो बच्चों पर होने वाले अनाचार-अत्याचार पर था, मुझे पहली बार में ही लगभग कंठस्थ हो गया था। उम्र के हर पड़ाव पर वह मेरे साथ रहा और मेरे लेखन के एक महत्वपूर्ण भाग को प्रभावित करता रहा। जैसे ‘जादू का कालीन’ मेरा नाटक, ‘नहीं’ व ‘तीन किलो की छोरी’, जैसी कहानियाँ व ‘कठगुलाब’ उपन्यास के कई अंश।
शब्दार्थ –
ब्रदर्स कारामजोव – इसके लेखक प्रसिद्ध रूसी उपन्यासकार दास्तोवस्ती हैं
मिराक – मानसिक रोग
मोहलत – फुर्सत, अवकाश
नाहक – व्यर्थ ही
रोमानी – प्रेम-प्रसंग, प्रेमी
दुर्योग – खराब समय
शिरकत – शामिल
इजाज़त – अनुमति
सत्ताधारी – अधिकारी, अफसर हाकिम
चुप्पी साध जाना – चुप हो जाना
बदस्तूर – उसी प्रकार से, पहले की तरह
मिराक – मानसिक रोग
मोहलत – समय
गड्ड-मड्ड – मिली-जुली, अव्यवस्थित
अनाचार-अत्याचार – दुर्व्यवहार
कंठस्थ – अच्छे से याद होना
व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि जब चोर को पकड़ लिया गया, तब माँ जी ने लोटे का आधा पानी खुद पीकर, बाकी चोर को पिला दिया और उससे कहा कि एक लोटे से पानी पीकर अब वे दोनों माँ-बेटे बन गए हैं। और उसे समझाते हुए कहा कि अब बेटा, चाहे तो चोरी करे या चाहे तो खेती करे। इस तरह बेटा शब्द सुनकर बेचारा किसी लायक न रहा इसलिए उसने की छोड़ कर खेती करना शुरू कर दिया। वह कई सालों खेती में लगा रहा। जब लेखिका ने उसे देखा तो लेखिका को वह बड़ा भला बूढ़ा लगा, जो डरा-डरा, हैरान-सा दिखाई दे रहा था। लेखिका को यह समझ नहीं आता था कि उस पर खानदानी विरासत का आसार था या जीवाणुओं का प्रकोप था जो , उन दो सनकी बुढ़ियों अर्थात लेखिका की दादी और नानी के बीच वह अच्छी फँसी थी। क्योंकि एक तरफ़, माँ जी के चलते, लेखिका को कभी अपने लड़की होने पर कोई हीन भावना नहीं हुई और दूसरी तरफ़ नानी के चलते, देश की आज़ादी को लेकर व्यर्थ में ही आजादी की दीवानी बनी रही। लेखिका बताती हैं कि 15 अगस्त 1947 को, जब देश को आज़ादी मिली या कहा जा सकता है कि जब आज़ादी पाने का जश्न मनाया गया तो खराब समय के रहते लेखिका बीमार हो गई थी। उन दिनों, टाइफ़ाइड बहुत जानलेवा रोग माना जाता था। इसी कारण लेखिका के बहुत अधिक रोने-धोने के बाद भी डॉक्टर ने लेखिका को इंडिया गेट जाकर, जश्न में शामिल होने की अनुमति नहीं दी। लेखिका का इलाज करने वाले डॉक्टर लिखिका के नाना के अच्छे मित्र थे। या यूँ कहें वे उनसे भी लेखिका के लिए नाना की तरह ही थे, इसलिए लेखिका के पिता जी, जो छोटी सी छोटी बात पर अधिकारियों से लड़ते-भिड़ते फिरते थे, वे भी कुछ नहीं बोले वअर्थात वे भी डॉक्टर की बात समझ कर चुप रह गए। लेखिका पहले की ही तरह रोती-बिलखती रही, जैसे कोई बच्चा अपनी इकलौती गुड़िया के टूट जाने पर रोता है। उस समय लेखिका की उम्र नौ बरस की थी। लेखिका बताती हैं कि उस उम्र में वह इतनी छोटी भी नहीं थी कि गुड़िया से उसका मन बहलया जा सकता और इतनी बड़ी भी नहीं थी कि यह समझ पाती कि डॉक्टर ने उसे जाने से क्यों रोका है। लेखिका के लगातार रोने से तंग आकर उनके पिता जी ने उन्हें ‘ब्रदर्स कारामजोव’ उपन्यास पकड़ा दिया। लेखिका को किताबें पढ़ने का मानसिक रोग था। अर्थात लेखक को किताबें पढ़ना बहुत पसंद था। इसलिए जब कुछ देर बाद लेखिका ने देखा कि उसके पिता जी को छोड़कर, घर के बाकी सब लोग जा चुके थे और उसके पिता जी दूसरे कमरे में बैठे अपनी किताब पढ़ रहे थे तो, लेखिका ने भी रोना-धोना छोड़कर पिता जी द्वारा दी गई किताब खोल ली। लेखिका कहती हैं कि एक बार किताब पढ़ना शुरू कर लेने के बाद किताब ने लेखिका को इतना समय नहीं दिया कि वह दोबारा रोना शुरू कर सके या वह कोई और काम भी करे। अर्थात लेखिका किताब पढ़ने में इतनी व्यस्त हो गई थी कि उसे किसी और काम का ध्यान ही नहीं रहा। लेखिका को यह बात उस समय समझ में नहीं आई कि उनके पिता ने उस वक्त ‘ब्रदर्स कारामजोव’ उन्हें क्यों दी थी। लेखिका यह अब तक नहीं जानती कि उस समय उन्हें वह किताब कितनी समझ में आई थी, क्योंकि उसके बाद लेखिका ने वह किताब इतनी बार पढ़ी कि उसके सारे पाठ आपस में घुल-मिल गए। लेखिका को यह बताना मुश्किल हो जाता है कि उन्हें वह किताब कितनी पहली बार में समझ आई थी, कितनी बाद में। परन्तु लेखिका यह विश्वास के साथ कह सकती है कि उस किताब का एक पाठ, जो बच्चों पर होने वाले दुर्व्यवहार या अत्याचार पर था, लेखिका को पहली बार में ही लगभग अच्छे से याद हो गया था। वह पाठ लेखिका की उम्र के हर पड़ाव पर लेखिका के साथ रहा और लेखिका के लेखन के एक महत्वपूर्ण भाग को प्रभावित करता रहा। अर्थात लेखिका पर उस पाठ का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था। जैसे ‘जादू का कालीन’ लेखिका का नाटक, ‘नहीं’ व ‘तीन किलो की छोरी’, जैसी कहानियाँ व ‘कठगुलाब’ उपन्यास के कई अंश उस पाठ से प्रभावित रहे हैं।
पाठ – माँ जी की मन्नत का असर रहा होगा कि मैं ही नहीं, मेरी चारों बहनें भी लड़की होने के नाते किसी हीन भावना का शिकार नहीं हुईं। नानी, माँ और परदादी की परंपरा बरकरार रखते हुए, लीक पर चलने से भी इनकार किए रहीं।
पहली लड़की, जिसके लिए मन्नत माँगी गई थी, वह मैं नहीं, मेरी बड़ी बहन, मंजुल भगत थी। घर का नाम था-रानी, बाहर का मंजुल; लेखिका अवतार हुआ, मंजुल भगत। क्योंकि लिखना शादी के बाद शुरू किया और अपना नाम बदलकर पति का ग्रहण करने में कोई हीन भावना आड़े नहीं आई, इसलिए पैदाइशी जैन नाम छोड़ भगत बनीं। दूसरे नंबर पर मैं थी, घर का नाम उमा, बाहर का मृदुला। मैंने भी शादी के बाद लिखना शुरू किया सो बतौर लेखिका नाम चला मृदुला गर्ग। मुझे याद है, जब हमने लिखना शुरू किया, उससे कुछ पहले नारीवाद का चलन हुआ था। शादी के बाद नाम न बदलने का रिवाज उसी ने चलाया था। मन्नू भंडारी का हवाला देकर, हमसे पूछा भी जाता था कि आप लोग इतनी पोंगापंथी, घरघुस्सू क्यों हो? नाम क्यों बदला? हमारे पास इसका कोई ढंग का जवाब नहीं होता था। अब भी नहीं है। पर नाम बदलने से, अपने व्यक्तित्व का कोई नुकसान होते, मैंने नहीं देखा। पूछने को तो पिताजी से लोग यह भी पूछते थे, पाँच बेटियों से आपका मन नहीं भरा जो हर बेटी के दो दो नाम रख छोड़े हैं। मुझसे छोटी बहन का घर का नाम है गौरी और बाहर का चित्रा। वह नहीं लिखती। उसका कहना है, वह इसलिए नहीं लिखती क्योंकि घर में कोई पढ़ने वाला भी तो चाहिए। खैर, उसके बाद जब चौथी-पाँचवीं बेटियाँ पैदा हुईं तो, पिता जी ने इतनी बात ज़माने की सुनी कि उनका एक एक नाम ही रखा। रेणु और अचला। पाँच बहनों के बाद एक भाई हुआ, राजीव। मज़े की बात यह है कि बीच की दो बहनें ही लेखन से बची रहीं। अचला और राजीव फिर उसमें जा फँसे। अचला मुझसे आठ साल छोटी है और वक्त के बदलाव की लाज रखते हुए, अंग्रेज़ी में लिखती है। पर राजीव फिर हिंदी के हवाले।
शब्दार्थ –
ग्रहण – लेना, स्वीकार करना
आड़े – अवरोधित, बाधा
पैदाइशी – जन्म से, जन्मजात
बतौर – रीति से, तरीके पर
चलन – प्रथा, रस्म
हवाला – मिसाल, ज़िक्र, उदाहरण
पोंगापंथी – ढोंगी
घरघुस्सू – घर की रीतियों में घुसे रहने वाले
व्याख्या – लेखिका अपनी माँ जी की मन्नत का असर ही मानती हैं कि उन्हें और उनकी चारों बहनें कभी भी लड़की होने के नाते किसी हीन भावना का शिकार नहीं होना पड़ा था। नानी, माँ और परदादी की परंपरा को बरकरार रखते हुए, वे भी हमेशा चली आ रही रीति पर चलने से इनकार करती रहीं। पहली लड़की, जिसके लिए मन्नत माँगी गई थी, वह लेखिका नहीं, बल्कि उनकी मेरी बड़ी बहन, मंजुल भगत थी। घर में सभी उन्हें रानी और बाहर मंजुल कहा करते थे। लेखिका के रूप में उनका अवतार मंजुल भगत के नाम से हुआ। क्योंकि उन्होंने लिखना उनकी शादी के बाद शुरू किया था और अपना नाम बदलकर पति का स्वीकार करने में कोई हीन भावना बाधा नहीं बनी, इसलिए जन्म से मिला जैन नाम छोड़ भगत बन गई। दूसरे नंबर पर लेखिका थी, घर में सभी लेखिका को उमा, और बाहर सभी मृदुला कह कर पुकारते थे। लेखिका ने भी अपनी शादी के बाद ही लिखना शुरू किया इसलिए रीति के अनुसार लेखिका के रूप में लेखिका का नाम मृदुला गर्ग प्रसिद्ध हुआ। लेखिका को याद है, कि जब उन्होंने लिखना शुरू किया था, उससे कुछ पहले ही नारीवाद की प्रथा चली थी। शादी के बाद नाम न बदलने का रिवाज यहीं से प्रारम्भ हुआ था। मन्नू भंडारी का उदाहरण देकर, लेखिका से पूछा भी जाता था कि वे लोग इतने ढोंगी या घर की रीतियों को इतना मानने वाले क्यों हैं? उन्हें नाम बदलने की क्या आवश्यकता थी? लेखिका के पास तब भी इन प्रश्नों का कोई ढंग का जवाब नहीं होता था। और अब भी नहीं है। परन्तु लेखिका बताती हैं कि नाम बदलने से भी उन्होंने अपने व्यक्तित्व का कोई नुकसान होते हुए नहीं देखा। लोगों की बार कहें तो वे लेखिका के पिता से यह भी पूछ लेते थे कि पाँच बेटियों से उनका मन नहीं भरा था, जो उन्होंने हर बेटी के दो दो नाम रख दिए। लेखिका से छोटी बहन को घर में सभी गौरी और बाहर चित्रा पुकारते थे। वह नहीं लिखती थी अर्थात वह लेखिका की तरह लेखन कार्य में नहीं आई। उसका कहना था कि वह इसलिए नहीं लिखती क्योंकि घर में कोई पढ़ने वाला भी तो होना चाहिए। अर्थात यदि घर में सभी केवल लिखने का कार्य करेंगे तो उन रचनाओं को पढ़ने वाला भी तो कोई चाहिए। उसके बाद जब चौथी-पाँचवीं बेटियाँ पैदा हुईं तो, तब तक लेखिका के पिता जी ने लोगों की इतनी बात सुनी ली थी कि उन्होंने उनका एक एक नाम ही रखा। रेणु और अचला। पाँच बहनों के बाद लेखिका का एक भाई हुआ, जिसका नाम राजीव रखा गया। मज़े की बात यह थी कि लेखिका की बीच की दो बहनें ही लेखन कार्य से बची रहीं। अचला और राजीव दूसरी बहनों की तरह फिर लेखन के कार्य में आ गए। लेखिका की सबसे छोटी बहन अचला लेखिका से आठ साल छोटी थी और उन्होंने वक्त के बदलाव की इज्जत रखते हुए, अंग्रेज़ी में लिखना प्रारम्भ किया। परन्तु लेखिका के भाई राजीव ने भी हिंदी में ही लेखन कार्य चुना।
पाठ – हम चार लिखते हैं और तमाम खानदान हमें पढ़ता है। मेरी ससुराल में मुझे कोई नहीं पढ़ता। इस तथ्य को हज़म करने में मुझे काफ़ी वक्त लगा। फिर उसके फ़ायदे भी नज़र आने लगे। कम-से-कम, घर के भीतर तो मुझे हिंदी आलोचना-बुद्धि से दो-चार नहीं होना पड़ता।
खैर, मैं अपनी नहीं, उन अ-देवियों की बात कहना चाहती हूँ, जो परदादी की मन्नत के नतीजतन धरती पर आईं और लेखक नहीं बनीं। जो बनीं, उन्हें साँस लेने की ज़रूरत कुछ ज़्यादा हो, समझ में आता है, जैसा मेरे पिता जी ने एक बार मंजुल से कहा था। कोई दम नहीं घुटता, साँस लेने की ज़रूरत ही ज़्यादा है। पर यहाँ तो, हम सेर तो गैर-लेखिका बहनें सवा सेर। चौथे नंबर वाली रेणु का आलम यह था। कि गरमी की दुपहरी में स्कूल से वापसी पर, जब गाड़ी उसे और उससे छोटी बहन अचला को बस अड्डे से लेने आती, तो रेणु उसमें बैठने से इनकार कर देती। उसका कहना था कि यूँ थोड़ा-सा रास्ता गाड़ी में बैठकर तय करना, सामंतशाही का प्रतीक था। जो शायद था। पर साथ ही पिता के अतिरिक्त लाड़ का भी। और रसोइये को खाना खिलाकर जल्दी फ़ारिग करने की लाचारी का भी। माँ तो सब चीज़ों से उदासीन रहती थीं पर पिता काफ़ी कुढ़ते-भुनते, जब देखते कि अचला गाड़ी में बैठी चली आ रही है और रेणु, पीछे-पीछे, पसीने में तरबतर, खरामा-खरामा। बचपन में एक बार चुनौती दिए जाने पर उसने जनरल थिमैया को पत्र लिखकर, उनका चित्र मँगवा लिया था, जो एक मोटरसाइकिल सवार जवान आकर, उसके हाथ में दे गया था। पड़ोस में उसका रुतबा काफ़ी बढ़ गया था। गाड़ी में बैठने के साथ, उसे इम्तिहान देने से भी परहेज़ था। स्कूल तो जैसे-तैसे पास कर लिया पर जब बी.ए. का इम्तिहान देने की बारी आई तो, वह अड़ गई। पहले मुझे समझाओं कि बी.ए. करना क्यों ज़रूरी है, तब मैं इम्तिहान दूँगी, अगर मुझे यकीन आ गया कि हाँ, कोई फ़ायदा है, वरना नहीं। हमने तरह-तरह के तर्क दिए, माँ ने कहा, पिता जी से पूछो।
शब्दार्थ –
तथ्य – हकीकत
हज़म – पचाना
आलोचना – गुण व दोष दोनों पर प्रकाश डालना
आलम – तौर-तरीका
प्रतीक – चिह्न
रसोइये – खाना बनाने वाला
फ़ारिग – कार्य से निवृत्त, निश्चित
उदासीन – अनमना, जो किसी के लेने देने में न हो
कुढ़ते-भुनते – किसी प्रकार का कष्ट पड़ने पर मन-ही-मन दुःखी और विकल होना, अफ़सोस करना
तरबतर – गीला, किसी तरल पदार्थ से पूर्णतः भीगा हुआ
खरामा-खरामा – धीरे-धीरे
रुतबा – प्रतिष्ठता, इज्जत
इम्तिहान – परीक्षा
अड़ – ज़िद, हट
व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि वे चार भाई बहन लिखते हैं और पूरा खानदान उनकी कृतियों को पढ़ता है। लेखिका के ससुराल में लेखिका की रचनाओं को कोई नहीं पढ़ता। इस हकीकत को पचाने में लेखिका को काफ़ी समय लगा। परन्तु फिर लेखिका को इसमें फ़ायदे भी नज़र आने लगे। जैसे कम-से-कम, घर के अंदर तो उसे हिंदी की उसकी रचनाओं के लिए गुण व् दोष बताने वाली बुद्धि से दो-चार नहीं होना पड़ता था। कहने का आशय यह है कि लेखिका के लेखन को जिस तरह बाहर के लोग अच्छा या बुरा बताते थे उस तरह लेखिका के ससुराल में कोई नहीं था क्योंकि उनके ससुराल में कोई उनकी कृतियों को नहीं पढ़ता था। इसे लेखिका ने सकारात्मक रूप में देखा। लेखिका अपनी नहीं, बल्कि अपनी उन बहनों की बात कहना चाहती हैं, जो परदादी की मन्नत के वजह से धरती पर आईं और लेखक नहीं बनीं। जो सभी बनीं, उन्हें दूसरों से केवल साँस लेने की ज़रूरत कुछ ज़्यादा होती है, अर्थात उन्हें लेखन के लिए वक्त निकालना पड़ता है। जैसा लेखिका की पिता जी ने एक बार मंजुल से कहा था कि लेखक बनने में कोई दम नहीं घुटता, बीएस साँस लेने की ज़रूरत ही ज़्यादा होती है। अर्थात दूसरों के मुकाबले एक लेखक को समय का उपयोग सोच समझ कर करना होता है। परन्तु लेखिका के घर पर बात ही कुछ अलग थी वहाँ लेखिका सेर तो जो लेखिका नहीं थी वे बहनें सवा सेर। लेखिका की चौथे नंबर वाली बहन रेणु का तौर-तरीका यह था कि गरमी की दुपहरी में स्कूल से वापसी पर, जब गाड़ी उसे और उससे छोटी बहन अचला को बस अड्डे से लेने आती, तो रेणु उसमें बैठने से इनकार कर देती थी। क्योंकि उसका कहना था कि ऐसे ही थोड़ा-सा रास्ता गाड़ी में बैठकर तय करना, सामंतशाही का चिह्न था। जो शायद सही भी था। पर साथ ही यह पिता के अतिरिक्त प्यार का भी चिह्न था। और शायद खाना बनाने वाले को खाना खिलाकर जल्दी काम से छुटकारा दिलसने की लाचारी का भी प्रतिक कहा जा सकता है। क्योंकि लेखिका की माँ को तो किसी भी चीज़ से कोई मतलब नहीं रहता था परन्तु लेखिका के पिता को बहुत दुःख होता था, जब वे देखते कि अचला गाड़ी में बैठी चली आ रही है और रेणु, पीछे-पीछे, पसीने में पूरी तरह भीगी हुई, धीरे-धीरे आ रही है। एक बार बचपन में किसी के चुनौती दिए जाने पर उसने जनरल थिमैया को पत्र लिखकर, उनका चित्र मँगवा लिया था, जो एक मोटरसाइकिल सवार जवान आकर, उसके हाथ में दे गया था। जिसके बाद पड़ोस में उसकी इज्जत काफ़ी बढ़ गयी थी। जिस तरह उसे गाड़ी में बैठने पर परहेज था, वैसे ही उसे परीक्षा देने से भी परहेज़ था। स्कूल तो उसने जैसे-तैसे पास कर लिया पर जब बी.ए. की परीक्षा देने की बारी आई तो, वह ज़िद पर आ गई कि पहले उसे समझाया जाए कि बी.ए. करना क्यों ज़रूरी है, तब वह परीक्षा देगी, अगर उसे यकीन आ गया कि हाँ, बी.ए. करने में कोई फ़ायदा है, तो वह परीक्षा देगी , वरना नहीं देगी। सभी घर वालों ने तरह-तरह के तर्क दिए, माँ ने कहा, कि पिता जी से पूछ लो कि बी.ए. करने के क्या फायदे हैं।
पाठ – पिता जी ने कहा, नौकरी कर पाओगी, शादी कर पाओगी, लोग इज़्ज़त से देखेंगे, वगैरह-वगैरह। कोई तर्क विश्वसनीय नहीं लगा, न रेणु को, न खुद उन्हें। आखिर उन्होंने उसी कुतर्क का सहारा लिया जो, युगों से, माँ-बाप के काम आता रहा है। कहा, बी.ए. करो, क्योंकि मैं कह रहा हूँ, करो। रेणु ने बी.ए. कर तो लिया पर सिर्फ़ पिता की खुशी के लिए, यानी पास होने लायक नंबर लाकर। सच बोलने में वह माँ से भी दो कदम आगे है। गनीमत यह है कि आधा समय उसके सच सुनकर लोग सोचते हैं, वह मजाक कर रही होगी इसलिए बिना मेहनत, वह लोगों को हँसाए रख लेती है। आज भी, उसे कोई इत्र भेंट करता है तो वह कहती है, “नहीं चाहिए। मैं तो नहाती हूँ।”
तीसरे नंबर पर चित्रा है। वह कालेज पढ़ने तो जाती थी पर खुद पढ़ने से ज़्यादा दिलचस्पी, औरों को पढ़ाने में रखती थी। इसलिए इम्तिहान में उसके अंक कम और उसके शागिर्दों के ज़्यादा आते थे। पर अपने यहाँ सब चलता था। उसकी शादी का वक्त आया तो उसने एक नज़र में लड़का पसंद करके ऐलान कर दिया कि शादी करेगी तो उसी से। मुश्किल यह थी कि हमारे माँ-बाप ही नहीं, खुद लड़का भी उसके निर्णय से वाकिफ़ नहीं था। पर उसका कहना था, वह जो सोच लेती है, करके रहती है। तो उसकी शादी उसी लड़के से हुई। कोई मुश्किल पेश नहीं आई। आती क्यों? उसने कहा, “मैंने पहली मुलाकात में ही उसे बतला दिया था कि मैं जो सोच लेती हूँ, होकर रहता है।” तो उसने बात आगे खींची ही नहीं। पहली मुलाकात में ही हथियार डाल दिए।
हममें सबसे छोटी बहन, अचला काफ़ी दिनों तक कुछ कम खिसकी मालूम पड़ती रही। पिता का कहा मानकर, पहले अर्थशास्त्र किया, फिर पत्रकारिता में दाखिला लिया, ढंग से पढ़ाई की, पास हुई। फिर पिता की पसंद से शादी भी कर ली। पर उसके आगे लीक पर नहीं चल पाई। घरबार में मन ज़्यादा रुचा नहीं और मंजुल और मेरी तरह उम्र के तीस बरस पार करते ही, लिखने का रोग लगा लिया।
शब्दार्थ –
कुतर्क – अनुचित, बुरा और गलत तर्क
गनीमत – सौभाग्य
दिलचस्पी – ख्वाइश, इच्छा
शागिर्द – शिष्य, छात्र
ऐलान – घोषणा
निर्णय – फैसला
वाकिफ़ – जानने-समझने वाला, जानकार, परिचित
हथियार डाल दिए – हार मान लेना
व्याख्या – रेणु को समझाते हुए पिता जी ने कहा, कि बी. ए. की परीक्षा दोगी तो नौकरी कर पाओगी, शादी कर पाओगी, लोग इज़्ज़त से देखेंगे, वगैरह-वगैरह। पिता ने तर्क तो दिए किन्तु इनमें से कोई भी तर्क न तो रेणु को विश्वसनीय लगा और न पिता जी की खुद। आखिर उन्होंने उसी गलत तर्क का सहारा लिया जो, युगों से, माँ-बाप के काम आता रहा है। उन्होंने कहा कि बी.ए. करो, क्योंकि मैं कह रहा हूँ। रेणु ने सिर्फ़ पिता की खुशी के लिए बी.ए. कर लिया परन्तु केवल पास होने लायक नंबर लाकर। लेखिका बताती हैं कि सच बोलने में रेणु अपनी माँ से भी दो कदम आगे है। सौभाग्य की बात यह है कि आधा समय उसके सच सुनकर लोग सोचते हैं, कि वह मजाक कर रही होगी इसलिए बिना मेहनत, के ही वह लोगों को हँसा देती है। जैसे आज भी, यदि उसे कोई इत्र भेंट करता है तो वह कहती है कि उसे नहीं चाहिए। क्योंकि वह तो नहाती है। लेखिका अपने तीसरे नंबर की बहन चित्रा के बारे में बताती है कि वह कालेज पढ़ने तो जाती थी परन्तु खुद पढ़ने से ज़्यादा इच्छा, उसे दूसरों को पढ़ाने की रहती थी। इसलिए परीक्षा में उसके अंक कम और उसके शिष्यों के ज़्यादा आते थे। परन्तु इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था। जब उसकी शादी का वक्त आया तो उसने एक नज़र में लड़का पसंद करके घोषणा कर दी कि शादी करेगी तो उसी लड़के से। यहाँ मुश्किल यह थी कि लेखिका के माँ-बाप ही नहीं, बल्कि खुद लड़का भी उसके इस फैसले से परिच्छित नहीं था। अर्थात उसने जिस लड़के को पसंद किया था वह भी नहीं जानता था कि उसे किसी के द्वारा पसंद किया गया है। परन्तु चित्रा का कहना था, कि वह जो सोच लेती है, करके रहती है। तो उसकी शादी उसी लड़के से हुई जिसे उसने पसंद किया था। उनकी शादी में कोई मुश्किल नहीं आई। आती भी क्यों, क्योंकि चित्रा ने उस लड़के को पहली मुलाकात में ही उसे बता दिया था कि वह जो सोच लेती है, होकर रहता है। तो उस लड़के ने भी बात आगे नहीं खींची। पहली मुलाकात में ही उसने चित्रा से हार मान ली। लेखिका की सबसे छोटी बहन, अचला काफ़ी दिनों तक कुछ कम खिसकी मालूम पड़ती रही अर्थात सबसे आज्ञाकारी मालूम हुई। पिता का कहा मानकर, पहले अर्थशास्त्र किया, फिर पत्रकारिता में दाखिला लिया, ढंग से पढ़ाई की, पास हुई। फिर पिता की पसंद से शादी भी कर ली। परन्तु उसके आगे वह रीतिरिवाजों के अनुसार नहीं चल पाई। घर गृहस्थी में उसका मन ज़्यादा नहीं लगा और मंजुल और लेखिका की तरह उम्र के तीस बरस पार करते ही, उसे भी लिखने का रोग लगा लिया। अर्थात तीस बरस के होते ही वह भी लेखिका बन गई।
पाठ – एक बात हममें एक-सी रही। घरबार को परंपरागत तरीके से हमने भले न चलाया हो, उसे तोड़ा भी नहीं, शादी एक बार की और उसे कायम रखा। चाहे तलाक के कगार पर खड़ी चली हो पर कगार तोड़, डूबी नहीं। शायद इसलिए कि जैसा मैंने अपने पहले उपन्यास में लिख डाला था, हम सभी विश्वास करती रही होंगी कि मर्द बदलने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। घर के भीतर रहते हुए भी, अपनी मर्जी से जी लो, तो काफ़ी है।
शादी के बाद मैं बिहार के ऐसे छोटे कस्बे (डालमिया नगर) में रही, जहाँ मर्द-औरतें, चाहे पति-पत्नी क्यों न हों, पिक्चर देखने भी जाते तो अलग-अलग दड़बों में बैठते। मैं दिल्ली से कालेज की नौकरी छोड़कर वहाँ पहुँची थी और नाटकों में अभिनय करने की शौकीन रही थी। मैंने उनके चलन से हार नहीं मानी। सालभर के भीतर, उन्हीं शादीशुदा औरतों को पराए मर्दों के साथ नाटक करने के लिए मना लिया। अगले चार साल तक हमने कई नाटक किए। अकाल राहत कोष के लिए, उन्हीं के माध्यम से पैसा भी इकट्ठा किया।
वहाँ से निकली तो कर्नाटक के और भी छोटे कस्बे, बागलकोट में पहुँच गई। तब तक मेरे दो बच्चे हो चुके थे, जो स्कूल जाने लायक उम्र पर पहुँच रहे थे। पर वहाँ कोई ढंग का स्कूल नहीं था।
लोगों की राय पर, मैंने पास के कैथोलिक बिशप से दरख्वास्त की कि उनका मिशन, वहाँ के सीमेंट कारखाने की आर्थिक मदद से, हमारे कस्बे में एक प्राइमरी स्कूल खोल दे। पहले उन्होंने कहा, चूँकि उस प्रदेश में क्रिश्चियन जनसंख्या कम थी, इसलिए वे वहाँ स्कूल खोलने में असमर्थ थे। मैंने गैर-क्रिश्चियन बच्चों को भी शिक्षा पाने के लायक सिद्ध करते हुए, अपना इसरार जारी रखा। तब उन्होंने कहा, “हम कोशिश कर सकते हैं, बशर्ते आप हमें यकीन दिलाएँ कि वह स्कूल, अगले सौ बरसों तक चलता रहेगा।” मुझे गुस्सा आ गया। मैंने कहा, “स्कूल की छोड़िए, किसी के भी बारे में यकीन नहीं दिलाया जा सकता कि वह अगले सौ बरस तक चलेगा।” वे भी गुस्सा खा गए, बोले, “खुदा का लाख शुक्र है, बच्चों के न पढ़ पाने की समस्या आपकी है, मेरी नहीं।” बात कड़ुवी थी पर सौ आने सच। सच के आगे सिर झुकाने की हमारी बचपन की आदत थी। सो मैंने तय किया कि मैं खुद, अंग्रेज़ी-हिंदी-कन्नड़, तीन भाषाएँ पढ़ाने वाला, प्राइमरी स्कूल वहाँ खोलूँगी और कर्नाटक सरकार से उसे मान्यता भी दिलवाऊँगी। वहाँ के अनेक मेहनती और खिसके लोगों की मदद से यह व्रत पूरा हुआ। मेरे बच्चे तथा अन्य अफ़सरों के बच्चे उसी स्कूल में पढ़े। बाद में अलग-अलग शहरों के अलग-अलग ख्यात स्कूलों में दाखिला भी पा गए।
शब्दार्थ –
कगार – किनारा
प्रयोजन – लाभ
दड़बों – पिंजरों की तरह स्थान
राय – सलाह
दरख्वास्त – प्रार्थना, निवेदन, आग्रह
इसरार – आग्रह
ख्यात – प्रसिद्ध
व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि उन सभी बहनों में एक बात एक-सी रही। घर-गृहस्थी को परंपरागत तरीके से उन्होंने भले ही न चलाया हो, परन्तु उन्होंने उसे तोड़ा भी नहीं, शादी एक बार की और उसे कायम रखा। चाहे उनकी शादी तलाक के किनारे पर खड़ी हुई हो परन्तु उन्होंने किनारे को नहीं तोड़, और न जिंदगी में डूबी। शायद लेखिका और उनकी सभी बहने लेखिका ने पहले उपन्यास में लिखी बात पर विश्वास करती रही होंगी कि मर्द बदलने से कोई लाभ सिद्ध नहीं होता। घर के भीतर रहते हुए भी, अपनी मर्जी से जी लो, तो काफ़ी है। आशय यह है कि यदि कोई आपकी बात नहीं समझता तो उससे दूर जाना कोई उपाय नहीं है बल्कि उसी के साथ रहते हुए भी अपनी मर्जी से जीवन जीया जा सकता है।
शादी के बाद लेखिका बिहार के ऐसे छोटे कस्बे (डालमिया नगर) में रही। वहाँ मर्द-औरतें, चाहे वे पति-पत्नी क्यों न हों, पिक्चर देखने भी जाते तो अलग-अलग जगह में बैठते। लेखिका दिल्ली से कालेज की नौकरी छोड़कर वहाँ पहुँची थी और लेखिका नाटकों में अभिनय करने की शौकीन रही थी। लेखिका ने उस छोटे कस्बे के चलन से हार नहीं मानी। सालभर के अंदर ही उन्होंने शादीशुदा औरतों को पराए मर्दों के साथ नाटक करने के लिए मना लिया। अगले चार साल तक लेखिका ने उनके साथ मिलकर कई नाटक किए। अकाल राहत कोष के लिए, उन्हीं नाटकों के माध्यम से पैसा भी इकट्ठा किया। जब लेखिका वहाँ से निकली तो कर्नाटक के और भी छोटे कस्बे, बागलकोट में पहुँच गई। तब तक लेखिका के दो बच्चे हो चुके थे, जो स्कूल जाने लायक उम्र पर पहुँच रहे थे। परन्तु वहाँ बागलकोट में कोई ढंग का स्कूल नहीं था। लोगों की सलाह पर, लेखिका ने नजदीक के कैथोलिक बिशप से आग्रह किया कि उनका मिशन, वहाँ के सीमेंट कारखाने की आर्थिक मदद से, लेखिका के कस्बे में एक प्राइमरी स्कूल खोल दे। पहले तो उन्होंने यह कह कर मना किया कि उस प्रदेश में क्रिश्चियन जनसंख्या कम थी, इसलिए वे वहाँ स्कूल खोलने में असमर्थ थे। लेखिका ने गैर-क्रिश्चियन बच्चों को भी शिक्षा पाने के लायक सिद्ध करते हुए, अपना आग्रह जारी रखा। तब वे अपनी ओर से कोशिश करने को तैयार हुए, परन्तु उन्होंने शर्त रखी कि लेखिका उन्हें यह यकीन दिलाएँ कि वह स्कूल, अगले सौ बरसों तक चलता रहेगा। इस बात पर लेखिका को गुस्सा आ गया। लेखिका ने कहा कि स्कूल की बात तो छोड़िए, किसी के भी बारे में यह यकीन नहीं दिलाया जा सकता कि वह अगले सौ बरस तक चलेगा। वे भी लेखिका की बात सुन कर गुस्सा खा गए और बोले कि खुदा का लाख शुक्र है, बच्चों के न पढ़ पाने की समस्या लेखिका की है, उन लोगों की नहीं। यह बात सुनने में कड़ुवी थी परन्तु सौ आने सच भी थी। और सच के आगे सिर झुकाने की लेखिका की बचपन की आदत थी। इसलिए ने तय किया कि वे खुद, अंग्रेज़ी-हिंदी-कन्नड़, तीन भाषाएँ पढ़ाने वाला, प्राइमरी स्कूल वहाँ खोलेंगी और कर्नाटक सरकार से उसे मान्यता भी दिलवाऐंगी। लेखिका ने वहाँ के अनेक मेहनती और कुछ हट कर काम करने वाले लोगों की मदद से यह व्रत पूरा किया। लेखिका के बच्चे तथा अन्य अफ़सरों के बच्चे उसी स्कूल में पढ़े। प्राइमरी शिक्षा पूरी करने के बाद में अलग-अलग शहरों के अलग-अलग प्रसिद्ध स्कूलों में उन बच्चों को दाखिला भी मिल गया।
पाठ – ऐसे अनेक मौके आए, जब मैंने अपने ज़िद्दीपन के नमूने पेश किए। पर सबसे ज़्यादा, उसने मंच पाया मेरे लेखन में, जो शुरू से अब तक लीक से खिसका, अपनी राह खुद तलाशता रहा है। पर सब कुछ कर लेने पर भी, मैं अपनी छोटी बहन रेणु के मुकाबिल नहीं पहुँच सकती। उन्नीस सौ पचास के अंतिम दौर में, एक रात दिल्ली में एक साथ नौ इंच बारिश हो गई। दिल्ली की खासियत यह रही है कि थोड़ा पानी बरसते ही, वहाँ के नाले-परनालों में बाढ़ आ जाती है, पुलों के नीचे पानी भर जाता है और तमाम यातायात ठप्प हो जाता है। इस कयामती बारिश के बाद तो सरकारी दफ़्तरों के पहले तल्लों से, फ़ाइलें पानी में तैर आई थीं। अगली सुबह, किसी तरह का कोई वाहन सड़क पर नहीं निकला था। ज़ाहिर है कि रेणु के स्कूल की बस भी उसे लेने नहीं आई। रेणु ने कहा, कोई बात नहीं, मैं पैदल चली जाऊँगी। सबने समझाया, स्कूल बंद होगा, मत जाओ। उसने कहा, आपको कैसे पता? इस सवाल का माकूल जवाब किसी के पास नहीं था। हमारे यहाँ फ़ोन ज़रूर लगा हुआ था। स्कूल में भी रहा होगा। पर बारिश के चलते, वह ठप्प पड़ा हुआ था। तो रेणु अकेली, पैदल, स्कूल चल दी। गनीमत यह थी कि बारिश, एकमुश्त बरस लेने के बाद, थम गई थी। सड़कों पर पानी था पर और बरस नहीं रहा था। तो रेणु दो मील पैदल चलकर स्कूल पहुँची। जैसा हमने कहा था, वह बंद था। चौकीदार रेणु को देख दंग रह गया। पर रेणु को कोई मलाल नहीं था। वह वापस दो मील चलकर घर पहुँच गई। सबने कहा, हमने पहले ही कहा था। उसने कहा, “स्कूल बंद था तो मैं वापस आ गई, इसमें आपका कहना कहाँ से आ गया?”
सोचती हूँ, कैसे रोमांच का अनुभव हुआ होगा उसे, उस दिन। जगह-जगह पानी से लब-लब करते, सुनसान शहर में, निचाट अकेले, अपनी धुन में, मंजिल की तरफ़ चलते चले जाना। सच, अकेलेपन का मज़ा ही कुछ और है।
शब्दार्थ –
ज़िद्दीपन – अपनी अनुचित बात पर भी अड़े रहने की अवस्था या भाव, हठीलापन, हठीपन
नमूने – उदाहरण, मिसाल
खासियत – गुण, हुनर
कयामती – मुसीबत, प्रकोप
माकूल – मुनासिब, अच्छा
एकमुश्त – इकठ्ठा, एक साथ
मलाल – मन में होने वाला दुःख
निचाट – सुनसान, निर्जन
व्याख्या – लेखिका बताती हैं कि ऐसे अनेक मौके आए, जब लेखिका ने अपने हठीपन के उदाहरण भी पेश किए। पर सबसे ज़्यादा, उन्होंने मंच पाया उनके लेखन में। जो शुरू से ही अब तक रीतियों से हटकर, अपना रास्ता खुद तलाशता रहा है। परन्तु लेखिका मानती है कि सब कुछ कर लेने पर भी, वह अपनी छोटी बहन रेणु के मुकाबिल नहीं पहुँच सकती। अर्थात लेखिका अपनी छोटी बहन रेणु को अपने से भी अधिक हठी मानती है। लेखिका उन्नीस सौ पचास के उस अंतिम दौर की एक रात का ज़िक्र करती है जब दिल्ली में एक साथ नौ इंच बारिश हो गई थी। लेखिका बताती हैं कि दिल्ली की ख़ास बात यह रही है कि थोड़ा पानी बरसते ही, वहाँ के नाले या छोटे नालों में बाढ़ आ जाती है, पुलों के नीचे पानी भर जाता है और सभी यातायात ठप्प हो जाता है। इस प्रकोप ढाती बारिश के बाद तो सरकारी दफ़्तरों की पहली मंजिल से, फ़ाइलें पानी में तैर आई थीं। इतनी बारिश होने के बाद अगली सुबह भी किसी तरह का कोई वाहन सड़क पर नहीं निकला था। स्पष्ट है कि रेणु के स्कूल की बस भी उसे लेने नहीं आई थी। इस पर रेणु का कहना था कि कोई बात नहीं, वह पैदल चली जाएगी। सबने उसे समझाया, कि स्कूल बंद होगा, वह न जाए। इस पर उसने पूछा कि वे सब कैसे जानते हैं कि स्कूल बंद होगा ? इस सवाल का अच्छा या सही जवाब किसी के पास नहीं था। उस समय लेखिका के यहाँ फ़ोन ज़रूर लगा हुआ था। स्कूल में भी रहा होगा। पर बारिश के चलते, वह बंद पड़ा हुआ था। तो रेणु अकेली, पैदल, स्कूल चल दी थी। सौभाग्य की बात यह थी कि बारिश, एक साथ बरस लेने के बाद, रुक गई थी। सड़कों पर पानी था पर और बरस नहीं रहा था। तो रेणु दो मील पैदल चलकर स्कूल पहुँची। जैसा सभी ने कहा था, स्कूल बंद था। चौकीदार रेणु को देख हैरान रह गया था। पर रेणु को कोई दुःख नहीं था। वह वापस दो मील चलकर घर पहुँच गई। सबने उससे कहा, कि उन्होंने उसे पहले ही कहा था कि स्कूल बंद होगा। उसने भी वापिस जवाब दिया कि स्कूल बंद था तो वह वापस आ गई, इसमें किसी का कहना कहाँ से आ गया? लेखिका सोचती है कि रेणु को उस दिन कैसे रोमांच का अनुभव हुआ होगा। जगह-जगह पानी से लब-लब करते, सुनसान शहर में, एकदम अकेले, अपनी धुन में, मंजिल की तरफ़ चलते चले जाना। लेखिका को भी लगता है कि अकेलेपन का मज़ा ही कुछ और होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि किसी की परवाह किए बिना अपनी धुन में अकेले अपनी मंजिल की ओर बढ़ते जाने में एक अलग ही आनंद और स्वतंत्रता का अनुभव होता है।
Conclusion
‘मेरे संग की औरतें’ रचना में लेखिका मृदुला गर्ग ने एक ऐसे परिवार के बारे में बताया गया है जहाँ लड़का – लड़की में कोई भेदभाव नहीं किया जाता। कोई भी किसी के निजी जीवन में दखल नहीं देता। लेखिका के जीवन व् उनके लेखन पर उसकी माँ, दादी, नानी तथा उसकी बहनों का विशेष प्रभाव पड़ा। इस लेख में पाठ प्रवेश, पाठ व्याख्या, शब्दार्थ, पाठ्यपुस्तक आधारित प्रश्न, अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न, पठित गद्यांश, बहुविकल्पात्मक प्रश्न आदि दिए गए हैं। यह लेख विद्यार्थियों की परीक्षा में मदद हेतु महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।