इस जल प्रलय में सार

 

CBSE Class 9 Hindi Chapter 1 “Is Jal Pralay Mein”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kritika Book

 

इस जल प्रलय में सार – Here is the CBSE Class 9 Hindi Kritika Chapter 1 Is Jal Pralay Mein Summary with detailed explanation of the lesson ‘Is Jal Pralay Mein’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary

इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 9 हिंदी कृतिका के पाठ 1 इस जल प्रलय में पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप  इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 9 इस जल प्रलय में पाठ के बारे में जानते हैं।

 

Is Jal Pralay Mein  इस जल प्रलय में

 

यह अध्याय प्रसिद्ध लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ द्वारा लिखित है, जिसमें वे बाढ़ के अनुभवों को अत्यंत संवेदनशील और व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत करते हैं। लेखक ने बिहार में अक्सर आने वाली बाढ़ की भयावहता को अपनी यादों, अनुभवों और सामाजिक टिप्पणियों के माध्यम से दर्शाया है। पटना शहर में आई एक बाढ़ के दौरान उन्होंने आम लोगों की प्रतिक्रियाएं, प्रशासन की तैयारियाँ, और सामाजिक व्यवहार को गहराई से देखा और व्यक्त किया है। यह रचना न केवल बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा का वर्णन करती है, बल्कि मानव मनोविज्ञान, संवेदनहीनता और हास्य के मिश्रण के माध्यम से समाज का एक सजीव चित्र भी प्रस्तुत करती है।

 

Related: 

इस जल प्रलय में पाठ सार Is Jal Pralay Mein Summary

 

यह अध्याय फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के व्यक्तिगत अनुभवों और बाढ़ आपदा को दर्शाने वाली एक गहरी संवेदनात्मक और वास्तविकता पर आधारित रचना है। लेखक अपने गाँव और शहर दोनों में बाढ़ के प्रभावों को महसूस करता है और पाठकों को भी उस भयावहता में सहभागी बनाता है। यह रचना न केवल बाढ़ की त्रासदी का वर्णन करती है, बल्कि मानवीय संवेदनाओं, समाज की प्रतिक्रियाओं और सरकार की भूमिका पर भी तीखा व्यंग्य करती है।

लेखक अपने गाँव के बारे में बताते हैं कि यह क्षेत्र कोसी, पनार, महानंदा और गंगा जैसी नदियों की बाढ़ से हर साल प्रभावित होता है। हर वर्ष हजारों पशु-पक्षी और लोग इस इलाके में आकर शरण लेते हैं। यह “परती” ज़मीन – जो जोती नहीं जाती – बाढ़ के समय जानवरों की भीड़ से भर जाती है। परती ज़मीन में जन्म लेने के कारण लेखक स्वयं तैरना नहीं जानते, परन्तु बाल्यकाल से लेकर जवानी तक वे बाढ़-पीड़ित क्षेत्रों में स्वयंसेवक, स्काउट और राहतकर्मी के रूप में काम करते रहे हैं। उन्होंने बाढ़ पर लेख भी लिखे, रिपोर्ताज किए और उपन्यासों में उसके चित्र भी प्रस्तुत किए, लेकिन खुद बाढ़ में फँसने का अनुभव उन्हें नहीं था। यह अनुभव उन्हें 1967 की पटना बाढ़ में हुआ, जब पुनपुन नदी का पानी शहर में घुस आया। लेखक इसे ‘शहरी आदमी की हैसियत’ से झेलते हैं।

जब बाढ़ का पानी पटना के पश्चिमी भाग में प्रवेश करता है, तो लेखक ईंधन, खाना, दवाइयाँ और जरूरी सामान जमा कर लेते हैं। लोगों में भय है, लेकिन उत्सुकता भी है – हर कोई जानना चाहता है कि पानी कहाँ तक आ गया है। कॉफी हाउस के पास पहुँचकर लेखक और उनके कवि मित्र देखते हैं कि पानी सड़कों पर तेजी से फैल रहा है, मानो मृत्यु का तरल दूत आ रहा हो। रिक्शावाले की बहादुरी के आगे लेखक खुद को डरपोक मानते हैं। गांधी मैदान के पास हजारों लोग बाढ़ देखने के लिए खड़े हैं, मानो किसी मेले में आए हों। एक आम आदमी की बात लेखक को भीतर तक छू जाती है। वह कहता है कि जब दानापुर डूबा था तो पटना में रहने वाले लोग उनकी मदद के लिए आगे नहीं बड़े, अब उन पर खुद बीत रही है।

पटना के लोग सामान्य दिनचर्या में जैसे-जैसे रहते हैं, वैसे ही इस बाढ़ के माहौल में भी उत्साहित दिखते हैं। कोई डर या घबराहट नहीं, बल्कि मजाक और ठहाकों का माहौल है। जनसंपर्क विभाग की गाड़ी लाउडस्पीकर पर चेतावनी देती है कि रात को बारह बजे तक बाढ़ का पानी और क्षेत्रों में पहुँच सकता है। लेखक महसूस करता है कि बाढ़ का कोई मीटर नहीं होता – न समय तय है, न प्रभाव की सीमा।

बाढ़ के इस माहौल में लेखक की स्मृतियाँ जाग उठती हैं। वे अपने पिछले अनुभवों को याद करते हैं – 1947 में मनिहारी में सतीनाथ भादुड़ी के साथ राहत कार्य करते समय का अनुभव, जब रेत के टापू पर साँप, बिच्छू और अन्य जीवों की भीड़ मिली थी। भादुड़ी जी ने उन्हें सिखाया था कि दवा, दियासलाई और तेल हर नाव पर जरूरी है। 1949 की महानंदा बाढ़ में जब एक बीमार युवक अपने कुत्ते को नाव पर चढ़ाने की ज़िद करता है और डॉक्टर डरकर चिल्लाते हैं, तब मानवीय संबंध और संवेदना की एक अनोखी झलक मिलती है।

इस रचना में लेखक ने केवल बाढ़ की जल-प्रलय को ही नहीं, बल्कि मनुष्यता, समाज, प्रशासन और आम जन की प्रवृत्तियों का जीवंत चित्र प्रस्तुत किया है। भय, व्यंग्य, करुणा और संवेदना के भावों से भरपूर यह संस्मरणात्मक रचना पाठकों को न केवल बाढ़ की वास्तविकता से परिचित कराती है, बल्कि सोचने पर भी मजबूर करती है – कि हम किस तरह संकट का सामना करते हैं, और समाज किस रूप में प्रतिक्रिया करता है।

इस जल प्रलय में पाठ व्याख्या Is Jal Pralay Mein Explanation

Is Jal Pralay Mein Summary img 1

पाठ- मेरा गाँव ऐसे इलाके में है जहाँ हर साल पश्चिम, पूरब और दक्षिण की कोसी, पनार, महानंदा और गंगा की बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह में आकर पनाह लेते है, सावन-भादो में ट्रेन की ख़िड़कियों से विशाल और सपाट परती पर गाय, बैल, भैंस, बकरों के हज़ारों झुंड-मुंड देखकर ही लोग बाढ़ की विभीषिका का अंदाज़ा लगाते हैं। 

शब्दार्थ-
इलाका– क्षेत्र
कोसी, पनार, महानंदा, गंगा– बिहार की प्रमुख नदियाँ
बाढ़–  नदियों का पानी जरूरत से ज़्यादा बढ़ जाना और चारों ओर फैल जाना
प्राणी– जीव
समूह– झुंड, टोली
पनाह – शरण, आड़
सावन-भादो– हिंदू पंचांग के दो मानसूनी महीने (जुलाई-अगस्त)
सपाट– एकदम समतल, बिना ऊँच-नीच के
परती– वह ज़मीन जो जोती-बोई न जाती हो
झुंड-मुंड– जानवरों के बहुत सारे झुंड
विभीषिका– भयंकरता

व्याख्या- लेखक बताते हैं कि उनका गाँव एक ऐसे क्षेत्र में स्थित है, जो हर साल भयंकर बाढ़ से प्रभावित होता है। इस क्षेत्र के पश्चिम, पूरब और दक्षिण दिशाओं में बहने वाली प्रमुख नदियाँ – कोसी, पनार, महानंदा और गंगा – वर्षा ऋतु में उफान पर होती हैं और अक्सर बाढ़ का कारण बनती हैं।

बाढ़ आने पर आस-पास के इलाकों से हजारों गाय, बैल, भैंस और बकरियाँ जान बचाने के लिए इस क्षेत्र में आकर शरण लेते हैं। सावन-भादो के महीनों में ट्रेन की खिड़की से इन जानवरों के झुंड देखकर लोग समझ जाते हैं कि बाढ़ कितनी भीषण रही होगी। यह दृश्य बाढ़ की त्रासदी और इन प्राणियों की पीड़ा को दर्शाता है।

 

पाठ- परती क्षेत्र में जन्म लेने के कारण अपने गाँव के अधिकांश लोगों की तरह मैं भी तैरना नहीं जानता। किंतु दस वर्ष की उम्र से पिछले साल तक-ब्वॉय स्काउट, स्वयंसेवक, राजनीतिक, कार्यकर्ता अथवा रिलीफ़वर्कर की हैसियत से बाढ़-पीड़ित क्षेत्रों में काम करता रहा हूँ और लिखने की बात? हाईस्कूल में बाढ़ पर लेख लिखकर प्रथम पुरस्कार पाने से लेकर-धर्मयुग में ‘कथा-दशक’ के अंतर्गत बाढ़ की पुरानी कहानी को नए पाठ के साथ प्रस्तुत कर चुका हूँ। जय गंगा (1947) , डायन कोसी (1948), हड्डियों का पुल (1948) आदि छुटपुट रिपोर्ताज के अलावा मेरे कई उपन्यासों में बाढ़ की विनाश-लीलाओं के अनेक चित्र अंकित हुए हैं। किंतु, गाँव में रहते हुए बाढ़ से घिरने, बहने, भंसने और भोगने का अनुभव कभी नहीं हुआ। 

शब्दार्थ-
हैसियत– पद, भूमिका
रिलीफ वर्कर– राहत कार्य करने वाला व्यक्ति
धर्मयुग– एक प्रसिद्ध हिन्दी साप्ताहिक पत्रिका
कथा-दशक– धर्मयुग में प्रकाशित कहानियों की विशेष श्रृंखला
छुटपुट– छोटे-छोटे, अलग-अलग
रिपोर्ताज- रिपोर्ट के रूप में लिखा गया साहित्य
विनाश-लीला– तबाही की घटनाएँ
अंकित– दर्ज, लिखा हुआ
भँसना– फँस जाना

व्याख्या- लेखक एक परती (बंजर) क्षेत्र में पैदा हुए, जहाँ अधिकतर लोगों की तरह उन्हें भी तैरना नहीं आता। फिर भी उन्होंने बहुत छोटी उम्र से ही बाढ़-पीड़ित क्षेत्रों में सक्रिय रूप से काम किया है—कभी ब्वॉय स्काउट, कभी स्वयंसेवक, तो कभी राजनीतिक कार्यकर्ता या राहतकर्मी के रूप में। इसके अलावा, वे बाढ़ जैसे गंभीर विषय पर लिखते भी रहे हैं। हाईस्कूल के समय उन्होंने बाढ़ पर लेख लिखकर प्रथम पुरस्कार जीता था और बाद में ‘धर्मयुग’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में बाढ़ पर कहानी प्रकाशित कर चुके हैं।

उन्होंने कई रिपोर्ताज जैसे जय गंगा (1947), डायन कोसी (1948), हड्डियों का पुल (1948) आदि में भी बाढ़ के भयानक चित्र को प्रस्तुत किया है। उनके उपन्यासों में भी बाढ़ की त्रासदी के चित्र अंकित हैं। परंतु, वे यह स्वीकार करते हैं कि गाँव में रहते हुए उन्होंने खुद कभी बाढ़ में फँसने, बहने, डूबने या बुरी तरह भोगने का सीधा अनुभव नहीं किया। यह व्याख्या इस बात को बताती है कि लेखक ने भले ही बाढ़ को करीब से देखा और उस पर लिखा हो, लेकिन उसके भीतर जाकर झेलने का कष्ट उन्होंने कभी महसूस नहीं किया।

 

पाठ- वह तो पटना शहर में सन् ।967 में ही हुआ, जब अट्ठारह घंटे की अविराम वृष्टि के कारण, पुनपुन का पानी राजेंद्रनगर, कंकड़बाग तथा अन्य निचले हिस्सों में घुस आया था। अर्थात बाढ़ को मैंने भोगा है, शहरी आदमी की हैसियत से। इसीलिए इस बार जब बाढ़ का पानी प्रवेश करने लगा, पटना का पश्चिमी इलाका छातीभर पानी में डूब गया तो हम घर में ईंधन, आलू, मौमबती, दियासलाई, पीने का पानी और कांपोज़ की गोलियाँ जमाकर बैठ गए और प्रतीक्षा करने लगे।Is Jal Pralay Mein Summary img2

सुबह सुना, राजभवन और मुख्यमंत्री निवास प्लावित हो गया है। दोपहर में सूचना मिली, गोलघर जल से घिर गया है! (यों, सूचना बाँग्ला में इस वाक्य से मिली थी- ‘जानो! गोलघर डूबे गेछे!’) और पाँच बजे जब कॉफ़ी हाउस जाने के लिए (तथा शहर का हाल, मालूम करने) निकला तो रिक्शेवाले ने हँसकर कहा- “अब कहाँ जाइएगा? कॉफ़ी हाउस में तो ‘अबले’ पानी आ गया होगा।”

शब्दार्थ-
अविराम वृष्टि – बिना रुके लगातार वर्षा
पुनपुन का पानी – पुनपुन नदी का पानी, जो बाढ़ के कारण शहर में घुस आया
राजेंद्रनगर, कंकड़बाग – पटना शहर के निचले इलाके, जो बाढ़ से प्रभावित हुए
भोगा है – अनुभव किया है, झेला है
ईंधन – जलाने योग्य वस्तुएँ जैसे लकड़ी, कोयला आदि, खाना पकाने या गर्मी के लिए
कांपोज़ की गोलियाँ – पेट की तकलीफ में ली जाने वाली दवा (एक सामान्य ब्रांड था सन् 1960–70 के दशक में)
प्लावित – जिस पर बाढ़ का पानी चढ़ आया हो, जो जल में डूब गया हो
गोलघर – पटना का एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल
जानो! गोलघर डूबे गेछे! – यह बंगला भाषा में वाक्य है, जिसका अर्थ है “जानते हो! गोलघर डूब गया है!”
अबले– इस समय तक,अब तक

व्याख्या- इस अंश में लेखक अपने पहले वास्तविक बाढ़ के अनुभव का वर्णन करते हैं, जो पटना शहर में 1967 में हुआ था। लगातार अठारह घंटे तक हुई तेज़ बारिश के कारण पुनपुन नदी का पानी पटना के निचले इलाकों जैसे राजेंद्रनगर और कंकड़बाग में घुस गया था। लेखक बताते हैं कि उन्होंने बाढ़ को पहली बार झेला, लेकिन एक ग्रामीण के रूप में नहीं बल्कि एक शहरी नागरिक की तरह।

बाढ़ की आशंका होते ही उन्होंने आवश्यक चीजें जैसे ईंधन, आलू, मोमबत्तियाँ, दियासलाई, पीने का पानी और दवाइयाँ जमा कर लीं और घर में बंद होकर इंतज़ार करने लगे। सुबह उन्होंने सुना कि राजभवन और मुख्यमंत्री का निवास भी पानी में डूब गया है, और दोपहर में उन्हें जानकारी मिली कि गोलघर जैसे प्रसिद्ध स्थल को भी जल ने घेर लिया है। यह सूचना लोगों को बंगाली में इस तरह मिली कि जानो! गोलघर डूबे गेछे! जिसका अर्थ है “जानते हो! गोलघर डूब गया है!” 

शाम को जब लेखक कॉफी हाउस जाने निकले (ताकि शहर की स्थिति देख सकें), तो रिक्शावाले ने मज़ाक में कहा कि अब कहाँ जाएंगे, कॉफी हाउस तक में पानी घुस गया होगा। इस अंश में लेखक की स्थिति की गंभीरता, और उसमें छिपा व्यंग्य झलकता है कि कैसे एक आधुनिक, व्यवस्थित शहर भी बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा के सामने लाचार हो जाता है।

 

पाठ- “चलो, पानी कैसे घुस गया है, वही देखना है।” कहकर हम रिक्शा पर बैठ गए। साथ में नयी कविता के एक विशेषज्ञ-व्याख्याता-आचार्य-कवि मित्र थे, जो मेरी अनवरत-अनर्गल-अनगढ़ गद्यमय स्वगतोक्ति से कभी बोर नहीं होते (धन्य हैं!)।

मोटर, स्कूटर, ट्रैक्टर, मोटरसाइकिल, ट्रक, टमटम, साइकिल, रिक्शा पर और पैदल लोग पानी देखने जा रहे हैं, लोग पानी देखकर लौट रहे हैं। देखने वालों की आँखों में, जुबान पर एक ही जिज्ञासा- “पानी कहाँ तक आ गया है?” देखकर लौटते हुए लोगों की बातचीत- “फ्रेजर रोड पर आ गया! आ गया क्या, पार कर गया। श्रीकृष्णापुरी, पाटलिपुत्र कालोनी, बोरिंग रोड? इंडस्ट्रियल एरिया का कहीं पता नहीं…अब भट्टाचार्जी रोड पर पानी आ गया होगा।…छातीभर पानी है। वीमेंस कॉलेज के पास ‘डुबाव-पानी’ है।…आ रहा है!…आ गया!!…घुस गया…डूब गया…डूब गया…बह गया!”

शब्दार्थ-
रिक्शा – तीन पहियों की सवारी गाड़ी
विशेषज्ञ – जानकार व्यक्ति
व्याख्याता – समझाने वाला, शिक्षक
आचार्य – गुरु, शिक्षक
कवि – कविता लिखने वाला
अनवरत – निरंतर, लगातार
अनर्गल – बेतुकी, विचारहीन, मनमानी
अनगढ़ – बेडौल, टेढ़ा-मेढ़ा
गद्यमय – गद्य जैसा, गद्य में
स्वगतोक्ति – अपने आप में कुछ बोलना
मोटर – इंजन वाली गाड़ी
ट्रैक्टर – खेती में काम आने वाला भारी वाहन
ट्रक – भारी माल ढोने वाली गाड़ी
टमटम – घोड़े से चलने वाली गाड़ी
जिज्ञासा – जानने की इच्छा
कालोनी – बस्ती, मोहल्ला
इंडस्ट्रियल एरिया – कारखानों वाला क्षेत्र

व्याख्या- लेखक बाढ़ के दौरान शहर में फैली हुई बेचैनी, उत्सुकता और भय को चित्रित करते हैं। जब बाढ़ का पानी शहर में प्रवेश करने लगता है, तो लेखक अपने एक कवि मित्र के साथ रिक्शे पर बैठकर शहर में पानी की स्थिति देखने निकलते हैं। उनके साथ जो मित्र हैं, वे नयी कविता के विशेषज्ञ हैं और लेखक की बेतुकी, अव्यवस्थित लेकिन सहज बातचीत से कभी ऊबते नहीं — इस पर लेखक मज़ाकिया लहज़े में उन्हें “धन्य” कहते हैं।

शहर का पूरा माहौल बाढ़ के पानी की गति और विस्तार को देखने और जानने वालों से भरा हुआ है। सभी तरह के वाहनों पर — मोटर, स्कूटर, ट्रैक्टर, साइकिल, रिक्शा — और पैदल भी लोग सिर्फ यह देखने जा रहे हैं कि पानी अब कहाँ तक पहुँच गया है। किसी मेले जैसी भीड़ है, पर वह उत्सव नहीं, एक तरह की सामूहिक चिंता का मेला है।

लोगों की बातचीत और आँखों में एक ही सवाल है कि पानी कहाँ तक आ गया है।  लौटते हुए लोगों के मुंह से सिर्फ बाढ़ के पानी की स्थिति का विवरण सुनाई देता है कि वह किस-किस इलाक़े में घुस चुका है, कहाँ तक फैल गया है, कहाँ ‘डुबाव-पानी’ है यानी कमर या छाती तक का पानी है, और कौन-कौन से क्षेत्र पूरी तरह डूब चुके हैं।

अंत में, आ गया!… घुस गया… डूब गया… बह गया! — शहर के डूबते जाने की भयावह गति को दर्शाया गया है। यह अंश न केवल शहर में आई बाढ़ के भौतिक प्रभाव को उजागर करटा है, बल्कि भय और एक सामूहिक आपदा की त्रासदी को भी प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करता है।

 

पाठ- हम जब कॉफ़ी हाउस के पास पहुँचे, कॉफ़ी हाउस बंद कर दिया गया था। सड़क के एक किनारे एक मोटी डोरी की शक्ल में गेरुआ-झाग फेन में उलझा पानी तेज़ी से सरकता आ रहा था। मैंने कहा- “आचार्य जी, आगे जाने की ज़रूरत नहीं। वो देखिए-आ रहा है…मृत्यु का तरल दूत!”

आतंक के मारे मेरे दोनों हाथ बरबस जुड़ गए और सभय प्रणाम-निवेदन में मेरे मुँह से कुछ अस्फुट शब्द निकले, (हाँ, मैं बहुत कायर और डरपोक हूँ!)।

रिक्शावाला बहादुर है कहता है- ‘चलिए न, थोड़ा और आगे!’
भीड़ का एक आदमी बोला – “ए रिक्शा, करेंट बहुत तेज़ है। आगे मत जाओ।”
मैंने रिक्शावाले से अनुनय भरे स्वर में कहा- “लौटा ले भैया। आगे बढ़ने की ज़रूरत नहीं।”

शब्दार्थ-
कॉफी हाउस – चाय/कॉफी पीने की सार्वजनिक जगह
शक्ल – रूप, आकार
गेरुआ – मटमैलापन लिये लाल रंग का
झाग – फेन, बुलबुले वाला पदार्थ
तरल – बहने वाला, द्रव
दूत – संदेशवाहक
आतंक – डर, भय
बरबस – अपने आप, बिना सोचे
सभय – डर से भरा हुआ
प्रणाम-निवेदन – नमस्कार करते हुए निवेदन
अस्फुट – अस्पष्ट
मुँह से कुछ अस्फुट शब्द निकले – मुंह से साफ़ न सुनाई देने वाले शब्द निकले
कायर – डरपोक
अनुनय भरे स्वर में – विनती या प्रार्थना करते हुए आवाज़ में
लौटा ले भैया – वापस ले चलो भाई

व्याख्या- इस अंश में लेखक बाढ़ के दृश्य को एक गहरे भय और आशंका के साथ प्रस्तुत करते हैं। जब वे अपने कवि मित्र के साथ कॉफ़ी हाउस के पास पहुँचते हैं, तो देखते हैं कि वह पहले ही बंद किया जा चुका है। यह प्रतीक है कि सामान्य जीवन ठहर चुका है। सड़क पर बहता हुआ गेरुआ रंग का झागदार पानी किसी सामान्य जलधारा की तरह नहीं, बल्कि किसी खतरनाक, रहस्यमयी शक्ति की तरह प्रतीत हो रहा है।

लेखक उस पानी को “मृत्यु का तरल दूत” कहकर संबोधित करते हैं कि यह एक शक्तिशाली बिंब है, जो दर्शाता है कि वह पानी केवल एक भौतिक बाढ़ नहीं, बल्कि जीवन के लिए सीधा खतरा है। इस दृश्य को देखकर लेखक के मन में भय और अविश्वास का ऐसा भाव पैदा होता है कि उनके हाथ अपने आप जुड़ जाते हैं, जैसे वे किसी देवता या विनाशकारी शक्ति को प्रणाम कर रहे हों। वह खुद को कायर और डरपोक कहकर अपनी ईमानदारी भी प्रकट करते हैं।

रिक्शावाला, जो निडर है, उन्हें आगे चलने को कहता है, पर भीड़ का एक व्यक्ति चेतावनी देता है कि पानी का बहाव बहुत तेज़ है, बिजली का करेंट हो सकता है, स्थिति खतरनाक हो चुकी है। अंततः लेखक रिक्शावाले से विनम्र निवेदन करते हैं कि उन्हें वापस ले चले।

इस अंश के माध्यम से जीवन की नश्वरता, असहायता और भय स्पष्ट रूप से सामने आते हैं।

 

पाठ- रिक्शा मोड़कर हम ‘अप्सरा’ सिनेमा हॉल (सिनेमा-शो बंद!) के बगल से गांधी मैदान की ओर चले। पैलेस होटल और इंडियन एयरलाइंस दफ़्तर के सामने पानी भर रहा था। पानी की तेज़ धारा पर लाल-हरे ‘नियन’ विज्ञापनों की परछाइयाँ सैकड़ों रंगीन साँपों की सृष्टि कर रही थीं। गांधी मैदान की रेलिंग के सहारे हज़ारों लोग खड़े देख रहे थे। दशहरा के दिन रामलीला के ‘राम’ के रथ की प्रतीक्षा में जितने लोग रहते हैं, उससे कम नहीं थे…गांधी मैदान के आनंद-उत्सव, सभा-सम्मेलन और खेलकूद की सारी स्मृतियों पर धीरे-धीरे एक गैरिक आवरण आच्छादित हो रहा था। हरियाली पर शनै:-शनै: पानी फिरते देखने का अनुभव सर्वथा नया था। इसी बीच एक अधेड़, मुस्टंड और गँवार ज़ोर-ज़ोर से बोल उठा- “ईह! जब दानापुर डूब रहा था तो पटनियाँ बाबू लोग उलटकर देखने भी नहीं गए,…अब बूझो!”

शब्दार्थ-
सिनेमा हॉल – फिल्म देखने की जगह
शो बंद – फिल्म का प्रदर्शन बंद
गांधी मैदान – पटना का प्रसिद्ध खुला मैदान
पैलेस होटल – एक होटल का नाम
एयरलाइंस दफ़्तर – हवाई जहाज़ सेवा का कार्यालय
नियन विज्ञापन – चमकदार रंग-बिरंगे रोशनी वाले विज्ञापन
सैकड़ों – बहुत बड़ी संख्या में
साँपों की सृष्टि – सांप जैसे दृश्य बन रहे थे
रेलिंग – लोहे की बनी बाड़
सभा-सम्मेलन – बैठक और बड़ी जनसभा
आवरण – परत, ढक्कन
गैरिक – भगवा या गेरुआ रंग
आच्छादित – ढका हुआ
शनै:-शनै: – धीरे-धीरे
अधेड़ – उम्र में आधे (लगभग 40-60 वर्ष)
मुस्टंड – भारी-भरकम शरीर वाला व्यक्ति
गँवार – अशिक्षित, गाँव का सीधा-सादा व्यक्ति
उलटकर – पलटकर, मुड़कर
बूझो – समझो

व्याख्या-  इस अंश में लेखक एक अद्भुत चित्रात्मकता के साथ बाढ़ के दृश्य को वर्णित करते हैं। जब वे ‘अप्सरा’ सिनेमा हॉल के पास पहुँचते हैं, तो वहाँ सिनेमा शो बंद हो चुका है, यह बाढ़ के प्रभाव से सामान्य जनजीवन के ठप होने का संकेत है। आगे बढ़ते हुए, वे पैलेस होटल और इंडियन एयरलाइंस दफ़्तर के सामने पानी की धारा को देखते हैं, और उस पर पड़ती ‘नियन’ रंग की लाइट्स की परछाइयाँ उन्हें सैकड़ों रंगीन साँपों की तरह लगती हैं। एक ओर दृश्य में रंग है, आकर्षण है, लेकिन भीतर ही भीतर वह भयावह और विषैला है।

गांधी मैदान में खड़ी भीड़ को देखकर उसकी तुलना रामलीला के दृश्य से करते हैं — दशहरे पर जैसे लोग राम के रथ की प्रतीक्षा में होते हैं, वैसी ही उत्सुकता और भीड़ यहाँ बाढ़ के जल को देखने में जुटी है। लोग बाढ़ जैसे संकट को भी एक तमाशे की तरह देखने में लगे हैं।

गांधी मैदान की हरियाली धीरे-धीरे पानी से ढँकती जा रही है। वह स्थान जहाँ कभी सभा, सम्मेलन, खेल और उत्सव होते थे, अब जलमग्न हो रहा है — यह बदलाव बहुत ही मर्मस्पर्शी है।

अंत में एक अधेड़ ग्रामीण व्यक्ति का संवाद इस दृश्य में सामाजिक विडंबना और वर्ग भेद को उजागर करता है। वह कहता है कि जब दानापुर डूब रहा था, तब पटना के संभ्रांत लोग उसकी ओर ध्यान भी नहीं दे रहे थे, और अब जब पटना डूब रहा है तो उन्हें समझ आ रहा है। इसमें शहरी और ग्रामीण वर्ग के बीच की दूरी, उपेक्षा और प्रतिशोध दिखाई देता है।

 

पाठ- मैंने अपने आचार्य-कवि मित्र से कहा- “पहचान लीजिए। यही है वह ‘आम आदमी’, जिसकी खोज हर साहित्यिक गोष्ठियों में होती रहती है। उसके वक्तव्य में ‘दानापुर’ के बदले ‘उत्तर बिहार’ अथवा कोई भी बाढ़ग्रस्त ग्रामीण क्षेत्र जोड़ दीजिए…”

शाम के साढ़े सात बज चुके और आकाशवाणी के पटना-केंद्र से स्थानीय समाचार प्रसारित हो रहा था। पान की दुकानों के सामने खड़े लोग, चुपचाप, उत्कर्ण होकर सुन रहे थे…

“…पानी हमारे स्टूडियो की सीढ़ियों तक पहुँच चुका है और किसी भी क्षण स्टूडियो में प्रवेश कर सकता है।”

शब्दार्थ-
आम आदमी – साधारण व्यक्ति, सामान्य जन
साहित्यिक गोष्ठियाँ – साहित्य से जुड़ी बैठकों या चर्चाओं की सभाएँ
वक्तव्य – कथन, कहा हुआ वाक्य या बात
दानापुर – पटना के पास का एक क्षेत्र (यहाँ प्रतीक के रूप में)
उत्तर बिहार – बिहार राज्य का उत्तरी भाग
बाढ़ग्रस्त – बाढ़ से प्रभावित
ग्रामीण क्षेत्र – गाँवों वाला इलाका
साढ़े सात – सात बजकर तीस मिनट
आकाशवाणी – सरकारी रेडियो सेवा
स्थानीय समाचार – उस स्थान से संबंधित ताज़ा खबरें
प्रसारित हो रहा था – सुनाया जा रहा था
उत्कर्ण होकर – सुनने को उत्सुक
प्रवेश कर सकता है – अंदर आ सकता है

व्याख्या- इस अंश में लेखक बाढ़ की भयावहता के बीच सामाजिक और साहित्यिक बोध के साथ-साथ आमजन की स्थिति का मार्मिक चित्रण करते हैं। जब एक अधेड़ ग्रामीण व्यक्ति व्यंग्य में कहता है कि जब दानापुर डूब रहा था तब कोई नहीं देखने गया, लेखक इस वक्तव्य को पकड़ते हैं और अपने कवि-मित्र से कहते हैं कि यही है वह ‘आम आदमी’ जिसकी तलाश हर साहित्यिक गोष्ठी में होती है।

आम आदमी तो सड़क पर है, बाढ़ से त्रस्त है, अपने अनुभव और व्यंग्य से जीवन की कठोर सच्चाई कह रहा है। लेखक यह भी कहते हैं कि दानापुर की जगह आप उत्तर बिहार या किसी भी बाढ़ग्रस्त क्षेत्र का नाम रख दीजिए—वक्तव्य की पीड़ा और सच्चाई वही रहेगी। 

इसके बाद का दृश्य शाम के समय का है। लोग पान की दुकानों के पास खड़े होकर आकाशवाणी से समाचार सुन रहे हैं। जैसे-जैसे यह बताया जाता है कि पानी स्टूडियो की सीढ़ियों तक पहुँच चुका है और किसी भी क्षण भीतर आ सकता है।

 

पाठ- समाचार दिल दहलाने वाला था। कलेजा धड़क उठा। मित्र के चेहरे पर भी आतंक की कई रेखाएँ उभरीं। किंतु हम तुरंत ही सहज हो गए; यानी चेहरे पर चेष्टा करके सहजता ले आए, क्योंकि हमारे चारों ओर कहीं कोई परेशान नज़र नहीं आ रहा था। पानी देखकर लौटते हुए लोग आम दिनों की तरह हँस-बोल रहे थे; बल्कि आज तनिक अधिक ही उत्साहित थे। हाँ, दुकानों में थोड़ी हड़बड़ी थी। नीचे के सामान ऊपर किए जा रहे थे। रिक्शा, टमटम, ट्रक और टेम्पो पर सामान लादे जा रहे थे। खरीद-बिक्री बंद हों चुकी थी। पानवालों की बिक्री अचानक बढ़ गई थी। आसन्न संकट से कोई प्राणी आतंकित नहीं दिख रहा था।

शब्दार्थ-
समाचार – खबर
दिल दहलाने वाला – बहुत डरावना, भय पैदा करने वाला
कलेजा धड़क उठा – बहुत तेज़ दिल धड़कने लगा (डर से)
चेहरे पर आतंक की रेखाएँ उभरना – डर का भाव चेहरे पर आ जाना
सहज हो गए – सामान्य दिखने लगे
चेहरे पर चेष्टा करके – चेहरे के भाव से प्रयास करके
तनिक अधिक – थोड़ा ज्यादा
उत्साहित – जोश में, खुशी में
हड़बड़ी – जल्दबाज़ी, अफरा-तफरी
लादे जा रहे थे – चढ़ाए जा रहे थे (वाहनों पर)
खरीद-बिक्री बंद – सामान बेचना और खरीदना बंद
पानवालों की बिक्री – पान बेचने वालों का व्यापार
आसन्न संकट – पास आया हुआ
आतंकित – डर से भरा हुआ

व्याख्या- जब रेडियो से यह समाचार प्रसारित होता है कि पानी आकाशवाणी के स्टूडियो की सीढ़ियों तक पहुँच चुका है और कभी भी अंदर घुस सकता है, तब यह सूचना बहुत ही भयावह प्रतीत होती है। लेखक और उनके मित्र के चेहरे पर भय की रेखाएँ साफ़ उभर आती हैं।

लेकिन इसके तुरंत बाद, लेखक यह बताते हैं कि उन्होंने और उनके मित्र ने अपने चेहरे पर “चेष्टा करके सहजता” ले ली — यानी डर को छिपाने की कोशिश की, ताकि वे बाहरी रूप से सामान्य लगें। इसका कारण था कि उनके चारों ओर बाकी लोग बिल्कुल भी घबराए हुए नहीं थे। 

लेखक यह भी बताते हैं कि पानी देखकर लौटते हुए लोग उत्साहित थे, हँस-बोल रहे थे — मानो यह कोई तमाशा हो। दुकानों में हलचल थी, नीचे का सामान ऊपर चढ़ाया जा रहा था, रिक्शा, टमटम, ट्रक और टेम्पो सामानों से लदे थे, लेकिन यह सब बड़ी सहजता से हो रहा था। 

अंत में, पानवालों की बिक्री का अचानक बढ़ जाना एक व्यंग्यात्मक दृश्य है — जैसे संकट के समय भी कुछ चीजें कभी मंदी में नहीं आतीं। एक बड़ा और निकट आता हुआ संकट सामने होते हुए भी वहाँ मौजूद कोई भी व्यक्ति घबराया हुआ या डरा हुआ नहीं लग रहा था।

 

पाठ- …पानवाले के आदमकद आईने में उतने लोगों के बीच हमारी ही सूरतें ‘मुहर्रमी’ नज़र आ रही थीं। मुझे लगा, अब हम यहाँ थोड़ी देर भी ठहरेंगे तो वहाँ खड़े लोग किसी भी क्षण ठठाकर हम पर हँस सकते थे- “ज़रा इन बुज़दिलों का हुलिया देखो!” क्योंकि वहाँ ऐसी ही बातें चारों ओर से उछाली जा रही थीं- “एक बार डूब ही जाए!…धनुष्कोटि की तरह पटना लापता न हो जाए कहीं!…सब पाप धुल जाएगा…चलो, गोलघर के मुँडे पर ताश की गड्डी लेकर बैठ जाएँ…बिस्कोमान बिल्डिंग की छत पर क्यों नहीं?…भई, यही माकूल मौका है। इनकम टैक्सवालों को ऐन इसी मौके पर काले कारबारियों के घर पर छापा मारना चाहिए। आसामी बा-माल…”

शब्दार्थ-
आदमकद आईना – बड़ा आईना, जिसमें पूरा शरीर दिखाई दे
सूरतें – चेहरे, रूप
मुहर्रमी – चेहरा बदलने वाली, मुसीबत या संकट का संकेत
ठठाकर – जोर से हँसते हुए
बुज़दिलों – डरपोक, कायर लोग
हुलिया – रूप, चेहरा
उछाली जा रही थीं – बातें फैलाई जा रही थीं, उड़ी जा रही थीं
धनुष्कोटि – एक स्थान का नाम, जो समुद्र के किनारे स्थित है और वहाँ एक भयंकर बाढ़ के बाद यह इलाका गायब हो गया था
गोलघर के मुँडे – गोलघर के ऊपरी हिस्से पर
बिस्कोमान बिल्डिंग – पटना में स्थित एक प्रसिद्ध इमारत
माकूल मौका – उपयुक्त समय, सही अवसर
इनकम टैक्सवालों – आयकर विभाग के अधिकारी
काले कारबारियों – अवैध व्यापार करने वाले लोग
छापा मारना – अचानक तलाशी लेना
आसामी बा-माल – संपत्ति वाला व्यक्ति, जो माल-मकान का मालिक हो

व्याख्या- पानवाले के बड़े आईने में भीड़ के बीच लेखक और उनके मित्र ही अकेले ऐसे दिख रहे थे जिनके चेहरे पर डर और चिंता की गहरी छाया थी—’मुहर्रमी’ अर्थात शोक में डूबे चेहरे। यह शब्द उस माहौल से बिल्कुल अलग था जिसमें बाकी लोग मज़ाकिया और बेपरवाह बातें कर रहे थे। लेखक को यह डर सताने लगा कि यदि वे थोड़ी देर और वहीं रुकते, तो लोग उनके डर को देख हँसी उड़ाने लगते। वहाँ मौजूद लोगों की बातचीत में व्यंग्य, मज़ाक और एक विचित्र किस्म का ठहाका था—जैसे लोग संकट को हल्के-फुल्के अंदाज़ में झेलने की कला जानते हों। कोई कह रहा था कि पटना डूबकर “धनुष्कोटि” की तरह ग़ायब हो जाए तो अच्छा, कोई गोलघर के ऊपर बैठकर ताश खेलने की बात कर रहा था। इन मज़ाकों में छिपा एक गहरा सच यह भी था कि लोग विपत्ति को भी सामान्य बनाकर जीने की कोशिश करते हैं। ऐसी स्थिति में लेखक का घबराना लोगों की सामान्य हँसी का विषय बन सकता था।

 

पाठ- राजेंद्रनगर चौराहे पर ‘मैगजीन कॉर्नर’ की आखिरी सीढ़ियों पर पत्र-पत्रिकाएँ पूर्ववत् बिछी हुई थीं। सोचा, एक सप्ताह की खुराक एक ही साथ ले लूँ। क्या-क्या ले लूँ?…हेडली चेज़, या एक ही सप्ताह में फ्रेंच / जर्मन सिखा देने वाली किताबें अथवा ‘योग’ सिखाने वाली कोई सचित्र किताब? मुझे इस तरह किताबों को उलटते-पलटते देखकर दुकान का नौजवान मालिक कृष्णा पता नहीं क्यों मुसकराने लगा। किताबों को छोड़ कई हिंदी-बाँग्ला और अंग्रेज़ी सिने पत्रिकाएँ लेकर लौटा। मित्र से विदा होते हुए कहा- “पता नहीं, कल हम कितने पानी में रहें।…बहरहाल, जो कम पानी में रहेगा। वह ज़्यादा पानी में फँसे मित्र की सुधि लेगा।”

शब्दार्थ-
राजेंद्रनगर चौराहा – पटना का एक प्रमुख चौराहा
मैगजीन कॉर्नर – पत्रिकाओं की दुकान का एक कोना
पत्र-पत्रिकाएँ – अखबार और मैगज़ीन
पूर्ववत् – पहले जैसा, जैसा पहले था
खुराक – यहाँ किताबों की एक प्रकार की ‘आवश्यकता’
हेडली चेज़ – एक प्रसिद्ध उपन्यासकार, जिनकी जासूसी किताबें मशहूर हैं
सुधि लेगा – ध्यान रखेगा, ख्याल रखेगा

व्याख्या- इस व्यंग्यात्मक अंश में लेखक राजेंद्रनगर चौराहे पर स्थित ‘मैगजीन कॉर्नर’ की दुकान पर जाते हैं, जहाँ बाढ़ के संकट के बावजूद पत्र-पत्रिकाएँ सामान्य रूप से सजी हुई थीं। यह दृश्य उन्हें सामान्य दिन की तरह प्रतीत होता है, जैसे कुछ हुआ ही न हो। लेखक सोचते हैं कि एक सप्ताह के लिए पढ़ने की सामग्री इकट्ठा कर लें, क्योंकि आने वाले दिनों में स्थिति और बिगड़ सकती है। वे मज़ाकिया अंदाज़ में विचार करते हैं कि शायद कोई ऐसी किताब ले लें जो एक ही सप्ताह में फ्रेंच या जर्मन भाषा सिखा दे, या योग की कोई चित्र बनी हुई पुस्तक। जब वे किताबों की जगह सिने पत्रिकाएँ उठाते हैं, तो दुकानदार कृष्णा मुस्करा देता है—शायद लेखक की स्थिति या चयन पर, या इस पूरे वातावरण की विचित्रता पर। लौटते समय लेखक अपने मित्र से एक गहरी परंतु हल्की-फुल्की बात कहते हैं कि पता नहीं कल हम किस हाल में हों, जो कम पानी में रहेगा, वह ज़्यादा पानी में फँसे मित्र का ध्यान रखेगा। 

इस अंश में, जहाँ संकट के समय एक-दूसरे का ध्यान रखने की बात की गई है दूसरी ओर हास्य भी है। 

 

पाठ- फ़्लैट में पहुँचा ही था कि ‘जनसंपर्क’ की गाड़ी भी लाउडस्पीकर से घोषणा करती हुए राजेंद्रनगर पहुँच चुकी थी। हमारे ‘गोलंबर’ के पास कोई भी आवाज़, चारों बड़े ब्लॉकों की इमारतों से टकराकर मँडराती हुई, चार बार प्रतिध्वनित होती है। सिनेमा अथवा लॉटरी की प्रचार गाड़ी यहाँ पहुँचते ही- ‘भाइयो’ पुकारकर एक क्षण के लिए चुप हो जाती है। पुकार मँडराती हुई प्रतिध्वनित होती है- भाइयो… भाइयो…भाइयो…! एक अलमस्त जवान रिक्शाचालक है जो अकसर रात के सन्नाटे में सवारी पहुँचाकर लौटते समय इस गोलंबर के पास अलाप उठता है– ‘सुन मेरे बंधु रे-ए-न…सुन मोरे मितवा-वा-वा-य…’

शब्दार्थ-
फ़्लैट – अपार्टमेंट, एक कमरा या अधिक कमरे वाला आवासीय स्थान
जनसंपर्क – सार्वजनिक संबंध, सरकारी या संगठन से संबंधित प्रचार
लाउडस्पीकर – ध्वनि प्रसार उपकरण, जिससे आवाज़ दूर-दूर तक सुनाई देती है
घोषणा – सूचना देना, किसी बात का उद्घोषण
गोलंबर – एक गोल चौराहा, जहाँ चार रास्ते मिलते हैं
प्रतिध्वनित – गूंजना, ध्वनि का पुनरावृत्ति होना
सिनेमा अथवा लॉटरी – फिल्म या लॉटरी (टिकट का खेल, जिसमें पुरस्कार जीते जा सकते हैं)
अलमस्त – मस्त, खुश, या हलके-फुलके मूड में
सन्नाटा – चुप्प, शांति, कोई आवाज़ न होना
अलाप उठता है – गीत या स्वर को गाने की शुरुआत करना
बंधु – मित्र, भाई
मितवा – प्रियजन
सुन मेरे बंधु रे – सुन मेरे भाई, सुन मेरे मित्र
मोरे मितवा – मेरे प्रिय

व्याख्या- लेखक अपने फ्लैट में लौटते हैं और देखते हैं कि जनसंपर्क विभाग की गाड़ी लाउडस्पीकर से बाढ़ संबंधी घोषणाएँ करती हुई राजेंद्रनगर पहुँच चुकी है। लेखक बड़े ही संवेदनशील ढंग से उस स्थान की ध्वनियों का वर्णन करते हैं जहाँ वे रहते हैं—‘गोलंबर’ के पास चारों ओर ऊँची इमारतें हैं, जो किसी भी आवाज़ को कई बार प्रतिध्वनित करती हैं। यह ध्वनि-गुंजन वातावरण की एक अनोखी विशेषता बन जाती है।

सामान्य दिनों में सिनेमा या लॉटरी की प्रचार गाड़ी जैसे ही वहाँ पहुँचती है और “भाइयो!” कहकर रुकती है, तो वह आवाज़ चारों ओर टकराकर कई बार गूंजती है—“भाइयो… भाइयो… भाइयो…!” यह एक हास्यपूर्ण किंतु सजीव चित्र है जो दर्शाता है कि शहर की आवाज़ें भी अपनी एक पहचान रखती हैं।

इसके बाद लेखक एक स्थानीय रिक्शाचालक का ज़िक्र करते हैं जो अक्सर रात के समय, जब सब कुछ शांत होता है, एक भावुक गीत गाता है—“सुन मेरे बंधु रे…”—और वह भी इमारतों से टकराकर गूंजता है, जैसे शहर की आत्मा से संवाद करता हो। इस तरह लेखक बाढ़ जैसे संकट के बीच भी शहर की ध्वनि-छवियों को अत्यंत प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करते हैं।

 

पाठ- गोलंबर के पास जनसंपर्क की गाड़ी से ऐलान किया जाने लगा- “भाइयो! ऐसी संभावना है…कि बाढ़ का पानी…रात्रि के करीब बारह बजे तक…लोहानीपुर, कंकड़बाग…और राजेंद्रनगर में…घुस जाए। अतः आप लोग सावधान हो जाएँ।”

(प्रतिध्वनि-सावधान हो जाएँ! सावधान हो जाएँ!!)

मैंने गृहस्वामिनी से पूछा- “गैस का क्या हाल है?”

“बस, उसी का डर है। अब खत्म होने वाला है। असल में सिलिंडर में ‘मीटर-उटर’ की तरह कोई चीज़ नहीं होने से कुछ पता नहीं चलता। लेकिन, अंदाज़ है कि एक या दो दिन…कोयला हैं। स्टोव है। मगर किरासन एक ही बोतल…”

“फिलहाल, बहुत है…बाढ़ का भी यही हाल है। मीटर-उटर की तरह कोई-चीज़ नहीं होने से पता नहीं चलता कि कब आ धमके।”-मैंने कहा।

शब्दार्थ-
जनसंपर्क की गाड़ी – एक गाड़ी, जो प्रचार या सूचना फैलाने के लिए लाउडस्पीकर का उपयोग करती है
ऐलान – घोषणा, सूचना देना
संभावना – हो सकने का भाव
गैस – गैस सिलिंडर, जो खाना बनाने के लिए इस्तेमाल होता है
गृहस्वामिनी – घर की मालिकिन, घर की महिला मालिक
सिलिंडर – गैस का भंडारण करने वाला सिलिंडर
मीटर-उटर – मीटर रीडर या किसी मापने वाले यंत्र के जैसी कोई चीज़
अंदाज़ – अनुमान, नाप-तौल
कोयला – जलाने के लिए इस्तेमाल होने वाला लकड़ी
स्टोव – चूल्हा या खाना पकाने का उपकरण
किरासन – पेट्रोलियम तेल, जो स्टोव या चूल्हे में जलाने के लिए प्रयोग होता है
धमके – अचानक आना
फिलहाल – इस समय, वर्तमान में

व्याख्या- इस अंश में लेखक बाढ़ के संकट की बढ़ती गंभीरता का वर्णन करते हैं। जनसंपर्क विभाग की गाड़ी लाउडस्पीकर से लोगों को चेतावनी देती है कि रात बारह बजे तक बाढ़ का पानी राजेंद्रनगर, कंकड़बाग और लोहानीपुर जैसे इलाकों में प्रवेश कर सकता है। इस चेतावनी को लेखक विशेष रूप से ‘प्रतिध्वनि’ के माध्यम से प्रभावशाली बनाते हैं—जब “सावधान हो जाएँ!” की आवाज़ बार-बार गूंजती है, तो यह केवल एक सूचना नहीं रह जाती, बल्कि मन में डर और बेचैनी भी पैदा करती है।

ऐसे तनावपूर्ण माहौल में भी लेखक घरेलू तैयारी और हास्य का पुट नहीं छोड़ते। वे गृहस्वामिनी से गैस की स्थिति पूछते हैं, और यह चर्चा शुरू होती है कि सिलिंडर में गैस कितनी बची है, जिसे ठीक से जानने का कोई तरीका नहीं है। इस संदर्भ में लेखक बाढ़ की अनिश्चितता की तुलना गैस सिलिंडर से करते हैं—जैसे गैस का मीटर नहीं होता, वैसे ही बाढ़ का कोई मीटर नहीं है कि यह कब और कितनी तेजी से आ जाएगी।

लेखक के अनुसार जीवन की बड़ी आपदाएँ भी कभी-कभी रोज़मर्रा की चीज़ों की तरह अचानक और बिना चेतावनी के आ जाती हैं। इस अंश में व्यंग्यात्मक शैली देखने को मिलती है।

 

पाठ- सारे राजेंद्रनगर में ‘सावधान-सावधान’ ध्वनि कुछ देर गूँजती रही। ब्लॉक के नीचे की दुकानों से सामान हटाए जाने लगे। मेरे फ़्लैट के नीचे के दुकानदार ने, पता नहीं क्यों, इतना कागज़ इकट्ठा कर रखा था! एक अलाव लगाकर सुलगा दिया। हमारा कमरा धुएँ से भर गया।

सारा शहर जगा हुआ है। पच्छिम की ओर कान लगाकर सुनने की चेष्टा करता हूँ…हाँ पीरमुहानी या सालिमपुरा-अहरा अथवा जनक किशोर-नवलकिशोर रोड की ओर से कुछ हलचल की आवाज़ आ रही है। लगता है, एक-डेढ़ बजे रात तक पानी राजेंद्रनगर पहुँचेगा।

सोने की कोशिश करता हूँ। लेकिन नींद आएगी भी? नहीं, कांपोज़ की टिकिया अभी नहीं। कुछ लिखूँ? किंतु क्या लिखूँ…कविता? शीर्षक-बाढ़ आकुल प्रतीक्षा? धत्!!

नींद नहीं, स्मृतियाँ आने लगीं-एक-एक कर। चलचित्र के बेतरतीब दृश्यों की तरह!

 

शब्दार्थ-
ध्वनि गूँजना – आवाज़ का पुनः सुनाई देना
ब्लॉक – एक बड़ा भवन या इमारत का हिस्सा, या एक क्षेत्र
अलाव – जलती हुई आग, जलाने के लिए एक जगह पर रखी हुई लकड़ी या अन्य सामग्री
सुलगा दिया – जलाना, आग लगाना
हलचल – शोरगुल, हड़कंप
स्मृतियाँ – यादें
चलचित्र – फिल्म, चलचित्र का अर्थ चित्रों के चलते हुए दृश्यों से है
बेतरतीब – असंगत, बिना किसी क्रम के

व्याख्या- इस अंश में बाढ़ के भयावह आगमन का एक बेचैन और तनावपूर्ण चित्र खींचा गया है। जैसे ही जनसंपर्क विभाग की “सावधान-सावधान” की गूंज पूरे राजेंद्रनगर में फैलती है, शहर अचानक हलचल से भर उठता है। लोग अपने-अपने स्तर पर तैयारी में लग जाते हैं, दुकानों से सामान हटाया जाता है। लेखक के फ़्लैट के नीचे एक दुकानदार द्वारा जमा किए गए कागज़ों को जलाकर अलाव बना देता है। 

लेखक इस बेचैनी के क्षणों में अपने चारों ओर की हलचल को, दूर से आती हल्की आवाज़ों को ध्यानपूर्वक सुनते हैं। यह प्रतीक्षा और अनिश्चितता की स्थिति को दर्शाता है—पानी अभी नहीं आया, लेकिन आ सकता है, किसी भी पल।

नींद की कोशिश व्यर्थ हो जाती है, क्योंकि मन आशंका और स्मृतियों से घिरा होता है। ‘कांपोज़ की टिकिया’ यानी नींद की गोली, लेना भी लेखक नहीं चाहते, क्योंकि यह केवल शारीरिक निद्रा दिला सकती है, मानसिक बेचैनी नहीं मिटा सकती। कविता लिखने की कोशिश का विचार भी मन में आता है, पर ‘बाढ़ आकुल प्रतीक्षा’ जैसा शीर्षक खुद लेखक को व्यर्थ लगता है।

अंततः, नींद के स्थान पर स्मृतियाँ लेखक को घेर लेती हैं—अतीत के बेतरतीब दृश्य जैसे चलचित्र की भाँति मस्तिष्क में उभरने लगते हैं। यह पूरे अंश को गहराई और मानवीय संवेदना से भर देता है—जहाँ बाढ़ केवल एक प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि मन और स्मृति की एक यात्रा भी बन जाती है।

 

पाठ- 1947…मनिहारी (तब पूर्णिया, अब कटिहार ज़िला) के इलाके में गुरुजी (स्व, सतीनाथ भादुड़ी ) के साथ गंगा मैया की बाढ़ से पीड़ित क्षेत्र में हम नाव पर जा रहे हैं। चारों ओर पानी ही पानी। दूर, एक ‘द्वीप’ जैसा बालूचर दिखाई पड़ा। हमने कहा, वहाँ चलकर ज़रा चहलकदमी करके टाँगें सीधी कर लें। भादुड़ी जी कहते हैं-

“किंतु, सावधान! ऐसी जगहों पर कदम रखने के पहले यह मत भूलना कि तुमसे पहले ही वहाँ हर तरह के प्राणी शरणार्थी के रूप में मौजूद मिलेंगे” और सचमुच-चींटी-चींटे से लेकर साँप-बिच्छू और लोमड़ी-सियार तक यहाँ पनाह ले रहे थे…भादुड़ी जी की हिदायत थी-हर नाव पर ‘पकाही घाव’ (पानी में पैर की उँगलियाँ सड़ जाती हैं। तलवों में भी घाव हो जाता है) की दवा, दियासलाई की डिबिया और किरासन तेल रहना चाहिए और, सचमुच हम जहाँ जाते, खाने-पीने की चीज़ से पहले ‘पकाही घाव’ की दवा और दियासलाई की माँग होती…

शब्दार्थ-
मनिहारी – बिहार का एक क्षेत्र, जो पहले पूर्णिया ज़िले में था, अब कटिहार में है
गंगा मैया की बाढ़ – गंगा नदी की बाढ़
चहलकदमी – थोड़ी देर पैदल चलना, टहलना
टाँगें सीधी करना – आराम करना, थकान दूर करना
शरणार्थी – जो किसी आपदा से बचने के लिए किसी सुरक्षित जगह पर शरण ले
बालूचर – रेत की ऊँची जगह, जो पानी में द्वीप जैसी लगती है
हिदायत – सलाह या चेतावनी
पकाही घाव – पानी में लगातार रहने से पैरों की उंगलियों या तलवों में होने वाला सड़नयुक्त घाव
दियासलाई की डिबिया – माचिस की डिब्बी
किरासन तेल – मिट्टी का तेल (केरोसीन), जलाने या कीट भगाने के लिए

व्याख्या- इस अंश में लेखक 1947 की बाढ़ की एक पुरानी स्मृति को साझा करते हैं, जब वे मनिहारी (जो अब कटिहार ज़िले में है) क्षेत्र में स्वर्गीय सतीनाथ भादुड़ी के साथ गंगा नदी की बाढ़ से प्रभावित क्षेत्रों में राहत कार्यों के लिए नाव से जा रहे थे। चारों ओर फैला हुआ पानी एक भयावह और अनिश्चित स्थिति को दर्शाता है। जब एक बालू के टीले (बालूचर) को देखकर वहाँ उतरने की इच्छा होती है, तो भादुड़ी जी की चेतावनी मिलती है कि इन अस्थायी द्वीपों पर पहले से ही अनेक प्रकार के जीव-जंतु—जैसे चींटे, साँप, बिच्छू, लोमड़ी आदि—शरण लिए हुए होते हैं। 

भादुड़ी जी की व्यावहारिक समझदारी और अनुभव से भरी सलाह—कि हर नाव पर ‘पकाही घाव’ की दवा, माचिस, और मिट्टी का तेल जरूर होना चाहिए—बाढ़ की विकट परिस्थितियों में जीवन-रक्षा के साधनों की अनिवार्यता को दर्शाती है। ‘पकाही घाव’ उस बीमारी को कहा गया है जिसमें लगातार पानी में रहने से पैरों की त्वचा गलने लगती है। 

यह अंश केवल एक संस्मरण नहीं, बल्कि बाढ़ के समय की भयंकर असुविधा, जोखिम, मानवीय संघर्ष और संवेदनशील तैयारी का गहरा दस्तावेज़ बन जाता है।

 

पाठ- 1949…उस बार महानंदा की बाढ़ से घिरे बापसी थाना के एक गाँव में हम पहुँचे। हमारी नाव पर रिलीफ़ के डाक्टर साहब थे। गाँव के कई बीमारों को नाव पर चढ़ाकर कैंप में ले जाना था। एक बीमार नौजवान के साथ उसका कुत्ता भी ‘कुंई-कुंई’ करता हुआ नाव पर चढ़ आया। डाक्टर साहब कुत्ते को देखकर ‘भीषण भयभीत’ हो गए और चिल्लाने लगे- “आ रे! कुकुर नहीं, कुकुर नहीं …कुकुर को भगाओ!” बीमार नौजवान, छप-से पानी में उतर गया- “हमार कुकुर नहीं जाएगा तो हम हुँ नहीं जाएगा।” फिर कुत्ता भी छपाक पानी में गिरा- “हमारा आदमी नहीं जाएगा तो हम हूँ नहीं जाएगा” …परमान नदी की बाढ़ में डूबे हुए एक ‘मुसहरी’ (मुसहरों की बस्ती) में हम राहत बाँटने गए। खबर मिली थी वे कई दिनों से मछली और चूहों की झुलसाकर खा रहे हैं। किसी तरह जी रहे हैं। किंतु टोले के पास जब हम पहुँचे तो ढोलक और मंजीरा की आवाज़ सुनाई पड़ी। जाकर देखा, एक ऊँची जगह ‘मचान’ बनाकर स्टेज की तरह बनाया गया है। ‘बलवाही’ नाच हो रहा था। लाल साड़ी पहनकर काला-कलूटा ‘नटुआ’ ‘दुलहिन का हाव-भाव दिखला रहा था; यानी, वह ‘धानी’ है। ‘घरनी’ (धानी) घर छोड़कर मायके भागी जा रही है और उसका घरवाला (पुरुष) उसको मनाकर राह से लौटाने गया है। इस पद के साथ ही ढोलक पर द्रुत ताल बजने लगा- ‘धागिड़गिड़-धागिड़गिड़-चकैके चकधुम चकैके चकधुम-चकधुम चकधुम!’ 

शब्दार्थ-
महानंदा – बिहार की एक प्रमुख नदी
बापसी थाना – एक पुलिस थाना क्षेत्र (थाने का नाम)
रिलीफ़ के डाक्टर साहब – राहत कार्यों के लिए नियुक्त डॉक्टर
कुंई-कुंई – कुत्ते की रोती हुई आवाज़
भीषण भयभीत – बहुत ज़्यादा डरा हुआ
कुकुर – कुत्ता
छप-से – तेज़ी से पानी में उतरना
हमार – हमारा
हम हुँ नहीं जाएगा – मैं भी नहीं जाऊँगा
परमान नदी – बिहार की एक और नदी
मुसहरी – एक जाति (आदिवासी) जो दोने, पत्तलें आदि बनाने का काम करती है
राहत बाँटना – मदद के लिए खाना, दवा आदि देना
झुलसाकर – आग से हल्का सा जलाकर
मचान – लकड़ी या बांस से बनी ऊँची जगह
बलवाही नाच – एक प्रकार का लोक-नृत्य
नटुआ – गाँवों में नाच-गाना करने वाला कलाकार
दुलहिन का हाव-भाव – दुल्हन की तरह चलने-फिरने और चेहरे के भाव दिखाना
धानी / घरनी – स्त्री (पत्नी)
द्रुत ताल – तेज़ गति से बजाई जाने वाली ताल (बीट)

व्याख्या- इस संस्मरण में लेखक 1949 की महानंदा नदी की भीषण बाढ़ के समय के अनुभव साझा कर रहे हैं। वे एक बाढ़ग्रस्त गाँव में राहत लेकर पहुँचते हैं, जहाँ नाव पर एक डॉक्टर भी साथ हैं, जिन्हें बाढ़ पीड़ितों को चिकित्सा सहायता देनी है। गाँव के एक बीमार नौजवान के साथ उसका वफादार कुत्ता भी नाव पर चढ़ जाता है। यह दृश्य मानवीय संवेदना और पशु-पक्षियों के साथ रिश्ते को उजागर करता है। लेकिन डॉक्टर कुत्ते को देखकर डर जाते हैं और उसे भगाने लगते हैं। नौजवान का जवाब अत्यंत भावुक और मार्मिक है—वह कहता है कि अगर उसका कुत्ता नहीं जाएगा तो वह भी इलाज के लिए नाव पर नहीं जाएगा। यह दिखाता है कि संकट की घड़ी में भी प्रेम और निष्ठा को लोग कितनी प्राथमिकता देते हैं। और आश्चर्यजनक रूप से, कुत्ता भी अपने मालिक के लिए पानी में कूद पड़ता है—जैसे कि वह कह रहा हो कि अगर मेरा आदमी नहीं जाएगा, तो मैं भी नहीं जाऊँगा।

इसके बाद लेखक एक और जगह जाते हैं—परमान नदी की बाढ़ में डूबी हुई एक मुसहरों की बस्ती में, जहाँ खबर थी कि लोग कई दिनों से मछली और चूहे झुलसाकर खाकर किसी तरह जी रहे हैं। यह सुनकर हम किसी अत्यंत दुखद, हताश, और नीरस स्थिति की कल्पना करते हैं। लेकिन जब वे वहाँ पहुँचते हैं, तो ढोलक और मंजीरे की गूँज सुनाई देती है। लोग ‘बलवाही’ नाच देख रहे हैं, जिसमें नटुआ महिला की भूमिका निभा रहा है और ‘धानी’ के मायके जाने के दृश्य को दिखा रहा है। जो अपने मायके भागी जा रही है, और उसका पति उसे मनाने के लिए उसके पीछे-पीछे गया है। यह लोकगीत या पद पारिवारिक जीवन की एक साधारण घटना को हँसी-ठिठोली और नाटकीयता से भर देता है। और जैसे ही यह संवाद होता है, ढोलक पर तेज़ ताल की लय शुरू हो जाती है—‘धागिड़गिड़-धागिड़गिड़-चकैके चकधुम…’ यह ध्वनि पूरे दृश्य में उत्साह और जीवंतता भर देती है।

यह पूरा दृश्य ग़रीबी, संकट और अभाव के बीच भी जीवन के उत्सवमय भाव को दर्शाता है। यह दृश्य बाढ़ जैसी त्रासदी को भी चुनौती देता है। 

 

पाठ- कीचड़-पानी में लथपथ  भूखे-प्यासे-नर-नारियों के झुंड में मुक्त खिलखिलाहट लहरें लेने लगती है। हम रिलीफ़ बाँटकर भी ऐसी हँसी उन्हें दे सकेंगे क्या! (शास्त्री जी, आप कहाँ है?) बलवाही नाच की बात उठते ही मुझे अपने परम मित्र भोला शास्त्री की याद हमेशा क्यों आ जाती है? यह एक बार, 1937 में, सिमरवनी-शंकरपुर में बाढ़ के समय ‘नाव’ को लेकर लड़ाई हो गई थी। मैं उस समय ‘बालचर’ (ब्वाय स्काउट) था। गाँव के लोग नाव के अभाव में केले के पौधे का ‘भेला’ बनाकर किसी तरह काम चला रहे थे। वहीं ज़मींदार के लड़के नाव पर हरमोनियम-तबला के साथ झिंझिर (जल-विहार) करने निकले थे। गाँव के नौजवानों ने मिलकर उनकी नाव छीन ली थी। थोड़ी मारपीट भी हुई थी…

शब्दार्थ-
लथपथ – सने हुए
मुक्त खिलखिलाहट – बिना किसी कारण या दबाव के आई जोरदार हँसी
रिलीफ़ बाँटना – बाढ़ पीड़ितों को राहत सामग्री (खाना, कपड़ा आदि) देना
भोला शास्त्री – लेखक के घनिष्ठ मित्र का नाम
बालचर – स्काउटिंग करने वाला (ब्वॉय स्काउट)
केले के पौधे का ‘भेला’ – केले के तनों को बाँधकर बनाई गई अस्थायी नाव
जल-विहार – पानी में मौज-मस्ती करना
झिंझिर – आनंद मनाना, जल में सैर करना
हरमोनियम-तबला – संगीत वाद्ययंत्र

व्याख्या- इस अंश में बताया गया है कि कीचड़-पानी में लथपथ, भूखे-प्यासे नर-नारी जब बिना किसी बनावटीपन के मुक्त खिलखिलाहट के साथ हँसते हैं, तो यह दृश्य लेखक को चकित करता है। वह सोचते हैं कि क्या राहत सामग्री बाँटकर हम उन्हें वैसी खुशी, वैसा सच्चा आनंद दे सकते हैं। 

बलवाही नाच की चर्चा आते ही लेखक को अपने पुराने मित्र भोला शास्त्री की याद आ जाती है, जो शायद इस लोकनाट्य या लोकसंस्कृति से जुड़े रहे होंगे। यह याद लेखक को 1937 की बाढ़ के समय की ओर ले जाती है जब वे ‘बालचर’ यानी ब्वॉय स्काउट थे। उस समय सिमरवनी-शंकरपुर गाँव में लोगों के पास नाव नहीं थी, इसलिए वे केले के तनों का ‘भेला’ बनाकर आवाजाही कर रहे थे। वहीं ज़मींदार के लड़के अपनी नाव पर हारमोनियम-तबला लेकर जलविहार कर रहे थे।

गाँव के नौजवानों ने जब उनकी नाव छीन ली, तो यह एक तरह का जन-संवेदनात्मक विद्रोह था। यह स्मृति लेखक के मन में लोक चेतना, सामूहिकता और अपने मित्र के साथ बिताए पुराने दिनों की एक झलक लेकर आती है।

 

पाठ- और 1967 में जब पुनपुन का पानी राजेंद्रनगर में घुस आया था, एक नाव पर कुछ सजे-धजे युवक और युवतियों की टोली किसी फ़िल्म में देखे हुए कश्मीर का आनंद घर-बैठे लेने के लिए निकली थी। नाव पर स्टोव जल रहा था-केतली चढ़ी हुई थी, बिस्कुट के डिब्बे खुले हुए थे, एक लड़की प्याली में चम्मच डालकर एक अनोखी अदा से नेस्कैफे के पाउडर को मथ रही थी- ‘एस्प्रेसो’ बना रही थी, शायद। दूसरी लड़की बहुत मनोयोग से कोई सचित्र और रंगीन पत्रिका पढ़ रही थी। एक युवक दोनों पाँवों को फैलाकर बाँस की लग्गी से नाव खे रहा था। दूसरा युवक पत्रिका पढ़ने वाली लड़की के सामने, अपने घुटने पर कोहनी टेककर कोई मनमोहक ‘डायलॉक’ बोल रहा था। पूरे ‘वॉल्यूम’ में बजते हुए ‘ट्रांज़िस्टर’ पर गाना आ रहा था- ‘हवा में उड़ता जाए, मोरा लाल दुपट्टा मलमल का, हो जी हो जी!’ हमारे ब्लॉक के पास गोलंबर में नाव पहुँची थी कि अचानक चारों ब्लॉक की छतों पर खड़े लड़कों ने एक ही साथ किलकारियों, सीटियों, फब्तियों की वर्षा कर दी और इस गोलंबर में किसी भी आवाज़ की प्रतिध्वनि मँडरा-मँडराकर गूँजती है। सो सब मिलाक स्वयं ही जो ध्वनि संयोजन हुआ, उसे बड़े-से-बड़े गुणी संगीत निर्देशक बहुत कोशिश के बावजूद नहीं कर पाते। उन फूहड़ युवकों की सारी ‘एक्ज़बिशनिज़्म’ तुरंत छुमंतर हो गई और युवतियों के रंगे लाल-लाल ओंठ और गाल काले पड़ गए। नाव पर अकेला ट्रांजिस्टर था जो पूरे दम के साथ मुखर था- ‘नैया तोरी मंझधार, होश्यार होश्यार’!

“काहो रामसिंगार, पनियां आ रहलो है?”

“ऊँहूँ, न आ रहलौ है।”

शब्दार्थ-
पुनपुन का पानी – पुनपुन नदी का बाढ़ का पानी
सजे-धजे युवक और युवतियाँ – अच्छे कपड़े पहनकर तैयार हुए लड़के और लड़कियाँ
लग्गी से नाव खे रहा था – बाँस की लंबी छड़ी से नाव चला रहा था
डायलॉक – संवाद
फब्तियों की वर्षा – व्यंग्यपूर्ण और चुटीली बातें, सीटियाँ और किलकारियाँ
प्रतिध्वनि – गूँजती हुई आवाज़
एक्ज़बिशनिज़्म – प्रदर्शनवाद
छुमंतर हो गई – अचानक गायब हो गई
मुखर – ज़ोर से बोलने वाला, स्पष्ट आवाज़ में
नैया तोरी मंझधार – तुम्हारी नाव बीच धार में है
होश्यार होश्यार – सावधान!
काहो रामसिंगार, पनियां आ रहलो है? – कहो रामसिंगार, पानी आ रहा है क्या?
ऊँहूँ, न आ रहलौ है। – नहीं, नहीं आ रहा है।

व्याख्या- 1967 में पुनपुन नदी की बाढ़ के समय राजेंद्रनगर जलमग्न हो गया था। इसी दौरान लेखक ने एक दृश्य देखा जो बाढ़ की त्रासदी के बीच हास्य और विडंबना का अनूठा उदाहरण है। कुछ सजे-धजे युवक और युवतियाँ नाव पर सवार होकर मानो किसी फिल्मी सीन को साकार कर रहे थे। नाव पर स्टोव जल रहा था, उस पर केतली चढ़ी थी, बिस्कुट के डिब्बे खुले थे, और एक युवती नेस्कैफे को चम्मच से मथ रही थी—शायद ‘एस्प्रेसो’ बना रही थी। दूसरी युवती रंगीन पत्रिका पढ़ने में तल्लीन थी। एक युवक लग्गी से नाव खे रहा था जबकि दूसरा युवक युवती के सामने रोमांटिक अंदाज़ में कुछ बोल रहा था। ट्रांजिस्टर पर “हवा में उड़ता जाए मोरा लाल दुपट्टा मलमल का” जैसे गाने बज रहे थे।

लेकिन जैसे ही यह नाव राजेंद्रनगर के गोलंबर के पास पहुँची, वहाँ की छतों पर खड़े स्थानीय लड़कों ने जोरदार किलकारियों, फब्तियों और सीटियों की बौछार कर दी। चूँकि गोलंबर की बनावट प्रतिध्वनि को और बढ़ा देती है, आवाजें गूँजती रहीं और माहौल एक तमाशे में बदल गया। इस शोर-शराबे और हँसी-मज़ाक से नाव पर बैठे लोगों की सारा ‘एक्ज़िबिशनिज़्म’ (दिखावटी व्यवहार) शान्त हो गया। युवतियों के चेहरे शर्म और संकोच से काले पड़ गए। केवल ट्रांजिस्टर की आवाज़ रह गई—”नैया तोरी मंझधार, होशियार होशियार।”

यह दृश्य लेखक के व्यंग्यात्मक दृष्टिकोण को उजागर करता है—जहाँ एक ओर बाढ़ जैसी त्रासदी है, वहीं दूसरी ओर कुछ लोग उसे एक अवसर की तरह लेते हुए उसका आनंद लेने की कोशिश कर रहे हैं।

 

पाठ- ढाई बज गए, मगर पानी अब तक आया नहीं, लगता है कहीं अटक गया, अथवा जहाँ तक आना था आकर रुक गया, अथवा तटबंध पर लड़ते हुए इंजीनियरों की जीत हो गई शायद, या कोई दैवी चमत्कार हो गया! नहीं तो पानी कहीं भी जाएगा तो किधर से? रास्ता तो इधर से ही है…चारों ब्लॉकों के प्राय: सभी फ़्लैटों की रोशनी जल रही है, बुझ रही है। सभी जगे हुए हैं। कुत्ते रह-रहकर सामूहिक रुदन करते हैं और उन्हें रामसिंगार की मंडली डाँटकर चुप करा देती है चौप…चौप!

मुझे अचानक अपने उन मित्रों और स्वजनों की याद आई जो कल से ही पाटलिपुत्र कॉलोनी, श्रीकृष्णपुरी, बोरिंग रोड के अथाह जल में घिरे हैं…जितेंद्र जी, विनीता जी, बाबू भैया, इंदिरा जी, पता नहीं कैसे हैं-किस हाल में हैं वे! शाम को एक बार पड़ोस में जाकर टेलीफ़ोन करने के लिए चोंगा उठाया-बहुत देर तक कई नंबर डायल करता रहा। उधर सन्नाटा था एकदम। कोई शब्द नहीं- ‘टुंग फुंग’ कुछ भी नहीं।

शब्दार्थ-
ढाई बज गए – रात के 2:30 बजे हैं
अटक गया – कहीं रुक गया, ठहर गया
तटबंध पर लड़ते हुए इंजीनियरों की जीत – बाँध को टूटने से रोकने में इंजीनियरों की सफलता
दैवी चमत्कार – भगवान की कृपा से चमत्कारी रूप से बचाव
सामूहिक रुदन – कई कुत्तों का एक साथ रोना
मंडली – समूह, टोली
चौप चौप – चुप रहने का आदेश देने की ध्वनि
स्वजन – अपने करीबी लोग
अथाह जल – गहरा और फैलता हुआ बाढ़ का पानी
चोंगा – टेलीफोन का रिसीवर
टुंग फुंग – कोई भी टोन या आवाज़ नहीं 

व्याख्या- यह अंश लेखक की उस स्थिति को दर्शाता है जब वह बाढ़ की आशंका के बीच अपने फ़्लैट में बैठा है, रात के ढाई बज चुके हैं, लेकिन पानी अब तक नहीं आया। वह संभावनाएँ गिनाने लगता है—शायद पानी कहीं अटक गया है, शायद तटबंध टूटने से इंजीनियरों का प्रयास सफल हो गया है या शायद कोई दैवी चमत्कार हो गया है। लेखक जानता है कि पानी को यदि आना है, तो इसी रास्ते से आएगा। इस बीच पूरे ब्लॉक की रोशनी जलती-बुझती रहती है, संकेत देती है कि सभी लोग चिंतित और जागरूक हैं।

कुत्तों का रोना वातावरण की अनिश्चितता और डर को और बढ़ा देता है, जिसे रामसिंगार की मंडली ‘चौप-चौप’ कहकर शांत करने की कोशिश करती है। इसी क्षण लेखक की सोच अपने मित्रों और प्रियजनों की ओर चली जाती है, जो पहले से ही बाढ़ से घिरे इलाकों में फंसे हुए हैं—पाटलिपुत्र कॉलोनी, श्रीकृष्णपुरी, बोरिंग रोड। लेखक इस चिंता में है कि वे किस हाल में होंगे।

लेखक बताता है कि उसने शाम को एक बार पड़ोस में जाकर टेलीफोन से संपर्क करने की कोशिश की थी, लेकिन असफल रहा—लाइन एकदम शांत थी, कोई टोन, कोई आवाज़ नहीं। यह असहायता की स्थिति चिंताओं को और गहरा बना देती है।

 

पाठ- बिस्तर पर करवट लेते हुए फिर एक बार मन में हुआ, कुछ लिखना चाहिए। लेकिन क्या लिखना चाहिए? कुछ भी लिखना संभव नहीं और क्या ज़रूरी है कि कुछ लिखा ही जाए? नहीं। फिर स्मृतियों को जगाऊँ तो अच्छा …पिछले साल अगस्त में नरपतगंज थाना चकरदाहा गाँव के पास छातीभर पानी में खड़ी एक आसन्नप्रसवा हमारी ओर गाय की तरह टुकुर-टुकुर देख रही थी…

नहीं, अब भूली-बिसरी याद नहीं। बेहतर है, आँखें मूँदकर सफ़ेद भेड़ों के झुंड देखने की चेष्टा करूँ…उजले-उजले सफ़ेद भेड़…सफ़ेद भेड़ों के झुंड। झुंड…किंतु सभी उजले भेड़ अचानक काले हो गए। बार-बार आँखें खोलता हूँ, मूँदता हूँ। काले को उजला करना चाहता हूँ। भेड़ों के झुंड भूरे हो जाते हैं। उजले भेड़…उजले भेड़…काले भूरे…किंतु उजले…उजले…गेहुएँ रंग के भेड़…!

‘ओई द्याखो-एसे गेछे जल!’ – झकझोरकर मुझे जगाया गया। घड़ी देखी, ठीक साढ़े पाँच बज रहे थे। सवेरा हो चुका था…आ रहलौ है! आ रहलौ है पनियां। पानी आ गेलौ। हो रामसिंगार! हो मोहन! रामचन्नर-अरे हो…

शब्दार्थ-
करवट लेना – सोने की कोशिश करना, लेकिन बेचैनी के कारण करवट बदलते रहना
आसन्नप्रसवा –  जिसे आजकल में ही बच्चा होने वाला हो
टुकुर-टुकुर देखना – बिना पलक झपकाए लगातार देखना
भूली-बिसरी याद – पुरानी और कभी-कभी भूल जाने वाली स्मृतियाँ
झकझोरकर – जोर से हिला कर, झटका देकर
आ रहलौ है! – पानी आ रहा है!

व्याख्या- इस अंश में लेखक की मानसिक बेचैनी और असहायता व्यक्त हुई है। वह रातभर करवटें बदलते हुए कभी कुछ लिखने की सोचते हैं, कभी स्मृतियों में खोने की कोशिश करते हैं, लेकिन भीतर की व्याकुलता उन्हें  स्थिर नहीं रहने देती। लेखक की स्मृति में पिछले साल का दृश्य उभरता है, जब एक बाढ़-ग्रस्त इलाके (नरपतगंज थाना, चकरदाहा गाँव) में एक गर्भवती महिला छातीभर पानी में खड़ी थी। वह बेहद निरीह और असहाय नजरों से लेखक की ओर देख रही थी — जैसे कोई मूक जानवर, विशेषकर गाय, जो केवल देखने के सिवा कुछ कर नहीं सकती। वह अपनी सोच को किसी रचनात्मक दिशा में मोड़ना चाहता हैं—कभी बीती बाढ़ की घटनाओं को याद कर, कभी ध्यान हटाने के लिए आँखें मूँदकर सफ़ेद भेड़ों की कल्पना करके, जैसे छोटे बच्चे नींद के लिए करते हैं।

लेकिन भेड़ों की यह कल्पना भी विफल हो जाती है—उजली भेड़ें अचानक काली, भूरे और गेहुएँ रंग में बदल जाती हैं। लेखक उजाले और शांति की तलाश करते हैं, मगर हर बार अंधेरे और चिंता से टकरा जाते हैं। रात की यह बेचैनी मन की गहराइयों में छिपे डर और संकट की आहट को दर्शाती है।

और फिर—अचानक सुबह हो जाती है। किसी की आवाज़ यह कहते हुए कि ओई द्याखो-एसे गेछे जल!, उन्हें जगा देती है। घड़ी बताती है कि सवेरा हो गया है—पानी वाकई आ गया है। अब तक जो बस आशंका थी, वह हकीकत बन चुकी है। आपदा सामने खड़ी होती है।

रामसिंगार, मोहन, रामचन्नर जैसे नाम पुकारे जा रहे हैं—संकेत है कि अब सबको जागकर स्थिति का सामना करना होगा। अंततः पानी आ ही गया।

Is Jal Pralay Mein Summary img3

पाठ- आँखें मलता हुआ उठा। पच्छिम की ओर, थाना के सामने सड़क पर मोटी डोली की शक्ल में-मुँह में झाग-फेन लिए-पानी आ रहा है; ठीक वैसा ही जैसा शाम को कॉफ़ी हाउस के पास देखा था। पानी के साथ-साथ चलता हुआ, किलोल करता हुआ बच्चों का एक दल…उधर पच्छिम-दक्षिण कोने पर दिनकर अतिथिशाला से और बस्ती के पास के पास बच्चे कूद क्यों रहे हैं? नहीं, बच्चे नहीं, पानी है। वहाँ मोड़ है, थोड़ा अवरोध है-इसलिए पानी उछल रहा है…पच्छिम-उत्तर की ओर, ब्लॉक नंबर एक के पास पुलिस चौकी के पिछवाड़े में पानी का पहला रेला आया…ब्लॉक नंबर चार के नीचे सेठ की दुकान की बाएँ बाज़ू में लहरें नाचने लगीं।

अब मैं दौड़कर छत पर चला गया। चारों ओर शोर-कोलाहल-कलरव-चीख-पुकार और पानी का कलकल रव। लहरों का नर्तन। सामने फुटपाथ को पार कर अब पानी हमारे पिछवाड़े में सशक्त बहने लगा है। गोलबंर के गोल पार्क के चारों ओर पानी नाच रहा है…आ गया, आ गया! पानी बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है, चढ़ रहा है, करेंट कितना तेज़ है? सोन का पानी है। नहीं, गंगा जी का है। आ गैलो…

सामने की दीवार की ईंटें जल्दी-जल्दी डूबती जा रही हैं। बिजली के खंभे का काला हिस्सा डूब गया। ताड़ के पेड़ का तना क्रमश: डूबता जा रहा है…डूब रहा है।

शब्दार्थ-
किलोल– खेल, आनंद
दल – झुण्ड
अवरोध– रूकावट
बाज़ू– बाँह
शोर-कोलाहल-कलरव-चीख-पुकार – शोर-शराबा
सशक्त– शक्तिवान
क्रमश:– क्रम से, एक एक करके 

व्याख्या- लेखक नींद से उठते हैं और अलसाई अवस्था में हैं। वे देखते हैं कि पश्चिम दिशा से, थाने के सामने की सड़क पर बाढ़ का पानी एक भारी सवारी (डोली) की तरह धीरे-धीरे आ रहा है, और उसमें झाग व फेन (झागदार पानी) है। यह दृश्य लेखक को पिछली शाम का दृश्य याद दिलाता है, जहाँ उन्होंने ऐसे ही पानी को कॉफी हाउस के पास देखा था। पानी के साथ खेलते हुए बच्चों का एक समूह भी दौड़ता चला आ रहा है। वे आनंदित हैं। लेखक को दूर से लगता है कि दिनकर अतिथिशाला (गेस्ट हाउस) और बस्ती के पास बच्चे उछल-कूद कर रहे हैं। लेखक को भ्रम हुआ था कि वहाँ बच्चे कूद रहे हैं, लेकिन वास्तव में पानी था जो किसी मोड़ या रुकावट से टकराकर उछल रहा था।अब पश्चिम-उत्तर दिशा की ओर ब्लॉक नंबर एक के पास स्थित पुलिस चौकी के पीछे पानी की पहली तेज़ लहर आ चुकी थी। ब्लॉक नंबर चार के नीचे स्थित दुकान के एक तरफ पानी की लहरें तेजी से बहने लगीं, जैसे वे नृत्य कर रही हों। 

इस आपात स्थिति को देख लेखक सुरक्षा हेतु ऊपर छत पर चले जाते हैं। सभी तरफ शोर, लोगों की आवाजें, घबराहट, और पानी की तेज़ आवाजें हैं — पानी की लहरें जैसे नाच रही हों। अब पानी सड़क पार कर लेखक के घर के पीछे की ओर तेज़ी से बह रहा है। गोलाकार पार्क में चारों ओर बाढ़ का पानी चक्कर काटते हुए फैल गया है, और लोग चिल्ला रहे हैं—”पानी आ गया!” पानी न केवल फैल रहा है, बल्कि ऊँचाई में भी बढ़ रहा है। उसकी गति भी बहुत तेज़ है। लोगों में यह संशय है कि यह बाढ़ का पानी सोन नदी से आया है या गंगा से। वे कहते हैं कि पानी आ गया।  बाढ़ के पानी में दीवारें धीरे-धीरे नहीं बल्कि तेज़ी से डूब रही हैं। पानी की ऊँचाई इतनी बढ़ गई है कि बिजली के खंभे का जो हिस्सा पहले बाहर था, अब वह भी डूब गया है। अब तो पेड़ों के तने तक धीरे-धीरे पानी में समा रहे हैं। दृश्य भयावह होता जा रहा है।

 

पाठ – …अभी यदि मेरे पास मूवी कैमरा होता, अगर एक टेप-रिकार्डर होता! बाढ़ तो बचपन से ही देखता आया हूँ, किंतु पानी का इस तरह आना कभी नहीं देखा। अच्छा हुआ जो रात में नहीं आया। नहीं तो भय के मारे न जाने मेरा क्या हाल होता…देखते ही देखते गोल पार्क डूब गया। हरियाली लोप हो गई। अब हमारे चारों ओर पानी नाच रहा था…भूरे रंग के भेड़ों के झुंड। भेड़ दौड़ रहे हैं- भूरे भेड़, वह चायवाले की झोंपड़ी गई, चली गई। काश, मेरे पास एक मूवी कैमरा होता, एक टेप-रिकार्डर होता… तो क्या होता? अच्छा है, कुछ भी नहीं। कलम थी, वह भी चोरी चली गई। अच्छा है, कुछ भी नहीं-मेरे पास।

शब्दार्थ-
कैमरा– तस्वीर या वीडियो रिकॉर्ड करने का यंत्र
टेप-रिकॉर्डर– ध्वनि को रिकॉर्ड करने और बजाने का उपकरण
लोप– अभाव, गायब  

व्याख्या- इस अंश में लेखक अपने चारों ओर फैली बाढ़ की भयानक स्थिति को बता रहे हैं। उन्हें लगता है कि यदि उसके पास मूवी कैमरा या टेप-रिकॉर्डर होता, तो वह इस प्राकृतिक दृश्य को रिकॉर्ड कर पाते। वह कहते हैं कि बचपन से बाढ़ देखी है, पर इस बार का अनुभव बिलकुल अलग और डरावना है। वह राहत की साँस लेते हैं कि यह सब रात में नहीं हुआ, वरना भय के कारण वह टूट जाते। गोल पार्क की हरियाली डूब चुकी है और चारों ओर केवल पानी है, जो भूरे रंग की भेड़ों की तरह भागता हुआ प्रतीत होता है। ये भेड़ें प्रतीक हैं – पानी की उफनती लहरें जैसे बेकाबू जानवरों की तरह दौड़ रही हैं। वह यह भी बताते हैं कि सब कुछ डूबता जा रहा है – चायवाले की झोपड़ी भी बह गई। अंत में लेखक कहते हैं कि अच्छा ही है, उसके पास कुछ भी नहीं – कैमरा, टेप-रिकॉर्डर या यहाँ तक कि कलम भी नहीं – मानो वह इस भयावह त्रासदी को शब्दों में बाँधना भी नहीं चाहते। यह एक प्रकार की असहाय स्वीकृति है – प्रकृति के सामने मनुष्य कितना छोटा और असहाय है।

Conclusion

दिए गए पोस्ट में हमने ‘इस जल प्रलय में’ नामक पाठ के सारांश, पाठ व्याख्या और शब्दार्थ को जाना। ये पाठ कक्षा 9 हिंदी के पाठ्यक्रम में कृतिका पुस्तक से लिया गया है। फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ द्वारा लिखा गया यह पाठ पटना शहर में आई बाढ़ के दौरान एक आम नागरिक के अनुभवों, भावनाओं और भय को दर्शाता है। लेखक की संवेदनशील दृष्टि, मानवीय भावनाओं की गहराई और सामाजिक यथार्थ का चित्रण इस पाठ को विशेष बनाता है। इस पोस्ट को पढ़ने से विद्यार्थी अच्छी तरह से समझ पाएँगे कि बाढ़ जैसे प्राकृतिक संकट का प्रभाव किस प्रकार व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को प्रभावित करता है। परीक्षाओं में प्रश्नों को आसानी से हल करने में भी विद्यार्थियों के लिए यह पोस्ट सहायक है।