मेरे बचपन के दिन पाठ सार

 

CBSE Class 9 Hindi Chapter 6 “Mere Bachpan Ke Din”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kshitij Bhag 1 Book

 

मेरे बचपन के दिन सार – Here is the CBSE Class 9 Hindi Kshitij Bhag 1 Chapter 6 Mere Bachpan Ke Din Summary with detailed explanation of the lesson ‘Mere Bachpan ke Din’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary

 

इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 9 हिंदी कोर्स ए क्षितिज भाग 1 के पाठ 6 मेरे बचपन के दिन पाठ सार , पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप  इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें।  चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 9 मेरे बचपन के दिन पाठ के बारे में जानते हैं।

 

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Mere Bachpan Ke Din  (मेरे बचपन के दिन)

 

मेरे बचपन के दिन पाठ प्रवेश (Mere Bachpan Ke Din Introduction)

 

Mere Bachpan Ke Din Summary Image 1इस अध्याय में लेखिका ने अपने बचपन की स्मृतियों को सरल और भावपूर्ण ढंग से साझा किया है। उन्होंने अपने परिवार, शिक्षा, संस्कारों और समाज के माहौल का वर्णन किया है। लेखिका के बचपन में विशेष परिस्थितियाँ थीं, जैसे उनके परिवार में पीढ़ियों बाद एक लड़की का जन्म होना। उन्हें विशेष आदर और प्रेम मिला, जिससे उनका बचपन अन्य लड़कियों से अलग था।

इस पाठ में हमें उनके स्कूल के अनुभव, सुभद्रा कुमारी चौहान के साथ उनकी मित्रता, कवि-सम्मेलनों में भागीदारी और सामाजिक ताल-मेल की झलक मिलती है। यह पाठ भारतीय समाज के उस दौर को दीखाता है, जहाँ विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों और परंपराओं का सुंदर मेल था। इन यादों के माध्यम से लेखिका ने यह भी दिखाया है कि बचपन के संस्कार और रिश्ते जीवनभर साथ रहते हैं।

 

मेरे बचपन के दिन पाठ सार (Mere Bachpan Ke Din Summary)

 

इस पाठ में लेखिका ने अपने बचपन की यादों को सरल और प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। उन्होंने बताया है कि उनका बचपन एक ऐसे परिवार में बीता जहाँ पीढ़ियों तक कोई लड़की नहीं हुई थी। पुराने समय में लड़कियों को पैदा होते ही मार दिया जाता था। उनके बाबा ने दुर्गा माँ की पूजा की, और उनके जन्म के बाद परिवार में उन्हें बहुत प्रेम और सम्मान मिला। उनके परिवार में फारसी और उर्दू का माहौल था, क्योंकि बाबा इन भाषाओं के ज्ञाता थे। उनके पिता ने अंग्रेज़ी पढ़ी थी, हिंदी का कोई वातावरण नहीं था। उनकी माँ को हिंदी का अच्छा ज्ञान था, महादेवी जी ने हिंदी अपनी माँ से ही सीखी। उनकी माँ पूजा-पाठ में भी रुचि रखती थीं। उन्होंने लेखिका को ‘पंचतंत्र’ पढ़ना सिखाया और संस्कृत की शिक्षा शुरू करवाई।

लेखिका के बाबा उन्हें विदुषी बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने संस्कृत पढ़ने पर ज़ोर दिया। हालांकि, लेखिका को उर्दू-फारसी सीखने में दिलचस्पी नहीं थी। एक बार जब उन्हें उर्दू सिखाने के लिए मौलवी साहब आए, तो वह डरकर चारपाई के नीचे छिप गईं। बाद में पंडित जी ने उन्हें संस्कृत पढ़ाना शुरू किया। माँ को गीता में रुचि थी और वे पूजा के समय संस्कृत मंत्र पढ़ती थीं, जिसे सुनकर लेखिका को संस्कृत से लगाव हुआ।

शुरुआत में उन्हें मिशन स्कूल भेजा गया, लेकिन वहाँ का माहौल उन्हें पसंद नहीं आया। उन्होंने वहाँ जाने से मना कर दिया। फिर उन्हें क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज में दाखिला दिलाया गया, जहाँ का वातावरण बहुत अच्छा था। वहाँ हिंदू और ईसाई लड़कियाँ साथ रहती थीं, और सबके बीच दोस्ती का रिश्ता था। छात्रावास में चार-चार लड़कियाँ एक कमरे में रहती थीं। वहीं लेखिका की मुलाकात सुभद्रा कुमारी चौहान से हुई, जो उनसे दो साल बड़ी थीं। सुभद्रा कविता लिखती थीं, और लेखिका को भी बचपन से तुकबंदी करने का शौक था। उनकी माँ मीरा के पद गाया करती थीं, जिन्हें सुनकर लेखिका ब्रजभाषा में लिखने लगीं। सुभद्रा खड़ी बोली में लिखती थीं, और लेखिका भी उनसे प्रेरित होकर वैसा ही लिखने लगीं।

सुभद्रा ने लेखिका को पहली बार कविता लिखते हुए पकड़ा और उनके कागज पूरे होस्टल में दिखाए। इसके बाद दोनों की गहरी मित्रता हो गई। वे साथ में कविताएँ लिखती थीं और पत्रिकाओं में भेजती थीं। उनकी कविताएँ ‘स्त्री दर्पण’ जैसी पत्रिकाओं में छपने लगीं। क्रास्थवेट कॉलेज में कवि-सम्मेलन का माहौल था। लेखिका ने बताया कि उन्हें कविता के लिए कई पुरस्कार मिले। एक बार उन्हें चाँदी का नक्काशीदार कटोरा मिला, जिसे उन्होंने गांधी जी को भेंट कर दिया। 

छात्रावास में भेद-भाव का कोई असर नहीं था। वहाँ हर क्षेत्र की लड़कियाँ थीं, जो अपनी-अपनी भाषाओं में बोलती थीं, जैसे अवधी, बुंदेली, मराठी, लेकिन सबमें प्रेम और समानता थी। लेखिका ने मराठी बोलने वाली ज़ेबुन्निसा नामक लड़की से कुछ मराठी भी सीखी।

अपने घर के पास रहने वाले नवाब परिवार का ज़िक्र करते हुए लेखिका ने बताया कि वहाँ की ताई साहिबा और उनके परिवार से उनके घर का अच्छा रिश्ता था। वे एक-दूसरे के त्योहार मनाते थे और राखी जैसे त्योहारों में भी आपसी मेलजोल था। ताई साहिबा ने लेखिका के छोटे भाई का नाम ‘मनमोहन’ रखा, जो आगे चलकर एक जम्मू विश्वविद्यालय के कुलपति बने।

पाठ के अंत में लेखिका ने उस समय के ताल-मेल और सामाजिक मेलजोल को याद करते हुए आज के समय से उसकी तुलना की। उन्होंने कहा कि उस समय का प्यार और समानता का वातावरण अब एक सपना लगता है, जो खो गया है। उनका मानना है कि यदि वह सपना सच हो जाता, तो भारत की तस्वीर कुछ और होती।

 

Mere Bachpan Ke Din पाठ व्याख्या (Mere Bachpan Ke Din Lesson Explanation)

 

पाठ- बचपन की स्मृतियों में एक विचित्र-सा आकर्षण होता है। कभी-कभी लगता है, जैसे सपने में सब देखा होगा। परिस्थितियाँ बहुत बदल जाती हैं।
अपने परिवार में मैं कई पीढ़ियों के बाद उत्पन्न हुई। मेरे परिवार में प्राय: दो सौ वर्ष तक कोई लड़की थी ही नहीं। सुना है, उसके पहले लड़कियों को पैदा होते ही परमधाम भेज देते थे। फिर मेरे बाबा ने बहुत दुर्गा-पूजा की। हमारी कुल-देवी दुर्गा थीं। मैं उत्पन्न हुई तो मेरी बड़ी खातिर हुई और मुझे वह सब नहीं सहना पड़ा जो अन्य लड़कियों को सहना पड़ता है। परिवार में बाबा फ़ारसी और उर्दू जानते थे। पिता ने अंग्रेज़ी पढ़ी थी। हिंदी का कोई वातावरण नहीं था। मेरी माता जबलपुर से आई तब वे अपने साथ हिंदी लाई। वे पूजा-पाठ भी बहुत करती थीं। पहले-पहल उन्होंने मुझको  ‘पंचतंत्र‘ पढ़ना सिखाया।

शब्दार्थ-
स्मृतियों- यादों
विचित्र-सा- अजीब सा
आकर्षण- खिंचाव
परिस्थितियाँ- हालात
पीढ़ी- कुल, वंश परंपरा में क्रम–क्रम से बढ़नेवाली संतान की प्रत्येक कड़ी
उत्पन्न- पैदा
प्राय:- अक्सर
परमधाम – स्वर्ग
खातिर- सेवा करना
वातावरण- माहौल
पंचतंत्र- पंडित विष्णु शर्मा की रचना है, जिसमें कहानियाँ हैं। 

व्याख्या- लेखिका को अपने बचपन की यादें बहुत आकर्षक लगती हैं, जैसे वे कोई सपना देख रही हों। उनका जन्म कई पीढ़ियों के बाद हुआ था, क्योंकि उनके परिवार में करीब 200 साल तक कोई लड़की नहीं हुई थी। पहले लड़कियों को पैदा होते ही मार दिया जाता था, लेकिन उनके बाबा ने दुर्गा माता की पूजा की, और जब लेखिका का जन्म हुआ, तो उनकी खूब देखभाल हुई। उन्हें वह परेशानियाँ नहीं झेलनी पड़ीं, जो पहले लड़कियों को झेलनी पड़ती थीं।
परिवार में उनके बाबा फ़ारसी और उर्दू जानते थे, और उनके पिता ने अंग्रेज़ी पढ़ी थी। परिवार में हिंदी का माहौल नहीं था। उनकी माँ को हिंदी का अच्छा ज्ञान था, महादेवी जी ने हिंदी अपनी माँ से ही सीखी। उनकी माँ पूजा-पाठ में भी रुचि रखती थीं। उन्होंने सबसे पहले लेखिका को ‘पंचतंत्र की कहानियाँ’ पढ़ना सिखाया।

 

पाठ- बाबा कहते थे, इसको हम विदुषी बनाएँगे। मेरे संबंध में उनका विचार बहुत ऊँचा रहा। इसलिए ‘पंचतंत्र’ भी पढ़ा मैंने, संस्कृत भी पढ़ी। ये अवश्य चाहते थे कि मैं उर्दू-फ़ारसी सीख लूँ, लेकिन वह मेरे वश की नहीं थी। मैंने जब एक दिन मौलवी साहब को देखा तो बस, दूसरे दिन मैं चारपाई के नीचे जा छिपी। तब पंडित जी आए संस्कृत पढ़ाने। माँ थोड़ी संस्कृत जानती थीं। गीता में उन्हें विशेष रुचि थी। पूजा-पाठ के समय मैं भी बैठ जाती थी और संस्कृत सुनती थी। उसके उपरांत उन्होंने मिशन स्कूल में रख दिया मुझको। मिशन स्कूल में वातावरण दूसरा था, प्रार्थना दूसरी थी। मेरा मन नहीं लगा। वहाँ जाना बंद कर दिया। जाने में रोने-धोने लगी। तब उन्होंने मुझको क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज में भेजा, जहाँ मैं पाँचवें दर्जे में भर्ती हुई। यहाँ का वातावरण बहुत अच्छा था उस समय। हिंदू लड़कियाँ भी थीं, ईसाई लड़कियाँ भी थीं। हम लोगों का एक ही मेस था। उस मेस में प्याज़ तक नहीं बनता था।

शब्दार्थ-
विदुषी- विद्वान् स्त्री
वश- काबू
मौलवी- इस्लाम धर्म का आचार्य
उपरांत- बाद में
मिशन स्कूल- ईसाई द्वारा चलाए जाने वाले धार्मिक स्कूल
मेस- भोजन करने का स्थान 

व्याख्या- लेखिका के बाबा चाहते थे कि वह एक विदुषी (ज्ञानी और शिक्षित महिला) बने। वे उनके भविष्य को लेकर बहुत ऊँचा सोचते थे। इसलिए लेखिका ने  ‘पंचतंत्र’ और संस्कृत पढ़ी। बाबा चाहते थे कि वह उर्दू और फ़ारसी भी सीखे, लेकिन लेखिका को यह बहुत कठिन लगता था। एक बार जब उन्होंने उर्दू-फ़ारसी पढ़ाने वाले को देखा, तो वह डरकर अगले दिन चारपाई के नीचे छिप गईं। इसके बाद संस्कृत पढ़ाने के लिए एक पंडित जी को बुलाया गया। उनकी माँ को संस्कृत में रुचि थी और वे गीता को बहुत पसंद करती थीं। माँ के पूजा-पाठ के समय लेखिका भी बैठती थीं और संस्कृत सुना करती थीं।
बाद में लेखिका को मिशन स्कूल में भेजा गया, जहाँ का माहौल बिलकुल अलग था। वहाँ की प्रार्थना भी अलग थी। लेकिन उनका मन वहाँ नहीं लगा, और उन्होंने स्कूल जाना बंद कर दिया। वे रोने-धोने लगीं। फिर उन्हें क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज में पाँचवी कक्षा में भर्ती करवाया गया। यहाँ का माहौल बहुत अच्छा था। वहाँ हिंदू और ईसाई लड़कियाँ दोनों पढ़ती थीं। सभी धर्मों की छात्राएँ साथ रहती थीं। सभी एक ही मेस में खाना खाते थे, और मेस में प्याज़ भी नहीं पकता था, कहने का तात्पर्य यह है कि कुछ छात्राएँ बिलकुल सात्विक भोजन करती थीं। इसलिए भोजन साधारण रहता था।

 

पाठ- वहाँ छात्रावास के हर एक कमरे में हम चार छात्राएँ रहती थीं। उनमें पहली ही साथिन सुभद्रा कुमारी मिलीं। सातवें दर्जे में वे मुझसे दो साल सीनियर थीं। वे कविता लिखती थीं और मैं भी बचपन से तुक मिलाती आई थी। बचपन में माँ लिखती थीं, पद भी गाती थीं। मीरा के पद विशेष रूप से गाती थीं। सवेरे ‘जागिए कृपानिधान पंछी बन बोले’ यही सुना जाता था। प्रभाती गाती थीं। शाम को मीरा का कोई पद गाती थीं। सुन-सुनकर मैंने भी ब्रजभाषा में लिखना आरंभ किया। यहाँ आकर देखा कि सुभद्रा कुमारी जी खड़ी बोली में लिखती थीं। मैं भी वैसा ही लिखने लगी। लेकिन सुभद्रा जी बड़ी थीं, प्रतिष्ठित हो चुकी थीं। उनसे छिपा-छिपाकर लिखती थी मैं। एक दिन उन्होंने कहा, ‘महादेवी, तुम कविता लिखती हो?’ तो मैंने डर के मारे कहा, ‘नहीं।’ अंत में उन्होंने मेरी डेस्क की किताबों की तलाशी ली और बहुत-सा निकल पड़ा उसमें से। तब जैसे किसी अपराधी को पकड़ते हैं, ऐसे उन्होंने एक हाथ में कागज़ लिए और एक हाथ से मुझको पकड़ा और पूरे होस्टल में दिखा आईं कि ये कविता लिखती है। फिर हम दोनों की मित्रता हो गई।

शब्दार्थ-
छात्रावास- वह स्थान जहाँ छात्र रहते हैं, जिसे हॉस्टल भी कहते हैं।
साथिन- सहेली
दर्जे- श्रेणी या स्तर
सीनियर- पद में बड़ा
तुक- शब्दों के अंत में एक जैसी ध्वनि का मेल, जैसे कविता में तुकबंदी।
पद- कविता का प्रकार
विशेष रूप से- खास तौर पर
प्रभाती- सवेरे गाया जाने वाला गीत
ब्रजभाषा- ब्रज क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा
आरंभ- शुरुआत
प्रतिष्ठित- सम्मानित
डेस्क- मेज
अपराधी- जो व्यक्ति अपराध (गलत काम) करता है।
होस्टल- छात्रावास, वह स्थान जहाँ छात्र रहते हैं। 

व्याख्या- लेखिका अपने छात्रावास के दिनों की यादें बता रही हैं। वह बताती हैं कि छात्रावास में हर कमरे में चार छात्राएँ रहती थीं। वहीं उनकी मुलाकात सुभद्रा कुमारी चौहान से हुई, जो उनसे दो साल सीनियर थीं और सातवीं कक्षा में पढ़ती थीं। सुभद्रा कुमारी कविता लिखती थीं। लेखिका को बचपन से ऐसे शब्दों का प्रयोग करने का शौक था जो आपस में एक जैसी ध्वनि करते हैं। उनकी माँ घर में मीरा के पद गाती थीं, विशेष रूप से प्रभातकाल में ‘जागिए कृपानिधान पंछी बन बोले’ और शाम को मीरा के पद गाने की परंपरा थी। इन सबका लेखिका पर गहरा प्रभाव पड़ा, और उन्होंने ब्रजभाषा में कविताएँ लिखनी शुरू कर दीं।
छात्रावास में उन्होंने देखा कि सुभद्रा कुमारी खड़ी बोली में कविताएँ लिखती थीं। लेखिका ने भी खड़ी बोली में लिखना आरंभ कर दिया, लेकिन वह सुभद्रा जी से छिपाकर लिखती थीं क्योंकि सुभद्रा जी बड़ी और सम्मानित कवयित्री थीं। एक दिन सुभद्रा कुमारी ने लेखिका से पूछा कि क्या वे कविता लिखती हैं। लेकिन लेखिका ने डर के मारे मना कर दिया। सुभद्रा जी ने लेखिका की डेस्क की तलाशी ली और उनके लिखे हुए कागज़ ढूँढ़ निकाले। उन्होंने मज़ाक में लेखिका को जैसे किसी अपराधी की तरह पकड़ा और छात्रावास की हर जगह जाकर बताया कि यह भी कविताएँ लिखती हैं।
इसके बाद दोनों के बीच गहरी मित्रता हो गई। यह घटना दिखाती है कि कैसे लेखिका और सुभद्रा कुमारी के बीच न केवल एक गहरा रिश्ता बना, बल्कि लेखिका को अपनी कविताओं के प्रति आत्मविश्वास भी मिला।

 

पाठ- क्रास्थवेट में एक पेड़ की डाल नीची थी। उस डाल पर हम लोग बैठ जाते थे। जब और लड़कियाँ खेलती थीं तब हम लोग तुक मिलाते थे। उस समय एक पत्रिका निकलती थी-‘स्त्री दर्पण’-उसी में भेज देते थे। अपनी तुकबंदी छप भी जाती थी। फिर यहाँ कवि-सम्मेलन होने लगे तो हम लोग भी उनमे जाने लगे। हिंदी का उस समय प्रचार-प्रसार था। मैं सन् 1917 में यहाँ आई थी। उसके उपरांत गांधी जी का सत्याग्रह आरंभ हो गया और आनंद भवन स्वतंत्रता के संघर्ष का केंद्र हो गया। जहाँ-तहाँ हिंदी का भी प्रचार चलता था। कवि-सम्मेलन होते थे तो क्रास्थवेट से मैडम हमको साथ लेकर जाती थीं। हम कविता सुनाते थे। कभी हरिऔध जी अध्यक्ष होते थे, कभी श्रीधर पाठक होते थे, कभी रत्नाकर जी होते थे, कभी कोई होता था। कब हमारा नाम पुकारा जाए, बेचैनी से सुनते रहते थे। मुझको प्राय: प्रथम पुरस्कार मिलता था। सौ से कम पदक नहीं मिले होंगे उसमें।

शब्दार्थ-
पत्रिका- जिसमें लेख छपते हैं
दर्पण– आइना
कवि-सम्मेलन- कवियों की बैठक या आयोजन जहाँ वे अपनी कविताएँ सुनाते हैं
प्रचार-प्रसार- किसी चीज़ या विचार का फैलाव
सत्याग्रह- सत्य के प्रति आग्रह, गांधी जी द्वारा चलाया गया एक आंदोलन
स्वतंत्रता- आज़ादी
संघर्ष- कठिन मेहनत करना
केंद्र- मुख्य स्थान
अध्यक्ष- किसी सभा, बैठक, या संगठन का प्रमुख व्यक्ति
पुरस्कार- ईनाम
पदक – (प्रशंसासूचक पुरस्कार) सोने-चाँदी या अन्य धातु से बना हुआ गोल या चौकोर टुकड़ा जो किसी विशेष अवसर पर पुरस्कार के रूप में दिया जाता है।

व्याख्या- लेखिका अपने बचपन की उन यादों को साझा करते  हुए बताती हैं, जब वह क्रास्थवेट में एक पेड़ की नीची डाल पर बैठकर अपनी सहेलियों के साथ समय बिताती थीं। उस डाल पर बैठकर वे लोग तुकबंदी करते थे, यानी छोटी-छोटी कविताएँ बनाते थे। जब अन्य लड़कियाँ खेल-कूद में लग जाती थीं, तब लेखिका और सुभद्रा कविताएँ लिखती थीं। उस समय ‘स्त्री दर्पण’ नाम की एक पत्रिका निकलती थी, जिसमें वे अपनी रचनाएँ भेजती थीं, और उनकी कविता वहाँ छप भी जाती थी। यह उनके लिए एक बड़ी उपलब्धि होती थी।
कुछ समय बाद, उस क्षेत्र में कवि-सम्मेलनों का आयोजन शुरू हुआ। हिंदी भाषा को उस समय प्रमुखता दी जा रही थी और इसका प्रचार-प्रसार हो रहा था। ऐसे में लेखिका भी इन कवि-सम्मेलनों में भाग लेने लगीं। 1917 में जब लेखिका क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज आयीं थीं, उसी समय गांधी जी ने अपना सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया था। इलाहाबाद स्थित आनंद भवन स्वतंत्रता संग्राम का एक प्रमुख केंद्र बन गया था। स्वतंत्रता के इस आंदोलन के साथ-साथ हिंदी भाषा को भी बढ़ावा मिल रहा था।
लेखिका बताती हैं कि उनके स्कूल की मैडम उन्हें कवि-सम्मेलनों में ले जाती थीं। वहाँ वे अपनी कविताएँ सुनाती थीं। इन सम्मेलनों में उस समय के प्रमुख कवि और विद्वान शामिल होते थे, जैसे हरिऔध जी, श्रीधर पाठक जी, और रत्नाकर जी। कभी-कभी ये लोग अध्यक्ष के रूप में भी उपस्थित रहते थे। जब इन सम्मेलनों में प्रस्तुति के लिए लेखिका को बुलाया जाता था, तो वह बेचैनी से अपने नाम सुनने का इंतजार करती थीं।
लेखिका को अपनी कविताओं के लिए अक्सर प्रथम पुरस्कार मिलता था। उन्होंने इतने पुरस्कार और पदक जीते कि उनकी संख्या सौ से भी अधिक हो गई। यह उनकी प्रतिभा और हिंदी भाषा के प्रति उनके लगाव को दिखाता है। 

 

पाठ- एक बार की घटना याद आती है कि एक कविता पर मुझे चाँदी का एक कटोरा मिला। बड़ा नक्काशीदार, सुंदर। उस दिन सुभद्रा नहीं गई थीं। सुभद्रा प्राय: नहीं जाती थीं कवि-सम्मेलन में। मैंने उनसे आकर कहा, ‘देखो, यह मिला।’
सुभद्रा ने कहा, ‘ठीक है, अब तुम एक दिन खीर बनाओ और मुझको इस कटोरे में खिलाओ।’
उसी बीच आनंद भवन में बापू आए। हम लोग तब अपने जेब-खर्च में से हमेशा एक-एक, दो-दो आने देश के लिए बचाते थे और जब बापू आते थे तो वह पैसा उन्हें दे देते थे। उस दिन जब बापू के पास मैं गई तो अपना कटोरा भी लेती गई। मैंने निकालकर बापू को दिखाया। मैंने कहा, ‘कविता सुनाने पर मुझको यह कटोरा मिला है।’ कहने लगे, ‘अच्छा, दिखा तो मुझको।’ मैंने कटोरा उनकी ओर बढ़ा दिया तो उसे हाथ में लेकर बोले, ‘तू देती है इसे?’ अब मैं क्या कहती? मैंने दे दिया और लौट आई। दुख यह हुआ कि कटोरा लेकर कहते, कविता क्या है? पर कविता सुनाने को उन्होंने नहीं कहा। लौटकर अब मैंने सुभद्रा जी से कहा कि कटोरा तो चला गया। सुभद्रा जी ने कहा, ‘और जाओ दिखाने!’ फिर बोलीं, ‘देखो भाई, खीर तो तुमको बनानी होगी। अब तुम चाहे पीतल की कटोरी में खिलाओ, चाहे फूल के कटोरे में-फिर भी मुझे मन ही मन प्रसन्नता हो रही थी कि पुरस्कार में मिला अपना कटोरा मैंने बापू को दे दिया। 

शब्दार्थ-
घटना- कुछ घटित होना, हादसा
नक्काशीदार – बेल-बूटे के काम से युक्त
पीतल- एक मिश्र धातु
फूल – ताँबे और राँगे के मेल से बनी एक मिश्र धातु

व्याख्या- प्रस्तुत गद्याँश में लेखिका अपने जीवन की एक मन को छूने वाली और रोचक घटना को याद करती हैं। एक बार उन्हें कवि-सम्मेलन में कविता सुनाने पर चाँदी का सुंदर और नक्काशीदार कटोरा पुरस्कार में मिला। यह कटोरा उनके लिए बहुत खास था। जब वह कटोरा लेकर घर लौटीं, तो उन्होंने इसे अपनी साथी सुभद्रा को दिखाया। सुभद्रा, जो कवि-सम्मेलन में प्रायः नहीं जाती थीं, ने हँसते हुए कहा कि अब इस कटोरे में खीर बनाकर उन्हें खिलानी होगी।
इस बीच, आनंद भवन में महात्मा गांधी (बापू) आए हुए थे। लेखिका बताती हैं कि वे और उनके साथी अपने जेब-खर्च से कुछ पैसे बचाकर स्वतंत्रता संग्राम के लिए जमा करते थे, और जब भी बापू आते, तो वे वह पैसा उन्हें सौंप देते थे। उस दिन जब लेखिका बापू से मिलने गईं, तो वह अपना चाँदी का कटोरा भी साथ ले गईं। उन्होंने बापू को कटोरा दिखाते हुए बताया कि यह उन्हें कविता सुनाने पर पुरस्कार में मिला है। तब बापू ने वह कटोरा उन्हें देने के लिए कहा।
इस पर लेखिका सोच में पड़ गईं, लेकिन उन्होंने सहमति जताते हुए वह कटोरा बापू को दे दिया। हालांकि, उन्हें इस बात का हल्का सा दुख हुआ कि बापू ने उनकी कविता के बारे में कुछ भी नहीं पूछा। वह यह उम्मीद कर रही थीं कि बापू उनसे कविता सुनने को कहेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
जब वह घर लौटीं और सुभद्रा जी को कटोरा बापू को दे देने की बात बताई, तब सुभद्रा ने हँसते हुए महादेवी से कहा कि और जाओ अपना पुरस्कार दिखने। फिर उन्होंने मजाक में कहा कि खीर तो बनानी ही पड़ेगी, चाहे पीतल की कटोरी में खिलाओ या फूल की कटोरी में।
इस घटना के अंत में, लेखिका अपने दिल में संतोष महसूस करती हैं कि उन्होंने अपने पुरस्कार में मिले कटोरे को बापू को दे दिया। यह घटना लेखिका के उदार भाव, राष्ट्रीयता के प्रति उनके प्रेम को दर्शाती है। 

 

पाठ- सुभद्रा जी छात्रावास छोड़कर चली गई। तब उनकी जगह एक मराठी लड़की ज़ेबुन्निसा हमारे कमरे में आकर रही। वह कोल्हापुर से आई थी। ज़ेबुन मेरा बहुत-सा काम कर देती थी। वह मेरी डेस्क साफ़ कर देती थी, किताबें ठीक से रख देती थी और इस तरह मुझे कविता के लिए कुछ और अवकाश मिल जाता था। ज़ेबुन मराठी शब्दों से मिली-जुली हिंदी बोलती थी। मैं भी उससे कुछ-कुछ मराठी सीखने लगी थी। वहाँ एक उस्तानी जी थीं-ज़ीनत बेगम। ज़ेबुन जब ‘इकड़े-तिकड़े’ या ‘लोकर-लोकर’ जैसे मराठी शब्दों को मिलाकर कुछ कहती तो उस्तानी जी से टोके बिना न रहा जाता था-‘वाह! देसी कौवा, मराठी, बोली!’ ज़ेबुन कहती थी, ‘नहीं उस्तानी जी, यह मराठी कौवा मराठी बोलता है।’ ज़ेबुन मराठी महिलाओं की तरह किनारीदार साड़ी और वैसा ही ब्लाउज पहनती थी। कहती थी, ‘हम मराठी हूँ तो मराठी बोलेंगे!’

शब्दार्थ-
मराठी- महाराष्ट्र राज्य की मुख्य भाषा
अवकाश- छुट्टी
उस्तानी- एक महिला शिक्षक या गुरु
इकड़े-तिकड़े- इधर-उधर (मराठी भाषा के शब्द)

व्याख्या- प्रस्तुत गद्याँश में लेखिका अपने छात्रावास के अनुभव बताती हैं। सुभद्रा जी के छात्रावास छोड़ने के बाद, लेखिका के कमरे में ज़ेबुन्निसा नाम की एक मराठी लड़की आकर रहने लगी, जो कोल्हापुर से आई थी। ज़ेबुन्निसा बहुत मदद करती थी। वह लेखिका के कई काम कर देती थी, जैसे उनकी डेस्क को साफ करना और किताबों को सही से रखना। इससे लेखिका को अपनी कविताओं के लिए अधिक समय और अवकाश मिल जाता था।
ज़ेबुन्निसा हिंदी और मराठी के मिले-जुले शब्दों में बातचीत करती थी। उदाहरण के लिए, वह “इकड़े-तिकड़े” और “लोकर-लोकर” जैसे शब्दों का उपयोग करती थी। यह उसके मराठी प्रभाव को दर्शाता था। लेखक को ज़ेबुन्निसा के साथ रहते हुए मराठी के कुछ शब्द और बोलचाल सीखने का मौका मिला। छात्रावास में एक उस्तानी जी थीं, जिनका नाम ज़ीनत बेगम था। जब ज़ेबुन्निसा अपने मराठी मिलेजुले हिंदी शब्दों का उपयोग करती, तो ज़ीनत बेगम मजाक में उसे टोकतीं और अचंभित होकर कहतीं कि कौवा तो देसी है लेकिन उसकी बोली मराठी कैसे हो सकती है। अर्थात ज़ेबुन्निसा को उसी क्षेत्र की भाषा बोलनी चाहिए जहाँ वो रह रही थीं। इस पर ज़ेबुन्निसा हँसते हुए जवाब देती हैं कि नहीं उस्तानी जी, यह मराठी कौवा मराठी बोलता है।
ज़ेबुन्निसा मराठी महिलाओं की तरह किनारीदार साड़ी और वैसा ही ब्लाउज पहनती थी। वह गर्व से कहती थी कि हम मराठी हैं, तो मराठी बोलेंगे!
यह पाठ केवल एक मित्र के साथ बिताए गए समय को नहीं, बल्कि अन्य भाषाओं और संस्कृतियों के प्रति सम्मान और आदान-प्रदान को भी उजागर करता है। 

 

पाठ- उस समय यह देखा मैंने कि सांप्रदायिकता नहीं थी। जो अवध की लड़कियाँ थीं, वे आपस में अवधी बोलती थीं; बुंदेलखंड की आती थीं, वे बुंदेली में बोलती थीं। कोई अंतर नहीं आता था और हम पढ़ते हिंदी थे। उर्दू भी हमको पढ़ाई जाती थी, परंतु आपस में हम अपनी भाषा में ही बोलती थीं। यह बहुत बड़ी बात थी। हम एक मेस में खाते थे, एक प्रार्थना में खड़े होते थे; कोई विवाद नहीं होता था।
मैं जब विद्यापीठ आई, तब तक मेरे बचपन का वही क्रम चला जो आज तक चलता आ रहा है। कभी-कभी बचपन के संस्कार ऐसे होते हैं कि हम बड़े हो जाते हैं, तब तक चलते हैं।

शब्दार्थ-
सांप्रदायिकता- विभिन्न धर्मों या समुदायों के बीच आपसी भेदभाव
अवधी- अवध क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा
बुंदेली- बुंदेलखंड क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा
विवाद- झगड़ा
विद्यापीठ- शिक्षा का स्थान
संस्कार- व्यक्ति को अच्छे गुणों से सजाना

व्याख्या- इस अंश में लेखिका अपने बचपन के समय को याद करते हुए एक बहुत जरूरी बात बताती हैं। वह बताती हैं कि उस समय भेदभाव की कोई जगह नहीं थी। अनेक जगहों से आई लड़कियाँ, जैसे अवध, बुंदेलखंड, और अन्य स्थानों से, अपनी-अपनी भाषा में आपस में बात करती थीं, लेकिन इसका किसी तरह का विरोध या अंतर कभी नहीं था। अवध की लड़कियाँ अवधी बोलती थीं, बुंदेलखंड की लड़कियाँ बुंदेली बोलती थीं, और वे सभी हिंदी पढ़ती थीं। इसके अलावा, उर्दू भी उन्हें पढ़ाई जाती थी, लेकिन जब वे आपस में बात करती थीं, तो अपनी ही भाषा में ही बोलती थीं। यह दिखाता है कि भाषा अलग होने के बाद भी उनके बीच कोई भेदभाव नहीं था।
लेखिका यह भी बताती हैं कि वे सभी एक ही मेस में भोजन करती थीं और एक ही प्रार्थना में खड़ी होती थीं, जिसमें कोई विवाद या लड़ाई नहीं होती थी। यह सामूहिकता और एकता को दर्शाता है।
लेखिका अपने बचपन के संस्कारों की बात करती हैं, जो समय के साथ नहीं बदले और आज भी उनके जीवन में ताज़ा हैं। यह दर्शाता है कि बचपन में जो मूल्य और आदतें व्यक्ति को सिखा दी जाती हैं, वे बड़े होने के बाद भी रहती हैं और उनके जीवन का हिस्सा बन जाती हैं।

 

पाठ- बचपन का एक और भी संस्कार था कि हम जहाँ रहते थे वहाँ जवारा के नवाब रहते थे। उनकी नवाबी छिन गई थी। वे बेचारे एक बँगले में रहते थे। उसी कंपाउंड में हम लोग रहते थे। बेगम साहिबा कहती थीं- ‘हमको ताई कहो!’ हम लोग उनको ‘ताई साहिबा’ कहते थे। उनके बच्चे हमारी माँ को चची जान कहते थे। हमारे जन्मदिन वहाँ मनाए जाते थे। उनके जन्मदिन हमारे यहाँ मनाए जाते थे। उनका एक लड़का था। उसको राखी बाँधने के लिए वे कहती थीं। बहनों को राखी बाँधनी चाहिए। राखी के दिन सवेरे से उसको पानी भी नहीं देती थीं। कहती थीं, राखी के दिन बहनें राखी बाँध जाएँ तब तक भाई को निराहार रहना चाहिए। बार-बार कहलाती थीं- ‘भाई भूखा बैठा है, राखी बँधवाने के लिए।’ फिर हम लोग जाते थे। हमको लहरिए या कुछ मिलते थे। इसी तरह मुहर्रम में हरे कपड़े उनके बनते थे तो हमारे भी बनते थे। फिर एक हमारा छोटा भाई हुआ वहाँ, तो ताई साहिबा ने पिताजी से कहा, ‘देवर साहब से कहो, वो मेरा नेग ठीक करके रखें। मैं शाम को आऊँगी।’ वे कपड़े-वपड़े लेकर आई। हमारी माँ को वे दुलहन कहती थीं। कहने लगीं, ‘दुलहन जिनके ताई-चाची नहीं होती हैं वो अपनी माँ के कपड़े पहनते हैं, नहीं तो छह महीने तक चाची-ताई पहनाती हैं। मैं इस बच्चे के लिए कपड़े लाई हूँ। यह बड़ा सुंदर है। मैं अपनी तरफ़ से इसका नाम ‘मनमोहन’ रखती हूँ।’

शब्दार्थ-
नवाब- मुस्लिम रियासतों के शासक
कंपाउंड- एक क्षेत्र जो दीवार से घिरा हो, जैसे किसी बंगले या स्कूल का प्रांगण।
निराहार – बिना कुछ खाए-पिए
लहरिया – रंग-बिरंगी धारियों वाली विशेष प्रकार की साड़ी जो सामान्यतः तीज, रक्षाबंधन आदि त्यौहारों पर पहनी जाती है।
मुहर्रम- इस्लामी वर्ष का पहला महीना
नेग- शगुन या पारंपरिक उपहार

व्याख्या- इस अंश में लेखिका अपने बचपन के समय में बिताए गए कुछ अनमोल पलों को याद करती हैं, जो उनके जीवन में भेदभाव से दूर थे। वह बताती हैं कि वे जहाँ रहती थीं, वहाँ जवारा के नवाब रहते थे। उनकी नवाबी छिन चुकी थी और वे अब एक साधारण बँगले में रहते थे। हालांकि उनकी स्थिति बदली हुई थी, फिर भी उनका और लेखिका के परिवार का एक गहरा संबंध था।
बेगम साहिबा, जो नवाब की पत्नी थीं, बच्चों से कहती थीं कि वे उन्हें “ताई” कहें, और लेखिका के परिवार के बच्चे उन्हें “ताई साहिबा” ही कहते थे। उनके बच्चे, लेखिका की माँ को “चची जान” कहते थे। इस प्रकार, दोनों परिवारों के बीच एक गहरी मित्रता और पारिवारिक संबंध था, और उनके बीच किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं था।
लेखिका आगे बताती हैं कि उनके जन्मदिन और नवाब के परिवार के जन्मदिन एक-दूसरे के यहाँ मनाए जाते थे, जिससे आपसी स्नेह और प्रेम का माहौल बना रहता था। इसके अलावा, राखी के दिन नवाब के परिवार में एक खास रस्म होती थी। नवाब का बेटा राखी के दिन बिना कुछ खाए रहता था, और जब तक बहनें राखी नहीं बाँध देतीं, तब तक उसे पानी भी नहीं दिया जाता था। इस पर नवाब की पत्नी कहती थीं कि राखी बँधवाने के लिए भाई भूखा बैठा है। इस तरह की रीतियों को निभाना उनके बीच के प्रेम और रिश्ते की मिसाल है।
मुहर्रम के समय भी नवाब के परिवार में हरे कपड़े बनते थे और लेखिका के परिवार में भी वही कपड़े बनवाए जाते थे, जिससे उनके बीच एक समानता और मेलजोल बना रहता था।
इसके बाद, जब लेखिका के परिवार में एक छोटा भाई हुआ, तो ताई साहिबा ने पिताजी से कहा कि वे उनका “नेग” (उपहार) ठीक से रखें, और वे शाम को कपड़े लेकर आईं। वे लेखक की माँ को “दुलहन” कहकर बुलाती थीं और बताती थीं कि जिनके ताई या चाची नहीं होतीं, वे अपनी माँ के कपड़े पहनते हैं, लेकिन यदि ताई और चाची होती हैं, तो वे छह महीने तक नए कपड़े पहनाती हैं। इस प्रकार, ताई साहिबा छोटे भाई के लिए कपड़े लाईं और बच्चे का नाम “मनमोहन” रखा, जो इस छोटे से बच्चे के लिए उनके प्यार और स्नेह को दर्शाता है।

 

पाठ- वही प्रोफ़ेसर मनमोहन वर्मा आगे चलकर जम्मू यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर रहे, गोरखपुर यूनिवर्सिटी के भी रहे। कहने का तात्पर्य यह कि मेरे छोटे भाई का नाम वही चला जो ताई साहिबा ने दिया। उनके यहाँ भी हिंदी चलती थी, उर्दू भी चलती थी। यों, अपने घर में वे अवधी बोलते थे। वातावरण ऐसा था उस समय कि हम लोग बहुत निकट थे। आज की स्थिति देखकर लगता है, जैसे वह सपना ही था। आज वह सपना खो गया। शायद वह सपना सत्य हो जाता तो भारत की कथा कुछ और होती।

शब्दार्थ-
प्रोफ़ेसर- विश्वविद्यालय या महाविद्यालय में पढ़ाने वाला वरिष्ठ अध्यापक
वाइस चांसलर – कुलपति
निकट- पास 

व्याख्या- इस अंश में लेखिका अपने छोटे भाई के बारे में बताती हैं। वह बताती हैं कि उनका छोटा भाई “मनमोहन” नाम से प्रसिद्ध हुआ, और यह नाम ताई साहिबा ने रखा था। बाद में वही प्रोफेसर मनमोहन वर्मा जम्मू यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर बने और गोरखपुर यूनिवर्सिटी के भी वाइस चांसलर रहे। इसका मतलब यह है कि ताई साहिबा द्वारा दिया गया नाम उनके जीवन में महत्वपूर्ण बन गया और समाज में पहचाना गया।
लेखिका इस बात को भी बताती हैं कि ताई साहिबा के घर में हिंदी और उर्दू दोनों भाषाएँ बोली जाती थीं, जबकि उनके अपने घर में अवधी बोली जाती थी। यह दिखाता है कि उस समय समाज में विभिन्न भाषाएँ और संस्कृतियाँ एक-दूसरे के साथ मिली-जुली थीं, और उनके बीच किसी भी प्रकार की दीवार नहीं थी।
उस समय की स्थिति देखकर लेखिका को लगता है कि सब सपना है। क्योंकि ऐसी एकता अब देखने को नहीं मिलती। अगर वह सपना सच हो जाता तो भारत की स्थिति आज कुछ और ही होती। 

Conclusion

दिए गए पोस्ट में हमने ‘मेरे बचपन के दिन’ नामक संस्मरण के सारांश, पाठ व्याख्या और शब्दार्थ को जाना। ये पाठ कक्षा 9 हिंदी अ के पाठ्यक्रम में क्षितिज पुस्तक से लिया गया है। महादेवी वर्मा द्वारा लिखा गया यह संस्मरण उनके बचपन दिन, उनके छात्रावास में बिताये गए पल, लोगों की सोच और उस समय के  भारत के बारे में बताता है। इस पोस्ट को पढ़ने से विद्यार्थी अच्छी तरह से सीख पाएँगे कि पाठ में किस विषय के बारे में बताया गया है। परीक्षाओं में प्रश्नों को आसानी से हल करने में भी विद्यार्थियों के लिए यह पोस्ट सहायक है।