CBSE Class 10 Hindi Chapter 15 Shiksha Ke Virodhi Kurtakon Ka Khandan Summary, Explanation from Kshitij Bhag 2 

Shiksha Ke Virodhi Kurtakon Ka Khandan Class 10 – Shiksha Ke Virodhi Kurtakon Ka Khandan Summary of CBSE Class 10 Hindi (Course A) Kshitij Bhag-2 Chapter 15 detailed explanation of the lesson along with meanings of difficult words. Here is the complete explanation of the lesson, along with all the exercises, Questions and Answers given at the back of the lesson. 

इस लेख में हम हिंदी कक्षा 10 – अ  ” क्षितिज भाग – 2 ” के पाठ – 15 ” स्त्री – शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन ”  पाठ के पाठ – प्रवेश , पाठ – सार , पाठ – व्याख्या , कठिन – शब्दों के अर्थ और NCERT की पुस्तक के अनुसार प्रश्नों के उत्तर , इन सभी के बारे में चर्चा करेंगे –

 

 

 ” स्त्री – शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन “

 

लेखक परिचय –

लेखक – महावीर प्रसाद द्विवेदी 

 
 

स्त्री – शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन पाठ प्रवेश  (Shiksha Ke Virodhi Kurtakon Ka Khandan –  Introduction to the chapter)

 आज हमारे समाज में लड़कियाँ शिक्षा प्राप्त करने एवं किसी भी कार्यक्षेत्र में अपनी क्षमता का प्रदर्शन करने में लड़कों से बिलकुल भी पीछे नहीं हैं परन्तु लड़कियों को यहाँ तक पहुँचने के लिए अनेक स्त्री – पुरुषों ने लंबा संघर्ष किया। नवजागरण काल के चिंतकों ने केवल स्त्री – शिक्षा ही नहीं बल्कि समाज में जनतांत्रिक एवं वैज्ञानिक चेतना के संपूर्ण विकास के लिए जागरूकता फैलाने की हर संभव कोशिश की।

द्विवेदी जी का यह प्रस्तुत लेख ‘ स्त्री – शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन ‘ उन सभी पुराने विचारों वाले या रूढ़िवादी विचारों से लोहा लेता है जो स्त्री – शिक्षा

को बेकार अथवा समाज को बांटने या समाज के विनाश का कारण मानते थे। इस लेख की दूसरी विशेषता यह है कि इसमें परंपरा को जैसे का तैसा नहीं स्वीकार किया गया है, बल्कि विवेक और बुद्धि से यह फैसला लेने की बात की गई है कि परंपरा में जो ग्रहण करने योग्य है उसको ग्रहण करने की बात की गई है और परंपरा का जो हिस्सा सड़ – गल चुका है , उसे रूढ़ि मानकर छोड़ देने की बात कही गई है। यह विवेकपूर्ण दृष्टि पुरे के पुरे नवजागरण काल की विशेषता है। आज इस निबंध् का अनेक दृष्टियों से अत्यधिक महत्त्व है।

यह लेख पहली बार सितंबर 1914 की सरस्वती में पढ़े लिखों का पांडित्य शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। बाद में द्विवेदी जी ने इसे महिला मोद पुस्तक में शामिल करते समय इसका शीर्षक ‘ स्त्री – शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन ‘ रख दिया था। इस निबंध् की भाषा और वर्तनी को हमने संशोध्ति करने का प्रयास नहीं किया है। अर्थात जिस भाषा और वर्तनी में यह निबंध् प्राप्त हुआ है उसके साथ कोई छेड़ – छाड़ नहीं की गई है।

 
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स्त्री – शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन पाठ सार (Shiksha Ke Virodhi Kurtakon Ka Khandan Summary)

 आज हमारे समाज में लड़कियाँ शिक्षा प्राप्त करने एवं किसी भी कार्यक्षेत्र में अपनी क्षमता का प्रदर्शन करने में लड़कों से बिलकुल भी पीछे नहीं हैं परन्तु लड़कियों को यहाँ तक पहुँचने के लिए अनेक स्त्री – पुरुषों ने लंबा संघर्ष किया। लेखक को इस बात का दुःख है कि आज के आधुनिक समय में भी कोई पुरुष अपने घर की शान्ति के नष्ट होने का कारण किसी स्त्री के पढ़े – लिखे होने को कैसे मान सकता है। और वे लोग भी कोई ऐसे – वैसे नहीं हैं , ऐसे लोग जो हर तरह से शिक्षित हैं या जिन्हें हर तरह का ज्ञान है उन लोगों का स्त्री – शिक्षा विरोधी व्यवहार लेखक को अत्यंत दुखी करता है। लेखक स्त्री – शिक्षा विरोधी लोगो के उनके पक्ष में सोच – विचार कर रखे जाने वाला तर्क या वाद – विवाद को हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि उन स्त्री – शिक्षा विरोधी लोगो के तर्क सुन लीजिए। पहला तर्क देते हुए वे लोग कहते हैं कि पुराने संस्कृत – कवियों के नाटकों में जो उत्तम या प्रसिद्ध कुल में उत्पन्न स्त्रियों का वर्णन किया गया है , उनसे अनपढ़ की भाषा में बातें कराई गई हैं। अर्थात उन्हें अनपढ़ दिखाया गया है। दूसरा तर्क देते हुए वे लोग कहते हैं कि स्त्रियों को पढ़ाने से हमेशा अशुभ या उलटा – पुल्टा ही होता है। वे शकुंतला का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि हैं कि शकुंतला ने जो अप्रिय या बुरा लगने वाले वाक्य दुष्यंत को कहे थे इन स्त्री – शिक्षा विरोधी लोगों के अनुसार वह शकुंतला की पढ़ाई का ही बुरा नतीजा था। तीसरा तर्क प्रस्तुत करते हुए वे लोग कहते हैं कि जिस भाषा में शकुंतला ने श्लोक रचा था वह अनपढ़ों की भाषा थी। स्त्री – शिक्षा विरोधी लोग किसी भी हाल में स्त्रियों को नाम मात्र की शिक्षा भी नहीं दिलाना चाहते थे। इसके लिए वे कोई भी बेढंगा तर्क प्रस्तुत कर देते थे। नाटकों में स्त्रियों का प्राकृत बोलना उनके अनपढ़ होने का प्रमाण नहीं है। लेखक पहले तर्क का खंडन करते हुए कहते हैं कि वेद तो संस्कृत में ही लिखे गए हैं और अगर ऋषियों की पत्नियाँ वेदों का बखान करती थी तो इसका अर्थ है कि वे पढ़ी – लिखी थी। और लेखक स्त्री – शिक्षा विरोधी तर्कों पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि अगर प्राचीन स्त्रियाँ अनपढ़ थीं तो क्या जिस संस्कृत में वे वेदों का बखान करती थी वो भी अनपढ़ों की संस्कृत थी। प्राचीन समय में जिस तरह स्त्रियों के शिक्षित होने का कोई सबूत नहीं है उसी तरह सभी शिक्षित लोगों का संस्कृत का प्रयोग करने का भी कोई सबूत नहीं है। और न ही इस बात को कोई साबित या प्रमाणित नहीं कर सकता कि उस ज़माने में बोलचाल की भाषा प्राकृत नहीं थी ? और जो सबूत मिलते हैं उनके आधार पर कहा जा सकता है कि प्राकृत भाषा ही बोलचाल की भाषा थी। लेखक अगले तर्क का खंडन करते हुए कहते हैं कि प्राकृत यदि उस समय की उपयोग या व्यवहार में आने वाली भाषा न होती तो बौद्धों तथा जैनों के हज़ारों ग्रंथ उसमें क्यों लिखे जाते , और भगवान शाक्य मुनि तथा उनके चेले प्राकृत ही में क्यों धर्मोपदेश देते ? इन सभी उदाहरणों को प्राचीन समय में प्राकृत भाषा के चलन के सबूत के आधार पर देखे जा सकते हैं। इन सभी चीज़ों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्राकृत बोलना और लिखना अनपढ़ और अशिक्षित होने का कोई चिह्न नहीं है। लेखक यह समझाना चाहते हैं कि प्राकृत भाषा कोई अनपढ़ और गँवारों की भाषा नहीं थी बल्कि वह भी अपने जमाने की प्रचलित भाषा थी। इसी कारण बहुत से ग्रन्थ भी प्राकृत भाषा में विद्यमान हैं। जिस तरह आज के समय में हिंदी पढ़ने व् लिखने वाले को अनपढ़ नहीं कहा जा सकता उसी तरह प्राचीन समय में प्राकृत पढ़ने व् लिखने वाले को कैसे अनपढ़ कहा जा सकता है। जिस समय आचार्यों ने नाट्यशास्त्र अर्थात  नृत्य , संगीत एवं अभिनय आदि से संबंधित कलाओं की विस्तृत विवेचना करने वाले शास्त्र से संबंधी नियम बनाए थे उस समय साधारण लोगों की भाषा संस्कृत नहीं थी। चुने हुए लोग ही संस्कृत बोलते या बोल सकते थे। इसी कारण से उन्होंने उनकी भाषा संस्कृत और दूसरे लोगों तथा स्त्रियों की भाषा प्राकृत रखने का नियम कर दिया। पुराने ज़माने में स्त्रियों के लिए कोई विश्वविद्यालय नहीं था। फिर नियम के अनुसार स्त्री शिक्षा प्रणाली का वर्णन आदि पुराणों में न मिले तो इसमें क्या आश्चर्य है। और , उसका वर्णन कहीं रहा भी हो , परन्तु नष्ट हो गया हो यह भी तो हो सकता है।  स्त्रियाँ प्राचीन काल में अनपढ़ थी क्योंकि उनकी शिक्षा प्रणाली के कोई नियमबद्ध तरीके नहीं मिलते , इस तर्क को गलत साबित करते हुए लेखक कहते हैं कि प्राचीन समय में जो जहाज़ उड़ते थे , उन जहाज़ों को बनाने की नियमबद्ध प्रणाली के किसी दर्शक ग्रंथ के बारे में क्या कोई बता सकता है। लेखक को उन लोगों की शिक्षा और ज्ञान पर संदेह हो रहा है जो प्राचीन समय में स्त्री – शिक्षा के सबूत मिलने पर भी यह कहते हैं कि प्राचीन समय में स्त्रियाँ मूर्ख , अपढ़ और गँवार थी। लेखक कहते हैं कि वेदों को प्रायः सभी हिन्दू स्वयं ईश्वर के द्वारा निर्मित मानते हैं। इसलिए लेखक स्त्री – शिक्षा विरोधी लोगों को समझाते हुए कहते हैं कि जब इर्श्वर स्वयं द्वारा निर्मित वेद – मंत्रों की रचना अथवा उनको सभी तक पहुँचाने का माध्यम विश्ववरा , जो की वैदिक काल की एक प्रसिद्ध विद्वान स्त्री हैं , आदि स्त्रियों को बनाते हैं और हम उन्हीं स्त्रियों को ककहरा अर्थात किसी विषय का आरंभिक या ज़रूरी ज्ञान पढ़ाना भी पाप समझ रहे हैं। प्राचीन समय की स्त्रियाँ पुरुषों की ही तरह शिक्षित थी और इसके अनेक उदहारण हमें कई जगह देखने को मिल जाते हैं। भारत में लड़कियों को चित्र बनाने , नाचने , गाने , बजाने , फूल चुनने , हार गूँथने , पैर मलने तक की कला सीखने की आज्ञा थी उनको क्या केवल लिखने – पढ़ने की आज्ञा नहीं थी। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत एक ऐसा देश रहा है जिसमें लड़कियों को लड़कों की ही तरह हर कार्य करने की अनुमति थी , फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि लड़कियों को केवल पढ़ने – लिखने से रोका जाता हो। लड़कियों के शिक्षित और विदुषी होने के कई प्रमाण मिलते हैं तो उन प्रमाणों को नजरअंदाज करके स्त्रियों को मुर्ख और अनपढ़ कैसे कहा जा सकता है ? लेखक और भी उदहारण प्रस्तुत करते हैं जैसे – अत्रि की पत्नी अपने पत्नी – धर्म पर अपने विचार प्रस्तुत करते समय घंटों अपनी विद्वता प्रकट करे , गार्गी बड़े – बड़े वेद पढ़ने – पढ़ाने वालों को हरा दे , मंडन मिश्र की पत्नी शंकराचार्य जैसे विद्वान के छक्के छुड़ा दे ! इन सब पर भरोसा करना कठिन है परन्तु यही सत्य है। लेखक समझाना चाह रहे हैं कि स्त्रियों के पढ़ने – लिखने को अपराध वही समझ सकता है जो स्त्रियों द्वारा पुरुषों को शिक्षा के स्तर पर हारता हुआ नहीं सहन कर सकता। वे स्त्रियों के लिए पढ़ना समुद्र मंथन के समय निकके हुए विष के समान समझते हैं और पुरुषों के लिए शिक्षा किसी अमृत के घूँट की तरह। बे वज़ह के तर्कों को दे कर स्त्रियों को शिक्षा से दूर करके किसी भी राष्ट्र को उन्नति नहीं मिल सकती। मान लीजिए कि पुराने ज़माने में भारत की एक भी स्त्री पढ़ी – लिखी नहीं थी। हो सकता है ये बात सही ही। यह भी हो सकता है कि उस समय स्त्रियों को पढ़ाने की ज़रूरत नहीं समझी गई होगी। पर आज के समय में तो स्त्रयों को पढ़ने की जरुरत अवश्य है। इसलिए स्त्रियों को पढ़ाना चाहिए। लेखक समझाते हैं कि हमने सैकड़ों पुराने नियमों , आदेशों और रीती – रिवाजों को तोड़ दिया है या नहीं ? अर्थात जो भी पुराने नियम , आदेश और रीती – रिवाज ऐसे थे जो आज के समय में सही नहीं थे उनको भी तो हम सभी ने समाज से हटाया है। तो , हम स्त्रियों को अनपढ़ रखने की इस पुरानी चाल को भी तोड़ सकते है। क्योंकि यह हमें उन्नति की राह में रोकने का कार्य कर रहा है। लेखक यहाँ प्रार्थना भी करते हैं कि स्त्री – शिक्षा के विरोधी या विपरीत विचार रखने वालों को भी क्षणभर के लिए भी इस सोच को अपने मन में स्थान नहीं देना चाहिए कि पुराने ज़माने में यहाँ की सारी स्त्रियाँ अनपढ़ थीं अथवा उन्हें पढ़ने की आज्ञा नहीं थी। क्योंकि बहुत से उदहारण हैं जिनसे यह बात साबित होती है कि पुराने ज़माने में यहाँ की सारी स्त्रियाँ अनपढ़ नहीं थीं अथवा उन्हें पढ़ने की आज्ञा थी। जो लोग पुराणों में पढ़ी – लिखी स्त्रियों के उदहारण माँगते हैं उन्हें श्रीमद्भागवत , दशमस्कन्ध , के अंत की ओर या बाद में पड़ने वाले खंड या भाग का त्रेपनवाँ ( 53 ) अध्याय पढ़ना चाहिए। उसमें रुक्मिणी – हरण की कथा है। जिसमें रुक्मिणी ने जो एक लंबा – चौड़ा पत्र अकेले में लिखकर , एक ब्राह्मण के हाथ , श्रीकृष्ण को भेजा था। वह पत्र तो प्राकृत में नहीं था। लेखक ने यहाँ रुक्मिणी के पत्र के अकेले में लिखने का वर्णन इसलिए किया है क्योंकि लेखक समझाना चाहते हैं कि किसी और ने भी रुक्मणि के पत्र लिखने में कोई मदद नहीं की थी। और पत्र के प्राकृत में न होने से पता चलता है कि पुराने समय में स्त्रियाँ केवल प्राकृत भाषा ही नहीं बल्कि शिक्षित पुरुषों की भाषा भी जानती थीं। लेखक स्त्री -शिक्षा विरोधी लोगों को समझाते हुए कहते हैं कि यदि स्त्रियों का किया हुआ कोई अनर्थ उनके पढ़ाने ही का परिणाम है तो पुरुषों का किया हुआ अनर्थ भी उनकी विद्या और शिक्षा ही का परिणाम समझा जाना चाहिए। जैसे बम के गोले फेंकना , नरहत्या करना , डाके डालना , चोरियाँ करना , घूस लेना – ये सब यदि पढ़ने – लिखने ही का परिणाम हो तो सारे कॉलिज , स्कूल और पाठशालाएँ आदि जहाँ से भी किसी को भी कोई सीख मिले वो स्त्रोत बंद हो जाने चाहिए। लेखक स्त्री – शिक्षा विरोधी लोगों से प्रश्न करते हैं कि शकुंतला ने दुष्यंत को कष्ट पहुंचाने वाले वाक्य कहकर कौन – सी अस्वाभाविकता दिखाई ? क्या शकुंतला को दुष्यंत से यह कहना चाहिए था कि  , ” हे आर्य पुत्र , शाबाश ! आपने बड़ा अच्छा काम किया , जो मेरे साथ प्रेम – विवाह करके मुझे ठुकरा दिया। नीति , न्याय , सदाचार और धर्म की आप प्रत्यक्ष मूर्ति हैं ! ” इस तर्क का खंडन करते हुए लेखक कहते हैं कि पत्नी पर घोर से घोर अत्याचार करके जो उससे ऐसी उम्मीद रखते हैं कि उनकी पत्नियाँ हर हाल में उनका आदर ही करेंगी चाहे वे अपनी पत्नियों के साथ कैसा भी व्यवहार करें , वे लोग असल में मनुष्य – स्वभाव का थोड़ा सा भी ज्ञान नहीं रखते हैं। इस तर्क को और अधिक अच्छी तरह से समझाने के लिए लेखक सीता का उदहारण देते हुए कहते हैं कि सीता से अधिक पतिव्रता स्त्री अथवा पवित्र आचरणवाली स्त्री किसी ने कभी नहीं सुनी होगी। जिस कवि ने , शकुंतला नाटक में , अपमानित हुई शकुंतला से दुष्यंत के विषय में बुरा वाक्य कहलवाया है , उसी कवि ने पूर्ण रूप से त्याग अथवा उपेक्षा पूर्वक छोड़ने पर सीता से रामचंद्र के विषय में कहलवाया है। यदि किसी मनुष्य के साथ बुरा व्यवहार किया गया हो तो उस मनुष्य से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह शांति और आदर के साथ व्यवहार करेगा। सीता के परित्याग के कारण वाल्मीकि के समान शांत , नीतिज्ञ और क्षमाशील तपस्वी ने भी रामचंद्र पर क्रोध प्रकट किया है। इन सब का वर्णन लेखक ने इसलिए किया है क्योंकि लेखक समझाना चाहते हैं कि सही धर्म ज्ञाता वही है जो गलत को गलत कहने की हिम्मत रखता है जैसे वाल्मीकि जी ने राम जी के गलत होने पर उन पर  क्रोध दर्शया था न कि सीता माता के व्यवहार के लिए उनकी स्त्री – शिक्षा को गलत ठहराया था। लेखक सीता का रामचंद्र के लिए कटु शब्दों को बोलना सही मानते हैं और कहते हैं कि शकुंतला की तरह , अपने परित्याग को अन्याय समझने वाली सीता का रामचंद्र के विषय में , कटुवाक्य कहना हर तरह से स्वाभाविक है। सीता और शकुंतला का यह व्यवहार न तो पढ़ने – लिखने का परिणाम है ,न ही उनके गँवारपन का और न ही अकुलीनता का। लेखक स्पष्ट कहते हैं कि पढ़ने – लिखने में स्वयं ऐसी कोई बात नहीं है जिस के कारण से अनर्थ हो सके। जब अनर्थ पुरुष भी कर सकता है तो पाबंदी केवल स्त्रियों पर ही क्यों ? जो लोग यह कहते हैं कि पुराने ज़माने में यहाँ स्त्रियाँ न पढ़ती थीं अथवा उन्हें पढ़ने की पाबंदी थी वे या तो इतिहास की पूर्ण जानकारी नहीं रखते या जान – बूझकर लोगों को धोखा देते हैं। क्योंकि स्त्रियों के शिक्षित होने के अनेकों उदहारण मिलते हैं। समाज की दृष्टि में ऐसे लोग दंड के योग्य हैं। क्योंकि स्त्रियों को अनपढ़ रखने का उपदेश देना समाज का अहित और अपराध करना है , यहाँ तक की स्त्रियों को अनपढ़ रखना समाज की उन्नति में बाधा डालना है। इस देश की वर्तमान शिक्षा – प्रणाली अच्छी नहीं है। इस कारण यदि कोई स्त्रियों को पढ़ाना अनर्थ करने वाला समझे तो उसे इस प्रणाली को शुद्ध या साफ़ करना करना या कराना चाहिए , खुद पढ़ने – लिखने को दोष नहीं देना चाहिए। लेखक ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली को इसलिए बुरा कहा है क्योंकि लड़कों ही की शिक्षा – प्रणाली कौन – सी बड़ी अच्छी है। लेखक प्रश्न पूछते हैं कि शिक्षा प्रणाली बुरी होने के कारण क्या किसी ने यह राय दी है कि सारे स्कूल और कॉलिज बंद कर दिए जाएँ ? हम लोगो को  खुशी से लड़कियों और स्त्रियों की शिक्षा की प्रणाली में सुधार करना चाहिए। उन्हें क्या पढ़ाना चाहिए , कितना पढ़ाना चाहिए , उन्हें किस तरह की शिक्षा देना चाहिए और कहाँ पर देना चाहिए – घर में या स्कूल में – इन सब बातों पर बहस करनी चाहिए , विचार करना चाहिए। लेखक प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि जो भी जी में आता है आप वो सब करें परन्तु परमेश्वर के लिए यह नहीं कहिए कि स्वयं पढ़ने – लिखने में कोई दोष है – पढ़ना – लिखना अनर्थकर है , पढ़ना – लिखना घमंड को उत्पन्न करता है , पढ़ना – लिखना गृह – सुख का नाश करने वाला है। क्योंकि ऐसा कहना पूरे तौर पर असत्य है , झूठ है , बनावटी है। लेखक के कहने का तात्पर्य यह है कि शिक्षा कभी स्वयं किसी को कष्ट नहीं देती , कोई अनर्थ नहीं करती अतः जितना पढ़ना लड़को के लिए आवश्यक है उतना ही लड़कियों के लिए भी है।

 
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स्त्री – शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन पाठ व्याख्या (Shiksha Ke Virodhi Kurtakon Ka Khandan Lesson Explanation)

पाठ – बड़े शोक की बात है , आजकल भी ऐसे लोग विद्यमान हैं जो स्त्रियों को पढ़ाना उनके और गृह – सुख के नाश का कारण समझते हैं। और , लोग भी ऐसे – वैसे नहीं , सुशिक्षित लोग – ऐसे लोग जिन्होंने बड़े – बड़े स्कूलों और शायद कॉलिजों में भी शिक्षा पाई है , जो धर्म – शास्त्र और संस्कृत के ग्रन्थ साहित्य से परिचय रखते हैं , और जिनका पेशा कुशिक्षितों को सुशिक्षित करना , कुमार्गगामियों को सुमार्गगामी बनाना और अधार्मिकों को धर्मतत्त्व समझाना है।

शब्दार्थ
शोक – किसी आत्मीय की मृत्यु के कारण होने वाला दुख , मातम , पीड़ा , रंज , अंतर्वेदना , अफ़सोस , अवसाद , मनोव्यथा , गम , दर्द , दुखड़ा
विद्यमान – अस्तित्व में होना , उपस्थित , वर्तमान , मौजूद , यथार्थ
सुशिक्षित – जिसने अच्छी शिक्षा पाई हो , सुशिक्षा प्राप्त , अच्छी तरह से सिखाया हुआ
पेशा – जीविका हेतु किया जाने वाला धंधा , व्यवसाय , काम
कुशिक्षितों – जिसमें ज्ञान की कमी हो
कुमार्गगामियों – जो गलत मार्ग पर चलने वाला हो
सुमार्गगामी – सही मार्ग या दिशा में चलने वाला
अधार्मिकों – जो धार्मिक या धर्म से संबद्ध न हो , धर्म से संबंध न रखने वाला , धर्म को न मानने वाला , धर्म – विरुद्ध

नोट – इस गद्यांश में लेखक उन लोगों की सोच पर दुःख जाता रहे हैं जो पढ़े – लिखे होने के बावजूद भी स्त्रियों को पढ़ाना बुरा समझते हैं।

व्याख्या – लेखक कहते हैं की यह बहुत ही दुःख की बात है कि आजकल के आधुनिक समय में भी ऐसे लोग मौजूद हैं जो स्त्रियों को पढ़ाना उनके और घर की शान्ति के नष्ट होने का कारण समझते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक को इस बात का दुःख है कि आज के आधुनिक समय में भी कोई पुरुष अपने घर की शान्ति के नष्ट होने का कारण किसी स्त्री के पढ़े – लिखे होने को कैसे मान सकता है। और वे लोग भी कोई ऐसे – वैसे नहीं हैं , जिन्होंने अच्छी शिक्षा पाई है , ऐसे लोग जिन्होंने बड़े – बड़े स्कूलों और शायद कॉलिजों में भी शिक्षा पाई है , जो धर्म – शास्त्र और संस्कृत के ग्रन्थ साहित्य से परिचय रखते हैं , और जिनका जीविका हेतु किया जाने वाला व्यवसाय या काम ही ज्ञान की कमी वाले लोगों को ज्ञान प्राप्त कराना , जो गलत मार्ग पर चलने वाला है उनको सही मार्ग या दिशा में चलने योग्य बनाना और जो धार्मिक या धर्म से संबद्ध नहीं रखता या धर्म को नहीं मानता उनको धर्मतत्त्व समझाना है। अर्थात ऐसे लोग जो हर तरह से शिक्षित हैं या जिन्हें हर तरह का ज्ञान है उन लोगों का स्त्री – शिक्षा विरोधी व्यवहार लेखक को अत्यंत दुखी करता है।

पाठ – उनकी दलीलें सुन लीजिए –

  1. पुराने संस्कृत – कवियों के नाटकों में कुलीन स्त्रियों से अपढ़ों की भाषा में बातें कराई गई हैं। इससे प्रमाणित है कि इस देश में स्त्रियों को पढ़ाने की चाल न थी। होती तो इतिहास – पुराणादि में उनको पढ़ाने की नियमबद्ध प्रणाली ज़रूर लिखी मिलती।
    2. स्त्रियों को पढ़ाने से अनर्थ होते हैं। शकुंतला इतना कम पढ़ी थी कि गँवारों की भाषा में मुश्किल से एक छोटा – सा श्लोक वह लिख सकी थी। तिस पर भी उसकी इस इतनी कम शिक्षा ने भी अनर्थ कर डाला। शकुंतला ने जो कटु वाक्य दुष्यंत को कहे , वह इस पढ़ाई का ही दुष्परिणाम था।
    3. जिस भाषा में शकुंतला ने श्लोक रचा था वह अपढ़ों की भाषा थी। अतएव नागरिकों की भाषा की बात तो दूर रही , अपढ़ गँवारों की भी भाषा पढ़ाना स्त्रियों को बरबाद करना है।

 

शब्दार्थ
दलीलें – अपने पक्ष में सोच – विचार कर रखा जाने वाला तर्क , युक्ति , वाद – विवाद , बहस
कुलीन – उत्तम या प्रसिद्ध कुल में उत्पन्न , ख़ानदानी , अभिजात , किसी प्रसिद्ध कुल का व्यक्ति
अपढ़ों – अनपढ़ , जो पड़ा – लिखा न हो
प्रमाणित –  प्रमाण द्वारा सिद्ध , प्रमाणसिद्ध
नियमबद्ध – नियमों से बँधा हुआ , नियमों के अनुसार चलने या होने वाला , नियमानुकूल
प्रणाली – परंपरा , प्रथा
अनर्थ – बुरा , अशुभ , उलटा – पुल्टा , अर्थहीन
तिस – जिस
कटु – अप्रिय , बुरा लगने वाला , कटुभाषी , कर्कश , कुभाषी , दुखद , कष्टकारी
दुष्परिणाम  – बुरा नतीजा , घातक परिणाम

नोट – इस गद्यांश में लेखक उन लोगों के कुछ विचारों का वर्णन कर रहे हैं जो स्त्री – शिक्षा के विरुद्ध हैं और अपनी सोच को सही साबित करने के लिए कुछ न कुछ तर्क देते रहते हैं।

व्याख्या – लेखक स्त्री – शिक्षा विरोधी लोगो के उनके पक्ष में सोच – विचार कर रखे जाने वाला तर्क या वाद – विवाद को हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि उन स्त्री – शिक्षा विरोधी लोगो के तर्क सुन लीजिए। पहला तर्क देते हुए वे लोग कहते हैं कि पुराने संस्कृत – कवियों के नाटकों में जो उत्तम या प्रसिद्ध कुल में उत्पन्न स्त्रियों का वर्णन किया गया है , उनसे अनपढ़ की भाषा में बातें कराई गई हैं। अर्थात उन्हें अनपढ़ दिखाया गया है। इससे यह प्रमाण द्वारा सिद्ध है कि इस देश में स्त्रियों को पढ़ाने का कोई चलन नहीं था। अगर कोई चलन होता तो इतिहास – पुराणा आदि में स्त्रियों को पढ़ाने के लिए नियमों के अनुसार चलने वाली कोई प्रणाली ज़रूर लिखी मिलती। दूसरा तर्क देते हुए वे लोग कहते हैं कि स्त्रियों को पढ़ाने से हमेशा अशुभ या उलटा – पुल्टा ही होता है। वे शकुंतला का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि हैं कि शकुंतला इतना कम पढ़ी थी कि कम पढ़े लिखे लोगों की भाषा में मुश्किल से एक छोटा – सा श्लोक वह लिख सकी थी। जिस पर भी उसकी इस इतनी कम शिक्षा ने भी अनर्थ कर डाला था। शकुंतला ने जो अप्रिय या बुरा लगने वाले वाक्य दुष्यंत को कहे थे इन स्त्री -शिक्षा विरोधी लोगों के अनुसार वह शकुंतला की पढ़ाई का ही बुरा नतीजा था। तीसरा तर्क प्रस्तुत करते हुए वे लोग कहते हैं कि जिस भाषा में शकुंतला ने श्लोक रचा था वह अनपढ़ों की भाषा थी। इसलिए नागरिकों की भाषा की बात तो दूर रही , अनपढ़ गँवारों की भी भाषा पढ़ाना स्त्रियों को बरबाद करना है। कहने का तात्पर्य यह है कि स्त्री – शिक्षा विरोधी लोग किसी भी हाल में स्त्रियों को नाम मात्र की शिक्षा भी नहीं दिलाना चाहते थे। इसके लिए वे कोई भी बेढंगा तर्क प्रस्तुत कर देते थे। 

पाठ – इस तरह की दलीलों का सबसे अधिक प्रभावशाली उत्तर उपेक्षा ही है। तथापि हम दो – चार बातें लिखे देते हैं।
नाटकों में स्त्रियों का प्राकृत बोलना उनके अपढ़ होने का प्रमाण नहीं। अधिक से अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि वे संस्कृत न बोल सकती थीं। संस्कृत न बोल सकना न अपढ़ होने का सबूत है और न गँवार होने का। अच्छा तो उत्तररामचरित में ऋषियों की वेदांतवादिनी पत्नियाँ कौन – सी भाषा बोलती थीं ? उनकी संस्कृत क्या कोई गँवारी संस्कृत थी ? भवभूति और कालिदास आदि के नाटक जिस ज़माने के हैं उस ज़माने में शिक्षितों का समस्त समुदाय संस्कृत ही बोलता था , इसका प्रमाण पहले कोई दे ले तब प्राकृत बोलने वाली स्त्रियों को अपढ़ बताने का साहस करे। इसका क्या सबूत कि उस ज़माने में बोलचाल की भाषा प्राकृत न थी ? सबूत तो प्राकृत के चलन के ही मिलते हैं। प्राकृत यदि उस समय की प्रचलित भाषा न होती तो बौद्धों तथा जैनों के हज़ारों ग्रंथ उसमें क्यों लिखे जाते , और भगवान शाक्य मुनि तथा उनके चेले प्राकृत ही में क्यों धर्मोपदेश देते ? बौद्धों के त्रिपिटक ग्रंथ की रचना प्राकृत में किए जाने का एकमात्र कारण यही है कि उस ज़माने में प्राकृत ही सर्वसाधारण की भाषा थी। अतएव प्राकृत बोलना और लिखना अपढ़ और अशिक्षित होने का चिह्न नहीं।

शब्दार्थ
प्रभावशाली – जिसमें प्रभाव उत्पन्न करने की शक्ति हो , प्रभाववाला , जिसका दूसरों पर बहुत प्रभाव या असर पड़ता हो , असरदार , तेजस्वी , फलप्रद , परिणामकारी
उपेक्षा – किसी की इस प्रकार अवहेलना करना कि वह अपमानजनक प्रतीत हो , तिरस्कार , अनादर
सबूत – वह बात या वस्तु जिससे कोई बात साबित या प्रमाणित होती हो , प्रमाण
समस्त – आदि से अंत तक जितना हो वह सब , संपूर्ण , सभी ,  पूरा , कुल
समुदाय – समूह , झुंड़ , दल , समाज , वर्ग , जाति , बिरादरी
सबूत – वह बात या वस्तु जिससे कोई बात साबित या प्रमाणित होती हो , प्रमाण
चलन – रिवाज , रीति , ( फ़ैशन , ट्रेंड )
प्रचलित – जिसका प्रचलन हो , जो उपयोग या व्यवहार में आ रहा हो
त्रिपिटक – बौद्धों का मूल ग्रंथ जो तीन पिटकों या भागों ( विनय , सुत्त और अभिधम्म )
विभक्त –  अलग किया हुआ , जिसके भाग किए गए हों , बाँटा हुआ , विभाजित
सर्वसाधारण – आम आदमी , आम जनता , सभी प्रकार के सामान्य लोग , जो सब लोगों के लिए हो , सार्वजनिक
चिह्न –  निशान , छाप , पहचान , लक्षण , दाग , धब्बा , झंडा , पताका , निशानी , कोई वस्तु या भेंट जिसे देखकर उससे जुड़ी बातें या कोई घटना याद आ जाए

नोट – इस गद्यांश में लेखक स्त्री – शिक्षा विरोधियों द्वारा दिए गए तर्कों का खंडन कर रहे हैं।

व्याख्या – लेखक कहते हैं कि जिस तरह तर्क स्त्री – शिक्षा विरोधी देते हैं उन तर्कों का सबसे अधिक प्रभावशाली उत्तर इस प्रकार अवहेलना करना कि वह अपमानजनक प्रतीत हो या अनादर ही है। इसलिए लेखक इन तर्कों का खंडन करते हुए दो – चार बातें लिख रहे हैं। जैसे –

नाटकों में स्त्रियों का प्राकृत बोलना उनके अनपढ़ होने का प्रमाण नहीं है। अधिक से अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि वे संस्कृत नहीं बोल सकती होंगी। और लेखक कहते हैं कि संस्कृत नहीं बोल सकना न तो अनपढ़ होने का सबूत है और न ही गँवार होने का। लेखक पहले तर्क का खंडन करते हुए कहते हैं कि अगर प्राचीन समय में सभी स्त्रियाँ अनपढ़ थी तो उत्तररामचरित में ऋषियों की पत्नियाँ वेदों का बखान कौन – सी भाषा में करती थीं ? उनकी संस्कृत क्या कोई अनपढ़ों की संस्कृत थी ? कहने का तात्पर्य यह है कि वेद तो संस्कृत में ही लिखे गए हैं और अगर ऋषियों की पत्नियाँ वेदों का बखान करती थी तो इसका अर्थ है कि वे पढ़ी – लिखी थी। और लेखक स्त्री – शिक्षा विरोधी तर्कों पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि अगर प्राचीन स्त्रियाँ अनपढ़ थीं तो क्या जिस संस्कृत में वे वेदों का बखान करती थी वो भी अनपढ़ों की संस्कृत थी। अगले तर्क का खंडन करते हुए लेखक कहते हैं कि भवभूति और कालिदास आदि के नाटक जिस ज़माने के हैं उस ज़माने में शिक्षितों का पूरा दल या बिरादरी संस्कृत ही बोलता था , इसका प्रमाण पहले कोई दे उसके बाद प्राकृत बोलने वाली स्त्रियों को अनपढ़ बताने का साहस करे। कहने का तात्पर्य यह है कि प्राचीन समय में जिस तरह स्त्रियों के शिक्षित होने का कोई सबूत नहीं है उसी तरह सभी शिक्षित लोगों का संस्कृत का प्रयोग करने का भी कोई सबूत नहीं है। और न ही इस बात को कोई साबित या प्रमाणित नहीं कर सकता कि उस ज़माने में बोलचाल की भाषा प्राकृत नहीं थी ? और जो सबूत मिलते हैं उनके आधार पर कहा जा सकता है कि प्राकृत भाषा ही बोलचाल की भाषा थी। लेखक अगले तर्क का खंडन करते हुए कहते हैं कि प्राकृत यदि उस समय की उपयोग या व्यवहार में आने वाली भाषा न होती तो बौद्धों तथा जैनों के हज़ारों ग्रंथ उसमें क्यों लिखे जाते , और भगवान शाक्य मुनि तथा उनके चेले प्राकृत ही में क्यों धर्मोपदेश देते ? बौद्धों का मूल ग्रंथ जो तीन पिटकों या भागों में विभक्त है , ग्रंथ की रचना प्राकृत में किए जाने का एकमात्र कारण यही है कि उस ज़माने में प्राकृत ही साधारण लोगों की भाषा थी। इन सभी उदाहरणों को प्राचीन समय में प्राकृत भाषा के चलन के सबूत के आधार पर देखे जा सकते हैं। इन सभी चीज़ों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्राकृत बोलना और लिखना अनपढ़ और अशिक्षित होने का कोई चिह्न नहीं है।

पाठ – जिन पंडितों ने गाथा – सप्तशती , सेतुबंध – महाकाव्य और कुमारपालचरित आदि ग्रन्थ प्राकृत में बनाए हैं , वे यदि अपढ़ और गँवार थे तो हिंदी के प्रसिद्ध से भी प्रसिद्ध अखबार का संपादक इस ज़माने में अपढ़ और गँवार कहा जा सकता है ; क्योंकि वह अपने ज़माने की प्रचलित भाषा में अखबार लिखता है। हिंदी , बाँग्ला आदि भाषाएँ आजकल की प्राकृत हैं , शौरसेनी , मागधी , महाराष्ट्री और पाली आदि भाषाएँ उस ज़माने की थीं। प्राकृत पढ़कर भी उस ज़माने में लोग उसी तरह सभ्य , शिक्षित और पंडित हो सकते थे जिस तरह कि हिंदी , बाँग्ला , मराठी आदि भाषाएँ पढ़कर इस ज़माने में हम हो सकते हैं। फिर प्राकृत बोलना अपढ़ होने का सबूत है , यह बात कैसे मानी जा सकती है ? जिस समय आचार्यों ने नाट्यशास्त्र – संबंधी नियम बनाए थे उस समय सर्वसाधारण की भाषा संस्कृत न थी। चुने हुए लोग ही संस्कृत बोलते या बोल सकते थे। इसी से उन्होंने उनकी भाषा संस्कृत और दूसरे लोगों तथा स्त्रियों की भाषा प्राकृत रखने का नियम कर दिया। पुराने ज़माने में स्त्रियों के लिए कोई विश्वविद्यालय न था। फिर नियमबद्ध प्रणाली का उल्लेख आदि पुराणों में न मिले तो क्या आश्चर्य । और , उल्लेख उसका कहीं रहा हो , पर नष्ट हो गया हो तो ?

शब्दार्थ
संपादक – पुस्तक या सामयिक पत्र आदि को संशोधित कर प्रकाशन के योग्य बनाने वाला व्यक्ति , ( एडिटर ) , प्रस्तुत करने वाला
प्राकृत – एक भाषा जिसका प्रयोग प्राचीन साहित्य में मिलता है
नाट्यशास्त्र – नृत्य , संगीत एवं अभिनय आदि से संबंधित कलाओं की विस्तृत विवेचना करने वाला शास्त्र
नियमबद्ध – नियमों से बँधा हुआ , नियमों के अनुसार चलने या होने वाला , नियमानुकूल
उल्लेख – वर्णन , चर्चा , ज़िक्र

नोट – इस गद्यांश में लेखक प्राकृत भाषा को अनपढ़ों  की भाषा बोलने वालों के तर्कों का खंडन कर रहे हैं।

व्याख्या – लेखक बताते हैं कि जिन पंडितों ने गाथा – सप्तशती , सेतुबंध – महाकाव्य और कुमारपालचरित आदि ग्रन्थ प्राकृत में बनाए हैं , वे यदि अनपढ़ और गँवार थे तो आज के समय में हिंदी के प्रसिद्ध से भी प्रसिद्ध अखबार का संपादक इस ज़माने में अनपढ़ और गँवार कहा जा सकता है क्योंकि वह भी तो अपने ज़माने की प्रचलित भाषा में अखबार लिखता है। यहाँ लेखक यह समझाना चाहते हैं कि प्राकृत भाषा कोई अनपढ़ और गँवारों की भाषा नहीं थी बल्कि वह भी अपने जमाने की प्रचलित भाषा थी। इसी कारण बहुत से ग्रन्थ भी प्राकृत भाषा में विद्यमान हैं। हिंदी , बाँग्ला आदि भाषाएँ आजकल की प्राकृत भाषाएँ हैं क्योंकि इनका प्रयोग प्राचीन साहित्य में किया गया है। शौरसेनी , मागधी , महाराष्ट्री और पाली आदि भाषाएँ उस ज़माने की प्राकृत भाषाएँ थीं। लेखक प्राचीन समय और आज के समय के उदहारण प्रस्तुत करते हुए समझाते हैं कि प्राकृत पढ़कर भी उस ज़माने में लोग उसी तरह सभ्य , शिक्षित और पंडित हो सकते थे जिस तरह कि हिंदी , बाँग्ला , मराठी आदि भाषाएँ पढ़कर इस ज़माने में हम हो सकते हैं। फिर प्राकृत बोलना अनपढ़ होने का सबूत है , यह बात कैसे मानी जा सकती है ? कहने का तात्पर्य यह है कि जिस तरह आज के समय में हिंदी पढ़ने व् लिखने वाले को अनपढ़ नहीं कहा जा सकता उसी तरह प्राचीन समय में प्राकृत पढ़ने व् लिखने वाले को कैसे अनपढ़ कहा जा सकता है। जिस समय आचार्यों ने नाट्यशास्त्र अर्थात  नृत्य , संगीत एवं अभिनय आदि से संबंधित कलाओं की विस्तृत विवेचना करने वाले शास्त्र से संबंधी नियम बनाए थे उस समय साधारण लोगों की भाषा संस्कृत नहीं थी। चुने हुए लोग ही संस्कृत बोलते या बोल सकते थे। इसी कारण से उन्होंने उनकी भाषा संस्कृत और दूसरे लोगों तथा स्त्रियों की भाषा प्राकृत रखने का नियम कर दिया। पुराने ज़माने में स्त्रियों के लिए कोई विश्वविद्यालय नहीं था। फिर नियम के अनुसार स्त्री शिक्षा प्रणाली का वर्णन आदि पुराणों में न मिले तो इसमें क्या आश्चर्य है। और , उसका वर्णन कहीं रहा भी हो , परन्तु नष्ट हो गया हो यह भी तो हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक हर तर्क का खंडन मजबूत तथ्यों के साथ करते हैं ताकि किसी भी साधारण व्यक्ति को स्त्री – शिक्षा विरोधी लोगों के तर्क सही न लगे। 

पाठ – पुराने ज़माने में विमान उड़ते थे। बताइए उनके बनाने की विद्या सिखाने वाला कोई शास्त्र ! बड़े – बड़े जहाज़ो पर सवार होकर लोग द्वीपांतरों को जाते थे। दिखाइए , जहाज़ बनाने की नियमबद्ध प्रणाली के दर्शक ग्रंथ ! पुराणादि में विमानों और जहाज़ो द्वारा की गई यात्राओं के हवाले देखकर उनका अस्तित्व तो हम बड़े गर्व से स्वीकार करते हैं , परंतु पुराने ग्रंथों में अनेक प्रगल्भ पंडिताओं के नामोल्लेख देखकर भी कुछ लोग भारत की तत्कालीन स्त्रियों को मूर्ख , अपढ़ और गँवार बताते हैं ! इस तर्कशास्त्रज्ञता और इस न्यायशीलता की बलिहारी !

शब्दार्थ
द्वीपांतरों – एक द्वीप से दूसरे द्वीप तक
दर्शक – दर्शन करने वाला , देखने वाला , द्रष्टा
हवाला – प्रमाण या साक्ष्य का उल्लेख , पता , निशान , उदाहरण , दृष्टांत
प्रगल्भ – प्रायः बढ़ – चढ़कर बोलने वाला , अधिक बोलने वाला , प्रतिभाशाली , हाज़िरजवाब , निडर , निर्भय
तत्कालीन – उस समय या उसी समय का
तर्कशास्त्रज्ञता – तर्क शास्त्र को जानना
न्यायशीलता – न्याय के अनुसार आचरण करना
बलिहारी – प्रेम , श्रद्धा आदि के कारण अपने आपको किसी के अधीन या किसी पर न्योछावर कर देना

नोट – इस गद्यांश में लेखक ऐसे कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं जिनके होने को तो हम स्वीकार करते हैं परन्तु उसके होने के कारणों का हमारे पास कोई सबूत नहीं है परन्तु फिर भी हम स्वीकार करते हैं। तो लेखक उन लोगों के लिए हैरान है जो स्त्री – शिक्षा के सबूतों के मिलने पर भी बेफालतू के तर्कों को दे कर स्त्रियों को मूर्ख , अपढ़ और गँवार बताते हैं।

व्याख्या – लेखक कहते हैं कि पुराने ज़माने में भी विमान उड़ते थे। लेखक उन लोगों से पूछते हैं , जो स्त्री – शिक्षा के विरोधी हैं , कि उस जमाने के उन उड़ने वाले विमानों के बनाने की विद्या सिखाने वाले किसी शास्त्र के बारे में क्या वे बता सकते हैं। उस जमाने में भी बड़े – बड़े जहाज़ो पर सवार होकर लोग एक द्वीप से दूसरे द्वीप पर आते – जाते रहते थे। लेखक स्त्री – शिक्षा के विरोधी लोगों के उस तर्क को जिसमें वे कहते हैं कि स्त्रियाँ प्राचीन काल में अनपढ़ थी क्योंकि उनकी शिक्षा प्रणाली के कोई नियमबद्ध तरीके नहीं मिलते , इस तर्क को गलत साबित करते हुए लेखक कहते हैं कि प्राचीन समय में जो जहाज़ उड़ते थे , उन जहाज़ों को बनाने की नियमबद्ध प्रणाली के किसी दर्शक ग्रंथ के बारे में क्या कोई बता सकता है। लेखक कहते हैं कि पुराणादि में विमानों और जहाज़ो द्वारा की गई यात्राओं के उदहारण देखकर उनका अस्तित्व तो हम बड़े गर्व से स्वीकार करते हैं , परंतु पुराने ग्रंथों में अनेक प्रायः बढ़ – चढ़कर बोलने वाली अथवा प्रतिभाशाली , हाज़िरजवाब तथा निडर पंडिताओं के नामोल्लेख देखकर भी कुछ लोग भारत की तत्कालीन स्त्रियों को मूर्ख , अपढ़ और गँवार बताते हैं। इस तर्क शास्त्र को जानने वालों और इस न्याय के अनुसार आचरण करने वालों के समक्ष लेखक प्रेम और श्रद्धा आदि के कारण उन पर अपने आप को न्योछावर कर देना चाहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक को उन लोगों की शिक्षा और ज्ञान पर संदेह हो रहा है जो प्राचीन समय में स्त्री – शिक्षा के सबूत मिलने पर भी यह कहते हैं कि प्राचीन समय में स्त्रियाँ मूर्ख , अपढ़ और गँवार थी।

पाठ – वेदों को प्रायः सभी हिन्दू ईश्वर – कृत मानते हैं। सो इर्श्वर तो वेद – मंत्रों की रचना अथवा उनका दशर्न विश्ववरा आदि स्त्रियों से करावे और हम उन्हें ककहरा पढ़ाना भी पाप समझें। शीला और विज्जा आदि कौन थीं ? वे स्त्री थीं या नहीं ? बड़े – बड़े  पुरुष – कवियों से आदृत हुई हैं या नहीं ? शार्ङ्गधर – पद्धति में उनकी कविता के नमूने हैं या नहीं ? बौद्ध – ग्रन्थ त्रिपिटक के अंतर्गत थेरीगाथा में जिन सैंकड़ों स्त्रियों की पद्य – रचना उदृत है वे क्या अपढ़ थीं ? जिस भारत में कुमारिकाओं को चित्र बनाने , नाचने , गाने , बजाने , फूल चुनने , हार गूँथने , पैर मलने तक की कला सीखने की आज्ञा थी उनको लिखने – पढ़ने की आज्ञा न थी। कौन विज्ञ ऐसी बात मुख से निकालेगा ? और , कोई निकाले भी तो मानेगा कौन  ? अत्रि की पत्नी पत्नी – धर्म पर व्याख्यान देते समय घंटों पांडित्य प्रकट करे , गार्गी बड़े – बड़े ब्रह्मवादियों को हरा दे , मंडन मिश्र की सहधर्मचारिणी शंकराचार्य के  छक्के छुड़ा दे ! गज़ब ! इससे अधिक भयंकर बात और क्या हो सकेगी ! यह सब पापी पढ़ने का अपराध है। न वे पढ़तीं , न वे पूजनीय पुरुषों का मुकाबला करतीं। यह सारा दुराचार स्त्रियों को पढ़ाने ही का कुफल है। समझे। स्त्रियों के लिए पढ़ना कालकूट और पुरुषों के लिए पीयूष का घूँट ! ऐसी ही दलीलों और दृष्टांतों के आधार पर कुछ लोग स्त्रियों को अपढ़ रखकर भारतवर्ष का गौरव बढ़ाना चाहते हैं।

शब्दार्थ
ईश्वर – कृत – ईश्वर द्वारा निर्मित , जिनका निर्माण स्वयं ईश्वर ने किया हो
विश्ववरा – वैदिक काल की एक प्रसिद्ध विद्वान स्त्री
ककहरा –  हिंदी वर्णमाला में ‘ क ‘ से ‘ ह ‘ तक के वर्णों का समूह , किसी विषय का आरंभिक या ज़रूरी ज्ञान
आदृत – आदर किया या पाया हुआ , आदरप्राप्त , सम्मानित , प्रतिष्ठित
शार्ङ्गधर – शार्ङ्गधर मध्यकाल के एक आयुर्वेदाचार्य थे
विज्ञ – जानकार , विद्वान , ज्ञाता , विशेषज्ञ , निपुण
व्याख्यान –  किसी विषय पर अपने विचार प्रस्तुत करना , ( लेक्चर ) , भाषण
पांडित्य – पंडित होने की अवस्था या भाव , पंडिताई , विद्वता
ब्रह्मवादियों – वेद पढ़ने – पढ़ाने वाला
सहधर्मचारिणी – पत्नी
दुराचार –  निंदनीय आचरण , बदचलनी , कदाचार , कुकृत्य , दुष्कर्म , कुकर्म
कुफल –  किसी गलत कार्य या बात के परिणामस्वरूप मिलने वाला बुरा फल या नतीजा , दुष्परिणाम
कालकूट – समुद्र मंथन के समय निकला हुआ विष जिसका शिव ने पान किया था
पीयूष – अमृत
दृष्टांतों – किसी विषय को समझाने के लिए उसके समान किसी दूसरी बात का कथन , उदाहरण , मिसाल
गौरव – सम्मान , आदर , इज़्ज़त , प्रतिष्ठा , मर्यादा , श्रेष्ठता , प्रभुता , महानता , बड़प्पन , वर्चस्व

नोट – इस गद्यांश में लेखक प्राचीन समय की कुछ प्रसिद्ध विद्वान स्त्रियों के उदहारण दे कर स्त्री – शिक्षा विरोधी लोगों के तर्कों को गलत साबित करने का प्रयास कर रहे हैं।

व्याख्या – लेखक कहते हैं कि वेदों को प्रायः सभी हिन्दू स्वयं ईश्वर के द्वारा निर्मित मानते हैं। इसलिए लेखक स्त्री – शिक्षा विरोधी लोगों को समझाते हुए कहते हैं कि जब इर्श्वर स्वयं द्वारा निर्मित वेद – मंत्रों की रचना अथवा उनको सभी तक पहुँचाने का माध्यम विश्ववरा , जो की वैदिक काल की एक प्रसिद्ध विद्वान स्त्री हैं , आदि स्त्रियों को बनाते हैं और हम उन्हीं स्त्रियों को ककहरा अर्थात किसी विषय का आरंभिक या ज़रूरी ज्ञान पढ़ाना भी पाप समझ रहे हैं। लेखक के कहने का तात्पर्य यह है कि जब ईश्वर ने खुद ही स्त्रियों को शिक्षा के योग्य स्वीकार किया है तो हम इंसान कैसे उनके अधिकार को छीन सकते हैं। लेखक और उदहारण देते हुए कहते हैं कि शीला और विज्जा आदि कौन थीं ? वे स्त्री थीं या नहीं ? बड़े – बड़े  पुरुष – कवियों से उन्हें प्राप्त हुआ हैं या नहीं ? शार्ङ्गधर जो की मध्यकाल के एक आयुर्वेदाचार्य थे उनकी शार्ङ्गधर – पद्धति में उनकी कविता के नमूने हैं या नहीं ? अर्थात लेखक यहाँ समझाना चाहते हैं कि प्राचीन समय की स्त्रियाँ पुरुषों की ही तरह शिक्षित थी और इसके अनेक उदहारण हमें कई जगह देखने को मिल जाते हैं। लेखक फिर स्त्री – शिक्षा विरोधियों को उनके तर्कों पर गलत ठहराते हुए प्रश्न पूछते हैं कि बौद्ध – ग्रन्थ त्रिपिटक के अंतर्गत थेरीगाथा में जिन सैंकड़ों स्त्रियों की पद्य – रचना उदृत है वे क्या अनपढ़ थीं ? और जिस भारत में लड़कियों को चित्र बनाने , नाचने , गाने , बजाने , फूल चुनने , हार गूँथने , पैर मलने तक की कला सीखने की आज्ञा थी उनको क्या केवल लिखने – पढ़ने की आज्ञा नहीं थी। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत एक ऐसा देश रहा है जिसमें लड़कियों को लड़कों की ही तरह हर कार्य करने की अनुमति थी , फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि लड़कियों को केवल पढ़ने – लिखने से रोका जाता हो। कौन विद्वान या विशेषज्ञ ऐसी बात अपने मुख से निकालेगा ? और , कोई निकाले भी तो मानेगा कौन  ? कहने का तात्पर्य यह है कि लड़कियों के शिक्षित और विदुषी होने के कई प्रमाण मिलते हैं तो उन प्रमाणों को नजरअंदाज करके स्त्रियों को मुर्ख और अनपढ़ कैसे कहा जा सकता है ? लेखक और भी उदहारण प्रस्तुत करते हैं जैसे – अत्रि की पत्नी अपने पत्नी – धर्म पर अपने विचार प्रस्तुत करते समय घंटों अपनी विद्वता प्रकट करे , गार्गी बड़े – बड़े वेद पढ़ने – पढ़ाने वालों को हरा दे , मंडन मिश्र की पत्नी शंकराचार्य जैसे विद्वान के छक्के छुड़ा दे ! इन सब पर भरोसा करना कठिन है परन्तु यही सत्य है। इससे अधिक भयंकर बात और क्या हो सकेगी कि इन सब को पापी पढ़ने का अपराध मन लिया जाता है। क्योंकि न स्त्रियाँ पढ़तीं और न ही वे पूजनीय पुरुषों का मुकाबला करतीं। यह सारा दुष्कर्म या कुकर्म स्त्रियों को पढ़ाने के परिणामस्वरूप मिलने वाला बुरा फल या नतीजा ही तो है। यहाँ लेखक समझाना चाह रहे हैं कि स्त्रियों के पढ़ने – लिखने को अपराध वही समझ सकता है जो स्त्रियों द्वारा पुरुषों को शिक्षा के स्तर पर हारता हुआ नहीं सहन कर सकता। वे स्त्रियों के लिए पढ़ना समुद्र मंथन के समय निकके हुए विष के समान समझते हैं और पुरुषों के लिए शिक्षा किसी अमृत के घूँट की तरह। ऐसी ही दलीलों और दृष्टांतों के आधार पर कुछ लोग स्त्रियों को अनपढ़ रखकर भारतवर्ष के गौरव को बढ़ाना चाहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि बे वज़ह के तर्कों को दे कर स्त्रियों को शिक्षा से दूर करके किसी भी राष्ट्र को उन्नति नहीं मिल सकती।

पाठ – मान लीजिए कि पुराने ज़माने में भारत की एक भी स्त्री पढ़ी – लिखी न थी। न सही। उस समय स्त्रियों को पढ़ाने की ज़रूरत न समझी गई होगी। पर अब तो है। अतएव पढ़ाना चाहिए। हमने सैकड़ों पुराने नियमों , आदेशों और प्रणालियों को तोड़ दिया है या नहीं ? तो , चलिए , स्त्रियों को अपढ़ रखने की इस पुरानी चाल को भी तोड़ दें। हमारी प्रार्थना तो यह है कि स्त्री – शिक्षा के विपक्षियों को क्षणभर के लिए भी इस कल्पना को अपने मन में स्थान न देना चाहिए कि पुराने ज़माने में यहाँ की सारी स्त्रियाँ अपढ़ थीं अथवा उन्हें पढ़ने की आज्ञा न थी। जो लोग पुराणों में पढ़ी – लिखी स्त्रियों के हवाले माँगते हैं उन्हें श्रीमद्भागवत , दशमस्कन्ध , के उत्तरार्द्ध का त्रेपनवाँ अध्याय पढ़ना चाहिए। उसमें रुक्मिणी – हरण की कथा है। रुक्मिणी ने जो एक लंबा – चौड़ा पत्र एकांत में लिखकर , एक ब्राह्मण के हाथ , श्रीकृष्ण को भेजा था वह तो प्राकृत में न था। उसके प्राकृत में होने का उल्लेख भागवत में तो नहीं। उसमें रुक्मिणी ने जो पांडित्य दिखाया है वह उसके अपढ़ और अल्पज्ञ होने अथवा गँवारपन का सूचक नहीं। पुराने ढंग के पक्के सनातन – धर्मावलंबियों की दृष्टि में तो नाटकों की अपेक्षा भागवत का महत्त्व बहुत ही अधिक होना चाहिए। इस दशा में यदि उनमें से कोई यह कहे कि सभी प्राक्कालीन स्त्रियाँ अपढ़ होती थीं तो उसकी बात पर विश्वास करने की ज़रूरत नहीं। भागवत की बात यदि पुराणकार या कवि की कल्पना मानी जाए तो नाटकों की बात उससे भी गई – बीती समझी जानी चाहिए।

शब्दार्थ
विपक्षी – जिसका संबंध विपक्ष से हो , विरोधी , विपरीत , उलटा , प्रतिद्वंद्वी , प्रतिवादी , शत्रु , वैरी
कल्पना –  रचनाशीलता की मानसिक शक्ति , कल्पित करने का भाव , उद्भावना , सोच , मान लेना
उत्तरार्द्ध – किसी वस्तु के दो खंडों या भागों में से उत्तर अर्थात् अंत की ओर या बाद में पड़ने वाला खंड या भाग , पिछला आधा भाग
त्रेपनवाँ – 53
एकांत –  निर्जन स्थान , सूना स्थान , शांत या शोरगुल रहित ऐसा स्थान जहाँ कोई न हो , तनहाई
अल्पज्ञ – कम जानने वाला , कम ज्ञान रखने वाला , अबोध
सूचक –  सूचित करने वाला , सूचना देने वाला , किसी चीज़ अथवा तथ्य का लक्षण या भेद बताने वाला , बोधक , परिचायक
सनातन – सदा बना रहने वाला , नित्य , शाश्वत , चिरंतन , निश्चल , स्थिर ,अनंत , अनादि
धर्मावलंबी – वह जो किसी धर्म को मानता हो
अपेक्षा – आशा , उम्मीद , भरोसा ,आवश्यकता , तुलना में
प्राक्कालीन – जिसे हुए या बने बहुत दिन हो गये हों

नोट – इस गद्यांश में लेखक उदहारणों की सहायता से समझाना चाह रहे हैं कि हमें क्यों विश्वास नहीं करना चाहिए कि प्राचीन समय  स्त्रियाँ अनपढ़ या मुर्ख थीं।

व्याख्या – लेखक कहते हैं कि मान लीजिए कि पुराने ज़माने में भारत की एक भी स्त्री पढ़ी – लिखी नहीं थी। हो सकता है ये बात सही ही। यह भी हो सकता है कि उस समय स्त्रियों को पढ़ाने की ज़रूरत नहीं समझी गई होगी। पर आज के समय में तो स्त्रयों को पढ़ने की जरुरत अवश्य है। इसलिए स्त्रियों को पढ़ाना चाहिए। लेखक समझाते हैं कि हमने सैकड़ों पुराने नियमों , आदेशों और रीती – रिवाजों को तोड़ दिया है या नहीं ? अर्थात जो भी पुराने नियम , आदेश और रीती – रिवाज ऐसे थे जो आज के समय में सही नहीं थे उनको भी तो हम सभी ने समाज से हटाया है। तो , हम स्त्रियों को अनपढ़ रखने की इस पुरानी चाल को भी तोड़ सकते है। क्योंकि यह हमें उन्नति की राह में रोकने का कार्य कर रहा है। लेखक यहाँ प्रार्थना भी करते हैं कि स्त्री – शिक्षा के विरोधी या विपरीत विचार रखने वालों को भी क्षणभर के लिए भी इस सोच को अपने मन में स्थान नहीं देना चाहिए कि पुराने ज़माने में यहाँ की सारी स्त्रियाँ अनपढ़ थीं अथवा उन्हें पढ़ने की आज्ञा नहीं थी। क्योंकि बहुत से उदहारण हैं जिनसे यह बात साबित होती है कि पुराने ज़माने में यहाँ की सारी स्त्रियाँ अनपढ़ नहीं थीं अथवा उन्हें पढ़ने की आज्ञा थी। जो लोग पुराणों में पढ़ी – लिखी स्त्रियों के उदहारण माँगते हैं उन्हें श्रीमद्भागवत , दशमस्कन्ध , के अंत की ओर या बाद में पड़ने वाले खंड या भाग का त्रेपनवाँ ( 53 ) अध्याय पढ़ना चाहिए। उसमें रुक्मिणी – हरण की कथा है। जिसमें रुक्मिणी ने जो एक लंबा – चौड़ा पत्र अकेले में लिखकर , एक ब्राह्मण के हाथ , श्रीकृष्ण को भेजा था। वह पत्र तो प्राकृत में नहीं था। और उसके प्राकृत में होने का वर्णन भागवत में तो नहीं मिलता है। उसमें रुक्मिणी ने जो पांडित्य दिखाया है वह उसके अनपढ़ और कम ज्ञानी होने अथवा गँवारपन का प्रतिक तो बिलकुल नहीं है। लेखक ने यहाँ रुक्मिणी के पत्र के अकेले में लिखने का वर्णन इसलिए किया है क्योंकि लेखक समझाना चाहते हैं कि किसी और ने भी रुक्मणि के पत्र लिखने में कोई मदद नहीं की थी। और पत्र के प्राकृत में न होने से पता चलता है कि पुराने समय में स्त्रियाँ केवल प्राकृत भाषा ही नहीं बल्कि शिक्षित पुरुषों की भाषा भी जानती थीं। पुराने ढंग के पक्के सनातन – और धर्म का ज्ञान रखने वालों  की दृष्टि में तो नाटकों की तुलना में भागवत का महत्त्व बहुत ही अधिक होना चाहिए। इस दशा में यदि उनमें से कोई यह कहे कि सभी प्राचीन समय की स्त्रियाँ अनपढ़ होती थीं तो उसकी बात पर विश्वास करने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि भागवत की बात यदि पुराणकार या कवि की केवल सोच मात्र मानी जाए तो नाटकों की बात उससे भी गई – बीती समझी जानी चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस बात का वर्णन पुराणों में है यदि उस बात पर भी कोई विश्वास नहीं करता है तो नाटकों की तो बात ही छोड़ देनी चाहिए। क्योंकि नाटक भी कहीं न कहीं पुराणों आदि से प्रेरित होते हैं।

पाठ – स्त्रियों का किया हुआ अनर्थ यदि पढ़ाने ही का परिणाम है तो पुरुषों का किया हुआ अनर्थ भी उनकी विद्या और शिक्षा ही का परिणाम समझना चाहिए। बम के गोले फेंकना , नरहत्या करना , डाके डालना , चोरियाँ करना , घूस लेना – ये सब यदि पढ़ने – लिखने ही का परिणाम हो तो सारे कॉलिज , स्कूल और पाठशालाएँ बंद हो जानी चाहिए। परंतु विक्षिप्तों , बातव्यथितों और ग्रहग्रस्तों के सिवा ऐसी दलीलें पेश करने वाले बहुत ही कम मिलेंगे। शकुंतला ने दुष्यंत को कटु वाक्य कहकर कौन – सी अस्वाभाविकता दिखाई ? क्या वह यह कहती कि – ” आर्य पुत्र , शाबाश ! बड़ा अच्छा काम किया जो मेरे साथ गांधर्व – विवाह करके मुकर गए। नीति , न्याय , सदाचार और धर्म की आप प्रत्यक्ष मूर्ति हैं ! ” पत्नी पर घोर से घोर अत्याचार करके जो उससे ऐसी आशा रखते हैं वे मनुष्य – स्वभाव का किंचित भी ज्ञान नहीं रखते। सीता से अधिक साध्वी स्त्री नहीं सुनी गई। जिस कवि ने , शकुंतला नाटक में , अपमानित हुई शकुंतला से दुष्यंत के विषय में दुर्वाक्य कहाया है उसी ने परित्यक्त होने पर सीता से रामचंद्र के विषय में क्या कहाया है , सुनिए –

वाच्यस्त्वया मद्वचनात् स राजा –
वह्नौ विशुद्धामति यत्समक्षम्।
मां लोकवाद श्रवणादहासीः
श्रुतस्य तत्किन्व सदृशं कुलस्य ?

लक्ष्मण ! ज़रा उस राजा से कह देना कि मैंने तो तुम्हारी आँख के सामने ही आग में कूदकर अपनी विशुद्धता साबित कर दी थी। तिस पर भी , लोगों के मुख से निकला मिथ्यावाद सुनकर ही तुमने मुझे छोड़ दिया। क्या यह बात तुम्हारे कुल के अनुरूप है ? अथवा क्या यह तुम्हारी विद्वता या महत्ता को शोभा देने वाली है ? सीता का यह संदेश कटु नहीं तो क्या मीठा है ? ‘ राजा ’ मात्र कहकर उनके पास अपना संदेसा भेजा। यह उक्ति न किसी गँवार स्त्री की ; किन्तु महाब्रह्मज्ञानी राजा जनक की लड़की और मन्वादि महर्षियों के धर्मशास्त्रों का ज्ञान रखने वाली रानी की –

नृपस्य वर्णाश्रमपालनं यत्
स एव धर्मो मनुना प्रणीतः

सीता की धर्मशास्त्राज्ञता का यह प्रमाण , वहीं , आगे चलकर , कुछ ही दूर पर , कवि ने दिया है। सीता – परित्याग के कारण वाल्मीकि के समान शांत , नीतिज्ञ और क्षमाशील तपस्वी तक ने – ” अस्त्येव मन्युर्भरताग्रजे मे ” – कहकर रामचंद्र पर क्रोध प्रकट किया है।

शब्दार्थ
विक्षिप्तों – जिसके मस्तिष्क में विकार हो गया हो , पागल , सनकी
बातव्यथितों – बातों से दुःखी होने वाला
ग्रहग्रस्तों – पाप ग्रह से प्रभावित
गांधर्व – विवाह – प्रेम – विवाह
मुकरना – अपनी कही हुई बात से हट जाना , इनकार करना , नटना
किंचित –  थोड़ा , अल्प , कुछ
साध्वी – पतिव्रता स्त्री , नारी , पवित्र आचरणवाली , शुद्ध आचरणवाली
दुर्वाक्य – बुरा वाक्य
परित्यक्त – पूर्ण रूप से त्यागा हुआ , पूर्णत , उपेक्षा पूर्वक छोड़ा हुआ
मिथ्यावाद – असत्य कथन , झूठी बात
अनुरूप – अनुसार , मुताबिक , अनुकूल
उक्ति – कवित्वमय कथन , वचन , वाक्य , अनोखा व चमत्कारपूर्ण वाक्य , महत्वपूर्ण कथन , किसी की कही हुई बात

नोट – इस गद्यांश में लेखक स्त्री- विरोधी लोगों के तर्कों का खंडन कर उन्हें समझाने का प्रयास कर रहे हैं।

व्याख्या – लेखक स्त्री – विरोधी लोगों को समझाते हुए कहते हैं कि यदि स्त्रियों का किया हुआ कोई अनर्थ उनके पढ़ाने ही का परिणाम है तो पुरुषों का किया हुआ अनर्थ भी उनकी विद्या और शिक्षा ही का परिणाम समझा जाना चाहिए। जैसे बम के गोले फेंकना , नरहत्या करना , डाके डालना , चोरियाँ करना , घूस लेना – ये सब यदि पढ़ने – लिखने ही का परिणाम हो तो सारे कॉलिज , स्कूल और पाठशालाएँ आदि जहाँ से भी किसी को भी कोई सीख मिले वो स्त्रोत बंद हो जाने चाहिए। परंतु जिसके मस्तिष्क में विकार हो गया हो अथवा जो सनकी हो , जो किसी की बातों से दुःखी होने वाला हो और जो पाप ग्रह से प्रभावित हो उनके सिवा ऐसी दलीलें पेश करने वाले बहुत ही कम मिलेंगे। लेखक का अभिप्राय यहाँ स्त्री – शिक्षा के समर्थकों से है। लेखक स्त्री – शिक्षा विरोधी लोगों से प्रश्न करते हैं कि शकुंतला ने दुष्यंत को कष्ट पहुंचाने वाले वाक्य कहकर कौन – सी अस्वाभाविकता दिखाई ? क्या शकुंतला को दुष्यंत से यह कहना चाहिए था कि  , ” हे आर्य पुत्र , शाबाश ! आपने बड़ा अच्छा काम किया , जो मेरे साथ प्रेम – विवाह करके मुझे ठुकरा दिया। नीति , न्याय , सदाचार और धर्म की आप प्रत्यक्ष मूर्ति हैं ! ” इस तर्क का खंडन करते हुए लेखक कहते हैं कि पत्नी पर घोर से घोर अत्याचार करके जो उससे ऐसी उम्मीद रखते हैं कि उनकी पत्नियाँ हर हाल में उनका आदर ही करेंगी चाहे वे अपनी पत्नियों के साथ कैसा भी व्यवहार करें , वे लोग असल में मनुष्य – स्वभाव का थोड़ा सा भी ज्ञान नहीं रखते हैं। इस तर्क को और अधिक अच्छी तरह से समझाने के लिए लेखक सीता का उदहारण देते हुए कहते हैं कि सीता से अधिक पतिव्रता स्त्री अथवा पवित्र आचरणवाली स्त्री किसी ने कभी नहीं सुनी होगी। जिस कवि ने , शकुंतला नाटक में , अपमानित हुई शकुंतला से दुष्यंत के विषय में बुरा वाक्य कहलवाया है , उसी कवि ने पूर्ण रूप से त्याग अथवा उपेक्षा पूर्वक छोड़ने पर सीता से रामचंद्र के विषय में कहलवाया है , कि सीता लक्ष्मण से कहती हैं कि ज़रा उस राजा से कह देना कि उन्होंने तो राम की आंखों के सामने ही आग में कूदकर अपनी विशुद्धता साबित कर दी थी। इसके बावजूद भी , लोगों के मुख से निकली झूठी बातों को सुनकर ही राम ने उन्हें छोड़ दिया। क्या यह बात उनके कुल के अनुकूल है ? अथवा क्या यह उनकी बुद्धिमानी या महानता को शोभा देने वाली बात है ? सीता का यह संदेश कष्टदायक नहीं है तो क्या मीठा है ? उन्होंने ‘ राजा ’ मात्र कहकर राम के पास अपना सन्देश भेजा था। और यह वाक्य किसी गँवार स्त्री का नहीं बल्कि महाब्रह्मज्ञानी राजा जनक की लड़की और मन्वादि महर्षियों के धर्मशास्त्रों का ज्ञान रखने वाली रानी का था। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि किसी मनुष्य के साथ बुरा व्यवहार किया गया हो तो उस मनुष्य से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह शांति और आदर के साथ व्यवहार करेगा। सीता की धर्मशास्त्र के ज्ञान का प्रमाण आगे चलकर , उसी ग्रन्थ में , कवि ने आगे दिया है। अर्थात सीता धर्म का ज्ञान रखने वाली स्त्री थी। सीता के परित्याग के कारण वाल्मीकि के समान शांत , नीतिज्ञ और क्षमाशील तपस्वी ने भी रामचंद्र पर क्रोध प्रकट किया है। इन सब का वर्णन लेखक ने इसलिए किया है क्योंकि लेखक समझाना चाहते हैं कि सही धर्म ज्ञाता वही है जो गलत को गलत कहने की हिम्मत रखता है जैसे वाल्मीकि जी ने राम जी के गलत होने पर उन पर  क्रोध दर्शया था न कि सीता माता के व्यवहार के लिए उनकी स्त्री – शिक्षा को गलत ठहराया था।

पाठ – अतएव , शकुंतला की तरह , अपने परित्याग को अन्याय समझने वाली सीता का रामचंद्र के विषय में , कटुवाक्य कहना सर्वथा स्वाभाविक है। न यह पढ़ने – लिखने का परिणाम है न गँवारपन का , न अकुलीनता का।

पढ़ने – लिखने में स्वयं कोई बात ऐसी नहीं जिससे अनर्थ हो सके। अनर्थ का बीज उसमें हरगिज़ , किसी भी हालत में अनर्थ पुरुषों से भी होते हैं। अपढ़ों और पढ़े – लिखों , दोनों से। अनर्थ , दुराचार और पापाचार के कारण और ही होते हैं और वे व्यक्ति – विशेष का चाल – चलन देखकर जाने भी जा सकते हैं। अतएव स्त्रियों को अवश्य पढ़ाना चाहिए।

जो लोग यह कहते हैं कि पुराने ज़माने में यहाँ स्त्रियाँ न पढ़ती थीं अथवा उन्हें पढ़ने की मुमानियत थी वे या तो इतिहास से अभिज्ञता नहीं रखते या जान – बूझकर लोगों को धोखा देते हैं। समाज की दृष्टि में ऐसे लोग दंडनीय हैं। क्योंकि स्त्रियों को निरक्षर रखने का उपदेश देना समाज का अपकार और अपराध करना है – समाज की उन्नति में बाधा डालना है।

‘ शिक्षा ’ बहुत व्यापक शब्द है। उसमें सीखने योग्य अनेक विषयों का समावेश हो सकता है। पढ़ना – लिखना भी उसी के अंतर्गत है। इस देश की वर्तमान शिक्षा – प्रणाली अच्छी नहीं। इस कारण यदि कोई स्त्रियों को पढ़ाना अनर्थकारी समझे तो उसे उस प्रणाली का संशोधन करना या कराना चाहिए , खुद पढ़ने – लिखने को दोष न देना चाहिए।

लड़कों ही की शिक्षा – प्रणाली कौन – सी बड़ी अच्छी है। प्रणाली बुरी होने के कारण क्या किसी ने यह राय दी है कि सारे स्कूल और कॉलिज बंद कर दिए जाएँ ? आप खुशी से लड़कियों और स्त्रियों की शिक्षा की प्रणाली का संशोधन कीजिए। उन्हें क्या पढ़ाना चाहिए , कितना पढ़ाना चाहिए , किस तरह की शिक्षा देना चाहिए और कहाँ पर देना चाहिए – घर में या स्कूल में – इन सब बातों पर बहस कीजिए , विचार कीजिए , जी में आवे सो कीजिए ; पर परमेश्वर के लिए यह न कहिए कि स्वयं पढ़ने – लिखने में कोई दोष है – वह अनर्थकर है , वह अभिमान का उत्पादक है , वह गृह – सुख का नाश करने वाला है। ऐसा कहना सोलहों आने मिथ्या है।

शब्दार्थ
अतएव – इसलिए
सर्वथा – सब प्रकार से , हर विचार और दृष्टि से , बिल्कुल , सरासर , पूरा
हरगिज़ – कदापि , कत्तई , किसी भी हालत में ( नकारात्मक अर्थ में प्रायः ‘ नहीं ‘ के साथ प्रयुक्त , कभी , किसी दशा में भी नहीं )
मुमानियत – मनाही , अस्वीकृति , रोक , पाबंदी
अभिज्ञता – जानकारी , ज्ञान , कुशलता , निपुणता
दंडनीय – दंड के योग्य , जो दंडित होने योग्य हो
निरक्षर –  जिसे अक्षर ज्ञान न हो , जो पढ़ा लिखा न हो , अनपढ़ , अशिक्षित
अपकार – अहित , अनिष्ट , अत्याचार , अनुचित आचरण या व्यवहार
बाधा – अड़चन , विघ्न , रुकावट , रोक , प्रतिबंध , कष्ट , पीड़ा , संकट
व्यापक –  विस्तृत , चारों ओर फैला हुआ
समावेश – एक जगह जाना , साथ रहना , सम्मिलित होना
अंतर्गत – अंदर समाया हुआ , शामिल , ( इनक्लुडिड ) , किसी के अंग के रूप में उसमें शामिल , अधीन
अनर्थकारी – अनिष्टकारी , अहितकर , अनर्थ करने वाला , उत्पाती , उपद्रवी
संशोधन –  शुद्ध या साफ़ करना , सुधारना , ठीक करना , शुद्धीकरण , परिष्कार
अभिमान – घमंड , अहंकार , मद , गुमान , नाज़ , गर्व , आक्षेप
उत्पादक – उत्पादन करने वाला , जिससे कुछ उत्पादन हो
सोलहों आने – पूरे तौर पर
मिथ्या – असत्य , झूठ , तथ्यहीन , निराधार , कृत्रिम , बनावटी

नोट – इस गद्यांश में लेखक एक अंतिम बार यह समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि स्त्री – शिक्षा क्यों आवश्यक है और स्त्री – शिक्षा विरोधी लोगों को अपनी सोच क्यों बदलनी चाहिए। किसी भी अनर्थ के लिए स्त्री – शिक्षा को सही ठहराना सरासर गलत है।

व्याख्या – लेखक सीता का रामचंद्र के लिए कटु शब्दों को बोलना सही मानते हैं और कहते हैं कि शकुंतला की तरह , अपने परित्याग को अन्याय समझने वाली सीता का रामचंद्र के विषय में , कटुवाक्य कहना हर तरह से स्वाभाविक है। सीता और शकुंतला का यह व्यवहार न तो पढ़ने – लिखने का परिणाम है ,न ही उनके गँवारपन का और न ही अकुलीनता का। लेखक स्पष्ट कहते हैं कि पढ़ने – लिखने में स्वयं ऐसी कोई बात नहीं है जिस के कारण से अनर्थ हो सके। पढ़ने – लिखने में अनर्थ का बीज किसी भी हालत में नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि शिक्षा किसी को अनर्थ नहीं सिखाती। लेखक स्त्री – शिक्षा विरोधी लोगों को स्पष्ट रूप से कहना चाहते हैं कि अनर्थ पुरुषों से भी होते हैं। फिर चाहे वे अनपढ़ हो या फिर पढ़े – लिखे हों। अनर्थ , दुराचार और पापाचार के कारण और ही होते हैं और  कारण किसी व्यक्ति – विशेष का चाल – चलन देखकर जाने भी जा सकते हैं। इसमें शिक्षा का कोई योगदान नहीं है। इसलिए स्त्रियों को अवश्य पढ़ाना चाहिए। क्योंकि जब अनर्थ पुरुष भी कर सकता है तो पाबंदी केवल स्त्रियों पर ही क्यों ? जो लोग यह कहते हैं कि पुराने ज़माने में यहाँ स्त्रियाँ न पढ़ती थीं अथवा उन्हें पढ़ने की पाबंदी थी वे या तो इतिहास की पूर्ण जानकारी नहीं रखते या जान – बूझकर लोगों को धोखा देते हैं। क्योंकि स्त्रियों के शिक्षित होने के अनेकों उदहारण मिलते हैं। समाज की दृष्टि में ऐसे लोग दंड के योग्य हैं। क्योंकि स्त्रियों को अनपढ़ रखने का उपदेश देना समाज का अहित और अपराध करना है , यहाँ तक की स्त्रियों को अनपढ़ रखना समाज की उन्नति में बाधा डालना है। ‘ शिक्षा ’ चारों ओर फैला हुआ शब्द है। उसमें सीखने योग्य अनेक विषयों का समावेश हो सकता है। पढ़ना – लिखना भी उसी के अंदर समाया हुआ या शिक्षा के अंग के रूप में उसमें शामिल है। इस देश की वर्तमान शिक्षा – प्रणाली अच्छी नहीं है। इस कारण यदि कोई स्त्रियों को पढ़ाना अनर्थ करने वाला समझे तो उसे इस प्रणाली को शुद्ध या साफ़ करना करना या कराना चाहिए , खुद पढ़ने – लिखने को दोष नहीं देना चाहिए। लेखक ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली को इसलिए बुरा कहा है क्योंकि लड़कों ही की शिक्षा – प्रणाली कौन – सी बड़ी अच्छी है। लेखक प्रश्न पूछते हैं कि शिक्षा प्रणाली बुरी होने के कारण क्या किसी ने यह राय दी है कि सारे स्कूल और कॉलिज बंद कर दिए जाएँ ? हम लोगो को  खुशी से लड़कियों और स्त्रियों की शिक्षा की प्रणाली में सुधार करना चाहिए। उन्हें क्या पढ़ाना चाहिए , कितना पढ़ाना चाहिए , उन्हें किस तरह की शिक्षा देना चाहिए और कहाँ पर देना चाहिए – घर में या स्कूल में – इन सब बातों पर बहस करनी चाहिए , विचार करना चाहिए। लेखक प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि जो भी जी में आता है आप वो सब करें परन्तु परमेश्वर के लिए यह नहीं कहिए कि स्वयं पढ़ने – लिखने में कोई दोष है – पढ़ना – लिखना अनर्थकर है , पढ़ना – लिखना घमंड को उत्पन्न करता है , पढ़ना – लिखना गृह – सुख का नाश करने वाला है। क्योंकि ऐसा कहना पूरे तौर पर असत्य है , झूठ है , बनावटी है। लेखक के कहने का तात्पर्य यह है कि शिक्षा कभी स्वयं किसी को कष्ट नहीं देती , कोई अनर्थ नहीं करती अतः जितना पढ़ना लड़को के लिए आवश्यक है उतना ही लड़कियों के लिए भी है।

 
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स्त्री – शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन प्रश्न – अभ्यास (Shiksha Ke Virodhi Kurtakon Ka Khandan Question Answers)

प्रश्न 1 – कुछ पुरातनपंथी लोग स्त्रियों की शिक्षा के विरोधी थे। द्विवेदी जी ने क्या – क्या तर्क देकर स्त्री – शिक्षा का समर्थन किया ?

उत्तर – द्विवेदी जी ने पुरातन पंथियों को निम्नलिखित तर्क देकर स्त्री – शिक्षा का समर्थन किया है –

  • नाटकों में कुलीन स्त्रियों को उनके प्राकृत भाषा बोलने पर अपढ़ होने का सबूत नहीं माना जा सकता है। अधिक से अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि वे संस्कृत न बोल सकती थीं।
  • कुछ शिक्षित लोग ही संस्कृत बोलते थे , शेष अन्य लोग प्राकृत ही बोलते थे।
  • महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेश प्राकृत में दिए हैं तथा जैन – बौद्ध साहित्य प्राकृत में ही लिखा गया है। तो क्या उन्हें भी अपढ़ की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
  • यद्यपि स्त्री – शिक्षा के पर्याप्त प्रमाण नहीं हैं। इसका कारण यह हो सकता है कि वे कहीं खो गए हों।
  • भारत में वेद – मंत्रों की रचना में स्त्रियों का योगदान रहा है , जो उनके शिक्षित होने का प्रमाण है।
  • रुक्मिणी द्वारा श्रीकृष्ण को पत्र लिखने से यह सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में भी स्त्रियों के पढ़ने – लिखने का चलन था।
  • बौद्ध – ग्रन्थ त्रिपिटक के अंतर्गत थेरीगाथा में जिन सैंकड़ों स्त्रियों की पद्य – रचना उदृत है वे क्या अपढ़ थीं ?
  • अत्रि की पत्नी पत्नी – धर्म पर व्याख्यान देते समय घंटों पांडित्य प्रकट करे , गार्गी बड़े – बड़े ब्रह्मवादियों को हरा दे , मंडन मिश्र की सहधर्मचारिणी शंकराचार्य के  छक्के छुड़ा दे !

प्रश्न 2 – ‘ स्त्रियों को पढ़ाने से अनर्थ होते हैं ’ – कुतर्कवादियों की इस दलील का खंडन द्विवेदी जी ने कैसे किया है , अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर – स्त्री – शिक्षा के विरोधी कुतर्क देते हुए कहते हैं कि स्त्रियों को पढ़ाने से अनर्थ होते हैं , उनकी इस दलील का द्विवेदी जी ने अत्यंत विनम्रतापूर्वक खंडन किया है। वे कहते हैं यदि स्त्रियों के द्वारा किए गए अनर्थ उनकी शिक्षा के कारण हैं तो पुरुषों के द्वारा बम फेंकने , रिश्वत लेने , चोरी करने , डाके डालने , नरहत्या करने जैसे कार्य भी उनकी पढ़ाई के कुपरिणाम हैं। ऐसे में इस अपराध को ही समाप्त करने के लिए विश्वविद्यालय और पाठशालाएँ बंद करवा देना चाहिए। इसके अलावा दुष्यंत द्वारा शकुंतला से गंधर्व विवाह करने और बाद में शकुंतला को भूल जाने से शकुंतला के मन में कितनी पीड़ा उत्पन्न हुई होगी , यह तो शकुंतला ही जानती है। ऐसे में उन्होंने दुष्यंत को जो कटुवचन कहे यह उनकी पढ़ाई का कुफल नहीं बल्कि उस परिस्थिति में एक स्त्री की स्वभाविक प्रतिक्रिया थी।

प्रश्न 3 – द्विवेदी जी ने स्त्री – शिक्षा विरोधी कुतर्को का खंडन करने के लिए व्यंग्य का सहारा लिया है ; जैसे – ‘ यह सब पापी पढ़ने का अपराध है। न वे पढ़तीं , न वे पूजनीय पुरुषों का मुकाबला करतीं। ’ आप ऐसे अन्य अंशों को निबंध में से छाँटकर समझिए और लिखिए।

उत्तर – द्विवेदी जी ने स्त्री – शिक्षा विरोधियों के कुतर्को का खंडन करने के लिए व्यंग्य का सहारा लिया है। उनमें से कुछ व्यंग्य निम्नलिखित हैं –

  • ‘ अच्छा तो उत्तररामचरित में ऋषियों की वेदांतपत्नियाँ कौन – सी भाषा बोलती थीं ? उनकी संस्कृत क्या कोई संस्कृत थी ? ‘ इस व्यंग्य में द्विवेदी जी समझाना चाहते हैं कि उत्तररामचरित में ऋषियों की वेदांतपत्नियाँ भी संस्कृत भाषा का प्रयोग करती थी , यह इस बात का प्रमाण है कि प्राचीन समय में भी स्त्रियों को शिक्षा दी जाती थी।
  • ‘ जिन पंडितों ने गाथा शप्तसती , सेतुबंधु महाकाव्य और कुमारपाल चरित आदि ग्रंथ प्राकृत में बनाए हैं , वे अपढ़ और गॅवार थे , तो हिंदी के प्रसिद्ध अखबार के  संपादक को भी अपढ़ और गॅवार कहा जा सकता है। ‘ इस व्यंग्य से द्विवेदी जी कहना चाहते हैं कि प्राकृत भाषा का प्रयोग करना कोई अपढ़ होने की निशानी नहीं है क्योंकि अगर कोई  हिंदी के प्रसिद्ध अखबार के  संपादक हैं और उन्हें अंग्रेजी भी आती है लेकिन अपने हिंदी के अखबार में तो वे हिंदी का ही प्रयोग करेंगे न। इससे यह तो साबित नहीं होता कि उन्हें अंग्रेजी नहीं आती।
  • ‘ पुराने ग्रंथों में अनेक प्रगल्भ पंडिताओं के नामोल्लेख देखकर भी कुछ लोग भारत की तत्कालीन स्त्रियों को मूर्ख , अपढ़ और आँवार बताते हैं। इस तर्कशास्त्रज्ञता और न्यायशीलता की बलिहारी। ‘ इस व्यंग्य से द्विवेदी जी कहना चाहते हैं कि जब पुराने ग्रंथों में अनेक प्रगल्भ पंडिताओं के नामोल्लेख से सिद्ध हो जाता है कि पुराने समय में स्त्रियाँ अनपढ़ नहीं थीं तो इस बात पर बहस करने वालों को तो महान ही कहा जा सकता है।
  • ‘ स्त्रियों के लिए पढ़ना काल कूट और पुरुषों के लिए पीयूष का घूट। ‘ इस व्यंग्य में द्विवेदी जी समझाना चाहते हैं कि स्त्री शिक्षा को विष के सामान और पुरुष शिक्षा अमृत के सामान कैसे हो सकती है जबकि पुरुष भी शिक्षा प्राप्त करके न जाने कितने गलत काम करता है।

प्रश्न 4 – पुराने समय में स्त्रियों द्वारा प्राकृत भाषा में बोलना क्या उनके अपढ़ होने का सबूत है। पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – पुराने समय में स्त्रियों का प्राकृत बोलना उनके अपढ़ होने का सबूत नहीं है , क्योंकि उस समय प्राकृत प्रचलित और लोक व्यवहारित भाषा थी। भवभूति और कालिदास के नाटक जिस समय लिखे गए उस समय शिक्षित समुदाय ही संस्कृत बोलता था , शेष लोग प्राकृत बोलते थे। शाक्य मुनि भगवान बुद्ध और उनके चेलों द्वारा प्राकृत में उपदेश देना , बौद्ध एवं जैन धर्म के हजारों ग्रंथ का प्राकृत में लिखा जाना इस बात का प्रमाण है कि प्राकृत उस समय की लोक प्रचलित भाषा थी , ऐसे में स्त्रियों द्वारा प्राकृत बोलना उनके अपढ़ होने का सबूत कैसे हो सकते है। 

प्रश्न 5 – परंपरा के उन्हीं पक्षों को स्वीकार किया जाना चाहिए जो स्त्री – पुरुष समानता को बढ़ाते हों – तर्क सहित उत्तर दीजिए।

उत्तर – हर परंपरा अपने काल , देश और परिस्थिति के अनुसार प्रासंगिक रहती है , परंतु बदलते समय के साथ उनमें से कुछ अपनी उपयोगिता एवं प्रासंगिकता खो बैठती है। इन्हीं में से एक थी पुरुष और स्त्रियों की शिक्षा में भेदभाव करने की परंपरा। इसके कारण स्त्री – पुरुष की स्थिति में असमानता उत्पन्न होने के साथ – साथ बढ़ती जा रही थी। अतः इसे त्यागकर ऐसी परंपरा अपनाने की आवश्यकता थी जो दोनों में समानता पैदा करे।

शिक्षा वह साधन है जिसका सहारा पाकर स्त्रियाँ पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकती हैं और लगभग हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रही हैं। अतः लड़का – लड़की में भेदभाव न करने उनके पालन – पोषण , शिक्षा – दीक्षा तथा अवसरों में समानता देने की स्वस्थ परंपरा अपनानी चाहिए। जिससे स्त्री – पुरुष में समानता बढ़े।

प्रश्न 6 – तब की शिक्षा प्रणाली और अब की शिक्षा प्रणाली में क्या अंतर है ? स्पष्ट करें।

उत्तर – तब अर्थात् प्राचीन भारत और वर्तमान शिक्षा प्रणाली में बहुत अधिक अंतर है। उस समय शिक्षा गुरुकुलों में दी जाती थी जहाँ शिक्षा रटने की प्रणाली प्रचलित थी। इसके साथ उनमें उच्च मानवीय मूल्यों का विकास करने पर जोर दिया था ताकि वे बेहतर इंसान और समाजोपयोगी नागरिक बन सकें। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में रटने के बजाय समझने पर जोर दिया जाता है। आज की शिक्षा पुस्तकीय बनकर रह गई है जिससे मानवीय मूल्यों का उत्थान नहीं हो पा रहा है। शिक्षा की प्रणाली रोजगारपरक न होने के कारण यह आज बेरोजगारों की फ़ौज खड़ी कर रही है।
 
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