साखियाँ, सबद पाठ सार

 

CBSE Class 9 Hindi Chapter 7 “Sakhiyan, Sabad”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kshitij Bhag 1 Book

 

साखियाँ, सबद सार – Here is the CBSE Class 9 Hindi Kshitij Bhag 1 Chapter 7 Sakhiyan, Sabad Summary with detailed explanation of the lesson ‘Sakhiyan, Sabad’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary

 

इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 9 हिंदी कोर्स ए क्षितिज भाग 1 के पाठ 7 साखियाँ, सबद पाठ सार , पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप  इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें।  चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 9 साखियाँ, सबद पाठ के बारे में जानते हैं।

 

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Sakhiyan, Sabad  (साखियाँ, सबद)

 

कवि – कबीर

 

साखियाँ, सबद पाठ प्रवेश  (Introduction)

इस पाठ में कबीर जी की सात साखियाँ (साखी शब्द का अर्थ होता है – साक्षी या गवाह) व् दो सबद (सबद का अर्थ होता है – किसी महात्मा की वाणी या भजन) दिए गए हैं।  इस पाठ में दी गई साखियों में प्रेम का महत्व, संत के लक्षण, ज्ञान की महानता, बाहरी दिखावे का विरोध आदि भावों का वर्णन किया गया है। इस पाठ के पहले सबद अर्थात पद में बाहरी दिखावे का विरोध किया गया है और हमारे अपने भीतर ही ईश्वर के निवास का संकेत दिया गया है। पाठ के दूसरे सबद अर्थात पद में ज्ञान के महत्व का वर्णन करने के लिए ज्ञान की आँधी नामक रूपक का सहारा लिया गया है। कबीर कहते हैं कि ज्ञान की सहायता से मनुष्य अपनी दुर्बलताओं अर्थात कमियों को दूर कर सकता है।

पाठ सार – (Summary)

इस पाठ में दी गई साखियों में प्रेम का महत्व, संत के लक्षण, ज्ञान की महानता, बाहरी दिखावे का विरोध आदि भावों का वर्णन किया गया है। इस पाठ कबीर के दो सबद हैं, जिसमें पहला सबद अर्थात पद बाहरी दिखावे का विरोध करता है और दूसरा सबद अर्थात पद में ज्ञान के महत्व का वर्णन करने के लिए ज्ञान की आँधी नामक रूपक का सहारा लिया गया है।

साखियों पाठ सार– (Sakhiyan Summary)

कबीर मनुष्यों की तुलना हंस पक्षी से करते हुए कहते हैं कि जिस तरह हंस पक्षी स्वतंत्रता पूर्वक मानसरोवर में क्रीड़ा करते हैं। ठीक उसी तरह मनुष्य यानी जीवात्मा भी मन रूपी सरोवर के जल रूपी भक्तिभाव से भर कर जीवन यापन कर रहा है। कबीर कहते हैं कि जब उन्होंने अहंकार का त्याग किया तब उन्हें  उनके मन रूपी दूसरा सच्चा ईश्वर भक्त मिला और मन रूपी ईश्वर मिल जाने पर उनके मन का विष यानी कष्ट, अमृत यानी सुख में बदल गया। कबीर व्यक्ति को अपना ज्ञान बढ़ाते चले जाने और हमेशा सहजता से काम लेने को कहते हैं क्योंकि संसार के लोग तो हमेशा आगे बढ़ते व्यक्ति को कुछ-न-कुछ बुरा बोलते जाते हैं। उन्हें अनदेखा कर आगे बढ़ते रहना चाहिए। कबीर के अनुसार अपने धर्म के समर्थन और दूसरों की निंदा करने के कारण संसार ईश्वर की भक्ति को भूल गया है। इसके विपरीत जो व्यक्ति निष्पक्ष होकर प्रभु भजन में लगा है अर्थात प्रभु को याद करता है, वही सही अर्थों में सच्चा ज्ञानी है। कबीर कहते हैं कि जो व्यक्ति राम-रहीम के चक्कर में न पड़ कर सच्चे मन से मानवता को स्वीकारता है वही ईश्वर का सच्चा भक्त कहलाता है। जिस दिन हम सभी हिन्दू-मुसलमान के भेद को भुला कर आगे बढ़ेंगे उस समय हमें काशी और काबा अथवा राम और रहीम में कोई अंतर नहीं दिखेगा। कबीर कहते हैं कि केवल उच्च कुल में जन्म लेने से कोई व्यक्ति महान नहीं कहलाता, उसके लिए अच्छे कर्म करने पड़ते हैं। क्योंकि यदि कर्म अच्छे न हों तो उच्च कुल की भी निंदा उसी प्रकार की जाती है। जैसे पवित्र होते हुए भी सोने के घड़े में यदि शराब रखी जाए तो वह सोने का घड़ा अपवित्र कहा जाता है ठीक उसी प्रकार बुरे कर्मों वाले व्यक्ति के कारण उसके उच्च कुल की भी निंदा की जाती है।

सबद (पद) पाठ सार  (Sabad Summary)

पहले सबद में कबीरदास जी ने बताया है कि मनुष्य ईश्वर को प्राप्त करने के लिए भटकता रहता है। परन्तु ईश्वर तो सदैव मनुष्य के पास में ही रहते हैं। ईश्वर को न मंदिर और न ही मस्जिद, न काबा और न ही कैलाश, न पूजा-पाठ, तंत्र-मंत्र और न ही कोई योग-साधना आदि से ढूँढा जा सकता है। यदि ईश्वर को खोजना चाहो तो वे तुरंत ही मिल सकते हैं। क्योंकि ईश्वर सबकी साँसों में, हृदय में, आत्मा में मौजूद है। कहने का आशय यह है कि ईश्वर पलभर में मिल सकता है क्योंकि वह कण-कण में व्याप्त है। उसे पाने के लिए किसी भी प्रकार के बाह्य आडम्बर की आवश्यकता नहीं है।

 दूसरे सबद में कबीर जी ने ज्ञान की महत्ता का वर्णन किया है। कबीर जी ज्ञान की तुलना आँधी से करते हैं। वे कहते हैं कि जीवन में ज्ञानोदय होने पर मन के सारे भ्रम दूर हो जाते हैं और माया का प्रभाव समाप्त हो जाता है। ज्ञानोदय होने से मन का स्वार्थ और मोह भी नष्ट हो गया। ज्ञान के प्रभाव से मन के सारे कुविचार नष्ट हो गए हैं। कबीर दास जी कहते हैं कि मन रूपी घर पर संतोषरूपी नया छप्पर बाँधने से अर्थात् ज्ञान प्राप्ति के बाद अब कोई भी विकार उनके मन को प्रभावित नहीं कर सकता। ज्ञान प्राप्ति के बाद छल-कपट उनके मन से निकल गया है। ज्ञान प्राप्ति से उन्हें हरि के स्वरूप का ज्ञान हो गया है। जिस प्रकार आँधी के बाद वर्षा से सारी चीज़ें धुल जाती हैं उसी प्रकार ज्ञान प्राप्ति के बाद मन निर्मल हो जाता है। और भक्त ईश्वर के भजन में लीन हो जाता है। कबीर कहते हैं कि ज्ञान रूपी सूर्य के उदय होते ही अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।

साखियाँ, सबद पाठ व्याख्या (Sakhiyan, Sabad Lesson Explanation )

 

(साखियाँ) Sakhiyaan

1 –
मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं।
मुकताफल मुकता चुगैं, अब उड़ि अनत न जाहिं।।

शब्दार्थ –
मानसरोवर – मन रूपी सरोवर अर्थात हृदय
सुभर – अच्छी तरह भरा हुआ
जल – भक्तिभाव
हंसा – हंस पक्षी, जीवात्मा
केलि – क्रीड़ा, जीवन यापन
कराहिं – करना
मुकुताफल – मोती, मुक्ति
उड़ि – उड़कर
अनत – कहीं और
जाहिं – जाते हैं

व्याख्या – इस पद में कबीर ने मनुष्यों की तुलना हंस पक्षी से की है। कबीर कहते हैं कि जिस तरह हंस पक्षी स्वतंत्रता पूर्वक मानसरोवर में क्रीड़ा करते हैं। वे वहाँ मोती चुगते हैं और इस आनंद को छोड़ कर वे कहीं और उड़ना नहीं चाहते।  ठीक उसी तरह मनुष्य यानी जीवात्मा भी मन रूपी सरोवर के जल रूपी भक्तिभाव से भर कर जीवन यापन कर रहा है। वह मोती रूपी मुक्ति का आनंद उठा रहा है और इस मुक्ति रूपी आंनद को छोड़कर कहीं और नहीं जाना चाहता।

 

2 –
प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरौं, प्रेमी मिले न कोई।
प्रेमी कौं प्रेमी मिलै, सब विष अमृत होइ।।

शब्दार्थ –
प्रेमी – प्रेम करने वाला, प्रभु का भक्त
ढूँढ़त – ढूँढ़ता है
मैं – अहंकार
फिरौं – घूमता है
विष – जहर, दुःख
अमृत – सुख
होइ – हो जाता है

व्याख्याउपरोक्त पद में कबीर यह कहते हैं कि जब मैं अपने आप को प्रेमी अर्थात ईश्वर भक्त मान कर, अहंकार में डूब कर दूसरे प्रेमी यानी ईश्वर भक्त को ढूँढ़ता फिर रहा था, तो मुझे अहंकार के कारण कोई दूसरा ईश्वर भक्त नहीं मिला। परन्तु जब मैनें अहंकार का त्याग किया तब मुझे मेरे मन रूपी दूसरा सच्चा ईश्वर भक्त मिला और मन रूपी ईश्वर मिल जाने पर मेरे मन का विष यानी कष्ट, अमृत यानी सुख में बदल गया। कहने का अभिप्राय यह है कि जब दो सच्चे ईश्वर भक्त मिल जाते हैं तो सभी दुःख, सुख में बदल जाते हैं।

 

3 –
हस्ती चढ़िए ज्ञान कौ, सहज दुलीचा डारि।
स्वान रूप संसार है, भूँकन दे झख मारि।।

शब्दार्थ –
हस्ती – हाथी, ज्ञान
सहज – स्वाभाविक
दुलीचा – कालीन, छोटा आसन, सहजता
स्वान (श्वान) – कुत्ता, बिना मतलब के हस्तक्षेप करने वाले लोग
भूँकन – भौंकना, निंदा करना
झख मारि – मजबूर होना, वक्त बरबाद करना

व्याख्याप्रस्तुत पद में कबीर कहना चाहते हैं कि व्यक्ति को स्वभाविक सहजता रूपी कालीन बिछाकर ज्ञान रूपी हाथी की सवारी करनी चाहिए। क्योंकि यह संसार किसी कुत्ते के समान है जो हाथी के पीछे भौंकते हुए अपना समय बरबाद करता है। कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्ति को अपना ज्ञान बढ़ाते चले जाना चाहिए और हमेशा सहजता से काम लेने चाहिए क्योंकि संसार के लोग तो हमेशा आगे बढ़ते व्यक्ति को कुछ-न-कुछ बुरा बोलते जाते हैं। उन्हें अनदेखा कर आगे बढ़ते रहना चाहिए। एक दिन वे स्वयं ही चुप हो जायेंगे।

 

4 –
पखापखी के कारनै, सब जग रहा भुलान।
निरपख होइ के हरि भजै, सोई संत सुजान।।

शब्दार्थ –
पखापखी – पक्ष-विपक्ष
कारनै – कारण
भुलान – भूला हुआ
निरपख – निष्पक्ष
भजै – भजन, याद करना
सोई – वही
सुजान – चतुर, ज्ञानी

व्याख्याउपरोक्त पद्यांश में कबीर कहते हैं कि पक्ष-विपक्ष के कारण अर्थात अपने सम्प्रदाय अथवा धर्म को अच्छा और दूसरों के सम्प्रदाय अथवा धर्म को बुरा कहने के चक्कर में सारा संसार आपस में लड़ रहा है। कहने का आशय यह है कि अपने धर्म के समर्थन और दूसरों की निंदा करने के कारण संसार ईश्वर की भक्ति को भूल  गया है। इसके विपरीत जो व्यक्ति निष्पक्ष होकर प्रभु भजन में लगा है अर्थात प्रभु को याद करता है, वही सही अर्थों में सच्चा ज्ञानी है।

 

5 –
हिंदू मूआ राम कहि, मुसलमान खुदाइ।
कहै कबीर सो जीवता, जो दुहुँ के निकटि न जाइ।।

शब्दार्थ –
मूआ – मरना
सो – वही
जीवता – जीता है
दुहुँ – दोनों
निकटि – निकट, नज़दीक
जाइ – जाना

व्याख्या – उपरोक्त पद्यांश में कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम का नाम भजते-भजते मर जाते हैं और मुसलमान खुदा की बंदगी करते-करते मर जाते हैं, जबकि राम और रहीम एक ही हैं। कबीर कहते हैं कि असल में वही व्यक्ति जीवित है, जो इन दोनों के निकट नहीं जाता। कहने का आशय यह है कि जो व्यक्ति राम-रहीम के चक्कर में न पड़ कर सच्चे मन से मानवता को स्वीकारता है वही ईश्वर का सच्चा भक्त कहलाता है।

 

6 –
काबा फिरि कासी भया, रामहिं भया रहीम।
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम।।

शब्दार्थ –
काबा – मुसलमानों का पवित्र तीर्थ स्थल
कासी – हिंदुयों का पवित्र तीर्थ स्थल
भया – हो गया
मोट चून – मोटा आटा
बैठि – बैठकर
जीम – भोजन करना

व्याख्या – उपरोक्त पद्यांश में कबीर कहते हैं कि वे मुसलमानों का पवित्र तीर्थ स्थल – काबा भी गए और हिंदुयों का पवित्र तीर्थ स्थल – काशी भी गए, उन्होंने राम का भजन भी किया और रहीम का गुणगान भी किया। उन्हें दोनों में समानता ही दिखाई दी। कहने का अभिप्राय यह है कि जिस दिन हम सभी हिन्दू-मुसलमान के भेद को भुला कर आगे बढ़ेंगे उस समय हमें काशी और काबा अथवा राम और रहीम में कोई अंतर नहीं दिखेगा। जिस प्रकार मोटा आटा पीसने पर बारीक मैदा हो जाता है और उसका भोजन बनाकर आराम से बैठकर खाया जा सकता है। उसी प्रकार धार्मिक संकीर्णता को महीन कर सद्बुद्धि और सद्भावना के जरिए ईश्वर भक्ति करके प्रभु के दर्शन किए जा सकते हैं।

 

7 –
ऊँचे कुल का जनमिया, जे करनी ऊँच न होइ।
सुबरन कलस सुरा भरा, साधू निंदा सोइ।।

शब्दार्थ –
ऊँचे कुल – ऊँचा कुल, अच्छा खानदान
जनमिया – जन्म लेकर
करनी – कर्म
सुबरन – सोने का
कलस – घड़ा
सुरा – शराब
निंदा – बुराई
सोइ – उसकी

व्याख्या – प्रस्तुत पंक्तियों में कबीर कहते हैं कि केवल उच्च कुल में जन्म लेने से कोई व्यक्ति महान नहीं कहलाता, उसके लिए अच्छे कर्म करने पड़ते हैं। क्योंकि यदि कर्म अच्छे न हों तो उच्च कुल की भी निंदा उसी प्रकार की जाती है। जिस प्रकार जिस तरह सोने के कलश में रखी शराब के कारण सज्जन लोग शराब के साथ -साथ सोने के घड़े की भी निंदा करते है। कहने का आशय यह है कि पवित्र होते हुए भी सोने के घड़े में यदि शराब रखी जाए तो वह सोने का घड़ा अपवित्र कहा जाता है ठीक उसी प्रकार बुरे कर्मों वाले व्यक्ति के कारण उसके उच्च कुल की भी निंदा की जाती है।

सबद ( पद ) Sabad

1.
मोकों कहाँ ढूँढ़े बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में।
ना तो कौने क्रिया-कर्म में, नहीं योग बैराग में।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तालास में।
कहैं कबीर सुनो भई साधो, सब स्वाँसों की स्वाँस में।।

शब्दार्थ –
मोकों – मुझे
बंदे – व्यक्ति, मनुष्य
देवल – मंदिर
कौने – किसी
क्रिया-कर्म – पूजा-पाठ
खोजी – खोजना, ढूँढना
होय तो – हो तो
तुरतै – तुरंत, उसी समय
मिलिहौं – मिल सकता हूँ
तालास – तलाश, खोज
साधो – सज्जन
स्वाँसों – साँस लेने वाले
स्वाँस – साँस 

व्याख्याइस सबद में कबीरदास जी ने बताया है कि मनुष्य ईश्वर को प्राप्त करने के लिए भटकता रहता है, परन्तु ईश्वर तो सदैव मनुष्य के पास में ही रहते हैं। ईश्वर न तो किसी मंदिर में मिल सकते है और न ही कभी किसी मस्जिद में। न तो ईश्वर को काबा जा कर मिला जा सकता है और न ही आप कैलाश जा कर ईश्वर प्राप्ति कर सकते हो। न ईश्वर को पाने के लिए पूजा-पाठ, तंत्र-मंत्र काम आता है और न ही कोई योग-साधना। यदि ईश्वर को खोजना चाहो तो वे तुरंत ही मिल सकते हैं। वो भी बिना किसी तलाश के। क्योंकि कबीर कहते हैं कि हे सज्जन लोगों सुनो, वह ईश्वर सबकी साँसों में, हृदय में, आत्मा में मौजूद है। कहने का आशय यह है कि ईश्वर पलभर में मिल सकता है क्योंकि वह कण-कण में व्याप्त है। उसे पाने के लिए किसी भी प्रकार के बाह्य आडम्बर की आवश्यकता नहीं है।

 

2
संतौं भाई आई ग्याँन की आँधी रे।
भ्रम की टाटी सबै उड़ाँनी, माया रहै न बाँधी।।
हिति चित्त की द्वै थूँनी गिराँनी, मोह बलिंडा तूटा।
त्रिस्नाँ छाँनि परि घर ऊपरि, कुबधि का भाँडाँ फूटा।।
जोग जुगति करि संतौं बाँधी, निरचू चुवै न पाँणी।
कूड़ कपट काया का निकस्या, हरि की गति जब जाँणी।।
आँधी पीछै जो जल बूठा, प्रेम हरि जन भींनाँ।
कहै कबीर भाँन के प्रगटे उदित भया तम खीनाँ।।

शब्दार्थ –
टाटी – परदे के लिए लगाए हुए बाँस आदि की फट्टियों का पल्ला
उड़ाणी – उड़ गईं
हित चित – चित्त की दो अवस्थाएँ
थूँनी – स्तंभ, टेक
गिरानी – गिर गई
बलिंडा – छप्पर की मज़बूत मोटी लकड़ी
त्रिस्ना – तृष्णा, चाह
छाँनि – छप्पर
कुबुधि – कुबुद्धि, कुविचार
भाँडा – बर्तन
जोग जुगति – सोच-विचार
निरचू – थोड़ा भी
चुवै – चूता है, रिसता है, टपकना
पाणीं – पानी
कूड़ – कूड़ा, छल-कपट
काया – शरीर और मन
निकस्या – निकल गया
हरि की गति – ईश्वर का स्वरूप या कृपा
बूठा – बरसा
जन – भक्त
भींनाँ – भीग गया, मग्न हो गया
भाँन – सूर्य, ज्ञान
तम – अंधकार, अज्ञान
खीनाँ – क्षीण हुआ

व्याख्याइन पंक्तियों में कबीर जी ने ज्ञान की महत्ता का वर्णन किया है। कबीर जी ज्ञान की तुलना आँधी से करते हैं। वे कहते हैं कि उनके अंतर्मन में ज्ञान रूपी आँधी आई हुई है। इस ज्ञान रूपी आँधी के कारण भ्रम रूपी कमजोर पड़ती हुई झोंपड़ी की चारों ओर की दीवारें मानो उड़ जाती हैं, माया का बंधन भी उसे सहारा नहीं दे पाती। कहने का आशय यह है कि जीवन में ज्ञानोदय होने पर मन के सारे भ्रम दूर हो जाते हैं और माया का प्रभाव समाप्त हो जाता है। ज्ञान की आँधी ने चित्त की स्वार्थ और मोह नामक दोनों अवस्थाओं रूपी स्तम्भों को गिरा दिया है और इन खम्भों पर टिकी हुई मोहरूपी बल्ली (छप्पर की मज़बूत मोटी लकड़ी) भी टूट गई है। आशय यह है कि ज्ञानोदय होने से मन का स्वार्थ और मोह भी नष्ट हो गया। मोह रूपी मजबूत लकड़ी के टूटते ही तृष्णारूपी छप्पर (छान) भी गिर पड़ी है और वहाँ स्थित कुबुद्धि रूपी सारे बर्तन फूट गए हैं। कहने का आशय यह है कि ज्ञान के प्रभाव से मन के सारे कुविचार नष्ट हो गए हैं। कबीर दास जी कहते हैं कि अब उन्होंने मन रूपी घर पर संतोषरूपी नया छप्पर बाँधा है। अब इसमें से एक बूंद भी वर्षा का पानी नहीं टपक सकता अर्थात् ज्ञान प्राप्ति के बाद अब कोई भी विकार उनके मन को प्रभावित नहीं कर सकता। ज्ञान प्राप्ति के बाद छल-कपट उनके मन से निकल गया है। ज्ञान प्राप्ति से उन्हें हरि के स्वरूप का ज्ञान हो गया है। जिस प्रकार आँधी के बाद वर्षा से सारी चीज़ें धुल जाती हैं उसी प्रकार ज्ञान प्राप्ति के बाद मन निर्मल हो जाता है। और भक्त ईश्वर के भजन में लीन हो जाता है। कबीर कहते हैं कि ज्ञान रूपी सूर्य के उदय होते ही अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।

Conclusion

इस पाठ में कबीर जी ने प्रेम के महत्व, संत के लक्षण, ज्ञान की महानता, बाहरी दिखावे का विरोध आदि भावों का वर्णन किया है। पाठ के पहले सबद में जहाँ बाहरी दिखावे का विरोध किया गया है और ईश्वर के कण-कण में निवास का संकेत दिया गया है। वहीँ पाठ के दूसरे सबद ज्ञान के महत्व का वर्णन करने के लिए ज्ञान की आँधी नामक रूपक का सहारा लिया गया है। इस लेख में पाठ सार, व्याख्या, शब्दार्थ दिए गए हैं। यह लेख विद्यार्थियों को पाठ को अच्छे से समझने में सहायक है। विद्यार्थी अपनी परीक्षा के लिए इस लेख की सहायता ले सकते हैं।