रीढ़ की हड्डी सार

 

CBSE Class 9 Hindi Chapter 3 “Reedh ki Haddi”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kritika Book

 

 

रीढ़ की हड्डी सार – Here is the CBSE Class 9 Hindi Kritika Chapter 3 Reedh ki Haddi Summary with detailed explanation of the lesson ‘Reedh ki Haddi’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary

 

इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 9 हिंदी कृतिका के पाठ 3 रीढ़ की हड्डी पाठ सार, पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप  इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 9 रीढ़ की हड्डी पाठ के बारे में जानते हैं।

 

Reedh ki Haddi रीढ़ की हड्डी

जगदीश चंद्र माथुर

 

यह अध्याय जगदीश चंद्र माथुर द्वारा लिखित एक सामाजिक व्यंग्य है, जिसमें मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार के भीतर विवाह संबंधी बातचीत की हल्की-फुल्की, हास्यात्मक लेकिन यथार्थपरक झलक दिखाई गई है।

इस एकांकी में बाबू रामस्वरूप और उनकी पत्नी प्रेमा अपनी बेटी उमा के लिए एक संभावित वरपक्ष का स्वागत करने की तैयारी में व्यस्त हैं। घरेलू अव्यवस्थाएँ, नौकर की नासमझी, प्रेमा की हड़बड़ी और रामस्वरूप की चतुराई – इन सबके बीच विवाह जैसे गंभीर विषय पर हास्य और व्यंग्य के माध्यम से सामाजिक सोच, लड़कियों की शिक्षा पर रूढ़िवादी दृष्टिकोण, और मध्यमवर्गीय दिखावे की प्रवृत्ति को उजागर किया गया है।

 

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रीढ़ की हड्डी पाठ सार Reedh ki Haddi Summary

यह अध्याय एक एकांकी है, जिसमें एक मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार की शादी-ब्याह की तैयारियों को मजाकिया अंदाज़ में दिखाया गया है। लेखक ने इस नाटक के ज़रिए हमारे समाज की कुछ आम लेकिन गंभीर बातों पर व्यंग्य किया है, जैसे कि लड़कियों की शादी, दिखावा, घरेलू उलझनें और रूढ़िवादी सोच।

कहानी की शुरुआत होती है बाबू रामस्वरूप और उनकी पत्नी प्रेमा से, जो अपनी बेटी उमा की शादी के लिए लड़के वालों के स्वागत की तैयारियों में लगे हैं। उनके घर में सब कुछ एक अजीब सी भागदौड़ और उलझन में है। घर में साफ़-सफ़ाई नहीं हुई है, नौकर का कोई भरोसा नहीं, और ऊपर से प्रेमा जी बहुत घबराई हुई हैं कि कहीं कोई कमी रह न जाए।

प्रेमा जी को चिंता है कि उनका घर साधारण है और लड़के वालों पर अच्छा असर पड़ना चाहिए, वरना रिश्ता नहीं होगा। उमा एक पढ़ी-लिखी लड़की है, लेकिन उसकी पढ़ाई पर भी प्रेमा और रामस्वरूप के बीच अलग-अलग सोच दिखाई जाती है। प्रेमा को लगता है कि ज़्यादा पढ़ाई से लड़कियाँ ‘बोलने’ लगती हैं, जबकि रामस्वरूप को उसकी पढ़ाई पर गर्व है। रामस्वरूप अपनी बेटी की पढ़ाई को समाज से छुपाते हैं, उन्हें लगता है कि ऐसा करने से उनकी बेटी की शादी हो पायेगी। ज्यादा शिक्षा दिखाने से शादी में वाधा आएगी। यहाँ लेखक ने समाज की उस मानसिकता पर व्यंग्य किया है जहाँ आज भी लड़कियों की अधिक पढ़ाई को लेकर संदेह किया जाता है।

घर के माहौल में तनाव और उत्साह दोनों हैं। लड़के वालों को ठीक से चाय-बिस्कुट परोसा जाए या नहीं, कपड़े कौन से पहनें, उमा को कैसे बिठाया जाए – इन सभी बातों में हास्य पैदा होता है। इसी बीच, नौकर भोलू की नासमझी बातें इस नाटक को और भी मज़ेदार बना देती हैं।

पूरा दृश्य यह दिखाता है कि कैसे एक सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार अपनी बेटी की शादी के लिए हर तरह से लड़के वालों को खुश करने की कोशिश करता है – चाहे वह दिखावा हो, झूठ हो, या अतिरिक्त चिंता।

लेकिन इन सभी हास्यपूर्ण स्थितियों के पीछे लेखक ने बहुत गहरी बातें छिपाई हैं – जैसे कि समाज में लड़कियों के लिए शादी को ज़िंदगी का सबसे बड़ा लक्ष्य माना जाता है, या यह कि पढ़ाई का असली मूल्य तभी माना जाता है जब वह संस्कारों में ढला हो।

यह अध्याय एक हल्के-फुल्के अंदाज़ में समाज के गंभीर मुद्दों को उठाता है। इसमें विवाह जैसी संस्था, लड़कियों की शिक्षा, घरेलू जीवन की असलियत, और दिखावे की प्रवृत्ति जैसे विषयों को हास्य और व्यंग्य के ज़रिए बहुत सुंदरता से प्रस्तुत किया गया है। भाषा सरल है, संवाद स्वाभाविक हैं, और पात्र आम भारतीय घरों जैसे लगते हैं।

यह एकांकी हमें हँसाते हुए सोचने पर मजबूर करती है – और यही इसकी सबसे बड़ी सफलता है।


 

रीढ़ की हड्डी पाठ व्याख्या  Reedh ki Haddi Lesson Explanation

 

पाठ – मामूली तरह से सजा हुआ एक कमरा। अंदर के दरवाजे से आते हुए जिन महाशय की पीठ नज़र आ रही है वे अधेड़ उम्र के मालूम होते हैं, एक तख्त को पकड़े हुए पीछे की ओर चलते-चलते कमरे में आते हैं। तख्त का दूसरा सिरा उनके नौकर ने पकड़ रखा है।
बाबू : अबे धीरे-धीरे चल… अब तख्त को उधर मोड़ दे…उधर…बस, बस!
नौकर : बिछा दूँ साहब?
बाबू : (ज़रा तेज़ आवाज़ में) और क्या करेगा? परमात्मा के यहाँ अक्ल बँट रही थी तो तू देर से पहुँचा था क्या?…बिछा दूँ साब!…और यह पसीना किसलिए बहाया है?
नौकर : (तख्त बिछाता है) ही-ही-ही।

शब्दार्थ-
मामूली – साधारण
महाशय – सम्मानपूर्वक किसी पुरुष के लिए प्रयुक्त शब्द
अधेड़ उम्र – लगभग 40 से 50 वर्ष के बीच की उम्र
तख्त – चौकोर लकड़ी का मजबूत फर्नीचर, जिस पर बैठा या लेटा जाता है।

व्याख्या- इस अंश में एक साधारण से कमरे का दृश्य दिखाया गया है जहाँ एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति (बाबू) और उनका नौकर मिलकर एक भारी तख्त कमरे में रख रहे हैं। बाबू तख्त को सही जगह पर रखने के लिए नौकर को दिशा देते हैं और जब नौकर उनसे पूछता है कि क्या तख्त बिछा दे, तो बाबू थोड़ा चिढ़ कर जवाब देते हैं। उन्होंने नौकर की समझ पर तंज कसते हुए कहा कि शायद वह तब देर से पहुँचा था जब भगवान अक्ल बाँट रहे थे, इसलिए उसे इतनी सी बात भी समझ नहीं आई। बाबू की बात पर नौकर हँस पड़ता है। यह संवाद व्यंग्य और हल्के हास्य से भरा हुआ है, जिससे दोनों पात्रों के बीच का रिश्ता और संवाद की रोचकता सामने आती है। 

 

पाठ – बाबू : हँसता क्यों है?…अबे, हमने भी जवानी में कसरतें की हैं, कलसों से नहाता था लोटों की तरह। यह तख्त क्या चीज़ है?…उसे सीधा कर …यों …हाँ बस। …और सुन, बहू जी से दरी माँग ला, इसके ऊपर बिछाने के लिए। चद्दर भी, कल जो धोबी के यहाँ से आई है, वही। (नौकर जाता है। बाबू साहब इस बीच में मेज़पोश ठीक करते हैं। एक झाड़न से गुलदस्ते को साफ़ करते हैं। कुर्सियों पर भी दो चार हाथ लगाते हैं। सहसा घर की मालकिन प्रेमा आती हैं। गंदुमी रंग, छोटा कद। चेहरे और आवाज़ से ज़ाहिर होता हैं किसी काम में बहुत व्यस्त हैं। उनके पीछे-पीछे भीगी बिल्ली की तरह नौकर आ रहा है-खाली हाथ। बाबू साहब (रामस्वरूप) दोनों तरफ़ देखने लगते हैं…)

शब्दार्थ-
कलस– गगरी, घड़ा
दरी– फर्श पर बिछाने के लिए गलीचा या चटाई
मेज़पोश- मेज पर बिछाने वाला कपड़ा
झाड़न – धूल झाड़ने वाला कपड़ा या ब्रश
गुलदस्ता – फूलों की सजावटी टोकरियाँ या वास
सहसा– अचानक
गंदुमी रंग – गेहूँ के रंग जैसा त्वचा का वर्ण
ज़ाहिर–  जो स्पष्ट रूप से सबके सामने हो
व्यस्त– किसी कार्य में लगा हुआ
भीगी बिल्ली की तरह – डर और झेंप का भाव बताने वाला मुहावरा, जो नौकर की स्थिति को बताता है।

व्याख्या- इस दृश्य में बाबू रामस्वरूप और उनका नौकर एक तख्त को कमरे में रख रहे हैं। बाबू अपने अनुभव और पुरानी ताकत का उदाहरण देते हुए नौकर को हँसने से रोकते हैं और बताते हैं कि उन्होंने भी जवानी में खूब कसरत की है। वे नौकर को तख्त सही तरीके से बिछाने का निर्देश देते हैं और फिर उससे कहते हैं कि बहू जी से एक दरी और धोबी से आई साफ चादर लेकर आए, ताकि तख्त अच्छे से सजाया जा सके। नौकर के जाने के बाद बाबू खुद कमरे की सजावट में लग जाते हैं। वे मेज़पोश ठीक करते हैं, गुलदस्ते की धूल झाड़ते हैं और कुर्सियों को भी साफ करते हैं। इतने में घर की मालकिन प्रेमा आती हैं, जो गंदुमी रंग और छोटे कद की हैं, और उनके हावभाव से साफ पता चलता है कि वे किसी ज़रूरी काम में बहुत व्यस्त हैं। उनके पीछे-पीछे नौकर खाली हाथ लौटता है, जिससे बाबू साहब दोनों की तरफ़ देखने लगते हैं — शायद यह सोचते हुए कि काम अधूरा रह गया या अब क्या करना है। 

 

पाठ – प्रेमा : मैं कहती हूँ तुम्हें इस वक्त धोती की क्या ज़रूरत पड़ गई! एक तो वैसे ही जल्दी-जल्दी में…
रामस्वरूप : धोती?
प्रेमा : हाँ, अभी तो बदलकर आए हो, और फिर न जाने किसलिए…
रामस्वरूप : लेकिन तुमसे धोती माँगी किसने?
प्रेमा : यही तो कह रहा था रतन।
रामस्वरूप : क्यों बे रतन, तेरे कानों में डाट लगी है क्या? मैंने कहा था-धोबी के यहाँ से जो चद्दर आई है, उसे माँग ला…अब तेरे लिए दूसरा दिमाग
कहाँ से लाऊँ। उल्लू कहीं का।
प्रेमा : अच्छा, जा पूजावाली कोठरी में लकड़ी के बक्स के ऊपर धुले हुए कपड़े रखे हैं न! उन्हीं में से एक चद्दर उठा ला।
रतन : और दरी?
प्रेमा : दरी यहीं तो रक्खी है, कोने में। वह पड़ी तो है।
रामस्वरूप : (दरी उठाते हुए) और बीबी जी के कमरे में से हरिमोनियम उठा ला, और सितार भी।…जल्दी जा। (रतन जाता है। पति-पत्नी तख्त पर दरी बिछाते हैं।)
प्रेमा : लेकिन वह तुम्हारी लाडली बेटी तो मुँह फुलाए पड़ी है।

शब्दार्थ-
कोठरी – छोटा कमरा
बक्स – चौकोर या आयताकार संदूक
हरिमोनियम और सितार – संगीत वाद्ययंत्र 

व्याख्या- इस अंश में घरेलू हलचल और हँसी-मज़ाक के बीच पति-पत्नी के बीच की आपसी बातचीत को बहुत ही सहज अंदाज़ में दिखाया गया है। प्रेमा नाराज़गी भरे लहजे में रामस्वरूप से पूछती हैं कि उन्हें इस वक्त धोती की क्या ज़रूरत पड़ गई, जबकि घर में काम की जल्दी है। रामस्वरूप हैरानी से पूछते हैं कि उन्होंने कब धोती माँगी! तब प्रेमा कहती हैं कि रतन (नौकर) यही कह रहा था। रामस्वरूप झल्लाकर रतन को डाँटते हैं और कहते हैं कि उन्होंने चद्दर माँगी थी, न कि धोती, लेकिन रतन को समझ नहीं आई क्योंकि उसमें अक़्ल की कमी है।

इसके बाद प्रेमा रतन को बताती हैं कि पूजावाले कमरे में जो लकड़ी के बक्स पर धुले कपड़े रखे हैं, उनमें से चद्दर ले आए। रतन पूछता है कि दरी कहाँ है, तो प्रेमा बताती हैं कि वह तो यहीं कोने में पड़ी है। रामस्वरूप खुद दरी उठाते हैं और रतन से कहते हैं कि बीबी जी के कमरे से हारमोनियम और सितार भी ले आए। इसके बाद दोनों मिलकर तख्त पर दरी बिछाते हैं।

फिर प्रेमा चिंता जताते हुए कहती हैं कि उनकी प्यारी बेटी अभी भी मुँह फुलाए बैठी है।

 

पाठ –  रामस्वरूप : मुँह फुलाए!…और तुम उसकी माँ, किस मर्ज की दवा हो? जैसे-तैसे करके तो वे लोग पकड़ में आए हैं। अब तुम्हारी बेवकूफ़ी से सारी मेहनत बेकार जाए तो मुझे दोष मत देना।
प्रेमा : तो मैं ही क्या करूँ? सारे जतन करके तो हार गई। तुम्हीं ने उसे पढ़ा-लिखाकर इतना सिर चढ़ा रखा है। मेरी समझ में तो ये पढ़ाई-लिखाई के जंजाल आते नहीं। अपना ज़माना अच्छा था। ‘आ ई’ पढ़ ली, गिनती सीख ली और बहुत हुआ तो ‘स्त्री-सुबोधिनी’ पढ़ ली। सच पूछो तो ‘स्त्री-सुबोधिनी’ में ऐसी-ऐसी बातें लिखी हैं-ऐसी बातें कि क्या तुम्हारी बी.ए., एम.ए. की पढ़ाई होगी। और आजकल के तो लच्छन ही अनोखे हैं…
रामस्वरूप : ग्रामोफ़ोन बाजा होता है न?.
प्रेमा : क्यों?
रामस्वरूप : दो तरह का होता है। एक तो आदमी का बताया हुआ। उसे एक बार चलाकर जब चाहे तब रोक लो। और दूसरा परमात्मा का बनाया हुआ। रिकार्ड एक बार चढ़ा तो रुकने का नाम नहीं।

शब्दार्थ-
मुँह फुलाए – नाराज़ होकर चुप बैठ जाना।
मर्ज़ – बीमारी
जतन – प्रयास
सिर चढ़ा रखा है – ज़रूरत से ज़्यादा लाड़-प्यार दिया है
स्त्री-सुबोधिनी – एक पारंपरिक, नैतिक शिक्षा देने वाली पुस्तक, जिसे महिलाओं की शिक्षा के लिए उपयुक्त माना जाता था।
लच्छन – चाल-चलन या व्यवहार।
ग्रामोफ़ोन – शब्द ध्वनियों को टेप करके पुनः सुनानेवाला यंत्र

व्याख्या- इस अंश में रामस्वरूप और प्रेमा के बीच हल्की-फुल्की नोंकझोंक के साथ एक गंभीर पारिवारिक चिंता भी झलकती है। रामस्वरूप प्रेमा से नाराज़ होकर कहते हैं कि उनकी बेटी मुँह फुलाए बैठी है और प्रेमा, जो उसकी माँ है, कुछ भी नहीं कर पा रही। वह ताना मारते हैं कि जैसे-तैसे जो लोग (शायद रिश्ता लेकर आए हैं) तैयार हुए हैं, वे कहीं नाराज़ न हो जाएँ। वह डरते हैं कि अगर प्रेमा की नासमझी से यह मौका हाथ से निकल गया, तो वह इसके लिए खुद को दोषी न ठहराएँ।

प्रेमा जवाब देती हैं कि उन्होंने तो हर कोशिश कर ली है, लेकिन बेटी अब उनकी सुनती ही नहीं। वह कहती हैं कि यह सब रामस्वरूप का किया धरा है, जिन्होंने उसे पढ़ा-लिखाकर सिर पर चढ़ा रखा है। फिर वह अपने ज़माने की तुलना करती हैं कि तब लड़कियाँ बस थोड़ी बहुत पढ़ाई कर लेती थीं—‘आ ई’, गिनती और ज़्यादा हुआ तो ‘स्त्री-सुबोधिनी’ जैसी किताबें। वह कहती हैं कि उन किताबों में जो बातें थीं, वह आज की बी.ए., एम.ए. की पढ़ाई से भी बढ़कर थीं।

इस पर रामस्वरूप मज़ाक करते हुए कहते हैं कि ग्रामोफोन दो तरह का होता है, एक को हम बंद कर सकते हैं और दूसरा परमात्मा का बनाया हुआ। प्रेमा बिल्कुल ग्रामोफोन की तरह बोलती हैं। जब वह बोलना शुरू करती हैं तो रुकती ही नहीं—एक बार रिकॉर्ड चल गया तो बस चलता ही रहता है। इस मज़ेदार तुलना से उनके बीच की खट्टी-मीठी रिश्तेदारी और प्रेमा की लगातार बोलते रहने की आदत पर भी हँसी-ठिठोली का माहौल बनता है।

 

पाठ –  प्रेमा : हटो भी। तुम्हें ठठोली ही सूझती रहती है। यह तो होता नहीं कि उस अपनी उमा को राह पर लाते। अब देर ही कितनी रही है उन लोगों के आने में।
रामस्वरूप : तो हुआ क्या?
प्रेमा : तुम्हीं ने तो कहा था कि ज़रा ठीक-ठाक करके नीचे लाना। आजकल तो लड़की कितनी ही सुंदर हो, बिना टीमटाम के भला कौन पूछता है? इसी मारे मैंने तो पौडर-वौडर उसके सामने रखा था। पर उसे तो इन चीजों से न जाने किस जन्म की नफ़रत है। मेरा कहना था कि आँचल में मुँह लपेटकर लेट गई। भई, मैं बाज़ आई तुम्हारी इस लड़की से!
रामस्वरूप : न जाने कैसा इसका दिमाग है! वरना आजकल की लड़कियों के सहारे तो पौडर का कारबार चलता है।
प्रेमा : अरे मैंने तो पहले ही कहा था। एंट्रेंस ही पास करा देते-लड़की अपने हाथ रहती, और इतनी परेशानी न उठानी पड़ती। पर तुम तो…

शब्दार्थ-
ठठोली – मज़ाक, हँसी-ठिठोली करने की आदत।
टीमटाम – सजावट, साज-सज्जा, शृंगार।
पौडर-वौडर – सौंदर्य प्रसाधन, विशेषकर पाउडर
बाज़ आना – तंग आकर किसी से किनारा करना, हार मानना।
कारबार चलता है – व्यापार चलता है।
एंट्रेंस – यहाँ हाईस्कूल की परीक्षा के लिए प्रयुक्त शब्द।

व्याख्या- इस अंश में रामस्वरूप और प्रेमा के बीच अपनी बेटी उमा को लेकर बातचीत हो रही है, जिसमें एक माँ की चिंता और एक पिता की बेबसी दोनों झलकते हैं।

प्रेमा नाराज़ होकर कहती है कि रामस्वरूप को बस मज़ाक करने की आदत है, जबकि हालात गंभीर हैं—अभी थोड़ी ही देर में कुछ मेहमान (संभवतः लड़के वाले) आने वाले हैं और उमा अब तक तैयार नहीं हुई है। वह कहती है कि उसने उमा को ठीक से सजाने-संवारने की कोशिश की, पाउडर-फाउडर भी उसके सामने रख दिया, लेकिन उमा को तो इन सब चीजों से नफरत है। उसने मुँह आँचल में लपेट लिया और जाकर लेट गई।

रामस्वरूप भी हैरानी ज़ाहिर करते हैं कि आजकल तो लड़कियों के मेकअप के ही सहारे पाउडर-क्रीम का सारा धंधा चलता है, लेकिन उनकी बेटी का दिमाग ही कुछ अलग है—ना मेकअप का शौक, ना दिखावे की परवाह।

प्रेमा फिर ताना मारती है कि अगर उसकी सुनी होती तो बस उमा को एंट्रेंस पास करवा कर पढ़ाई छुड़वा देते—फिर वो माँ-बाप के कहे में रहती और इतनी झंझट नहीं होती। लेकिन रामस्वरूप ने ही उसे ज़्यादा पढ़ा दिया, जिससे अब वो किसी की बात नहीं मानती।

 

पाठ – रामस्वरूप : (बात काटकर) चुप चुप… (दरवाज़े में झाँकते हुए) तुम्हें कतई अपनी ज़बान पर काबू नहीं है। कल ही यह बता दिया था कि उन सब लोगों के सामने जिक्र और ढंग से होगा। मगर तुम तो अभी से सब-कुछ उगले देती हो। उनके आने तक तो न जाने क्या हाल करोगी!
प्रेमा : अच्छा बाबा, मैं न बोलूँगी। जैसी तुम्हारी मर्जी हो, करना। बस मुझे तो मेरा काम बता दो।
रामस्वरूप : तो उमा को जैसे हो तैयार कर लो। न सही पौडर। वैसे कौन बुरी है। पान लेकर भेज देना उसे। और, नाश्ता तो तैयार है न? (रतन का आना) आ गया रतन?… इधर ला, इधर! बाजा नीचे रख दे। चद्दर खोल…पकड़ तो ज़रा उधर से।
(चद्दर बिछाते हैं)
प्रेमा : नाश्ता तो तैयार हैं। मिठाई तो वे लोग ज़्यादा खाएँगे नहीं। कुछ नमकीन चीज़ें बना दी हैं। फल रखे हैं ही। चाय तैयार है, और टोस्ट भी। मगर हाँ, मक्खन? मक्खन तो आया ही नहीं।
रामस्वरूप : क्या कहा? मक्खन नहीं आया? तुम्हें भी किस वक्त याद आई है। जानती हो कि मक्खन वाले की दुकान दूर है, पर तुम्हें तो ठीक वक्त पर कोई बात सूझती ही नहीं। अब बताओ, रतन मक्खन लाए कि यहाँ का काम करे। दफ़्तर के चपरासी से कहा था आने के लिए, सो नखरों के मारे…

शब्दार्थ-
कतई – बिल्कुल, ज़रा भी नहीं।
ज़बान पर काबू – अपने बोले गए शब्दों पर नियंत्रण।
ज़िक्र – चर्चा
मर्ज़ी – इच्छा 

व्याख्या- इस अंश में रामस्वरूप और प्रेमा के बीच बातचीत में घर की अफरा-तफरी और आपसी खींचतान साफ़ झलकती है।

रामस्वरूप गुस्से में प्रेमा को चुप कराते हैं और दरवाज़े की ओर झाँकते हैं। वह कहते हैं कि उन्होंने पहले ही समझाया था कि मेहमानों के सामने हर बात शालीनता और तरीके से की जाए, लेकिन प्रेमा तो अभी से सब कुछ उगलने लगी है। उन्हें डर है कि जब मेहमान  आएँगे, तो प्रेमा सब बिगाड़ देगी।

प्रेमा मुँह फुलाकर कहती है कि अच्छा, अब वह कुछ नहीं बोलेगी, बस मुझे मेरा काम बता दो। रामस्वरूप उससे कहते हैं कि उमा को किसी तरह तैयार कर दो। अगर वह पाउडर नहीं लगाती तो मत लगाए, वैसे ही वो कोई बुरी नहीं लगती। बस, उसे पान देकर भेजना। फिर वह नाश्ते के बारे में पूछते हैं।

तभी नौकर रतन आ जाता है। रामस्वरूप उससे कहता है कि बाजा इधर नीचे रख दे और चद्दर खोलने में मदद कर। दोनों चद्दर बिछाने लगते हैं।

प्रेमा बताती है कि नाश्ता तैयार है—मिठाई कम रखी है क्योंकि मेहमान ज़्यादा नहीं खाएँगे, कुछ नमकीन चीजें बना दी हैं, फल और चाय भी है, टोस्ट भी तैयार है। लेकिन तभी उसे याद आता है कि मक्खन तो आया ही नहीं।

रामस्वरूप चौंककर गुस्से में पूछते हैं, “क्या? मक्खन नहीं आया?” और प्रेमा पर ताना मारते हैं कि तुमको हर ज़रूरी बात वक्त पर क्यों नहीं सूझती? अब रतन मक्खन लाए या बाकी काम करे? वह बताता है कि उसने दफ्तर के चपरासी से कहा था लाने को, लेकिन वो भी नखरे दिखा रहा है।

 

पाठ – प्रेमा : यहाँ का काम कौन ज़्यादा है? कमरा तो सब ठीक-ठाक है ही। बाजा-सितार आ ही गया। नाश्ता यहाँ बराबर वाले कमरे में ट्रे में रखा हुआ है, सो तुम्हें पकड़ा दूँगी। एकाध चीज़ खुद ले आना। इतनी देर में रतन मक्खन ले ही आएगा…दो आदमी ही तो हैं।
रामस्वरूप : हाँ एक तो बाबू गोपाल प्रसाद और दूसरा खुद लड़का है। देखो, उमा से कह देना कि ज़रा करीने से आए। ये लोग ज़रा ऐसे ही है…गुस्सा तो मुझे बहुत आता है इनके दकियानूसी खयालों पर। खुद पढ़े-लिखे हैं, वकील हैं, सभा-सोसाइटियों में जाते हैं, मगर लड़की चाहते हैं ऐसी कि ज़्यादा पढ़ी-लिखी न हो।
प्रेमा : और लड़का?
रामस्वरूप : बताया तो था तुम्हें। बाप सेर है तो लड़का सवा सेर। बी.एस.सी. के बाद लखनऊ में ही तो पढ़ता है, मेडिकल कालेज में। कहता है कि शादी का सवाल दूसरा है, तालीम का दूसरा। क्या करूँ मजबूरी है। मतलब अपना है वरना इन लड़कों और इनके बापों को ऐसी कोरी-कोरी सुनाता कि ये भी…
रतन : (जो अब तक दरवाज़े के पास चुपचाप खड़ा हुआ था, जल्दी-जल्दी) बाबू जी, बाबू जी!
रामस्वरूप : क्या है?
रतन : कोई आते हैं।

शब्दार्थ-
ठीक-ठाक – ठीक स्थिति में
बाजा-सितार – यहाँ हारमोनियम और सितार जैसे वाद्य यंत्र
ट्रे – खाने-पीने की वस्तुएँ रखने की प्लेटनुमा वस्तु
करीने से – सलीके से, अच्छे ढंग से
दकियानूसी खयाल – पुराने जमाने की सोच, रूढ़िवादी विचार
सेर-सवा सेर – कहावत, जिसका मतलब होता है – बाप जितना तेज़ है, बेटा उससे भी आगे
बी.एस.सी.– बैचलर ऑफ साइंस, विज्ञान विषय में किया जाने वाला कोर्स
कोरी-कोरी सुनाना – खरी-खोटी सुनाना, कड़वी बातें कहना
तालीम – शिक्षा 

व्याख्या- इस अंश में नाटक का माहौल और भी ज़्यादा तैयारियों की हलचल से भर जाता है। अब तक कमरे की सजावट पूरी हो चुकी है। प्रेमा रामस्वरूप को बताती है कि अब ज़्यादा कुछ काम नहीं बचा है। कमरा सजा-संवरा है, बाजा और सितार भी आ चुके हैं। नाश्ता पास के कमरे में ट्रे में सजाकर रखा गया है। वह कहती है कि कुछ चीजें खुद ले आना। उसे भरोसा है कि रतन थोड़ी देर में मक्खन भी ले आएगा। वह यह भी कहती है कि मेहमान दो ही हैं—एक बाबू गोपाल प्रसाद और दूसरा उनका बेटा।

रामस्वरूप उमा को लेकर चिंता ज़ाहिर करता है और प्रेमा से कहता है कि वह उमा को समझा दे कि ज़रा अच्छे से, सलीके से आए। वह समझाता है कि जो लोग आने वाले हैं, वे थोड़े पुराने विचारों के हैं। हालांकि वे खुद वकील हैं, पढ़े-लिखे हैं और सभा-सोसाइटी में भी जाते हैं, पर लड़की ऐसी चाहते हैं जो ज़्यादा पढ़ी-लिखी न हो।

जब प्रेमा लड़के के बारे में पूछती है, तो रामस्वरूप बताता है कि लड़का बी.एस.सी. कर चुका है और अब लखनऊ के मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई कर रहा है। लड़का पढ़ाई को और शादी को दो अलग-अलग बातें मानता है। रामस्वरूप यह भी कहता है कि अगर ज़रूरत न होती, तो ऐसे लोगों को वह अच्छा सबक सिखा सकता था, लेकिन मजबूरी है, इसलिए सब कुछ सहन कर रहा है।

इसी बीच दरवाज़े के पास चुपचाप खड़े रतन की आवाज़ आती है। वह जल्दी-जल्दी बताता है कि कोई आ रहे हैं। यह सुनते ही दोनों थोड़े सतर्क हो जाते हैं।

 

पाठ –  रामस्वरूप : (दरवाज़े से बाहर झाँककर जल्दी मुँह अंदर करते हुए) अरे, ए प्रेमा, वे आ भी गए। (नौकर पर नज़र पड़ते ही) अरे, तू यहीं खड़ा है, बेवकूफ़। गया नहीं मक्खन लाने?…सब चौपट कर दिया। अबे उधर से नहीं, अंदर के दरवाज़े से जा (नौकर अंदर आता हैं)… और तुम जल्दी करो प्रेमा। उमा को समझा देना थोड़ा-सा गा देगी। (प्रेमा जल्दी से अंदर की तरफ़ आती हैं। उसकी धोती ज़मीन पर रखे हुए बाजे से अटक जाती है।)
प्रेमा : उँह। यह बाजा वह नीचे ही रख गया है, कमबख्त।
रामस्वरूप : तुम जाओ, मैं रखे देता हूँ…जल्दी।
(प्रेमा जाती है, बाबू रामस्वरूप बाजा उठाकर रखते हैं। किवाड़ों पर दस्तक)
रामस्वरूप : हँ-हँ-हँ। आइए, आइए…हँ-हँ-हँ।
(बाबू गोपाल प्रसाद और उनके लड़के शंकर का आना। आँखों से लोक चतुराई टपकती है। आवाज़ से मालूम होता है कि काफ़ी अनुभवी और फितरती महाशय हैं। उनका लड़का कुछ खीस निपोरने वाले नौजवानों में से है। आवाज़ पतली हैं और खिसियाहट भरी। झुकी कमर इनकी खासियत है।)

शब्दार्थ-
चौपट – बर्बाद
बेवकूफ़ – मूर्ख, नासमझ
कमबख़्त – शापित या झुंझलाहट प्रकट करने वाला शब्द
लोक चतुराई – व्यवहार में चतुर, दुनियादार सोच वाला
फितरती – चालाक, शातिर स्वभाव का
कमबख्त – भाग्यहीन
दस्तक– हाथ का हल्का आघात
खीस निपोरना – बनावटी मुस्कान के साथ दाँत दिखाना
खिसियाहट भरी आवाज़ – संकोच या असहजता से भरी आवाज़
खासियत– विशेषता 

व्याख्या- इस अंश में नाटक का तनावपूर्ण और हास्यपूर्ण मोड़ और गहरा हो जाता है। रामस्वरूप जब दरवाज़े से बाहर झाँकते हैं, तो देखते हैं कि मेहमान आ चुके हैं। वे तुरंत प्रेमा को आवाज़ लगाते हैं और रतन को डाँटते हैं कि अब तक मक्खन लाने नहीं गया। उन्हें चिंता है कि सब तैयारी अधूरी रह जाएगी और सारी मेहनत बेकार हो जाएगी। वे रतन को हड़का देते हैं और कहते हैं कि अंदर वाले दरवाज़े से जाओ ताकि सामने से कोई यह अफरा-तफरी न देखे।

रामस्वरूप फिर जल्दी-जल्दी प्रेमा से कहते हैं कि वह उमा को समझा दे—वह थोड़ा बहुत गा भी दे। इस बीच प्रेमा की धोती जमीन पर रखे बाजे से अटक जाती है और वह झुंझलाकर कहती है कि रतन ने यह बाजा यहीं बीच में छोड़ दिया है। रामस्वरूप उसे कहता है कि वह जल्दी जाए, और खुद बाजा हटाने लगता है।

तभी दरवाज़े पर दस्तक होती है। रामस्वरूप झट से सामान्य और प्रसन्न मुद्रा में आकर मेहमानों का स्वागत करते हैं और बार-बार ‘आइए, आइए’ कहते हुए हँसते हैं।

अब बाबू गोपाल प्रसाद और उनका बेटा शंकर अंदर आते हैं। बाबू गोपाल प्रसाद के हावभाव और आवाज़ से साफ़ ज़ाहिर होता है कि वे बहुत अनुभवी और चालाक किस्म के व्यक्ति हैं। उनके चेहरे से एक तरह की दुनियादारी टपकती है। वहीं उनका बेटा शंकर थोड़ा बेढंग तौर से हँसने वाला नौजवान है। उसकी पतली सी आवाज़ और थोड़ी झुकी हुई कमर उसके व्यक्तित्व को थोड़ी हास्यास्पद और असहज बना देती है।

 

पाठ – रामस्वरूप : (अपने दोनों हाथ मलते हुए) हँ-हँ, इधर तशरीफ़ लाइए इधर। (बाबू गोपाल प्रसाद बैठते हैं, मगर बेंत गिर पड़ता है।)
रामस्वरूप : यह बेंत!…लाइए मुझे दीजिए। (कोने में रख देते हैं। सब बैठते हैं।) हँ-हँ…मकान ढूँढ़ने में तकलीफ़ तो नहीं हुई?
गो. प्रसाद : (खँखार कर) नहीं। ताँगे वाला जानता था।…और फिर हमें तो यहाँ आना ही था। रास्ता मिलता कैसे नहीं?
रामस्वरूप : हँ-हँ-हँ। यह तो आपकी बड़ी मेहरबानी है। मैंने आपको तकलीफ़ तो दी…
गो. प्रसाद : अरे नहीं साहब! जैसा मेरा काम वैसा आपका काम। आखिर लड़के की शादी तो करनी ही है। बल्कि यों कहिए कि मैंने आपके लिए खासी परेशानी कर दी!
रामस्वरूप : हँ-हँ-हँ! यह लीजिए आप तो मुझे काँटों में घसीटने लगे। हम तो आपके-हँ-हँ-सेवक ही हैं-हँ-हँ। (थोड़ी देर बाद लड़के की ओर मुखातिब होकर) और कहिए, शंकर बाबू, कितने दिनों की छुट्टियाँ हैं?

शब्दार्थ-
तशरीफ़ लाइए – आइए, पधारिए (सम्मानपूर्वक आमंत्रण)
बेंत – लाठी या छड़ी (अक्सर बुज़ुर्गों के सहारे चलने की वस्तु)
खँखार कर – गला साफ़ करना, बातचीत शुरू करने का संकेत
मेहरबानी – कृपा
मुखातिब – किसी के सामने देखकर या संबोधित करते हुए

व्याख्या- रामस्वरूप ने मेहमानों का स्वागत करते हुए दोनों हाथ जोड़कर बहुत आत्मीयता से उन्हें बैठने के लिए आमंत्रित किया। जब बाबू गोपाल प्रसाद बैठने लगे तो उनका बेंत गिर गया। रामस्वरूप ने तत्परता से आगे बढ़कर वह बेंत उठाया और कोने में रख दिया। फिर सभी लोग आराम से बैठ गए।

रामस्वरूप ने बड़ी विनम्रता से पूछा कि क्या उन्हें मकान ढूँढ़ने में कोई परेशानी हुई। इस पर बाबू गोपाल प्रसाद ने खँखारते हुए जवाब दिया कि नहीं, उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई। उन्होंने बताया कि ताँगे वाला रास्ता जानता था और फिर जब आना ही था तो रास्ता मिलना ही था।

रामस्वरूप ने उनके आने को अपना सौभाग्य बताते हुए कहा कि उन्होंने ही बाबू जी को तकलीफ़ दी। इस पर गोपाल प्रसाद ने विनम्र लेकिन थोड़े व्यंग्यात्मक अंदाज़ में कहा कि तकलीफ़ तो उन्होंने रामस्वरूप को दी है, क्योंकि शादी के लिए तो लड़के की तरफ़ से आना ज़रूरी था।

इस पर रामस्वरूप ने मज़ाकिया लहज़े में कहा कि बाबू जी तो उल्टा उन्हें काँटों पर घसीटने लगे हैं, जबकि वह तो उनके सेवक हैं।

फिर कुछ देर बाद, रामस्वरूप ने गोपाल प्रसाद के बेटे शंकर की ओर मुँह  करके उससे पूछा कि उसे कितने दिनों की छुट्टियाँ मिली हैं।

 

पाठ – शंकर : जी, कालिज की तो छुट्टियाँ नहीं हैं। ‘वीक-एण्ड’ में चला आया था।
रामस्वरूप : आपके कोर्स खत्म होने में तो अब सालभर रहा होगा?
शंकर : जी, यही कोई साल दो साल।
रामस्वरूप : साल दो साल?
शंकर : हँ-हँ-हँ!…जी, एकाध साल का ‘मार्जिन’ रखता हूँ…
गो. प्रसाद : बात यह है साहब कि यह शंकर एक साल बीमार हो गया था। क्या बताएँ, इन लोगों को इसी उम्र में सारी बीमारियाँ सताती हैं। एक हमारा ज़माना था कि स्कूल से आकर दर्जनों कचौड़ियाँ उड़ा जाते थे, मगर फिर जो खाना खाने बैठते तो वैसी-की-वैसी ही भूख!
रामस्वरूप : कचौड़ियाँ  भी तो उस ज़माने में पैसे की दो आती थीं।
गो. प्रसाद : जनाब, यह हाल था कि चार पैसे में ढेर-सी बालाई आती थी। और अकेले दो आने की हज़म करने की ताकत थी, अकेले! और अब तो बहुतेरे खेल वगैरह भी होते हैं स्कूल में। तब न कोई वॉली-बॉल जानता था, न टेनिस न बैडमिंटन। बस कभी हॉकी या क्रिकेट कुछ लोग खेला करते थे। मगर मजाल कि कोई कह जाए कि यह लड़का कमज़ोर है।
(शंकर और रामस्वरूप खीसें निपोरते हैं।)

शब्दार्थ-
वीक-एण्ड – सप्ताहांत, शनिवार-रविवार की छुट्टियाँ
मार्जिन – अतिरिक्त समय, संभावित अंतर
बालाई – दूध से बनी मलाई
दो आने – पुराने ज़माने की मुद्रा, आठ आने = एक रुपया
हज़म करने की ताकत – पचाने की क्षमता (यहाँ स्वास्थ्य का संकेत)
खीसें निपोरना – बेमन से या दिखावटी ढंग से मुस्कराना

व्याख्या- शंकर ने यह बताया कि कॉलेज में छुट्टियाँ नहीं थीं, वह केवल सप्ताहांत (वीक-एण्ड) पर घर आया था। रामस्वरूप ने यह जानना चाहा कि उसके कोर्स की समाप्ति में अब कितना समय शेष रह गया है। जब शंकर ने कहा कि यही कोई साल-दो साल और लगेंगे, तो रामस्वरूप को थोड़ी हैरानी हुई। शंकर ने हँसते हुए बात संभाली और कहा कि वह एक-दो साल का मार्जिन रखता है। इस पर गोपाल प्रसाद ने स्पष्ट किया कि शंकर एक साल बीमार रहा था, और कहा कि आजकल की उम्र में ही युवाओं को तरह-तरह की बीमारियाँ घेर लेती हैं। उन्होंने तुलना करते हुए कहा कि उनके ज़माने में ऐसा नहीं होता था—स्कूल से आकर दर्जनों कचौड़ियाँ खा जाया करते थे, और फिर भी भूख बनी रहती थी। रामस्वरूप ने बात में हँसी-हँसी में जोड़ा कि उस समय तो कचौड़ियाँ भी दो पैसे में मिल जाया करती थीं। गोपाल प्रसाद ने पुराने दिनों को याद करते हुए कहा कि तब चार पैसे में बालाई भी भरपूर मिलती थी और दो आने की मिठाई आराम से अकेले खा सकते थे। उन्होंने यह भी कहा कि उस ज़माने में स्कूलों में न वॉलीबॉल चलता था, न टेनिस न बैडमिंटन—कभी-कभार हॉकी या क्रिकेट ज़रूर खेला जाता था, मगर तब भी कोई यह कहने की हिम्मत नहीं करता था कि लड़का कमज़ोर है।

इस बातचीत के दौरान शंकर और रामस्वरूप मुस्कराते रहे और माहौल हल्का-फुल्का बना रहा।

 

पाठ – रामस्वरूप : जी हाँ, जी हाँ, उस ज़माने की बात ही दूसरी थी…हँ-हँ!
गो. प्रसाद : (जोशीली आवाज़ में) और पढ़ाई का यह हाल था कि एक बार कुर्सी पर बैठे कि बारह घंटे की ‘सिटिंग’ हो गई, बारह घंटे! जनाब, मैं सच कहता हूँ कि उस ज़माने का मैट्रिक भी वह अंग्रेज़ी लिखता था फ़र्राटे की, कि आजकल के एम.ए. भी मुकाबिला नहीं कर सकते।
रामस्वरूप : जी हाँ, जी हाँ ! यह तो है ही।
गो. प्रसाद : माफ़ कीजिएगा बाबू रामस्वरूप, उस ज़माने की जब याद आती है, अपने को ज़ब्त करना मुश्किल हो जाता है!
रामस्वरूप : हँ-हँ-हँ!…जी हाँ वह तो रंगीन ज़माना था, रंगीन ज़माना। हँ-हँ-हँ!
(शंकर भी हीं-हीं करता है।)
गो. प्रसाद : (एक साथ अपनी आवाज़ और तरीका बदलते हुए) अच्छा, तो साहब, ‘बिज़नेस’ की बातचीत हो जाए।
रामस्वरूप : (चौंककर) बिज़नेस? बिज़…(समझकर) ओह…अच्छा, अच्छा। लेकिन ज़रा नाश्ता तो कर लीजिए।
(उठते हैं।)
गो. प्रसाद : यह सब आप क्या तकल्लुफ़ करते है!

शब्दार्थ-
सिटिंग – अध्ययन का एक लंबे समय तक बैठकर किया गया सत्र
फ़र्राटे की अंग्रेज़ी – बहुत तेज़, धाराप्रवाह और प्रभावशाली अंग्रेज़ी।
ज़ब्त करना – अपने भावनाओं या विचारों पर नियंत्रण रखना
रंगीन ज़माना – आकर्षक, आनंदमय और सुनहरा बीता हुआ समय
‘बिज़नेस’ की बातचीत – यहाँ विवाह संबंधी बातचीत, यानी मूल मुद्दे की चर्चा
तकल्लुफ़ – औपचारिकता, ज़रूरत से ज़्यादा शिष्टाचा

व्याख्या- रामस्वरूप ने सहमति जताते हुए कहा कि सच में, उस ज़माने की बात ही कुछ और थी। गोपाल प्रसाद ने एक जोशीली आवाज़ में कहा कि उस समय पढ़ाई का यह हाल था कि एक बार कुर्सी पर बैठ गए तो बारह घंटे की निरंतर पढ़ाई हो जाया करती थी। उन्होंने यह भी दावा किया कि उस दौर का मैट्रिक पास छात्र भी इतनी धाराप्रवाह अंग्रेज़ी लिखता था कि आज के एम.ए. पास विद्यार्थी भी उसके सामने टिक नहीं सकते। इस पर रामस्वरूप ने हामी भरते हुए कहा कि यह तो बिल्कुल सच है।

गोपाल प्रसाद ने फिर माफी मांगते हुए कहा कि जब उस ज़माने की बातें याद आती हैं, तो खुद को रोकना मुश्किल हो जाता है। रामस्वरूप ने हँसते हुए कहा कि वह ज़माना तो वाकई रंगीन और यादगार था। शंकर भी इस बात पर हल्के अंदाज़ में हँस पड़ा।

इसके बाद गोपाल प्रसाद ने अचानक स्वर और लहजा बदलते हुए कहा कि अब उन्हें असली ‘बिजनेस’ की बात कर लेनी चाहिए। रामस्वरूप पहले तो चौंके, फिर बात को समझते हुए बोले कि हाँ, ठीक है। लेकिन उन्होंने यह भी आग्रह किया कि पहले वे लोग थोड़ा नाश्ता कर लें। यह कहते हुए वे उठ खड़े हुए। गोपाल प्रसाद ने विनम्रता से कहा कि वे क्यों इतनी औपचारिकता दिखा रहे हैं।

 

पाठ – रामस्वरूप : हँ-हँ-हँ! तकल्लुफ़ किस बात का? हँ-हँ! यह तो मेरी बड़ी तकदीर है कि आप मेरे यहाँ तशरीफ़ लाए। वरना मैं किस काबिल हूँ। हँ-हँ!… माफ़ कीजिएगा ज़रा। अभी हाज़िर हुआ।
(अंदर जाते हैं।)
गो. प्रसाद : (थोड़ी देर बाद दबी आवाज़ में) आदमी तो भला है। मकान-वकान से हैसियत भी बुरी नहीं मालूम होती। पता चले, लड़की कैसी है।
शंकर : जी…
(कुछ खँखारकर इधर-उधर देखता है।)
गो. प्रसाद : क्यों, क्या हुआ?
शंकर : कुछ नहीं।
गो. प्रसाद : झुककर क्यों बैठते हो? ब्याह तय करने आए हो, कमर सीधी करके बैठो। तुम्हारे दोस्त ठीक कहते हैं कि शंकर की ‘बैकबोन’…
(इतने में बाबू रामस्वरूप आते हैं, हाथ में चाय की ट्रे लिए हुए। मेज़ पर रख देते हैं।
गो. प्रसाद : आखिर आप माने नहीं।

शब्दार्थ-
काबिल – योग्य, लायक
हाज़िर हुआ – उपस्थित हुआ, आया
हैसियत – आर्थिक या सामाजिक स्थिति
बैकबोन – रीढ़ की हड्डी 

व्याख्या- रामस्वरूप ने हँसते हुए कहा कि इसमें तकल्लुफ़ की क्या बात है और यह तो उनकी बहुत बड़ी किस्मत है कि बाबू गोपाल प्रसाद उनके यहाँ तशरीफ लाए हैं, वरना वे स्वयं किस लायक थे। हँसते हुए ही उन्होंने माफी माँगी और कहा कि वे अभी हाज़िर होते हैं। यह कहकर वे अंदर चले गए।

रामस्वरूप के जाते ही थोड़ी देर बाद गोपाल प्रसाद ने धीमी आवाज़ में कहा कि आदमी उन्हें भला लगा और मकान से उसकी हैसियत भी ठीक-ठाक जान पड़ती है। अब बस यह देखना बाकी है कि लड़की कैसी है।

शंकर ने हल्के से जवाब दिया, लेकिन बात को स्पष्ट नहीं किया। कुछ खाँसते हुए वह इधर-उधर देखने लगा। यह देखकर गोपाल प्रसाद ने उससे पूछा कि क्या हुआ, तो शंकर ने कहा कि कुछ नहीं।

गोपाल प्रसाद ने उसे झुककर बैठा देखकर टोका और कहा कि वह सीधे बैठा करे, आखिर शादी की बात करने आया है। साथ ही यह भी कहा कि उसके दोस्त ठीक ही कहते हैं कि उसकी रीढ़ की हड्डी। 

इसी बीच बाबू रामस्वरूप चाय की ट्रे लेकर आ गए और उसे मेज़ पर रख दिया। इस पर गोपाल प्रसाद ने मुस्कराते हुए कहा कि आखिरकार वह माने नहीं। 

 

पाठ –  रामस्वरूप : (चाय प्याले में डालते हुए) हँ-हँ-हँ! आपको विलायती चाय पसंद है या हिंदुस्तानी?
गो. प्रसाद : नहीं-नहीं साहब, मुझे आधा दूध और आधी चाय दीजिए। और ज़रा चीनी ज़्यादा डालिएगा। मुझे तो भई तो यह नया फ़ैशन पसंद नहीं। एक तो वैसे ही चाय में पानी काफ़ी होता है, और फिर चीनी भी नाम के लिए डाली जाए तो ज़ायका क्या रहेगा?
रामस्वरूप : हँ-हँ, कहते तो आप सही हैं।
(प्याला पकड़ाते हैं।)
शंकर : (खँखारकर) सुना है, सरकार अब ज्यादा चीनी लेने वालों पर ‘टैक्स’ लगाएगी।
गो. प्रसाद : (चाय पीते हुए) हूँ। सरकार जो चाहे सो कर ले, पर अगर आमदनी करनी है तो सरकार को बस एक ही टैक्स लगाना चाहिए।
रामस्वरूप : (शंकर को प्याला पकड़ाते हुए) वह क्या?

शब्दार्थ-
विलायती चाय – अंग्रेज़ी शैली की चाय (कम दूध और कम चीनी वाली, यानी स्ट्रॉन्ग चाय)
हिंदुस्तानी चाय – भारतीय शैली की चाय (दूध और चीनी ज़्यादा, उबालकर बनाई जाती है)
फ़ैशन – चलन, रिवाज
ज़ायका – स्वाद
टैक्स – कर, शुल्क
आमदनी – आय, कमाई
प्याला – कप (चाय या अन्य पेय पदार्थ पीने का बर्तन)

व्याख्या- रामस्वरूप ने हँसते हुए पूछा कि उन्हें विलायती चाय पसंद है या हिंदुस्तानी। इस पर गोपाल प्रसाद ने तुरंत कहा कि उन्हें आधा दूध और आधी चाय चाहिए, और चीनी थोड़ी ज़्यादा डाली जाए। उन्होंने यह भी जोड़ा कि उन्हें यह नया फ़ैशन बिल्कुल पसंद नहीं, क्योंकि चाय में तो वैसे ही काफी पानी होता है और अगर ऊपर से चीनी भी नाम मात्र की डाली जाए, तो उसका स्वाद क्या रह जाएगा।

रामस्वरूप ने हँसते हुए उनकी बात से सहमति जताई और उन्हें चाय का प्याला थमाया।

उधर शंकर ने हल्के से खाँसते हुए टिप्पणी की कि सुना है सरकार अब ज़्यादा चीनी लेने वालों पर टैक्स लगाने की योजना बना रही है।

गोपाल प्रसाद ने चाय पीते हुए प्रतिक्रिया दी कि सरकार जो चाहे कर ले, लेकिन अगर वास्तव में आमदनी करनी हो, तो उसे बस एक खास टैक्स लगाना चाहिए। यह सुनकर रामस्वरूप ने, शंकर को प्याला पकड़ाते हुए, उत्सुकता से पूछा कि वह टैक्स क्या होना चाहिए।

 

पाठ – गो. प्रसाद : खूबसूरती पर टैक्स! (रामस्वरूप और शंकर हँस पड़ते हैं) मज़ाक नहीं साहब, यह ऐसा टैक्स है जनाब कि देने वाले चूँ भी न करेंगे। बस शर्त यह है कि हर एक औरत पर यह छोड़ दिया जाए कि वह अपनी खूबसूरती के ‘स्टैंडर्ड’ के माफ़िक अपने ऊपर टैक्स तय कर ले। फिर देखिए, सरकार की कैसी आमदनी बढ़ती है।
रामस्वरूप : (ज़ोर से हँसते हुए) वाह-वाह! खूब सोचा आपने! वाकई आजकल यह खूबसूरती का सवाल भी बेढब हो गया है। हम लोगों के ज़माने में तो यह कभी उठता भी न था। (तश्तरी गोपाल प्रसाद की तरफ़ बढ़ाते हैं) लीजिए।
गो. प्रसाद : (समोसा उठाते हुए) कभी नहीं साहब, कभी नहीं।
रामस्वरूप : (शंकर की तरफ़ मुखातिब होकर) आपका क्या ख्याल है शंकर बाबू?
शंकर : किस मामले में?
रामस्वरूप : यही कि शादी तय करने में खूबसूरती का हिस्सा कितना होना चाहिए।
गो. प्रसाद : (बीच में ही) यह बात दूसरी है बाबू रामस्वरूप, मैंने आपसे पहले भी कहा था, लड़की का खूबसूरत होना निहायत ज़रूरी है। कैसे भी हो, चाहे पाउडर वगैरह लगाए, चाहे वैसे ही। बात यह है कि हम आप मान भी जाएँ, मगर घर की औरतें तो राज़ी नहीं होतीं। आपकी लड़की तो ठीक है?
रामस्वरूप : जी हाँ, वह तो अभी आप देख लीजिएगा।
गो. प्रसाद : देखना क्या। जब आपसे इतनी बातचीत हो चुकी है, तब तो यह रस्म ही समझिए।
रामस्वरूप : हँ-हँ, यह तो आपका मेरे ऊपर भारी अहसान है। हँ-हँ!

शब्दार्थ-
स्टैंडर्ड के माफ़िक – अपने स्तर के अनुसार
बेढब – असंगत, ठीक ढंग से परिभाषित न होने वाला
तश्तरी – छोटी प्लेट या डिश
निहायत – बहुत ज़्यादा
राज़ी नहीं होतीं – स्वीकार नहीं करतीं
रस्म – औपचारिकता, परम्परा
अहसान – उपकार, कृपा

व्याख्या- बातचीत अब हल्के-फुल्के मज़ाक और गहरी सामाजिक सोच के बीच झूलने लगी थी। गोपाल प्रसाद ने हँसते हुए कहा कि सरकार को असली टैक्स तो खूबसूरती पर लगाना चाहिए। रामस्वरूप और शंकर दोनों उनकी इस बात पर ठहाका लगा बैठे। गोपाल प्रसाद ने मज़ाक के लहजे में भी यह बात गंभीरता से कही कि यह ऐसा टैक्स होगा जिसे कोई नकारेगा नहीं—बस शर्त यह होगी कि हर औरत को यह अधिकार दिया जाए कि वह अपनी खूबसूरती के स्तर के अनुसार खुद पर टैक्स तय करे। इससे सरकार की आमदनी में जबरदस्त इज़ाफा हो जाएगा।

रामस्वरूप ने इस कल्पना पर हँसते हुए तारीफ़ की और कहा कि वाकई आजकल खूबसूरती का सवाल कुछ अजीब ही दिशा में जा रहा है। उनके अनुसार पहले के ज़माने में तो यह मुद्दा कभी उठता ही नहीं था। उन्होंने बात बदलते हुए गोपाल प्रसाद की ओर एक तश्तरी बढ़ाई।

गोपाल प्रसाद ने समोसा उठाते हुए हामी भरी कि उस वक़्त यह बात सचमुच कभी नहीं उठती थी।

फिर रामस्वरूप ने शंकर की ओर मुँह करते हुए उससे पूछा कि उसका क्या विचार है, शादी तय करने में खूबसूरती का कितना महत्त्व होना चाहिए।

लेकिन इससे पहले कि शंकर कुछ कह पाता, गोपाल प्रसाद ने बीच में ही बात काटते हुए दोहराया कि उन्होंने पहले भी कहा था—लड़की का खूबसूरत होना बेहद ज़रूरी है, चाहे वह पाउडर लगाकर हो या बिना किसी साज-सज्जा के। उनका मानना था कि भले ही पुरुष मान जाएँ, लेकिन घर की औरतें ऐसी बातें कभी नहीं मानतीं।

इस पर रामस्वरूप ने विनम्रता से कहा कि उनकी लड़की तो बिलकुल ठीक है, और वे अभी खुद देख लेंगे।

गोपाल प्रसाद ने कहा कि जब इतना सब तय हो ही चुका है, तो अब यह तो बस एक रस्म की बात रह गई है। रामस्वरूप ने उनकी बात पर हँसते हुए कहा कि यह तो उनके लिए बहुत बड़ा एहसान है।

 

पाठ – गो. प्रसाद : और जायचा (जन्मपत्र) तो मिल ही गया होगा।
रामस्वरूप : जी, जायचे का मिलना क्या मुश्किल बात है। ठाकुर जी के चरणों में रख दिया। बस, खुद-ब-खुद मिला हुआ समझिए।
गो. प्रसाद : यह ठीक कहा आपने, बिलकुल ठीक (थोड़ी देर रुककर) लेकिन हाँ, यह जो मेरे कानों में भनक पड़ी है, यह तो गलत है न?
रामस्वरूप : (चौंककर) क्या?
गो. प्रसाद : यह पढ़ाई-लिखाई के बारे में!… जी हाँ, साफ़ बात है साहब, हमें ज़्यादा पढ़ी-लिखी लड़की नहीं चाहिए। मेम साहब तो रखनी नहीं, कौन भुगतेगा उनके नखरों को। बस हद से हद मैट्रिक पास होनी चाहिए…क्यों शंकर?
शंकर : जी हाँ, कोई नौकरी तो करानी नहीं।
रामस्वरूप : नौकरी का तो कोई सवाल ही नहीं उठता।
गो. प्रसाद : और क्या साहब! देखिए कुछ लोग मुझसे कहते हैं, कि जब आपने अपने लड़कों को बी.ए., एम.ए. तक पढ़ाया है, तब उनकी बहुएँ भी ग्रेजुएट लीजिए। भला पूछिए इन अक्ल के ठेकेदारों से कि क्या लड़कों को पढ़ाई और लड़कियों की पढ़ाई एक बात है। अरे मर्दों का काम तो है ही पढ़ना और काबिल होना। अगर औरतें भी वही करने लगीं, अंग्रेज़ी अखबार पढ़ने लगीं और ‘पालिटिक्स’ वगैरह पर बहस करने लगीं तब तो हो चुकी गृहस्थी। जनाब, मोर के पंख होते हैं मोरनी के नहीं, शेर के बाल होते हैं, शेरनी के नहीं।

 

शब्दार्थ-
जायचा (जन्मपत्र) – कुंडली, जन्म तिथि, समय और स्थान के अनुसार ज्योतिषीय विवरण
भनक पड़ना – किसी बात की हल्की-सी जानकारी होना
मेम साहब – यहाँ तात्पर्य है अत्यधिक पढ़ी-लिखी, आधुनिक, या अँग्रेजी से प्रभावित महिला
मैट्रिक पास – दसवीं कक्षा उत्तीर्ण
गृहस्थी – पारिवारिक जीवन
बी.ए. – बैचलर ऑफ़ आर्ट्स (एक कोर्स)
एम.ए. – मास्टर ऑफ़ आर्ट्स (एक कोर्स)

व्याख्या- गोपाल प्रसाद धीरे से रामस्वरूप से पूछते हैं कि क्या जायचा (जन्मपत्र) मिल गया है। इस पर रामस्वरूप ने बड़ी सहजता से जवाब दिया कि इसमें कोई मुश्किल नहीं हुई थी; उन्होंने तो उसे ठाकुर जी के चरणों में रख दिया था, और इस तरह उसे मिला हुआ ही समझना चाहिए।

गोपाल प्रसाद ने रामस्वरूप की बात से सहमति जताई, फिर थोड़ी देर रुककर उन्होंने संकोच के साथ एक गंभीर विषय उठाया। उन्होंने बताया कि उनके कानों में जो एक बात आई है, वह शायद सही नहीं है। रामस्वरूप यह सुनकर चौंक उठे और उन्होंने पूछा कि कौन-सी बात?

गोपाल प्रसाद ने साफ़-साफ़ कह दिया कि वह लड़की की पढ़ाई-लिखाई की बात कर रहे हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि उन्हें ज़्यादा पढ़ी-लिखी लड़की नहीं चाहिए। उनका कहना था कि उन्हें कोई मेमसाहब नहीं चाहिए, जो पढ़-लिखकर नखरे दिखाए और घर के कामों में दखल देने लगे। उन्होंने कहा कि बस, लड़की मैट्रिक पास हो, इतना काफ़ी है। फिर उन्होंने शंकर की ओर देखा और उसकी राय माँगी।

शंकर ने पिता की बात का समर्थन करते हुए कहा कि जब लड़की को नौकरी करानी ही नहीं है, तो फिर ज़्यादा पढ़ाई की ज़रूरत भी नहीं है।

रामस्वरूप ने भी हामी भरते हुए कहा कि नौकरी कराने की कोई बात ही नहीं उठती।

गोपाल प्रसाद ने बात आगे बढ़ाई और कहा कि कुछ लोग उनको यह सलाह देते हैं कि जब उन्होंने अपने बेटों को बी.ए., एम.ए. तक पढ़ाया है, तो उनकी बहुएँ भी ग्रेजुएट होनी चाहिए। मगर उन्होंने यह विचार बेबुनियाद बताया। उनका तर्क था कि लड़कों और लड़कियों की पढ़ाई को एक जैसा नहीं समझा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि मर्दों का काम है पढ़ना और काबिल बनना, लेकिन अगर औरतें भी अंग्रेज़ी अखबार पढ़ने लगें और राजनीति पर बहस करने लगें, तो फिर गृहस्थ जीवन की शांति भंग हो जाएगी।

अपनी बात को और मजबूती देने के लिए उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि मोर के पंख होते हैं, मोरनी के नहीं; शेर के बाल होते हैं, शेरनी के नहीं।

 

पाठ – रामस्वरूप : जी हाँ, और मर्द के दाढ़ी होती है, औरत के नहीं।…हँ…हँ…हँ..!
(शंकर भी हँसता है, मगर गोपाल प्रसाद गंभीर हो जाते हैं।)
गो. प्रसाद : हाँ, हाँ। वह भी सही है। कहने का मतलब यह है कि कुछ बातें दुनिया में ऐसी हैं जो सिर्फ़ मर्दों के लिए हैं और ऊँची तालीम भी ऐसी चीज़ों में से एक है।
रामस्वरूप : (शंकर से) चाय और लीजिए।
शंकर : धन्यवाद। पी चुका।
रामस्वरूप : (गोपाल प्रसाद से) आप?
गो. प्रसाद : बस साहब, अब तो खत्म ही कीजिए।
रामस्वरूप : आपने तो कुछ खाया ही नहीं। चाय के साथ ‘टोस्ट’ नहीं  थे। क्या बताएँ, वह मक्खन…
गो. प्रसाद : नाश्ता ही तो करना था साहब, कोई पेट तो भरना था नहीं। और फिर टोस्ट-वोस्ट मैं खाता भी नहीं।
रामस्वरूप : हँ…हँ। (मेज़ को एक तरफ़ सरका देते हैं। फिर अंदर के दरवाज़े की तरफ़ मुँह कर ज़रा ज़ोर से) अरे, ज़रा पान भिजवा देना…!… सिगरेट मँगवाऊँ?
गो. प्रसाद : जी नही!
(पान की तश्तरी हाथों में लिए उमा आती है। सादगी के कपड़े। गर्दन झुकी हुई। बाबू गोपाल प्रसाद आँखें गड़ाकर और शंकर आँखें छिपाकर उसे ताक रहे हैं।)

शब्दार्थ-
ऊँची तालीम – उच्च शिक्षा
सादगी के कपड़े – बिना गहनों, रंगीन या भारी वस्त्रों के सादे और सामान्य वस्त्र
आँखें गड़ाकर ताकना – ध्यानपूर्वक देखना

व्याख्या- इस अंश में रामस्वरूप ने मुस्कुराते हुए मज़ाक किया कि जैसे मर्द के दाढ़ी होती है और औरत के नहीं, वैसे ही कुछ बातें मर्दों तक ही सीमित होती हैं। उनकी यह बात सुनकर शंकर तो हँस पड़ा, मगर गोपाल प्रसाद का चेहरा कुछ गंभीर हो गया। उन्होंने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा कि बात तो सही है, और समझाया कि दुनिया में कुछ चीज़ें ऐसी हैं जो सिर्फ़ मर्दों के लिए ही उपयुक्त हैं—जैसे कि ऊँची तालीम।

इसके बाद रामस्वरूप ने शंकर से और चाय लेने का आग्रह किया, लेकिन शंकर ने धन्यवाद कहकर मना कर दिया। फिर उन्होंने गोपाल प्रसाद से पूछा, मगर उन्होंने भी कह दिया कि अब बहुत हो गया।

रामस्वरूप ने हल्की-सी हँसी के साथ कहा कि गोपाल बाबू ने तो कुछ खाया ही नहीं। चाय के साथ टोस्ट भी नहीं थे क्योंकि मक्खन वगैरह नहीं मिल पाया। इस पर गोपाल प्रसाद ने कहा कि उन्हें तो बस थोड़ा-बहुत नाश्ता करना था, पेट भरना नहीं था। वैसे भी उन्हें टोस्ट-वोस्ट पसंद नहीं।

रामस्वरूप ने मेज़ को एक ओर सरकाते हुए अंदर की ओर मुँह कर ज़रा ऊँची आवाज़ में पान भिजवाने के लिए कहा। फिर उन्होंने सिगरेट की पेशकश की, लेकिन गोपाल प्रसाद ने विनम्रता से मना कर दिया।

थोड़ी ही देर में उमा हाथों में पान की तश्तरी लिए कमरे में आई। वह सादगी से सजी थी, सिर नीचा किए हुए। उसकी उपस्थिति से कमरे का माहौल एक पल को थम-सा गया। बाबू गोपाल प्रसाद ने उसे गहरी नजरों से देखा, जबकि शंकर ने उसकी ओर देखना चाहा मगर नज़रें चुराते हुए सिर झुका लिया।

 

पाठ – रामस्वरूप : …हँ…हँ…यही, हँ…हँ, आपकी लड़की है। लाओ बेटी पान मुझे दो।
(उमा पान की तश्तरी अपने पिता को देती है। उस समय उसका चेहरा ऊपर को उठ जाता है। और नाक पर रखा हुआ सोने की रिम वाला चश्मा दीखता है। बाप-बेटे चौंक उठते हैं।)
(गोपाल प्रसाद और शंकर-एक साथ) चश्मा!
रामस्वरूप : (ज़रा सकपकाकर) जी, वह तो…वह…पिछले महीने में इसकी आँखें दुखनी आ गई थीं, सो कुछ दिनों के लिए चश्मा लगाना पड़ रहा है।
गो. प्रसाद : पढ़ाई-वढ़ाई की वजह से तो नहीं है कुछ?
रामस्वरूप : नहीं साहब, वह तो मैंने अर्ज़ किया न।
गो. प्रसाद : हूँ। (संतुष्ट होकर कुछ कोमल स्वर में) बैठो बेटी।
रामस्वरूप : वहाँ बैठ जाओ उमा, उस तख्त पर, अपने बाजे-वाजे के पास।
(उमा बैठती है।)
गो. प्रसाद : चाल में तो कुछ खराबी है नहीं। चेहरे पर भी छवि है।… हाँ, कुछ गाना-बजाना सीखा है?
रामस्वरूप : जी हाँ, सितार भी, और बाजा भी। सुनाओ तो उमा एकाध गीत सितार के साथ।

शब्दार्थ-
नाक पर रखा हुआ सोने की रिम वाला चश्मा – चश्मा जिसकी रिम (फ्रेम) सोने की बनी है, यहाँ यह विशेष ध्यान खींचता है और शिक्षा या बुद्धिमत्ता का प्रतीक बन जाता है
सकपकाकर – थोड़ा घबराकर या हड़बड़ाकर प्रतिक्रिया देना
आँखें दुखनी आ गई थीं – आँखों में जलन, दर्द या थकान होना
संतुष्ट – मान लेना, राज़ी
चेहरे पर भी छवि है – मुखाकृति सुंदर है
एकाध गीत – गिनती में बहुत कम, एक आध

व्याख्या- इस अंश में रामस्वरूप हल्की हँसी के साथ बोले कि हाँ, यही उनकी बेटी है। उन्होंने उमा से पान लाने को कहा। उमा ने पान की तश्तरी अपने पिता को थमाई। उसी क्षण उसका चेहरा ऊपर की ओर उठा और उसकी नाक पर रखा हुआ सोने की रिम वाला चश्मा साफ़ दिखने लगा। यह देख बाप-बेटा यानी गोपाल प्रसाद और शंकर चौंक पड़े और लगभग एक साथ बोल पड़े — चश्मा!

रामस्वरूप थोड़े सकपका गए और झिझकते हुए सफाई देने लगे कि दरअसल पिछले महीने उमा की आँखों में कुछ तकलीफ़ हो गई थी, इसलिए कुछ दिनों के लिए चश्मा लगाना पड़ रहा है।

गोपाल प्रसाद ने थोड़ी गंभीरता से पूछा कि यह पढ़ाई-लिखाई की वजह से तो नहीं हुआ? इस पर रामस्वरूप ने जल्दी से आश्वस्त किया कि ऐसा कुछ नहीं है, और उन्होंने पहले ही यह बात स्पष्ट की थी।

गोपाल प्रसाद अब थोड़े संतुष्ट हो गए और एक कोमल स्वर में उमा से कहा कि वह बैठ जाए। रामस्वरूप ने उमा को तख्त पर बैठने के लिए कहा, जहाँ उसके वाद्य यंत्र रखे थे। उमा वहाँ जाकर बैठ गई।

अब गोपाल प्रसाद ने उसकी चाल-ढाल और चेहरे की बनावट को सराहते हुए कहा कि उसकी चाल में कोई खराबी नहीं है और चेहरे पर भी आकर्षण है। उन्होंने यह भी जानना चाहा कि क्या उमा ने गाना-बजाना भी सीखा है।

रामस्वरूप ने गर्व से उत्तर दिया कि उमा ने सितार भी सीखा है और अन्य वाद्य यंत्र भी बजा सकती है। फिर उन्होंने उमा से कहा कि वह सितार के साथ कोई गीत सुनाए।

 

पाठ – (उमा सितार उठाती है। थोड़ी देर बाद मीरा का मशहूर गीत ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ गाना शुरू कर देती है। स्वर से ज़ाहिर है कि गाने का अच्छा ज्ञान है। उसके स्वर में तल्लीनता आ जाती है, यहाँ तक कि उसका मस्तक उठ जाता है। उसकी आँखें शंकर की झेंपती-सी आँखों से मिल जाती हैं और वह गाते-गाते एक साथ रुक जाती है।)
रामस्वरूप : क्यों, क्या हुआ? गाने को पूरा करो उमा।
गो. प्रसाद : नहीं-नहीं साहब, काफ़ी है। लड़की आपकी अच्छा गाती है। (उमा सितार रखकर अंदर जाने को उठती है।)
गो. प्रसाद : अभी ठहरो, बेटी।
रामस्वरूप : थोड़ा और बैठी रहो, उमा! (उमा बैठती है।)
गो. प्रसाद : (उमा से) तो तुमने पेंटिंग-वेंटिंग भी…
उमा : (चुप)
रामस्वरूप : हाँ, वह तो मैं आपको बताना भूल ही गया। यह जो तसवीर टँगी हुई है, कुत्ते वाली, इसी ने खींची है। और वह उस दीवार पर भी।
गो. प्रसाद : हूँ! यह तो बहुत अच्छा है। और सिलाई वगैरह?
रामस्वरूप : सिलाई तो सारे घर की इसी के ज़िम्मे रहती है, यहाँ तक कि मेरी कमीज़ें भी। हँ…हँ…हँ।

शब्दार्थ-
सितार – संगीत वाद्ययंत्र
तल्लीनता – गाने में पूरी तरह डूब जाना, एकाग्रता से गाना
झेंपती-सी आँखें – संकोच या शरमाती हुई आँखें
काफ़ी – पर्याप्त
पेंटिंग-वेंटिंग – चित्रकला, कला के अन्य रूप
तसवीर – चित्र
वगैरह – आदि, इत्यादि

व्याख्या- उमा ने सितार उठाया और थोड़ी देर बाद मीरा का मशहूर भजन ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ गाना शुरू कर दिया। उसके स्वर में स्पष्ट रूप से सुर और लय का अच्छा ज्ञान झलक रहा था। धीरे-धीरे वह गीत में पूरी तरह तल्लीन हो गई, और इसी तल्लीनता में उसका मस्तक उठ गया। उसकी निगाहें अनायास ही शंकर की झेंपती हुई आँखों से मिल गईं, जिससे वह एकाएक गाना अधूरा छोड़कर रुक गई।

रामस्वरूप ने हैरानी से पूछा कि क्या हुआ, और उसे गाना पूरा करने को कहा।

लेकिन गोपाल प्रसाद ने उसे रोकते हुए कहा कि नहीं, अब बस हो गया; उन्होंने यह स्वीकार किया कि लड़की बहुत अच्छा गाती है।

उमा ने सितार एक ओर रखा और अंदर जाने के लिए उठी, पर तभी गोपाल प्रसाद ने उसे वहीं रुकने को कहा। रामस्वरूप ने भी उसे थोड़ा और बैठने का आग्रह किया, तो उमा वहीं बैठ गई।

अब गोपाल प्रसाद ने उससे पेंटिंग के बारे में पूछा, लेकिन उमा चुप रही। इस पर रामस्वरूप ने जानकारी दी कि वे यह बात बताना भूल ही गए थे कि दीवार पर जो कुत्ते वाली तस्वीर टंगी है, वह उमा ने ही बनाई है, और पास की दीवार पर लगी दूसरी तस्वीर भी उसी की बनाई हुई है।

गोपाल प्रसाद ने सराहना करते हुए कहा कि यह तो बहुत अच्छा है। फिर उन्होंने सिलाई-कढ़ाई के बारे में पूछा।

रामस्वरूप ने हँसते हुए बताया कि सिलाई तो पूरे घर की उसी के ज़िम्मे रहती है, यहाँ तक कि उनकी अपनी कमीज़ें भी वही सिलती है।

 

पाठ – गो. प्रसाद : ठीक।…लेकिन, हाँ बेटी, तुमने कुछ इनाम-विनाम भी जीते हैं? (उमा चुप। रामस्वरूप इशारे के लिए खाँसते हैं। लेकिन उमा चुप है उसी तरह गर्दन झुकाए। गोपाल प्रसाद अधीर हो उठते हैं और रामस्वरूप सकपकाते हैं)
रामस्वरूप : जवाब दो, उमा। (गोपाल प्रसाद से) हँ-हँ, ज़रा शरमाती है, इनाम तो इसने..
गो. प्रसाद : (ज़रा रूखी आवाज़ में) ज़रा इसे भी तो मुँह खोलना चाहिए।
रामस्वरूप : उमा, देखो, आप क्या कह रहे हैं। जवाब दो न।
उमा : (हलकी लेकिन मज़बूत आवाज़ में) क्या जवाब दूँ बाबू जी! जब कुर्सी-मेज़ बिकती है तब दुकानदार कुर्सी-मेंज़ से कुछ नहीं पूछता, सिर्फ़ खरीदार को दिखला देता है। पसंद आ गई तो अच्छा है, वरना…
रामस्वरूप : (चौंककर खड़े हो जाते हैं) उमा, उमा!
उमा : अब मुझे कह लेने दीजिए बाबूजी!… ये जो महाशय मेरे खरीदार बनकर आए हैं,  इनसे ज़रा, पूछिए कि क्या लड़कियों के दिल नहीं होता? क्या उनके चोट नहीं लगती? क्या बेबस भेड़-बकरियाँ हैं, जिन्हें कसाई अच्छी तरह देख-भालकर…?
गो. प्रसाद : (ताव में आकर) बाबू रामस्वरूप, आपने मेरी इज़्ज़त उतारने के लिए मुझे यहाँ बुलाया था?

शब्दार्थ-
इनाम-विनाम – पुरस्कार, या पुरस्कारों के रूप में मिली पहचान
बेबस भेड़-बकरियाँ – यह एक रूपक है जिसका अर्थ है कोई भी जीव, जो अपनी स्वतंत्रता खो चुका हो, यहाँ पर उमा यह दर्शा रही है कि महिलाएँ स्वतंत्र नहीं होतीं और उन्हें खरीदी-बिक्री की तरह समझा जाता है
कसाई – यहाँ, कसाई का अर्थ है वह व्यक्ति जो मांस काटने का काम करता है, और इस संदर्भ में यह महिलाओं के प्रति शोषण या दमन की प्रक्रिया को दर्शाता है

व्याख्या- गोपाल प्रसाद ने फिर एक सवाल किया और उमा से पूछा कि क्या उसने कुछ इनाम-विनाम भी जीते हैं। उमा चुप रही। रामस्वरूप ने उसे उत्तर देने का इशारा करते हुए खाँसा, लेकिन उमा ने फिर भी कोई जवाब नहीं दिया। गोपाल प्रसाद धीरे-धीरे अधीर होने लगे और रामस्वरूप भी घबरा गए। उन्होंने उमा को उत्तर देने के लिए कहा और गोपाल प्रसाद से मुस्कराकर कहा कि वह थोड़ी शर्मीली है, पर इनाम तो उसने ज़रूर जीते हैं।

लेकिन गोपाल प्रसाद ने इस बार ज़रा रूखी आवाज़ में कहा कि उसे (उमा को) भी तो कुछ बोलना चाहिए।

रामस्वरूप ने फिर से उमा को समझाया और उसे उत्तर देने के लिए कहा।

तब उमा ने पहली बार कुछ बोलते हुए धीमी लेकिन दृढ़ आवाज़ में कहा कि वह क्या उत्तर दे! जब कुर्सी-मेज़ बिकती है तो दुकानदार उनसे कुछ नहीं पूछता, केवल खरीदार को दिखाता है। अगर पसंद आ जाए तो ठीक, वरना छोड़ देता है।

रामस्वरूप इस उत्तर से चौंक उठे और खड़े हो गए। उन्होंने उमा को टोका। लेकिन उमा ने दृढ़ता से कहा कि अब वह अपनी बात कहने दे।

उसने आगे कहा कि जो महाशय उसके “खरीदार” बनकर आए हैं, उनसे कोई यह क्यों नहीं पूछता कि क्या लड़कियों का कोई दिल नहीं होता? क्या उन्हें चोट नहीं लगती? क्या वे बेबस जानवर हैं जिन्हें कसाई देख-भाल कर खरीदता है?

यह सुनकर गोपाल प्रसाद क्रोध में आ गए और उन्होंने रामस्वरूप से तीखे स्वर में पूछा कि क्या उन्होंने उन्हें (गोपाल प्रसाद को) अपमानित करने के लिए यहाँ बुलाया था?

 

पाठ – उमा : (तेज आवाज में) जी हाँ, और हमारी बेइज़्ज़ती नहीं होती जो आप इतनी देर से नाप-तोल कर रहे हैं? और ज़रा अपने इन साहबज़ादे से पूछिए कि अभी पिछली फरवरी में ये लड़कियों के होस्टल के इर्द-गिर्द क्यों घूम रहे थे, और वहाँ से कैसे भगाए गए थे!
शंकर : बाबू जी, चलिए।
गो. प्रसाद : लड़कियों के होस्टल में?…क्या तुम कालेज में पढ़ी हो?
(रामस्वरूप चुप!)
उमा : जी हाँ, कालेज में पढ़ी हूँ। मैंने बी.ए. पास किया है। कोई पाप नहीं किया, कोई चोरी नहीं की, और न आपके पुत्र की तरह ताक-झाँक कर कायरता दिखाई है। मुझे अपनी इज़्ज़त, अपने मान का खयाल तो है। लेकिन इनसे पूछिए कि ये किस तरह नौकरानी के पैरों पड़कर अपना मुँह छिपाकर भागे थे।
रामस्वरूप : उमा, उमा?

शब्दार्थ-
बेइज़्ज़ती – अपमान, शरम
नाप-तोल – माप, ध्यान से देखना या मूल्यांकन करना
इर्द-गिर्द आस-पास, चारों ओर
साहबज़ादा – उच्च वर्गीय व्यक्ति का बेटा, यहाँ इसका प्रयोग किसी ऐसे व्यक्ति के संदर्भ में किया गया है जो अपनी स्थिति को लेकर घमंडी हो
ताक-झाँक – चुपके से देखना, छिपकर किसी को देखने की कोशिश करना
कायरता – डरपोकपन
इज़्ज़त – मान, प्रतिष्ठा
खयाल – ध्यान, सोच-विचार

व्याख्या- प्रस्तुत अंश में उमा तीव्र स्वर में कहती है कि हाँ, बिल्कुल, जैसे उनकी (गो. प्रसाद की) बेइज़्ज़ती हो रही थी, वैसे ही क्या उनकी (उमा की) नहीं हो रही थी, जो इतने देर से उसे नाप-तोल कर देखा जा रहा था। उसने कहा कि ज़रा अपने बेटे से भी पूछ लीजिए कि पिछली फरवरी में वह लड़कियों के हॉस्टल के आसपास क्यों मँडरा रहा था और वहाँ से कैसे भगाया गया था।

शंकर घबराकर बोला कि बाबूजी, अब हमें चलना चाहिए।

लेकिन गोपाल प्रसाद इस आरोप से स्तब्ध रह गए और आश्चर्य से पूछा कि क्या वह (उमा) कॉलेज में पढ़ी थी। रामस्वरूप इस पर चुप रहे।

उमा ने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया कि हाँ, उसने कॉलेज में पढ़ाई की थी और बी.ए. पास किया था। उसने कहा कि इसमें कोई अपराध नहीं किया था, न ही कोई चोरी की थी, और न ही शंकर की तरह लड़कियों की ताक-झाँक करके कायरता दिखाई थी। उसने कहा कि उसे अपनी इज़्ज़त और मान का पूरा खयाल है, लेकिन उसने यह भी बताया कि शंकर ने किस तरह एक नौकरानी के पैरों में गिरकर, मुँह छिपाकर वहाँ से भागने की कोशिश की थी।

रामस्वरूप स्तब्ध और भयभीत होकर बस यही कह पाए कि उमा, उमा। 

Reedh ki Haddi Summary image 1

पाठ – गो. प्रसाद : (खड़े होकर गुस्से में) बस हो चुका। बाबू रामस्वरूप, आपने मेरे साथ दगा किया। आपकी लड़की बी.ए. पास है और आपने मुझसे कहा था कि सिर्फ़ मैट्रिक तक पढ़ी है। लाइए…मेरी छड़ी कहाँ है? मैं चलता हूँ (बेंत ढूँढ़कर उठाते हैं।) बी.ए. पास? उफ़्फ़ोह ! गज़ब हो जाता! झूठ का भी कुछ ठिकाना है। आओ बेटे, चलो…
(दरवाज़े की ओर बढ़ते हैं।)
उमा : जी हाँ, जाइए, ज़रूर चले जाइए। लेकिन घर जाकर ज़रा यह पता लगाइएगा कि आपके लाड़ले बेटे के रीढ़ की हड्डी भी है या नहीं-यानी बैकबोन, बैकबोन!
(बाबू गोपाल प्रसाद के चेहरे पर बेबसी का गुस्सा है और उनके लड़के के रूलासापन। दोनों बाहर चले जाते हैं। बाबू रामस्वरूप कुर्सी पर धम से बैठ जाते हैं। उमा सहसा चुप हो जाती है। प्रेमा का घबराहट की हालत में आना।)
प्रेमा : उमा, उमा…रो रही है!
(यह सुनकर रामस्वरूप खड़े होते हैं। रतन आता है।)
रतन : बाबू जी, मक्खन…
(सब रतन की तरफ़ देखते हैं और परदा गिरता है।)

शब्दार्थ-
दगा – धोखा, विश्वासघात
बेबसी – विवशता, लाचारी
रूलासापन – रोते हुए और दुखी होने की स्थिति

व्याख्या- प्रस्तुत अंश में गोपाल प्रसाद गुस्से में खड़े होकर बोलते हैं कि अब बहुत हो चुका। उन्होंने बाबू रामस्वरूप पर धोखा देने का आरोप लगाया और कहा कि उनकी लड़की बी.ए. पास है जबकि उन्होंने यह बताया था कि वह सिर्फ़ मैट्रिक तक पढ़ी है। उन्होंने गुस्से में अपनी छड़ी माँगी और कहा कि वे अब जा रहे हैं। बेंत ढूँढ़ते हुए उन्होंने झुंझलाहट में कहा कि बी.ए. पास! उफ़्फोह! यह तो गज़ब हो जाता। उन्होंने कहा कि झूठ की भी एक सीमा होनी चाहिए और फिर अपने बेटे को चलने के लिए कहा।

दोनों जब दरवाज़े की ओर बढ़े, तो उमा ने तीखे स्वर में कहा कि वे ज़रूर जाएँ, लेकिन घर जाकर यह ज़रूर पता करें कि उनके लाड़ले बेटे की रीढ़ की हड्डी भी है या नहीं — यानी कि बैकबोन!

गोपाल प्रसाद के चेहरे पर बेबसी और क्रोध की झलक थी और उनके बेटे के चेहरे पर शर्म और असहायता। दोनों बाहर निकल गए।

बाबू रामस्वरूप धम्म से कुर्सी पर बैठ गए, जबकि उमा सहसा चुप हो गई। तभी प्रेमा घबराई हालत में आई और कहा कि उमा रो रही है। यह सुनकर रामस्वरूप उठ खड़े हुए। उसी समय रतन वहाँ आया और बोला कि बाबू जी, मक्खन। सभी का ध्यान रतन की ओर गया और इसी समय परदा गिर गया।

 

Conclusion

दिए गए पोस्ट में हमने ‘रीढ़ की हड्डी’ नामक पाठ के सारांश, पाठ व्याख्या और शब्दार्थ को जाना। ये पाठ कक्षा 9 हिंदी के पाठ्यक्रम में कृतिका पुस्तक से लिया गया है। जगदीश चंद्र माथुर द्वारा लिखा गया यह पाठ समाज में स्त्री-पुरुष समानता, विवाह की सामाजिक परंपराओं, और नैतिक मूल्यों पर आधारित एक व्यंग्यात्मक एकांकी है। इस पोस्ट को पढ़ने से विद्यार्थी अच्छी तरह से समझ पाएँगे कि लेखक ने किस प्रकार समाज की कुरीतियों, विशेषकर दहेज प्रथा और लड़कियों की शिक्षा को लेकर लोगों की संकीर्ण सोच को उजागर किया है। परीक्षाओं में प्रश्नों को आसानी से हल करने में भी विद्यार्थियों के लिए यह पोस्ट सहायक है।