सवैये पाठ सार
CBSE Class 9 Hindi Chapter 9 “Savaiye”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kshitij Bhag 1 Book
सवैये सार – Here is the CBSE Class 9 Hindi Kshitij Bhag 1 Chapter 9 Savaiye Summary with detailed explanation of the lesson ‘Savaiye’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary
इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 9 हिंदी कोर्स ए क्षितिज भाग 1 के पाठ 9 सवैये पाठ सार , पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 9 सवैये पाठ के बारे में जानते हैं।
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Savaiye (सवैये )
कवि – रसखान
सवैये पाठ प्रवेश Savaiye Introduction
इस पाठ में दिए गए पहले और दूसरे सवैये में कृष्ण और कृष्ण–भूमि के प्रति कवि का अनन्य समर्पण– भाव व्यक्त हुआ है। तीसरे छंद में कृष्ण के रूप–सौंदर्य के प्रति गोपियों की उस सुंदरता का चित्रण है जिसमें वे स्वयं कृष्ण का रूप धारण कर लेना चाहती हैं। चौथे छंद में कृष्ण की मुरली की धुन और उनकी मुसकान के ऐसे प्रभाव का वर्णन है जिससे कोई भी नहीं बच सकता तथा साथ ही साथ गोपियों की विवशता का वर्णन है।
सवैये पाठ सार Savaiye Summary
कवि ने प्रथम सवैये में अपने आराध्य श्रीकृष्ण और उनकी जन्मभूमि के प्रति अपना प्रेम प्रकट किया है। वे चाहते हैं कि अगर उन्हें अगले जन्म में मनुष्य योनि मिले तो वे गोकुल के गाँव के ग्वालों के बीच रहें। पशु योनि प्राप्त हो तो रोज़ नन्द बाबा की गायों के साथ चरें। अगर वे पत्थर भी बन जाएँ तो भी वे उस गोवर्धन पर्वत का पत्थर बनें जिसे श्री कृष्ण ने अपनी कनिष्ठा ऊँगली पर उठाया था। अगर वे पक्षी बने, तो वे यमुना किनारे कदम्ब की डालों में अपना घौंसला बनाएँ। रसखान ब्रजभूमि और श्री कृष्ण से जुड़ी हर वस्तु से प्रेम करते हैं जिस कारण वे कोई भी जन्म लेकर किसी भी रूप में श्री कृष्ण का साथ चाहते हैं। श्री कृष्ण के प्रेम में डूबे रसखान कृष्ण की लाठी और छोटे कंबल को पाने के लिए तीनों लोकों का राज्य भी त्यागने को तैयार हैं। वे नंद बाबा की गाय चराने के सुख के बदले आठों सिद्धियों और नौ निधियों के सुख को भी भूल जाने के लिए तैयार हैं। रसखान ब्रज भूमि के उन सभी स्थानों को देखना चाहते हैं जहाँ-जहाँ श्री कृष्ण घूमा करते होंगे। रसखान को महलों के सुख से कहीं अधिक सुख ब्रजभूमि की काँटेदार झाड़ियों से भरी जगहों में मिलता है, जहाँ पर श्री कृष्ण ने कभी अपना समय बिताया था। कवि ने गोपियों द्वारा कृष्ण के प्रेम को पाने के लिए की गई कोशिशों का वर्णन करते हुए कहा है कि गोपी कृष्ण की तरह मोर पंख से बना मुकुट, गले में गुंज की माला और पीले वस्त्र धारण करके ग्वालों के साथ वन में गाय चराने को तैयार हैं मगर कृष्ण की मुरली को धारण करने को राज़ी नहीं है। इसका कारण यह है कि मुरली को गोपियाँ अपनी सौतन मानती हैं क्योंकि वह हर समय कृष्ण के पास रहती है। इस कारण गोपियाँ मुरली से ईर्ष्या भी करती हैं। श्री कृष्ण की मुरली की धुन और उनकी मनमोहक मुस्कान के प्रभाव का वर्णन करते हुए गोपियाँ कहती हैं कि जब श्री कृष्ण मुरली की मधुर धुन बजाएँगे तब वे अपने कानों में उँगली डाल लेगी जिससे उन्हें मुरली का स्वर न सुनाई दे। गोपियाँ सारे ब्रज के लोगों को पुकार कर कहती है कि कल को कोई उन्हें कितना भी समझाए लेकिन कृष्ण के मुख की मुस्कान इतनी मनमोहक है कि उनसे वह सँभाले नहीं संभलती। कहने का अभिप्राय यह है कि गोपियाँ श्री कृष्ण की मुरली की धुन और उनकी मनमोहक मुस्कान, इन दोनों के प्रभाव से बचने का प्रयास करती हैं परंतु वह कृष्ण के मुख की मुस्कान के आगे विवश हो जाती हैं। इससे पता चलता है कि वे श्री कृष्ण से कितना प्रेम करती हैं।
सवैये पाठ व्याख्या – Savaiye Lesson Explanation
1
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जौ पसु हौं तो कहा बस मेरो चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को जो कियो हरिछत्र पुरंदर धारन।
जौ खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन।
शब्दार्थ –
मानुष – मनुष्य
बसौं – बसना, रहना
ग्वारन – ग्वाले
पसु – पशु
कहा बस – वश में न होना
चरों – चरता रहूँ
नित – हमेशा
धेनु – गाय
मँझारन – बीच में
पाहन – पत्थर
गिरि – पहाड़
छत्र – छाता
पुरंदर – इंद्र
धारन – धारण किया
खग – पक्षी
बसेरो – निवास करना
कालिंदी – यमुना
कूल – किनारा
कदंब – एक वृक्ष
डारन – शाखाएँ, डाल
व्याख्या – इन पंक्तियों में रसखान ने अपने आराध्य श्रीकृष्ण और उनकी जन्मभूमि के प्रति अपना प्रेम प्रकट किया है। रसखान कहते हैं की अगर उन्हें अगले जन्म में मनुष्य योनि मिले तो वे गोकुल के गाँव के ग्वालों के बीच रहने का अवसर चाहते हैं। अगर उन्हें पशु योनि प्राप्त हो तो उनका वश तो होगा नहीं की वे किसके पशु बनेंगे परन्तु वे रोज़ नन्द बाबा की गायों के साथ चरना चाहेंगें। अगर वे पत्थर भी बन जाएँ तो भी वे उस गोवर्धन पर्वत का पत्थर बनाना चाहेंगे जिसे श्री कृष्ण ने अपनी तर्जनी (कनिष्ठा ऊँगली) पर उठा कर ब्रज को इन्द्र के प्रकोप से बचाया था। अगर वे पक्षी बने, तो वे यमुना किनारे कदम्ब की डालों में अपना खोंसला बनाना चाहेंगे। भाव यह है कि रसखान ब्रजभूमि और श्री कृष्ण से जुड़ी हर वस्तु से प्रेम करते हैं जिस कारण वे कोई भी जन्म लेकर किसी भी रूप में श्री कृष्ण का साथ चाहते हैं। चाहे उन्हें इसके लिए कोई भी कष्ट उठाना पड़े।
2
या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि नवौ निधि के सुख नंद की गाइ चराइ बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सौं, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक ए कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
शब्दार्थ –
या – इस
लकुटी – लाठी
कामरिया – छोटा कंबल
तिहूँ – तीनों
पुर – लोक
तजि डारौं – त्याग दूँ
नवौ निधि – नौ निधियाँ
बिसारौं– भूलूँ
तड़ाग – तालाब
निहारौं – देखता हूँ
कोटिक – करोड़ों
कलधौत के धाम – सोने–चाँदी के महल
करील – काँटेदार झाड़ियाँ
कुंजन – लताओं से भरा स्थान
वारौं – न्योछावर करना
व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियों में श्री कृष्ण के प्रेम में डूबे रसखान कह रहे हैं कि जिस लाठी और छोटे कंबल को लेकर कृष्ण गाय चराने के लिए जाते थे उस लाठी और छोटे कंबल को पाने के लिए अगर उन्हें तीनों लोकों का राज्य भी त्यागना पड़े तो भी वे त्याग देंगे। वे नंद बाबा की गाय चराने के सुख के बदले आठों सिद्धियों और नौ निधियों के सुख को भी भूल जाने के लिए तैयार हैं। रसखान कहते हैं कि वे कब अपनी आंँखों से ब्रज के वनों, बागों और तालाबों को देख सकेंगें। अर्थात रसखान ब्रज भूमि के उन सभी स्थानों को देखना चाहते हैं जहाँ–जहाँ श्री कृष्ण घूमा करते होंगे। रसखान सोने–चाँदी के करोड़ों महलों को ब्रजभूमि की काँटेदार झाड़ियों पर न्योछावर करने को तैयार हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि रसखान को महलों के सुख से कहीं अधिक सुख ब्रजभूमि की काँटेदार झाड़ियों से भरी जगहों में मिलता है, जहाँ पर श्री कृष्ण ने कभी अपना समय बिताया था।
3
मोरपखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरें पहिरौंगी।
ओढ़ि पितंबर लै लकुटी बन गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी।।
भावतो वोहि मेरो रसखानि सों तेरे कहे सब स्वाँग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी।।
शब्दार्थ –
मोरपखा – मोर के पंखों से बना मुकुट
राखिहौं – रखूँगी
गुंज – एक जंगली पौधे का छोटा–सा फल
गरें – गले में
पहिरौंगी – पहनूँगी
पितंबर – पीलावस्त्र
गोधन – गाय रूपी धन
ग्वारिन – ग्वालों के
फिरौंगी – घूमूँगी
भावतो – अच्छा लगना
वोहि – जो कुछ
स्वाँग – रूप धारण करना
करौंगी – करूँगी
मुरलीधर – कृष्ण
अधरा – होंठों पर
धरौंगी – रखूँगी
व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियों में गोपियों द्वारा कृष्ण के प्रेम को पाने के लिए की गई कोशिशों का वर्णन किया गया है। यहाँ एक गोपी दूसरी गोपी से कह रही है कि वह कृष्ण की तरह मोर पंख से बना मुकुट अपने सिर पर धारण कर लेगी, अपने गले में कृष्ण की ही तरह गुंज की माला धारण करेगी। कृष्ण की ही तरह पीले वस्त्र धारण करके हाथ में लाठी लेकर ग्वालों के साथ वन में गाय चराते हुए घूमेगी। गोपी अपनी सखी गोपी से कहती है कि वह उसके कहने पर वैसा रूप धारण करेगी जैसा रूप कृष्ण स्वयं धारण करते हैं। परंतु वह कृष्ण की मुरली को अपने होठों पर कभी नहीं रखेगी। कहने का अभिप्राय यह है कि गोपी कृष्ण की तरह पूरा स्वांग रचने को तैयार है मगर कृष्ण की मुरली को धारण करने को राज़ी नहीं है। इसका कारण यह है कि मुरली को बजाते समय कृष्ण इतने मग्न हो जाते हैं कि वे सबको भूल जाते हैं। साथ ही मुरली को गोपियाँ अपनी सौतन मानती हैं क्योंकि वह हर समय कृष्ण के पास रहती है। इस कारण गोपियाँ मुरली से ईर्ष्या भी करती हैं।
4
काननि दै अँगुरी रहिबो जबहीं मुरली धुनि मंद बजैहै।
मोहनी तानन सों रसखानि अटा चढ़ि गोधन गैहै तौ गैहै॥
टेरि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि काल्हि कोऊ कितनो समुझैहै।
माइ री वा मुख की मुसकानि सम्हारी न जैहै, न जैहै, न जैहै॥
शब्दार्थ –
काननि – कानों में
दै – देकर।
अँगुरी – उँगली
रहिबो–रहूँगी
धुनि – धुन
मंद – मधुर स्वर में
बजैहै – बजाएँगे
मोहनी – मोहनेवाली
तानन सों – तानों / धुनों से
अटा – अट्टालिका, ऊँचे भवन
गोधन – गायों का समूह, गाय के रूप में होने वाली संपत्ति
गैहै – गाते हैं
टेरि – पुकारकर बुलाना
सिगरे – सारे
काल्हि – कल
समुझैहै – समझाएँगे
माइ री –हे माई / माँ
वा – उस
सम्हारी – सँभाली
न जैहै – नहीं जाएगी
व्याख्या – उपरोक्त पक्तियों में श्री कृष्ण की मुरली की धुन और उनकी मनमोहक मुस्कान के प्रभाव का वर्णन किया गया है। गोपियाँ कहती हैं कि जब श्री कृष्ण मुरली की मधुर धुन बजाएँगे तब वे अपने कानों में उँगली डाल लेगी जिससे उन्हें मुरली का स्वर न सुनाई दें। श्री कृष्ण ऊँचे – ऊँचे भवनों पर चढ़कर गायों के समूह को भी आनंद देने वाली मुरली की धुन गाते हैं तो गाएँ। गोपियाँ उस पर ध्यान नहीं देंगी। गोपियाँ सारे ब्रज के लोगों को पुकार कर कहती है कि कल को कोई उन्हें कितना भी समझाए लेकिन हे माई! कृष्ण के मुख की मुस्कान इतनी मनमोहक है कि उनसे वह सँभाले नहीं संभलती। कहने का अभिप्राय यह है कि गोपियाँ श्री कृष्ण की मुरली की धुन और उनकी मनमोहक मुस्कान, इन दोनों के प्रभाव से बचने का प्रयास करती हैं परंतु वह कृष्ण के मुख की मुस्कान के आगे विवश हो जाती हैं। इससे पता चलता है कि वे श्री कृष्ण से कितना प्रेम करती हैं।
Conclusion
इस पाठ में रसखान जी ने पहले और दूसरे सवैये में कृष्ण और कृष्ण-भूमि के प्रति कवि का अनन्य समर्पण- भाव व्यक्त हुआ है। तीसरे छंद में कृष्ण के रूप-सौंदर्य के प्रति गोपियों की उस सुंदरता का चित्रण है जिसमें वे स्वयं कृष्ण का रूप धारण कर लेना चाहती हैं। चौथे छंद में कृष्ण की मुरली की धुन और उनकी मुसकान के ऐसे प्रभाव का वर्णन है जिससे कोई भी नहीं बच सकता तथा साथ ही साथ गोपियों की विवशता का वर्णन है। इस लेख में पाठ सार, व्याख्या, शब्दार्थ, पाठ पर आधारित प्रश्नोत्तर व् अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर, बहुविकल्पात्मक प्रश्न व् पठित काव्यांश दिए गए हैं। यह लेख विद्यार्थियों को पाठ को अच्छे से समझने में सहायक है। विद्यार्थी अपनी परीक्षा के लिए इस लेख की सहायता ले सकते हैं।
It is okay but It isn’t enough