प्रेमचंद के फटे जूते पाठ सार
CBSE Class 9 Hindi Chapter 5 “Premchand Ke Phate Joote”, Line by Line Explanation along with Difficult Word Meanings from Kshitij Bhag 1 Book
प्रेमचंद के फटे जूते सार – Here is the CBSE Class 9 Hindi Kshitij Bhag 1 Chapter 5 Premchand Ke Phate Joote Summary with detailed explanation of the lesson ‘Premchand Ke Phate Joote’ along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with summary
इस पोस्ट में हम आपके लिए सीबीएसई कक्षा 9 हिंदी कोर्स ए क्षितिज भाग 1 के पाठ 5 प्रेमचंद के फटे जूते पाठ सार , पाठ व्याख्या और कठिन शब्दों के अर्थ लेकर आए हैं जो परीक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। हमने यहां प्रारंभ से अंत तक पाठ की संपूर्ण व्याख्याएं प्रदान की हैं क्योंकि इससे आप इस कहानी के बारे में अच्छी तरह से समझ सकें। चलिए विस्तार से सीबीएसई कक्षा 9 प्रेमचंद के फटे जूते पाठ के बारे में जानते हैं।
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‘प्रेमचंद के फटे जूते’ शीर्षक निबंध में परसाई जी ने प्रेमचंद के व्यक्तित्व की सादगी का वर्णन किया है। इसके साथ ही लेखक ने वर्णन किया है कि एक रचनाकार समाज के अच्छे-बुरे के बारे में किस तरह की दृष्टि रखता है। लेखक ने वर्तमान के दिखावे के स्वभाव और मौके का फायदा उठाने के स्वभाव पर व्यंग्य (कटाक्ष) किया है।
प्रेमचंद के फटे जूते पाठ सार (Premchand Ke Phate Joote Summary)
प्रस्तुत निबंध में परसाई जी ने प्रेमचंद के व्यक्तित्व की सादगी के साथ ही एक रचनाकार के समाज के प्रति दृष्टिकोण को दर्शाया है। लेखक ने वर्तमान के दिखावे के स्वभाव और मौके का फायदा उठाने के स्वभाव पर व्यंग्य (कटाक्ष) किया है। लेखक प्रेमचंद जी के बारे में बताते हैं कि प्रेमचंद जी किस तरह अपनी पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे थे। उन्होंने सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी और धोती-कुरता पहना था। उनके कान और आँख के बीच का स्थान चिपका हुआ था, गालों की हड्डियाँ निकल आई थी परन्तु उनकी घनी मूछों के कारण उनका चेहरा भरा-भरा लग रहा था। उन्होंने पाँव में केनवस के जूते पहने थे, जिनके फीते अव्यवस्थित तरीके से बँधे थे। उनके बाएँ पाँव के जूते में एक बड़ा छेद हो गया था, जिसमें से उनकी अँगुली बाहर निकल आई थी। प्रेमचंद के बारे में लेखक को लगा कि प्रेमचंद जी के पास कोई अलग-अलग कपड़े नहीं होंगे, क्योंकि उन्हें देखकर लग रहा था कि उनमें कपड़े बदलने का गुण होगा ही नहीं है। वे जैसे थे, वैसे ही फोटो खिंचवाने आ गए होंगे। लेखक प्रेमचंद जी के बारे में सोच रहे थे कि उन्हें थोड़ा सा भी अहसास, शर्म, झिझक या शर्मिंदगी नहीं है? उनके चेहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास था। फोटोग्राफर के ‘रेडी-प्लीज़’, कहने पर मानो प्रेमचंद जी ने मुसकान लाने की कोशिश की होगी, और अपने दर्द में डूबे जीवन रूपी गहरे कुएँ के तल में कहीं पड़ी मुसकान चेहरे पर लाने से पहले ही ‘क्लिक’ करके फोटोग्राफर ने ‘थैंक यू’ कह दिया होगा। जिससे प्रेमचंद जी पूरी तरह मुस्कुरा भी नहीं पाए होंगे। प्रेमचंद जी की उस अधूरी मुस्कान को देखकर लगता है जैसे वे किसी का मज़ाक उड़ाते हुए मुस्कुरा रहे हों। लेखक प्रेमचंद जी के व्यवहार को देख कर अचंभित थे क्योंकि वे खुद तो फटे हुए जूते पहनकर फोटो खिंचा रहे थे, परन्तु वे किसी पर हँस भी रहे थे।
लेखक सोच रहे थे कि यदि उन्हें फोटो ही खिंचाना था, तो अच्छे जूते पहन लेते, या वे फोटो ही न खिंचाते। फिर इस प्रश्न का उत्तर भी वे खुद ही दे देते हैं कि शायद उनकी पत्नी ने उनसे बार-बार निवेदन किया हो और वे जैसे थे वैसे ही उठ कर फोटो खिंचाने आ गए होंगे। लेखक को लगता है कि प्रेमचंद जी फोटो का महत्व नहीं समझते क्योंकि अगर वे फोटो का महत्व समझते, तो वे फटे जूते न पहनते और किसी से फोटो खिंचाने के लिए जूते माँग लेते। लेखक कहते हैं कि टोपी आठ आने में मिल जाती थी और जूते उस ज़माने में भी पाँच रुपये से कम में नहीं आते होंगे। क्योंकि जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है। लेखक बताना चाहते हैं कि जूते का स्थान पाँव में तथा टोपी का स्थान सिर पर है, पर समाज में इसका विपरीत अर्थ लिया जाता है। समाज में जिनके पास रुपया पैसा है उनका महत्त्व अधिक है। धनवान व्यक्ति के सामने पचीसों ज्ञानवान और गुणी लोग कम आंके जाते हैं। लेखक प्रेमचंद जी से कहना चाहते थे कि वे महान कथाकार, उपन्यास-सम्राट, युग-प्रवर्तक, न जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फोटो में उनका जूता फटा हुआ था।
लेखक अपने जूते अर्थात जीवन की बात करते हुए कहते हैं कि उनका जूता यानि जीवन भी कोई अच्छा नहीं है। परन्तु वह ऊपर से अच्छा दिखता है। उससे उनकी अँगुली बाहर नहीं निकलती, परन्तु उनके अँगूठे के नीचे का तला फट गया है। अर्थात उनके जीवन में चाहे जितना भी संघर्ष हो वे समझौते करते हुए और दिखावा करते हुए आगे बढ़ेंगे चाहे फिर उनका जीवन बिना लक्ष्य के ही बर्बाद होता रहे। प्रेमचंद जी परदे अर्थात दिखावे का महत्त्व ही नहीं जानते, और दुनिया के लोग दिखावे पर ही जीवन जी रहे हैं।
लेखक प्रेमचंद की व्यंग्य-मुसकान को समझ नहीं पा रहे हैं। लेखक प्रेमचंद के कठिनाई से भरे जीवन में भी मुस्कुराने की वजह से परेशान हो रहे हैं। उन्हें प्रेमचंद की कुछ महत्वपूर्ण रचनाएँ याद आ जाती हैं और वे उन्हीं रचनाओं के पात्रों के साथ प्रेमचंद की मुस्कान की तुलना करने लगते हैं। लेखक का मानना है कि प्रेमचंद ने जनता को इतनी अच्छी साहित्यिक रचनाएँ दी हैं । इसके बावजूद उनका जीवन इतना कष्टप्रद कैसे हो सकता है। लेखक को लगता है कि प्रेमचंद बनिये से उधारी करके अपना जीवन यापन कर रहे होंगे और कहीं बनिया बार-बार उनसे उधारी न माँग ले इस वजह से वे ज्यादा लंम्बे रास्तों का इस्तेमाल करते होंगे जिस कारण उनका जूता फट गया होगा। परन्तु फिर लेखक कहता है कि चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं है, बल्कि घिस जाता है। इसके लिए लेखक कुंभनदास का उदाहरण देते हैं। लेखक को लगता है कि प्रेमचंद सदियों से चली आ रही पुरानी परम्पराओं को समाप्त करने के लिए समाज से लड़ रहे है। जिनकी वर्तमान में अब कोई आवश्यकता नहीं है। जिसके कारण उन्हें जीवन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।
अब लेखक प्रेमचंद से कहते हैं कि वे इन पुरानी परम्पराओं पर ध्यान न देकर उनसे समझौता भी तो कर सकते थे। अर्थात उन्हें कोई आवश्यकता नहीं थी कि वे समाज में बदलाव करने की सोचें। सब कुछ जैसे चल रहा है वैसे ही रहने देते और अपना जीवन सुख पूर्वक बिताते। परन्तु प्रेमचंद समझौता नहीं कर सके। लेखक को प्रेमचन्द के पाँव की वह अँगुली जो फटे जूते से बाहर है, वह किसी को संकेत करती हुई सी प्रतीत होती है। उन्हें लगता है, कि प्रेमचंद को जो बातें निंदित लगती हैं, उसकी तरफ़ हाथ की नहीं, बल्कि पाँव की अँगुली से इशारा करते हैं। अब लेखक को समझ आ गया है कि जो रूढ़िवादी परम्पराओं और समाज की कठिनाइयों को अनदेखा कर बस अपने जीवन को सुखपूर्वक बिताने में लगे हुए हैं, प्रेमचंद उन सभी पर हँस रहे हैं। वे लोग जो समाज में फैली अराजकताओं को अनदेखा कर उसके बाजू से निकल रहे हैं, प्रेमचंद उन सभी पर हँस रहे हैं। मानो प्रेमचंद कह रहे हो कि उन्होंने तो सामाजिक कुरीतियों के प्रति आवाज़ उठाई है, वे जीवन में किसी भी प्रकार के दिखावे से दूर रहे हैं और सादगी के साथ जीवन में संघर्ष किया है। जिस कारण भले ही उनके फटे जूते से उनकी उँगली बाहर निकल आई हो परन्तु उनका पैर सुरक्षित है जिसके कारण वे जीवन में और आगे बड़ सकते हैं किन्तु प्रेमचन्द को हम लोगों की चिंता हैं क्योंकि हम लोग दिखावे की वजह से कठिनाइयों को अनदेखा करते हुए जीवन में संघर्ष के स्थान पर समझौते करते हुए लक्ष्य से भटक रहे हैं। यही कारण है कि लेखक अब प्रेमचन्द को समझते हैं, उनके फटे जूते की बात समझते हैं, उनकी अँगुली का इशारा समझते हैं और उनकी व्यंग्य-मुस्कान को भी समझते हैं कि प्रेमचन्द हमें एक तरह से आगाह कर रहे हैं कि हमें जीवन के संघर्षों से न भाग कर उनका सामना करना चाहिए।
प्रेमचंद के फटे जूते पाठ व्याख्या Premchand Ke Phate Joote Lesson Explanation)
पाठ – प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है; गालों की हड्डियाँ उभर आई हैं, पर घनी मुँछें चेहरे को भरा-भरा बतलाती हैं।
पाँवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बँधे हैं। लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर की लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है। तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं।
शब्दार्थ –
कनपटी – कान और आँख के बीच का स्थान
उभरना – प्रकट होना, निकलना
बंद – फीता
बेतरतीब – अव्यवस्थित
व्याख्या – लेखक प्रेमचंद जी के बारे में बताते हुए कहते हैं कि प्रेमचंद जी का एक चित्र अथवा दृश्य उन्हें याद है जब वे अपनी पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे थे। उन्होंने सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी पहनी थी, और उन्होंने धोती-कुरता पहना था। कमजोरी के कारण लग रहा था जैसे उनके कान और आँख के बीच का स्थान चिपका हुआ हो, गालों की हड्डियाँ निकला आई हो, परन्तु उनकी घनी मूछों के कारण उनका चेहरा भरा-भरा लग रहा था। उन्होंने पाँव में केनवस के जूते पहने थे, जिनके फीते अव्यवस्थित तरीके से बँधे थे। लापरवाही से उपयोग करने पर फीते के सिरों पर की लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में फीते डालने में परेशानी होती है। तब फीते कैसे भी कस लिए जाते हैं।
पाठ – दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अँगुली बाहर निकल आई है।
मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है। सोचता हूँ-फोटो खिंचाने की अगर यह पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी-इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है।
मैं चेहरे की तरफ़ देखता हूँ क्या तुम्हें मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अँगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हें इसका ज़रा भी अहसास नहीं है? ज़रा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अँगुली ढक सकती है? मगर फिर भी तुम्हारे चेहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है! फोटोग्राफर ने जब ‘रेडी-प्लीज़’ कहा होगा, तब परंपरा के अनुसार तुमने मुसकान लाने की कोशिश की होगी, दर्द के गहरे कुएँ के तल में कहीं पड़ी मुसकान को धीरे-धीरे खींचकर ऊपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही ‘क्लिक’ करके फोटोग्राफर ने ‘ थैंक यू’ कह दिया होगा। विचित्र है यह अधूरी मुसकान। यह मुसकान नहीं, इसमें उपहास है, व्यंग्य है!
शब्दार्थ –
पोशाक– कपड़े
साहित्यिक – साहित्य शास्त्र के विद्वान्उ
पुरखे – पूर्वज
लज्जा – शर्म
विचित्र – अनोखी
उपहास – खिल्ली उड़ाना, मज़ाक उड़ाने वाली हँसी
व्याख्या – आगे लेखक बताते हैं कि प्रेमचंद जी के दाहिने पाँव का जूता तो ठीक था, परन्तु बाएँ पाँव के जूते में एक बड़ा छेद हो गया था, जिसमें से उनकी अँगुली बाहर निकल आई थी। लेखक ने जब यह देखा तो उनकी नज़र उस फटे जूते पर अटक गई। उस फटे जुटे को देखते हुए लेखक सोचने लगे कि अगर प्रेमचंद जी ने फोटो खिंचाने की लिए इस तरह के कपड़े पहने हैं, तो रोज़मर्रा के कपड़े कैसे होते होंगें? फिर प्रेमचंद के बारे में सोचते हुए लेखक मन ही मन कहने लगे कि इस आदमी अर्थात प्रेमचंद जी के कोई अलग-अलग कपड़े नहीं होंगे, क्योंकि उन्हें देखकर लग रहा था कि उनमें कपड़े बदलने का गुण होगा ही नहीं है। यह जैसा है, वैसे ही फोटो खिंचवाने आ गए होंगे। लेखक प्रेमचंद जी के चेहरे की तरफ़ देखते हैं और अपने साहित्य शास्त्र के विद्वान् पूर्वज (अर्थात प्रेमचंद) से कहना चाहते थे कि क्या उन्हें मालूम है कि उनका जूता फट गया है और उनकी अँगुली बाहर दिख रही है? क्या उन्हें इसका थोड़ा सा भी अहसास, शर्म, झिझक या शर्मिंदगी नहीं है? क्या वे इतना भी नहीं जानते कि अगर वे धोती को थोड़ा नीचे खींच लेगें तो उनके पाँव की अँगुली ढक सकती है? परन्तु इन सब के बावजूद भी उनके चेहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास था। लेखक प्रेमचंद जी के फोटो को देखकर कहते हैं कि जब फोटोग्राफर ने कहा होगा ‘रेडी-प्लीज़’, तब परंपरा के अनुसार प्रेमचंद जी ने मुसकान लाने की कोशिश की होगी, और अपने दर्द में डूबे जीवन रूपी गहरे कुएँ के तल में कहीं पड़ी मुसकान को जैसे ही धीरे-धीरे खींचकर ऊपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही ‘क्लिक’ करके फोटोग्राफर ने ‘ थैंक यू’ कह दिया होगा। जिससे प्रेमचंद जी पूरी तरह मुस्कुरा भी नहीं पाए होंगे। उनकी अधूरी मुस्कान को देखकर लेखक कहते हैं कि उनकी यह अधूरी मुसकान अनोखी है क्योंकि यह मुसकान नहीं, बल्कि किसी का मज़ाक उड़ाने वाली हँसी लग रही है। कहने का आशय यह है कि प्रेमचंद जी की उस अधूरी मुस्कान को देखकर लगता है जैसे वे किसी का मज़ाक उड़ाते हुए मुस्कुरा रहे हों।
पाठ – यह कैसा आदमी है, जो खुद तो फटे जूते पहने फोटो खिंचा रहा है, पर किसी पर हँस भी रहा है!
फोटो ही खिंचाना था, तो ठीक जूते पहन लेते, या न खिंचाते। फोटो न खिंचाने से क्या बिगड़ता था । शायद पत्नी का आग्रह रहा हो और तुम, ‘अच्छा, चल भई’ कहकर बैठ गए होंगे। मगर यह कितनी बड़ी ‘ट्रेजडी’ है कि आदमी के पास फोटो खिंचाने को भी जूता न हो। मैं तुम्हारी यह फोटो देखते-देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पड़ना चाहता हूँ, मगर तुम्हारी आँखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है।
शब्दार्थ –
आग्रह – पुनः पुनः निवेदन करना
ट्रेजडी – दुखद घटना, दुर्भाग्यपूर्ण घटना
क्लेश – दुख
व्यंग्य – कटाक्ष, ताना
व्याख्या – लेखक प्रेमचंद जी के व्यवहार को देख कर अचंभित थे क्योंकि वे खुद तो फटे हुए जूते पहनकर फोटो खिंचा रहे थे, परन्तु वे किसी पर हँस भी रहे थे।
लेखक उन्हें देखकर सोच रहे थे कि यदि उन्हें फोटो ही खिंचाना था, तो अच्छे जूते पहन लेते, या वे फोटो ही न खिंचाते। यदि वे फोटो न खिंचाते तो भी क्या बिगड़ता। फिर इस प्रश्न का उत्तर भी वे खुद ही दे देते हैं कि शायद उनकी पत्नी ने उनसे बार-बार निवेदन किया हो और वे जैसे थे वैसे ही उठ कर फोटो खिंचाने आ गए होंगे। परन्तु लेखक को यह बड़ी दुखद घटना लगती है कि किसी आदमी के पास फोटो खिंचाने के लिए भी अच्छा जूता नहीं है। लेखक प्रेमचंद जी की यह फोटो देखते-देखते, उनके अंदर के दुःख को अपने भीतर महसूस करके जैसे रोना चाहते थे, मगर प्रेमचंद जी की आँखों का यह तीखा दर्द भरा कटाक्ष जैसे लेखक को एकदम प्रेमचंद जी के दुःख को महसूस करने से रोक देता है।
पाठ – तुम फोटो का महत्व नहीं समझते। समझते होते, तो किसी से फोटो खिंचाने के लिए जूते माँग लेते। लोग तो माँगे के कोट से वर-दिखाई करते हैं। और माँगे की मोटर से बारात निकालते हैं। फोटो खिंचाने के लिए तो बीवी तक माँग ली जाती है, तुमसे जूते ही माँगते नहीं बने! तुम फोटो के महत्व नहीं जानते। लोग तो इत्र (सुगन्धित स्प्रे) चुपड़कर फोटो खिंचाते हैं जिससे फोटो में खुशबू आ जाए! गंदे-से-गंदे आदमी की फोटो भी खुशबू देती है!
व्याख्या – लेखक को लगता है कि प्रेमचंद जी फोटो का महत्व नहीं समझते क्योंकि अगर वे फोटो का महत्व समझते, तो वे फटे जूते न पहनते और किसी से फोटो खिंचाने के लिए जूते माँग लेते। उदाहरण देते हुए लेखक कहते हैं कि लोग तो कोट माँगे कर दूल्हा बन जाते हैं। और मोटर माँग कर बारात निकाल लेते हैं। यहाँ तक की फोटो खिंचाने के लिए तो बीवी तक माँग कर ले आते है, और प्रेमचंद जी से जूते भी नहीं माँगे गए। इसी को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि प्रेमचंद जी को फोटो के महत्व का पता नहीं है। लेखक आगे और भी उदाहरण देते हैं जैसे – लोग तो इत्र लगाकर फोटो खिंचाते हैं, उनके अनुसार इससे फोटो में खुशबू आ जाती है। गंदे-से-गंदे आदमी की फोटो भी खुशबू देती है अर्थात गंदे से गन्दा आदमी भी फोटो खिंचवाने के लिए अच्छी तरह तैयार हो कर आता है।
पाठ – टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस ज़माने में भी पाँच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे। जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है। अब तो जूते की कीमत और बढ़ गई है और एक जूते पर पच्चीस-पच्चीस टोपियाँ न्योछावर होती हैं। तुम भी जूते और टोपी के आनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे। यह विडंबना मुझे इतनी तीव्रता से पहले कभी नहीं चुभी, जितनी आज चुभ रही है, जब मैं तुम्हारा फटा जूता देख रहा हूँ। तुम महान कथाकार, उपन्यास-सम्राट, युग-प्रवर्तक, जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फोटो में भी तुम्हारा जूता फटा हुआ है!
मेरा जूता भी कोई अच्छा नहीं है। यों ऊपर से अच्छा दिखता है। अँगुली बाहर नहीं निकलती, पर अँगूठे के नीचे तला फट गया है। अँगूठा ज़मीन से घिसता है और पैनी मिट्टी पर कभी रगड़ खाकर लहूलुहान भी हो जाता है। पूरा तला गिर जाएगा, पूरा पंजा छिल जाएगा, मगर अँगुली बाहर नहीं दिखेगी। तुम्हारी अँगुली दिखती है, पर पांव सुरक्षित है। मेरी अँगुली ढँकी है, पर पंजा नीचे घिस रहा है। तुम परदे का महत्त्व ही नहीं जानते, हम परदे पर कुर्बान हो रहे हैं!
तुम फटा जूता बड़े ठाठ से पहने हो! मैं ऐसे नहीं पहन सकता। फोटो तो ज़िंदगी भर इस तरह नहीं खिंचाऊँ, चाहे कोई जीवनी बिना फोटो के ही छाप दे।
शब्दार्थ –
आनुपातिक – अनुपात के विचार या दृष्टि से होने वाला, जो अनुपात की दृष्टि से ठीक या उचित हो
विडंबना – अपेक्षित और घटित के बीच होने वाली असंगति
पैनी – तेज़, तीखी
ठाठ – वैभव, शोभा, सजावट, शान
व्याख्या – लेखक कहते हैं कि टोपी आठ आने में मिल जाती थी और जूते उस ज़माने में भी पाँच रुपये से कम में नहीं आते होंगे। क्योंकि जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है। अब तो जूते की कीमत और भी बढ़ गई है और एक जूते पर पच्चीस-पच्चीस टोपियाँ न्योछावर होती हैं। (यहाँ लेखक बताना चाहते हैं कि जूते का महत्त्व पाँव में तथा टोपी का महत्त्व सिर पर है, पर समाज में इसका विपरीत अर्थ लिया जाता है। समाज में जिनके पास रुपया पैसा है उनका महत्त्व अधिक है। ज्ञानवान और गुणी लोगों को अमीरों के सामने कई बार झुकना पड़ता है। तभी लेखक ने कहा है कि एक जूते पर पच्चीस-पच्चीस टोपिया न्योछावर होती हैं अर्थात धनवान व्यक्ति के सामने पच्चीस-पच्चीस ज्ञानवान और गुणी लोग कम आंके जाते हैं) लेखक को लगता है कि प्रेमचंद जी भी जूते और टोपी के सही मूल्य न मिलने के कारण उनसे वंचित थे। यह सब कुछ लेखक को इससे पहले कभी इतना बुरा नहीं लगा, जितना आज लग रहा था, जब लेखक प्रेमचंद जी का फटा जूता देख रहा था। लेखक प्रेमचंद जी से कहना चाहते थे कि वे महान कथाकार, उपन्यास-सम्राट, युग-प्रवर्तक, न जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फोटो में उनका जूता फटा हुआ था।
लेखक अपने जूते अर्थात जीवन की बात करते हुए कहते हैं कि उनका जूता यानि जीवन भी कोई अच्छा नहीं है। परन्तु वह ऊपर से अच्छा दिखता है। उससे उनकी अँगुली बाहर नहीं निकलती, परन्तु उनके अँगूठे के नीचे का तला फट गया है। उनका अँगूठा ज़मीन से घिसता है और तीखी मिट्टी पर कभी रगड़ खाकर लहूलुहान भी हो जाता है। उनके जूते का पूरा तला गिर जाएगा, उनका पूरा पंजा छिल जाएगा, मगर जूते से उनकी अँगुली बाहर नहीं दिखेगी। अर्थात उनके जीवन में चाहे जितना भी संघर्ष हो वे समझौते करते हुए और दिखावा करते हुए आगे बढ़ेंगे चाहे फिर उनका जीवन बिना लक्ष्य के ही बर्बाद होता रहे। प्रेमचंद जी की अँगुली दिखती है, पर उनका पांव सुरक्षित है। लेखक की अँगुली ढँकी हुई है, पर पंजा नीचे से घिस रहा है। प्रेमचंद जी परदे अर्थात दिखावे का महत्त्व ही नहीं जानते, और दुनिया के लोग दिखावे पर ही जीवन जी रहे हैं। प्रेमचंद जी ने फटा जूता भी बड़े शान से पहना है, परन्तु लेखक ऐसे नहीं पहन सकता। फोटो तो लेखक इस तरह ज़िंदगी भर नहीं खिंचावा सकता, चाहे कोई उनकी जीवनी उनके फोटो के बिना ही छाप दे।
पाठ – तुम्हारी यह व्यंग्य-मुसकान मेरे हौसले पस्त कर देती है। क्या मतलब है इसका? कौन सी मुसकान है यह?
-क्या होरी का गोदान हो गया?
-क्या पूस की रात में नीलगाय हलकू का खेत चर गई?
-क्या सुजान भगत का लड़का मर गया; क्योंकि डॉक्टर क्लब छोड़कर नहीं आ सकते?
नहीं, मुझे लगता है माधो औरत के कफ़न के चंदे की शराब पी गया। वही मुसकान मालूम होती है।
मैं तुम्हारा जूता फिर देखता हूँ। कैसे फट गया यह, मेरी जनता के लेखक?
क्या बहुत चक्कर काटते रहे?
क्या बनिये के तगादे से बचने के लिए मील-दो मील का चक्कर लगाकर घर लौटते रहे?
चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं है, घिस जाता है। कुंभनदास का जूता भी फतेहपुर जाने-आने में घिस गया था।
उसे बड़ा पछतावा हुआ । उसने कहा- ‘आवत जात पन्हैया घिस गई, बिसर गयो हरि नाम।’
शब्दार्थ –
हौसला – साहस, धैर्य
पस्त होना – जो हार गया हो
तगादा – किसी कार्य के लिए बार-बार कहना, तकाज़ा, अनुरोध, आग्रह
कुम्भनदास – कुम्भनदास परम भगवद्भक्त, आदर्श गृहस्थ और महान विरक्त थे
पन्हैया – देशी जूतियाँ
बिसरना – भूल जाना
व्याख्या – लेखक प्रेमचंद की व्यंग्य-मुसकान को समझ नहीं पा रहे हैं। लेखक के अनुसार प्रेमचंद की व्यंग्य-मुसकान लेखक के साहस को हरा देने वाली प्रतीत हो रही है। उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है कि यह मुसकान कैसी है (यहाँ लेखक प्रेमचंद के कठिनाई से भरे जीवन में भी मुस्कुराने की वजह से परेशान हो रहे हैं।) उन्हें प्रेमचंद की कुछ महत्वपूर्ण रचनाएँ याद आ जाती हैं और वे उन्हीं रचनाओं के पात्रों के साथ प्रेमचंद की मुस्कान की तुलना करने लगते हैं। जैसे – वे कहते हैं कि गोदान होरी का हो गया, या पूस की रात में नीलगाय हलकू का खेत चर गई या सुजान भगत का लड़का मर गया, क्योंकि डॉक्टर क्लब छोड़कर नहीं आ सकते, क्या ये कारण हो सकते हैं कि प्रेमचंद मुस्कुरा रहे हैं। लेकिन लेखक को लगता है की इस मुस्कान के पीछे ये कारण हो सकता है कि माधो, औरत के कफ़न के चंदे की शराब पी गया। यह सब सोचते हुए फिर लेखक का ध्यान प्रेमचंद के जूते पर जाता है कि जनता के लेखक प्रेमचंद का जूता वह कैसे फट गया? (यहाँ लेखक का मानना है कि प्रेमचंद ने जनता को इतनी अच्छी साहित्यिक रचनाएँ दी हैं इसके बावजूद उनका जीवन इतना कष्टप्रद कैसे हो सकता है। ) उन्हें लगता है कि प्रेमचंद शायद ज्याद ही चक्कर काटते रहे हैं या फिर बनिये के आग्रह से बचने के लिए मील-दो मील का चक्कर लगाकर घर लौटते रहे होंगे। कहने का अभिप्राय यह है कि लेखक को लगता है कि प्रेमचंद बनिये से उधारी करके अपना जीवन यापन कर रहे होंगे और कहीं बनिया बार-बार उनसे उधारी न माँग ले इस वजह से वे ज्यादा लंम्बे रास्तों का इस्तेमाल करते होंगे जिस कारण उनका जूता फट गया होगा। परन्तु फिर लेखक कहता है कि चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं है, बल्कि घिस जाता है। कुंभनदास का जूता भी फतेहपुर जाने-आने में घिस गया था। क्योंकि एक बार अकबर बादशाह के बुलाने पर इन्हें फतेहपुर सीकरी जाना पड़ा। जहाँ इन्हें सम्मानित किया गया। किन्तु आने-जाने में इनके जूते घिस गये और हरि नाम का स्मरण करना भूल गये। जिसके कारण उन्हें बड़ा पछतावा हुआ। तब उन्होंने कहा था – ‘आवत जात पन्हैया घिस गई, बिसर गयो हरि नाम।’
पाठ – और ऐसे बुलाकर देने वालों के लिए कहा था- ‘जिनके देखे दुख उपजत है, तिनको करबो परै सलाम!’
चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं। तुम्हारा जूता कैसे फट गया?
मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज़ को ठोकर मारते रहे हो। कोई चीज़ जो परत-पर-परत सदियों से जम गई है, उसे शायद तुमने ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया। कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आज़माया।
तुम उसे बचाकर, उसके बगल से भी तो निकल सकते थे। टीलों से समझौता भी तो हो जाता है। सभी नदियाँ पहाड़ थोड़े ही फोड़ती हैं, कोई रास्ता बदलकर, घूमकर भी तो चली जाती है।
तुम समझौता कर नहीं सके। क्या तुम्हारी भी वही कमज़ोरी थी, जो होरी को ले डूबी , वही ‘नेम-धरम’ वाली कमज़ोरी? ‘नेम-धरम’ उसकी भी ज़ंजीर थी। मगर तुम जिस तरह मुसकरा रहे हो, उससे लगता है कि शायद ‘नेम-धरम’ तुम्हारा बंधन नहीं था, तुम्हारी मुक्ति थी!
शब्दार्थ –
होरी – होरी गोदान उपन्यास का नायक है। इसमें आदि से अंत तक होरी की दयनीय और संघर्षपूर्ण गाथा कही गई है। वह भारतीय कृषक वर्ग का प्रतिनिधि है।
नेम – नियम
धरम – कर्तव्य
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि कुम्भनदास को हरि स्मरण का समय ही नहीं मिला। और ऐसे बुलाकर उन्हें जो सम्मान दिया उसके लिए उन्होंने कहा था कि जिन्हें देखने मात्र से पीड़ा होती है उनको भी झुककर सलाम करना पड़ा। इसी उदाहरण को देते हुए लेखक फिर प्रेमचंद से कहते हैं कि चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं। तो फिर प्रेमचंद का जूता कैसे फट गया होगा? अब लेखक को लगता है कि प्रेमचंद किसी सख्त चीज़ को, जो सदियों से परत-पर-परत जम गई हो उसको ठोकर मारते रहे होंगे। जिसके कारण उन्होंने अपना जूता फाड़ लिया। (यहाँ ‘सख्त और सदियों से परत-पर-परत जम गई चीज़’ से लेखक का अभिप्राय सदियों से चली आ रही पुरानी परम्पराओं से है जिनकी अब कोई आवश्यकता नहीं है और प्रेमचंद उन्हीं को समाप्त करने के लिए समाज से लड़ रहे है। जिसके कारण उन्हें जीवन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।) लेखक का मानना है कि कोई ऐसी चीज़ जो प्रेमचंद को सही नहीं लगी उसी का हल निकालने के लिए प्रेमचंद ने अपना जूता आज़माया। अर्थात अपना बल लगाया।
अब लेखक प्रेमचंद से कहते हैं कि वे इन पुरानी परम्पराओं पर ध्यान न देकर उनसे समझौता भी तो कर सकते थे। अर्थात उन्हें कोई आवश्यकता नहीं थी कि वे समाज में बदलाव करने की सोचें। उदाहरण देते हुए लेखक कहते हैं कि सभी नदियाँ पहाड़ नहीं फोड़ती, कोई रास्ता बदलकर, घूमकर भी तो चली जाती है। अर्थात प्रेमचंद को भी ऐसा ही करना चाहिए था कि सब कुछ जैसे चल रहा है वैसे ही रहने देते और अपना जीवन सुख पूर्वक बिताते।
लेखक पूछता है कि क्या प्रेमचंद परिस्थितियों से समझौता नहीं कर सके। क्या उनकी भी वही कमज़ोरी थी, जो गोदान के नायक होरी की थी। जिसने उसके जीवन को भी कष्टप्रद कर दिया था। होरी की कमज़ोरी भी ‘नियम और कर्तव्य’ थी परन्तु उसके ”नियम और कर्तव्य’ भी एक सीमा तक सिमित थे। मगर जिस तरह प्रेमचंद मुसकरा रहे हैं, उससे लगता है कि शायद ‘नियम और कर्तव्य’ उनके बंधन नहीं थे, बल्कि उनकी मुक्ति थे। अर्थात उन्हें किसी से भी कोई मतलब नहीं था वे किसी भी कीमत पर सिर्फ बदलाव लाना चाहते थे।
पाठ – तुम्हारी यह पाँव की अँगुली मुझे संकेत करती-सी लगती है, जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ़ हाथ की नहीं, पाँव की अँगुली से इशारा करते हो?
तुम क्या उसकी तरफ़ इशारा कर रहे हो, जिसे ठोकर मारते-मारते तुमने जूता फाड़ लिया?
मैं समझता हूँ । तुम्हारी अँगुली का इशारा भी समझता हूँ और यह व्यंग्य-मुस्कान भी समझता हूँ ।
तुम मुझ पर या हम सभी पर हँस रहे हो, उन पर जो अँगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं। उन पर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहे हैं। तुम कह रहे हो-मैंने तो ठोकर मार-मारकर जूता फाड़ लिया, अँगुली बाहर निकल आई, पर पाँव बच रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अँगुली को ढाँकने की चिंता में तलुवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे?
मैं समझता हूँ। मैं तुम्हारे फटे जूते की बात समझता हूँ, अँगुली का इशारा समझता हूँ तुम्हारी व्यंग्य-मुस्कान समझता हूँ।
शब्दार्थ –
घृणित – निंदित, तिरस्कृत
बरकाकर – बचाकर
व्याख्या – लेखक कहते हैं कि उन्हें प्रेमचन्द के पाँव की वह अँगुली जो फटे जूते से बाहर है, वह किसी को संकेत करती हुई सी प्रतीत होती है। उन्हें लगता है, जैसे कि जो प्रेमचंद को जिसे वे निंदित समझते हैं, उसकी तरफ़ हाथ की नहीं, बल्कि पाँव की अँगुली से इशारा करते हैं। लेखक को लगता है कि प्रेमचंद उसकी तरफ़ इशारा कर रहे हैं, जिसे ठोकर मारते-मारते उन्होंने अपना जूता फाड़ लिया। अर्थात प्रेमचंद उन रूढ़िवादी परम्पराओं के बारे में इशारा कर रहे हैं जिन्हें समाप्त करने के लिए वे प्रयास कर रहे हैं। लेखक अब प्रेमचंद को भी समझने लगे हैं और उनकी अँगुली के इशारे के साथ-साथ उनकी व्यंग्य-मुस्कान को भी समझ गए है। क्योंकि अब लेखक को समझ आ गया है कि प्रेमचंद लेखक पर और उन सभी पर हँस रहे हैं, जो अपनी अँगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं। अर्थात जो रूढ़िवादी परम्पराओं और समाज की कठिनाइयों को अनदेखा कर बस अपने जीवन को सुखपूर्वक बिताने में लगे हुए हैं, प्रेमचंद उन सभी पर हँस रहे हैं। वे लोग जो समाज में फैली अराजकताओं को अनदेखा कर उसके बाजू से निकल रहे हैं, प्रेमचंद उन सभी पर हँस रहे हैं। मानो प्रेमचंद कह रहे हो कि उन्होंने तो सामाजिक अराजकताओं को ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया, उनकी अँगुली तक बाहर निकल आई, पर उनका पाँव बचा रहा और वे चल पा रहे हैं, मगर हम लोगों ने तो अँगुली को ढाँकने की चिंता में तलुवे का नाश कर दिया है, हम कैसे चल पाएंगें? कहने का अभिप्राय यह है कि प्रेमचंद ने तो सामाजिक कुरीतियों के प्रति आवाज़ उठाई है, वे जीवन में किसी भी प्रकार के दिखावे से दूर रहे हैं और सादगी के साथ जीवन में संघर्ष किया है। जिस कारण भले ही उनके फटे जूते से उनकी उँगली बाहर निकल आई हो परन्तु उनका पैर सुरक्षित है जिसके कारण वे जीवन में और आगे बड़ सकते हैं किन्तु प्रेमचन्द को हम लोगों की चिंता हैं क्योंकि हम लोग दिखावे की वजह से कठिनाइयों को अनदेखा करते हुए जीवन में संघर्ष के स्थान पर समझौते करते हुए लक्ष्य से भटक रहे हैं। यही कारण है कि लेखक अब प्रेमचन्द को समझते हैं, उनके फटे जूते की बात समझते हैं, उनकी अँगुली का इशारा समझते हैं और उनकी व्यंग्य-मुस्कान को भी समझते हैं कि प्रेमचन्द हमें एक तरह से आगाह कर रहे हैं कि हमें जीवन के संघर्षों से न भाग कर उनका सामना करना चाहिए।
Conclusion
इस पाठ में लेखक प्रेमचंद के फटे जूते के आधार पर प्रेमचंद के साधारण व् सादगी भरे जीवन को दिखाना चाहते हैं। इस पाठ में यह बताने का प्रयास किया गया है कि एक लेखक या रचनाकार समाज के अच्छे-बुरे के बारे में किस तरह की दृष्टि रखता है। इस लेख में पाठ सार, व्याख्या, शब्दार्थ, पाठ पर आधारित प्रश्नोत्तर, पठित गद्यांश, अन्य प्रश्न तथा बहुविकल्पात्मक प्रश्न दिए गए हैं। यह लेख विद्यार्थियों को पाठ को अच्छे से समझने में सहायक है। विद्यार्थी अपनी परीक्षा के लिए इस लेख की सहायता ले सकते हैं।
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