Himalaya ki Betiyan Class 7 Hindi Chapter 3 Explanation, Summary and Question Answers

Himalaya ki Betiyan Class 7 Hindi

 

NCERT Class 7 Hindi Vasant Bhag 2 Book Chapter 3 Himalaya ki Betiyan Summary, Explanation with Video and Question Answers

Himalaya ki Betiyan – Class 7 Hindi Vasant Bhag 2 book chapter 3 detailed explanation of lesson ”Himalaya ki Betiyan” along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson, along with Summary and all the exercises, Question and Answers given at the back of the lesson. Take Free Online MCQs Test for Class 7

इस लेख में हम हिंदी कक्षा 7 ” वसंत भाग – 2 ” के पाठ – 3 ” हिमालय की बेटियाँ ” कहानी के पाठ – प्रवेश , पाठ – सार , पाठ – व्याख्या , कठिन – शब्दों के अर्थ और NCERT की पुस्तक के अनुसार प्रश्नों के उत्तर , इन सभी के बारे में चर्चा करेंगे –

कक्षा 7 पाठ 3 हिमालय की बेटियाँ

 

 

लेखक परिचय –
लेखक – नागार्जुन

Himalaya ki Betiyan Class 7 Video Explanation

 
 

हिमालय की बेटियाँ पाठ प्रवेश

प्रकृति की अपनी ही अनूठी सुंदरता होती है। प्रकृति की बेजोड़ सुंदरता का कोई मुकाबला नहीं कर सकता।  न जाने कितने ही कवियों और लेखकों ने प्रकृति की सुंदरता को शब्दों में पिरोने की कोशिश की है परन्तु कोई भी कामयाब नहीं हो पाया है। प्रस्तुत पाठ में भी लेखक ने हिमालय से बहती नदियों का अत्यधिक सूंदर मानवीकरण किया है। कहीं लेखक ने  नदियों को हिमालय की बेटियाँ कह कर सम्बोधित किया है , तो कहीं इनकी चंचलता और कल-कल की ध्वनि की तुलना छोटे बच्चों की शरारतों और खिलखिलाहटों है।
प्रस्तुत पाठ ” हिमालय की बेटियाँ ” में लेखक ” नागार्जुन ” ने गंगा , यमुना और सतलुज नदियों का बहुत ही अद्भुत मानवीयकरण किया है। इस पाठ के जरिए लेखक हमें सन्देश देना चाहता है कि हर किसी का चाहे वह मनुष्य हो या प्रकृति , का रूप हमेशा वैसा ही नहीं होता जैसा हमें दिखाई दे रहा हो। हो सकता है जो हमें भयानक और हानिकारक लग रहा हो वो वास्तव में शांत और लाभदायक हो। इसलिए किसी भी नतीजे पर पहुँचाने से पहले हमें सभी पहलुओं पर गौर कर लेना चाहिए।


 

पाठ सार ( हिमालय की बेटियाँ ) – Himalaya Ki Betiyan Summary

प्रस्तुत पाठ में लेखक ने गंगा , यमुना और सतलुज नदियों का बहुत ही अद्भुत मानवीयकरण किया है। लेखक कहता है कि उसने इन नदियों को केवल दूर से ही देखा था। लेखक आज तक इन नदियों को बहुत ही शांत और किसी को नुक्सान न पहुँचाने वाली सोचता था। लेखक इन नदियों की तुलना किसी सम्मानित महिला से करता था , जो सरल और सब के प्रति हितकारी हो। जिस तरह लेखक अपनी दादी ,  माँ , मौसी और मामी की गोद में खेला करता था , उसी की तरह लेखक इन नदियों की धारा में डुबकियाँ लगाया करता था। परंतु इस बार जब लेखक ने हिमालय पर्वत पर चढ़ाई की तो इन नदियाँ का लेखक के सामने जो रूप था वो कुछ और ही रूप था। लेखक हैरान था क्योंकि लेखक को यह समझ में नहीं आ रहा था कि हिमालय पर जो दुबली – पतली गंगा , यमुना , सतलुज नदियाँ हैं उनका आकार समतल मैदानों में उतरकर इतना विशाल कैसे हो जाती हैं ! क्योंकि लेखक ने हिमालय में इन नदियों को बहुत ही सुंदर व् शांत देखा है और समतल मैदानों में बहुत ही भयंकर रूप में देखा है , इसी कारण लेखक हैरान है। यहाँ लेखक इन नदियों को हिमालय की बेटियाँ कह कर सम्बोधित कर रहा है। क्योंकि ये नदियाँ हिमालय से उत्पन्न होती हैं। लेखक के मन में एक सवाल उठता है कि सभी जानते हैं कि पिता से बाद कर कोई भी बेटियों को प्यार नहीं कर सकता , तो यहाँ भी लेखक यही नहीं समझ पा रहा है कि जब हिमालय इन नदियों को इतना प्यार करता है तो ये नदियाँ किसकी तलाश में भटकती रहती हैं। लेखक हिमालय के परिवेश का वर्णन करता हुआ कहता है कि हिमालय की पहाड़ियाँ बिना बर्फ के नंगी प्रतीत होती है , हिमालय की घाटियाँ छोटे – छोटे पौधों से भरी पड़ी हैं , कही हिमालय की भूमि उतार – चढ़ाव वाली है तो कहीं पहाड़ के ऊपर की भूमि समतल है , कही पर हरी- भरी लहलहाती हुई घाटियाँ हैं। लेखक कहता है कि सिंधु और ब्रह्मपुत्र ऐसी दो महानादियाँ हैं जिनका नाम सुनते ही हिमालय की छोटी – बड़ी सभी बेटियाँ अर्थात नदियाँ आँखों के सामने नाचने लगती हैं। लेखक कहता है कि यदि हिमालय पर बर्फ न होती तो वह पिघल के पानी न बनती और इकठ्ठा हो कर वह इन महान नदियों की जगह न ले पाती। इसीलिए लेखक ने कहा है कि सिंधु और ब्रह्मपुत्र स्वयं में कुछ भी नहीं हैं , सब हिमालय की देन है। लेखक के अनुसार जिन लोगों ने इन नदियों को केवल मैदानों में देखा है उन्होंने इनका केवल उग्र व् भयानक रूप ही देखा है उनके अनुसार ये नदियाँ जहाँ भी जाती होंगी वहाँ केवल उग्र व् भयानक रूप में ही रहती होंगी परन्तु जब लेखक ने  इन नदियों को इनके जन्म स्थल यानि हिमालय पर देखा तो पाया कि वहाँ पर तो इन नदियों का स्वरूप बिलकुल अलग है। वहाँ पर तो ये नदियां ऐसे खेलती हैं जैसे बेटियाँ अपने पिता की गोद में खेलती हैं। लेखक आगे कहता है कि पहाड़ के लोग हमेशा से इन नदियों के इस चंचल और नटखट रूप को देखते आए है इस कारण लेखक को लगता है कि किसी भी पहाड़ी व्यक्ति को इन नदियों का यह रूप उतना सुंदर नहीं लगा होगा जितना लेखक को। तभी तो लेखक ने इन नदियों को हिमालय की बेटियाँ और समुद्र में इन नदियों के मिल जाने के कारण समुद्र को हिमालय का दामाद कह दिया है। लेखक को इन चंचल नदियों को देखकर अचानक याद आया कि शायद महाकवि यानि कालिदास जी को भी नदियों का चेतन रूप पसंद आ गया होगा था। तभी उन्होंने भी इन नदियों का एक प्रेमिका के तौर पर मानवीकरण किया था। लेखक कहता है कि जो भी व्यक्ति इन नदियों को पहाड़ी घाटियों में और समतल आँगनों के मैदानों में देखेगा वह इनकी मैदानों की भयानकता को बिलकुल भूल जाएगा और पहाड़ों में इनकी चंचलता और सुंदरता को देख कर इनकी प्रशंसा करने से अपने आप को रोक नहीं पाएगा। लेखक कहता है कि काका कालेलकर जी ने भी नदियों को सारे संसार की माता कहा है। क्योंकि वह सारे संसार का समान भाव से पोषण करती है। परन्तु लेखक कहता है कि माता बनने से पहले अगर हम इन नदियों को बेटियों के रूप में देख लें तो उसमे क्या नुक़सान है , क्योंकि लेखक के अनुसार माता से पहले बेटी बुलाने में किसी प्रकार की दिक्कत नहीं होनी चाहिए और लेखक यह भी कहता है कि बेटी के बाद आगे  चल कर इन्हीं में अगर हम किसी की प्रेमिका का वर्णन करे या प्रमिका की भावना को इन नदियों में देखें तो भी किसी को कोई हानि नहीं होनी चाहिए। माता के आलावा ममता का एक और भी धागा है , जिसे हम इन नदियों के साथ जोड़ सकते हैं। वह घागा है बहन का। लेखक के अनुसार न जाने कितने कवियों ने इन नदियों को माता , प्रेमिका के आलावा बहन का भी स्थान दिया है। लेखक अपने एक अनुभव को हमें बताते हुए कहता है कि एक दिन लेखक को भी नदी के लिए बहन की भावना उजागर हुई थी। लेखक बताता है कि यह बात थो – लिङ्  , जो तिब्बत में है वहाँ की है। उस दिन लेखक का मन किसी भी काम में नहीं लग रहा था , लेखक की तबीयत भी ठीक नहीं लग रही थी। लेखक सतलुज नदी के किनारे जाकर बैठ गया। उस समय दोपहर का समय था। लेखक ने अपने पैर सतलुज नदी के पानी में लटका दिए। लेखक कहता है कि थोड़ी ही देर में उस लगातार आगे बढ़ने वाले जल ने अपना असर डालना शुरू कर दिया। थोड़ी ही देर में लेखक को लगा कि उसका तन और मन ताज़ा हो गया है। इसी की ख़ुशी में लेखक एक गाना भी गुनगुनाने लगा था – कि सतलुज बहन तुम्हारी जय हो , सतलुज बहन तुम्हारी लीला बहुत अनोखी है क्योंकि तुम सारी पीड़ाओं का नाश करने वाली हो। तुम्हें देख कर मन प्रसन्न हो जाता है और सारा आलस दूर भाग जाता है। तुम पर न्योछावर हो जाने को मन करता है। वह हिमालय तुम्हारा पिता है और तुम उसकी बेटी हो क्योंकि तुम्हारा उद्गम हिमालय से हुआ है। हिमालय तुम्हारे लिए उसी तरह चिंतित है जैसे कोई भी अन्य पिता अपनी बेटी के लिए  होता है परन्तु वह हिमालय चुप – चाप खड़ा है। लेखक प्रकृति को एक अभिनेत्री बताता है और सतलुज नदी को उस अभिनेत्री के वस्त्र पर छापे हुए चित्र के समान बताता है। वह हिमालय अनोखा और सबसे उत्तम है , उसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता और उस बेजोड़ हिमालय से उत्पन्न बहन सतलुज तुम्हारी जय हो।


 

पाठ व्याख्या ( हिमालय की बेटियाँ )

पाठ – अभी तक मैंने उन्हें दूर से देखा था। बड़ी गंभीर , शांत , अपने आप में खोई हुई लगती थीं। संभ्रांत महिला की भाँति वे प्रतीत होती थीं। उनके प्रति मेरे दिल में आदर और श्रद्धा के भाव थे। माँ और दादी , मौसी और मामी की गोद की तरह उनकी धारा में डुबकियाँ लगाया करता। परंतु इस बार जब मैं हिमालय के कंधे पर चढ़ा तो वे कुछ और रूप में सामने थीं। मैं हैरान था कि यही दुबली – पतली गंगा , यही यमुना , यही सतलुज समतल मैदानों में उतरकर विशाल कैसे हो जाती हैं ! इनका उछलना और कूदना , खिलखिलाकर लगातार हँसते जाना , इनकी यह भाव – भंगी , इनका यह उल्लास कहाँ गायब हो जाता है मैदान में जाकर ? किसी लड़की को जब मैं देखता हूँ , किसी कली पर जब मेरा ध्यान अटक जाता है , तब भी इतना कौतूहल और विस्मय नहीं होता , जितना कि इन बेटियों की बाललीला देखकर !

कठिन शब्द
गंभीर – गहरा , ऊँची और भारी
संभ्रांत महिला – प्रतिष्ठित , सम्मानित
भाव – भंगी  –  मन का भाव प्रकट करने वाला अंग – विक्षेप
विस्मय – आश्चर्य
बाललीला – बाल क्रीड़ा , बच्चों का खेल

नोट – इस गद्यांश में लेखक गंगा , यमुना और सतलुज नदियों का मानवीयकरण रूप में अत्यधिक सुंदर वर्णन कर रहा है।

व्याख्या – लेखक गंगा , यमुना और सतलुज नदियों का मानवीयकरण करता हुआ कहता है कि आज तक लेखक ने इन नदियों को केवल दूर से ही देखा था। लेखक को ये नदियाँ बड़ी गहरी , शांत और अपने आप में खोई हुई लगती थीं अर्थात लेखक आज तक इन नदियों को बहुत ही शांत और किसी को नुक्सान न पहुँचाने वाली सोचता था। लेखक इन नदियों की तुलना किसी सम्मानित महिला से करता था , जो सरल और सब के प्रति हितकारी हो। लेखक कहता है कि इन नदियों के प्रति लेखक के दिल में आदर और श्रद्धा के भाव थे , जैसे किसी सजीव व्यक्ति के लिए होते हैं। लेखक ने इन नदियों को उसकी माँ और दादी , मौसी और मामी की तरह देखा था , जिस तरह लेखक अपनी दादी ,  माँ , मौसी और मामी की गोद में खेला करता था , उसी की तरह लेखक इन नदियों की धारा में डुबकियाँ लगाया करता था। परंतु इस बार जब लेखक ने हिमालय पर्वत पर चढ़ाई की तो इन नदियाँ का लेखक के सामने जो रूप था वो कुछ और ही रूप था। लेखक हैरान था क्योंकि लेखक को यह समझ में नहीं आ रहा था कि हिमालय पर जो दुबली – पतली गंगा , यमुना , सतलुज नदियाँ हैं उनका आकार समतल मैदानों में उतरकर इतना विशाल कैसे हो जाती हैं ! लेखक कहता है कि हिमालय पर यदि इन नदियों को देखो तो ऐसा लगया है कि जैसे ये उछल – कूद कर रही हो , खिलखिलाकर लगातार हँस रही हों , ऐसा लगता है जैसे ये नदियाँ अपने मन के भावों को अपनी इन्हीं क्रियायों से प्रकट करती हों , परन्तु लेखक को यह समझ में नहीं आता कि इनका यह उल्लास , यह खुशी समतल मैदान में जाकर कहाँ गायब हो जाती है ? क्योंकि लेखक ने हिमालय में इन नदियों को बहुत ही सुंदर व् शांत देखा है और समतल मैदानों में बहुत ही भयंकर रूप में देखा है , इसी कारण लेखक हैरान है। लेखक कहता है कि किसी लड़की को जब लेखक देखता है या किसी कली पर जब लेखक का ध्यान अटक जाता है , तब भी इतना आश्चर्य नहीं होता , जितना कि इन बेटियों की बाल क्रीड़ा  देखकर होता है ! यहाँ लेखक इन नदियों को हिमालय की बेटियाँ कह कर सम्बोधित कर रहा है। क्योंकि ये नदियाँ हिमालय से उत्पन्न होती हैं।

पाठ – कहाँ ये भागी जा रही हैं ? वह कौन लक्ष्य है जिसने इन्हें बेचैन कर रखा है ? अपने महान पिता का विराट प्रेम पाकर भी अगर इनका हृदय अतृप्त ही है तो वह कौन होगा जो इनकी प्यास मिटा सकेगा ! बरफ जली नंगी पहाड़ियाँ , छोटे – छोटे पौधों से भरी घाटियाँ , बंधुर अधित्यकाएँ , सरसब्ज उपत्यकाएँ – ऐसा है इनका लीला निकेतन ! खेलते – खेलते जब ये जरा दूर निकल जाती हैं तो देवदार , चीड़ , सरो , चिनार , सफेदा , कैल के जंगलों में पहुँचकर शायद इन्हें बीती बातें याद करने का मौका मिल जाता होगा। कौन जाने , बुड्ढा हिमालय अपनी इन नटखट बेटियों के लिए कितना सिर धुनता होगा ! बड़ी – बड़ी चोटियों से जाकर पूछिए तो उत्तर में विराट मौन के सिवाय उनके पास और रखा ही क्या है ?

कठिन शब्द
बेचैन – व्याकुल , बेकल
विराट – अत्यंत विशाल
अतृप्त – असंतुष्ट , प्यासा
बंधुर – उतार – चढ़ाव वाली , ऊँची – नीची
अधित्यकाएँ – पहाड़ के ऊपर की समतल भूमि
सरसब्ज़ – हराभरा , लहलहाता हुआ
उपत्यकाएँ – घाटियाँ
लीला निकेतन – लीला करने का घर , खेलने या शरारतियाँ करने का घर
सिर धुनना – पश्चाताप या शोक के कारण बहुत अधिक दुख प्रकट करना
नटखट – शरारती

नोट – इस गद्यांश में लेखक हिमालय की गोद में नदियों के खेलने की तुलना नटखट बेटियों के पिता के आँगन में खेलने का अद्भुत वर्णन कर रहा है।

व्याख्या – लेखक नदियों के नटखट बच्चियों की तरह इधर – उधर खेलने का वर्णन करता हुआ कहता है कि लेखक को समझ में नहीं आ रहा है कि ये नदियाँ इधर – उधर खेलते हुए कहाँ को भागी जा रही हैं ? लेखक उनके लक्ष्य को पहचान नहीं पा रहा है , जिसने इन नदियों को इतना व्याकुल और परेशान कर रखा है कि वे रुकने का नाम ही नहीं ले रही हैं। ये सब देख कर लेखक के मन में एक सवाल उठता है कि अगर इन नदियों के मन अपने महान पिता यानि हिमालय का अत्यंत विशाल अर्थात जिसका कोई अंत नहीं है ऐसा प्यार पाकर भी इनका हृदय असंतुष्ट है , प्यासा है , तो वह कौन होगा जो इनकी प्यास मिटा सकेगा ! कहने का तात्पर्य यह है कि सभी जानते हैं कि पिता से बाद कर कोई भी बेटियों को प्यार नहीं कर सकता , तो यहाँ भी लेखक यही नहीं समझ पा रहा है कि जब हिमालय इन नदियों को इतना प्यार करता है तो ये नदियाँ किसकी तलाश में भटकती रहती हैं। लेखक हिमालय के परिवेश का वर्णन करता हुआ कहता है कि हिमालय की पहाड़ियाँ बिना बर्फ के नंगी प्रतीत होती है , हिमालय की घाटियाँ छोटे – छोटे पौधों से भरी पड़ी हैं , कही हिमालय की भूमि उतार – चढ़ाव वाली है तो कहीं पहाड़ के ऊपर की भूमि समतल है , कही पर हरी- भरी लहलहाती हुई घाटियाँ हैं – इन नदियों का खेलने का यह स्थान यानि हिमालय इस तरह का है। लेखक कहता है कि खेलते – खेलते अर्थात बहते हुए जब ये जरा दूर निकल जाती हैं , तो देवदार , चीड़ , सरो , चिनार , सफेदा , कैल के जंगलों में पहुँचकर शायद इन्हें बीती बातें याद करने का मौका मिल जाता होगा , ऐसा अनुमान लेखक इसलिए लगा रहा है क्योंकि इन जंगलों  नदियों की गति थोड़ी धीमी पड़ जाती है। लेखक कहता है कि ऐ कोई नहीं बता सकता कि बुड्ढा हिमालय अपनी इन शरारती बेटियों के लिए कितना दुःखी होता होगा होगा क्योंकि कोई भी बाप अपनी इतनी चंचल और शरारती बेटियाँ जो कभी रूकती नहीं , उनकी सुरक्षा लिए परेशान जरूर होता है। लेखक कहता है कि अगर आप उत्तर दिशा में जा कर बड़ी – बड़ी चोटियों से पूछेंगे तो आपको वहां केवल विशाल मौन के सिवाय कुछ नहीं मिलेगा क्योंकि लेखक के अनुसार अब जब नदियाँ हिमालय से बहकर आगे निकल गई हैं तो उस हिमालय के पास अब और रखा ही क्या है ? अर्थात हिमालय की शान यही नदियाँ हैं।

पाठ – सिंधु और ब्रह्मपुत्र – ये दो ऐसे नाम हैं जिनके सुनते ही रावी , सतलुज , व्यास , चनाब , झेलम , काबुल ( कुभा ) , कपिशा , गंगा , यमुना , सरयू , गंडक , कोसी आदि हिमालय की छोटी – बड़ी सभी बेटियाँ आँखों के सामने नाचने लगती हैं। वास्तव में सिंधु और ब्रह्मपुत्र स्वयं कुछ नहीं हैं। दयालु हिमालय के पिघले हुए दिल की एक – एक बूँद न जाने कब से इकठ्ठा हो – होकर इन दो महानदों के रूप में समुद्र की ओर प्रवाहित होती रही है। कितना सौभाग्यशाली है वह समुद्र जिसे पर्वतराज हिमालय की इन दो बेटियों का हाथ पकड़ने का श्रेय मिला !

कठिन शब्द
दयालु – दयावान् , कृपालु
महानद – महानदी
प्रवाहित – बहाया हुआ , बहता हुआ
पर्वतराज – पर्वतों का राजाश्रेय – कल्याण करने वाला , शुभदायक , उत्तम , श्रेष्ठ , बेहतर , अधिक बढ़कर

नोट – इस गद्यांश में लेखक समुद्र को भाग्यशाली बता रहा है क्योंकि सिंधु और ब्रह्मपुत्र नमक दो महानादियाँ उसमें जा कर मिल जाती हैं।

व्याख्या – लेखक कहता है कि सिंधु और ब्रह्मपुत्र ऐसी दो महानादियाँ हैं जिनका नाम सुनते ही रावी , सतलुज , व्यास , चनाब , झेलम , काबुल ( कुभा ) , कपिशा , गंगा , यमुना , सरयू , गंडक , कोसी आदि हिमालय की छोटी – बड़ी सभी बेटियाँ अर्थात नदियाँ आँखों के सामने नाचने लगती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि सिंधु और ब्रह्मपुत्र के बारे में सोचते ही हिमालय से निकलने वाली दूसरी छोटी – बड़ी नदियाँ भी याद आ जाती हैं। लेखक कहता है कि वास्तव में सिंधु और ब्रह्मपुत्र स्वयं कुछ भी नहीं हैं। क्योंकि सिंधु और ब्रह्मपुत्र अस्तित्व में तभी आए जब दयावान हिमालय के पिघले हुए दिल की एक – एक बूँद न जाने कब से इकठ्ठा हो – होकर इन दो महानदियों के रूप में इकठ्ठी हो कर समुद्र की ओर बहती न चली गई। लेखक के कहने का तात्पर्य यह है कि यदि हिमालय पर बर्फ न होती तो वह पिघल के पानी न बनती और इकठ्ठा हो कर वह इन महान नदियों की जगह न ले पाती। इसीलिए लेखक ने कहा है कि सिंधु और ब्रह्मपुत्र स्वयं में कुछ भी नहीं हैं , सब हिमालय की देन है। लेखक समुद्र को भी बहुत अधिक सौभाग्यशाली मानता है क्योंकि उसे पर्वतों का राजा हिमालय की इन दो बेटियों का हाथ पकड़ने का श्रेय मिला है अर्थात इन दो महानदियों का कल्याण करने यानि इन्हें इनके अंतिम पड़ाव पर पहुँचने के कारण समुद्र भाग्यशाली है।
 
पाठ – जिन्होंने मैदानों में ही इन नदियों को देखा होगा , उनके खयाल में शायद ही यह बात आ सके कि बूढ़े हिमालय की गोद में बच्चियाँ बनकर ये कैसे खेला करती हैं। माँ – बाप की गोद में नंग – धड़ंग होकर खेलने वाली इन बालिकाओं का रूप पहाड़ी आदमियों के लिए आकर्षक भले न हो , लेकिन मुझे तो ऐसा लुभावना प्रतीत हुआ वह रूप कि हिमालय को ससुर और समुद्र को उसका दामाद कहने में कुछ भी झिझक नहीं होती है।

कठिन शब्द
ख़याल – ध्यान , सोच – विचार , कल्पना
नंग – धड़ंग – जिसके शरीर पर एक भी वस्त्र न हो , निर्वस्त्र
आकर्षक – खींचनेवाला , प्रभावित या मोहित करने वाला
लुभावना – मनोहर , सुंदर
झिझक – संकोच , हिचक

नोट – इस गद्यांश में लेखक इन नदियों के पिता हिमालय को कह रहा है और समुद्र को उसका दामाद कह रहा है।

व्याख्या – लेखक कहता है कि जिन लोगों ने इन नदियों को केवल मैदानों में ही देखा है जिन्होंने पहाड़ों पर इनके दर्शन नहीं किए हैं उनकी तो कल्पना में भी शायद ही यह बात आई होगी कि बूढ़े हिमालय की गोद में बच्चियाँ बनकर ये नदियाँ कैसे खेला करती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक के अनुसार जिन लोगों ने इन नदियों को केवल मैदानों में देखा है उन्होंने इनका केवल उग्र व् भयानक रूप ही देखा है उनके अनुसार ये नदियाँ जहाँ भी जाती होंगी वहाँ केवल उग्र व् भयानक रूप में ही रहती होंगी परन्तु जब लेखक ने  इन नदियों को इनके जन्म स्थल यानि हिमालय पर देखा तो पाया कि वहाँ पर तो इन नदियों का स्वरूप बिलकुल अलग है। वहाँ पर तो ये नदियां ऐसे खेलती हैं जैसे बेटियाँ अपने पिता की गोद में खेलती हैं। लेखक आगे कहता है कि जिस तरह माँ – बाप की गोद में निर्वस्त्र होकर बिना किसी शर्म के बच्चा खेलता है , उसी प्रकार हिमालय की गोद में खेलने वाली इन बालिकाओं अर्थात नदियों का रूप किसी पहाड़ी आदमी के लिए मोहित करने वाला भले ही न हो , लेकिन लेखक को तो इन नदियों का पहाड़ का रूप इतना सुंदर प्रतीत हुआ कि हिमालय को ससुर और समुद्र को उसका दामाद कहने में भी लेखक को कुछ भी हिचक नहीं होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि पहाड़ के लोग हमेशा से इन नदियों के इस चंचल और नटखट रूप को देखते आए है इस कारण लेखक को लगता है कि किसी भी पहाड़ी व्यक्ति को इन नदियों का यह रूप उतना सुंदर नहीं लगा होगा जीता लेखक को। तभी तो लेखक ने इन नदियों को हिमालय की बेटियाँ और समुद्र में इन नदियों के मिल जाने के कारण समुद्र को हिमालय का दामाद कह दिया है।

पाठ – कालिदास के विरही यक्ष ने अपने मेघदूत से कहा था – वेत्रवती ( बेतवा ) नदी को प्रेम का प्रतिदान देते जाना , तुम्हारी वह प्रेयसी तुम्हें पाकर अवश्य ही प्रसन्न होगी। यह बात इन चंचल नदियों को देखकर मुझे अचानक याद आ गई और सोचा कि शायद उस महाकवि को भी नदियों का सचेतन रूपक पसंद था। दरअसल जो भी कोई नदियों को पहाड़ी घाटियों और समतल आँगनों के मैदानों में जुदा – जुदा शक्लों में देखेगा , वह इसी नतीजे पर पहुँचेगा।

कठिन शब्द
विरही – वियोगी
यक्ष – कुबेर के गणों और उनकी निधियों की रक्षा करनेवाली एक प्रकार की देवयोनि , कुबेर के सेवक
प्रतिदान – वापस करना , बदले में दूसरी वस्तु देना , विनिमय
प्रेयसी – प्रेमिका , पत्नी
सचेतन – विवेक युक्त प्राणी , चेतन
रूपक – रूप से युक्त , रूपी , मूर्ति , चिह्न , लक्षण
दरअसल – वस्तुतः , वास्तव में , असल में , हकीकत में
जुदा – जुदा  – अलग – अलग
नतीजा – फल , परिणाम , परीक्षाफल

नोट – इस गद्यांश में लेखक को इन नदियों को देख कर कालिदास की मेघदूत नामक कृति की याद आ गई।

व्याख्या – लेखक कहता है कि जिस तरह कालिदास की कृति मेघदूत में कुबेर का एक वियोगी सेवक जो अपनी प्रेमिका को बादलों के माध्यम से अपनी स्थिति का सन्देश भेज रहा था , उसने भी बादलों से कहा था कि वह उसका सन्देश ले जाते हुए वेत्रवती ( बेतवा ) नदी को उसके प्यार के बदले अपना प्यार देते जाना , तुम्हारी वह प्रेमिका तुम्हें पाकर अवश्य ही बहुत खुश होगी। क्योंकि वह भी तुमसे दूर रह कर उतनी ही दुखी होगी जितना मैं अपनी प्रेमिका से दूर रह कर। यहाँ लेखक को यह बात इन चंचल नदियों को देखकर अचानक याद आ गई और लेखक ने सोचा कि शायद उस महाकवि यानि कालिदास जी को भी नदियों का चेतन रूप पसंद आ गया होगा था। तभी उन्होंने भी इन नदियों का एक प्रेमिका के तौर पर मानवीकरण किया था। लेखक कहता है कि असल में जो भी व्यक्ति इन नदियों को पहाड़ी घाटियों में और समतल आँगनों के मैदानों में अलग – अलग शक्लों में देखेगा , वह इसी परिणाम पर पहुँचेगा। कहने का तात्पर्य यह है  कि जो भी व्यक्ति इन नदियों को पहाड़ी घाटियों में और समतल आँगनों के मैदानों में देखेगा वह इनकी मैदानों की भयानकता को बिलकुल भूल जाएगा और पहाड़ों में इनकी चंचलता और सुंदरता को देख कर इनकी प्रशंसा करने से अपने आप को रोक नहीं पाएगा।

पाठ – काका कालेलकर ने नदियों को लोकमाता कहा है। किन्तु माता बनने से पहले यदि हम इन्हें बेटियों के रूप में देख लें तो क्या हर्ज है ? और थोड़ा आगे चलिए… इन्हीं में अगर हम प्रेयसी की भावना करें तो कैसा रहेगा ? ममता का एक और भी धागा है , जिसे हम इनके साथ जोड़ सकते हैं। बहन का स्थान कितने कवियों ने इन नदियों को दिया है। एक दिन मेरी भी ऐसी भावना हुई थी। थो – लिङ् ( तिब्बत ) की बात है। मन उचट गया था , तबीयत ढीली थी। सतलज के किनारे जाकर बैठ गया। दोपहर का समय था। पैर लटका दिए पानी में। थोड़ी ही देर में उस प्रगतिशील जल ने असर डाला। तन और मन ताज़ा हो गया तो लगा मैं गुनगुनाने –
जय हो सतलज बहन तुम्हारी
लीला अचरज बहन तुम्हारी
हुआ मुदित मन हटा खुमारी
जाऊँ मैं तुम पर बलिहारी
तुम बेटी यह बाप हिमालय
चिंतित पर , चुपचाप हिमालय
प्रकृति नटी के चित्रित पट पर
अनुपम अद्भुत छाप हिमालय
जय हो सतलज बहन तुम्हारी !

कठिन शब्द
लोकमाता – सारे संसार की माता
हर्ज – नुक़सान , हानि , बाधा , रुकावट
उचट – ऊबना , विरक्ति ( मन का न लगना ) , ऊबने की क्रिया , विरक्त
प्रगतिशील – प्रगति करने वाला , आगे बढ़ने वाला
अचरज – आश्चर्य , अनोखा
मुदित – प्रसन्न
खुमारी – सुस्ती , आलसपन
बलिहारी – क़ुर्बान जाना , निछावर होना
नटी – नट जाति की स्त्री , नाटक की अभिनेत्री
पट – वस्त्र , कपड़ा ,पोशाक
अनुपम – उपमा रहित , सर्वोत्तम , बेजोड़

नोट – इस गद्यांश में लेखक सतलुज नदी के साथ अपने बिताए हुए सुखद अनुभवों को हमारे साथ सांझा कर रहे हैं।

व्याख्या – लेखक कहता है कि काका कालेलकर जी ने भी नदियों को सारे संसार की माता कहा है। । क्योंकि वह सारे संसार का समान भाव से पोषण करती है। परन्तु लेखक कहता है कि माता बनने से पहले अगर हम इन नदियों को बेटियों के रूप में देख लें तो उसमे क्या नुक़सान है , क्योंकि लेखक के अनुसार माता से पहले बेटी बुलाने में किसी प्रकार की दिक्कत नहीं होनी चाहिए और लेखक यह भी कहता है कि बेटी के बाद आगे  चल कर इन्हीं में अगर हम किसी की प्रेमिका का वर्णन करे या प्रमिका की भावना को इन नदियों में देखें तो भी किसी को कोई हानि नहीं होनी चाहिए। लेखक यह भी कहता है कि माता के आलावा ममता का एक और भी धागा है , जिसे हम इन नदियों के साथ जोड़ सकते हैं। वह घागा है बहन का। लेखक के अनुसार न जाने कितने कवियों ने इन नदियों को माता , प्रेमिका के आलावा बहन का भी स्थान दिया है। लेखक अपने एक अनुभव को हमें बताते हुए कहता है कि एक दिन लेखक को भी नदी के लिए बहन की भावना उजागर हुई थी। लेखक बताता है कि यह बात थो – लिङ्  , जो तिब्बत में है वहाँ की है। उस दिन लेखक का मन किसी भी काम में नहीं लग रहा था , लेखक की तबीयत भी ठीक नहीं लग रही थी। लेखक सतलुज नदी के किनारे जाकर बैठ गया। उस समय दोपहर का समय था। लेखक ने अपने पैर सतलुज नदी के पानी में लटका दिए। लेखक कहता है कि थोड़ी ही देर में उस लगातार आगे बढ़ने वाले जल ने अपना असर डालना शुरू कर दिया। थोड़ी ही देर में लेखक को लगा कि उसका तन और मन ताज़ा हो गया है। इसी की ख़ुशी में लेखक एक गाना गुनगुनाने लगा –
सतलुज बहन तुम्हारी जय हो , सतलुज बहन तुम्हारी लीला बहुत अनोखी है क्योंकि तुम सारी पीड़ाओं का नाश करने वाली हो। तुम्हें देख कर मन प्रसन्न हो जाता है और सारा आलस दूर भाग जाता है। तुम पर न्योछावर हो जाने को मन करता है। वह हिमालय तुम्हारा पिता है और तुम उसकी बेटी हो क्योंकि तुम्हारा उद्गम हिमालय से हुआ है। हिमालय तुम्हारे लिए उसी तरह चिंतित है जैसे कोई भी अन्य पिता अपनी बेटी के लिए  होता है परन्तु वह हिमालय चुप – चाप खड़ा है। लेखक प्रकृति को एक अभिनेत्री बताता है और सतलुज नदी को उस अभिनेत्री के वस्त्र पर छापे हुए चित्र के समान बताता है। वह हिमालय अनोखा और सबसे उत्तम है , उसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता और उस बेजोड़ हिमालय से उत्पन्न बहन सतलुज तुम्हारी जय हो।


 

हिमालय की बेटियाँ – प्रश्न – अभ्यास

प्रश्न 1 – नदियों को माँ मानने की परंपरा हमारे यहाँ काफ़ी पुरानी है। लेकिन लेखक नागार्जुन उन्हें और किन रूपों में देखते हैं ?
उत्तर – नदियों को माँ स्वरूप में मानाने की परंपरा तो हमारे यहाँ काफ़ी पुरानी है। लेखक भी नदियों को माँ के स्वरूप में अवश्य मानता है लेकिन लेखक नदियों को माँ मानने की परपंरा से पहले इन नदियों को स्त्री के सभी रूपों में देखता है , जिसमें लेखक माँ से पहले नदियों को वो बेटी के समान बताता है। इसीलिए तो लेखक नदियों को हिमालय की बेटी कहता है। कभी लेखक नदियों की तुलना प्रेयसी से करता है , तभी तो लेखक ने वर्णन किया है कि जिस तरह से एक प्रेयसी अपने प्रियतम से मिलने के लिए बेताब होती है , उसी तरह ये नदियाँ भी सागर से मिलने को आतुर होती हैं , कभी लेखक को ये नदियाँ ममता के दूसरे रूप यानि बहन के समान प्रतीत होती है , जिसके सम्मान में वो हमेशा हाथ जोड़े शीश झुकाए खड़ा रहता है। क्योंकि लेखक के निजी अनुभव में लेखक ने सतलुज नदी को एक बहन की तरह उसकी सारी थकान को दूर करते पाया है।

प्रश्न 2 – सिंधु और ब्रह्मपुत्र की क्या विशेषताएँ बताई गई हैं ?
उत्तर – सिंधु और ब्रह्मपुत्र हिमालय से निकलने वाली प्रमुख और बड़ी महानदियाँ हैं। इन दो महानदियों के बीच से अन्य कई छोटी – बड़ी नदियों का संगम होता है। ये दोनों महानदियाँ दयालु हिमालय के पिघले दिल की एक – एक बूंद इकट्ठा होकर बनी हैं यानि हिमालय पर स्थित बर्फ के पिघलने से इन नदियों का निर्माण हुआ है। ये नदियाँ सुंदर एवं लुभावनी लगती हैं। ये दोनों ही पौराणिक नदियों के रूप में विशेष पूज्यनीय व महत्वपूर्ण हैं।

प्रश्न 3 – काका कालेलकर ने नदियों को लोकमाता क्यों कहा है ?
उत्तर – नदियों को लोकमाता कहने के पीछे काका कालेलकर का नदियों के प्रति सम्मान है। हम सभी जानते हैं कि जल ही जीवन है। ये नदियाँ हमें जल प्रदान कर जीवनदान देती हैं। ये नदियाँ हमारा आदि काल से ही माँ की भांति भरण – पोषण करती आ रही है। ये नदियाँ लोगों के लिए कल्याणी एवं माता के समान पवित्र हैं। एक ओर तो ये नदियाँ हमें पीने के लिए पानी देती है , तो दूसरी तरफ इसके द्वारा लाई गई ऊपजाऊ मिट्टी खेती के लिए बहुत उपयोगी होती है। ये मछली पालन में भी बहुत उपयोगी है अर्थात्‌ ये नदियाँ सदियों से हमारी जीविका का साधन रही है। हिन्दू धर्म में तो ये नदियाँ पौराणिक आधार पर भी विशेष पूजनीय है। क्योंकि हिन्दु धर्म में तो जीवन की अन्तिम यात्रा तब तक पूर्ण नहीं होती जब तक अस्थियों को इनमें न बहाया जाए। सही मायने में मनुष्य के लिए ही नहीं, बल्कि पशु – पक्षी , पेड़ – पौधों आदि के लिए भी नदियाँ बहुत जरूरी है। इस प्रकार नदियाँ हम सभी प्राणियों के लिए माता के समान है जो सबका कल्याण ही करती है। यही कारण है कि काका कालेलकर ने उन्हें लोकमाता कहा है।

प्रश्न 4 – हिमालय की यात्रा में लेखक ने किन – किन की प्रशंसा की है ?
उत्तर – हिमालय की यात्रा में लेखक ने हिमालय की अनुपम छटां की , हिमालय से निकले वाली नदियों की , बरफ़ से ढकी पहाड़ियों की सुदंरता की  , हरी – भरी घाटियों की , देवदार , चीड़ , सरो , चिनार , सफैदा , कैल से भरे जंगलों की तथा महासागरों की बहुत ही अद्भुत प्रशंसा की है।


 

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